बुधवार, 26 अक्तूबर 2022

👉 ईमानदारी का व्यवहार

ईमानदार जीवन हजार मनकों में अलग चमकता हीरा होता है। ईमानदारी यश, धन, समृद्धि का आधार होती है। इसके बावजूद लोग कहते सुने जाते हैं कि व्यापार में बेईमानी बिना काम नहीं चलता, ईमानदारी से रहने में गुजारा नहीं हो सकता, वास्तव में यह गलत है।
  
वस्तुत: जो समझते हैं कि हमने बेईमानी से पैसा कमाया है। वे गलत समझते हैं, असल में उन्होंने ईमानदारी की ओट लेकर ही अनुचित लाभ उठाया होता है। कोई व्यक्ति साफ-साफ यह घोषणा कर दे कि ‘मैं बेईमान हूँ और धोखेबाजी का कारोबार करता हूँ,’ तब फिर अपने व्यापार में लाभ करके दिखावे तो यह समझा जा सकता है कि हाँ, बेईमानी की आड़ लेना कोई लाभदायक नीति है। जिस दिन उसका पर्दाफाश हो जाएगा कि भलमनसाहत की आड़ में बदमाशी हो रही है उस दिन ‘कालनेमी माया’ का अंत ही समझिये।
  
आप धोखेबाज मत बनिए, ओछे मत बनिये, गलत मत बनिए अपने लिए प्रतिष्ठा की भावनाएँ फैलने दीजिए। यह सब होना ईमानदारी पर निर्भर है। छोटा काम, कम पूँजी का, कम लाभ का, अधिक परिश्रम का इत्यादि जो भी काम आपके हाथ में है, उसी में अपना गौरव प्रकट होने दीजिए। यदि आप दुकानदार हैं, तो पूरा तौलिए, नियत कीमत रखिए, जो चीजें जैसी है, उसे वैसी ही कह कर बेचिए। इन तीन नियमों पर अपने काम को अवलम्बित कर दीजिए। मत डरिए कि ऐसा करने से हानि होगी। कम तोलकर या कीमत ठहराने में अपना और ग्राहक का बहुत सा समय बर्बाद करके जो लाभ कमाया जाता है, असल में वह हानि के बराबर है।

दुकानदार के प्रति ग्राहक के मन में सन्देह उत्पन्न हुआ, तो समझ लीजिए कि उसके दुबारा आने की तीन चौथाई आशा चली गयी। इसी प्रकार मोलभाव करने में यदि बहुत मगज पच्ची की गयी है, पहिली बार माँगे गये दामों को घटाया गया है, तो उस समय भले ही वह ग्राहक पट जाय पर मन में यही धकपक करता रहेगा कि कहीं इसमें भी अधिक दाम तो नहीं चले गये हैं। ऐसे संकल्प-विकल्प शंका-संदेह लेकर जो ग्राहक गया है, उसके दुबारा आने की आशा कौन कर सकता है? जिस दुकानदार के स्थायी और विश्वासी ग्राहक नहीं भला उसका काम कितने दिन चल सकता है?
  
कुछ बताकर कुछ चीज देना एक गलत बात है, जिससे सारी प्रतिष्ठा धूलि में मिल जाती है। दूध में पानी, घी में वेजीटेबिल, अनाज में कंकड, आटे में मिट्टी मिलाकर देना, आज कल खूब चला है। असली कहकर नकली और खराब चीजें बेची जाती हैं। खाद्य पदार्थों और औषधियों तक की प्रामाणिकता नष्ट हो गयी है। मनमाने दाम वसूल करना और नकली चीजें देना यह बहुत बड़ी धोखाधड़ी है। यदि यह प्रामाणित किया जा सके कि वस्तु असली है, तो ग्राहक उसको कुछ अधिक पैसे देकर भी खरीद सकता है। सदियों का पराधीनता ने हमारे चरित्र बल को नष्ट कर डाला है। तदनुसार हमारे कारोबार झूठे,नकल, दगाफरेव से भरे हुए होने लगे हैं। गलत बात से न तो बड़े पैमाने पर लाभ ही उठाया जा सकता और न प्रतिष्ठा ही प्राप्त की जा सकती है। व्यापार में धोखेबाजी की नीति बहुत ही बुरी नीति है। इस क्षेत्र में कायरों और गलत स्वभाव के लोगों के घुस पडऩे के कारण भारतीय उद्योग धन्धे, व्यापार नष्ट हो गये।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 कर भला हो भला

