बुधवार, 31 जुलाई 2024

👉 उपासना, साधना व आराधना (भाग 5)

🔸 अगर आपका मन संसार की ओर अधिक लगा हुआ है, तो आप आध्यात्मिकता की ओर कैसे बढ़ पाएँगे? फिर आपका मन पूजा- उपासना में कैसे लगेगा? आप इस दिशा में आगे कैसे बढ़ेंगे? गोली चलाने वाला अगर निशाना न साधे, तो उसका काम कैसे चलेगा? वह कभी इधर को भटके, कभी उधर को भटके, तो उससे निशाना कैसे साधा जाएगा? बीस जगह ध्यान रहा, तो आप विजेता नहीं बन सकते हैं। भगवान् आपको अपनाने के लिए हाथ बढ़ा रहा है, परन्तु ये तीन हथकड़ियाँ वासना, तृष्णा एवं अहंता आपको भगवान् तक पहुँचने में रुकावट पैदा कर रही हैं। आपको इनसे लोहा लेना होगा। आप अगर अपने हाथों को नहीं खोलेंगे, तो भगवान् की गोद में आप कैसे जाएँगे?

🔹 मित्रो, साधना में आपको अपने मन को समझाना होगा। अगर मन नहीं मानता है, तो आपको उसकी पिटाई करनी होगी। बैल जब खेतों में हल नहीं खींचता है तथा घोड़ा जब रास्ते पर चलने अथवा दौड़ने को तैयार नहीं होता है, तो उसकी पिटाई करनी पड़ती है। हमने अपने आपको इतना पीटा है कि उसका कहना नहीं। हमने अपने आपको इतना धुलने का प्रयास किया है कि उसे हम कह नहीं सकते। इस प्रकार धुलाने के कारण हम फकाफक कपड़े के तरीके से आज धुले हुए उज्ज्वल हो गये। हमने अपने आपको रूई की तरह से धुनने का प्रयास किया है, जो धुनने के पश्चात् फूलकर इतनी स्वच्छ और मोटी हो जाती है कि उससे नयी चीज का निर्माण होता है।

🔸 भगवान् का भजन करने एवं नाम लेने के लिए अपना सुधार करना परम आवश्यक है। वाल्मीकि ने जब यह काम किया, तो भगवान् के परमप्रिय भक्त हो गये। उनकी वाणी में एक ताकत आ गयी। उसने डकैती छोड़ दी, उसके बाद भगवान् का नाम लिया, तो काम बन गया। कहने का मतलब यह है कि आप अपने आपको धोकर इतना निर्मल बना लें कि भगवान् आपको मजबूर होकर प्यार करने लग जाए। राम नाम के महत्त्व से ज्यादा आपकी जीभ का महत्त्व है। आप जीभ पर कंट्रोल रखिए, तब ही काम बनेगा। जीभ पर काबू रखें, आप ईमानदारी की कमाई खाएँ, बेईमानी की कमाई न खाएँ।

> 👉 अमृतवाणी:- पूजा उपासना के मर्म | Puja Upashan Ke Marm https://youtu.be/6npDP9lYPGo?si=zY7vwCwdh-xByz2u

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🔹 हमने अपनी जीभ को साफ किया है। उसे इस लायक बनाया है कि गुरु का नाम लेकर जो भी वरदान देते हैं, वह सफल हो जाता है। आप भी जीभ को ठीक कीजिए न! आप अपने आपको सही करें। अपने जीवन में सादा जीवन उच्च विचार लाएँ। इस सिद्धान्त को जीवन का अंग बनाने से ही काम बनेगा। आपको खाने के लिए दो मुट्ठी अनाज और तन ढँकने के लिए थोड़ा- सा कपड़ा चाहिए, जो इस शरीर के द्वारा आप सहज ही पूरा कर सकते हैं। फिर आप अपने जीवन को शुद्ध एवं पवित्र क्यों नहीं बनाते। अगर यह काम करेंगे, तो आप भगवान् की गोदी के हकदार हो जाएँगे। ऐसा बनकर आदमी बहुत कुछ काम कर सकता है।

..... क्रमशः जारी
✍🏻 पूज्य पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी

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👉 साधक के समक्ष पाँच महा बाधायें

एक नगर मे एक महान सन्त साधकों को अतिसुन्दर कथा-अमृत पिला रहे थे वो साधना के सन्दर्भ मे अति महत्तवपूर्ण जानकारी दे रहे थे। सन्त श्री कह रहे थे की साधना-पथ पर साधक के सामने पंच महाबाधाये आती है और साधक वही जो हर पल सावधानी से साधना-पथ पर चले!

1. पहली बाधा - नियमभंग की बाधा:-

जब भी आप ईष्ट के प्रति कोई नियम लोगे तो संसार आपके उस नियम को येनकेन प्रकारेण खंडित करने का प्रयास करेगा!
जैसे किसी ने नियम लिया की वो एकादशी को कुछ भी नही खायेगा तो फिर कई व्यक्ति कहेंगे की अरे इतना सा तो खालो, फल तो खालो फिर उसके सामने कुछ न कुछ लाकर जरूर रखेंगे और उसे खाने पर विवश कर देंगे!

इसलिये इससे बचने के लिये आप गोपनीयता रखो मूरखों की तरह व्यर्थ प्रदर्शन न करो माला को गोमुखी मे जपो साधना का प्रदर्शन मत करो की मैंने इतना जप किया! जब कोई अपना जीवन नियम से जीता है और जिस दिन उसका नियम टूटता है तो व्याकुलता बढ़ती है और यही व्याकुलता हमें ईश्वर की और ले जाती है!

2. दुसरी बाधा है बाह्यय लोगो से विरोध:-

इससे बचने के लिये मदमस्त हाथी की तरह चलना सब की भली बुरी सुनते हुये चलना कोई कटाक्ष करे तो इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देना व्यर्थ के प्रपंच से बचते हुये बिल्कुल अर्जुन की तरह एकाग्रचित्त होकर चलना!

