शनिवार, 26 नवंबर 2022

👉 सुझाव देने से पूर्व सोचो

मनुष्यों में एक प्रवृत्ति यह पाई जाती है कि वे दूसरे के कामों में बहुत जल्दी हस्तक्षेप करने लगते हैं। यदि विचारपूर्वक देखा जाए, तो कोई अन्य मनुष्य जो कुछ कहता, करता या विश्वास करता है, उससे तुम्हारा कोई सरोकार नहीं। तुम्हें उसकी बात पूर्णतया उसी की इच्छा पर छोड़ देनी चाहिए। तुम स्वयं अपने कार्यों में जिस प्रकार की स्वतंत्रता की इच्छा करते हो, वही दूसरों को भी देनी चाहिए।

वास्तव में किसी सज्जन व्यक्ति को कभी दूसरों के कार्यों और विश्वासों में कोई हस्तक्षेप न करना चाहिए, जब तक कि उनके किन्हीं कार्यों से सर्वसाधारण की प्रत्यक्ष हानि न होती हो। यदि कोई मनुष्य ऐसा व्यवहार करता है, जिससे कि वह अपने पड़ोसियों के लिए दु:खदायी बन जाता है, तो उसे उचित सम्मति देना कभी-कभी हमारा कत्र्तव्य हो जाता है, पर ऐसा मौका आने पर भी बात को बहुत नम्रता और सरलतापूर्वक प्रकट करना चाहिए।

अगर कोई व्यक्ति तुम्हारे विचार से कोई बड़ी भूल कर रहा है, तो तुम उसे एकांत में अवसर ढूँढ़ कर यह बतला सकते हो कि ‘आप ऐसा क्यों करते हो?’ संभव है ऐसा करने से वह तुम्हारी बात पर विश्वास कर सके, किन्तु अनेक स्थानों पर तो ऐसा करना भी अनुचित रूप से हस्तक्षेप ही करना होगा। किसी तीसरे व्यक्ति के सामने तो उस बात की चर्चा कदापि नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यह उसकी निंदा करना होगा, जो किसी सभ्य व्यक्ति को शोभा नहीं देता।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 त्यागमय जीवन

महात्मा ईसा ने अपने शिष्यों से कहा था कि-“जो बहुत जोड़ता है वह बहुत खोयेगा। जो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना चाहता है वह सब कुछ छोड़कर मेरे साथ चले।” भगवान बुद्ध ने राज सिंहासन छोड़ा था पर वे किसी प्रकार घाटे में नहीं रहे। राजा विश्वामित्र से महर्षि विश्वामित्र का पद ऊंचा था, बैरिस्टर गाँधी से महात्मा गाँधी कुछ बुरे नहीं रहे। अकबर का दरबारी प्रताप सिंह बनने की अपेक्षा जंगलों में भटकने वाला राणाप्रताप क्या मूर्ख कहलाया ? भामा शाह अपना सब कुछ लुटा गये, क्या वे घाटे में रहे ? सिकन्दर अपनी दौलत को देख देखकर मरते वक्त बुरी तरह फूट फूट कर रोता था, मरने के बाद उसने अपने दोनों हाथ अर्थी से बाहर निकले रहने देने का आदेश किया था ताकि लोग यह जान सकें कि विपुल सम्पत्ति जमा करने वाला सिकन्दर अपने साथ कुछ भी न ले जा सका था उसके दोनों हाथ बिल्कुल खाली थे।

त्याग का अर्थ जिम्मेदारियों का कर्तव्य का त्याग नहीं है जैसा कि आजकल कितने ही नासमझ लोग अपने कठोर कर्तव्यों से विमुख होकर कायरतापूर्वक घर छोड़कर भाग खड़े होते हैं और विचित्र वेष बनाकर आलस्य में समय बिताते हुए दूसरों पर भार बनते हैं। त्याग का वास्तविक अर्थ है- अपनी दुर्भावना दुर्वासना स्वार्थपरता, ममता एवं लोभवृत्ति का त्याग। वेद भगवान ने कहा दे--“सौ हाथों से कमा, हजार हाथों से दान कर” हम तत्परतापूर्वक अपने श्रम का शक्ति का योग्यता का समय का पूरा पूरा उपयोग करते हुए आत्मिक और साँसारिक उत्पादन बढ़ावे और उस उत्पादन का आवश्यक अंश जीवन निर्वाह के लिए उपयोग करते हुए शेष को निर्लोभ भाव से परमार्थ में लगावें। यही गीता का कर्म योग हैं। यह त्यागमय जीवन बिताने की नीति मानव जीवन के सदुपयोग की सर्वोत्तम नीति है, आत्मोन्नति की सर्वोत्तम साधना है।

📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1950 पृष्ठ 24

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👉 हमारी अतृप्ति और असंतोष का कारण

👉 मनोनिग्रह-सफलता की कुँजी

एक विचारक का कथन है-“जो मनुष्य अधिकतम संतोष और सुख पाना चाहता है, उसको अपने मन और इन्द्रियों को वश में करना अत्यन्त आवश्यक है। यदि हम अपने आपको तृष्णा और वासना में बहायें, तो हमारे असंतोष की सीमा न रहेगी।”

