गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

शिष्य संजीवनी (भाग 33) : हों, सदगुरु की चेतना से एकाकार


शिष्य संजीवनी का सीधा मतलब है शिष्यत्व का सम्वर्धन। जो शिष्य अपने शिष्यत्व के खरेपन के लिए सजग, सचेष्ट एवं सतर्क नहीं है, उनका मन रह- रहकर डगमगाता है। साधना पथ की दुष्कर परीक्षाएँ उनके साहस को कंपाती रहती हैं। उनका उत्साह एवं उल्लास कभी भी धराशाही हो जाता है। अन्तःकरण में उठने वाली अनेकों छद्म प्रवंचनाएँ उन्हें किन्हीं भी नाजुक क्षणों में बहकाने में समर्थ होती हैं। सन्देह एवं भ्रम के झोंके उनकी आस्थाओं को सूखे पत्तों की भांति कहीं भी किधर भी उड़ा ले जाते हैं।

ये विडम्बनाएँ हमारे अपने जीवन में न घटें इसके लिए एक ही सार्थक समाधान है कि अपना शिष्यत्व हरदम खरा बना रहे। अपने शिष्यत्व के परिपाक एवं निखार के लिए एक ही साधना व समाधान है। शिष्य संजीवनी का नियमित एवं निरन्तर सेवन। जो यह सेवनकर रहे हैं उन्हें इसके गुणों की अनुभूति भी हो रही है।

यह अनुभूति और भी अधिक स्पष्ट हो, अपना शिष्यत्व और भी अधिक प्रमाणिक हो, इसके लिए शिष्य संजीवनी का यह सातवां सूत्र बड़ा ही लाभकारी है। इसमें कहा गया है- मार्ग की शोध करो। थोड़ा ठहरो और सोचो कि तुम सचमुच ही गुरु भक्ति का मार्ग पाना चाहते हो या फिर तुम्हारे मन में ऊँची स्थिति प्राप्त करने के लिए, आगे बढ़ने और एक भव्य भविष्य निर्माण करने के लिए स्वपन हैं।

सावधान! केवल और केवल गुरुभक्ति के लिए ही मार्ग को प्राप्त करना है। ध्यान रहे गुरुभक्ति किसी महत्त्वाकांक्षा पूर्ति का साधन बनकर कलंकित न होने पाए। इसके लिए कहीं बाहर भटकने की बजाय अपने अन्तःकरण में समाहित होकर मार्ग की शोध करो।

क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/sadg

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