शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 44)


अपने उपदेशों को चालू रखते हुये गुरुदेव ने कहा:

🔵 तिल तिल कर मैं तुम्हारे व्यक्तित्व पर अधिकार करूँगा। पग पग चलकर तुम मेरे निकटतर आते जाओगे क्योंकि मैं ही तुम्हारा प्रभु और ईश्वर हूँ। तथा मैं तुम्हारे और मेरे मध्य इन्द्रियभोग रूपी देवताओं या तत्संबंधी विचारों को सहन नहीं करूँगा। वत्स! पर्दो को चीर डालो।

🔴 तब मैं जान पाया कि गुरुदेव ने ही मेरा दायित्व लें लिया है। मेरे मस्तक पर से एक बहुत बड़ा बोझ उतर गया। उन्होंने पुन:कहा:-

🔵 इन्द्रियातीत अनुभूतियाँ अच्छी हैं, किन्तु चरित्र द्वारा उत्पन्न होने वाली चेतना इन्द्रियातीत अनुभूति से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं। चरित्र ही सब कुछ हैं तथा चरित्र त्याग से ही बनता है। दुःख तथा आघात हमारी आत्मा की शक्ति को प्रगट कर हमारे चरित्र का निर्माण करते हैं। उनका स्वागत करो। ये जिन दैवी अवसरों का निर्माण करते हैं उन्हें देखो।

🔴 जैसी की -कहावत है, हीरा हीरे को काटता है- उसी प्रकार दुःख ही पाशविक प्रवृत्तियों को जीतता है। धन्य है दुःख! महाभक्तिमति कुन्ती ने प्रभु से प्रार्थना की थी, कि उसके भाग में सदा दु:ख ही पड़ते रहें जिससे कि वह सदैव प्रभु का स्मरण करती रह सके। वत्स! उसकी प्रार्थना ही सच्ची प्रर्थना थी तुम भी उसी प्रकार प्रार्थना करो। यदि तुम मुझसे प्रेम करते हो तो यह जान लो कि दुःख तुम्हें मेरे ओर अधिक निकट लायेगा तथा तुम्हारा श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रगट हो उठेगा।
 
🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 43)

🔵 सभी प्रवृत्तियों में संन्यास की प्रवृत्ति सर्वश्रेष्ठ है। स्वयं को सभी बंधनों से मुक्त करके तुम उन सबकी- सहायता करते हो जो तुम्हें जानते हैं या जो तुम्हारे- जीवन में आयेंगे। आत्म- साक्षात्कार के द्वारा संन्यासी सभी कर्तव्यों को पूर्ण कर लेता है। उसके आत्मत्याग से दूसरे भी  मुक्त हो जाते हैं। अपने हृदय और कर्मों में संन्यासी बनो। किसी व्यक्ति या वस्तु पर निर्भर न रहो। दूसरों को उनकी स्वतंत्रता दो तथा तुम स्वयं भी मुक्त रहो। अपनी असुविधाओं के कारण निराश न होओ क्योंकि वही असुविधायें यदि आध्यात्मिक दिशा की ओर मोड़ दी जाएँ तो सुविधाओं में परिवर्तित हो जायेंगी।

🔴 अपनी भावनाओं का अध्यात्मीकरण करो। और जब तुम्हारे स्वभाव में कोई दुर्भावना या स्नायविक- उत्तेजना न रहेगी तब तुम अपने आधार पर खड़े हो सकोगे तथा अनेकों के लिए ज्योति और सहायक होओगे, भले ही तुमने उन लोगों को देखा भी न हो। सिंह के समान बनो, तब सभी दुर्बलताएँ तुमसे दूर हो जायेंगी। ईश्वर बनने की इच्छा करो तब तुम्हारी देहात्मबुद्धि दू रहो जायेगी। तुम शुद्धात्मा हो जाओगे। प्रकृति के भव्य दृश्यों पर्वतों, विशाल समुद्रों तथा चमकते सूर्य से शिक्षा ग्रहण करो। शक्तिशाली व्यक्तित्व से एकत्व बोध करो।

🔵 वत्स! -स्वयं का निर्माण करना एक लम्बी तथा कष्टप्रद प्रक्रिया है। तुम उन्नत हो सको इसके पूर्व यह आवश्यक है कि तुम स्वयं के प्रति अत्यन्त निष्कपट बनो। अपने प्रति छूट या दया के सभी पर्दों को लगातार दु:ख तथा अपने क्षुद्र अंह की सीमा के अनुभव द्वारा चीर डालना होगा। ईश्वर के साथ अज्ञान तथा तुम्हारी आत्मा के साथ छद्म नहीं हो सकता। सूक्ष्म तथा सर्वश्रेष्ठ अवश्य प्रगट होगा। अत: दुःख के प्रत्येक वाहक के प्रति कृतज्ञ रहो जो कि एक साथ तुम्हें और तुम्हारी दुर्बलता को तुम्हारे सामने प्रगट कर देता है। कहो, दुःख तुम धन्य हो!

🔴 अल्पविद्या ने तुम्हें बुद्धिमान, अहंवादी बना दिया है। महत् विद्या तुम्हें आध्यात्मिक बना देगी। स्मरण रखो मन आत्मा नहीं है। अनुभवों मन को कुचल डालने दो, जैसा कि वह करेगा। यह उसे शुद्ध करेगा यही मुख्य बात है। क्रमश: आत्मा का सूर्य अज्ञान के काले बादलों को भेद देगा और तब लक्ष्य तुम्हारे सामने स्पष्ट हो जायेगा। तुम उसकी ज्योति में मिल जाओगे।
 
🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

बुधवार, 28 सितंबर 2016

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 42)

🔵 ध्यान की घड़ियों में मुझे सम्बोधित करनेवाली वाणी मैंने सुनी:- हृदय में कटुता न रखो। स्वयं के साथ निष्कपट बनो। स्वयं के संबंध में सभी भ्राँत धारणाओं को उखाड़ फेंको। सभी मिथ्यासक्तियों को निर्मूल कर दो। शरीर के स्थान पर चैतन्य को देखो। दूसरे तुम्हें जैसा देखते हैं स्वयं को उसी प्रकार देखो। सर्वोपरि स्वयं पर मिथ्यानुकम्पा न करो। दृढ़ बनो। यदि तुममें भूले हैं तो वे एक सिंह की भूलों के समान हों।

🔴 विधि का विधान शक्तिशाली है। तुम्हारी स्वयं की इच्छा के अनुपात में वह तुम्हारे हृदय का मर्दन करेगा तथा व्यक्तित्व को झकझोर देगा। किन्तु वह तुम्हें सच्चे आत्मज्ञान की ओर भी ले जायेगा। अत: अपने विश्वास को विधान पर आधारित करो। क्रिया से प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। अत: तुम्हारी क्रियाओं को हृदय की पवित्रता तथा विचारों से आने दो। तब तुम शांति का अनुभव करोगे। भावना के नाम पर प्राय: बहुत से दोष ही ढके जाते है। उनकी जड़ों में स्थूल शारीरिक मूल प्रवृत्तियाँ ही क्रियाशील होती हैं। उन्हें सोने की चादर से ढक देने से कोई अंतर नहीं पड़ता।

🔵 व्यक्ति में विशुद्ध शारीरिक संवेगों को उच्च भावों के आदर्श के रूप में प्रस्तुत करने की प्रवृति होती है। किन्तु विवेक इस छद्म को चीर देता है तथा यह सिखाता है कि मिथ्या आसक्ति सदैव आत्मकेन्द्रित, निरंकुश, क्रूर और विवेकहीन होती है। वह स्वेच्छाचारी, अंधा, तथा शरीरासक्त होता है। इसके विपरीत विशुद्ध प्रेम आत्मा से संबंधित होता है। प्रेमास्पद को असीम स्वतंत्रता देता है तथा आत्मत्याग और विवेक से परिपूर्ण होता है। अत: अपने हृदय से आसक्ति और अनुचित भावों को निकाल फेंको और एक बार यह कर लेने पर जैसे तुम अपनी वमन की हुई वस्तु को घृणास्पद होने के कारण पुन: नहीं देखना चाहते उसी प्रकार उन आसक्तियों के विषय में न सोचो। वह बंधन है, भयानक बंधन। इसे स्मरण रखो तथा मुक्ति के लक्ष्य की ओर वीरतापूर्वक बढ़ चलो।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