अनेक प्रलोभन तेजी से हमें वश में कर लेते हैं, हम अपनी आमदनी को भूल कर उनके वशीभूत हो जाते हैं। बाद में रोते चिल्लाते हैं। जिह्वा के आनन्द, मनोरंजन आमोद प्रमोद के मजे हमें अपने वश में रखते हैं। हम सिनेमा का भड़कीला विज्ञापन देखते ही मन को हाथ से खो बैठते हैं और चाहे दिन भर भूखे रहें, अनाप-शनाप व्यय कर डालते हैं। इन सभी में हमें मनोनिग्रह की नितान्त आवश्यकता है। मन पर संयम रखिये। वासनाओं को नियंत्रण में बाँध लीजिये, पॉकेट में पैसा न रखिये। आप देखेंगे कि आप इन्द्रियों को वश में रख सकेंगे।

आर्थिक दृष्टि से मनोनिग्रह और संयम का मूल्य लाख रुपये से भी अधिक है। जो मनुष्य अपना स्वामी है और इन्द्रियों को इच्छानुसार चलाता है, वासना से नहीं हारता, वह सदैव सुखी रहता है।

प्रलोभन एक तेज आँधी के समान है जो मजबूत चरित्र को भी यदि वह सतर्क न रहे, गिराने की शक्ति रखती है। जो व्यक्ति सदैव जागरुक रहता है, वह ही संसार के नाना प्रलोभनों आकर्षणों, मिथ्या दंभ, दिखावा, टीपटाप से मुक्त रह सकता है। यदि एक बार आप प्रलोभन और वासना के शिकार हुए तो वर्षों उसका प्रायश्चित करने में लग जायेंगे।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1950 पृष्ठ 9

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1950/January/v1.9


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शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

👉 भलाई करना ही सबसे बड़ी बुद्धिमानी है।

दुष्ट लोग उस मूर्खता से नहीं डरते, जिसे पाप कहते हैं। मगर विवेकवान सदा उस बेवकूफी से दूर रहते हैं। बुराई से बुराई ही पैदा होती है, इसलिए बुराई को अग्नि से भी भयंकर समझ कर उससे डरना और दूर रहना चाहिए। जिस तरह छाया मनुष्य को कभी नहीं छोड़ती वरन् जहाँ-जहाँ वह जाता है उसके पीछे-पीछे लगी रहती है। उसी तरह पाप कर्म भी पापी का पीछा करते हैं और अन्त में उसका सर्वनाश कर डालते हैं। इसलिए सावधान रहिए और बुराई से सदा डरते रहए।

जो काम बुरे हैं उन्हें मत करो। क्योंकि बुरे काम करने वालों को अन्तरात्मा के शाप की अग्नि में हर घड़ी झुलसना पड़ता है। वस्तुओं को प्रचुर परिमाण में एकत्रित करने की कामना से, इन्द्रिय भोगों की लिप्सा से और अहंकार को तृप्त करने की इच्छा से लोग कुमार्ग में प्रवेश करते हैं। पर यह तीनों ही बातें तुच्छ हैं। इनसे क्षणिक तुष्टि होती है, पर बदले में अपार दुख भोगना पड़ता है। खाँड मिले हुए विष को लोभवश खाने वाला बुद्धिमान नहीं कहा जाता, इसी प्रकार जो तुच्छ लाभ के लिए अपार दुख अपने ऊपर लेता है उसे भी समझदार नहीं कह सकते।

इस दुनिया में सबसे बड़ा बुद्धिमान, विद्वान, चतुर और समझदार वह है जो अपने को कुविचार और कुकर्मों से बचाकर सत्य को अपनाता है, सत्मार्ग पर चलता है और सत्विचारों को ग्रहण करता है। यही बुद्धिमानी अन्त में लाभदायक ठहरती है और दुष्टता करने वाले अपनी बेवकूफी से होने वाली हानि के कारण सिर धुन-धुन कर पछताते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1943 पृष्ठ 1

👉 मृत्यु का भय छोड़ दीजिए।

बालक मरें, चाहे जवान या बूढ़े मरें, हम इससे भयभीत क्यों हों? कोई पल ऐसा नहीं जाता जब इस जगत में कही किसी का जन्म और कही किसी की मृत्यु होती है। पैदा होने पर खुशियाँ मनाना और मौत से डरना बड़ी मूर्खता है, यह बात हमें अवश्य सदैव अनुभव करनी चाहिए। जो लोग आत्मवादी हैं, - और हममें कौन हिन्दू, मुसलमान या पारसी ऐसा होगा जो आत्मा के अस्तित्व को न मानता होगा? - वे जानते हैं कि आत्मा कभी मरती नहीं।

यही नहीं, बल्कि जीवित और मृत समस्त प्राणी एक ही हैं, उनके गुण भी एक ही हैं। इस दशा में, जबकि जगत में उत्पत्ति और लय पल पल-पर होता ही रहता है, हम क्यों खुशियाँ मनावें? और किस लिए शोक करें? सारे देश को यदि हम अपना परिवार मानें- देश में जहाँ कहीं किसी का जन्म हुआ हो, उसे अपने यहाँ ही हुआ मानें- तो कितने जन्मोत्सव मनाइयेगा? देश में जहाँ-जहाँ मौतें हों उन सबके लिए यदि हम रोते रहें तो हमारी आँखों के आँसू कभी बन्द ही न हों। यह सोचकर हमें मृत्यु का भय छोड़ देना चाहिए।

अन्य देशों की अपेक्षा प्रत्येक भारतवासी अधिक ज्ञानी, अधिक आत्मवादी होने का दावा रखता है, तिस पर भी मौत के सामने जितने दीन हम हो जाते हैं उतने और लोग शायद ही होते हों और उनमें भी मेरा खयाल है कि हिन्दू लोग जितने अधीर हो जाते हैं उतने भारत के दूसरे लोग नहीं। अपने यहाँ किसी का जन्म होते ही हमारे घरों में आनन्द मंगल उमड़ पड़ता है और जब कोई मर जाता है तब इतना रोना पीटना मचता है कि आस-पास के लोग भी हैरान हो जाते हैं। हमें इस अज्ञान जन्य हर्ष शोक को छोड़ ही देना चाहिए।