अच्छा काम करने पर स्वर्ग आदि का फल मिलने की बात कहीं जाती है यह कहाँ तक सच है। यह तो प्राणियों को श्रेय मार्ग पर ले जाने के लिए कहीं जाती है। जैसे बच्चों को दवा पिलाने के लिए कह देते हैं बेटा! प्रेम से पीलो तो तुम्हें खिलौने मिलेंगे। बच्चा आराम का महत्त्व नहीं समझता, खिलौनों का महत्त्व समझता है, उस बहाने से अपने हित का काम स्वीकार कर लेता है।

सामान्य मनुष्य भी श्रेष्ठ जीवन क्रम के लाभ नहीं समझता - उसे विषयों के सुख मालूम होते हैं। स्वर्ग में विषय सुख मिलने की बात से अपने लाभ का अन्दाज लग जाता है और वह उस मार्ग पर चल पड़ता है। ऐसा कहना झूठ भी नहीं है - क्योंकि जो कहा जाता है उससे अधिक ही लाभ उस मार्ग पर चलने वाले को प्राप्त होता है।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 संस्कृति- संजीवनी श्रीमदभागवत एवं गीता - वांग्मय 31 पृष्ठ 5.18

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शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2022

👉 सज्जनता का सौन्दर्य

चेहरे के सौन्दर्य को देखकर अनेक लोग प्रभावित होते हैं। पर नम्रता भी सौन्दर्य से किसी प्रकार कम आकर्षक और प्रभावोत्पादक नहीं है। नम्रता और सज्जनता के गुण जिसमें हैं, जो सदा मुस्कराता रहता है वह जहाँ कहीं जायेगा अपने लिए स्थान बना लेगा। इस चिन्ता और परेशानी से भरी हुई दुनियाँ में ऐसे लोगों की हर जगह माँग है जो अपने उत्तम स्वभाव के कारण दूसरों की व्यथा में थोड़ी कमी कर सकें, उन्हें अपनी प्रसन्नता और सज्जनता से कुछ मानसिक शान्ति प्रदान कर सकें।

कुरूपता कोई दोष नहीं है। नम्र और हँसमुख रहने से कुरूपता का दोष दूर किया जा सकता है। घमंडी चिड़चिड़ा स्वार्थी और कटुवादी कोई स्त्री या पुरुष चाहे कितना ही सुन्दर क्यों न हो कुछ ही देर में घृणास्पद बन जायेगा-चाहे वह कितना ही सुन्दर क्यों न दिखता हो। इसके विपरीत कुरूप व्यक्ति में भी यदि सौजन्य की समुचित मात्रा मौजूद है तो वह अपने लिए आदर और बड़प्पन प्राप्त करके रहेगा। कहते हैं कि द्रौपदी स्याह काली थी। इसी से उसे ‘कृष्ण’ भी कहते थे जिसका अर्थ है-कलूटी फिर भी उसके गुणों पर मुग्ध होकर पाण्डव उसका भारी आदर करते थे और राजमहल की बहुत सी व्यवस्था वही संभालती थी।


✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 आत्मोपदेश सरल है

दूसरों को उपदेश देने के लिए बहुत ज्ञान की, विद्या की आवश्यकता पड़ती है, परन्तु आत्मोपदेश के लिए थोड़े से ज्ञान से भी काम चल सकता है। दूसरों के मारने के लिए तीर तलवारों को जमा करने और उनका चलाना सीखने की आवश्यकता होती है, पर आत्महत्या के लिए एक छोटी सी रस्सी से गले में फाँसी लग सकती है जरा से चाकू से नस काटकर प्राण गँवाया जा सकता है। आत्म-कल्याण का मार्ग इतना सीधा और सरल है कि उस पर चलने के लिए साधारण बुद्धि भी पर्याप्त है। यहाँ तक कि अशिक्षित व्यक्ति भी उस पर उसी तरह चल सकते हैं जैसे राजकीय सड़क पर हर कोई बिना किसी योग्यता या प्रमाण-पत्र के भी प्रसन्नता पूर्वक चल सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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बुधवार, 19 अक्तूबर 2022

