बुधवार, 29 जून 2016

👉 आत्मिक प्रगति के तीन अवरोध (भाग 3)


🔴 सन्तान को सुयोग्य और स्वावलम्बी बना देना पर्याप्त है। उत्तराधिकार में उनके लिए विपुल सम्पत्ति छोड़ने की बात सोचने का अर्थ है उन्हें अपाहिज और परावलम्बी बनने जैसी हीन वृत्ति का शिकार बनाना। इससे बालकों को अन्ततः हानि ही हानि उठानी पड़ती है। वे परस्पर झगड़ते हैं, आलसी, अहंकारी और दुर्व्यसनी बनते हैं। कमाई वही फलती-फूलती हैं जो नीति पूर्वक कठोर श्रम करते हुए कमाई जाती है। बच्चे इसी मार्ग पर चलते हुए अपना गुजारा करें इसी में औचित्य हैं। उनके लिए सम्पदा छोड़ मरने की कृपणता अपनाने में कोई औचित्य नहीं है।

🔵 बुद्धिमत्ता इसी में है कि परिवार के भरे निर्वाह से जो कुछ बचता हो उसे समाज का ऋण चुकाने में-लोक मंगल में उदारता पूर्वक हाथों-हाथ व्यय किया जाता रहे। इस अर्थ नीति को अब युग मान्यता मिल चुकी है। साम्यवाद-समाजवाद के अंतर्गत यही व्यवस्था बनने जा रही है। प्रजातन्त्र राष्ट्र भी बढ़ी हुई सम्पत्ति को भारी टैक्सों द्वारा लोक हित के लिए बल-पूर्वक वापिस ले रहे हैं। अध्यात्म मार्ग में तो अपरिग्रह और दान पुण्य की महिमा आरम्भ से ही गाई जाती रही है। साधु, ब्राह्मण वैसी ही निर्वाह पद्धति की सार्थकता अपने ऊपर प्रयोग करते हुए चिरकाल से सिद्ध करते रहे हैं।

🔴 वित्तेषणा-तृष्णा की बढ़ी हुई मात्रा अनीति उपार्जन के लिए प्रोत्साहित करती हैं विविध विधि अपराध उसी के कारण होते रहते हैं। यदि निर्वाह के लिए उपार्जन तक सन्तुष्ट रहा जा सके तो श्रम, धन और मनोयोग की पर्याप्त बचत हो सकती है और उसे महान प्रयोजनों में लगाने पर जीवन को धन्य बनाने वाले आधार खड़े हो सकते हैं। इन उज्ज्वल सम्भावनाओं से वित्तेषणा ही हमें वंचित करती है। तृष्णा को सीमित किया जा सके तो दूसरे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य सामने आ सकते हैं और उनमें संलग्न रह कर महामानवों जैसी गतिविधियाँ अपनाया जाना सम्भव हो सकता है।

🔵 लोकेषणा में श्रेष्ठ सत्कर्म करते हुए लोक श्रद्धा अर्जित करने का उच्चस्तर ही अपनाये जाने योग्य है। शेष नीचे की सभी उद्धत अर्हताएँ हेय मानी जाने योग्य है। अहंकार प्रदर्शन के लिए लोग अनावश्यक ठाठ-बाठ रोपते हैं। अमीरी का सम्मान पाने के लिए जितना समय और धन व्यय किया जाता है, प्रदर्शन का आडम्बर संजोया जाता है, शेखीखोरी का घटा टोप रोपा जाता है, उसे छल प्रपंच भरी विडम्बना के अतिरिक्त और क्या कहा जाय ? इस जंजाल में जितनी शक्ति खपती हैं यदि उसकी चौथाई भी महानता के सम्पादन में लग सके तो वास्तविक उन्नति का विशालकाय भवन निर्माण उतने भर से ही सम्भव हो सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1977 पृष्ठ 18
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1977/October.18


Jhola Pustaakalay-Pandit Shriram Sharma Acharya- Lecture 1985
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मंगलवार, 28 जून 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 60):--- 👉 संवाद की पहली शर्त-वासना से मुक्ति


🔴 जो सुनना जानते हैं, उन्हें तो शान्तिकुञ्ज की धरती से साधना का संगीत उभरता नजर आता है। जहाँ गुरुदेव और वन्दनीया माता जी जैसे महायोगी रहे, चले और यहीं धूल में उन्होंने अपनी देह विलीन कर दी, वह धरती साधारण कैसे हो सकती है? बस जरूरत सुनने वालों की है। अगर ये हो तो फिर हवाओं में भी उन्हें महर्षियों के स्वर गुंजते सुनायी देंगे। ध्वनि हवाओं से ही तो बहती है और किसी भी हाल में यह मरती मिटती नहीं। यदि हमने अपनी श्रवण शक्ति को सूक्ष्म कर लिया है तो युगों पूर्व के स्वरों को भी सुना जा सकता है। इतना ही नहीं हवाओं की मरमर में दैवी वाणी भी सुनायी पड़ सकती है।

🔵 रही बात जल की तो इसकी महिमा तो धरती और वायु से भी ज्यादा है। जल की ग्रहणशीलता अति सूक्ष्म है। आध्यात्मि शक्ति के लिए, जल से बड़ा सुचालक और कोई नहीं। यही वजह है मंत्र से अभिमंत्रित जल चमत्कारी औषधि का काम करता है। यही कारण है कि प्राचीन महर्षियों ने नदियों के किनारे अपने आश्रम बनाये थे। उन्होंने ऐसा इसलिए किया था क्योंकि उनकी तप शक्ति नदियों के जल में चिरकाल तक संरक्षित रह सके। और युगों- युगों तक लोग उसमें स्नान करके धन्यभागी हो सके। तीर्थ जल आज भी साधक से संवाद करते हैं। गंगा- यमुना की सूक्ष्म चेतना का अस्तित्त्व अभी है। हां उनकी स्थूल कलेवर को इन्सान ने आज अवश्य बरबाद कर दिया है।
       
🔴 यदि अभी किसी में इतनी पात्रता नहीं है, तो उसको पवित्र पुरुषों के पास जाकर सत्य को सीखना चाहिए। पवित्र पुरुष सभी बन्धनों से मुक्त होते हैं। उनकी स्थूल देह केवल छाया भर होती है। इसलिए पूछने वालों को उनके दैहिक व्यापारों एवं व्यवहारों पर नजर नहीं रखनी चाहिए। अन्यथा अनेकों तरह के भ्रम व सन्देह की गुंजाइश बनी रहती है। जो इन पवित्र पुरुषों को देह के पार देख सकता है, उनकी परा चेतना की अनुभूति कर सकता है, वही उनसे संवाद कर सकता है। अगर ऐसा नहीं है तो उसे संसार भर के पवित्र पुरुष उसे अपनी ही भांति साधारण रोगी या वासनाओं से भरे नजर आएँगे। यही वजह है कि इनसे संवाद की पहली शर्त है कि हम स्वयं वासना मुक्त हों। वासना मुक्त होने पर इस संवाद के स्वर हमसे क्या कहेंगे- आइये इसे अगले सूत्र में जानें।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/savad


Boya Kata - Pt Shriram Sharma Acharya- Lecture 1984
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👉 आत्मिक प्रगति के तीन अवरोध (भाग 2)


🔴 बच्चे उत्पन्न करने से पहले तो हजार बार विचार किया जाना चाहिए कि अपनी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और पारिवारिक स्थिति सुयोग्य और समर्थ नये नागरिक प्रस्तुत कर सकने की है या नहीं। यह एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व हैं जिसे पूरा करने का साहस मात्र समर्थ लोगों को ही करना चाहिए। प्रत्येक बच्चा अपनी माता पर शारीरिक दबाव डालता है, पिता पर आर्थिक बोझ लादता है, राष्ट्र से अपनी आवश्यकताओं के नये साधन जुटाने की माँग करता है। किसी जमाने में जनसंख्या कम थी और उत्पादन बढ़ाने के लिए नये नागरिकों की आवश्यकता अनुभव की जाती थी। आज तो स्थिति बिलकुल उलट गई। बढ़ी हुई जनसंख्या के लिए निर्वाह के साधन जुटाना अति कठिन हो रहा है।

🔵 हर समझदार व्यक्ति का कर्तव्य है कि भौतिक सुव्यवस्था एवं आत्मिक प्रगति के दोनों प्रसंगों का ध्यान रखते हुए वासना पर-संतानोत्पादन पर अधिकाधिक नियन्त्रण रखे और उस अपव्यय से सामर्थ्य को बचाकर ऐसे कार्यों में लगाये जिनसे आत्मिक प्रगति और लोक कल्याण का दुहरा प्रयोजन सिद्ध हो सके।

🔴 दूसरा अवरोध हैं-तृष्णा-वित्तेषणा। धन की उपयोगिता असंदिग्ध है। उसके उपार्जन का औचित्य सर्वत्र समझा जाता है और हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से उसकी पूर्ति भी करता है। उचित मार्ग से कमाया हुआ और उचित प्रयोजनों में खर्च किया गया धन सराहनीय ही माना जाता है। गड़बड़ी तब उत्पन्न होती है जब वह अनुचित तरीकों से कमाया जाता है और उसका उपयोग विलासिता में, दुर्व्यसनों में, उद्धत प्रदर्शनों में किया जाता है। अनीति उपार्जन की तरह अपव्यय भी निन्दनीय है। जिस समाज के हम अंग हैं उसी की स्थिति के अनुरूप औसत दर्जे का माप दण्ड अपनाते हुए सादगी की रीति-नीति अपनानी चाहिए।

🔵 ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के सिद्धान्त को भली प्रकार समझा जाना चाहिए। अमीरी का रहन-सहन मनुष्य को उठाता नहीं गिराता है। इससे असमानता की खाई उत्पन्न होती है। दुर्व्यसन बढ़ते हैं और ईर्ष्या-द्वेष भरा कलह संघर्ष खड़ा होता है। अस्तु उचित यही है कि कठोर श्रम पूर्वक कमाएँ और उसमें सादगी से, औचित्य की मात्रा का ध्यान रखते हुए सादगी की निर्वाह नीति अपनाएँ। जो बचता हो उसका कृपणता पूर्वक संग्रह न करें वरन् संसार से पीड़ा और पतन कम करने के लिए उदारता पूर्वक उसका उपयोग मुक्त हस्त से करते रहें।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1977 पृष्ठ 17
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1977/October.17


Boya Kata - Pt Shriram Sharma Acharya- Lecture 1984
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सोमवार, 27 जून 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 59):-- 👉 संवाद की पहली शर्त-वासना से मुक्ति