मंगलवार, 27 सितंबर 2016

👉 Samadhi Ke Sopan समाधि के सोपान (भाग 41)

🔵 सहिष्णुता बढ़ाओ। तुम पूरी तरह अनुत्तरदायी तथा आक्रमक हो। इसके पूर्व कि तुम दूसरों के दोष देखो तथा निर्ममता पूर्वक उनकी आलोचना करो, अपनी भंयकर भूलों को देखो। यदि तुम अपनी जीभ पर लगाम नहीं लगा सकते तो उसे तुम्हारे ही विरुद्ध बकने दो, दूसरों  के विरुद्ध नहीं। पहले अपना घर सम्हालो। ये शिक्षायें आत्मसाक्षात्कार के सर्वोच्च दर्शन के अनुकूल ही हैं। क्योंकि चरित्र के बिना आत्म -साक्षात्कार हो ही नहीं सकता। नम्रता, निरहंकारिता, सज्जनता, सहनशीलता, दूसरों के दोष न देखना, ये सब गुण आत्मसाक्षात्कार के व्यवहारिक तथ्य हैं। दूसरे तुम्हारे साथ क्या करते हैं इस ओर ध्यान न दो। अपने आत्मविकास में लगे रहो। जब तुमने यह सीख लिया तब एक बहुत बड़े रहस्य को जान लिया।

🔴 अहंकार ही सबके मूल में है। अहंकार को उखाड़ फेंको। वासना के संबंध में सतत सावधान रही। जब तक शरीर चिता पर न चढ़ जाय तब तक पूर्णत: इन्द्रियजित होने का निश्चय नहीं हो सकता। यदि तुम इसी जीवन में मुक्त होना चाहते हो तो अपने हृदय को श्मशान बना कर अपनी सारी इच्छाओं को उसमें भस्म कर दो। अंध आज्ञाकारिता सीखो। तुम एक बच्चे के अतिरिक्त और क्या हो ? क्या हो वास्तविक ज्ञान है ? जैसे बच्चे को ले जाया जाता है उसी प्रकार तुम भी स्वयं को ले जाया जाने दो। स्वयं को मेरी इच्छा के प्रति पूर्णत: समर्पित कर दो। क्या मैं प्रेम में तुम्हारी माँ के समान नहीं हूँ ? और फिर मैं तुम्हारे पिता के समान भी हूँ क्योंकि मैं तुम्हें दण्ड भी देता हूँ। यदि तुम गुरु होना चाहते हो तो सर्वप्रथम शिष्य होना सीखो। तुम्हें अनुशासन की आवश्यकता है।

🔵 पहले मेरे कार्य के लिए तुम्हारा उत्साह बचकाना तथा उत्तेजना पूर्ण था। अब वह सच्ची अन्तर्दृष्टि से युक्त होता जा रहा है। बच्चा विचार-  हीन होता है, युवक आकांक्षी होता है, प्रौढ़ व्यक्ति ही उपादेय होता है। मैं तुम्हें आध्यात्मिक अर्थ में प्रौढ़ बनाना चाहता हूँ। मैं तुम्हें गंभीर, दायित्वपूर्ण, निष्ठावान, सुअनुशासित तथा चरित्र की दृढ़ता और निष्ठा के द्वारा मेरे प्रति अपने प्रेम और निष्ठा को प्रगट करने वाला बनाऊँगा। बढ़ो! मेरा आशीर्वाद तथा प्रेम सदैव तुम्हारे साथ है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

👉 Samadhi Ke Sopan समाधि के सोपान (भाग 40)


मेरी आत्मा में श्रीगुरुदेव की वाणी ने कहा -

🔵 वत्स! स्वयं तुम्हारे विकास के इतिहास से अधिक रुचिकर और कुछ नहीं है। व्यक्तित्व का विकास ही जीवन को रुचिपूर्ण बनाता है। साक्षी बनो। एक ओर खड़े हो जाओ तथा अपने व्यक्तित्व का इस प्रकार निरीक्षण करो मानों वह तुमसे भिन्न कोई वस्तु हो। अपने स्वेच्छाचारी विचारों तथा चंचल इच्छाओं का निरीक्षण करो। गत कल की अनुभूतियों का कितना क्षणिक महत्व है। आगामी दस वर्षों में भी क्या आना जाना है?

🔴 इस बात का विचार कर जीवन में अविचल रहो। जो कुछ भी सांसारिक है उसका कुछ भी महत्व नहीं है। वह चला जायेगा। इसलिये आत्मिक वस्तु में ही समय लगाओ। अनासक्त बनो। ध्यान में डूब जाओ। तुम्हारी वृत्ति साधुओं की सी हो। किसी भी अनुभव या विचार का महत्व चरित्र निर्माण की उसकी प्रवृत्ति पर ही निर्भर करता है। इस बातका अनुभव कर जीवन का एक नया दृष्टिकोण प्राप्त करो।

🔵 संसारी लोग क्षणभंगुर मिट्टी के लोंदे, अपने इस शरीर के लिए कितना समय देते है। उनका मन इन क्षणभंगुर वस्तुओं के लिए कितना चिन्तित रहता है। वे लोग इन नाशवान वस्तुओं के साथ ही नष्ट हो जाते हैं। वे सब माया से ग्रस्त हैं। अत: संसारी वस्तुओं की चिन्ता में न पड़ो। संसारी लोगों का संग त्याग दो। मन कितना सूक्ष्म है। वह सदैव भौतिक वस्तुओं को आदर्शान्वित करने की ही चेष्टा करता है। यही माया का जादू है। ऊपर से दिखने वाले तड़क भड़क तथा मिथ्या सौंदर्य से मोहित न होओ।

🔴 अन्तर्दृष्टि न खोओ। अनादिकाल से यह संघर्ष चल रहा है। तुम्हारी आत्मा के प्रति ईश्वर का जो प्रेम है उसकी तुलना में संसारासक्ति क्या है? आसक्ति शरीर के प्रति होती है इसलिए बंधन है। किन्तु तुम मुझे अपनी आत्मा से प्रेम करते हो वही अंतर है। वत्स! संसार को भयानकता तथा मिथ्यात्व का बोध करने के लिए तुम कठिन पीड़ा से होकर निकलो, यह दोष नहीं है। तुम जितना अधिक कष्ट पाते हो उतने ही मेरे निकट आते हो।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

सोमवार, 26 सितंबर 2016

👉 Samadhi Ke Sopan समाधि के सोपान (भाग 39)


🔵 संसार मृत्यु से परिपूर्ण है। कर्म का नियम अटल है। सावधान हो जाओ। कहीं ऐसा न हो कि अशुभ कर्मों के मध्य तुम्हारी मृत्यु हो जाय! सावधान रहो, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी इन्द्रियलोलुपता तुम्हें और अधिक बंधन तथा कठिन दु:खों को उत्पन्न करने वाले कर्मजाल में फँसा दे! वत्स! एक बार अमृत का स्वाद चख लेने पर यह कैसे संभव है कि तुम असार भूसी में रस लो।