✍🏻 महात्मा गाँधी
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1943 पृष्ठ 6

गुरुवार, 24 नवंबर 2022

👉 गुण-ग्राहक दृष्टि को जाग्रत कीजिए

🔴 जिसके दोष देखने को हम बैठते हैं, उसके दोष ही दोष दिखाई पड़ते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि इस प्राणी या पदार्थ में दोष ही दोष भरे हुए हैं, बुराइयाँ ही बुराइयाँ उसमें संचित हैं, पर जब गुण-ग्राहक दृष्टि से निरीक्षण करने लगते हैं, तो हर प्राणी में, हर पदार्थ में कितनी ही अच्छाइयाँ, उत्तमताऐ, विशेषताएँ दीख पड़ती हैं।

🔵 वस्तुत: संसार का हर प्राणी एवं पदार्थ तीन गुणों से बना हुआ हैं उसमें जहाँ कई बुराइयाँ होती हैं, वहाँ कई अच्छाइयाँ भी होती हैं। अब यह हमारे हाथ में है कि उसके उत्तम तत्त्वों से लाभ उठाएँ या दोषों को स्पर्श कर दु:खी बनें। हमारे शरीर में कुछ अंग बड़े मनोहर होते हैं, पर कुछ ऐसे कुरूप और दुर्गंधित हैं कि उन्हें ढके रहना ही उचित समझ जाता है।

🔴 इस गुण-दोषमय संसार में से हम उपयोगी तत्त्वों को ढूँढ़ें, उन्हें प्राप्त करें और उन्हीं के साथ विचरण करें, तो हमारा जीवन सुखमय हो सकता है। बुराइयों से शिक्षा ग्रहण करें, सावधान हों, बचें और उनका निवारण करने का प्रयत्न करके अपनी चतुरता का परिचय दें, तो बुराइयाँ भी हमारे लिए मंगलमय हो सकती हैं। चतुर मनुष्य वह है जो बुराइयों से भी लाभ प्राप्त कर लेता है। गुण-ग्राहक दृष्टि को जाग्रत करके हम हर स्थिति से लाभ उठा सकते हैं।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति-अप्रैल 1948 पृष्ठ 1
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1948/April/v1.1

👉 क्या आप कर्जदार हैं?

🔵 क्या आप कर्जदार है? यदि ऐसा है तो आपकी आत्मा को शान्ति नहीं मिल सकती। उन धनी मानी व्यक्तियों के उदाहरण अपने सन्मुख रखिये जो आजन्म ऋण के बोझ से दबे रहे। हमारे ग्रामीण तो 80 प्रतिशत कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। गोल्डस्मिथ, बालजाक, मार्क टवैन, वेबस्टर, लार्ड वायरन, सर वाल्टर स्काट सब कर्जदार रहे। वाल्टरस्काट आजन्म कर्ज चुकाते रहे। रूसी लेखक डास्टाएन्सकी कर्ज में डूबा रहा। उसकी इच्छा थी कि कर्ज से मुक्त हो जावे किन्तु न हो सका।

🔴 गोल्डस्मिथ इतना फिजूल खर्च रहा कि जौनसन साहब की सहायता करने पर भी ऋण मुक्त न हो सका। कथाकार बालजाक अपने महाजनों से डरा-2 फिरा करता था। मार्क स्वेन का 300,000 रु॰ व्यापार में नष्ट हो गया था। लार्ड वायरन जैसे कवि का घर कई बार नीलाम होते होते बचा सुविख्यात चित्रकार व्हिरलय तथा हेडेन का जीवन सदैव दुःख में रहा।

🔵 श्री योगेन्द्र बिहारी लाल ऋण ग्रस्त व्यक्तियों के उदाहरण देते हुए लिखते हैं-“सौ वर्ष पहले ल्योब्रमेल इंग्लैंड का फैशन ‘सम्राट् कहा जाता था। उसके कपड़े पहनने का ढंग ही फैशन हो जाता था पर ऋण के कारण उसका सब कुछ बिक गया। जब नीलाम करने वाले उसके घर आते थे तो वह कपड़ों की अलमारियों के पीछे छिप जाता था। अन्त में वह पकड़ा गया। दरिद्रता के कारण उसे फटी कमीज पहननी पड़ती थी, और जनता उस भूतपूर्व फैशन सम्राट पर हंसती थी। विलियन पिट का विवाह कुमारी एडेन से होने जा रहा था, पर पिट के ऋण ग्रस्त होने से विवाह न हो सका था।”

🔴 अब्राहम लिंकन ने किसी से शराब की दुकान में साझीदार के मरने पर लिंकन ग्यारह वर्ष तक ऋण चुकाता रहा।

🔵 खर्च के विषय में बेखबर रहने से मनुष्य की पूरी आयु नष्ट हो जाती है। इसी के सदुपयोग से जीवन सरस बनता है, समाज में आदर और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। कौटिल्य ने कहा है-“केवल धन के द्वारा मनुष्य गुण, आनन्द एवं मोक्ष की प्राप्ति करता है।” वास्तव में आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न रहने से मनुष्य नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति भी सरलता से कर सकता है। रुपया पास होने से सूर्योदय और गुलाब भी हमें सुन्दर लगते हैं। एक कवि ने लिखा है-