3. तीसरी बाधा है साधु सन्तों द्वारा कसौटी परख:-

आपके सामने नाना प्रकार के प्रलोभन आयेंगे सिद्धियों का प्रलोभन आयेगा पर आप वैभव और सुख सुविधा का त्याग करते हुये आगे बढ़ना! जैसे आपने एक वर्ष का एक व्रत रखा और कहा की एक वर्ष तक अमुख दिन नमकीन और मीठा न खाऊंगा तो उस दिन तुम्हारे सामने नमकीन और मीठा जरूर आयेगा अब वहा जिह्वा की परीक्षा होगी इस प्रकार कई तरह की परीक्षाओ से गुजरना पड़ेगा!
इससे बचने के लिये आप त्यागी बन जाना!

4. चौथी बाधा है देवताओं द्वारा राह अवरोधन:-

जब भी किसी की साधना बढ़ती है उसका प्रभाव बढ़ता है तो देवता उसकी राह मे बड़ी बाधा उत्पन्न करते है!
कामदेव की पुरी सैना पुरी शक्ति लगा देती है जैसे विशवामित्र जी का तप भंग नारद जी को अहंकार से घायल करना इससे बचने के लिये अपनी सम्पुर्ण आसक्ति और प्रीति ईष्ट के चरणों मे रखना जब ईष्ट के चरणों मे प्रीति होगी तो देवताओं की प्रतिकूलता भी अनुकुलता मे बदल जायेगी!

सद्गुरु का सानिध्य, समर्थ सच्चे सन्त का माथे पर हाथ, ईष्ट मे एकनिष्ठ एवं सच्ची प्रीति और अविरल निष्काम सात्विक साधना से देवताओं की प्रतिकूलताओं को अनुकुलता मे बदला जा सकता है!

> 👉 *अमृतवाणी:- साधक कैसे बनें? | Amritvanni Sadhak Kaise Banen* 

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5. पाँचवी बाधा है अपनो का विरोध:-

गैरों की तो छोड़ो अपने भी विरोधी हो जाते है अपने ही शत्रु बन जाते है और इससे बचने के लिये आप इस सत्य को सदा याद रखना की हरी के सिवा यहाँ हमारा कोई नही है! सारा जगत है एक झूठा सपना और केवल हरी ही है हमारा अपना! और जब इस पाँचवी बाधा को भी साधक पार कर लेता है तो फिर साधक अपने ईष्ट मे समा जाता है फिर उसे संसार की नही केवल सार की परवाह रहती है!

इन बाधाओं से जब सामना हो तो घबराना मत बस अटूट प्रीति रखना ईष्ट मे और बुद्धि की रक्षा करना!

बुद्धि कई प्रकार की है पर जो बुद्धि परमतत्व से मिला दे वही सार्थक है बुद्धि ऊपर की ओर ले जाती है और श्रद्धा भीतर की ओर, इसलिये बुद्धि से श्रद्धा की ओर बढ़ो!

इष्टदेव के प्रति अटूट सार्थक नियम से प्रेम का जन्म होगा प्रेम से ईष्टदेव के श्री चरणों मे प्रीति बढेगी और जब प्रीति बढेगी तो श्रद्धा का जन्म होगा और जब श्रद्धा का जन्म होगा तो जीवन मे सच्चे सन्त का आगमन होगा और जब जीवन मे सच्चे सन्त सद्गुरु का आगमन होगा तो फिर ईश्वर के मिलने मे समय न लगेगा!

मंगलवार, 30 जुलाई 2024

👉 उपासना, साधना व आराधना (भाग 4)

🔹 साधना में भी यही होता है। मनुष्य के, साधक के मन के ऊपर चाबुक मारने से, हण्टर मारने से, गरम करने से, तपाने से वह काबू में आ जाता है। इसीलिए तपस्वी तपस्या करते हैं। हिन्दी में इसे ‘साधना’ कहते हैं और संस्कृत में ‘तपस्या’ कहते हैं। यह दोनों एक ही हैं। अतः साधना का मतलब है- अपने आपको तपाना। खेत की जोताई अगर ठीक ढंग से नहीं होगी, तो उसमें बोवाई भी ठीक ढंग से नहीं की जा सकेगी। अतः अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए पहले खेत की जोताई करना आवश्यक है, ताकि उसमें से कंकड़- पत्थर आदि निकाल दिए जाएँ। उसके बाद बोवाई की जाती है। कपड़ों की धुलाई पहले करनी पड़ती है, तब उसकी रँगाई होती है। बिना धुलाये कपड़ों की रँगाई नहीं हो सकती है। काले, मैले- कुचैले कपड़े नहीं रँगे जा सकते हैं।

🔸 मित्रो, उसी प्रकार से राम का नाम लेना एक तरह से रँगाई है। राम की भक्ति के लिए साफ- सुथरे कपड़ों की आवश्यकता है। माँ अपने बच्चों को गोद में लेती है, परन्तु जब बच्चा टट्टी कर देता है, तो वह उसे गोद में नहीं उठाती है। पहले उसकी सफाई करती है, उसके बाद उसके कपड़े बदलती है, तब गोद में लेती है। भगवान् भी ठीक उसी तरह के हैं। वे मैले- कुचैले प्रवृत्ति के लोगों को पसन्द नहीं करते हैं। यहाँ साफ- सुथरा से मतलब कपड़े से नहीं है, बल्कि भीतर से है- अंतरंग से है। इसी को स्वच्छ रखना, परिष्कृत करना पड़ता है।

🔹 तपस्या एवं साधना इसी का नाम है। अपने अन्दर जो बुराइयाँ हैं, भूले हैं, कमियाँ हैं, दोष- दुर्गुण हैं, कषाय- कल्मष हैं, उसे दूर करना व उनके लिए कठिनाइयाँ उठाना ही साधना या तपस्या कहलाती है। इसी का दूसरा नाम पात्रता का विकास है। कहने का तात्पर्य यह है कि वर्षा के समय आप बाहर जो भी पात्र रखेंगे- कटोरी गिलास जो कुछ भी रखेंगे, उसी के अनुरूप उसमें जल भर जाएगा। इसी तरह आपकी पात्रता जितनी होगी, उतना ही भगवान् का प्यार, अनुकम्पा आप पर बरसती चली जाएगी।