🔴 कभी आतंकित न होओ। भगवान की दया पाप के पहाड़ों से भी अधिक बड़ी है। जब तक तुम विश्वास करते हो तब तक आशा है। किन्तु यह पथ लगभग अनन्त लम्बा है। मानव व्यक्तित्व को ईश्वरचैतन्य में परिवर्तित करने में, समस्त दोषों को निर्मूल करने में कितने जीवन लगेंगे इस 'पर विचार करो। तब क्या तुम यह नहीं समझ सकते कि तुम्हें अपने कल्याण के लिए कितना परिश्रम करना पड़ेगा ? और यदि तुम मुझसे प्रेम करते हो तो क्या कम से कम मेरे लिए ही तुम लक्ष्य तक पहुँचने की चेष्टा नहीं करोगे ? तुम वीरता पूर्वक संघर्ष कर सको तथा पूर्ण हो जाओ इसके लिए मैंने इतनी लम्बी प्रतीक्षा की है। तुम्हारी साधना के लिए मैं व्याकुल रहा हूँ। मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ रहूँगा। मैं सदैव तुमसे प्रेम करूँगा किन्तु तुम्हें आलस्य को दूर करना होगा। नैतिक आलस्य से बाहर निकलो। मनुष्य बनो।

🔵 मेरे प्रति तुम्हारा प्रेम तुम्हारे जीवन का ध्रुवतारा हैं। यह तुम्हारे अस्तित्व का आधार है औरे इसका कारण भी है। क्योंकि मेरे प्रति तुम्हारे प्रेम से ही तुम्हारा उद्धार होगा। गुरु के प्रति भक्ति ही एक आवश्यक वस्तु है। वह तुम्हारी सभी कठिनाइयों को दूर कर देगी। अत: प्रसन्न रही। जान रखो मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ। मेरा इर्श्वरानुराग, मेरी अनुभूति, मेरे पास जो कुछ भी है वह सब तुम्हें दे दिया जायेगा क्योंकि यदि आवश्यक हो तो शिष्य के कल्याण के लिए स्वयं को दे देने में ही गुरु का आनन्द है।

🔴 एक बार जब मैंने तुम्हें स्वीकार कर लिया हैं तब यह संबंध अनन्त काल के लिए हो गया है। जाओ और शांति से रहो। यह स्मरण रखो कि यदि तुम स्वयं के प्रति निष्ठावान हो तो तुम मेरी महिमा को बढ़ा रहे हो, यहाँ तक कि मेरे दर्शन का भी विस्तार कर रहे हो।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

मंगलवार, 20 सितंबर 2016

👉 तुम बीच में खड़े हो

🔴 तुम परमात्मा की आधी शक्ति के मध्य में खड़े हो, तुमसे ऊँचे देव, सिद्ध और अवतार हैं तथा नीचे पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि हैं। ऊपर वाले केवल मात्र सुख ही भोग रहे हैं और नीचे वाले दु:ख ही भोग रहे हैं। तुम मनुष्य ही ऐसे हो, जो सुख और दु:ख दोनों एक साथ भोगते हो। यदि तुम चाहो तो नीचे पशु-पक्षी भी हो सकते हो और चाहो तो देव, सिद्ध, अवतार भी हो सकते हो।

🔵 यदि तुम्हें नीचे जाना है तो खाओ, पीओ और मौज करो। तुम्हें तो सुख के लिए धन चाहिए, वह चाहे न्याय से मिले या अन्याय से। नीचे आने में बाधा या कष्ट नहीं है। पहाड़ से नीचे उतरने में देर नहीं लगती। इसी तरह यदि तुम अपने भाग्य को नष्ट करना चाहो, तो कर सकते हो, परंतु पीछे तुम्हें पश्चात्ताप करना पड़ेगा। यदि तुम ऊपर जाना चाहो तो तुम्हें सत्य-मिथ्या, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म के बड़े-बड़े विचार करने पडेंगे। पर्वत के ऊपर चढ़ने में कठिनाई तो है ही, परन्तु कठिनाई का फल सुख भी मिलेगा। यदि तुम कठिनाई के दु:ख को सिर पर ले लोगे, तो परम सुखी हो जाओगे।

🔴 दोनों बातें तुम्हारे लिए सही हैं, क्योंकि तुम बीच में खड़े हो, मध्य में रहने वाले आगे-पीछे अच्छी तरह देख सकते हैं, तुम ही अपने भाग्यविधाता हो, चाहे जो कर सकते हो, तुम्हारे लिए उपयुक्त और अनुकूल समय यही है, समय चूक जाने पर पश्चात्ताप ही हाथ रह जाता है।

🌹 -अखण्ड ज्योति -नवम्बर 1943

👉 You are standing in the Middle

🔵 You are standing in the middle of the cosmic layer of God’s creation. At the higher realms are the great saints, Siddhas, angels and incarnations of divine powers. Beneath your level of existence are the animals, birds, insects and lower organisms. Those above are enjoying in the divine paradise and those below are suffering in various forms. You, the human being are the only one allowed to share both the joys and the pains. You are also the only one privileged with the freedom of action to transform your fate accordingly. It’s up to you whether you
want to move your life-course downwards or upwards and destine its devolution to the lower, beastly forms or evolution to beatified, illumined states…

🔴 If you chose to decline then don’t care for anything. Just eat, rest and live for sensual joys. Earn these joys by whatever means – ethical or unethical. It’s really easy to fall down. You can spend all your stock of good omen for petty pleasures or drain it out by adopting heinous actions. But then there will be nothing but repenting and darkness…

🔵 If you want to rise high on the celestial scale of evolution of your life, you will have to distinguish between the right and the wrong, truth and false, fair and unfair, and choose the righteous path of wisdom and ideals. Climbing up on the higher mountains is harder, but then, your endeavors will lead to greater achievements in the end. If you bear hardships for adoption of high ideals, you are indeed elevating your life towards brighter ends.

🔴 You are the architect of your future destiny. Life is momentary. So don’t miss any instant of this precious opportunity. You are in the middle. You can see both ways upwards and downwards and select the future course of your life prudently.

🌹 -Akhand Jyoti, Nov. 1943

शनिवार, 17 सितंबर 2016

👉 प्रार्थना कब सफल होगी

🔴 ईश्वर से की गई प्रार्थना का तभी उत्तर मिलता है, जब हम अपनी शक्तियों को काम में लाएँ। आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता और अज्ञान ये सब अवगुण यदि मिल जाएँ, तो मनुष्य की दशा वह हो जाती है जैसे किसी कागज के थैले के अंदर तेजाब भर दिया जाए। ऐसा थैला अधिक समय तक न ठर सकेगा और बहुत जल्द गलकर नष्ट हो जाएगा।

🔵  ईश्वरीय निमय बुद्धिमान माली के समान हैं जो निकम्मे घास-कूड़े को उखाड़ कर फेंक देता है और योग्य पौधों की भरपूर साज-सॅभाल रखकर उन्हें उन्नत बनाता है। जिसके खेत में निकम्मे खर-पतवार उग पड़ें, उसमें अन्न की फसल मारी जाएगी। ऐसे किसान की कौन प्रशंसा करेगा, जो अपने खेत की दुर्दशा करता है। निश्चय ही ईश्वरीय नियम निकम्मे पदार्थों की गंदगी हटाते रहते हैं, ताकि सृष्टि का सौंदर्य नष्ट न होने पाए।

🔴 प्रार्थना का सच्चा उत्तर पाने का सबसे प्रथम मार्ग आत्म-विश्वास है। कर्त्तव्यपरायण द्वारा ही सच्ची प्रार्थना होनी संभव है। ईश्वर नामक सर्वव्यापी सत्ता में प्रवेश करने का द्वार आत्मा में होकर है। वही इस खाई का पुल है। अविश्वासी और आत्मघाती लोग निश्चय ही विपत्ति में पड़े रहते हैं और सही मार्ग की तलाश करते फिरते हैं। आत्मतिरस्कार करने वालों को ईश्वर के यहाँ भी तिरस्कार मिलता है और उनकी प्रार्थना भी निष्फल चली जाती है।

🌹 -अखण्ड ज्योति -मार्च 1943

👉 When is a Prayer Granted?