“जब जेब में पैसा होता है,
जब पेट में रोटी होती है।
तब हर एक जर्रा हीरा है,
तब हर एक शबनम मोती होती है॥
इस उक्ति में एक शाश्वत सत्य अंतर्निहित है।

🌹 अखण्ड ज्योति जनवरी 1950 पृष्ठ 11

सोमवार, 21 नवंबर 2022

👉 तेरे नाम का आधार

मनुष्य की दुर्बलता का अनुभव करके हमारे परम कारुणिक साधु संतों ने उद्धार के बहुत से रास्ते ढूँढ़े। अन्त में उन्हें भगवान का नाम मिला। इससे उन्होंने गाया कि-राम नाम ही हमारा आधार है। सब तरह से हारे हुए मनुष्य के लिए बस, राम नाम ही एक तारक मंत्र है। राम नाम यानी श्रद्धा-ईश्वर की मंगलमयता पर श्रद्धा। युक्ति, बुद्धि, कर्म, पुरुषार्थ, सब सत्य हैं, परन्तु अन्त में तो राम नाम ही हमारा आधार है।

लेकिन आजकल का जमाना तो बुद्धि का जमाना कहलाता है। इस तार्किक युग में श्रद्धा का नाम ही कैसे लिया जाए? सच है कि दुनिया में अबुद्धि और अन्धश्रद्धा का साम्राज्य छाया है। तर्क, युक्ति और बुद्धि की मदद के बिना एक कदम भी नहीं चला जा सकता। बुद्धि की लकड़ी हाथ में लिए बिना छुटकारा ही नहीं। परन्तु बुद्धि अपंगु है। जीवन यात्रा में आखिरी मुकाम तक बुद्धि साथ नहीं देती। बुद्धि में इतनी शक्ति होती तो पण्डित लोग कभी के मोक्ष धाम तक पहुँच चुके होते। जो चीज बुद्धि की कसौटी पर खरी न उतरे, उसे फेंक देना चाहिये।

बुद्धि जैसी स्थूल वस्तु के सामने भी जो टिक सके उसकी कीमत ही क्या है? परन्तु जहाँ बुद्धि अपना सर्वस्व खर्च करके थक जाती हैं और कहती है-’न एतदशकं विज्ञातुँ यदेतद्यक्षमिति।’ वहाँ श्रद्धा क्षेत्र शुरू हो जाता है। बुद्धि की मदद से कायर भी मुसाफिरी के लिए निकल पड़ता है। परन्तु जहाँ बुद्धि रुक जाती है, वहाँ आगे पैर कैसे रखा जाय? जो वीर होता है, वही श्रद्धा के पीछे-2 अज्ञान की अंधेरी गुफा में प्रवेश करके उस ‘पुराणह्वरेष्ठ’ को प्राप्त कर सकता है।

बालक की तरह मनुष्य अनुभव की बातें करता है। माना कि, अनुभव कीमती वस्तु है, परन्तु मनुष्य का अनुभव है ही कितना? क्या मनुष्य भूत भविष्य को पार पा चुका है? आत्मा की शक्ति अनन्त है। कुदरत का उत्साह भी अथाह है। केवल अनुभव की पूँजी पर जीवन का जहाज भविष्य में नहीं चलाया जा सकता। प्रेरणा और प्राचीन खोज हमें जहाँ ले जायं, वहाँ जाने की कला हमें सीखनी चाहिए। जल जाय वह अनुभव, धूल पड़े उस अनुभव पर जो हमारी दृष्टि के सामने से श्रद्धा को हटा देता है।

*( यदि नाथ का नाम दयानिधि है | Yadi Nath Ka Naam Dayanidhi Hai | Rishi Chintan, https://www.youtube.com/watch?v=gMTWKRAPZIs )*

दुनिया यदि आज तक बढ़ सकी है तो वह अनुभव या बुद्धि के आधार पर नहीं, परन्तु श्रद्धा के आधार पर ही। इस श्रद्धा का माथा जब तक खाली नहीं होता, जब तक यात्रा में पैर आगे पड़ते ही रहेंगे, तभी तक हमारी दृष्टि अगला रास्ता देख सकेगी और तभी तक दिन के अन्त होने पर आने वाली रात्रि की तरह बार-बार आने वाली निराशा की थकान अपने आप ही उतरती जायगी। इस श्रद्धा को जाग्रत रखने का-इस श्रद्धा की आग पर से राख उड़ाकर इसे हमेशा प्रदीप्त रखने का-एकमात्र उपाय है राम-नाम।

राम-नाम ही हमारे जीवन का साथी और हमारा हाथ पकड़ने वाला परम गुरु है।

📖 अखण्ड ज्योति-मार्च 1949 पृष्ठ 21

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1949/March/v1.21


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शनिवार, 19 नवंबर 2022

👉 अपनी स्थिति के अनुसार साधना चाहिए।

साधु, संत और ऋषियों ने लोगों को अपने-अपने ध्येय पर पहुँचने के अनगिनत साधन बतलाये हैं। हर एक साधन एक दूसरे से बढ़कर मालूम होता है, और यदि वह सत्य है, तो उससे यह मालूम होता है कि ये सब साधन इतनी तरह से समझाने का अर्थ यह है कि ज्यादातर एक कोई भी साधन उपयोग में आ सकता है। और यह है भी स्वाभाविक ही कि वह किसी एक के लिए उपयोगी हो।