👉 मानसिक विकास का अटल नियम

जिस प्रकार के विचार हम नित्य किया करते हैं, उन्हीं विचारों के अणुओं का मस्तिष्क में संग्रह होता रहता है। मस्तिष्क का उपयोग उचित और सत्कार्यों में करने से, उसे आलसी निकम्मा न छोड़ने से, मानसिक शक्ति का विकास होता है।

मस्तिष्क को उत्तम या निकृष्ट बनाना तुम्हारे हाथ में ही है। सोचो, विचारो तथा मनन करो। क्रोध करने से क्रोध वाले अणुओं की संख्या में वृद्धि होती है। चिंता, शोक, भय व खेद करने से इन्हीं कुविचारों के अणुओं का तुम पोषण करते हो और मस्तिष्क को निर्बल बनाते हो। भूतकाल की दुर्घटनाओं या दु:खद प्रसंग को स्मरण कर, खेद या शोक के वशीभूत होकर मस्तिष्क को निर्बल मत बनाओ। शरीर में बल होते हुए भी उसका उपयोग न करने से बल क्षीण होता है।

इसी प्रकार बिना विचार के मस्तिष्क भी क्षीण होता है। नवीन विचारों का मन में स्वागत करने से मस्तिष्क का मानस-व्यापार व्यापक होता है तथा मन प्रफुल्लित हो जाता है, जीवन व बल की वृद्धि होती है, मन व बुद्धि तेजस्वी बनते हैं। जो विचार हमारे मस्तिष्क में हैं, वे ही हमारे जीवन को बनाने वाले हैं। जिस कला के विचार तथा अभ्यास करोगे, उसी में निपुणता मिलेगी। मस्तिष्क के जिस भाग का उपयोग करोगे, उसी की शक्तियों का विकास होगा।

📖 अखण्ड ज्योति-जुलाई 1946 पृष्ठ 10

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1946/July/v1.10

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👉 जीने योग्य जीवन जियो

धिक्कार है उस जिंदगी पर, जो मक्खियों की तरह पापों की विष्ठा के ऊपर भिनभिनाने में और कुत्ते की तरह विषय भोगों की जूठन चाटने में व्यतीत होती है। उस बड़प्पन पर धिक्कार है, जो खुद खजूर की तरह बढ़ते हैं, पर उनकी छाया में एक प्राणी भी आश्रय नहीं पा सकता। सर्प की तरह धन के खजाने पर बैठकर चौकीदारी करने वाले लालची किस प्रकार सराहनीय कहे जा सकते हैं?

जिनका जीवन तुच्छ स्वार्थों को पूरा करने की उधेड़बुन में निकल गया, हाय! वे कितने अभागे हैं। सुरदुर्लभ देह रूपी बहुमूल्य रत्न, इन दुर्बुद्धियों ने काँच और कंकड़ के टुकड़ों के बदले बेच दिया। किस मुख से वे कहेंगे कि हमने जीवन का सद्व्यय किया। इन कुबुद्धियों को तो अंत में पश्चाताप ही प्राप्त होगा। एक दिन उन्हें अपनी भूल प्रतीत होगी, पर उस समय अवसर हाथ से चला गया होगा और सिर धुन-धुन कर पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगेगा।

मनुष्यों! जियो और जीने योग्य जीवन जियो। ऐसी जिंदगी बनाओ जिसे आदर्श और अनुकरणीय कहा जा सके। विश्व में अपने ऐसे पदचिह्न जोड़ जाओ, जिन्हें देखकर आगामी संतति अपना मार्ग ढूँढ़ सके। आप का जीवन सत्य से, प्रेम से, न्याय से, भरा हुआ होना चाहिए। दया, सहानुभूति, आत्मनिष्ठा, संयम, दृढ़ता, उदारता, आप के जीवन के अंग होने चाहिए। हमारा जीवन मनुष्यता के महान् गौरव के अनुरूप ही होना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- अगस्त 1946 पृष्ठ 1