🔵 ऊपरी तौर पर देखें तो ये तर्क ठीक नजर आते हैं। लेकन थोड़ा गहराई में उतरें तो इनमें कोई दम नजर नहीं आती। प्रकृति के आधीन होकर जीना तो पशुओं का काम है। पशु सदा प्रकृति के अनुरूप जीते हैं। यद्यपि ये भी वासनाओं के लिए समर्पित नहीं होते। प्रकृति द्वारा निर्धारित किए गए समय के अनुसार ही ये इस जाल में पड़ते हैं। मनुष्य की स्थिति तो पशुओं से भिन्न है। इन्हें प्राण के साथ मन भी मिला है। और मन का उपयोग एवं अस्तित्त्व इसीलिए है कि यह प्राण को परिष्कृत करे, वासना से उसे मुक्त करे। इस प्रक्रिया के पूरी होने पर प्राण प्रखर व उर्ध्वगामी बनता है। ऐसा होने पर स्नायु संस्थान दृढ़ होता है और धारणा शक्ति का विकास होता है। जो ऐसा करते हैं- उनकी प्रतिभा का स्वाभाविक विकास होता है। साथ ही उनमें ऐसी योग्यता विकसित होती है कि ये वातावरण की सूक्ष्मता से संवाद कर सके।

🔴 इन्हीं के लिए कहा गया है कि तुम पूछो पृथ्वी, वायु और जल से। जिनकी भावचेतना इन्द्रिय के इन्द्रजाल से मुक्त नहीं है, वे वातावरण की सूक्ष्मता से संवाद नहीं कर सकते। धरती इन्हें धूल कणों का ढेर मालूम होगी। और हवा के झोंके इन्हें केवल गर्द- गुबार एवं गन्ध उड़ाते नजर आएँगे। जल के बहते स्रोत इन्हें प्यास बुझाने के साधन लगेंगे। लेकिन यदि नजरें बदले तो नजारे बदल सकते हैं। धरती की धूल महत्त्वपूर्ण हो सकती है। महत्त्वपूर्ण न होती तो तीर्थों की रज का इतना महिमागान न होता। धरती के जिस कोने में ऋषियों ने तप किया, महायोगियों ने साधनाएँ की और फिर साधना से पवित्र उनकी देह उसी धूल में विलीन हो गयी। उस धूल के पास बहुत कुछ कहने को है। बस सही ढंग से सुनने वाला होना चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया

रविवार, 19 जून 2016

👉 गायत्री उपासना की सफलता की तीन शर्तें (अन्तिम भाग )


🔵 तीसरा वाला चरण गायत्री मंत्र का है धार्मिकता। धार्मिकता का अर्थ होता है - कर्तव्यपरायणता, कर्तव्यों का पालन। कर्तृत्व, कर्म और धर्म लगभग एक ही चीज हैं। मनुष्य में और पशु में सिर्फ इतना ही अंतर है कि पशु किसी मर्यादा से बँधा हुआ नहीं है। मनुष्य के ऊपर हजारों मर्यादाएँ और नैतिक नियम बाँधे गए हैं और जिम्मेदारियाँ लादी गई हैं। जिम्मेदारियों को और कर्तव्यों को पूरा करना मनुष्य का कर्तव्य है। शरीर के प्रति हमारा कर्तव्य है कि इसको हम नीरोग रखें।

🔴 मस्तिष्क के प्रति हमारा कर्तव्य है कि इसमें अवांछनीय विचारों को न आने दें। परिवार के प्रति हमारा कर्तव्य है कि उनको सद्गुणी बनाएँ। देश, धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हमारा कर्तव्य है कि उन्हें भी समुन्नत बनाने के लिए भरपूर ध्यान रखें। लोभ और मोह के पास से अपने आप को छुड़ा करके अपनी जीवात्मा का उद्धार करना, यह भी हमारा कर्तव्य है और भगवान ने जिस काम के लिए हमको इस संसार में भेजा है, जिस काम के लिए मनुष्य योनि में जन्म दिया है, उस काम को पूरा करना भी हमारा कर्तव्य है। इन सारे के सारे कर्तव्यों को अगर हम ठीक तरीके से पूरा न कर सके तो हम धार्मिक कैसे कहला सकेंगे?

🔵 धार्मिकता का अर्थ होता है -कर्तव्यों का पालना। हमने सारे जीवन में गायत्री मंत्र के बारे में जितना भी विचार किया, शास्त्रों को पढ़ा, सत्संग किया, चिंतन- मनन किया, उसका सारांश यह निकला कि बहुत सारा विस्तार ज्ञान का है, बहुत सारा विस्तार धर्म और अध्यात्म का है, लेकिन इसके सार में तीन चीजें समाई हुई हैं- 
(1) आस्तिकता अर्थात ईश्वर का विश्वास, 
(2) आध्यात्मिकता अर्थात स्वावलंबन, आत्मबोध और अपने आप को परिष्कृत करना, अपनी जिम्मेदारियों को स्वीकार करना और 
(3) धार्मिकता अर्थात कर्तव्यपरायणता।

🔴 कर्तव्य परायण, स्वावलंबी और ईश्वरपरायण कोई भी व्यक्ति गायत्री मंत्र का उपासक कहा जा सकता है और गायत्री मंत्र के ज्ञानपक्ष के द्वारा जो शांति और सद्गति मिलनी चाहिए उसका अधिकारी बन सकता है। हमारे जीवन के यही निष्कर्ष हैं विज्ञान पक्ष में तीन धाराएँ और ज्ञानपक्ष में तीन धाराएँ, इनको जो कोई प्राप्त कर सकता हो, गायत्री मंत्र की कृपा से निहाल बन सकता है और ऊँची से ऊँची स्थिति प्राप्त करके इसी लोक में स्वर्ग और मुक्ति का अधिकारी बन सकता है। ऐसा हमारा अनुभव, ऐसा हमारा विचार और ऐसा हमारा विश्वास है।

 ऊँ शांति:
🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Pravachaan/prachaavachanpart5/gayatri_upasna.3

शुक्रवार, 17 जून 2016

👉 गायत्री उपासना की सफलता की तीन शर्तें (भाग 6)


🔴 ईश्वर की उपासना का अर्थ है- जैसा ईश्वर महान है वैसे ही महान बनने के लिए हम कोशिश करें। हम अपने आप को भगवान में मिलाएँ। यह विराट विश्व भगवान का रूप है और हम इसकी सेवा करें, सहायता करें ओंर इस विश्व उद्यान को समुन्नत बनाने की कोशिश करें, क्योंकि हर जगह भगवान समाया हुआ है। सर्वत्र भगवान विद्यमान है यह भावना रखने से '' आत्ववत्सर्वभूतेषु '' की भावना मन में पैदा होती है। गंगा जिस तरीके से अपना समर्पण करने के लिए समुद्र की ओर चल पड़ती है, आस्तिक व्यक्ति, ईश्वर का विश्वासी व्यक्ति भी अपने आप को भगवान में समर्पित करने के लिए चल पड़ता है। इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान की इच्छा? मुख्य हो जाती हैं। व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएँ, व्यक्तिगत कामनाएँ भगवान की भक्ति समाप्त कराती हैं और यह सिखाती हैं कि ईश्वर के संदेश, ईश्वर की आज्ञाएँ ही हमारे लिए सब  कुछ होनी चाहिए।

🔵 हमें अपनी इच्छा भगवान पर थोपने की अपेक्षा, भगवान की इच्छा को अपने जीवन में धारण करना चाहिए। आस्तिकता के ये बीज हमारे अंदर जमे हुए हों, तो जिस तरीके से वृक्ष से लिपटकर बेल उतनी ही ऊँची हो जाती है जितना कि ऊँचा वृक्ष है। उसी प्रकार से हम भगवान की ऊँचाई के बराबर ऊँचे चढ़ सकते हैं। जिस तरीके से पतंग अपनी डोरी बच्चे के हाथ में थमाकर आसमान में ऊँचे उड़ती चली जाती है। जिस तरीके से कठपुतली के धागे बाजीगर के हाथ में बँधे रहने से कठपुतली अच्छे से अच्छा नाच- तमाशा दिखाती है। उसी तरीके से ईश्वर का विश्वास, ईश्वर की आस्था अगर हम स्वीकार करें, हृदयंगम करें और अपने जीवन की दिशाधाराएँ भगवान के हाथ में सौंप दें अर्थात भगवान के निर्देशों को ही अपनी आकांक्षाएँ मान लें तो हमारा उच्चस्तरीय जीवन बन सकता है, और हम इस लोक में शांति और परलोक में सद्गति प्राप्त करने के अधिकारी बन सकते हैं।

🔴 आस्तिकता गायत्री मंत्र की शिक्षा का पहला वाला चरण है। इसका दूसरा वाला चरण है आध्यात्मिकता। अध्यात्मिकता का अर्थ होता है आत्मावलम्बन, अपने आप को जानना, आत्मबोध। 'आत्माऽवारेज्ञातव्य '' अर्थात अपने आप को जानना। अपने आप को न जानने से -हम बाहर- बाहर भटकते रहते हैं। कई अच्छी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए, अपने दु:खो का कारण बाहर तलाश करते फिरते रहते हैं। जानते नहीं किं हमारी मन स्थिति के कारण ही हमारी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। अगर हम यह जान पाएँ, तब फिर अपने आप को सुधारने के लिए कोशिश करें। स्वर्ग और नरक हमारे ही भीतर हैं। हम अपने ही भीतर स्वर्ग दबाए हुए हैं अपने ही भीतर नरक दबाए हुए हैं। हमारी मन की स्थिति के आधार पर ही परिस्थितियाँ बनती हैं। कस्तूरी का हिरण चारों तरफ खुशबू की तलाश करता फिरता था, लेकिन जब उसको पता चला कि वह तो नाभि में ही है, तब उसने इधर- उधर भटकना त्याग दिया और अपने भीतर ही ढूँढने लगा।

🔵 फूल जब खिलता है तब भौरे आते ही हैं, तितलियों आती हैं। बादल बरसते तो हैं लेकिन जिसके आँगन में जितना पात्र होता है, उतना ही पानी देकर के जाते हैं। चट्टानों के ऊपर बादल बरसते रहते हैं, लेकिन घास का एक तिनका भी पैदा नहीं होता। छात्रवृत्ति उन्हीं को मिलती है जो अच्छे  नंबर से पास होते हैं। संसार में सौंदर्य तो बहुत हैं पर हमारी ओंख न हो तो उसका क्या मतलब? संसार में संगीत गायन तो बहुत हैं, शब्द बहुत हैं, पर हमारे कान न हों, तो उन शब्दों का क्या मतलब? संसार में ज्ञान- विज्ञान तो बहुत हैं, पर हमारा मस्तिष्क न हो तो उसका क्या मतलब ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं। इसलिए आध्यात्मिकता का संदेश यह है कि हर आदमी को अपने आप को देखना, समझना, सुधारने के लिए भरपूर प्रयत्न करना चाहिए। अपने आपको हम जितना सुधार लेते हैं, उतनी ही परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल बनती चली जाती हैं। यह सिद्धांत गायत्री मंत्र का दूसरा वाला  चरण है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Pravachaan/prachaavachanpart5/gayatri_upasna.3

गुरुवार, 16 जून 2016

👉 गायत्री उपासना की सफलता की तीन शर्तें (भाग 5)


🔵 गायत्री मंत्र के संबंध में हम यही प्रयोग और परीक्षण आजीवन करते रहे और पाया कि गायत्री मंत्र सही है, शक्तिमान है। सब कुछ उसके भीतर है, लेकिन है तभी जब गायत्री मंत्र के बीज को तीनों चीजों से समन्वित किया जाए। उच्चस्तरीय दृष्टिकोण, अटूट श्रद्धा- विश्वास और परिष्कृत व्यक्तित्व यह जो करेगा पूरी सफलता पाएगा। हमारे अब तक के गायत्री उपासना संबंधी अनुभव यही हैं कि गायत्री मंत्र के बारे जो तीनों बातें कही जाती हैं पूर्णतः: सही हैं। गायत्री को कामधेनु कहा जाता है, यह सही है। गायत्री को कल्पवृक्ष कहा जाता है, यह सही है। गायत्री को पारस कहा जाता है, इसको छूकर के लोहा सोना बन जाता है, यह सही है। गायत्री को अमृत कहा जाता है, जिसको पीकर के अजर और अमर हो जाते हैं, यह भी सही है।

🔴 यह सब कुछ सही उसी हालत में है जबकि गायत्री रूपी कामधेनु को चारा भी खिलाया जाए, पानी पिलाया जाए, उसकी रखवाली भी की जाए। गाय को चारा आप खिलाएँ नहीं और दूध पीना चाहें तो यह कैसे संभव होगा? पानी पिलाएँ नहीं ठंढ से उसका बचाव करें नहीं, तो कैसे संभव होगा? गाय दूध देती है, यह सही है, लेकिन साथ साथ में यह भी सही है कि इसको परिपुष्ट करने के लिए, दूध पाने के लिए उन तीन चीजों की जरूरत है जो कि मैंने अभी आप से निवेदन किया। यह विज्ञान पक्ष की बात हुई। अब ज्ञानपक्ष की बात आती है। यह मेरा ७० वर्ष का अनुभव है कि गायत्री के तीन पाद तीन चरण में तीन शिक्षाएँ भरी हैं और ये तीनों शिक्षाएँ ऐसी हैं कि अगर उन्हें मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन में समाविष्ट कर सके तो धर्म और अध्यात्म का सारे का सारा रहस्य और तत्त्वज्ञान का उसके जीवन में समाविष्ट होना संभव है। तीन पक्ष त्रिपदा गायत्री हैं (१) आस्तिकता, (२) आध्यात्मिकता, (३) धार्मिकता। इन तीनों को मिला करके त्रिवेणी संगम बन जाता है। ये क्या हैं तीनों?

🔵 पहला है आस्तिकता। आस्तिकता का अर्थ है- ईश्वर का विश्वास। भजन- पूजन तो कई आदमी कर लेते हैं, पर ईश्वर- विश्वास का अर्थ यह है कि सर्वत्र जो भगवान समाया हुआ है, उसके संबंध में यह दृष्टि रखें कि  उसका न्याय का पक्ष, कर्म का फल देने वाला पक्ष इतना समर्थ है कि उसका कोई बीच- बचाव नहीं हो सकता। भगवान सर्वव्यापी है, सर्वत्र है, सबको देखता है, अगर यह विश्वास हमारे भीतर हो तो हमारे लिए पाप कर्म करना संभव नहीं होगा। हम हर जगह भगवान को देखेंगे और समझेंगे कि उसकी न्याय, निष्पक्षता हमेशा अक्षुण्ण रही है। उससे हम अपने आपका बचाव नहीं कर सकते।

🔴 इसलिए आस्तिक का, ईश्वर विश्वासी का पहला क्रिया- कलाप यह होना चाहिए कि हमको कर्मफल मिलेगा, इसलिए हम भगवान से डरें। जो भगवान से डरता है उसको संसार में और किसी से डरने की जरूरत नहीं होती। आस्तिकता, चरित्रनिष्ठा और समाजनिष्ठा का मूल है। आदमी इतना धूर्त है कि वह सरकार को झुठला सकता है, कानूनों को झुठला सकता है, लेकिन अगर ईश्वर का विश्वास उसके अंत:करण में जमा हुआ है तो वह बराबर ध्यान रखेगा। हाथी के ऊपर अंकुश जैसे लगा रहता है, आस्तिकता का अंकुश हर आदमी को ईमानदार बनने के लिए, अच्छा बनने के लिए प्रेरणा करता है, प्रकाश देता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Pravachaan/prachaavachanpart5/gayatri_upasna.3

बुधवार, 15 जून 2016

👉 गायत्री उपासना की सफलता की तीन शर्तें (भाग 4)


🔴 अटूट श्रद्धा और अडिग विश्वास गायत्री माता के प्रति रख -करके और उसकी उपासना के संबंध में अपनी मान्यता और भावना रख करके प्रयत्न किया है और उसका परिणाम पाया हैं। व्यक्तित्व को भी जहाँ तक संभव हु आ है परिष्कृत करने के लिए पूरी कोशिश की है। एक ब्राह्मण को और एक भगवान के भक्त को जैसा जीवन जीना चाहिए, हमने भरसक प्रयत्न किया है कि उसमें किसी तरह से कमी न आने पाए। उसमें पूरी पूरी सावधानी हम बरतते रहे हैं। अपने आप को धोबी के तरीके से धोने में और धुनिये के तरीके से धुनने में हमने आगा पीछा नहीं किया है। यह हमारी उपासना को फलित और चमत्कृत बनाने का एक बहुत बड़ा कारण रहा है। उद्देश्य हमेशा से ऊँचा रहे। उपासना हम किस काम के लिए करते हैं, हमेशा यह ध्यान बना रहा।

🔵 पीड़ित मानवता को ऊँचा उठाने के लिए, देश, धर्म, समाज और संस्कृति को समुन्नत बनाने के लिए हम उपासना करते हैं, अनुष्ठान करते हैं। भगवान की प्रार्थना करते हैं। भगवान ने देखा कि किस नीयत से यह आदमी कर रहा है- भगीरथ की नीयत को देखकर के गंगा जी स्वर्ग से पृथ्वी पर आने के लिए तैयार हो गई थीं और शंकर भगवान उनकी सहायता करने के लिए तैयार हो गए थे। हमारे संबंध में भी ऐसा ही हुआ। ऊँचे उद्देश्यों को सामने रख करके चले तो दैवी शक्तियों की भरपूर सहायता मिली। हमारा अनुरोध यह है कि जो कोई भी आदमी यह चाहते हों कि हमको अपनी उपासना को सार्थक बनाना है तो उन्हें इन तीनों बातों को बराबर ध्यान में रखना चाहिए।

🔴 हम देखते हैं कि अकेला बीज बोना सार्थक नहीं हो सकता। उससे फसल नहीं आ सकती। फसल कमाने के लिए बीज- एक, भूमि- दो और खाद- पानी तीन, इन तीनों चीजों की जरूरत है। निशाना लगाने के लिए बंदूक- एक, कारतूस- दों और निशाना लगा ने वाले का अध्यास तीन ये तीनों होंगी तब बात बने मूर्ति बनाने के एक पत्थर एक, छेनी हथौडा़ दो और मूर्ति बनाने की कलाकारिता तीन। लेखन कार्य के लिए कागज, स्याही और शिक्षा तीनों चीजों की जरूरत है। मोटर चलाने के लिए मोटर की मशीन  तेल और ड्राइवर तीनों चीजों की जरूरत है।

🔵 इसी तरीके से उपासना के 'चमत्कार अगर किन्हीं को देखने हों, उपासना को सार्थकता की परख करनी हो तो इन तीनों था तों को ध्यान में रखना पड़ेगा जो हमने अभी निवेदन क्रिया उच्चस्तरीय दृष्टिकोण, परिष्कृत व्यक्तित्व और अटूट श्रद्धा विश्वास। इन तीनों को मिलाकर के जो कोई भी आदमी उपासना करेगा निश्चयपूर्वक और विश्वासपूर्वक हम कह सकते हैं कि आध्यात्मिकता के तत्वज्ञान का जो कुछ भी माहात्म्य बताया गया है- कि आदमी स्वयं लाभान्वित होता है, सर्मथ बनता है, शक्तिशाली बनता है, शांति पाता है स्वर्ग मुक्ति जैसा लाभ प्राप्त करता है और दूसरों की सेवा सहायता करने में समर्थ होता है सही है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Pravachaan/prachaavachanpart5/gayatri_upasna.2

मंगलवार, 14 जून 2016

👉 गायत्री जयंती पर्व विशेष वह अविस्मरणीय दिवस (अन्तिम भाग)


🔵 शाँतिकुँज के कंप्यूटर कक्ष के ऊपर जो बड़े हॉल के रूप में परमवंदनीय माताजी का कक्ष है, वहीं पर गुरुदेव का पार्थिव शरीर रखा गया था। महायोगी की महत् चेतना का दिव्य आवास रही, उनकी देह आज चेतनाशून्य थी। पास बैठी हुई वंदनीया माताजी एवं परिवार के सभी स्वजन वेदना से विकल और व्याकुल थे। माताजी की अंतर्चेतना को तो प्रातः प्रवचन में ही गुरुदेव के देह छोड़ने की बाते पता थी तब से लेकर अब तक वह अपने कर्तव्यों में लीन थीं। सजल श्रद्धा की सजलता जैसे हिमवत् हो गई थी, अब वह महावियोग के ताप से पिघल रही थी। अंतिम प्रणाम भी समाप्त हो गया, परंतु कुछ लोग अभी हॉल में रुके थे। प्रणाम करके नीचे उतर रहे एक कार्यकर्ता को एक वरिष्ठ भाई ने ही इशारे से रोक लिया। परमपूज्य गुरुदेव की पार्थिव देह को उठाते समय माताजी ने उसे बुलाया एवं भीगे स्वरों में कहा ,"बेटा! तू भी कंधा लगा ले।" माँ के इन स्वरों को सुनकर उसका रोम-रोम कह उठा ,"धन्य हो माँ! वेदना की इस विकल घड़ी में भी तुम्हें अपने सभी बच्चों की भावनाओं का ध्यान है।"