परन्तु बहुधा ऐसा होता है कि बहुत से साधन अपने अनुकूल नहीं होते। कठिनाई यह है कि हम लोगों में वह शक्ति नहीं है कि उस साधन को खोज निकालें जिसके कि हम सचमुच योग्य हैं। इसके विपरीत हम दूसरे ऐसे साधन अनिश्चित समय के लिए अपनाते हैं जो हमारी शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुकूल नहीं होते। आज ऐसे अनुभवी पथ-प्रदर्शकों की भी भारी कमी है जो अपनी सूक्ष्म दृष्टि से यह जान लें कि किस व्यक्ति के अनुकूल क्या साधन ठीक होगा।

जो व्यक्ति जिस साधना का अधिकारी है, उसी के अनुकूल कार्यक्रम उसके सामने रखा जाना चाहिए। बालकों का शिक्षण और अध्ययन भी इसी आधार पर होना चाहिए। रुचि के अनुकूल दिशा में शिक्षा मिलने पर बालक थोड़े ही समय में आश्चर्यजनक उन्नति कर लेता है। इसके विपरीत जो कार्यक्रम उसकी रुचि न होते हुए भी लादा जाता है वह बड़ी कठिनाई से जैसे-तैसे पार पड़ता है।

हमें चाहिए कि अपना एक ध्येय निर्धारित करें और उस लक्ष्य को पूरा करने के लिए ऐसे साधन चुनें जो निर्धारित उद्देश्य की ओर तेजी से हमें बढ़ा ले चलें, साथ ही उन साधनों का अपनी रुचि, प्रकृति और स्थिति के अनुकूल होना भी आवश्यक है। यदि ऐसा न हुआ तो उत्साह थोड़े ही समय में शिथिल हो जाता है और दुर्गम मार्ग पर चलने का अभ्यास न होने से बीच में ही यात्रा तोड़ने को विवश होना पड़ता है।

लक्ष्य-लक्ष्य के अनुकूल, साधन-साधन के अनुकूल, अपनी स्थिति- इन तीन बातों का जहाँ समन्वय हो जाता है यहाँ सफलता मिलने में संशय नहीं रहता। हमें अपना विवेक इतना जाग्रत करना चाहिए जो इस दिशा में समुचित ज्ञान रखता हो और अपने उज्ज्वल प्रकाश में हमें अभीष्ट लक्ष्य की ओर अग्रसर कर सके।

📖 अखण्ड ज्योति- मई 1949 पृष्ठ 23


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गुरुवार, 17 नवंबर 2022

👉 धर्म

अब धर्म भी एक शौकीनों की चीज बनता चला जाता है। घर में तरह के सुसज्जा साध और जी बहलाने वाले उपकरण रहते हैं, उसी तरह धर्म को भी घर के एक कोने में स्थान देने की आवश्यकता समझी जाती है। शौकीनी सुसज्जा में विभिन्न स्तर की वस्तुयें इकट्ठी करना पड़ती हैं, सभ्यता ने धर्म को भी एक ऐसा ही उपकरण समझना आरंभ किया है और कितने ही लोग अपने कई तरह के शोकों में एक शौक धर्म चर्चा का भी सम्मिलित कर लेते हैं।

यह स्थिति धर्म जैसे जीवन तत्व का उपहास करना है। स्नान घर सजाकर रखने मात्र से स्वच्छता की आवश्यकता पूरी नहीं होती। रसोई घर में आवश्यक वस्तुयें जमा कर देने भर से क्या भूख बुझ सकती है। पलंग भर बिछा रहे तो क्या बिना सोये नींद पूरी हो जायेगी?

दूसरों की दृष्टी में धर्मात्मा बनकर अपनी आंतरिक अधार्मिकता को छिपाने के लिए आवरण ओढ़ना किस काम का? यदि धर्म के प्रति सचमुच आस्था हो तो उसे न केवल दृष्टिकोण में वरन् क्रिया कलाप में भी समाविष्ट करना चाहिए। अन्यथा यह कम बुरा है कि हम अपना अधार्मिकता को उसी रूप में खुला रहने दें और धार्मिक बनने का दंभ न करें। इससे अधर्म के साथ दंभ को जोड़ने की दुहरी तो न बढ़ेगी।

✍🏻 रविन्द्र नाथ टैगोर
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1973 पृष्ठ 11

👉 पहले दो तब मिलेगा।

संसार का यह अचल नियम कितना सत्य है कि “पहले दो तब मिलेगा” पेट में पहले भोजन पहुँचाया जाता है तब वह हमें रक्त जैसी अमूल्य वस्तु प्रदान करता है, घड़ी में पहले चाबी दी जाती है तब वह हमें ठीक समय देती है, कुंए में पहले बर्तन डालते हैं तब उसमें पानी आता है, दान देने वाले पहले देते हैं तब यश और कीर्ति के भागी बनते हैं, ब्याज खाने वाले पहले रकम देते हैं तब उन्हें ब्याज की कौड़ियाँ मिलती हैं, चक्की में पहले गेहूँ डालते हैं, तब आटा मिलता है, किसान पहले बीज बोता है तब उसे कई गुना मिलता है।

व्यापारी पहले माल खरीदने में अपनी रकम लगाता है तब वह मुनाफा पाता है, पेड़ों को देखिये पहले वे बिना किसी आनाकानी के मीठे फल और पत्ते देते हैं तब उसकी जगह नये पत्ते और फल प्राप्त करते हैं, बिजली का पहले बटन दबाते हैं तब प्रकाश मिलता है, समुद्र पहले बादलों को अपना जल देता है तब उसे इन्द्र कई गुना वापिस लौटा देता है, पहले किसी की सेवा करते हैं तब वह हमें कुछ देता है, किसी के हृदय पर शासन करने के लिए पहले अपना हृदय देना पड़ता है तब उसका हृदय प्राप्त कर सकते हैं।

