विचार शक्ति का महत्व समझिये। (भाग 1)
व्यक्ति जैसा सोचता है, वैसा ही व्यवहार करता है। विचारों का प्रभाव हमारे आचार पर अवश्यंभावी रूप से पड़ता है। अतएव मानव जीवन की सफलता के लिये स्वस्थ एवं उन्नत विचार परमावश्यक हैं। शारीरिक स्वास्थ्य तथा सौंदर्य भी स्वस्थ एवं प्रसन्न मन पर ही निर्भर है अतएव स्वस्थ शरीर के लिए स्वस्थ मन का होना अनिवार्य है।
जैसी हमारी मानस कल्पनाएं तथा विचार होंगे, वैसा ही जीवन भी ढल जायेगा। वस्तुतः हम जो सोचते हैं, उससे शरीर की ग्रन्थियों में एक प्रकार का रस द्रवित होता है। यदि विचार सुखदाय, स्फूर्तिवान तथा आशाप्रद होंगे तो शरीर के नन्हें-नन्हें कोषों तथा रोमों को भी नूतन स्फूर्ति एवं चैतन्यता प्राप्त होगी। इसके विपरीत भय, चिन्ता, द्वेष एवं मनोमालिन्य की भावनाएं शरीर के घटकों में अज्ञात विष उड़ेलती रहती हैं जिससे जीवन शक्ति तथा कार्यक्षमता नष्ट होती है तथा अनगिनत रोग और पीड़ाएं उत्पन्न होती हैं। स्वस्थ रहने के लिये यह परमावश्यक है कि हमारे मन में निराशा, चिन्ता, दुर्बलता और अवसाद के विचार न आने पायें। रोगों की जड़ें शरीर में नहीं अपितु मन में होती हैं।
अनेकों व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अपने भाव संस्थान को निर्बल तथा कायर भावनाओं से विकृत बनाये रहते हैं। वे स्वयं को संसार के दुर्भाग्यशाली व्यक्तियों में गिनने हैं इस बात में विश्वास रखते हैं कि उन्हें किसी कार्य में सफलता प्राप्त हो ही नहीं सकती। परिणामतः या तो वे कार्य ही नहीं करते, यदि प्रारम्भ भी करते हैं तो असफलता के भय से या बाधायें आ जाने पर, बीच में ही छोड़ बैठते हैं। बिना दृढ़ निश्चय एवं संकल्प शक्ति के कोई कार्य पूरा नहीं हो सकता।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1972 पृष्ठ 44
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/October.44
व्यक्ति जैसा सोचता है, वैसा ही व्यवहार करता है। विचारों का प्रभाव हमारे आचार पर अवश्यंभावी रूप से पड़ता है। अतएव मानव जीवन की सफलता के लिये स्वस्थ एवं उन्नत विचार परमावश्यक हैं। शारीरिक स्वास्थ्य तथा सौंदर्य भी स्वस्थ एवं प्रसन्न मन पर ही निर्भर है अतएव स्वस्थ शरीर के लिए स्वस्थ मन का होना अनिवार्य है।
जैसी हमारी मानस कल्पनाएं तथा विचार होंगे, वैसा ही जीवन भी ढल जायेगा। वस्तुतः हम जो सोचते हैं, उससे शरीर की ग्रन्थियों में एक प्रकार का रस द्रवित होता है। यदि विचार सुखदाय, स्फूर्तिवान तथा आशाप्रद होंगे तो शरीर के नन्हें-नन्हें कोषों तथा रोमों को भी नूतन स्फूर्ति एवं चैतन्यता प्राप्त होगी। इसके विपरीत भय, चिन्ता, द्वेष एवं मनोमालिन्य की भावनाएं शरीर के घटकों में अज्ञात विष उड़ेलती रहती हैं जिससे जीवन शक्ति तथा कार्यक्षमता नष्ट होती है तथा अनगिनत रोग और पीड़ाएं उत्पन्न होती हैं। स्वस्थ रहने के लिये यह परमावश्यक है कि हमारे मन में निराशा, चिन्ता, दुर्बलता और अवसाद के विचार न आने पायें। रोगों की जड़ें शरीर में नहीं अपितु मन में होती हैं।
अनेकों व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अपने भाव संस्थान को निर्बल तथा कायर भावनाओं से विकृत बनाये रहते हैं। वे स्वयं को संसार के दुर्भाग्यशाली व्यक्तियों में गिनने हैं इस बात में विश्वास रखते हैं कि उन्हें किसी कार्य में सफलता प्राप्त हो ही नहीं सकती। परिणामतः या तो वे कार्य ही नहीं करते, यदि प्रारम्भ भी करते हैं तो असफलता के भय से या बाधायें आ जाने पर, बीच में ही छोड़ बैठते हैं। बिना दृढ़ निश्चय एवं संकल्प शक्ति के कोई कार्य पूरा नहीं हो सकता।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1972 पृष्ठ 44
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/October.44
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