🔴 सजल श्रद्धा एवं प्रखर प्रज्ञा के पास आज जहाँ चबूतरा बना है, तब वहाँ खाली जगह थी। वहीं चिता के महायज्ञ की वेदिका सजाई गई थी। ठीक सामने स्वागत कक्ष के पास माताजी तख्त पर बिछाए गए आसन पर बैठी थीं। पास ही परिवार के अन्य सभी सदस्य खड़े थे। आस-पास कार्यकर्त्ताओं की भारी भीड़ थी। सभी की वाणी मौन थी, पर हृदय मुखर थे। हर आँख अश्रु का निर्झर बनी हुई थी। आसमान पर भगवान् सूर्य इस दृश्य के साक्षी बने हुए थे। कण-कण में बिखरी माता गायत्री की समस्त चैतन्यता उसी दिन उसी स्थल पर सघनित हो गई थी। भगवान सविता देव एवं उनकी अभिन्न शक्ति माता गायत्री की उपस्थिति में गायत्री जयंती के दिन यज्ञपुरुष गुरुदेव अपने जीवन की अंतिम आहुति दे रहे थे। यह उनके जीवन-यज्ञ की पूर्णाहुति थी।

🔵 आज वह अपने शरीर को ‘इदं न मम् ‘ कहते हुए यज्ञवेदी में अर्पित कर चुके थे। यज्ञ ज्वालाएँ धधकीं। अग्निदेव अपने समूचे तेज के साथ प्रकट हुए। वातावरण में अनेकों की अनेक सिसकियाँ एक साथ मंद रव के साथ विलीन हुईं। समूचे परिवार का कण-कण और भी अधिक करुणार्द्र हो गया, सभी विह्वल खड़े थे। परमतपस्वी गुरुदेव का तेज अग्नि और सूर्य से मिल रहा था। सूर्य की सहस्रों रश्मियों से उनकी चेतना के स्वर झर रहे थे।

🔴 कुछ ऐसा लग रहा था, जैसे वह स्वयं कह रहें हों, "तुम सब परेशान न हो, मैं कहीं भी गया नहीं हूँ, यहीं पर हूँ और यहीं पर रहूँगा। मैंने तो केवल पुरानी पड़ गई देह को छोड़ा है, मेरी चेतना तो यहीं पर है। वह युगों-युगों तक यहीं रहकर यहाँ रहने वालों को, यहाँ आने वालों को प्रेरणा व प्रकाश देती रहेगी। मैं तो बस साकार से निराकार हुआ हूँ, पहचान सको तो मुझे शाँतिकुँज के क्रियाकलापों में पहचानो! ढूँढ़ो!" वर्ष 1990 की गायत्री जयंती में साकार से निराकार हुए प्रभु के इन स्वरों की सार्थकता इस गायत्री जयंती की पुण्य वेला में प्रकट हो रही है। हम सबको उन्हें शाँतिकुँज रूपी उनके विराट् शरीर की गतिविधियों में पाना है और स्वयं को इनके विस्तार के लिए अर्पित कर देना है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति मई 2002 पृष्ठ 50
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/2002/May.50

सोमवार, 13 जून 2016

👉 गायत्री जयंती पर्व विशेष :-- वह अविस्मरणीय दिवस (भाग 2)


🔵 देखने वाले का यह स्वप्न कुछ ही क्षणों में सुबह की दिनचर्या में विलीन हो गया। उसी दिन ब्रह्मवर्चस् के एक कार्यकर्त्ता भाई के संबंधी की शादी थी। वंदनीया माताजी ने दो-एक दिन पहले से ही निर्देश दिया था कि शादी सुबह ही निबटा ली जाए। सामान्य क्रम में शाँतिकुँज में यज्ञमंडप में शादियाँ दस बजे प्रारंभ होती हैं, लेकिन उस दिन के लिए के लिए माताजी का आदेश कुछ अलग था। गायत्री जयंती के दिन यह शादी काफी सुबह संपन्न हुई। अन्य कार्यक्रम भी यथावत् संपन्न हो रहे थे। वंदनीया माताजी प्रवचन करने के लिए प्रवचन मंच पर पधारी थीं। प्रवचन से पहले संगीत प्रस्तुत करने वाले कार्यकर्त्ता जगन्माता गायत्री की महिमा का भक्तिगान कर रहे थे-’माँ तेरे चरणों में हम शीश झुकाते हैं,’ गीत की कड़ियाँ समाप्त हुई। माताजी की भावमुद्रा में हलके से परिवर्तन झलके। ऐसा लगा कि एक पल के लिए वह अपनी अंतर्चेतना के किसी गहरे अहसास में खो गई, लेकिन दूसरे ही पल उनकी वाणी से जीवन-सुधा छलकने लगी।

🔴 प्रवचन के बाद प्रणाम का क्रम चलना था। माँ अपने आसन पर अपने बच्चों को ढेर सारा प्यार और आशीष बाँटने के लिए बैठ गई। प्रणाम की पंक्ति चल रही थी, माताजी स्थिर बैठी थीं। उनके सामने अस्तित्व से वात्सल्य-संवेदना झर रही थी।

🔵 प्रणाम समाप्त होने के कुछ ही क्षणों बाद शाँतिकुँज एवं ब्रह्मवर्चस् का कण-कण, यहाँ निवास करने वाले सभी कार्यकर्त्ताओं का तन-मन-जीवन बिलख उठा। अब सभी को बता दिया गया था कि गुरुदेव ने देह छोड़ दी है। अगणित शिष्य संतानों एवं भक्तों के प्रिय प्रभु अब देहातीत हो गए हैं। काल के अनुरोध पर भगवान महाकाल ने अपनी लोक-लीला का संवरण कर लिया है। जिसने भी, जहाँ पर यह खबर सुनी, वह वहीं पर अवाक् खड़ा रह गया। एक पल के लिए हर कोई निःशब्द, निस्पंद हो गया। सबका जीवन-रस जैसे निचुड़ गया। थके पाँव उठते ही न थे, लेकिन उन्हें उठना तो था ही। असह्य वेदना से भीगे जन परमपूज्य गुरुदेव के अंतिम दर्शनों के लिए चल पड़े।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति मई 2002 पृष्ठ 49
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/2002/May.49

👉 आत्मोत्कर्ष के चार अनिवार्य चरण (भाग 6)


🔴 अपने समीपवर्ती लोग प्रायः स्वार्थपरता और निकृष्टता की दिशा में ही प्रेरणा देते ही दीख पड़ने, ग्रहण करने का प्रयत्न करें। उनके जीवन चरित्र पढ़ें ओर आदर्शवादी प्रेरणाप्रद प्रसंगों एवं व्यक्तियों को अपने सामने रखें। उस स्तर के लोग प्रायः सत्संग के लिए के लिए सदा उपलब्ध नहीं रहते। यदि होते भी हैं तो उनके प्रवचन और कर्म में अन्तर रहने से समुचित प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसी दशा में सरल और निर्दोष तरीका यही है कि ऐसे सत्साहित्य का नित्य-नियमित रुपं से अध्ययन किया जाय जो जीवन की समस्याओं को सुलझाने, ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होता हो। ऐसा साहित्य न केवल पढ़ा ही जाय वरन् प्रस्तुत विचारधारा को व्यावहारिक जीवन में उतारने के लिए उत्साह भी उत्पन्न किया जाय और सोचा जाय कि इस प्रकार की आदर्शवादिता अपने में किस प्रकार उत्पन्न की जा सकती है। इसके लिए योजनाएँ बनाते रहा जाय और परिवर्तन काल में जो उलट-पुलट करनी पड़ेगी उसका मानसिक ढाँचा खड़ा करते रहा जाय।

🔵 यही है आन्तरिक महाभारत की पृष्ठभूमि प्रत्यक्ष संग्राम तब खड़ा होता है जब अभ्यस्त गन्दे विचारों को उभरने न देने के लिए कड़ी नजर रखी जात है और जब भी वे प्रबल हो रहे हों तभी उन्हें कुचलने के लिए प्रतिपक्षी सद्विचारों की सेना सामने ला खड़ी की जाती है। व्यभिचार की ओर जब मन चले तो इस मार्ग पर चलने की हानियों का फिल्म चित्र मस्तिष्क में घुमाया जाय और संयम से हो सकने वाले लाभों का- उदाहरणों का- सुविस्तृत दृश्य आँखों के सामने उपस्थित कर दिया जाय। यह कुविचारों और सद्विचारों की टक्कर हैं यदि मनोबल प्रखर है और न्यायाधीश जैसा विवेक जागृत हो तो कुविचारों का परास्त होना और पलायन करना सुनिश्चित है। सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है। आसुरी तत्त्व देखने में तो बड़े आकर्षक और प्रबल प्रतीत होते हैं, पर जब सत्य की अग्नि के साथ उनका पाला पड़ता है तो फिर उनकी दुर्गति होते भी देर नहीं लगती। काठ की हाँड़ी की तरह जलते और कागज की नाव की तरह गलते हुए भी उन्हें देखा जा सकता है।

🔴 अभ्यस्त कुसंस्कार आदत बन जाते हैं और व्यवहार में अनायास ही उभर-उभर कर आते रहते हैं। इनके लिए भी विचार संघर्ष की तरह कर्म संघर्ष की नीति अपनानी पड़ती है। थल सेना से थल सेना लड़ती हैं और नभ सेना के मुकाबले नभ सेना भेजी जाती है। जिस प्रकार कैदियों को नई बदमाशी खड़ी न करने देने के लिए जेल के चौकीदार उन पर हर घड़ी कड़ी नजर रखते हैं वहीं नीति दुर्बुद्धि पर ही नहीं दुष्प्रवृत्तियों पर भी रखनी पड़ती है। जो भी उभरे उसी से संघर्ष खड़ा कर दिया। बुरी आदतें जब कार्यान्वित होने के लिए मचल रही हों तो उसके स्थान पर उचित सत्कर्म ही करने का आग्रह खड़ा कर देना चाहिए और मनोबल पूर्वक अनुचित को दबाने दुर्बल होगा तो ही हारना पड़ेगा अन्यथा सत्साहस जुटा लेने पर श्रेष्ठ स्थापना से सफलता ही मिलती है। घर में बच्चे जाग रहे हों बुड्ढे खाँस रहे हों तो भी मजबूत चोर के पाँव काँपने लगते हैं और वह उलटे पैरों लौट जाता है। ऐसा ही तब होता है जब दुष्प्रवृत्तियों की तुलना में सत्प्रवृत्तियों को साहसपूर्वक अड़ने और लड़ने के लिए खड़ा कर दिया जाता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जनवरी पृष्ठ 10
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1977/January.10