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सोमवार, 17 अक्तूबर 2022

👉 बहुमूल्य वर्तमान का सदुपयोग कीजिए

मृत्यु और निर्माण के बीच में हम ठहरे हुए हैं। वर्तमान बड़ी तेजी से भूत की ओर दौड़ता है। भूत और मृत्यु एक ही बात है। कहते हैं कि मरने के बाद मनुष्य भूत बनता है। मनुष्य ही नहीं हर चीज मरती है और वह भूत बन जाती है। जब किसी वस्तु की सत्ता पूर्णत: समाप्त हो जाती है तो उसकी पूर्ण मृत्यु कही जाती है, पर आंशिक मृत्यु जन्म के साथ ही आरंभ हो जाती है। बालक जन्म के बाद बढ़ता है, विकास करता है, उसकी यह यात्रा मृत्यु की ओर ही है।

संसार की हर वस्तु का, मनुष्य शरीर का भी निर्माण उन्हीं तत्त्वों से हुआ है, जो हर क्षण बदलते हैं। उनका चक्र भूत को पीछे छोड़ता हुआ, भविष्य को पकड़ता हुआ प्रतिक्षण तेजी के साथ आगे बढ़ रहा है। विश्व एक पल के लिए भी स्थिर नहीं रहता। अणु-परमाणु से लेकर विशालकाय ग्रह-पिंड तक अपनी यात्रा विश्रांत गति से कर रहे हैं।

हमारा जीवन भी हर घड़ी थोड़ा-थोड़ा करके मर रहा है। इस दीपक का तेल शनै: शनै चुकता चला जा रहा है। भविष्य की ओर हम चल रहे हैं और वर्तमान को भूत की गोदी में पटकते जाते हैं। यह सब देखते हुए भी हम नहीं सोचते कि क्या वर्तमान का कोई सदुपयोग हो सकता है। जो बीत गया सो गया, जो आने वाला है, वह भविष्य के गर्भ में है। वर्तमान हमारे हाथ में है। यदि हम चाहे तो उसका सदुपयोग करके इस नश्वर जीवन में से कुछ अनश्वर लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति-जनू-1947 पृष्ठ 1

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1947/June/v1



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👉 अपनी दुनिया अपनी दृष्टि में

अपने आप में, अपने अंत:करण में एक जबरदस्त लोक मौजूद है। उस लोक की स्थिति इतनी महत्त्वपूर्ण है कि उसके सामने भूगोल और भुव: लोक तुच्छ हैं। नि:संदेह बाहर की परिस्थितियाँ मनुष्य को आंदोलित, तरंगित तथा विचलित करती हैं, परंतु संसार के समस्त पदार्थों द्वारा जितना भला या बुरा प्रभाव होता है, उससे अनेक गुना प्रभाव अपने निजि के विचारों तथा विश्वासों द्वारा होता है।

गीता में कहा गया है कि मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र और स्वयं ही अपना शत्रु है। कोई मित्र इतनी सहायता नहीं कर सकता, जितनी कि मनुष्य स्वयं अपनी सहायता कर सकता है। इसी प्रकार कोई दूसरा उतनी शत्रुता नहीं कर सकता, जितनी कि मनुष्य खुद अपने आप अपने से शत्रुता करता है। अपनी कल्पना शक्ति, विचार और विश्वास के आधार पर मनुष्य अपनी एक दुनिया निर्माण करता है। वही दुनिया उसे वास्तविक सुख-दु:ख दिलाया करती है।

मनुष्य के मन में प्रचंड शक्ति भरी हुई है। वह इस शक्ति द्वारा अपने लिए अत्यंत अनिष्टकर अथवा अत्यंत उपयोगी तथ्य निर्मित कर सकता है। हर मनुष्य की अपनी एक अलग दुनिया होती है। भीतरी मन की दुनिया जैसी होती है, बाहर की दुनिया भी उसी के अनुरूप दिखाई देने लगती है। अंदर की दुनिया सुन्दर बनाओ।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति-सितं. 1947 पृष्ठ 5

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1947/September/v1.5


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शनिवार, 15 अक्तूबर 2022

👉 निराशा एक प्रकार की-नास्तिकता है।

जो व्यक्ति संध्या के डूबते हुए सूर्य को देखकर दुखी होता है और प्रातःकाल के सुन्दरी अरुणोदय पर विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है। जब रात के बाद दिन आता है, मरण के बाद जीवन होता है, पतझड़ के बाद बसन्त आता है, ग्रीष्म के बाद वर्षा आती है। सुख के बाद दुख आता है, तो क्या कारण है कि हम अपनी कठिनाईयों को स्थायी समझें? जो माता के क्रोध को स्थायी समझता है और उसके प्रेम पर विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है और उसे अपनी नास्तिकता का दण्ड रोग, शक्ति विपत्ति, जलन, असफलता और अल्पायु के रूप में भोगना पड़ता है।