संसार की किसी जड़ चेतन वस्तु को लीजिये “पहले देने पर ही मिलेगा” यहाँ तक कि मन्द बुद्धि पशु जाति को ही लीजिये कुत्ते को रोटी और प्यार देने पर ही वह आपकी आज्ञा का पालन कर सकेगा, अन्यथा काट खाने को दौड़ेगा। भोले भाले अज्ञान बालक का हृदय भी देखिये पहले वह गेंद बिना किसी संकोच के धरती पर फेंक देता है लेकिन उस गेंद को धरती अपने पास नहीं रखती है बल्कि बालक को ही वापस लौटा देती है।

📖 अखण्ड ज्योति- फरवरी 1944 पृष्ठ 12

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1944/February/v1.12

मंगलवार, 15 नवंबर 2022

👉 कर्त्तव्य की जिम्मेदारी

प्रकृति का वह अनिवार्य नियम है, कि जिसको आप जैसा समझते हैं कि वह आपको वैसा ही समझता है, भले ही आप उसे न जानते हों या आपको जानकर आश्चर्य और क्रोध आवे। जिसको आप छोटा समझते हैं, वह आपको वैसा ही समझता है। नागरिक कर्तव्यों और अधिकारों का ज्ञान अस्पृश्यता रूपी कलंक हम में से निकाल देना और सच्चा भ्रातृ-भाव हमारे बीच में फैलावेगा, वह हमको बतलायेगा कि जो बात अपने को बुरी लगती है, वही बात दूसरे को बुरी लगती है। जैसा व्यवहार हम दूसरों से चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार हम दूसरों से करें, सब चीजें चाहती हैं कि हमारे साथ सद्व्यवहार किया जाय, चाहे वे जड़ हों या चेतन।

दुर्व्यवहार करने पर सभी वस्तुएं अपना बदला लेंगी। यदि भाई, नौकर, पड़ौसी, आदि चेतन जीवों से आप दुर्व्यवहार करते हैं तो अपना बदला लेते ही हैं। अचेत वस्तुएं भी ऐसा ही करती हैं। जूते के साथ दुर्व्यवहार कीजिएगा, उसे साफ नहीं रखिएगा तो वह काठ लेगा। छाते की फिक्र न कीजिएगा, उससे लापरवाही से पेश आइये, तो समय पर आप उसकी कमानी टूटी और कपड़ा कटा अर्थात् उसे बेकार पाइयेगा। यदि सुई की फिक्र न रखिएगा, तो किसी वक्त वह आपके शरीर में चुभ कर अपने अस्तित्व का माण आपको देगी। कार्यकुशल पुरुष सबके साथ सदा अच्छा और उचित व्यवहार करता है। इस कारण वह अपनी सब वस्तुएं, सब समय ठीक प्रकार से ठीक स्थान पर पाता है और सब चीजें उसकी सेवा करती हैं। उसका घर गन्दा नहीं रहता। उसके कपड़े मैले नहीं रहते। वह सदा चिड़चिड़ाया हुआ, घबराया हुआ, दूसरों पर अपना दोष लगाता हुआ, परेशान नहीं पाया जाता। उसका शरीर, उसकी आत्मा, उसका मस्तिष्क, सब स्वास्थ्य, स्थिर और प्रसन्न रहते हैं।

अपने नागरिक कर्तव्यों को न पालन कर हम देश की उन्नति में बाधा डाल रहे हैं। इसका प्रभाव हमारे आपस के प्रतिदिन के सम्बन्ध पर भी पड़ा है। जब हम मोची, दर्जी, धोबी आदि को कोई काम देते हैं तो हमें यह विश्वास नहीं रहता कि हम समय से काम कर देगा, न उसे विश्वास रहता है कि इस समय पर उसे दाम देंगे। इसी कारण परस्पर तकाजे पर तकाजा करते रहना पड़ता है। ऐसी दशा में समाज कैसे ठीक-ठीक चल सकता है? हालत यहाँ तक पहुँची है, कि यदि आप किसी को भोजन का निमन्त्रण दें और उन्होंने उसे स्वीकार भी कर लिया हो तो न आपको यह विश्वास रहता है कि वे आ जावेंगे तो भोजन मिल भी जायगा।

काशी में यह कायदा है कि शादी विवाह के भोज की याद निमन्त्रित सज्जनों को लोग आखिर तक बारबार स्वयं जाकर या दूसरों को भेज कर दिलाया करते हैं और मेरा खुद अनुभव है कि गाँव, देहात में निमन्त्रण स्वीकार करने के बाद जब समय से पहुँच गया हूँ तब वहाँ खाना पकाना शुरू किया गया है। मेजबानों को आखिर तक शंका रही कि वह आयेगा या नहीं। जब समाज की यह दशा है, जब किसी भी काम के लिये हम किसी दूसरे पर विश्वास नहीं कर सकते-तब क्या समाज का संगठन हो सकता है ? क्या समाज की प्रगति सम्भव है?