👉 गायत्री उपासना की सफलता की तीन शर्तें (भाग 3)


🔵 संयमी व्यक्ति, सदाचारी व्यक्ति जो भी जप करते हैं, उपासना करते हैं उनकी प्रत्येक उपासना सफल हो जाती है। दुराचारी आदमी, दुष्ट आदमी, नीच पापी और पतित आदमी भगवान का नाम लेकर यदि चाहें तो पार नहीं हो सकते। भगवान का नाम लेने का परिणाम यह होना चाहिए कि आदमी का व्यक्तित्व सही हो और वह शुद्ध बने। अगर व्यक्ति को शुद्ध और समुन्नत बनाने में रामनाम सफल नहीं हुआ तो जानना चाहिए कि उपासना की विधि में बहुत भारी भूल रह गई और नाम के साथ में काम करने वाली बात को भुला दिया गया। परिष्कृत व्यक्तित्व उपासना का दूसरा वाला पहलू है, गायत्री उपासना के संबंध में अथवा अन्यान्य उपासनाओं के संबंध में।

🔴 तीसरा, हमारा अब तक का अनुभव यह है कि उच्चस्तरीय जप और उपासनाएँ तब सफल होती हैं जबकि आदमी का दृष्टिकोण और महत्त्वाकांक्षाएँ भी ऊँची हों। घटिया उद्देश्य लेकर के, निकृष्ट कामनाएँ और वासनाएँ लेकर के अगर भगवान की उपासना की जाए और देवताओं का द्वार खटखटाया जाए, तो देवता सबसे पहले कर्मकाण्डों की विधि और विधानों को देखने की अपेक्षा यह मालूम करने की कोशिश करते हैं कि उसकी उपासना का उद्देश्य क्या है? किस काम के लिए करना चाहता है?

🔵 अगर उन्हीं कामों के लिए जिसमें कि आदमी को अपनी मेहनत और परिश्रम के द्वारा कमाई करनी चाहिए, उसको सरल और सस्ते तरीके से पूरा कराने के लिए देवताओं का पल्ला खटखटाता है तो वे उसके व्यक्तित्व के बारे में समझ जाते हैं कि यह कोई घटिया आदमी है और घटिया काम के लिए हमारी सहायता चाहता है। देवता भी बहुत व्यस्त हैं। देवता सहायता तो करना चाहते हैं, लेकिन सहायता करने से पहले यह तलाश करना चाहते हैं कि हमारा उपयोग कहाँ किया जाएगा? किस काम के लिए किया जाएगा? यदि घटिया काम के लिए उसका उपयोग किया जाने वाला है, तो वे कदाचित ही कभी किसी के साथ सहायता करने को तैयार होते हैं। ऊँचे उद्देश्यों के लिए देवताओं ने हमेशा सहायता की है।

🔴 मंत्रशक्ति और भगवान की शक्ति केवल उन्हीं लोगों के लिए सुरक्षित रही है जिनका दृष्टिकोण ऊँचा रहा है। जिन्होंने किसी अच्छे काम के लिए, ऊँचे काम के लिए भगवान की सेवा और सहायता चाही है, उनको बराबर सेवा और सहायता मिली है। इन तीनों बातों को हमने प्राणपण से प्रयत्न किया और हमारी गायत्री उपासना में प्राण संचार होता चला गया। प्राण संचार अगर होगा तो हर चीज प्राणवान और चमत्कारी होती चली जाती है और सफल होती जाती है। हमने अपने व्यक्तिगत जीवन में चौबीस लाख के चौबीस साल में चौबीस महापुरश्चरण किए। जप और अनुष्ठानों की विधियों को संपन्न किया। सभी के साथ जो नियमोपनियम थे, उनका पालन किया। यह भी सही है, लेकिन हर एक को यह ध्यान रहना चाहिए कि हमारी उपासना में कर्मकाण्डों का, विधि- विधानों का जितना ज्यादा स्थान ही उससे कहीं ज्यादा स्थान इस बात के ऊपर है कि हमने उन तीन बातों को जो आध्यात्मिकता की प्राण समझी जाती हैं, उन्हें पूरा करने की कोशिश की है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Pravachaan/prachaavachanpart5/gayatri_upasna.2

एक एक दाने की कद्र करना जरूरी है।

🔴 इस तस्वीर को मशहूर फोटोग्राफर केविन कार्टर ने सूडान में लिया था,

🔵 इसमें एक बच्चा भुखमरी से मर रहा है और गिद्ध उसके मरने का इंतजार कर रहा है ताकि मरने के बाद वो इसको खा सके,


🔴 इस फोटो को प्रतिष्ठित पुलित्जर पुरस्कार भी मिला था लेकिन इस फोटो को खींचने के बाद केविन बेहद व्यथित रहते थे, इतने कि बाद मे आत्म हत्या कर ली थी।

👉 अन्न का अपमान करना बंद करें। एक एक दाने की कद्र करना जरूरी है।

🙏 हाथ जोड कर विनती है आपसे दूसरो के लिए कुछ नही करोगे तो चलेगा।

🔵 पर अनाज का एक भी दाना बरबाद मत करना...





 

रविवार, 12 जून 2016

👉 गायत्री जयंती पर्व विशेष :-- वह अविस्मरणीय दिवस (भाग 1)


🔴 गायत्री जयंती के इन पुण्य पलों में युग शक्ति के प्रेरक प्रवाह से जन-मन अभिसिंचित है। भावनाएँ उन भगीरथ को ढूँढ़ रही है, जिनके महातप से गायत्री की प्रकाश धाराएँ बहीं। महाशक्ति जिनके प्रचंड तप से प्रसन्न होकर इस युग में अवतरित हुई। वेदमाता के उन वरदपुत्र को भावनाएँ विकल हो खोज रही हैं। आज युग के उन तप-सूर्य की यादें उन्हीं की सहस्र रश्मियों की तरह मन-अंतः करण को घेरे हैं। यादों के इस उजाले में वर्ष 1990 की गायत्री जयंती (2 जून) की भावानुभूति प्रकाशित हो उठी है जब एक युग का पटाक्षेप हुआ था। प्रभु साकार से निराकार हो गए थे। भावमय अपने भक्तों की भावनाओं में विलीन हुए थे। उस दिन न जाने कितनी भावनाएँ उमगी थीं, तड़पी थीं, छलकी थीं, बिखरी थीं। इन्हें बटोरने वाले, सँजोने वाले अंतःकरण के स्वामी इन्हीं भावनाओं में ही कहीं अंतर्ध्यान हो गए थे।

🔵 सब कुछ प्रभु की पूर्व नियोजित योजना थी। महीनों पहले उन्होंने इसके संकेत दे दिए थे। इसी वर्ष पिछली वसंत में उन्होंने सबको बुलाकर अपने मन की बात कह दी थी। दूर-दूर से अगणित शिष्यों-भक्तों ने आकर उनके चरणों में अपनी व्याकुल भावनाएँ उड़ेली थीं। सार्वजनिक भेंट और मिलन का यहीं अंतिम उपक्रम था। तब से लेकर लगातार सभी के मन में ऊहापोह थी। सब के सब व्याकुल और बेचैन थे। शाँतिकुँज के परिसर में ही नहीं, शाँतिकुँज के बाहर भी सबका यही हाल था। भारी असमंजस था, अनेकों मनों में प्रश्न उठते थे, क्या गुरुदेव सचमुच ही शरीर छोड़ देंगे ! अंतर्मन की गहराइयों से जवाब उठता था- हाँ, पर ऊपर का मोहग्रस्त मन थोड़ा अकुलाकर सोचता, हो सकता है सर्वसमर्थ गुरुदेव अपने भक्तों पर कृपा कर ही दें और अपना देह वसन छोड़े!

🔴 मोह के कमजोर तंतुओं से भला भगवंत योजनाएँ कब बंधी हैं! विराट् भी भला कहीं क्षुद्र बंधनों में बंधा करता है!! गायत्री जयंती से एक दिन पहले रात में, यानि कि 1 जून 1990 की रात में किसी कार्यकर्त्ता ने स्वप्न देखा कि हिमाच्छादित हिमालय के श्वेत हिमशिखरों पर सूर्य उदय हो रहा है। प्रातः के इस सूर्य की स्वर्णिम किरणों से बरसते सुवर्ण से सारा हिमालय स्वर्णिम आभा से भर जाता है, तभी अचानक परमपूज्य गुरुदेव हिमालय पर नजर आते हैं, एकदम स्वस्थ-प्रसन्न । उसकी तेजस्विता की प्रदीप्ति कुछ अधिक ही प्रखर दिखाई देती है। आकाश में चमक रहे सूर्यमंडल में माता गायत्री की कमलासन पर बैठी दिव्य मूर्ति झलकने लगती है। एक अपूर्व मुस्कान है माँ के चेहरे पर। वह कोई संकेत करती हैं। और परमपूज्य गुरुदेव सूर्य की किरणों के साथ ऊपर उठते हुए माता गायत्री के पास पहुँच जाते हैं। थोड़ी देर तक गुरुदेव की दिव्य छवि माता के हृदय में हलकी-सी दिखती है। फिर वेदमाता गायत्री एवं गुरुदेव सूर्यमंडल में समा जाते हैं। सूर्य किरणों से उनकी चेतना झरती रहती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति मई 2002 पृष्ठ 49
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/2002/May.49

👉 गायत्री उपासना की सफलता की तीन शर्तें (भाग 2)


🔴 किसी भी बीज को पैदा करने के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है। भूमि उसके पास होनी चाहिए। भूमि के अलावा खाद और पानी का इंतजाम होना चाहिए। अगर ये तीनों चीजें उसके पास न होंगी तब फिर 
मुश्किल है। तब फिर वह बीज पल्लवित होगा कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। गायत्री मंत्र के बारे में भी यही तीन बातें हैं कि यदि गायत्री मंत्र के साथ तीन चीजें मिला दी जाएँ या किसी भी आध्यात्मिक उपासना के साथ मिला दी जाएँ तो उसके ठीक परिणाम होने संभव हैं। अगर यह तीन चीजें नहीं मिलाई जाएँगी, तब फिर यही कहना पड़ेगा कि इसमें सफलता की आशा कम है।

