भ्रष्टाचार भौतिक पदार्थ नहीं है। यह मनुष्य की अंतर्निहित चारित्रिक दुर्बलता है। जो मानव के नैतिक मूल्य को डिगा देती है। यह एक मानसिक समस्या है। भ्रष्टाचार धर्म, संप्रदाय, संस्कृति, सभ्यता, समाज, इतिहास एवं जाति की सीमाएँ भेदकर अपनी व्यापकता का परिचय देता है। वर्तमान समय में शासन, प्रशासन, राजनीति एवं सामाजिक जीवनचक्र भी इससे अछूते नहीं हैं। इसने असाध्य महामारी का रूप ग्रहण कर लिया है। यह किसी एक समाज या देश की समस्या नहीं है वरन् समस्त विश्व की है।
आचार्य कौटिल्य ने अपनी प्रसिद्ध कृति “अर्थशास्त्र' में भ्रष्टाचार का उल्लेख इस तरह से किया है,” अपि शक्य गतिर्ज्ञातुं पततां खे पतत्त्रिणाम्| न तु प्रच्छन्नं भवानां युक्तानां चरतां गति। अर्थात् आकाश में रहने वाले पक्षियों की गतिविधि का पता लगाया जा सकता है, किंतु राजकीय धन का अपहरण करने वाले कर्मचारियों की गतिविधि से पार पाना कठिन है। कौटिल्य ने भ्रष्टाचार के आठ प्रकार बताये हैं। ये हैं प्रतिबंध, प्रयोग, व्यवहार, अवस्तार, परिहायण, उपभोग, परिवर्तन एवं अपहार।
जनरल नेजुशन ने भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय कैंसर की मान्यता प्रदान की है। उनके अनुसार यह विकृत मन मस्तिष्क की उपज है। जब समाज भ्रष्ट हो जाता है, तो व्यक्ति और संस्थाओं का मानदंड भी प्रभावित होता है। ईमानदारी और सच्चाई के बदले स्वार्थ और भ्रष्टता फैलती है।
इस्लामी विद्वान् अब्दुल रहमान इबन खाल्दुन (1332-1406) ने कहा, व्यक्ति जब भोगवाद वृत्ति का अनुकरण करता है, तो वह अपनी आय से अधिक प्राप्ति की प्रबल कमाना करता है। इसलिए वह मर्यादा की हर सीमाएँ लाँघ जाना चाहता है और जहाँ ऐसा प्रयास सफल होता है, तो भ्रष्टाचार का 'चेन रिएक्शन' प्रारंभ होता है।
भ्रष्टाचार तीन तरह के अर्थों में प्रयुक्त होता है, रिश्वत, लूट-खसोट और भाई - भतीजावाद। इन तीनों की प्रकृति एक समान होती है। अगर इसके चरित्र का विश्लेषण किया जाए, तो इस तरह होगा, यह सदा एक से अधिक व्यक्तियों के बीच होता है। जब यह दुष्कृत्य एक व्यक्ति द्वारा होता है, तो उसे धोखेबाज कहते हैं और एक से अधिक व्यक्तियों के बीच होता है, तो भ्रष्टाचार कहलाता है। मुख्यतः यह गोपनीय कार्य है। व्यक्ति आपसी मंत्रणा कर अपने निहित स्वार्थ हेतु यह कदम उठाते हैं। इसमें नियम और कानून का खुला उल्लंघन नहीं
किया जाता है, बल्कि योजनाबद्ध तरीके से जालसाजी की जाती है।
भ्रष्टाचार उन्मूलन हेतु केवल कानून बनाना ही एकमात्र विकल्प नहीं हो सकता। इसके लिए व्यक्ति के अन्दर चारित्रिक सुदृढ़ता, ईमानदारी और साहस होना अनिवार्य है। क्योंकि भ्रष्टाचार रूपी दैत्य से जूझने के लिए अंदर और बाहर दोनों मजबूत होना चाहिए। भ्रष्टाचार की जड़ें इन दोनों क्षेत्रों में गहरी हैं। अतः जागरूकता यह पैदा की जाए कि व्यक्ति को लोभ, मोह को छोड़कर साहस एवं बलशाली होना चाहिए। यह विचार एवं भाव सभी जनों के अंदर से उमगे, तो ही भ्रष्टाचाररूपी महाकुरीति का उन्मूलन संभव है।
- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
अखंड ज्योति - मई 2001 - पृष्ठ - 30
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें