मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

👉 मित्रता क्यों की जाती है?

क्या कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य से इस कारण मित्रता करता हैं कि वह पारस्परिक प्रत्युपकारों से वह लाभ प्राप्त करे जो अकेला रह कर नहीं कर सकता? या मित्रता का बन्धन किसी प्राकृतिक ऐसे उदार नियम से संबंधित हैं जिसके द्वारा एक मनुष्य हृदय दूसरे के हृदय के साथ अधिकाँश में उदारता और निस्वार्थता की भावना के साथ जा जुड़ता हैं?

उपरोक्त प्रश्नों की मीमाँसा करते हुए हमें यह जानना चाहिए कि मित्रता के बन्धन का प्रधान और वास्तविक हेतु प्रेम हैं। कभी कभी यह प्रेम वास्तविक हेतु प्रेम हैं। कभी कभी यह प्रेम वास्तविक न होकर कृत्रिम भी हुआ करता हैं परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि मित्रता का भवन केवल स्वार्थ की ही आधार शिला पर स्थिर हैं।
सच्ची मित्रता में एक प्रकार की ऐसी स्वाभाविक सत्यता हैं जो कृत्रिम और बनावटी स्नेह में कदापि नहीं पाई जा सकती। मेरा तो इसी लिए ऐसा विश्वास हैं कि मित्रता की उत्पत्ति मनुष्य की दरिद्रता पर न होकर किसी हार्दिक और विशेष प्रकार के स्वाभाविक विचार पर निर्भर हैं जिसके द्वारा एक समान मन वाले दो व्यक्ति परस्पर स्वयमेव संबंधित हो जाते हैं।

यह पुनीत आध्यात्मिक स्नेह भावना पशुओं में भी देखी जाती हैं। मातायें क्या अपने बच्चों से किसी प्रकार का बदला चाहने की आशा से प्रेम करती हैं? बेचारे पशु जिनको न तो अपनी दीनता का ज्ञान हैं, न उन्नति की आकाँक्षा हैं और न किसी सुनहरे भविष्य का प्रलोभन हैं भला वे अपने बच्चों से किस प्रत्युपकार की आशा करते होंगे? सच तो यह हैं कि प्रेम करना जीव का एक आत्मिक गुण हैं। यह गुण मनुष्य में अधिक मात्रा में प्रकट होता हैं इसलिए वह मित्रता की ओर आकर्षित होता है।

जिसके आचरण और स्वभाव हमारे समान ही हों अथवा किसी ऐसे मनुष्य को जिसका अन्तःकरण ईमानदारी और नेकी से परिपूर्ण हो, किसी ऐसे मनुष्य को देखते ही हमारा मन उसकी ओर आकर्षित हो जाता हैं। सच तो यह हैं कि मनुष्य के अन्तःकरण पर प्रभाव डालने वाला नेकी के समान और कोई दूसरा पदार्थ नहीं हैं। धर्म का प्रभाव यहाँ तक प्रत्यक्ष हैं कि जिन व्यक्तियों का नाम हमको केवल इतिहासों से ही ज्ञात हैं और उनको गुजरे चिर काल व्यतीत हो गया उनके धार्मिक गुणों से भी हम ऐसे मुग्ध हो जाते हैं कि उनके सुख में सुखी और दुख में दुखी होने लगते हैं।

मित्रता जैसे उदार बन्धन के लिए ऐसा विचार करना कि उसकी उत्पत्ति केवल दीनता पर ही हैं अर्थात् एक मनुष्य दूसरे से मित्रता केवल इसीलिए करता हैं कि वह उससे कुछ लाभ उठाने और अपनी अपूर्णता को उसकी सहायता से पूर्ण करें, मित्रता को अत्यन्त ही तुच्छ और घृणित समझना हैं। यदि यह बात सत्य होती तो वे ही लोग मित्रता जोड़ने में अग्रसर होते जिनमें अधिक अवगुण और अभाव हों परन्तु ऐसे उदाहरण कहीं दिखाई नहीं पड़ते। इनके विपरीत यह देखा गया हैं कि जो व्यक्ति आत्मनिर्भर हैं, सुयोग्य हैं, गुणवान हैं, वे ही दूसरों के साथ प्रेम व्यवहार करने को अधिक प्रवृत्त होते हैं। वे ही अधिकतर उत्तम मित्र सिद्ध होते हैं।

सच तो यह हैं कि परोपकार अपने उत्तम कार्यों का व्यापार करने से घृणा करता हैं और उदार चरित्र व्यक्ति अपनी स्वाभाविक उदारता का आचरण करने दूसरों को सुख पहुँचाने में आनन्द मानते हैं वे बदला पाने के लिए अच्छा व्यवहार नहीं करते। मेरा निश्चित विश्वास हैं कि सच्ची मित्रता लाभ प्राप्त करने की व्यापार बुद्धि से नहीं जुड़ती, वरन् इसलिए जुड़ती हैं कि मित्रभाव के निस्वार्थ बर्ताव से एक प्रकार का जो आध्यात्मिक सुख मिलता हैं वह प्राप्त हो।

