सोमवार, 28 मार्च 2016

जीवन आकांक्षाओं पर निर्भर

 
किसी भी कार्य का आरम्भ सर्वप्रथम आकांक्षा के रूप में होता है। आकांक्षा उठते ही उसकी पूर्ति के लिए मस्तिष्क कल्पना द्वारा उसके लिए योजना बनाने लगता है। बुद्धि आकांक्षा पूर्ति का उपाय खोजती है और विचार-चिंतन के रूप में कर्म का बीजारोपण होने लगता है।

उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति धनवान और साधन संपन्न बनने की आकांक्षा रखता है तो उसके विचार, उसकी बुद्धि और उसका मस्तिष्क आकांक्षा के साथ ही सक्रिय हो उठेंगे। यदि उपलब्ध साधन ही पर्याप्त जँचते हैं और अधिक धनसंग्रह की इच्छा नहीं उठती तो बुद्धि और विचार उधर जायेंगे भी नहीं।

इस प्रकार मनुष्य का स्तर और उसकी जीवन पद्धति बहुत कुछ आकाँक्षाओं पर निर्भर करती है।

प्रगति की आकांक्षा स्वाभाविक भी है और उचित, उपयोगी भी। उसमें व्यक्ति का निजी लाभ भी है और समाज का समग्र हित साधन भी।

इच्छा के त्याग वाली उक्ति जिन आध्यात्म ग्रंथों में पाई जाती है, वहाँ उसका प्रयोजन प्रतिफल का, आतुरता का परित्याग करने भर से है।

हम क्या हैं, हमारी परिस्थिति  कैसी है और हम किस धरातल पर खड़े हैं, हमारी कितनी क्षमताएँ हैं? इन्हें जाने, समझे बिना महत्वाकांक्षाओं के पीछे नहीं दौड़ा जाना चाहिए। अपने सम्बन्ध में न कोई काल्पनिक धारणाएँ रखे और न ऐसी कोई आकांक्षा रखे जो की अपनी प्रकृति के अनुकूल न हो।

- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
जीवन देवता की साधना - आराधना (2)-2.15
    

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