🔵 गायत्री उपासना के संबंध में हमारा लंबे समय का जो अनुभव है वह यह है कि जप करने की विधियाँ और कर्मकाण्ड तो वही हैं जो सामान्य पुस्तकों में लिखे हुए हैं या बड़े से लेकर छोटे लोगों ने किए हैं। किसी को फलित होने और किसी को न फलित होने का मूल कारण यह है कि उन तीन तत्त्वों का समावेश करना लोग भूल जाते हैं जो किसी भी उपासना का प्राण हैं। उपासना के साथ एक तथ्य यह जुड़ा हुआ है कि अटूट श्रद्धा होनी चाहिए। श्रद्धा की एक अपने आप में शक्ति है। बहुत सारी शक्तियाँ हैं- जैसे बिजली की शक्ति है, भाप की शक्ति है, आग की शक्ति है, उसी तरीके से श्रद्धा की भी एक शक्ति है। पत्थर में से देवता पैदा हो जाते हैं, झाड़ी में से भूत पैदा हो जाता है, रस्सी में से साँप हो जाता है और न जाने क्या- क्या हो जाता है श्रद्धा के आधार पर।

🔴 अगर हमारा और आपका किसी मंत्र के ऊपर, जप उपासना के ऊपर अटूट विश्वास है, प्रगाढ़ निष्ठा और श्रद्धा है तो मेरा अब तक का अनुभव यह है कि उसको चमत्कार मिलना चाहिए और उसके लाभ सामने आने चाहिए। जिन लोगों ने श्रद्धा से विहीन उपासनाएँ की हैं, श्रद्धा से रहित केवल मात्र कर्मकाण्ड संपन्न किए हैं, केवल जीभ की नोक से जप किए हैं और उँगलियों की सहायता से मालाएँ घुमाई हैं, लेकिन मन मैं वह श्रद्धा न उत्पन्न कर सके, विश्वास उत्पन्न न कर सके, ऐसे लोग खाली रहेंगे। बहुत सारा जप करते हुए भी अगर अटूट श्रद्धा और विश्वास के साथ उपासनाएँ की जाएँ तो यह एक ही पहलू ऐसा है जिसके आधार पर हम यह आशा कर सकते हैं कि हमारे अच्छे परिणाम निकलने चाहिए और उपासना को पूरा पूरा लाभ देना चाहिए। यह एक पक्ष हुआ।

🔵 दूसरा, उपासना को सफल बनाने के लिए परिष्कृत व्यक्तित्व का होना नितांत आवश्यक है। परिष्कृत व्यक्तित्व का मतलब यह है कि आदमी चरित्रवान हो, लोकसेवी हो, सदाचारी हो, संयमी हो, अपने व्यक्तिगत जीवन को श्रेष्ठ और समुन्नत बनाने वाला हो। अब तक ऐसे ही लोगों को सफलताएँ मिली हैं। अध्यात्म का लाभ स्वयं पाने और दूसरों को दे सकने में केवल वही साधक सफल हुए हैं जिन्होंने कि जप, उपासना के कर्मकाण्डों के सिवाय अपने व्यक्तिगत जीवन को शालीन, समुन्नत, श्रेष्ठ और परिष्कृत बनाने का प्रयत्न किया है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Pravachaan/prachaavachanpart5/gayatri_upasna.1

शनिवार, 11 जून 2016

👉 गायत्री उपासना की सफलता की तीन शर्तें (भाग 1)


🌹 गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ बोलें- 🌹 ऊँ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

🔴 मित्रो! हमारा सत्तर वर्ष का संपूर्ण जीवन सिर्फ एक काम में लगा है और वह है- भारतीय धर्म और संस्कृति की आत्मा की शोध। भारतीय धर्म और संस्कृति का बीज है- गायत्री मंत्र। इस छोटे से चौबीस अक्षरों  के मंत्र में वह ज्ञान और विज्ञान भरा हुआ पड़ा है, जिसके विस्तार में भारतीय तत्त्वज्ञान और भारतीय नेतृत्व विज्ञान दोनों को खड़ा किया गया है। ब्रह्माजी ने चार मुखों से चार चरण गायत्री का व्याख्यान चार वेदों के रूप में किया। वेदों से अन्यान्य धर्मग्रंथ बने। जो कुछ भी हमारे पास है, इस सबका मूल जड़ हम चाहें तो गायत्री मंत्र के रूप में देख सकते हैं। इसलिए इसका नाम गुरुमंत्र रखा गया है, बीजमंत्र रखा गया है।

🔵 बीजमंत्र के नाम से, गायत्री मंत्र के नाम से इसी एक मंत्र को जाना जा सकता है और गुरुमंत्र इसे कहा जा सकता है। हमने प्रयत्न किया कि सारे भारतीय धर्म और विज्ञान को समझने की अपेक्षा यह अच्छा है कि इसके बीज को समझ लिया जाए, जैसे कि विश्वामित्र ने तप करके इसके रहस्य और बीज को जानने का प्रयत्न किया। हमारा पूरा जीवन इसी एक क्रिया- कलाप में लग गया। जो बचे हुए जीवन के दिन हैं, उसका भी हमारा प्रयत्न यही रहेगा कि हम इसी की शोध और इसी के अन्वेषण और परीक्षण में अपनी बची हुई जिंदगी को लगा दें।

🔴 बहुत सारा समय व्यतीत हो गया। अब लोग जानना चाहते हैं कि आपने इस विषय में जो शोध की जो जाना, उसका सार- निष्कर्ष हमें भी बता दिया जाए। बात ठीक है, अब हमारे महाप्रयाण का समय नजदीक चला आ रहा है तो लोगों का यह पूछताछ करना सही है कि हर आदमी इतनी शोध नहीं कर सकता। हर आदमी के लिए इतनी जानकारी प्राप्त करना तो संभव भी नहीं है। हमारा सार और निष्कर्ष हर आदमी चाहता है कि बताया जाए। क्या करें? क्या समझा आपने? क्या जाना? अब हम आपको यह बताना चाहेंगे कि गायत्री मंत्र के ज्ञान और विज्ञान में जिसकी कि व्याख्यास्वरूप ऋषियों ने सारे का सारा तत्त्वज्ञान खड़ा किया है, क्या है?

🔵 गायत्री को त्रिपदा कहते हैं। त्रिपदा का अर्थ है- तीन चरण वाली, तीन टाँगवाली। तीन टुकड़े इसके हैं, जिनको समझ करके हम गायत्री के ज्ञान और विज्ञान की आधारशिला को ठीक तरीके से जान सकते हैं। इसका एक भाग है विज्ञान वाला पहलू। विज्ञान वाले पहलू में आते हैं तत्त्वदर्शन, तप, साधना, योगाभ्यास, अनुष्ठान, जप, ध्यान आदि। यह विज्ञान वाला पक्ष है। इससे शक्ति पैदा होती है। गायत्री मंत्र का जप करने से, उपासना और ध्यान करने से उसके जो माहात्म्य बताए गए हैं कि इससे यह लाभ होता है, अमुक लाभ होते हैं, अमुक कामनाएँ पूरी होती हैं। अब यह देखा जाए कि यह कैसे पूरी होती हैं और कैसे  पूरी नहीं होती? कब यह सफलता मिलती है और कब नहीं मिलती?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Pravachaan/prachaavachanpart5/gayatri_upasna.1

शुक्रवार, 10 जून 2016

बेटी और बहु


विदा होते समय बस एक यही आवाज सुनाई दे रही थी भा
ई साब आप परेशान ना हो मुक्ति को हम बहू नहीं बेटी बनाकर ले जा रहे हैं!
धीरे धीरे सुबह हुई और गाडी एक सजे हुए घर क सामने
जा रुकी और जोर से आवाज आई!
“जल्दी आओ बहू आ गयी”!! सजी हुई थाली लिए एक लड़की
दरवाजे पर थी! ये दीदी थी जो स्वागत क लिए
दरवाजे पर थी! और पूजा क बाद सबने एक साथ
कहा “बहू को कमरे में ले जाओ” मुक्ति को समझ
नहीं आया कुछ घंटो पहले तक तो मैं बेटी थी
फिर अब कोई बेटी क्यों नही बोल रहा!

बहू के घर से फोन हैं बात करा दो! फ़ोन पर माँ
थी “कैसी हो बेटा”
मुक्ति-“ठीक हू माँ- पापा कैसे हैं दीदी कैसी
हैं अभी तक रो रही ह क्या?”
माँ- “सब ठीक हैं तुम्हारा मन लगा?”

मुक्ति-“ हाँ माँ लग गया” माँ से कैसे कहती
बिलकुल मन नहीं लग रहा घर की बहुत याद आ
रही हैं

फ़ोन रखते हुए माँ ने कहा बेटा देखो बहुत अच्छे
लोग हैं बहू नहीं बेटी बनाकर रखेंगे बस तुम कोई
गलती मत करना !


मुक्ति और उसकी ननद विभा दोनों का
जन्मदिन एक ही महीने में आता था! मुक्ति बहुत
खुश थी साथ साथ जन्मदिन मना लेंगे और पहली
बार ससुराल में जन्मदिन मनाउंगी!

सुबह होते ही घर से सबका फोन आया मन बहुत
खुश था और पति के मुबारकबाद देने से दिन और
अच्छा हो गया था!

खैर शाम होते होते सब लोग एक साथ हुए और
बस केक कट कर दिया गया और सासु माँ ने एक
पचास का नोट दे दिया ! सासु माँ का दिया
ये नोट मुक्ति को बहुत अच्छा लगा ! जन्मदिन
न मन पाने का थोडा दुख हुआ पर फिर लगा
शायद ससुराल में ऐसे ही जन्मदिन मनता होगा !
अगले हफ्ते विभा दीदी का जन्मदिन आया
सुबह से ही सबके फ़ोन आने शुरू हो गये! सासु माँ
ने कहा मुक्ति आज खाना थोडा अच्छा
बनाना विभा का जन्मदिन हैं “जी माँ जी”
शाम होते ही मोहहले भर के लोगो का घर पर
खाने क लिए आगमन हुआ – सबने अच्छे से खाना
खाया!

सासु माँ ने विभा को 1000 का नोट देते हुए
कहा “बिटिया तुम्हारे कपडे अभी उधार रहे”
मुक्ति इस प्यार को देख कर बस मुस्कुरा ही
रही थी की पड़ोस की काकी ने पूछ लिया “
बहू तुम्हारा जन्मदिन कब आता हैं” मुक्ति बड़े
प्यार से बोली- “काकी अभी पिछले हफ्ते ही
गया हैं इसलिए हम दोनों ने साथ साथ मना
लिया क्यू विभा दीदी सही कहा ना”
विभा उसकी तरफ देख कर सिर्फ मुस्कुरा दी !

रसोई में खाना बनाते हुए मुक्ति को एक बात
आज ही समझ आई ! “बेटी बनाकर रखेंगे कह देने
भर से बहू बेटी नही बन जाती” और माँ की बात
याद आ गई
“बस बेटा तुम कोई गलती मत करना”
और आंखे न जाने कब नम हो गयी !!!!!!


पोती पौते सबको प्यारे है
पर बहू सबकी आंख मे खटकती है
क्या वो किसी की बेटी नही है
जो त्याग एक बहू करती है
वो भला कौन कर सकता है

जो सासु बहूऔ से चिढती है
वो भी सोचे की वो भी कभी बहू थी!!

बहू को बहू नही बेटी कहकर दैखे
बेटी कमी महसुस नही होगी!!

बुधवार, 8 जून 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 58) :-- 👉 संवाद की पहली शर्त-वासना से मुक्ति

🔴 शिष्य संजीवनी के सूत्र शिष्यों को सुपात्र बनाते हैं। शिष्य शब्द को उसका सही अर्थ प्रदान करते हैं। इन सूत्रों के ढलकर जो सुपात्र बन गया है, उस पर अपने आप ही सद्गुरुदेव की अनुकम्पा बरस पड़ती है। उसका अन्तःकरण अपने गुरु की कृपा से लबालब भर जाता है। उसके अस्तित्त्व के कण- कण से शिष्यत्व परिभाषित होता है। ढाई अक्षर का शब्द शिष्य- प्रेम के ढाई अक्षर का पर्याय बन जाता है। गुरुप्रेम ही शिष्य का जीवन है। यही उसका पात्रता और पवित्रता की कसौटी है। शिष्य शब्द का सच्चा अर्थ भी इसी में है। जिन्होंने भी अपनी जिन्दगी में इसे ढूँढ लिया है- वे निहाल हो गए हैं। साधना पथ के शूल में भी उनके लिए फूल बन गए हैं।
   
🔵 जो अभी पथ की खोज में है, उनके मार्गदर्शन के लिए अगला सूत्र प्रस्तुत है। इस सूत्र में शिष्यत्व की साधना के महासाधक बताते हैं- आन्तरिक इन्द्रियों को उपयोग में लाने की शक्ति प्राप्त करके, बाह्य इन्द्रियों की वासनाओं को जीतकर, जीवात्मा की इच्छाओं पर विजय पाकर और ज्ञान प्राप्त करके, हे शिष्य, वास्तव में मार्ग में प्रविष्ट होने के लिए तैयार हो जा। मार्ग मिल गया है, उस पर चलने के लिए अपने को तैयार कर। इस मार्ग के रहस्यों का ज्ञान तू पूछ पृथ्वी से, वायु से, जल से। इन्हीं में इन रहस्यों को तेरे लिए छुपाकर रखा है। यदि तूने अपनी आन्तरिक इन्द्रियों को विकसित कर लिया है, तो तू इस काम को कर सकेगा। इन रहस्यों को तू पृथ्वी के पवित्र पुरुषों से पूछ, यदि तू शिष्यत्व की कसौटी पर खरा है, तो वे तूझे इन रहस्यों का ज्ञान देंगे। तू भरोसा कर- बाह्य इन्द्रियों की लालसाओं से मुँह मोड़ लेने भर से तूझे यह रहस्य ज्ञान पा लेने का अधिकार प्राप्त हो जाएगा।
    
🔴 इस रहस्यमय सूत्र में आध्यात्मिक जीवन में कई महत्त्वपूर्ण आयाम समाए हैं। इन्हें समझकर आत्मसात कर लिया जाय तो साधना की डगर आसान हो सकती है। इतना ही नहीं इसके शिखर पर भी पहुँचा जा सकता है। लेकिन शुरूआत वासनाओं से मुँह मोड़ने से करनी होगी। जो लालसाओं से लिपटा और वासनाओं से बंधा है, उसके लिए साधना सम्भव नहीं है। साधना के सच केवल साधक को ही मिला करते हैं। और साधक बनने के लिए वासनाओं के बन्धन तोड़ने ही पड़ते हैं। कई बार लोग सवाल करते हैं- ऐसा प्रतिबन्ध क्यों है? इनका कहना है कि कामनाएँ एवं वासनाएँ तो स्वाभाविक हैं, नैसर्गिक हैं। इनकी ओर से मुँह मोड़ने से तो जीवन अप्राकृतिक बन जाएगा। और अप्राकृतिक जीवन को रोगी जिया करते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/savad

👉 The Art of Sadhana


🔴 The essence of Sadhana is self-discipline. The deities we worship are in fact the symbolic representatives of our own divine attributes and virtues. So long as these attributes are dormant, we live in a miserable state, but when the divine self is awakened and activated, we realize that we are full of spiritual powers (riddhi and siddhi). The sole aim of Sadhana is to activate these dormant attributes through a dedicated process of self-refinement and self-transcendence.

🔵 A farmer understands the significance of Sadhana. While tending his crops, he remains thoroughly involved in farming day after day throughout the year. In this process, he is least concerned about his health or the severity of weather. He takes care of the fields like he would of his own body. He keeps an eye over each and every plant. According to the needs of the crop, he provides it with manure and performs several operations such as tilling, irrigating, weeding and the harrowing of the field, and finally harvesting. The wisdom for the preservation and maintenance of the fields, the bullocks, ploughs and the ancillary equipments comes to him intuitively from within. He does all this without feeling tired or bored, or showing any haste. He does not insist on the immediate reward for his labour because he knows that the crop takes a specific time to ripen and so he has to wait patiently till then.

🔴 He remains free from the anxiety of filling his cellar with the produce. He also understands the futility of anticipating a plentiful yield. His Sadhana of farming continues single-mindedly. It cannot be said that he does not encounter any obstacles. He overcomes them with his own expertise and with the help of available resources. He refuses to relax without fulfilling the needs of the field. When the crop ripens and is harvested, he takes home the produce with a sense of gratitude to Nature. This is Sadhana of a farmer, which he continues to perform from his childhood till death with unwavering faith. There is no rest, no tiredness, no boredom and no indifference. A sadhaka (devotee) should learn the art of Sadhana from the farmer.

मंगलवार, 7 जून 2016

महाराणा प्रताप जयंती की हार्दिक शुभकामनायें

 
🔴 राणा प्रताप इस भरत भूमि के, मुक्ति मंत्र का गायक है।
    राणा प्रताप आज़ादी का, अपराजित काल विधायक है।।


🔵 वह अजर अमरता का गौरव, वह मानवता का विजय तूर्य।
    आदर्शों के दुर्गम पथ को, आलोकित करता हुआ सूर्य।।


🔴 राणा प्रताप की खुद्दारी, भारत माता की पूंजी है।
    ये वो धरती है जहां कभी, चेतक की टापें गूंजी है।।


🔵 पत्थर-पत्थर में जागा था, विक्रमी तेज़ बलिदानी का।
    जय एकलिंग का ज्वार जगा, जागा था खड्ग भवानी का।।


🔴 लासानी वतन परस्ती का, वह वीर धधकता शोला था।
    हल्दीघाटी का महासमर, मज़हब से बढकर बोला था।।


🔵 राणा प्रताप की कर्मशक्ति, गंगा का पावन नीर हुई।
    राणा प्रताप की देशभक्ति, पत्थर की अमिट लकीर हुई।।


🔴 समराँगण में अरियों तक से, इस योद्धा ने छल नहीं किया।
    सम्मान बेचकर जीवन का, कोई सपना हल नहीं किया।।


🔵 मिट्टी पर मिटने वालों ने, अब तक जिसका अनुगमन किया।
    राणा प्रताप के भाले को, हिमगिरि ने झुककर नमन किया।।


🔴 प्रण की गरिमा का सूत्रधार, आसिन्धु धरा सत्कार हुआ।
    राणा प्रताप का भारत की, धरती पर जयजयकार हुआ।।
 




 

शनिवार, 4 जून 2016

आध्यात्मिक शिक्षण क्या है?

 👉   यह दुनिया बड़ी निकम्मी है। पड़ोसी के साथ आपने जरा सी भलाई कर दी, सहायता कर दी, तो वह चाहेगा कि और ज्यादा मदद कर दे। नहीं करेंगे, तो वह नेकी करने वाले की बुराई करेगा। दुनिया का यह कायदा है कि आपने जिस किसी के साथ में जितनी नेकी की होगी, वह आपका उतना ही अधिक बैरी बनेगा। उतना ही अधिक दुश्मन बनेगा; क्योंकि जिस आदमी ने आपसे सौ रुपये पाने की इच्छा की थी और आपने उसे पन्द्रह रुपये दिये। भाई, आज तो तंगी का हाथ है, पंद्रह रुपये हमसे ले जाओ और बाकी कहीं और से काम चला लेना। पंद्रह रुपये आपने उसे दे दिये और वह आपके बट्टे खाते में गये, क्योंकि आपने पचासी रुपये दिये ही नहीं। इसलिए वह नाराज है कि पचासी रुपये भी दे सकता था, अपना घर बेचकर दे सकता था। कर्ज लेकर दे सकता था अथवा और कहीं से भी लाकर दे सकता था; लेकिन नहीं दिया। वह खून का घूँट पी करके रह जायेगा और कहेगा कि बड़ा चालाक आदमी है। 

 🔵 मित्रो! दुनिया का यही चलन है। दुनिया में आप कहीं भी चले जाइये, दुनिया की ख्वाहिशें बढ़ती चली जाती हैं कि हमको कम दिया गया। हमको ज्यादा चाहिए। असंतोष बढ़ता चला जाता है। और यह असंतोष अन्ततः वैर और रोष के रूप में परिणत हो जाता है। मित्रो, यह ऐसी ही निकम्मी दुनिया है। इस निकम्मी दुनिया में आप सदाचारी कैसे रह सकते हैं? जब कि आपके मन में पत्थर की उपासना करने की विधि न आये। पत्थर की उपासना करने का आनन्द जब आपके जी में आ जायेगा, उस दिन आप समझ जायेंगे कि इससे कोई फल मिलने वाला नहीं है। कोई प्रशंसा मिलने वाली नहीं है और कोई प्रतिक्रिया होने वाली नहीं है। यह भाव आपके मन में जमता हुआ चला जाय, तो मित्रो! आप अन्तिम समय तक, जीवन की अंतिम साँस तक नेकी और उपकार करते चले जायेंगे, अन्यथा आपकी आस्थाएँ डगमगा जायेंगी। 