> 👉 *अमृतवाणी:- पूजा-उपासना के लाभ | Pooja Upasna Ke Labh* 

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🔸 घोड़ा जितना तेजी से दौड़ सकता है, उसी के अनुसार उसका मूल्य मिलता है। गाय जितना दूध देती है, उसी के अनुसार उसका मूल्यांकन होता है। अगर आपके कमण्डलु में सुराख है, तो उसमें डाला गया पदार्थ बह जाएगा। नाव में अगर सुराख है, तो नाव पार नहीं हो सकती है। वह डूब जाएगी। अतः आप अपने बर्तन को बिना सुराख के बनाने का प्रयत्न करें। हमने सारी जिन्दगी भर इसी सुराख को बन्द करने में अपना श्रम लगाया है। वासना, तृष्णा और अहंता- यही तीन सुराख हैं, जो मनुष्य को आगे नहीं बढ़ने देते हैं। इन्हें ही भवबन्धन कहा गया है।

..... क्रमशः जारी
✍🏻 पूज्य पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी

http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Lectures/112

सोमवार, 29 जुलाई 2024

👉 उपासना, साधना व आराधना (भाग 3)

🔸 आपने नदी को देखा होगा कि वह कितनी गहरी होती है। चौड़ी एवं गहरी नदी को कोई आसानी से पार नहीं कर सकता है, किन्तु जब वह एक नाव पर बैठ जाता है, तो नाव वाले की सह जिम्मेदारी होती है कि वह नाव को भी न डूबने दे और वह व्यक्ति जो उसमें बैठा है, उसे भी न डुबाये। इस तरह नाविक उस व्यक्ति को पार उतार देता है। ठीक उसी प्रकार जब हम एक गुरु को, भगवान् को, नाविक के रूप में समर्पण कर देते हैं, तो वह हमें इस भवसागर से पार कर देता है। हमारे जीवन में इसी प्रकार घटित हुआ है। हमने अपने गुरु को भगवान् बना लिया है। हमने उन्हें एकलव्य की तरह से अपना सर्वस्व मान लिया है। हमने उन्हें एक बाबाजी, स्वामी जी गुरु नहीं माना है, बल्कि भगवान् माना है। हमारे पास इस प्रकार भगवान् की शक्ति बराबर आती रहती है। हमने पहले छोटा बल्ब लगा रखा था, तो थोड़ी शक्ति आती थी। अब हमने बड़ा बल्ब लगा रखा है, तो हमारे पास ज्यादा शक्ति आती रहती है।

🔹 हमें जब जितना चाहिए, मिल जाता है। हमें आगे बड़ी- बड़ी फैक्टरियाँ लगानी हैं, बड़ा काम करना है। अतः हमने उन्हें बता दिया है कि अब हमें ज्यादा ‘पावर’ ज्यादा शक्ति की आवश्यकता है। आप हमारे ट्रांसफार्मर को बड़ा बना दीजिए। अब वे हमारे ट्रांसफार्मर को बड़ा बनाने जा रहे हैं। आपको भी अगर लाभ प्राप्त करना है, तो हमने जैसे अपने गुरु को माना और समर्पण किया है, आप भी उसी तरह मानिये तथा समर्पण कीजिए। उसी तरह कदम बढ़ाइए। हमने उपासना करना सीखा है और अब हम हंस बन गये हैं। आपको भी यही चीज अपनानी होगी। इससे कम में उपासना नहीं हो सकती है। आप पूरे मन से, पूरी शक्ति से उपासना में मन लगाइये और वह लाभ प्राप्त कीजिए जो हमने प्राप्त किये हैं। यही है उपासना।

> 👉 *अमृतवाणी:- उपासना का महत्त्व | Intercession & its Significance* 

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🔸 साधना किसकी की जाए? भगवान् की? अरे भगवान् को न तो किसी साधना की बात सुनने का समय है और न ही उसे साधा जा सकता है। वस्तुतः जो साधना हम करते हैं, वह केवल अपने लिए होती है और स्वयं की होती है। साधना का अर्थ होता है- साध लेना। अपने आपको सँभाल लेना, तपा लेना, गरम कर लेना, परिष्कृत कर लेना, शक्तिवान बना लेना, यह सभी अर्थ साधना के हैं। साधना के संदर्भ में हम आपको सर्कस के जानवरों का उदाहरण देते रहते हैं कि हाथी, घोड़े, शेर, चीजें जब अपने को साध लेते हैं, तो कैसे- कैसे चमत्कार दिखाते हैं। साधे गये ये जानवर अपने मालिक का पेट पालने तथा सैकड़ों लोगों का मनोरंजन करने, खेल दिखाने में समर्थ होते हैं। इन जानवरों को साध लिया गया होता है, जो सैकड़ों लोगों को प्राविडेण्ट फण्ड देते हैं, पेमेण्ट देते हैं, उनका पालन करते हैं। ये कैसे साधे जाते हैं। बेटे, यह रिंगमास्टर के हण्टरों से साधे जाते हैं। वह उन्हें हण्टर मार- मारकर साधता है। अगर उन्हें ऐसे ही कहा जाए कि भाईसाहब आप इस तरह का करतब दिखाइये, तो इसके लिए वे तैयार नहीं होंगे, वरन उल्टे आपके ऊपर, मास्टर के ऊपर हमला कर देंगे।

..... क्रमशः जारी
✍🏻  पूज्य पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी

रविवार, 28 जुलाई 2024

👉 उपासना, साधना व आराधना (भाग 2)

🔹 आप लोगों को मालूम है कि ग्वाल- बाल इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने अपनी लाठी के सहारे गोवर्धन को उठा लिया था। इसी तरह रीछ- बन्दर इतने शक्तिशाली थे कि वे बड़े- बड़े पत्थर उठाकर लाये और समुद्र में सेतु बनाकर उसे लाँघ गये थे। क्या यह उनकी शक्ति थी? नहीं बेटे, यह भगवान् श्रीकृष्ण एवं राम के प्रति उनके समर्पण की शक्ति थी, जिसके बल पर वे इतने शक्तिशाली हो गये थे। भगवान् के साथ, गुरु के साथ मिल जाने से, जुड़ जाने से आदमी न जाने क्या से क्या हो जाता है। हम अपने गुरु से- भगवान् से जुड़ गये, तो आप देख रहे हैं कि हमारे अन्दर क्या- क्या चीजें हैं। आप कृपा करके मछली पकड़ने वालों, चिड़िया पकड़ने वालों के तरीके से मत बनना और न इस तरह की उपासना करना, जो आटे की गोली और चावल के दाने फेंककर उन्हें फँसा लेते और पकड़ लेते हैं तथा कबाब बना लेते हैं।