✍🏻 दार्शनिक सिसरो
📖 अखण्ड-ज्योति मई 1944 पृष्ठ 10

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👉 निजी प्रयत्न का फल

आध्यात्मिक शास्त्र का यह एक अटल सिद्धान्त है कि जो अपने को जैसा मानता है, उसका बाह्य आचरण भी वैसा ही बनने लगता है। बीज से पौधा उगता है और विचारों से आचरण का निर्माण होता है। जो अपने को दीन, दास, दुखी, दासता मानता है वह वैसा ही बना रहेगा। हमारे देश में दीनता, दद्रिता, दुख, दरिद्रता के विचार फैले और भारतभूमि ठीक वैसी ही बन गई। अपने निवास लोक को जब हम ‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कहते थे तब यह दैव लोक थी, जब ‘भव सागर’ कहने लगे तो वह बद्ध कारागार के रूप में हमारे मौजूद है।

यदि आप अपने को नीच पतित मानते हैं तो विश्वास रखिये आप वैसे ही बने रहेंगे कोई भी आपको ऊँचा या पवित्र न बना सकेगा, किन्तु जिस दिन आपके अन्दर से आत्मगौरव की आध्यात्मिक महत्ता की हुँकार उठने लगेगी उसी दिन से आपका जीवन दूसरे ही ढांचे में ढलना शुरू हो जायेगा संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उनमें उनके निजी प्रयत्न का ही श्रेय अधिक है। हम मानते कि दूसरों की सहायता से भी उन्नति होती है पर यह सहायता उन्हें ही प्राप्त होती है। जो अपने सहायता खुद करते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/September/v1.9

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सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

👉 सेवाव्रती साधुओं! आओ!!

हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज की सेवा के व्रती लाखों साधु संन्यासी, भारतवर्ष के ग्रामों, कस्बों और नगरों में स्वतन्त्रता से विचरते हैं। हिन्दू जाति के इस घोर संकट के समय उनका क्या कर्तव्य है? इस विषय पर कुछ लिखना अनुचित न होगा। क्योंकि जो प्रभाव हिन्दू जनता पर इन विरक्तों का पड़ता है, वह और किसी का नहीं पड़ सकता। अविद्या अन्धकार में सोई हुई हिन्दू जनता को यह महात्मा लोग बहुत शीघ्र जगा सकते हैं। उनका सिंहनाद हिन्दू सन्तान में नई जान फूँक सकता है। छोटे से छोटे कस्बे में सन्त महात्माओं के मठ बने हुए है, जहाँ से हिन्दू संगठन का काम बड़ी आसानी से हो सकता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि साधु सन्त हिन्दू संगठन के उद्देश्य को भली प्रकार जाने।

हिन्दू जनता आज कैसी दीनावस्था में है, उस पर विधर्मी गुण्डे कैसा संगठित प्रहार कर रहे हैं, यह सब देखकर कौन ऐसा साधु संन्यासी होगा, जिसका हृदय न फटता हो। हिन्दू गृहस्थ सदा श्रद्धा और प्रेम से साधुओं की सेवा करते है, देवियाँ बड़ी भक्ति भाव से विरक्तों की पूजा करती हैं, आज उन विरक्तों को हिन्दू गृहस्थों के प्रति अपना अपना कर्तव्य पालने का समय आ गया है। प्रत्येक साधु को दण्ड और कमण्डलु उठाकर, हिन्दू संगठन के काम में लग जाना चाहिए। ग्राम ग्राम और कस्बे कस्बे में घूम कर अज्ञानी जनता को चैतन्य करना चाहिए, और उसे स्वार्थी लोगों के हथकंडों से बचाना चाहिए। कोई नगर, कोई कस्बा, हिन्दू संगठन से, संघ से खाली न रहे। बड़ी शान्ति से गृहस्थों को समझा बुझाकर ऐसे विचार फैलावें, कि जिससे हिन्दू फौलादी दीवार की तरह संगठित हो जावें, और कोई उन्हें सता न सके।

जो साधु महात्मा देश जाति और धर्म की सेवा करना चाहते हैं, वे अब कमर कस कर तैयार हो जायं और संगठन के बिगुल को हाथ में लेकर नगर नगर में इसे बजाते हुए घूमें। आज बैठने का समय नहीं, जिससे जो कुछ हो सकता है उसे उतना काम करना ही चाहिए। हिन्दू संगठन की इस जागृति के काल में जो साधु महात्मा इस महाप्रतापी हिन्दू जाति की सेवा करेगा उसका नाम भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जायगा।

यदि हम अपन भगवे कपड़े को सार्थक करना चाहते हैं तो हमें हिन्दू संगठन का कठिन व्रत लेना होगा। स्थान स्थान पर व्यायामशालायें खुलवा कर, हिन्दू बच्चों में क्षात्र धर्म का तेज भरना होगा। उनको उन्नत मार्ग दिखलाना होगा, लाखों साधु आज इस धर्मक्षेत्र में आकर अपने जीवन को पवित्र बना सकते हैं। धर्म की सेना में आज ऐसे लाखों विरक्तों की आवश्यकता है। इसलिए आइए हम साधुओं का जबर्दस्त संगठन कर हिन्दू जाति की सेवा में लग जायें इसी में हमारा कल्याण है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 वाङमय-नं-३७-पेज-१२.३७

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रविवार, 26 फ़रवरी 2023

👉 खरे बनिए! चापलूसी से दूर रहिए!