🔵 Our prayers deserve to be heard by the Almighty only when we take care of making use of the potentials he has already bestowed upon us. Accumulation of negative tendencies of lethargy, dullness, escapism from duties, ignorance, etc makes one hazardous – for his own life – like a balloon full of concentrated acid, which is most likely to explode anytime or ruin due to the acidic burning.

🔴 The rules in the system of God work like a vigilant gardener who uproots the useless and harmful wild growth and carefully nurses the saplings of the useful vegetation. If a field is not ploughed and is full of useless grass or shrubs etc, how can it yield a crop (even if the soil is fertile)? Who will praise a farmer, who lets his field be destroyed without bothering to clean it? The system of God certainly can’t allow its field of Nature to be left unguarded. The rules of the Omnipresent are such that the vices, the evils, the futile, get eliminated continuously so that the perfection and eternal beauty of HIS creation remains unperturbed. If you expect your calls to be heard, you will also have to constantly strive for self-refinement.

🔵 The best way to get the response to your prayers is to awaken your selfconfidence and follow the path of duties. Then alone your inner self will awake. The opening to the path to the Light Divine lies deep within the realm of soul and enlightened inner self provides the only bridge to reach this sublime source. Those who don’t have faith in the dignity of their own souls, who keep ignoring the inner voice and hunt in the external world to quench their wishes are lost in the smog of passions and confusions and invite adversities for themselves. Those
who scorn their own (inner) selves are also rebuked at God’s end and their prayers evaporate in the void…

🌹 -Akhand Jyoti, March 1943

बुधवार, 14 सितंबर 2016

👉 Samadhi Ke Sopan 👉 समाधि के सोपान (भाग 38)


ध्यान की शांति में उस वाणी ने कहा: -

🔵 संसार के बंधन भयंकर हैं। माया के जाल से छूटना कठिन है। जीवन हमें सिखाता है, सच्चा जीवन जीने के लिए हमें जीवन के पार जला होगा। मृत्यु पर विजय प्राप्त करनी होगी। यही सबसे महत् कार्य है, तथा इस विजय का पथ है, उन शारीरिक वृत्तियों को जीतना जो हमें मृत्यु की ओर ले जाती हैं वत्स! मैं तुमसे गंभीरता पूर्वक कहता हूँ कि जो कुछ भी वस्तुएँ तुम्हें प्रलोभित करने के लिए आती हैं उनके प्रति सजगता पूर्वक सावधान रहो। आध्यात्मिक उन्नति का एक मात्र पथ है प्रलोभनों का पूर्वाभास पा लेना। अपने मन पर कड़ी नजर रखो। जो श्रेष्ठ और महान् हैं सदा उसी में व्यस्त रहो। इस प्रकार धीरे धीरे तुम स्वयं को मुक्त कर लोगे।

🔴 जब प्रलोभन आता हैं तब मन को यह समझने का समय मिलने के पूर्व ही कि क्या हो रहा है, वह मानों अकस्मात् ही आ जाता है और व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप में शीघ्रता पूर्वक प्रलोभन के सामने, हार जाने की स्थिति में आ जाता है। सभी संत यह जानते हैं इसलिए वे अशुभ विचारों का पूर्वानुमान कर उन्हें उठने से रोकने तथा उनकी शक्ति को क्षीण करने के लिए दृढ़ता पूर्वक शुभ विचारों का चिन्तन करते हैं। विचारों के द्वारा ही व्यक्ति बनता या बिगड़ता है। अत: सावधान रहो जिससे कि तुम शुभ विचारों का ही चिंतन मनन करते रहो।

🔵 स्मरण रखो मन को ही तुम्हें डूबने से सदा बचाये रखना है। उसे कभी अकर्मण्य न रहने दो। अकर्मण्यता अशुभ का दूसरा पक्ष है, यह वह घोंसला है जिसमें अशुभ अत्यन्त सफलता पूर्वक संवर्धित होता है। अकर्मण्यता से सावधान रहो। जीवन को गंभीरता पूर्वक ग्रहण करो। साय की कमी तथा तुम्हारे सम्मुख आत्मसाक्षात्कार का जो महान कार्य है उसकी गुरुता को समझो। इसी क्षण तुम्हारा समय है। इसी क्षण तुम्हारा अवसर है। अभी तुम जिन परिस्थितियों की सीमाओं तथा संघर्ष में हो, यदि असावधानी पूर्वक तुमने स्वयं को इससे अधिक बुरी परिस्थितियों की सीमाओं और संघर्षों में बह जाने दिया तो तुम्हें अत्यन्त कटु पश्चाताप करना पड़ेगा। उपने वर्तमान जीवन को आत्मजयी बना कर स्वयं को अधिक अच्छे भविष्य का, अधिक उत्तम जन्म का आधिकारी बना लो।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

👉 Samadhi Ke Sopan 👉 समाधि के सोपान (भाग 37)

🔵 अभी, यही, अमरत्व के लिए संघर्ष करो। मन को प्रशिक्षित करो। वही एकमात्र महत्त्वपूर्ण कार्य है। जीवन का महान अर्थ तथा उद्देश्य ही वह है। यद्यपि जब कि आत्मा मानों हाड़मांस के पिंजरे मे आबद्ध -है तब भी अभी ही कह अवसर है जबकि देहात्मबुद्धि को जीत कर अमरत्व का प्रदर्शन किया जाय। स्वयं को अमरत्व का अधिकारी बनाओ। जिन्होंने देहात्मबुद्धि को त्याग दिया है देवता भी उनकी पूजा करते हैं। मृत्यु केवल एक भौतिक घटना मात्र है। मन का जीवन बहुत लम्बा होता है तथा आत्मा का जीवन असीम और अनन्त है।

🔴 तब यह कितना आवश्यक है कि तुम महान् विचारों का मनन करो तथा इस प्रकार अपने आध्यात्मिक विकास को त्वरित करो। बाह्य वस्तुओं को त्याग दो। यदि कोई व्यक्ति समस्त विश्व को जीत ले तो भी उसे आत्मविजय करनी होगी। उसे स्वयं को जानना ही होगा क्योंकि आत्मज्ञान ही जीवन का लक्ष्य है। ज्ञान या अज्ञान के रूप में यही वह लक्ष्य है जो जीवन को अर्थ देता है। यही वह लक्ष्य है जो जीने की प्रक्रिया तथा आत्मविकास का स्पष्टीकरण करता है। वही शान वास्तव में मूल्यवान है जो कि अन्तरात्मा को उन्नति की ओर ले जाता है। अत: वीरतापूर्वक स्वयं को आत्मज्ञान प्राप्ति के कार्य में नियुक्त कर दो। हो सकता है कि रास्ता लम्बा हो पर -लक्ष्य के विषय में कोई सन्देह नहीं है। सभी शब्दों को त्याग कर उसी के प्रति सचेष्ट हो जाओ जो कि सर्वोच्च है।

🔵 अपने पैरों पर खडे़ हो जाओ। यदि आवश्यक हो तो समस्त विश्व की भी अवज्ञा कर दो। अन्ततः कौन सी वस्तु तुम्हें हानि पहुँचा सकती है ? परमात्मा के साथ ही सन्तुष्ट रहो। दूसरे लोग बाहरी खजाने की खोज में लगे हैं तुम आन्तरिक खजाने की खोज करो। समय आयेगा जब तुम जान पाओगे कि समस्त पृथ्वी का साम्राज्य आत्मज्ञान की महिमा के सामने धूल के समान है। उठो, इस महत् प्रयत्न के लिए कमर कस लो।

🔴 हे महाप्राण! आओ दिव्य जीवन ही तुम्हारी विरासत है। तुम्हारी संपत्ति को कोई चुरा नहीं सकता। तुम्हारी संपत्ति सर्वशक्तिमान आत्मा की है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

👉 Samadhi Ke Sopan 👉 समाधि के सोपान (भाग 36)

