शोर का रूपान्तरण शान्ति में- यह शिष्य की श्रद्धा का सुफल है। यह उसकी भक्ति का सत्परिणाम है। जो इस नीरवता में अविचल भाव से अपने सद्गुरु को पुकारता रहता है। उसे ही मार्ग की सिद्धि मिलती है। यह मार्ग बाहरी दुनिया का मार्ग नहीं है। यह अन्तजर्गत की यात्रा का पथ है। यह ऐसा मार्ग है, जो शिष्य की चेतना को सद्गुरु की चेतना से जोड़ता है। बड़ा दुर्लभ पथ है यह। जिसे मिल चुका है, वे परम सौभाग्यशाली हैं क्योंकि वे सतत्- निरन्तर अपने सद्गुरु के सम्पर्क में रहते हैं। उनकी कृपा वर्षा को अनुभव करते हैं।
इस मार्ग को उपलब्ध करने वाले साधकों का अनुभव यही कहता है कि उनके सद्गुरु इस लोक में हों, या फिर किसी सुदूर लोक में, कोई अन्तर नहीं पड़ता। जिसे मार्ग मिल सका है, उसके कई चिह्न उनके जीवन में प्रकट हो जाते हैं। इन चिह्नों में सबसे महत्त्वपूर्ण चिह्न है, देहभाव का विलीन हो जाना। आचार्य शंकर कहते हैं देहादिभाव परिवर्तयन्त, परिवर्तित हो गए हैं देहभाव जिसके। इसका सार अर्थ इतना ही है कि उस पर बरसने वाली सद्गुरु की कृपा चेतना उसकी जैविक प्रवृत्तियों को आमूल- चूल बदल देती है। सच्चे शिष्य की देह दिखने में तो जस की तस बनी रहती है, पर उसकी प्रवृत्तियाँ घुल जाती हैं, धुल जाती हैं।
जैविक प्रवृत्तियों के रूपान्तरण के साथ ही शिष्य सतत् और निरन्तर अपने सद्गुरु की चेतना के लिए ग्रहणशील होता है। उसमें प्रकट होता है अडिग विश्वास, प्रबल निश्चय और व्यापक आत्मबोध। गुरुदेव उसे अपनी आत्मचेतना में स्वीकार लेते हैं। शिष्य उनकी सर्वव्यापी चेतना का अभिन्न अंश बन जाता है। उसके व्यक्तित्व से ऐसा प्रकाश फूटता है, जिससे कि उससे मिलने वालों का जीवन प्रकाशित हो जाता है। जिन्हें भी इसकी प्राप्ति हो सकी है, उन सभी के अन्तःकरण शान्ति से आप्लावित हो उठते हैं। इस सत्य के भेद और भी हैं। अगला सूत्र इस सत्य के नए आयाम उद्घाटित करेगा।
क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/jaivic
इस मार्ग को उपलब्ध करने वाले साधकों का अनुभव यही कहता है कि उनके सद्गुरु इस लोक में हों, या फिर किसी सुदूर लोक में, कोई अन्तर नहीं पड़ता। जिसे मार्ग मिल सका है, उसके कई चिह्न उनके जीवन में प्रकट हो जाते हैं। इन चिह्नों में सबसे महत्त्वपूर्ण चिह्न है, देहभाव का विलीन हो जाना। आचार्य शंकर कहते हैं देहादिभाव परिवर्तयन्त, परिवर्तित हो गए हैं देहभाव जिसके। इसका सार अर्थ इतना ही है कि उस पर बरसने वाली सद्गुरु की कृपा चेतना उसकी जैविक प्रवृत्तियों को आमूल- चूल बदल देती है। सच्चे शिष्य की देह दिखने में तो जस की तस बनी रहती है, पर उसकी प्रवृत्तियाँ घुल जाती हैं, धुल जाती हैं।
जैविक प्रवृत्तियों के रूपान्तरण के साथ ही शिष्य सतत् और निरन्तर अपने सद्गुरु की चेतना के लिए ग्रहणशील होता है। उसमें प्रकट होता है अडिग विश्वास, प्रबल निश्चय और व्यापक आत्मबोध। गुरुदेव उसे अपनी आत्मचेतना में स्वीकार लेते हैं। शिष्य उनकी सर्वव्यापी चेतना का अभिन्न अंश बन जाता है। उसके व्यक्तित्व से ऐसा प्रकाश फूटता है, जिससे कि उससे मिलने वालों का जीवन प्रकाशित हो जाता है। जिन्हें भी इसकी प्राप्ति हो सकी है, उन सभी के अन्तःकरण शान्ति से आप्लावित हो उठते हैं। इस सत्य के भेद और भी हैं। अगला सूत्र इस सत्य के नए आयाम उद्घाटित करेगा।
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