देश की उन्नति इने गिने बहुत थोड़े लोगों पर निर्भर नहीं रह सकती। देश की उन्नति, देश की प्रगति, देश का अभ्युदय, देश की स्वतन्त्रता, साधारण से साधारण व्यक्तियों के अपने कर्तव्यों और अधिकारों की जिम्मेदारी ठीक तरह समझने पर ही निर्भर है।

📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1943 पृष्ठ 6

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रविवार, 13 नवंबर 2022

👉 उपासना

🔶 मित्रो ! उपासना का मुख्य उद्देश्य है ईश्वर के सान्निध्य को प्राप्त करना। जप,तप,पूजा, अर्चा,ध्यान आदि जो कुछ भी किया जा रहा है, वह सब परमात्मा के लिये ही किया जा रहा है, ऐसा अनुभव किया जाना चाहिए। अनुभव करना चाहिये परमात्मा उसकी पूजा स्वीकार कर रहा है। वह उसकी प्रार्थना अथवा कीर्तन को सुन रहा है। इस प्रकार सच्ची भावना से की गयी उपासना चमत्कार की तरह फलवती होती है। ऐसी जीवंत उपासना व्यक्ति के जीवन पर एक स्थायी प्रभाव डालती है। जो उत्कृष्ट विचारों, निर्विकार स्वभाव तथा सत्कर्मों के रूप में परिलक्षित होता है।

🔷 उपासना करता हुआ जो भी व्यक्ति गुण, कर्म,स्वभाव, एवं मन, वचन तथा कर्म से उत्कृष्टï नहीं बना तो यही मानना होगा, उसने उपासना की ही नहीं, केवल उपासना करने का नाटक किया है। उपासना के समय जितनी गहराई के साथ अपनी मानसिक भावना को परमात्मा के साथ संयोजित किया जायगा,वह अनुभव उतनी ही गहराई से जीवन में उतरेगा, वह स्थिर होता जायगा। ऐसी स्थिति आ जाने पर मनुष्य का आत्मोद्धार निश्चित है। उसके गुण,कर्म,स्वभाव परमात्मा जैसे पावन, उत्कृष्ट हो जायेंगे।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 स्वभाव तथा भावना का परिष्कार

🔷 परिवार की आत्मीयता की भावना जब बढ़ती है तो मनुष्य अपनों के लिए बहुत कुछ सोचता और करता है। हमारा मन इन दिनों अपने आत्मीयजनों को ऐसे बनाने के लिए मचल रहा है कि इस निर्माण को देखकर देखने वाले आश्चर्यचकित रह जायें और यह अनुभव करें कि युग-निर्माण योजना कोई शेखचिल्ली की कल्पना नहीं, वरन् एक अत्यंत सरल और पूर्ण व्यावहारिक पद्धति है जिसे अपनाया और व्यापक बनाया जा सकना न तो कठिन है और न असंभव।

🔶 समझा यह जाता है कि लोगों का स्वभाव जन्म से ही बना आता है, उसे बदला और बनाया नहीं जाता। इस धारणा को भ्रान्त सिद्ध करने का हमारा विचार है। हम अपनों को बदलना चाहते हैं। अपनी प्रयोगशाला में हम बबूलों को चन्दन बनाने की तैयारी कर रहे हैं। विज्ञान के द्वारा भौतिक जगत में इतने आश्चर्यजनक परिवर्तन हो रहे हैं तो ज्ञान के द्वारा मनुष्य की अन्त:स्थिति में भी आशाजनक परिवर्तन की आशा की जा सकती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.१०)

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शनिवार, 12 नवंबर 2022

👉 इन तीन का ध्यान रखिए (भाग 1)

👉 इन तीन का ध्यान रखिए:- उत्पादन की जड़, क्रोध, स्वाद

उत्पादन की जड़:- इन तीनों को सदैव अपने अधिकार में रखिये- अपना क्रोध, अपनी जिह्वा और अपनी वासना। ये तीनों ही भयंकर उत्पादक की जड़ हैं।

क्रोध:- क्रोध के आवेश में मनुष्य कत्ल करने तक नहीं रुकता। ऊटपटाँग बक जाता है और बाद में हाथ मल मल कर पछताता है।

स्वाद:- जीभ के स्वाद के लालच में भक्ष्य अभक्ष्य का विवेक नष्ट हो जाता है। अनेक व्यक्ति चटपटे मसालों, चाट पकौड़ी और मिठाइयाँ खा खाकर अपनी पाचन शक्ति सदा के लिये नष्ट कर डालते हैं।

सबसे बड़े मूर्ख वे हैं जो अनियंत्रित वासना के शिकार हैं।  विषय-वासना के वश में मनुष्य का नैतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक पतन तो होता ही है, साथ ही गृहस्थ सुख, स्वास्थ्य और वीर्य नष्ट होता है। समाज ऐसे भोग विलासी पुरुष को घृणा की दृष्टि से अवलोकता है। गुरुजन उसका तिरस्कार करते हैं। ऐसे पापी मदहोश को स्वास्थ्य लक्ष्मी और आरोग्य सदा के लिये त्याग देते हैं। इन तीनों ही शत्रुओं पर पूरा पूरा नियंत्रण रखिये।

👉 इन तीनों को झिड़को:- निर्दयता, घमण्ड और कृतघ्नता-

ये मन के मैल हैं। इनसे बुद्धि प्राप्त करने में फंस जाती है। निर्दयी व्यक्ति अविवेकी और अदूरदर्शी होता है। वह दया और सहानुभूति का मर्म नहीं समझता।

घमण्डी हमेशा एक विशेष प्रकार के नशे में मस्त रहता है, धन, बल, बुद्धि में अपने समान किसी को नहीं समझता। कृतघ्न पुरुष दूसरों के उपकार को शीघ्र ही भूल कर अपने स्वार्थ के वशीभूत रहता है। वह केवल अपना ही लाभ देखता है। वस्तुतः उस अविवेकी का हृदय सदैव मलीन और स्वार्थ-पंक में कलुषित रहता है।