जो बात आपको सच्ची प्रतीत होती है उसे बिना किसी हिचकिचाहट के खुली जबान से कहिए अपने अन्तःकरण को कुचल कर बनावटी बातें करना, किसी के दबाव में आकर निजी विचारों को छिपाते हुए हाँ में हाँ मिलाना आपके गौरव के विपरीत है। इस प्रकार की कमजोरियाँ प्रकट करती हैं कि यह व्यक्ति आत्मिक दृष्टि से बिलकुल ही निर्बल है, डर के मारे स्पष्ट विचार तक प्रकट करने में डरता है। ऐसे कायर व्यक्ति किसी प्रकार अपना स्वार्थ साधन तो कर सकते हैं पर किसी के हृदय पर अधिकार नहीं जमा सकते।

स्मरण रखिए प्रतिष्ठा की वृद्धि सच्चाई और ईमानदारी द्वारा होती है। आप खरे विचार प्रकट करते हैं, जो बात मन में है उसे ही कह देते हैं तो भले ही कुछ देर के लिए कोई नाराज हो जावे पर क्रोध उतरने पर वह इतना तो अवश्य अनुभव करेगा कि यह व्यक्ति खरा है, अपनी आत्मा के प्रति सच्चा है। विरोधी होते हुए भी वह मन ही मन आदर करेगा।

आप किसी भी लोभ-लालच के लिए अपनी आत्म स्वतंत्रता मत बेचीए, किसी भी फायदे के बदले आत्म गौरव का गला मत कटने दीजिए। चापलूसी और कायरता से यदि कुछ लाभ होता हो तो भी उसे त्याग कर कष्ट में रहना स्वीकार कर लीजिए, क्योंकि इससे आपकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी, आत्म गौरव को प्रोत्साहन मिलेगा। स्मरण रखिए आत्म गौरव के साथ जीने में ही जिन्दगी का सच्चा आनन्द है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति सितम्बर 1943 पृष्ठ 1

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👉 आत्मसम्मान धन है।

आत्मसम्मान को प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने के लिए प्राण प्रण से चेष्टा करते रहिए क्योंकि यह बहुमूल्य सम्पत्ति है। पैसे की तरह यह आँख से दिखाई नहीं पड़ता और पास रखने के लिए तिजोरी की जरूरत नहीं पड़ती तो भी स्पष्टतः यह धन है। हम ऐसे व्यापारियों को जानते हैं जिनके पास अपनी एक पाई न होने पर भी दूसरों से उधार लेकर बड़े-बड़े लम्बे चौड़े व्यापार कर डालते हैं क्योंकि उनका बाजार में सम्मान है, ईमानदारी की प्रतिष्ठा है।

हम ऐसे नौकरों को जानते हैं जिन्हें मालिक अपने सगे बेटे की तरह प्राण से प्यारा रखते हैं और उनके लिए प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से इतना पैसा खर्च कर देते हैं जो उनके निर्धारित वेतन से अनेक गुना होता है कारण यह कि नौकर के सद्गुणों के कारण मालिक के मन में उसका सम्मान घर कर लेता है। गुरुओं के वचन मानकर श्रद्धालु शिष्य अपना सर्वस्व देने के लिए तत्पर हो जाते हैं, अपनी जीवन दिशा बदल देते हैं, प्यारी से प्यारी वस्तु का त्याग कर देते हैं, राजमहल छोड़कर बिखारी बन जाते हैं, ऐसा इसलिए होता है कि शिष्य के मन में गुरु के प्रति अगाध सम्मान होता है, गुरु का आत्म सम्मान शिष्य को अपना वशवर्ती बना लेता है।

अदालत में किसी एक ही गवाह की गवाही विपक्षी सौ गवाहों की बात को रद्द कर देती है कारण यह है कि उस गवाह की प्रतिष्ठा न्यायाधीश को प्रभावित कर देती है। आत्म सम्मान ऊंची कोटि का धन है जिसके द्वारा ऐसे महत्वपूर्ण लाभ हो सकते हैं जो कितना ही पैसा खर्च होने पर नहीं हो सकते थे।


आत्मसम्मान धन है। बाजार में वह पूँजी की तरह निश्चित फल देने वाला है, समाज में पूजा कराने वाला है, आत्मा को पौष्टिक भोजन देने वाला है हम कहते हैं कि- हे आध्यात्मवाद का आश्रय लेने वाले शूरवीर साधकों, आत्मसम्मान सम्पादित करो और प्रयत्नपूर्वक उसकी रक्षा करो।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड-ज्योति सितम्बर 1943 पृष्ठ 6