 🔴 साथियो! आपने हर हाल में समाज की सेवा की; लेकिन जब चुनाव में खड़े हुए, तो एमपी एमएलए के लिए लोगों ने आपको वोट नहीं दिया और दूसरे को दे दिया। इससे आपको बहुत धक्का लगा। आपने कहा कि भाई। हमने तो अटूट सेवा की थी; लेकिन जनता ने चुनाव में जीतने ही नहीं दिया। ऐसी खराब है जनता। भाड़ में जाये, हम तो अपना काम करते हैं। हमें चुनाव नहीं जीतना है। उपासना में भी ऐसी ही निष्ठा की आवश्यकता है। आपने पत्थर की एकांगी उपासना की और एकांगी प्रेम किया। उपासना के लिए, पूजा करने के लिए हम जा बैठते हैं। धूपबत्ती जलाते हैं। धूपबत्ती क्या है? धूपबत्ती एक कैंडिल का नाम है। एक सींक का नाम है। एक लकड़ी का नाम है। वह जलती रहती है और सुगंध फैलाती रहती है। 

  सुगंध फैलाने में भगवान् को क्या कोई लाभ हो जाता है? हमारा कुछ लाभ हो जाता है क्या? हाँ, हमारा एक लाभ हो जाता है और वह यह कि इससे हमें ख्याल आता है कि धूप बत्ती के तरीके से और कंडी के तरीके से हमको भी जलना होगा और सारे समाज में सुगंध फैलानी होगी। इसलिए हमारा जीवन सुगंध वाला जीवन, खुशबू वाला जीवन होना चाहिए। धूपबत्ती भी जले और हम भी जलें जलने से सुगंध पैदा होती है। धूपबत्ती को रखा रहने दीजिए और उससे कहिए कि धूपबत्ती सुगंध फैलाएँगी धूपबत्ती कहती है कि मैं तो नहीं फैलाती। क्यों? जलने पर सुगंध फैलाई जा सकती है। जलना होगा। इसीलिए मनुष्य को जीवन में जलना होता है। धूपबत्ती की तरह से सुगंध फैलानी पड़ती है। 

🔵   मित्रो! आध्यात्मिक व्यक्ति बनने के लिए पूजा की क्रिया करते- करते हम मर जाते हैं। यह आध्यात्मिक शिक्षण है। यह शिक्षण हमको सिखलाता है कि धूपबत्ती जलाने के साथ साथ में हमको यह विचार करना है कि यह हमारे भीतर प्रकाश उत्पन्न करती है। दीपक लेकर हम बैठ जाते हैं। दीपक जलता रहता है। रात में भगवान् को दिखाई न पड़े, बात कुछ समझ में आती है; लेकिन क्या दिन में भी दिखाई नहीं पड़ता? दिन में भगवान् के आगे दीपक जलाने की क्या जरूरत है? इसकी जरूरत नहीं है। कौन कहता है कि दीपक जलाइए क्यों हमारा पैसा खर्च कराते हैं? क्यों हमारा घी खर्च कराते हैं। इससे हमारा भी कोई फायदा नहीं और आपका भी कोई फायदा नहीं। आपकी शक्ल हमको भी दिखाई पड़ रही है और बिना दीपक के भी हम आपको देख सकते हैं। आपकी आँखें भी बरकरार हैं; फिर क्यों दीपक जलाते हैं और क्यों पैसा खराब करवाते हैं? 

  मित्रो! सवाल इतना छोटा सा है, लेकिन इसके निहितार्थ बहुत गूढ़ हैं। इसका सम्बन्ध भावनात्मक स्तर के विकास से है। दीपक प्रकाश का प्रतीक है। हमारे अंदर में प्रकाश और सारे विश्व में प्रकाश का यह प्रतीक है। अज्ञानता के अंधकार ने हमारे जीवन को आच्छादित कर लिया है। उल्लास और आनन्द से भरा हुआ, भगवान् की सम्पदाओं से भरा हुआ जीवन, जिसमें सब तरफ विनोद और हर्ष छाया रहता है; लेकिन हाय रे अज्ञान की कालिमा! तूने हमारे जीवन को कैसा कलुषित बना दिया? कैसा भ्रान्त बना दिया? स्वयं का सब कुछ होते हुए भी कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। सब कुछ तो हमारे पास है, पर मालूम पड़ता है कि संसार में हम ही सबसे ज्यादा दरिद्र हैं। हमारे पास किसी चीज की कमी है क्या? हमारे मन की एक एक धारा ऐसी निकलती है कि हमको हँसी में बदल देती है; लेकिन हमको हर वक्त रूठे रहने का मौका, नाराज रहने का मौका, शिकायतें करने का मौका, छिद्रान्वेषण करने का मौका, देश घूमने का मौका, विदेश घूमने का मौका ही दिखाई देता है। सारा का सारा जीवन इसी अशांति में निकल गया। 

🔴  मित्रो! हमने दीपक जलाया और कहा कि ऐ दीपक! जल और हमको भी सिखा। ऐ कम हैसियत वाले दीपक, एक कानी कौड़ी की बत्ती वाले दीपक, एक छटाँक भर तेल लिए दीपक, एक मिट्टी की ठीकर में पड़े हुए दीपक! तू अंधकार में प्रकाश उत्पन्न कर सकता है। मेरे जप से तेरा संग ज्यादा कीमती है। तेरे प्रकाश से मेरी जीवात्मा प्रकाशवान हो, जिसके साथ में खुशियों के इस विवेक को मूर्तिवान बना सकूँ। शास्त्रों में बताया गया है तमसो मा ज्योतिर्गमय’’। ऐ दीपक! हमने तुझे इसलिए जलाया कि तू हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चले तमसो मा ज्योतिर्गमय अंतरात्मा की भूली हुई पुकार को हमारा अंतःकरण श्रवण कर सके और इसके अनुसार हम अपने जीवन को प्रकाशवान बना सकें। अपने मस्तिष्क को प्रकाशवान बना सकें। दीपक जलाने का यही उद्देश्य है। सिर्फ भावना का ही दीपक जलाना होता, तो भावना कहती कि दीपक जला लीजिए तो वही बात है, मशाल जला लीजिए तो वही बात है, आग जला लीजिए तो वही बात है। स्टोव को जला लीजिए, बड़ी वाली अँगीठी, अलाव जलाकर रख दीजिए। इससे क्या बनने वाला है और क्या बिगड़ने वाला है? आग जलाने से भगवान् का क्या नुकसान है और दीपक जलाने से भगवान् का क्या बनता है? अतः ऐ दीपक! तू हमें अपनी भावना का उद्घोष करने दे। 

🔵  साथियो! हम भगवान् के चरणारविन्दों पर फूल चढ़ाते हैं। हम खिला हुआ फूल, हँसता हुआ फूल, सुगंध से भरा हुआ फूल, रंग बिरंगा फूल ले आते हैं। इसमें हमारी जवानी थिरक रही है और हमारा जीवन थिरक रहा है। हमारी योग्यताएँ प्रतिभायें थिरक रही हैं। हमारा हृदयकंद कैसे सुंदर फूल जैसे है। उसे जहाँ कहीं भी रख देंगे, जहाँ कहीं भी भेज देंगे, वहीं स्वागत होगा। उसे कुटुम्बियों को भेज देंगे, वे खुश। जब लड़का कमा कर लाता है। आठ सौ पचास रुपये कमाने वाला इंजीनियर पैसा देता है, तो सोफासेट बनते हुए चले जाते हैं। माया घर में आती हुई चली जाती है। कौन मना करेगा? कोई नहीं करेगा। खिला हुआ फूल बीबी के हाथ में रख दिया जाय, तो बीबी मना करेगी क्या? नाक से लगाकर सूँघेगी छाती से लगा लेगी और कहेगी कि मेरे प्रियतम ने गुलाब का फूल लाकर के दिया है। मित्रो! फूल को हम क्या करते हैं? उस सुगंध वाले फूल को हम पेड़ से तोड़कर भगवान् के चरणों पर समर्पित कर देते हैं और कहते हैं कि हे परम पिता परमेश्वर! हे शक्ति और भक्ति के स्रोत! हम फूल जैसा अपना जीवन तेरे चरणारविन्दों पर समर्पित करते हैं। यह हमारा फूल, यह हमारा अंतःकरण सब कुछ तेरे ऊपर न्यौछावर है। 

🔴   हे भगवान्! हम तेरी आरती उतारते हैं और तेरे पर बलि बलि जाते हैं। हे भगवान्! तू धन्य है। सूरज तेरी आरती उतारता है, चाँद तेरी आरती उतारता है। हम भी तेरी आरती उतारेंगे। तेरी महत्ता को समझेंगे, तेरी गरिमा को समझेंगे। तेरे गुणों को समझेंगे और सारे विश्व में तेरे सबसे बड़े अनुदान और शक्ति प्रवाह को समझेंगे। हे भगवान्! हम तेरी आरती उतारते हैं, तेरे स्वरूप को देखते हैं। तेरा आगा देखते हैं, तेरा पीछा देखते हैं, नीचे देखते हैं। सारे मुल्क में देखते हैं। हम शंख बजाते हैं। शंख एक कीड़े की हड्डी का टुकड़ा है और वह पुजारी के मुखमंडल से जा लगा और ध्वनि करने लगा। दूर दूर तक शंख की आवाज पहुँच गयी। हमारा जीवन भी शंख की तरीके से जब पोला हो जाता है। इसमें से मिट्टी और कीड़ा जो भरा होता है, उसे निकाल देते हैं। जब तक इसे नहीं निकालेंगे, वह नहीं बजेगा मिट्टी को निकाल दिया, कीड़े को निकाल दिया। पोला वाला शंख पुजारी के मुख पर रखा गया और वह बजने लगा। पुजारी ने छोटी आवाज से बजाया, छोटी आवाज बजी। बड़ी आवाज से बजाया, बड़ी आवाज बजी। हमने भगवान् का शंख बजाया और कहा कि मैंने तेरी गीता गाई। भगवान्! तूने सपने में जो संकेत दिये थे, वह सारे के सारे तुझे समर्पित कर रहे हैं। शंख बजाने का क्रियाकलाप मानव प्राणियों के कानों में, मस्तिष्कों में भगवान् की सूक्ष्म इच्छाएँ आकांक्षाएँ फैलाने का प्रशिक्षण करता है।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(अ. ज्यो. अप्रैल २०१०)
परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

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