🔵 ध्यान की घड़ियों में पुन: वह वाणी कह उठी- वत्स!, तुम्हें शांति प्राप्त हो। न तो इहलोक में, न परलोक में भय का कोई कारण है। सभी वस्तुओं को व्याप्त करता हुआ प्रेम का महाभाव विद्यमान है और उस प्रेम के लिए ईश्वर के अतिरिक्त और कोई दूसरा नाम नहीं है। ईश्वर तुमसे दूर नहीं है। वह देश की सीमा में बद्ध नहीं है क्योंकि वह निराकार तथा अन्तर्यामी है। स्वयं को पूर्णतः उसके प्रति समर्पित कर दो। शुभ तथा अशुभ तुम जो भी हो सर्वस्व उसको समर्पित कर दो। कुछ भी बचा न रखो। इस प्रकार के समर्पण के द्वारा तुम्हारा संपूर्ण चरित्र बन जायेगा। विचार करो प्रेम कितना महान है। यह जीवन से भी बड़ा तथा मृत्यु से भी अधिक सशक्त है। ईश्वरप्राप्ति के सभी मार्गों में यह सर्वाधिक शीघ्रगामी है। 

🔵 आत्मनिरीक्षण क्षण का पथ कठिन है। प्रेम का पथ सहज है। शिशु के समान बनो। विश्वास और प्रेम रखो तब तुम्हें कोई हानि नहीं होगी। धीर और आशावान बनी तब तुम सहज रूप से जीवन की सभी परिस्थितियों का सामना करने में समर्थ हो सकोगे। उदारहृदय बनो। शुद्र अहं तथा अनुदारता के सभी विचारों को निर्मूल कर दो। पूर्ण विश्वास के साथ स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर दो। वे तुम्हारी सभी बातों को जानते हैं। उनके ज्ञान पर विश्वास करो। वे कितने पितृतुल्य हैं। सर्वोपरि वे कितने मातृतुल्य हैं। अनन्त प्रभु अपनी अनन्तता में तुम्हारे दुःख के सहभागी हैं। उनकी कृपा असीम है। यदि तुम हजार भूलें करो तो भी प्रभु तुम्हें हजार बार क्षमा करेंगे। -यदि दोष भी तुम पर आ पड़े तो वह दोष नहीं रह जायेगा। 

🔴 यदि' तुम प्रभु से प्रेम करते हो तो अत्यन्त भयावह अनुभव भी तुम्हें तुम्हारे प्रेमास्पद प्रभु के संदेशवाहक ही प्रतीत होंगे। वस्तुत: प्रेम - द्वारा ही तुम ईश्वर को प्राप्त करोगे। क्या माँ सर्वदा प्रेममयी नहीं होती? वह आत्मा का प्रेमी  भी उसी प्रकार है। विश्वास करो! केवल विश्वास करो! फिर तुम्हारे लिए सब कुछ ठीक हो जायेगा। तुमसे जो भूलें हो गई उनसे भयभीत न होओ। मनुष्य बनो। जीवन का साहस- पूर्वक सामना करो। जो पूरी हो होने दो। तुम शक्तिशाली बनो। स्मरण रखो कि तुम्हारे पीछे अनन्त शक्ति है। स्वयं ईश्वर तुम्हारे साथ हैं। फिर तुम्हें क्या भय हो सकता है?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

👉 Samadhi Ke Sopan 👉 समाधि के सोपान (भाग 35)


🔵 एक वन्य पशु जैसे अपने शिकार की खोज करता है, इन्द्रिय- लोलुप व्यक्ति जिस प्रकार भोगों के लिये व्याकुल होता है, क्षुधा से पीड़ित व्यक्ति जिस प्रकार भोजन ढूँढता है, डूबता हुआ व्यक्ति जिस प्रकार रक्षा के लिये आर्तनाद करता है, उसी व्याकुलता और शक्ति से तुम सत्य की खोज करो। जिस प्रकार एक सिंह निर्भीक और मुक्त होता है तथा कोलाहल से नहीं काँपता, उसी प्रकार सत्य लाभ के लिये दृढ़संकल्प हो कर तुम भी इस संसार में विचरण करो। क्योंकि इसके लिये असीम शक्ति तथा निर्भयता की आवश्यकता है। यदि तुम अपनी आत्मा की शक्तियों को एकत्रित कर लो तथा साहस पूर्वक माया के आवरण को चीर डालो और आगे बढ़ो तो तुम्हारे लिए सभी सीमाएँ टूट जायेंगी तथा सभी टेढ़े मेढ़े रास्ते सीधे हो जायेंगे।  
🔵 क्या तुम ईश्वर की खोज कर रहे हो ? तब जान लो कि तुम्हें आत्मदर्शन होगा। तब स्वयं आत्मा ही तुम्हारे सम्मुख ईश्वर के रूप में प्रगट होगी।

🔴 ओम तत् सत्
और तब गुरुदेव की वाणी उस मौन में समा गई जो कि शांति है तथा उनका रूप उस ज्योति में विलीन हो गया जो कि स्वयं ईश्वर की ज्योति है।


🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

बुधवार, 7 सितंबर 2016

👉 Samadhi Ke Sopan 👉 समाधि के सोपान (भाग 34)

🔵 संसार के दु:ख सीधे इच्छाओं के अनुपात में ही है। इसलिए अंध आसक्ति न रखो। स्वयं को किसी से बाँध न लो। परिग्रह की इच्छा न करो वरन् स्वयं में अवस्थित होने की दृढ़ इच्छा करो। क्या कोई भी संग्रह तुम्हारे सत्यस्वरूप को संतुष्ट कर सकेगा ? क्या तुम वस्तुओं से बद्ध हो जाओगे? नग्न हो इस संसार में तुम आते हो तथा जब मृत्यु का बुलावा आता है तब नग्न ही -चेले जाते हो। तब फिर तुम किस बात का मिथ्या अभिमान करते हो? उन वस्तुओं का संग्रह करो जिनका कभी नाश नहीं होता। अन्तर्दृष्टि का विकास अपने आप में एक उपलब्धि है। अपने चरित्र को तुम जितना अधिक पूर्ण करोगे उतना ही अधिक तुम उन शाश्वत वस्तुओं का संग्रह कर पाओगे जिनके द्वारा यथासमय तुम आत्मा के राज्य के अधिकारी हो जाओगे।

🔵 अत: जाओ इसी क्षण से आंतरिक विकास में लगो, बाह्य नहीं। अनुभूति के क्रम को अन्तर्मुखी करो। इन्द्रियासक्त जीवन से विरत होओ। प्रत्येक वस्तु का आध्यात्मीकरण करो। शरीर को आत्मा का मंदिर बना लो तथा आत्मा को दिन दिन अधिकाधिक अभिव्यक्त होने दो। और तब अज्ञानरूपी अंधकार धीरे धीरे दूर हो जायेगा तथा आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश धीरे धीरे फैल उठेगा। यदि तुम सत्य का सामना करो तो विश्व की सभी शक्तियाँ तुम्हारे पीछे रहेंगी तथा समन्वित रूप से तुम्हारी उन्नति के लिए कार्य करेंगी। जैसा कि भगवान बुद्ध ने कहा, 'तथागतगण केवल महान शिक्षक हैं प्रयत्न तो तुम्हें स्वयं करना होगा'।
शिक्षक केवल ज्ञान दे सकते हैं। शिष्य को उसे आत्मसात् करना होगा और इस आत्मसात् करने का तात्पर्य है चरित्र निर्माण। ज्ञान को अपना बना लेना। स्वयं अपने द्वारा ही अपना उद्धार होना है दूसरे किसी के द्वारा नहीं।

🔴 उपनिषदों का आदेश है, 'उठो, सचेष्ट हो जाओ! और जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो तब तक न रुको!!'

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

👉 सत्य का प्रकाश

🔴 मैंने इस दुनियाँ में बहुत वस्तुएँ देखी हैं और बहुत अनुभव किया है, परंतु ऐसी कोई चीज मुझे नहीं मिली जो सत्य से बढ़ कर हो। दुनियाँ में बहुत तरह के प्रकाश हैं, परन्तु महान् पुरुष केवल सत्य के प्रकाश को ही प्रकाश कहते हैं। कदापि मिथ्या भाषण न करना, मनुष्य यदि इस धर्म का पालन करता रहे तो फिर उसे अन्य धर्म का पालन करता रहे तो फिर उसे अन्य धर्मों का पालन करने की क्या आवश्यकता है।

🔵 शरीर पानी से शुद्ध हो सकता है, पर मन की पवित्रता बिना सत्य भाषण के नहीं हो सकती। जिसका हृदय सत्य से पवित्र है, वह अन्य हृदयों पर शासन करेगा। वह श्रेष्ठ दानी और महान् तपस्वी है, जो सदैव सत्यपरायण है। सिद्धियाँ उसके चरणों में लोटती फिरेंगी। मनुष्य को इससे बढ़कर और क्या कीर्ति मिल सकती है कि उसे `सत्यवादी’ कहा जाए।

🔴 सचाई वह है जिसके साथ मृदुभाषण और हितकामना भी हो। ऐसी सचाई जिससे दूसरों को हानि पहुँचती हो, उससे तो वह झूठ अच्छा जिससे दूसरों का हित होता है। जिस बात को कहने में तुम्हारा मन झिझकता है, जिसका कहना अनावश्यक समझते हो या जिससे मिथ्यात्व का बोध होता है, उसे मत कहो, क्योंकि झूठ बोलने से तुम्हारी ही आत्मा तुम्हें शाप देगी।

🔵 सत्य पर डटे रहो, न्यायमुक्त काम को करते हुए कभी लज्जित मत होओ। जिस बात को तुम न्याययुक्त समझते हो, उसी का निश्चय करो और फिर उस पर जम जाओ।

🌹 -अखण्ड ज्योति -जनवरी 1942 पृष्ठ 19


👉 The Light of Truth

🔵 I have seen wonderful things in this world and have experienced a log, but I have not yet found any thing, which is greater than “Truth”. So many sparkling lights are there in this world but the great savants regard only the Light of Truth as the true Light. If one follows the religion of truthfulness then he is truly religious; he does not need to adopt any other religion then… The physical body can be cleansed by water but the cleanliness and sanctity of mind is possible only by truthfulness. The heart, which is purified by truth, can rule over all hearts. A truthful person is revered in the scriptures as the greatest ascetic devotee, supreme charitable person. Siddhis (supernatural successes) will lie under his feet. What else could be bigger glory for a person other than being known as “truthful”…

🔴 Speaking truth is not only the utterance of fact as it is, it should also be auspicious and should not hurt or insult anyone. It’s better to keep quite, rather than telling a truth that harms someone and does not help anybody’s welfare. Don’t tell a lie or anything, which is false, which is not acceptable to you from within or which is unwise or unnecessary. Remember that adoption of falsehood hurts your inner self and invites your soul’s anger and curse.

🔵 Be truthful; don’t feel shy or scared in following the path of justice. Make sure that what you think as fair is truly so, then remain firm on it forever…

🌹 -Akhand Jyoti, Jan. 1942

मंगलवार, 6 सितंबर 2016

👉 Samadhi Ke Sopan 👉 समाधि के सोपान (भाग 33)


🔵 ध्यान की गहराइयों में जब सब कुछ शांत था तब श्री -गुरुदेव ने उपस्थित हो कर कहा: - वत्स! शक्ति जो कि जगन्माता का स्वरूप है उस पर ध्यान करो, और तब सभी भयों से ऊपर उठ कर, यह शक्ति प्रेरित करती है और तब तुम शक्ति से परे स्वयं जगन्माता की सत्ता में चले जाओगे जो कि मात्र शांति है। जीवन की अनिश्चितताओं से भयभीत न होओ यद्यपि भयंकर के सभी रूप अपने को सहस्र गुण करते प्रतीत होते हैं, किन्तु स्मरण रखो उनका प्रभाव केवल भौतिक जगत पर ही होता है, आध्यात्मिक आत्मा पर नहीं। ठीक ठीक यह जान कर कि आत्मा अविनाशी है, अटल एवं दृढ़ रहो।

🔵 आत्मा को ही अपना अवलंबन बनाओ। -सत्य जो कि सहज तथा सब में समान है उसके अतिरिक्त और किसी वस्तु में विश्वास न करो। तुम भौतिक जगत के विक्षोभ तथा प्रलोभनों में समान रूप से अविचल रह पाओगे। जो आता जाता है वह आत्मा नहीं है। स्वयं को आत्मा के साथ एक करो, शरीर के साथ नहीं। दृश्य जगत् की वस्तुओं में ही अस्थिरता का प्रभुत्व है। शाश्वत द्रष्टा के जगत में स्थिरता का अस्तित्व रु जहाँ विचारों तथा इन्द्रियों से मुक्त आत्मा का चैतन्य ही राज्य करता है।

🔴 जो सत्य है वह महासमुद्र के समान अपरिमेय है। उसे कोई भी वस्तु न तो बाँध सकती है और न ही सीमाबद्ध कर सकती है। आध्यात्मिकता का कूलरहित समुद्र  जो कि अनुभूति की ऊँचाइयों में आत्मा में आत्मा के रूप में ही भासता है उसे व्यक्त जगत के विधेयों से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

रविवार, 4 सितंबर 2016

👉 Samadhi Ke Sopan 👉 समाधि के सोपान (भाग 32)


🔵 तपस्या का एक प्रकार है जो मैं तुम्हारे लिए निर्दिष्ट करूँगा। भयंकर का ध्यान करो क्योंकि वह सर्वत्र है। एक सन्त ने ठीक ही कहा है, जिस किसी वस्तु का तुम स्पर्श करते हो वह दुःख ही है। इसे निराशा के अर्थ में न लो किन्तु एक विजयी के अर्थ में ग्रहण करो। सभी आध्यात्मिक अनुभवों में किसी न किसी रूप में तुम इस भयंकर की पूजा पाओगे। वस्तुतः  यह भयंकर की पूजा नहीं है। जो इन्द्रियों में बद्ध है उसी के लिये यह भयंकर है। सुखकर एवं भयंकर -शब्दों का अर्थ उसी व्यक्ति के लिए है जो कि देहबुद्धि का क्रीतदास है किन्तु तुम इससे ऊपर उठ चुके हो, कम से कम विचारों और आकांक्षाओं में, अनुभूति में न सही।

🔵 भयंकर का ध्यान करने से तुम निश्चित रूप से इन्द्रियजनित वासनाओं को जीत सकोगे। तुम आध्यात्मिक जीवन का आलिंगन करोगे। तुम शुद्ध और मुक्त हो जाओगे। तथा मैं, जो जीवन के छोर पर हूँ  उससे तुम अधिक एकत्व का अनुभव करते जाओगे। जीवन को शरीर मात के रूप में न देखो, मानसिक रूप में उसका अध्ययन करो। आध्यात्मिक रूप में उसकी अनुभूति करो तब आध्यात्मिक जीवन का समस्त तात्पर्य तुम्हारे सामने स्पष्ट हो जायेगा और तब तुम्हें ज्ञात होगा कि संतगण क्यों अपरिग्रह तथा पवित्रता से प्रेम करते हैं तथा युद्ध या पलायन द्वारा ऐसी सभी वस्तुओं से बचते हैं जिसमें काम कांचन का रस है।

🔴 इतना पर्याप्त है। जो मैंने कहा है उसका पालन करो। इस पर तब तक विचार करो जब तक कि तुम्हारा स्नायुजाल उसे ग्रहण न कर ले तथा इन विचारों का सौरभ एवं उसकी उदात्तता और दिव्यानन्द तुम्हारी नाड़ियों में बहने न लगे। अपने व्यक्तित्व का नवीनीकरण करो तथा स्वयं को पूर्ण कर लो।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

शनिवार, 3 सितंबर 2016

👉 Samadhi Ke Sopan 👉 समाधि के सोपान (भाग 31)