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शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

👉 छात्र जीवन निर्माण करें

सबसे पहले मानव जीवन प्राप्त करने वाला प्राणी अपने पूर्व जन्म के कर्मानुसार अपनी माँ के गर्भ से संसार में आता है। प्रारम्भ से प्राप्त माँ बाप के सहयोग से बाल्यावस्था का प्रथम चरण व्यतीत करके द्वितीय चरण में शिक्षकों के सहयोग में भेजा जाता है और वहीं से उसका जीवन निर्माण शुरू होता है। शिक्षा के साथ साथ वह वहाँ शासन में रहना तथा शासन करना भी सीखता है और शिक्षकों के अनुकूल आचरणों का समावेश भी उसमें पूर्ण रूप से हो जाता है। यही कारण है कि आज का भारत उत्थान की तरफ न जाकर पतनोन्मुख हो रहा है। क्योंकि प्रायः आज का शिक्षकवर्ग भारतीय संस्कृति के विपरीत है। कुम्भकार अवा में पकाने से पहले घड़े जैसी मीनाकारी करता है वही अन्त तक रहती है। इसी तरह बाल्यावस्था में जैसी शिक्षा दीक्षा में बालक रहता है वैसा ही जीवन का निर्माण होता है।

इसलिये बालकों के अभिभावकों को विशेष तौर से सोचना चाहिये कि आधुनिक शिक्षकों के ऊपर ही सारा भार बालकों को सौंपकर निश्चिन्त न हो जावें—अपितु उनके अलावा रहन सहन सदाचार आदि के विषय में—पूर्ण रूप से सतर्क रहें क्योंकि महापुरुषों की यथार्थ उक्ति है कि जिसका प्रातः नष्ट हो गया, उसका सम्पूर्ण दिन खत्म हो गया और जिसकी बाल्यावस्था बिगड़ गई उसका जीवन समाप्त हो गया। जिसका आचरण चला गया उसका सर्वस्व नष्ट हो गया। यह प्रायः देखा गया है कि जिन लोगों के पूर्व संस्कार कमजोर हैं, उन्हीं पर सहवास और संगति का प्रबल प्रभाव पड़ता है। हमारे प्रातः स्मरणीय स्वामी विवेकानन्द और स्वामी रामतीर्थ ने पाश्चात्य संस्कृति से संतप्त शिक्षणालयों में शिक्षा प्राप्त करके भी अपने वास्तविक अध्यात्म प्रकाश से सारे जगत को प्रकाशित किया।

इस प्रकार अच्छे अभिभावक तथा शिक्षकों के सहवास में रहकर संसार संग्राम में विजयी होने के अनुकूल गुणों को ग्रहण करके गृहस्थ जीवन में प्रविष्ट होने अथवा नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहकर सन्त विनोबा की भाँति लोक सेवा में संलग्न हो जावें। समय की प्रति मिनट को अमूल्य समझकर स्वास्थ्य के नियमों का पूर्ण रूप से पालन करते हुए और ईश्वर की उपासना के बल पर विघ्नों को पराजित कर वर्तमान को सुधारते हुए भूत−भविष्यत् का पूरा ध्यान रखते हुए—सच्ची जनसेवा में जुट जावें, अपने संकट कालीन तथा सफल जनक अनुभव संसार को बताते हुए आगे बढ़ें और शास्त्र की मर्यादानुकूल गृहस्थ जीवन में प्रविष्ट होने वाले लोग तो सबसे पहले सात्विक गुरु की खोज करें।

इस समय में वास्तविक सन्तों का अभाव सा है किन्तु सच्ची लगन वालों को अवश्य निधि मिलती है। प्रयत्न करने पर भी यदि सफलता न मिले तो सच्छात्रों के वचनानुसार अपने जीवन को बनावें। ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ लोकोपकार के लिये जीवन निर्मित करे। फैशनपरस्ती की मूर्खता से दूर रहकर वास्तविक सौंदर्य की कुञ्जी ब्रह्मचर्य तथा सदाचार का पालन करे। अपने जीवन से लोगों को शिक्षा देता हुआ, समय के सच्चे रहस्य को समझकर चलना शुरू करे। नवयुवक विद्यार्थी अपना निर्माण इस तरह करके लोगों को सत्प्रेरणा देना शुरू करें तो थोड़े ही समय में भारत का भाग्य चमकने लगे।

📖 अखण्ड ज्योति, फरवरी 1955 पृष्ठ 24


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👉 आप में कितना आत्म विश्वास है?