दूसरे के किए हुए उपकार को मानने तथा उसके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकाशित करने में हमारे आत्मिक गुण-विनम्रता, सहिष्णुता और उदारता प्रकट होते हैं।

📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1950 पृष्ठ 13

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👉 सुगंधित जीवन

मित्रो ! विद्वान पुरुष सुगंधित पुष्पों के समान हैं। वे जहाँ जाते हैं, वहीं आनंद साथ ले जाते हैं। उनका सभी जगह घर है और सभी जगह स्वदेश है। विद्या धन है। अन्य वस्तुएँ तो उसकी समता में बहुत ही तुच्छ हैं। यह धन ऐसा है जो अगले जन्मों तक भी साथ रहता है। विद्या द्वारा संस्कारित की हुई बुद्घि आगामी जन्मों में क्रमश: उन्नति ही करती जाती है और उससे जीवन उच्चतम बनते हुए पूर्णता पाता है।
  
कुएँ को जितना गहरा खोदा जाए, उसमें से उतना ही अधिक जल प्राप्त होता जाता है। जितना अधिक अध्ययन किया जाए उतना ही ज्ञानवान बना जा सकता है। विश्व क्या है और इसमेंं कितनी आनंदमयी शक्ति भरी हुई है, इसे वही जान सकता है, जिसने विद्या पढ़ी है। ऐसी अनुपम संपत्ति का उपार्जन करने में न जाने क्यों लोग आलस्य करते हैं? आयु का कोई प्रश्न नहीं है, चाहे मनुष्य वृद्ध हो जाए या मरने के लिए चारपाई पर पड़ा हो तो भी विद्या प्राप्त करने में उसे उत्साहित होना चाहिए क्योंकि ज्ञान तो जन्म-जन्मांतरों तक साथ जाने वाली वस्तु है।
  
 वे मनुष्य बड़े अभागे हैं, जो विद्या पढऩे में जी चुराते हैं। भिखारी को दाता के सामने जैसे तुच्छ बनना पड़ता है, ऐसे ही यदि तुम्हें शिक्षकों के सामने तुच्छ बनना पड़े तो भी शिक्षा प्राप्त करना ही कत्र्तव्य है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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गुरुवार, 10 नवंबर 2022

👉 अपने ऊपर विश्वास कीजिए

विश्वास कीजिये कि वर्तमान निम्न स्थिति को बदल देने की सामर्थ्य प्रत्येक मनुष्य में पर्याप्त मात्रा में विद्यमान है। आप जो सोचते हैं, विचारते हैं, जिन बातों को प्राप्त करने की योजनाएँ बनाते हैं, वे आन्तरिक शक्तियों के विकास से अवश्य प्राप्त कर सकते हैं।

विश्वास कीजिए कि जो कुछ महत्ता, सफलता, उत्तमता, प्रसिद्ध, समृद्धि अन्य व्यक्तियों ने प्राप्त की है, वह आप भी अपनी आन्तरिक शक्तियों द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। आपमें वे सभी उत्तमोत्तम तत्व वर्तमान हैं, जिनसे उन्नति होती है। न जाने कब, किस समय, किस अवसर किस परिस्थिति में आपके जीवन का आन्तरिक द्वार खुल जाय और आप सफलता के उच्च शिखर पर पहुँच जायं।

विश्वास कीजिये कि आपमें अद्भुत आन्तरिक शक्तियाँ निवास करती हैं। अज्ञानवश आप की अज्ञात, विचित्र, और रहस्यमय शक्तियों के भंडार को नहीं खोलते। आप जिस मनोबल आत्मबल या निश्चयबल का करिश्मा देखते हैं, वह कोई जादू नहीं, वरन् आपके द्वारा सम्पन्न होने वाला एक दैवी नियम है। सब में से असाधारण एवं चमत्कारिक शक्तियाँ समान रूप से व्याप्त हैं। संसार के अगणित व्यक्तियों ने जो महान् कार्य किये हैं, वे आप भी कर सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1948 अक्टूबर पृष्ठ 1

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1948/October/v1.1


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बुधवार, 9 नवंबर 2022

👉 मूल्यांकन की कसौटी

मनुष्य की श्रेष्ठता की कसौटी यह होनी चाहिए कि उसके द्वारा मानवीय उच्च मूल्यों का निर्वाह कितना हो सका, उनको कितना प्रोत्साहन दे सका। योग्यताएँ विभूतियाँ तो साधन मात्र हैं। लाठी एवं चाकू स्वयं न तो प्रशंसनीय हैं, न निन्दनीय। उनका प्रयोग पीड़ा पहुँचाने के लिए हुआ या प्राण रक्षा के लिए? इसी आधार पर उनकी भर्त्सना या प्रशंसा की जा सकती है।

मनुष्य की विभूतियाँ एवं योग्यताएँ भी ऐसे ही साधन हैं। उनका उपयोग कहाँ होता है इसका पता उसके विचारों एवं कार्यों से लगता है। वे यदि सद् हैं तो यह साधन भी सद् हैं पर यदि वे असद् हैं, तो वह साधन भी असद् ही कहे जायेंगे।

मनुष्यता का गौरव एवं सम्मान इन जड़-साधनों से नहीं उसके प्राणरूप सद्विचारों एवं सद्प्रवृत्तियों से जोड़ा जाना चाहिए। उसी आधार पर सम्मान देने, प्राप्त करने की परम्परा बनायी जानी चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (५.१३)

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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