आत्मविकास का लक्ष्य पूरा हो
सद्गुणों का अर्थ सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, ईश्वर- भक्ति जैसे उच्च आदर्शों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। उनकी परिधि अन्तरंग और बहिरंग जीवन के प्रत्येक क्षेत्र तक फैली हुई है ।। समग्र व्यक्तित्व को परिष्कृत, सज्जनोचित एवं प्रामाणिक बनाने वाली सभी आदतों एवं रुझानों को सद्गुणों की सीमा में सम्मिलित किया जाएगा ।। कोई व्यक्ति झूठ नहीं बोलता, चोरी नहीं करता, व्यभिचार से बचा है, यह बचाव उचित है और अनुकरणीय भी, पर इतने को ही आत्म- निर्माण मान बैठना अपर्याप्त होगा ।। कीट- पतंग और वृक्ष- वनस्पति भी तो झूठ चोरी से बचे रहते हैं ।। यह स्थूल सदाचार का आंशिक पालन मात्र हुआ ।। इतने भर से आत्मविकास का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता ।। मन में कुहराम मचाने वाली घुटन का भी अन्त होना चाहिए ।। जिन उद्वेगों और विकारों ने मन:क्षेत्र को अस्त व्यस्त करके रख दिया है, उनका भी निराकरण होना चाहिए ।। गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का अभाव रहने के कारण जो सर्वतोमुखी दरिद्रता छाई हुई है, उसका भी अन्त होना चाहिए ।।
युग निर्माण योजना -- दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम- ६६ (२.२२)
The goal of self-development should be fulfilled
The meaning of good virtues shouldn’t be restricted only to achieving the high ideals like truthfulness, non-violence, celibacy, devotion to God, etc. Its sphere of influence actually spans far beyond and permeates every single area of the inner (thinking, feelings) and outer (action, speech, conduct, etc.) life.
Good virtues include all the habits and inclinations which help us to refine the entire personality, make it honest and superb like that of a true gentleman. It is worthy and truly exemplary if someone never lies, never steals or never commits adultery. However, pursuing only this much wouldn’t be enough for the purpose of fulfilling the self-development. Even insects and plants never lie or steal, do they!? These obviously evident virtues form just a small fraction of good conduct but fall well short of fulfilling the goal of self-development.
The all-inclusive process of self-development should resolve the tumult of wayward thoughts going on continually in the mind. It should also get rid of the negative impulses (worry, anger, anxiety, etc.) and depravities which have been wrecking the mind. It should also put an end to a widespread dismal quality of life caused by the lack of excellence in qualities, actions and nature.
Translated from Pandit Shriram Sharma Acharya’s work
Yug Nirmaan Yojanaa: Darshan, swaroopa va kaaryakram 66:2.22
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