‘अखंड ज्योति’ के पाठक अच्छी तरह जानते होंगे कि जीवन में सब प्रकार की सफलताएं आत्म विश्वास पर निर्भर हैं। जिसमें आत्म विश्वास जितना कम होगा वह सफलता से उतना ही पिछड़ा होगा। इसलिए अपने आत्म विश्वास के संबंध में जानकारी रखना आवश्यक है।

नीचे एक सरल गणित दिया जाता है जिससे पाठक यह जान सकें कि हम में कितना आत्म विश्वास हैं। जो 20 प्रश्न नीचे दिये गये हैं उनमें से हर एक को क्रमश अपने सामने रखिए हर प्रश्न के संबंध में अपनी स्थिति को अच्छी तरह सोचिये और उसका उत्तर ‘हाँ’ या ‘नहीं’ में एक कागज पर लिख लीजिए।

जितने प्रश्नों का उत्तर ‘हाँ’ आया हो उनकी संख्या को 5 से गुणा कर दीजिए। यही संख्या आपके आत्म विश्वास के नम्बर हैं। पूरा आत्म विश्वास 100 नंबर का होता है। यदि आपको 50 नंबर भी मिल जायं तो समझिये कि पास हो गये। आप में काम चलाने लायक आत्म विश्वास है।

यदि अधिक नंबर मिले तो उतनी ही अधिक योग्यता समझिये। यदि 50 से भी कम नंबर मिलें तो समझिये कि आपका आत्म विश्वास अभी बहुत कम है। उसे बढ़ाये बिना जीवन संग्राम में विजय प्राप्त नहीं की जा सकती।

🔷 प्रश्न
(1) क्या आप किसी संस्था, दल या जनसमूह के मुखिया या पदाधिकारी रहते हैं?
(2) क्या आपके मालिक, सहयोगी बड़े-बूढ़े आपके काम से संतुष्ट और प्रसन्न रहते हैं।
(3) क्या आपने किन्हीं प्रतियोगिताओं में इनाम पाया है।
(4) क्या आप गलतियों को स्वीकार कर लेते हैं? और उन्हें आइंदा न करने का निश्चय एवं पश्चाताप करते हैं?
(5) जो बात आपको पसंद नहीं उसे निर्भयता पूर्वक लोगों के सामने रख देते हैं?
(6) क्या आप लोगों से अपना अधिक परिचय बढ़ाने का प्रयत्न करते रहते हैं?
(7) आपको शरीर और वस्त्र बिल्कुल स्वच्छ रखने की आदत है?
(8) क्या आप बड़े आदमियों से बिना झिझके मिलते हैं? और उन से आवश्यक विषयों पर बिना संकोच के पूरी बात चीत करते हैं?
(9) दूसरों को गलत मार्ग पर जाते हुए देख कर क्या आप उनको समझाते हैं? और अनुचित कार्यवाही को रोकने का प्रयत्न करते हैं?
(10) सवालों का जवाब देना आपको रुचिकर लगता है?
(11) क्या आपको दूसरों से प्रश्न पूछने में आनंद आता है?
(12) क्या आप अपने स्वभाव और कामों के ऊपर गर्व और आत्म संतोष रखते हैं?
(13) क्या आप सुन्दर भविष्य की कल्पना रखते हुए हैं? और अपने को भाग्यशाली समझते हैं?
(14) आपको किन्हीं विषयों में विशेष रुचि हैं?
(15) पढ़ना और खेलना आपके प्रिय विषय हैं?
(16) क्या शत्रुओं की उपेक्षा आपके मित्र अधिक हैं?
(17) उत्सवों, प्रीतिभोजों, सम्मेलनों में आपको अधिकतर निमंत्रित किया जाता है?
(18) कठिनाई पड़ने पर आप घबरा तो नहीं जाते ? साहसपूर्वक उनका मुकाबला कर लेते हैं न?
(19) विरोधी विचार वालों के साथ शाँतिपूर्वक विवाद करते रहते हैं?
(20) आपने अपने जीवन का कोई लक्ष नियत कर लिया है? और उस पर निश्चित भाव से आगे बढ़ते रहते हैं।

📖 अखण्ड ज्योति 1940 जुलाई पृष्ठ 16

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👉 बुरे विचारों से दूर रहिए (अन्तिम भाग)

🔶 बुरे विचारों के निरोध का उपाय सबसे प्रथम उनको पहचानना ही है। जिनके विचारों को। हम बुरे विचार मानते ही नहीं, उन्हें हम अपने मनोमन्दिर में प्रवेश करने से क्योंकर रोक सकेंगे? यदि दूसरों के धनापहरण के विचार को हम उत्तम विचार मानते हैं तो उसे अपने मन में आने से रोकने की जगह भली प्रकार से उसका स्वागत करेंगे। जो विचार बुरे होते हैं। वे उनके प्रथम स्वरूप में ही बुरे नहीं लगेंगे, उनके परिणाम बुरे होते हैं। विचारवान व्यक्ति ही इस बात को जान सकता है कि अमुक विचार अन्त में दुखदायी होगा।
संसार के अत्याधिक मनुष्यों को यह समझाना ही कठिन है कि उनके विचार ही उनके सुख-दुख के कारण हैं।