🔸 आप ऐसे उपासक मत बनना, जो भगवान् को फँसाने के लिए तरह- तरह के प्रलोभन फेंकता है। बिजली का तार लगा हो, परन्तु उसका सम्बन्ध जनरेटर से न हो तो करेण्ट कहाँ से आयेगा? उसी तरह हमारे अंदर अहंकार, लोभ, मोह भरा हो, तो वे चीजें हम नहीं पा सकते हैं। जो भगवान् के पास हैं। अपने पिता की सम्पत्ति के अधिकारी आप तभी हो सकते हैं, जब आप उनका ध्यान रखते हों, उनके आदर्शों पर चलते हों। आप केवल यह कहें कि हम तो उन्हें पिताजी- पिताजी कहते थे तथा अपना सारा वेतन अपनी पाकेट में रखते थे और उनकी हारी- बीमारी से हमारा कोई लेना- देना नहीं था, तो फिर आपको उनकी सम्पत्ति का कोई अधिकार नहीं मिलने वाला है।


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🔹 साथियो, हमने भगवान् को देखा तो नहीं है, परन्तु अपने गुरु को हमने भगवान् के रूप में पा लिया है। उनको हमने समर्पण कर दिया है। उनके हर आदेश का पालन किया है। इसलिए आज उनकी सारी सम्पत्ति के हम हकदार हैं। आपको मालूम नहीं है कि विवेकानन्द ने रामकृष्ण परमहंस को देखा था, स्वामी दयानन्द ने विरजानन्द को देखा था। चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त का नाम सुना है न आपने। उनके गुरु ने जो उनको आदेश दिये, उनका उन्होंने पालन किया। गुरुओं ने शिष्यों को, भगवान ने भक्तों को जो आदेश दिये, वे उनका पालन करते रहे। आपने सुना नहीं है, एक जमाने में समर्थ गुरु रामदास के आदेश पर शिवाजी लड़ने के लिए तैयार हो गये थे। उनके एक आदेश पर वे आजादी की लड़ाई के लिए तैयार हो गये। यही समर्पण का मतलब है। आपको मालूम नहीं है कि इसी समर्पण की वजह से समर्थ गुरु रामदास की शक्ति शिवाजी में चली गयी और वे उसे लेकर चले गये।

.... क्रमशः जारी
✍🏻  पूज्य पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी

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👉 सजल श्रद्धा - प्रखर प्रज्ञा

श्रद्धा अर्थात् श्रेष्ठता से असीम प्यार, अटूट अपनत्व। सजलता - तरलता इसकी विशेषता है। पानी पर कितने भी प्रहार कि ए जाएँ, वह कटता - टूटता नहीं है। पानी से टकराने वाला उसे तोड़ नहीं पाता, उसी में समा जाता है। श्रद्धा की यही विशेषता उसे अमोघ प्रभाव वाली बना देती है।
  
प्रज्ञा अर्थात् जानने, समझने, अनुभव करनें की उत्कृष्ठ क्षमता, दूरदर्शी विवेकशीलता। प्रखरता इसकी विशेषता है। प्रखरता की गति अबाध होती है। प्रखरता युक्त प्रज्ञा हजार अवरोधों - भ्रमों को चीरती हुई यथार्थ तक पहुँचने एवं बुद्धि के उत्कृष्ठतम नियोजन में सफ ल होती है।
  
सजल श्रद्धा - प्रखर प्रज्ञा तीर्थ के सनातन मूल घटक हैं। जहाँ ऋषियों अवतारी सत्ताओं के प्रभाव से यह दोनों धाराऐं सघन सबल हो जाती हैं वहीं तीर्थ विकसित - प्रतिष्ठित हो जाते हैं। युगतीर्थ - गायत्री तीर्थ के भी यही मूल घटक हैं।

> 👉 *नित्य शांतिकुंज का ध्यान कैसे करे | Nitya Shantikunj Ka Dhayan* https://youtu.be/QAgnTaClxJ4?si=kFttxSnejvqI41dI

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युगतीर्थ के संस्थापक वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ, युगऋषि पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य एवं स्नेह सलिला वन्दनीया माता भगवती देवी शर्मा की वास्तविक पहचान उनके शरीर नहीं, उनके द्वारा प्रवाहित प्रखर प्रज्ञा एवं सजल श्रद्धा की सशक्त धाराएँ रही हैं। इसलिए उनके स्मृति चिन्हों के रूप में उनकी स्थूल काया की मूर्तियाँ नहीं, उनके सूक्ष्म तात्विक प्रतीकों के रूप में उन स्मृति चिन्हों को स्थापित किया गया है। वेजीवन भर दो शरीर एक प्राण रहे, इसलिये उनके शरीर का अन्तिम संस्कार एक ही स्थान पर, उनके तात्विक प्रतीकों के समीप संपन्न कर उसी स्थल को उनके संयुक्त समाधि स्थल का रूप दे दिया गया है। तीर्थ चेतना के इन प्रतीकों पर अपनी श्रद्धा समर्पित करके सत्प्रयोजनों के लिये उनसे शक्ति, अनुदान, आशीर्वाद सभी श्रद्धालु प्राप्त कर सकते हैं।

शनिवार, 27 जुलाई 2024

👉 उपासना, साधना व आराधना (भाग 1)

गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

🔸 देवियो, भाइयो! गायत्री मंत्र तीन टुकड़ों में बँटा हुआ है। आध्यात्मिक साधना का सारा- का माहौल तीन टुकड़ों में बँटा हुआ है। ये हैं- उपासना, साधना और आराधना। उपासना के नाम पर आपने अगरबत्ती जलाकर और नमस्कार करके उसे समाप्त कर दिया होगा, परन्तु हमने ऐसा नहीं किया। हमने अगरबत्ती जलाकर प्रारंभ तो अवश्य किया है, पर समाप्त नहीं किया। हमने अपने जीवन में अध्यात्म के जो भी सिद्धांत हैं, उन्हें अवश्य धारण करने का प्रयास किया है। त्रिवेणी में स्नान करने की बात आपने सुनी होगी कि उसके बाद कौआ कोयल बन जाता है। हमने भी उस त्रिवेणी संगम में स्नान किया है, जिसे उपासना, साधना और आराधना कहते हैं। वास्तव में यही अध्यात्म की असली शिक्षा है।

🔹 उपासना माने भगवान् के नजदीक बैठना। नजदीक बैठने का भी एक असर होता है। चन्दन के समीप जो पेड़- पौधे होते हैं, वह भी सुगंधित हो जाते हैं। हमारी भी स्थिति वैसी ही हुई। चन्दन का एक बड़ा- सा पेड़, जो हिमालय में उगा हुआ है, उससे हमने सम्बन्ध जोड़ लिया और खुशबूदार हो गये। आपने लकड़ी को देखा होगा, जब वह आग के संपर्क में आ जाती है, तो वह भी आग जैसी लाल हो जाती है। उसे आप नहीं छू सकते, कारण वह भी आग जैसी ही बन जाती है। यह क्या बात हुई? उपासना हुई, नजदीक बैठना हुआ। नजदीक बैठना, यानि चिपक जाना अर्थात् समर्पण कर देना। चिपकने की यह विद्या हमारे गुरु ने हमें सिखा दी और हम चिपकते हुए चले गये। गाँव की गँवार महिला की शादी किसी सेठ के साथ होने पर वह सेठानी, पंडित के साथ होने पर पंडितानी बन जाती है। यह सब समर्पण का चमत्कार है।

> 👉 *अमृतवाणी:- जप और ध्यान, Jap Aur Dhyan | Pt Shriram Sharma Acharya* 

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🔸 मित्रो, उपासना का मतलब समर्पण है। आपको भी अगर शक्तिशाली या महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बनना है, बड़ा काम करना है, तो आपको भी बड़े आदमी के साथ, महान गुरु के साथ चिपकना होगा। आप अगर शेर के बच्चे हैं, तो आपको भी शेर होना चाहिए। आप अगर घोड़े के बच्चे हैं, तो आपको घोड़ा होना चाहिए। आप अगर संत के बच्चे हैं, तो आपको संत होना चाहिए। हमने इस बात का बराबर ख्याल रखा है कि हम भगवान् के बच्चे हैं, तो हमें भगवान् की तरह बनना चाहिए। बूँद जब अपनी हस्ती समुद्र में गिराती है, तो वह समुद्र बन जाती है। यह समर्पण है। अपनी हस्ती को समाप्त करना ही समर्पण है। अगर बूँद अपनी हस्ती न समाप्त करे, तो वह बूँद ही बनी रहेगी। वह समुद्र नहीं हो सकती है। अध्यात्म में यही भगवान् को समर्पण करना उपासना कहलाती है। भगवान् माने उच्च आदर्शों, उच्च सिद्धान्तों का समुच्चय। उच्च आदर्शों, उच्च सिद्धान्तों को अपने साथ मिला लेना ही उपासना कहलाती है। हमने अपने जीवन में इसी प्रकार की उपासना की है, आपको भी इसी प्रकार की उपासना करनी चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻  पूज्य पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी

👉 अपनी स्थिति के अनुसार साधना चाहिए।

🔸 साधु, संत और ऋषियों ने लोगों को अपने-अपने ध्येय पर पहुँचने के अनगिनत साधन बतलाये हैं। हर एक साधन एक दूसरे से बढ़कर मालूम होता है, और यदि वह सत्य है, तो उससे यह मालूम होता है कि ये सब साधन इतनी तरह से समझाने का अर्थ यह है कि ज्यादातर एक कोई भी साधन उपयोग में आ सकता है। और यह है भी स्वाभाविक ही कि वह किसी एक के लिए उपयोगी हो।

🔹 परन्तु बहुधा ऐसा होता है कि बहुत से साधन अपने अनुकूल नहीं होते। कठिनाई यह है कि हम लोगों में वह शक्ति नहीं है कि उस साधन को खोज निकालें जिसके कि हम सचमुच योग्य हैं। इसके विपरीत हम दूसरे ऐसे साधन अनिश्चित समय के लिए अपनाते हैं जो हमारी शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुकूल नहीं होते। आज ऐसे अनुभवी पथ-प्रदर्शकों की भी भारी कमी है जो अपनी सूक्ष्म दृष्टि से यह जान लें कि किस व्यक्ति के अनुकूल क्या साधन ठीक होगा।

🔸 जो व्यक्ति जिस साधना का अधिकारी है, उसी के अनुकूल कार्यक्रम उसके सामने रखा जाना चाहिए। बालकों का शिक्षण और अध्ययन भी इसी आधार पर होना चाहिए। रुचि के अनुकूल दिशा में शिक्षा मिलने पर बालक थोड़े ही समय में आश्चर्यजनक उन्नति कर लेता है। इसके विपरीत जो कार्यक्रम उसकी रुचि न होते हुए भी लादा जाता है वह बड़ी कठिनाई से जैसे-तैसे पार पड़ता है।

> 👉 *अमृतवाणी:- साधक कैसे बनें? | Amritvanni Sadhak Kaise Banen* 

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🔹 हमें चाहिए कि अपना एक ध्येय निर्धारित करें और उस लक्ष्य को पूरा करने के लिए ऐसे साधन चुनें जो निर्धारित उद्देश्य की ओर तेजी से हमें बढ़ा ले चलें, साथ ही उन साधनों का अपनी रुचि, प्रकृति और स्थिति के अनुकूल होना भी आवश्यक है। यदि ऐसा न हुआ तो उत्साह थोड़े ही समय में शिथिल हो जाता है और दुर्गम मार्ग पर चलने का अभ्यास न होने से बीच में ही यात्रा तोड़ने को विवश होना पड़ता है।

🔸 लक्ष्य-लक्ष्य के अनुकूल, साधन-साधन के अनुकूल, अपनी स्थिति- इन तीन बातों का जहाँ समन्वय हो जाता है यहाँ सफलता मिलने में संशय नहीं रहता। हमें अपना विवेक इतना जाग्रत करना चाहिए जो इस दिशा में समुचित ज्ञान रखता हो और अपने उज्ज्वल प्रकाश में हमें अभीष्ट लक्ष्य की ओर अग्रसर कर सके।

✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य

शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

👉 अन्तर्दोषों का प्रतिफल

नैतिक आदर्शों का पालन शरीर के प्रतिबंधों पर नहीं मन की उच्चस्थिति पर निर्भर है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर के षडरिपु जो मन में छिपे बैठे रहते हैं समय−समय पर हिंसा, झूठ, पाखंड, स्वार्थ, बेईमानी, रिश्वतखोरी, दहेज,कन्या विक्रय, वर विक्रय, माँसाहार जुआ, चोरी आदि सामाजिक बुराइयों के रूप में फूट पड़ते हैं। नाना प्रकार के दुष्कर्म यद्यपि अलग−अलग प्रकार के दीख पड़ते हैं पर उनका मूल एक ही है ‘मन की मलीनता’। जिस प्रकार पेट खराब होने से नाना प्रकार के शारीरिक रोग उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार मन मलीन होने पर हमारे वैयक्तिक और आन्तरिक जीवन में नाना प्रकार के कुकर्म बन पड़ते हैं। जिस प्रकार रोगों के कारण शरीर की पीड़ा उठानी पड़ती है उसी प्रकार मन की मलीनता से हमारा सारा बौद्धिक संस्थान—विचार क्षेत्र औंधा हो जाता है और कार्यशैली ऐसी ओछी बन पड़ती है कि पग−पग पर असफलता, चिन्ता, त्रास, शोक, विक्षोभ के अवसर उपस्थित होने लगते हैं। अव्यवस्थित मनोभूमि को लेकर इस संसार में न तो कोई महान बना है और न किसी ने अपने जीवन को सफल बनाया है। उसके लिए क्लेश और कलह, शोक और संताप दैन्य और दारिद्र ही सुनिश्चित हैं, न्यूनाधिक मात्रा में वे ही उसे मिलने हैं, वे ही मिलते भी रहते हैं।

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एक स्मरणीय तथ्य
यह स्मरण रखने योग्य बात है, यह गाँठ बाँध लेने योग्य तथ्य है कि मनुष्य के जीवन में एकमात्र विभूति उसका मन है। इस मन को यदि संभाला और साधा न जाएगा, सुधारा और सुसंस्कृत न किया जाएगा तो वह नीचे बहने वाले जल की तरह स्वभावतः पतनोन्मुख होगा। मन को स्वच्छ बनाना—हमारे चेतन जगत का सबसे बड़ा पुरुषार्थ की ओर जिनके कदम बढ़े हैं उनके लिए लौकिक सफलताओं और समृद्धियों का द्वार प्रशस्त होता है और उन्हीं ने आत्मिक लक्ष प्राप्त किया है। मन पर चढ़े हुए मल आवरण जब हट जाते हैं तो अपनी आत्मा में ही परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन होने लगते हैं। मन की मलीनता के रहते प्रत्येक दुख और अशुभ मनुष्य के आगे−पीछे ही घूमता रहेगा। देवत्व तो मानसिक स्वस्थता का ही दूसरा नाम है। जिसने अपना अन्तःकरण स्वच्छ कर लिया उसने इसी देह में देवत्व का लाभ उठाया है और इसी धरती पर स्वर्ग का आनन्द लिया है। ‘स्वच्छ मन’ जीवन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। युग−निर्माण के लिए हमें इस पर पूरी सावधानी से ध्यान देना होगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962 पृष्ठ 24

👉 परिस्थिति से परिवर्तन

बेतार के तार यन्त्र के निर्माता बंगाल के संसार प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जगदीशचन्द्र बोस इस बात पर विश्वास करते हैं कि बुरे से बुरे व्यक्ति को सद्व्यवहार द्वारा सुधारा जा सकता है।

सर बोस के पिताजी भगवानचन्द्रजी डिप्टी कलक्टर थे और चोर डाकुओं को पकड़वाने का कार्य भी उन्हें करना पड़ता था। एक बार एक खतरनाक डाकू को उन्होंने पकड़वाया, अदालत ने उसे जेलखाने की कड़ी सजा दी।

जब यह डाकू जेल से छूट कर आया, तो वह जगदीशचन्द्र के पास गया और कहने लगा-”सुविधापूर्वक खर्चे न चलने के कारण मुझे अपराध करने पड़ते हैं। यदि आप मेरा कोई काम लगवा दें, तो मैं उत्तम जीवन व्यतीत कर सकूँगा।”

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जगदीश अपनी दयालुता के लिए प्रसिद्ध है। उनने उस डाकू को बिना अधिक पूछताछ किये अपने पास एक अच्छी नौकरी पर रख लिया। उस दिन से कभी भी उस डाकू ने कोई अपराध न किया और मालिक के कुटुम्ब पर आई हुई आपत्तियों के समय उसने अपने प्राणों को खतरे में डाल कर भी उनकी रक्षा की।

स्वभावतः कोई व्यक्ति बुरा नहीं है। बुरी परिस्थितियां मनुष्य को बुरा बनाती है। यदि उसकी परिस्थितियां बदल दी जाय, तो बुरे से बुरे व्यक्ति को भी अच्छे मार्ग पर चलने वाला बनाया जा सकता है।

📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1943 पृष्ठ 9

गुरुवार, 25 जुलाई 2024

👉 इन 5 कामों में देर करना अच्छी बात है

कबीरदास का एक बहुत ही प्रसिद्ध दोहा है-

काल करे सो आज कर, आज करै सो अब।

यानी जो काम कल करना है, उसे आज ही कर लेना चाहिए और जो काम आज करना है, उसे अभी कर लेना चाहिए। इसका सीधा सा अर्थ ये है कि किसी भी काम को करने में देर नहीं करना चाहिए। ये बात सभी कामों के लिए सही नहीं है। स्त्री और पुरुष, दोनों के लिए कुछ काम ऐसे भी हैं, जिनमें देर करना अच्छी बात है।

महाभारत के एक श्लोक में बताया है कि हमें किन कामों को टालने की कोशिश करनी चाहिए…

रागे दर्पे च माने च द्रोहे पापे च कर्मणि।
अप्रिये चैव कर्तव्ये चिरकारी प्रशस्यते।।

ये श्लोक महाभारत के शांति पर्व में दिया गया है। इसमें 5 काम ऐसे बताए गए हैं, जिनमें देर करने पर हम कई परेशानियों से बच सकते हैं।

1 पहला काम है राग
इन पांच कामों में पहला काम है राग यानी अत्यधिक मोह, अत्यधिक जोश, अत्यधिक वासना। राग एक बुराई है। इससे बचना चाहिए। जब भी मन में राग भाव जागे तो कुछ समय के लिए शांत हो जाना चाहिए। अधिक जोश में किया गया काम बिगड़ भी सकता है। वासना को काबू न किया जाए तो इसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं। किसी के प्रति मोह बढ़ाने में भी कुछ समय रुक जाना चाहिए। राग भाव जागने पर कुछ देर रुकेंगे तो ये विचार शांत हो सकते हैं और हम बुराई से बच जाएंगे।

2 दूसरा काम है घमंड
दर्प यानी घमंड ऐसी बुराई है जो व्यक्ति को बर्बाद कर सकती है। घमंड के कारण ही रावण और दुर्योधन का अंत हुआ था। घमंड का भाव मन में आते ही एकदम प्रदर्शित नहीं करना चाहिए। कुछ देर रुक जाएं। ऐसा करने पर हो सकता है कि आपके मन से घमंड का भाव ही खत्म हो जाए और आप इस बुराई से बच जाएं।

3 तीसरा काम है लड़ाई करना
यदि कोई ताकतवर इंसान किसी कमजोर से भी लड़ाई करेगा तो कुछ नुकसान तो ताकतवर को भी होता है। लड़ाई करने से पहले थोड़ी देर रुक जाना चाहिए। ऐसा करने पर भविष्य में होने वाली कई परेशानियों से हम बच सकते हैं। आपसी रिश्तों में वाद-विवाद होते रहते हैं, लेकिन झगड़े की स्थिति आ जाए तो कुछ देर शांत हो जाना चाहिए। झगड़ा भी शांत हो जाएगा।

> 👉 *आस्तिकता व्यवहार में उतरेगी तो ही संकट मिटेंगे | Pt Shriram Sharma Acharya* https://youtu.be/zSPVmNPSqEY

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4 चौथा काम है पाप करना
यदि मन में कोई गलत काम यानी पाप करने के लिए विचार बन रहे हैं तो ये परेशानी की बात है। गलत काम जैसे चोरी करना, स्त्रियों का अपमान करना, धर्म के विरुद्ध काम करना आदि। ये काम करने से पहले थोड़ी देर रुक जाएंगे तो मन से गलत काम करने के विचार खत्म हो सकते हैं। पाप कर्म से व्यक्ति का सुख और पुण्य नष्ट हो जाता है।

5 पांचवां काम है दूसरों को नुकसान पहुंचाना
यदि हम किसी का नुकसान करने की योजना बना रहे हैं तो इस योजना पर काम करने से पहले कुछ देर रुक जाना चाहिए। इस काम में जितनी देर करेंगे, उतना अच्छा रहेगा। किसी को नुकसान पहुंचाना अधर्म है और इससे बचना चाहिए। पुरानी कहावत है जो लोग दूसरों के लिए गड्ढा खोदते हैं, एक दिन वे ही उस गड्ढे में गिरते हैं। इसीलिए दूसरों का अहित करने से पहले कुछ देर रुक जाना चाहिए।

👉 आशावादी आस्तिक

आशावाद आस्तिकता है। सिर्फ नास्तिक ही निराशावादी हो सकता है। आशावादी ईश्वर का डर मानता है, विनयपूर्वक अपना अन्तर नाद सुनता है, उसके अनुसार बरतता है और मानता है कि ‘ईश्वर जो करता है वह अच्छे के लिये ही करता है।’

निराशावादी कहता है ‘मैं करता हूँ।’ अगर सफलता न मिले तो अपने को बचाकर दूसरे लोगों के मत्थे दोष मढ़ता है, भ्रमवश कहता है कि “किसे पता ईश्वर है या नहीं’, और खुद अपने को भला तथा दुनिया को बुरा मानकर कहता है कि ‘मेरी किसी ने कद्र नहीं की’ ऐसा व्यक्ति एक प्रकार का आत्मघात कर लेता है और मुर्दे की तरह जीवन बिताता है।

आशावादी प्रेम में मगन रहता है, किसी को अपना दुश्मन नहीं मानता। भयानक जानवरों तथा ऐसे जानवरों जैसे मनुष्यों से भी वह नहीं डरता, क्योंकि उसकी आत्मा को न तो साँप काट सकता है और न पापी का खंजर ही छेद सकता है, शरीर की वह चिन्ता नहीं करता क्योंकि वह तो काया को काँच की बोतल समझता है। वह जानता है कि एक न एक दिन तो यह फूटने वाली है, इसलिए वह है, इसलिए वह उसकी रक्षा के निमित्त संसार को पीड़ित नहीं करता। वह न किसी को परेशान करता है न किसी की जान पर हाथ उठाता है, वह तो अपने हृदय में वीणा का मधुर गान निरंतर सुनता है और आनन्द सागर में डूबा रहता है।

> 👉 *परिस्थितियों के अनुकूल बनिए | Paristhitiyon Ke Anukul Bniye* https://youtu.be/diViQbebPBs?si=P3IC_Bjw_BeLCMiG

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निराशावादी स्वयं राग-द्वेष से भरपूर होता है, इसलिए वह हर एक को अपना दुश्मन मानता है और हर एक से डरता है, वह मधु-मक्खियों की तरह इधर उधर भिनभिनाता हुआ बाहरी भोगों को भोग कर रोज थकता है और रोज नया भोग खोजता है। इस तरह वह अशान्त, शुष्क और प्रेमहित होकर इस दुनिया से कूच कर देता है।

📖 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1943 पृष्ठ 4

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/October/v1.4

बुधवार, 24 जुलाई 2024

👉 अभागो! आँखें खोलो!!

🔹 अभागे को आलस्य अच्छा लगता है। परिश्रम करने से ही है और अधर्म अनीति से भरे हुए कार्य करने के सोच विचार करता रहता है। सदा भ्रमित, उनींदा, चिड़चिड़ा, व्याकुल और संतप्त सा रहता है। दुनिया में लोग उसे अविश्वासी, धोखेबाज, धूर्त, स्वार्थी तथा निष्ठुर दिखाई पड़ते हैं। भलों की संगति उसे नहीं सुहाती, आलसी, प्रमादी, नशेबाज, चोर, व्यभिचारी, वाचाल और नटखट लोगों से मित्रता बढ़ाता है। कलह करना, कटुवचन बोलना, पराई घात में रहना, गंदगी, मलीनता और ईर्ष्या में रहना यह उसे बहुत रुचता है।

🔸 ऐसे अभागे लोग इस दुनिया में बहुत है। उन्हें विद्या प्राप्त करने से, सज्जनों की संगति में बैठने से, शुभ कर्म और विचारों से चिढ़ होती है। झूठे मित्रों और सच्चे शत्रुओं की संख्या दिन दिन बढ़ता चलता है। अपने बराबर बुद्धिमान उसे तीनों लोकों में और कोई दिखाई नहीं पड़ता। खुशाकय, चापलूस, चाटुकार और धूर्तों की संगति में सुख मानता है और हितकारक, खरी खरी बात कहने वालों को पास भी खड़े नहीं होने देता नाम के पथ पर सरपट दौड़ता हुआ वह मंद भागी क्षण भर में विपत्तियों के भारी भारी पाषाण अपने ऊपर लादता चला जाता है।


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🔹 कोई अच्छी बात कहना जानता नहीं तो भी विद्वानों की सभा में वह निर्बलता पूर्वक बेतुका सुर अलापता ही चला आता है। शाम का संचय, परिश्रम, उन्नति का मार्ग निहित है यह बात उसके गले नहीं उतरती और न यह बात समझ में आती है कि अपने अन्दर की त्रुटियों को ढूँढ़ निकालना एवं उन्हें दूर करने का प्रचण्ड प्रयत्न करना जीवन सफल बनाने के लिए आवश्यक है। हे अभागे मनुष्य! अपनी आस्तीन में सर्प के समान बैठे हुए इस दुर्भाग्य को जान। तुम क्यों नहीं देखते? क्यों नहीं पहचानते?

✍🏻 समर्थ गुरु रामदास
📖 अखण्ड ज्योति जून 1943 पृष्ठ 12

👉 प्रलोभन के आगे न झुकिये।

🔹 आध्यात्मिक उन्नति का आधार इस महान तत्व पर निर्भर है कि साधक प्रलोभन के सामने सर न झुकाए। विषय- वासना, क्रोध, घृणा, स्वार्थ के विचार से सन्निविष्ट होकर प्रलोभन हमारे दैनिक जीवन में प्रवेश करते हैं। वे इतने मनमोहक, इतने लुभावने, इतने मादक होते हैं कि क्षणभर के लिए हम विक्षिप्त हो उठते हैं। हमारी चित्तवृत्तियां उत्तेजित हो उठती हैं और हम पथभ्रष्ट हो जाते हैं।

🔸 विषयों में रमणीयता का भास बुद्धि के विपर्यय से होता है। बुद्धि के विपर्यय में अज्ञान-सम्भूत अविद्या प्रधान कारण है। इस अविद्या के ही कारण हमें प्रलोभन में रमणीयता का बोध होता है।

🔹 प्रलोभन में दो तत्व मुख्यतः कार्य करते हैं उत्सुकता तथा दूरी। प्रारम्भिक काल में आदि पुरुष का पतन उत्सुकता के कारण ही हुआ। जिस वस्तु से दूर रहने को कहा जाता है उसी के प्रति उत्सुकता उत्पन्न होती है और औत्सुक्य से प्रभावित होकर हमें रमणीयता का भास होता है। इसी भाँति जो वस्तुएँ हमसे दूर हैं उनमें रमणीयता का आकर्षण प्रतीत होता है। वास्तव में रमणीयता किसी वस्तु में नहीं होती, वह तो हमारी कल्पना तथा उत्सुकता की भावनाओं की प्रतिच्छाया (Reflection) मात्र है।

🔸 साधन यथारुढ़ होने से पूर्व आप यह निश्चित कर लीजिए कि प्रलोभन चाहे जिस रूप में आवे, हम उसे आत्म समर्पण न करेंगे। अल्प सुख विशेष को ही पूर्ण सुख मानकर उससे परितृप्त न होंगे, हताश होकर नहीं बैठेंगे, विषयासक्ति के शिकार नहीं बनेंगे, अपने मनःक्षेत्र से कुत्सित प्रलोभनों की जड़े उखाड़ फेंकेंगे।


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🔹 प्रलोभन दुर्बल हृदय की कल्पना मात्र है। दुर्बल चित्त वालों के चंचल मन में प्रलोभन एक छोटी सी तरंग के समान आता है किन्तु आश्रय पाकर वह वृहत् रूप धारण कर लेती है और साधक को डुबो देता है।

🔸 पतन का मार्ग सदैव ढालू और सुगम होता है। गिरते हुए नहीं, गिर जाने पर मनुष्य को अपनी भूल का भान होता है और कई बार तो यह चोट इतनी भयंकर होती है कि वह मनुष्य को जीवन पर्यन्त के लिए पंगु कर देता है। अतः प्रलोभन से सावधान रहिए।

📖 अखण्ड ज्योति, मार्च 1945

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 14 Aug 2024

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