मंगलवार, 1 मार्च 2016

अहंकार छोड़ें अहंभाव अपनाएं (भाग 6)
 आज कल सन्त महन्त, योगी, यती, गद्दी धारी, अखाड़े बाज किसी भी तथाकथित धर्म नेता या अध्यात्म वेत्ता के पास जाइये उनके यहाँ यही अशिष्ट व्यवस्था मिलेगी कोई चरण स्पर्श न करे तो मुँह से भले ही कुछ न कहें, भीतर ही भीतर बेतरह कुढ़ेंगे।

एक सन्त दूसरे सन्त के यहाँ जाने में अपनी हेठी समझाता है। मैं क्यों उसके यहाँ जाऊँ- वह मेरे यहाँ क्यों नहीं आये? उसके आश्रम में मेरा आश्रम क्यों छोटा रहे? जैसी अहंमन्यता की अति वहाँ भी कम नहीं होती है दूर से देखने पर जो सन्त योगी दीखते थे, पास जाने और बारीकी से देखने पर वे भी अहंकार से बेतरह ग्रस्त रोगी की तरह ही दीखते हैं।

यह अहंकार ओछेपन का चिह्न है। अन्न हजम न होने पर मुँह से खट्टी डकारें बार-बार निकलती हैं और सड़ा हुआ बदबूदार अपान वायु शब्द करता हुआ निकलता है। ठीक इसी प्रकार वाणी से आत्म प्रशंसा-शेखीखोरी अपना बखान करने की भरमार यह बताती है कि पेट में अपच है और यह खट्टी डकारें मुँह से निकल रही हैं।

चकाचौंध उत्पन्न करने वाला ठाट-बाट जमाने में कितना समय, श्रम और धन नष्ट होता है, अपनी महत्ता का ढोल पीटने के लिये कितना निरर्थक सरंजाम इकट्ठा किया जाता है इसे देखकर यह समझा जा सकता है कि अपच अपान वायु के रूप में ढोल पीटने और ढिंढोरा करने की विडम्बना रच रहा है।  विभिन्न वर्ग और विभिन्न स्तर के लोग अपनी भौतिक सम्पदाओं का भौंड़ा प्रदर्शन अपने-अपने ढंग से करते रहते हैं उसमें उनकी आन्तरिक तुच्छता आत्मश्लाघा की खिड़की में से झाँकती दीखती है। श्रेष्ठ व्यक्ति सम्पदा को पचा जाते हैं हजम किया हुआ अन्न रक्त बन जाता है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1972 पृष्ठ 17
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/July.17
 

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