🔷 मनुष्यमात्र में अपने आप पर विवेचना करने की शक्ति का अभाव होता है। हम सभी बहिर्मुखी हैं। हम अपने कष्टों का कारण दूसरों को मानने में सन्तोष पाते हैं। अपने दोषों को दूसरे में देखते हैं। जिस अवाँछनीय घटना की जड़ हमारे विचारों में ही है उसे हम दूसरे व्यक्तियों में देखते हैं। इस प्रकार की मानसिक प्रवृत्ति को दोषारोपण की प्रवृत्ति कहते हैं अथवा प्रोजेक्शन कहते है। वही मनुष्य बुरे विचारों के निरोध में समर्थ होता है, जो अपने आपके विषय में सदा चिन्तन करता है और जो परोक्ष रूप से भी यह जानता है कि मनुष्य का मन ही दुख और दुखों का कारण है। ऐसे ही मनुष्य में भले ओर बुरे विचारों के पहचानने की शक्ति उत्पन्न होती है।

🔶 किसी भी ऐसे विचार को बुरा विचार कहना चाहिये जो आत्मा को दुःख देता हो, उसको भ्रम में डालता हो। बीमारी के विचारों और असफलता के विचारों को सभी बुरा कहेंगे यह प्रत्यक्ष ही है कि इन विचारों से मन को दुख होता है और अनहोनी घटना होके रहती है। किन्तु इस बात को मानने के लिये कम लोग तैयार होंगे कि शत्रुता के विचार, दूसरों को क्षति पहुंचाने के विचार भी बुरे विचार है। ये विचार भी उसी प्रकार हमारी आत्मा का बल कम कर देते हैं जिस प्रकार कि असफलता और बीमारी के विचार आत्मा का बल कम कर देते हैं।

.... समाप्त
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 14

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👉 बुरे विचारों से दूर रहिए (भाग 2)

🔷 हमें यहाँ ध्यान रखना चाहिये कि कोई भी भावना व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित नहीं रहती। हम किसी समय एक विशेष व्यक्ति से डर रहे हों, संभव है वह व्यक्ति हमारा कुछ बुरा न कर सके वह किसी कारण से हमसे दूर हो जाये। किन्तु इस प्रकार व्यक्ति विशेष से दूर हो जाने पर हम अपनी दुर्भावना से मुक्त नहीं होते। यह भावना अपना एक दूसरा विषय खोज लेगी।

🔶 हमारे जीवन का सुख और दुःख हमारे विचारों पर ही निर्भर रहता है। आधुनिक मनोविज्ञान की खोजों से पता चलता है कि मनुष्य का न सिर्फ आन्तरिक जीवन वरन् उसके समस्त जीवन के व्यवहार तथा शारीरिक स्वास्थ्य भी मन की कृष्ट तथा अकृष्ट गतियों का परिणाम मात्र है। अशुभ विचारों का लाना ही अपने जीवन को दुखी बनाना है, तथा शुभ विचारों का लाना सुखी बनाना है।

🔷 अब प्रश्न यह आता है कि हम अशुभ विचारों को आने से कैसे रोकें जिससे कि उनसे पैदा किये दुखों से हम बच सकें? यह प्रश्न बड़े महत्व का है और संसार के समस्त मनस्वी लोगों ने इस प्रश्न पर गम्भीर विचार किया है। किन्तु इस विषय पर जितना ही विचार किया जाय श्रेयस्कर है। प्रत्येक मनुष्य को इस विषय पर विचार करना चाहिये। दूसरों के विचारों से हमें लाभ अवश्य होता है किन्तु जब तक हम दूसरों के विचारों का मनन नहीं करते, उनसे भली प्रकार लाभ नहीं उठा सकते। लेखक पहले इस विषय पर अपने विचारों का उल्लेख करेगा इस लेख का तात्पर्य यहाँ है कि प्रत्येक पाठक को इस विषय पर विचार करने को प्रस्तुत किया जाय, ताकि जीवन की सबसे महत्वपूर्ण समस्या को अपने आप सुलभ कर सकें।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 14

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👉 बुरे विचारों से दूर रहिए (भाग 1)

🔷 हमारा मन अभ्यास का दास है। जिस प्रकार का अभ्यास मन को कराया जाता है उसी प्रकार उसका अभ्यास सदा के लिए बन जाता है। जिस मनुष्य को पढ़ने-लिखने का अभ्यास रहता है, उसका मन रुचि के साथ ऐसे काम को करने लगता है। ऐसे व्यक्ति से बिना पढ़े-लिखे रहा ही नहीं जाता। जिस मनुष्य को दूसरों की निन्दा करने का अभ्यास है, जो दूसरों के अहित का सदा चिन्तन किया करता है, वह भी उन कर्मों को किये बिना रह नहीं सकता ऐसे कार्य उसकी एक प्रकार की नशा जैसे व्यसन हो जाते हैं, वह व्यक्ति अनायास ही दूसरों की निंदा और अकल्याण सोचने में लग जाता है। दूसरों की स्तुति सुनकर उसे बुखार जैसा आ जाता है।

🔶 जिस व्यक्ति का इस प्रकार का अभ्यास हो जाता है वह जब अपने आपके विष में अशुभ विचार लाता है तो उन विचारों का भी विरोध नहीं कर सकता। जिनको दूसरों की बुराई का चिन्तन भला लगता है, वह अपनी बुराई का भी चिन्तन करने लगता है फिर इस प्रकार के विचार उसके मन को नहीं छोड़ते। अब यदि वह चाहे कि अमुक अशुभ विचार को हम छोड़ दें तो भी अब वह उसे छोड़ने में असमर्थ होता है। वहीं मनुष्य अपने विचारों पर नियन्त्रण कर सकता है जिसकी आत्मा बलवान और विवेकी है। जिस साँप को हम दूसरों के काटने के लिये पाले हैं, वहीं साँप किसी असावधानी की अवस्था में अपने आपको काट सकता है। दूसरों को दुःख देने के विचार साँप के सदृश है। अतएव सबका सदा कल्याण सोचना, किसी का भी अहित न सोचना, बुरे विचारों के निराकरण का पहला उपाय है।

🔷 जिस व्यक्ति के प्रति हम बुरे विचार लाते हैं उससे हम घृणा करने लगते हैं। घृणा की वृत्ति उलट कर भय की वृत्ति बन जाती है। जो दूसरों की मानहानि का इच्छुक है उसके मन में अपने आप ही अपनी मान हानि का भय उत्पन्न हो जाता है। जो दूसरों की शारीरिक क्षति चाहता है, उसे अपने शरीर के विषय में अनेक रोगों की कल्पना अपने आप उठने लगती है। जो दूसरों की असफलता चाहता है वह अपनी सफलता के विषय में सन्देहात्मक हो जाता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 13

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👉 दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (अन्तिम भाग)

किसी में गुण की कल्पना न कर सकने के कारण दोषदर्शी अविश्वासी भी होता है। वह किसी की सद्भावना एवं सहानुभूति में भी कान खड़े करने लगता है। प्रेम एवं प्रशंसा में भी स्वार्थपूर्ण चाटुकारिता का दोष देखता है। इसलिये संपर्क में आने और स्नेहपूर्ण बरताव करने वाले हर व्यक्ति से भयाकुल और शंकाकुल रहा करता है। उसे विश्वास ही नहीं होता कि संसार में कोई निःस्वार्थ और निर्दोष-भाव से मिल कर हितकारी सिद्ध हो सकता है। विश्वास, आस्था, श्रद्धा, सराहना से रहित व्यक्ति का खिन्न असंतुष्ट और व्यग्र रहना स्वाभाविक ही है, जैसा कि दोष-दर्शी रहता भी है।

यदि आपको अपने अन्दर इस प्रकार की दुर्बलता दिखी हो तो तुरन्त ही उसे निकालने के लिए और उसके स्थान पर गुण-ग्राहकता का गुण विकसित कीजिये। इस दशा में आपको हर व्यक्ति, वस्तु और वातावरण में आनंद, प्रशंसा अथवा विनोद की कुछ-न-कुछ सामग्री मिल ही जायेगी। दूसरों के गुण-दोषों में से उस हंस की तरह केवल गुण ही ग्रहण कर सकेंगे, जोकि पानी मिले हुए दूध में से केवल दूध-दूध ही ग्रहण कर लेता है और पानी छोड़ देता है।

दूसरों की अच्छाइयों को खोजने, उनको देख-देख प्रसन्न होने और उनकी सराहना करने का स्वभाव यदि अपने अन्दर विकसित कर लिया जाये तो आज दोष-दर्शन के कारण जो संसार, जो वस्तु और जो व्यक्ति हमें काँटे की तरह चुभते हैं, वे फूल की तरह प्यारे लगने लगें। जिस दिन यह दुनिया हमें प्यारी लगने लगेगी, इसमें दोष, दुर्गुण कम दिखाई देंगे, उस दिन हमारे हृदय से द्वेष एवं घृणा का भाव निकल जायेगा और हमें हर दिशा और हर वातावरण में प्रसन्नता ही आने लगेगी। दुःख, क्लेश और क्षोभ, रोष का कोई कारण ही शेष न रह जायेगा।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मई 1968 पृष्ठ 24 


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👉 दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (भाग 5)

वस्तुतः बात यह है कि संसार की प्रत्येक वस्तु गुण-दोषमय ही है। कोई भी वस्तु एवं व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता कि जिसमें या तो गुण-ही-गुण भरे हों अथवा दोष-ही-दोष। अपनी दृष्टि के अनुसार हर व्यक्ति उसमें गुण या दोष देख कर प्रसन्न अथवा खिन्न हुआ करता है।

बुद्धिमान व्यक्ति अपने लाभ और हित के लिये हर बात के अच्छे-बुरे दो पहलूओं में से केवल गुण पक्ष पर ही दृष्टि डालता है। क्योंकि वह जानता है, कि विपक्ष पर ध्यान देने, उसको ही देखते रहने से मन को अशाँति के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगेगा, दोष-दृष्टि रखने और दोषान्वेषक करने से घृणा तथा द्वेष का ही प्रादुर्भाव होता है, जिसका परिणाम कलह-क्लेश अथवा अशाँति असन्तोष के सिवाय और कुछ नहीं होता। इससे वस्तु अथवा व्यक्ति की तो कुछ हानि होती नहीं अपना हृदय कलुषित और कलंकित होकर रह जाता है।

अपने दृष्टि-दोष के कारण प्रायः अच्छी चीजें भी बुरी और गुण भी अवगुण होकर हानिकारक बन जाते हैं। जैसे स्वाँति-जल का ही उदाहरण ले लीजिये। स्वाँति की बूँद जब सीप के मुख में पड़ जाती है, तब मोती बन कर फलीभूत होती है और यदि वही बूँद साँप के मुख में पड़ जाती है तो विष का रूप धारण कर लेती हैं। वस्तु एक ही है किन्तु वह उपयोग और संपर्क के गुण दोष के कारण सर्वथा विपरीत परिणाम में फलीभूत हुई।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मई 1968 पृष्ठ 23

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/May/v1.24

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👉 दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (भाग 4)

किसी मित्र सम्बन्धी अथवा आत्मीयजन ने मानिये जन्म-दिन अथवा किसी अन्य शुभ अवसर पर अपनी योग्यता एवं समाज के अनुसार कोई उपहार दिया अथवा भेजा। कोई भी व्यक्ति इस सम्मान और स्नेह से पुलकित हो उठता और आभार भरा धन्यवाद देते-देते न अघाता। किन्तु दोषदर्शी तो अपने रोग से मजबूर ही रहता है। यद्यपि वह आभार एवं धन्यवाद न प्रकट करने की असभ्यता नहीं करता तथापि और कुछ नहीं उसमें इतना ही शामिल कर देता कि आपने बेकार यह चीज भेजी। यह तो मेरे पास पहले से ही थी और मुझे ऐसा रंग यह डिजाइन पसन्द नहीं है। यह रंग और प्रकार उपहार के रूप में बहुत आम और सस्ते हो गये हैं। इससे अच्छा यह होता कि आप सद्भावना और बधाई के ही दो शब्द दे देते। बात भले ही सही रही हो। किन्तु इस भावना ने, इस दोष-दृष्टि ने उसको स्वयं तो प्रसन्न नहीं ही होने दिया साथ ही अपने मित्र और स्वजन की प्रसन्नता भी छीन ली।

यही बात नहीं कि दोष-दृष्टा केवल दूसरों में ही बुराई और कमियाँ देखता हो। स्वयं अपने प्रति भी उसका यही अत्याचार रहा करता है। उदाहरण के लिये वह बाजार से अपने लिये कोई वस्तु खरीदने जाती है। पहले तो वह कितनी ही प्रकार की चीजें क्यों न दिखलाई जायें, उसे पसन्द ही नहीं आती, सबमें कोई-न-कोई दोष दिखलाई देता है। वस्तु के निर्दोष होने पर भी वह अपनी और से किसी दोष का आरोपण कर ही लेगा। अपनी इस प्रक्रिया से थक जाने के बाद जब चीज लेकर घर आता है। तब भी उसका पेट अप्रशंसा से भरा नहीं होता। चीज डाली और कहना आरम्भ कर दिया- ‘‘खरीदने को खरीद तो अवश्य लाया लेकिन कुछ पसन्द नहीं आई। यदि पत्नी इस बात को नहीं मानती और चुनाव की प्रशंसा करती है, तो झूठी प्रशंसा का करने का आरोप पाती है। जब तक वह अपनी पसन्द, बाजारदारी, चीज की पहचान के विषय में आलोचना नहीं कर लेता, बुराई नहीं निकाल लेता, अपनी अकल और अनुभव को कोस नहीं लेता चैन नहीं पड़ता। इस प्रकार वह इस प्रसन्नता के छोटे अवसर को भी खिन्नता से कडुआ बना ही लेता है।

तात्पर्य यह है कि दोष-दर्शी कितने ही सुन्दर स्थान, वस्तु और व्यक्ति के संपर्क में क्यों न आये अपने अवगुण के प्रभाव से उससे मिलने वाले आनन्द से वंचित ही रहता है। निदान इस लम्बे-चौड़े संसार में उसे न तो कहीं आनन्द दीखता है और न किसी वस्तु में सामंजस्य का सुख प्राप्त होता है। उसे हर व्यक्ति, हर वस्तु और हर वातावरण अपनी रुचि के साथ असमंजस उत्पन्न करती ही दीखती है। जबकि गुण-ग्राहक हर व्यक्ति, हर वस्तु और हर वातावरण में सामंजस्य और सुन्दरता ही खोज निकालता है। यही कारण है कि गुण-ग्राहक सदैव प्रसन्न और दोषान्वेषक सदा खिन्न बना रहता है।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मई 1968 पृष्ठ 23  

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