🔵 तुम्हारे लिए मेरा केवल एक ही -सन्देश है: - स्मरण रखो कि तुम आत्मा हो। तुम्हारे पीछे शक्ति है। निष्ठावान होना मुक्त होना है। अपने आध्यात्मिक उत्तराधिकार के प्रति प्रमाणिक रहो क्योंकि प्रमाणिक होना मुक्त होने के समान है। तुम्हारा प्रत्येक पद आगे बढ़ने की दिशा में ही हो तथा जैसे जैसे तुम जीवन के राजपथ में बढ़ते जाओगे वैसे वैसे ही तुम अधिकाधिक अपनी स्वतंत्रता का अनुभव करते जाओगे। यदि तुम्हारे पीछे प्रामाणिकता है तो तुम सभी व्यक्तियों का सामना कर सकते हो। स्वयं के प्रति ईमानदार बनो तब तुम्हारे शब्द सत्य की ध्वनि से गुंजित होंगे, तुम अनुभुति की भाषा बोलोगे तथा तुम वह शक्ति प्राप्त करोगे, जो दूसरों को भी पूर्ण बना देगी।

🔵 प्रत्येक व्यक्ति अपने चरित्र की शक्ति विकीर्ण करता है। स्वयं को छिपा नहीं सकता। यदि किसी व्यक्ति में कोई शारीरिक विकृत है तो सभी लोग उसे देख पाते हैं। उसी प्रकार यदि तुम में आध्यात्मिक विकृति होगी तो सभी लोग उसे अन्तःप्ररेणा से अपने आप जान लेंगे। क्योंकि जब तुम आत्मा की बात करोगे तब लोग यह अनुभव करेंगे कि तुम जो कह रहे हो वह तुम्हारे हृदय की बात नहीं है। तुम उन्हें आध्यात्मिक जीवन का कुछ भी नहीं दे पाओगे क्योंकि तुम स्वयं आध्यात्मिक जीवन में प्रतिष्ठित नहीं हो, न ही तुम्हारे पास आध्यात्मिकता ही है। अत: यदि तुम परमात्मा के सन्देशवाहक होना चाहते हो तो आत्मसुधार के प्रयत्न में लग जाओ।

🔴 अपनी मूल प्रवृत्तियों का अध्यात्मीकरण करो। निष्ठावान बनो। किन्तु मैं तुमसे कहूँगा कि अपनी अनुभूतियों को गोपन रखो। भैंस के आगे बीन न बजाओ। यदि तुम आत्मा की आश्चर्यजनक अवस्थाओं का अनुभव करते हो तो -मौन रखो जिससे कि तुम्हारी बातचीत से उस अनुभूति की तीव्रता कम न हो जाय। तुमने जो उपलब्ध किया है उस पर विचार करो। सभी चीजो के साथ आत्मा की शांति में प्रवेश करो। कृपण व्यक्ति जिस प्रकार अपने धन की रक्षा करता है उसी प्रकार अपनी अनुभूति और ज्ञान की रक्षा करो। स्वयं का संग्रह करो। और जब तुम कुछ समय तक मौन का अभ्यास कर चुकोगे तब जिस तत्त्व से तुम्हारा हृदय परिपूर्ण हो गया है वह छलकने लगेगा और तब तुम मनुष्य के लिए संपत्ति तथा शक्ति हो उठोगे। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

👉 Samadhi Ke Sopan 👉 समाधि के सोपान (भाग 30)

🔵 हम शव को फूलों से ढकते हैं किन्तु शव तो शव ही है। अत: संसार जिसे महान् कहता है अमृतपुत्र को गहराई से उनका अध्ययन करने दो। क्योंकि अत्यन्त कायिक ओर भौतिक होने के कारण भीतर यह सड़ा हुआ दुर्गन्धयुक्त ही है। संसार के नाशवान पदार्थ तथा उनके आकर्षणों से कोई संबंध न रखो। शरीर जिन मुखौटों से अपने दोष ढकता है उन्हें झाडू डालो। उस अन्तर्ज्ञान मैं प्रवेश करो जहाँ तुम यह जान लेते हो कि तुम इन नाशवान वस्तुओं के बने नहीं हो। तुम आत्मा हो। जान लो, साम्राज्यों के उत्थान पतन, संस्कृति और सभ्यताओं की प्रवृत्तियों का, उच्च आध्यात्मिक चेतना के क्षेत्र में कोई विशेष महत्त्व नहीं है। समझ लो, वह जो अदृश्य हैं वही महान् है, वस्तुत: वही स्पृहणीय है।

🔵 अपरिग्रह की संतान बनो। पवित्रता की तीव्र इच्छा जागृत करो! काम कांचन ही सांसारिकता के ताने बाने हैं। इन्हें अपने स्वभाव से निर्मूल कर दो। इनकी सभी प्रवृत्तियों को विषवत् समझो। अपने स्वभाव से सभी मलीनताओं को निकाल फेंकी। अपनी आत्मा की सभी अपवित्रताओं को धोकर साफ कर डालो। जीवन जैसा है, उसे उसी रूप में देखो और तब तुम समझ पाओगे कि यह माया है।

🔴 यह न तो अच्छा है और न ही बुरा। किन्तु यह सर्वथा त्याज्य वस्तु है, क्योंकि यह शरीर तथा शरीरबोध से ही उत्पन्न होता है। अपने उच्च स्वभाव के प्रत्येक शब्द को ध्यान पूर्वक सुनो। अपनी आत्मा के प्रत्येक सन्देश को आग्रहपूर्वक पकड़ो। क्योंकि आध्यात्मिक अवसर एक अत्यन्त विरल सुयोग है तथा जब यह आध्यात्मिक वाणी मन के मौन में प्रवेश करती है उस समय यदि तुम इन्द्रिय- लिप्साओं में व्यस्त रही और इसे न सुनो तो तुम्हारा व्यक्तित्व उन आदतों के पंजे में पड़ जायेगा जो तुम्हारे विनाश के कारण होंगे।   

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

👉 दृष्टिकोण बदलो

🔴 अपनी कठिनाइयाँ हमें पर्वत के समान दुर्भेद्य, सिंह के समान भयंकर और अंधकार के समान डरावनी प्रतीत होती हैं, परंतु यह सब यथार्थ में कुछ नहीं, केवल भ्रम की भावना मात्र है, इनसे डरने का कोई कारण नहीं है। इस बात का शोक मत करो कि मुझे बार-बार असफल होना पड़ता है। परवाह मत करो, क्योंकि समय अनंत है। बार-बार प्रयत्न करो और आगे की ओर कदम बढ़ाओ। निरंतर कर्त्तव्य करते रहो, तुम्हारा एक-एक पग सफलता की ओर बढ़ रहा है, आज नहीं तो कल तुम सफल होकर रहोगे, क्योंकि कर्त्तव्य का निश्चित परिणाम सफलता है।

🔵 सहायता के लिए दूसरों के सामने मत गिड़गिड़ाओ, क्योंकि यथार्थ में किसी में भी इतनी शक्ति नहीं है, जो तुम्हारी सहायता कर सके। किसी कष्ट के लिए दूसरों पर दोषारोपण मत करो, क्योंकि यथार्थ में कोई भी दूसरा तुम्हें दु:ख नहीं पहुँचा सकता। तुम स्वयं ही अपने मित्र हो और तुम स्वयं ही अपने शत्रु हो। जो कुछ भली-बुरी स्थितियाँ सामनें हैं, वह तुम्हारी पैदा की हुई हैं। अपना दृष्टिकोण बदल दोगे तो दूसरे ही क्षण यह भय के भूत अंतरिक्ष में तिरोहित हो जाएँगे।

🔴 मित्रों किसी से मत डरो। क्योंकि तुम तुच्छ जीव नहीं हो। अपनी ओर देखे, अपनी आत्मा की ओर देखे। मिमियाना छोड़ो और दहाड़ते हुए कहो ‘सोSहम’ ‘मैं वह हूँ’ जिसकी सत्ता से यह सब कुछ हो रहा है।

🔵 ईश्वर चाहता है कि प्राणी इस जगत् में अच्छे-अच्छे कार्य करें और अंत में परम मोक्ष को प्राप्त हो।

🌹 -अखण्ड ज्योति -मार्च 1941


👉 Watch Your Attitude
🔵 To most of us the hardships, adversities and challenges of life seem to be intractable like gigantic mountains, dreadful like wild giants, and frightening like impenetrable darkness. But this is all subject to how we take them. In reality nothing is so hard or to tackle; it is mostly our delusion that regards it so and suffers the pains and fears.

🔴 Just change your attitude and you will find hope, courage and enthusiasm in all circumstances. Don’t lose your morale that you failed in your repeated attempts. Don’t worry. There are many other avenues. Look at them. There is no dead-end to trying harder again with better preparation. Move ahead. You just have to try your level best in transacting your duties. Every sincere effort is a step towards the goal; if not today, tomorrow you will succeed. This is the law of Nature. There is always certain consequence, some result of every action. Don’t feel helpless. Don’t count upon other’s support. No one really would have the capacity to help you if you can’t help yourself. Never blame anyone for anything wrong or harmful happening to you. Because no one can rule over you and make you suffer. You alone are the friend and the enemy of yourself. The circumstances around you are in fact your own creation. They are neither supportive nor obstructive in reality; this all depends upon your own attitude, how you accept and make use of them.

🔵 Refine your attitude, your thinking and your aspirations and let virtuous instincts awaken in yourself. It is the accumulation of the inscriptions of positive thinking and good actions over several lives that awaken devotion in the human self.
🌹 -Akhand Jyoti, March 1941

गुरुवार, 1 सितंबर 2016

👉 कर्त्तव्य-पालन 👉 Transacting the Duties

🔴 जिन कार्यों को करने की हृदय स्वीकृति दे, वही मनुष्य का कर्त्तव्य अथवा धर्म है और हृदय जिन कार्यों को करने की सलाह न दे, उन्हें नहीं करना चाहिए क्योंकि वे अधर्म या अकर्त्तव्य हैं।

🔵 जो मनुष्य अपने कर्त्तव्यों का यथोचित रीति से पालन करता है, उस सदाचारी मनुष्य को कभी भी कोई दु:ख नहीं सहन करना पड़ता। क्योंकि वह ईश्वर की इच्छानुसार कार्य करता है, इसलिए ईश्वर सदैव उस पर दया दृष्टि रखते हैं। प्राय: ऊपर से देखने पर सदाचारी पुरुष निर्धन और दु:खी मालूम होते हैं, पर वास्तव में यह बात नहीं है। सदाचारी पुरुष में असाधारण दैवी शक्ति है, वह दु:खी कैसा। सदाचारी पुरुष निर्धन तो हो ही नहीं सकता।

🔴 सच पूछा जाए तो सच्चा खजाना सदाचारी के ही पास है। उसका वह खजाना कभी खाली नहीं होता, उसे खर्च करने पर बढ़ता ही जाता है। सदाचार के विचारों का चिंतन करने से ही आत्मा को अपार शांति और शीतलता प्राप्त होती है। दुष्टों को सदा अपने दुश्मनों का भय बना रहता है कि कहीं कोई हमारा अनिष्ट न कर दे, पर सदाचारी के पास ये सब बाते कहाँ? वहाँ न कोई दोस्त है न दुश्मन। उसके लिए तो सारा संसार एक-सा है।

🔵 ईश्वर चाहता है कि प्राणी इस जगत् में अच्छे-अच्छे कार्य करें और अंत में परम मोक्ष को प्राप्त हो।

🌹 -अखण्ड ज्योति -फरवरी 1941


👉 Transacting the Duties

🔵 That which is unambiguously permitted by your conscience is righteous, worth doing. That which is prevented or is doubted by your inner self should not be done. This is how duties and the ‘faux pas’ could be defined in simplest terms for those whose hearts are pure and minds are enlightened enough to grasp the impulse of the inner self.

🔴 One who is sincere in transacting his duties is worthy of God’s grace. He will never be helpless or sorry in any circumstance. He is a beloved disciple of God who bears the responsibilities selflessly as per thy will. Such morally refined, virtuous persons might be found lacking in wealth or in worldly (materialistic) possessions, but this would be only in the gross terms. In reality, such devotees possess immense spiritual power. How could they have any worry or scarcity? Austerity of life is their choice… Indeed the greatest treasure of the world lies with such saintly people only. This limitless treasure never empties; rather, it expands more and more with spending…

🔵 A vicious man always has a threat of being counter-attacked by the enemies; his own evils and negativity ruin all the peace and joy from his life. But the whole world is benevolent for a moral, duty-bond altruistic fellow. No one is his enemy; neither he has any attachment with anybody. Everything, everyone, is alike for him. His heart is full of love for everyone.

🔴 A thought of morality and saintly virtues itself inspires a unique feeling of peace, hope and enlightenment in the inner self. God wants each one of us to experience it and follow it towards sublime evolution of our lives…

🌹 -Akhand Jyoti, Feb. 1941

👉 Samadhi Ke Sopan 👉 समाधि के सोपान (भाग 29)

जब मेरा मन ध्यान की शांति में पहुँचा तब श्री गुरुदेव की वाणी ने कहा-

🔴 वत्स! क्या मैं तुम्हारी दुर्बलताओं को नहीं जानता हूँ? फिर तुम चिन्ता क्यों करते हो ? क्या जीवन परीक्षा और क्लेशों से आक्रान्त नहीं हैं? पर तुम मनुष्य हो। मन में कापुरुषता न आने दो। स्मरण रखो तुम्हारे भीतर सर्वशक्तिमान आत्मा है। तुम जो होना चाहो वही हो सकते हो। इसमें केवल एक ही बाधा है और वह तुम स्वयं हो। शरीर विद्रोह करता है मन चंचल हो उठता उठता है, किन्तु लक्ष्य के संबंध में निश्चित रहो। क्योंकि अन्ततः आत्मा की शक्ति के आगे कोई नहीं टिक सकता। यदि तुम स्वयं वो प्रति निष्ठावान हो, यदि तुम्हारे हृदय की गहराइयों में समग्रता है तो सब कुछ ठीक हैं तुम पर कुछ भी पूर्णत: या आंशिक रूप में अधिकार नहीं कर सकता।

🔵 हृदय तथा मन के खुलेपन का विकास करो अपने संबंध में मुझसे कुछ न छिपाओ। अपने? मन का उसी प्रकार अध्ययन करो मानो वह तुमसे भिन्न कोई वस्तु है। जिससे हार्दिक संबंध है उससे अपनी मन की बातें अकफट भाव से कहो क्योंकि निष्ठावान व्यक्ति कसामने स्वयं नरक के द्वार भी नहीं टिक सकते। दृढ़ निष्ठा ही आवश्यक वस्तु है।

🔴 अन्ततः शरीरबोध के कारण ही तो तुम्हारी अधिकांश भूलें होती हैं। शरीर को मिट्टी के एक लोंदे के समान समझो। इसे अपनी इच्छाशक्ति के अधीन करलो। चरित्र ही सब कुछ है और चरित्र का बल इच्छाशक्ति ही है। यही आध्यात्मिक जीवन का संपूर्ण रहस्य है। यही धार्मिक- साधना का अर्थ है। सभ्यताओं को देखो, इन्द्रियशक्ति तथा इन्द्रियजन्य यथार्थताओं की तड़क भड़क पर मनुष्य कितना गौरवान्वित होता है, किन्तु उसके मूल में कामवासना और भोजनलिप्सा के अतिरिक्त और क्या है ? अधिकांश लोगों के मन इन दोनों सर्वग्राही वृत्तियों से ही तो बने हैं।


🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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