गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

अहंकार छोड़ें अहंभाव अपनाएं (भाग 1)

अहंकार और अहंभाव देखने में एक जैसे लगते हैं और उनको निन्दास्पद समझा जाता है पर वस्तुतः ऐसी बात है नहीं। दोनों में से केवल अहंकार ही निन्दनीय है। अहंभाव तो जीवन का मेरुदण्ड है, यदि वह न हो तो सीधा खड़ा रहना ही कठिन हो जाय।

अहंकार कहते हैं- भौतिक वस्तुओं और शारीरिक क्षमता पर इतराने को- इन कारणों से अपनों को दूसरों से श्रेष्ठ समझने को- अपनी इस उपलब्धि का ऐसा भौंड़ा प्रदर्शन करने को जिससे औरों पर अपने बड़प्पन की छाप पड़े। यह प्रवृत्ति यह जताती है कि यह व्यक्ति सम्पदाओं को हजम नहीं कर पा रहा है और वे ओछेपन के रूप में फूट कर निकल रही हैं।

अन्न जब पचता नहीं तो उलटी और दस्त के रूप में फूटता है। अन्न श्रेष्ठ था पर जब वह इस प्रकार घिनौना होकर बाहर निकलता है तो देखने वाले का जी बिगड़ता है और उस रोगी को भी कष्ट होता है। अन्न बुरा नहीं है और न उसका खाया जाना है। चिन्ता का विषय ‘हैजा’ है। सम्पदाएं बुरी नहीं, उनका होना हेय नहीं, पर उनका नशा बुरा है- जिसे अहंकार कहते हैं।

चावल, जौ, गुड़ इनमें से कोई भी बुरा नहीं। इन्हें हविष्यान्न कहते हैं। पर इन्हें सड़ा कर जब शराब बनाई जाती है तो वह अहितकर और अवाँछनीय बन जाती है। सम्पदा जब विकृत होकर किसी व्यक्ति के मन पर छाती है तो वह नशे जैसा प्रभाव करती है और मनुष्य उन्मत्त होकर उद्धत आचरण करने लगता है। सम्पदाओं की जब ऐसी ही प्रतिक्रिया होती है तो उसे अहंकार कहा जाता है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1972 पृष्ठ 15
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/July.15

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