लोग समझते हैं कि कष्टों के कारण निराशा आती है, परन्तु यह भ्रम है। वास्तव में निराशा के कारण कष्ट आते हैं। जब विश्व में चारों ओर प्रसन्नता, आनन्द, प्रफुल्लता, आनन्द और उत्साह का समुद्र लहलहा रहा है, तो मनुष्य क्यों अपना सिर धुने और पछताये? मधु-मक्खी के छत्ते में से लोग शहद निकाल ले जाते हैं, फिर भी वह निराश नहीं होती। दूसरे ही क्षण वह पुनः शहद इकट्ठा करने का कार्य आरम्भ कर देती है। क्या हम इन मक्खियों से कुछ नहीं सीख सकते? धन चला गया, प्रियजन मर गये, रोगी हो गये, भारी काम सामने आ पड़ा, अभाव पड़ गये, तो हम रोये क्यों? कठिनाइयों का उपचार करने में क्यों न लग जावें।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति - नव. 1947 पृष्ठ 1

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1947/November/v1.1


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👉 पराजय, विजय की पहली सीढ़ी है

यदि सच्चा प्रयत्न करने पर भी तुम सफल न होओ तो कोई हानि नहीं। पराजय बुरी वस्तु नहीं है, यदि वह विजय के मार्ग में अग्रसर होते हुए मिली हो। प्रत्येक पराजय, विजय की दिशा में कुछ आगे बढ़ जाता है। यह उच्चतर ध्येय की ओर पहली सीढ़ी है।

हमारी प्रत्येक पराजय यह स्पष्ट करती है कि अमुक दिशा में हमारी कमजोरी है, अमुक तत्त्व में हम पिछड़े हुए हैं या किसी विशिष्ट उपकरण पर हम समुचित ध्यान नहीं दे रहे हैं। पराजय हमारा ध्यान उस ओर आकर्षित करती है, जहाँ हमारी निर्बलता है, जहाँ मनोवृत्ति अनेक ओर बिखरी हुई है, जहाँ विचार और क्रिया परस्पर विरुद्ध दिशा में बह रहे हैं, जहाँ दु:ख, क्लेश, शोक, मोह इत्यादि परस्पर विरोधी इच्छाएँ हमें चंचल कर एकाग्र नहीं होने देती।

किसी न किसी दिशा में प्रत्येक पराजय हमें कुछ सिखा जाती है, मिथ्या कल्पनाओं को दूर कर हमें कुछ-न-कुछ सबल बना जाती है, हमारी विच्छृंखल वृत्तियों को एकाग्रता का रहस्य सिखा जाती है। अनेक महापुरुष केवल इसी कारण सफल हुए क्योंकि उन्हें पराजय की कड़वाहट को चखना पड़ा था।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति-फर. 1948 पृष्ठ 1  


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गुरुवार, 13 अक्तूबर 2022

👉 अपने ऊपर विश्वास कीजिए

विश्वास कीजिये कि वर्तमान निम्न स्थिति को बदल देने की सामर्थ्य प्रत्येक मनुष्य में पर्याप्त मात्रा में विद्यमान है। आप जो सोचते हैं, विचारते हैं, जिन बातों को प्राप्त करने की योजनाएँ बनाते हैं, वे आन्तरिक शक्तियों के विकास से अवश्य प्राप्त कर सकते हैं।

विश्वास कीजिए कि जो कुछ महत्ता, सफलता, उत्तमता, प्रसिद्ध, समृद्धि अन्य व्यक्तियों ने प्राप्त की है, वह आप भी अपनी आन्तरिक शक्तियों द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। आपमें वे सभी उत्तमोत्तम तत्व वर्तमान हैं, जिनसे उन्नति होती है। न जाने कब, किस समय, किस अवसर किस परिस्थिति में आपके जीवन का आन्तरिक द्वार खुल जाय और आप सफलता के उच्च शिखर पर पहुँच जायं।

विश्वास कीजिये कि आपमें अद्भुत आन्तरिक शक्तियाँ निवास करती हैं। अज्ञानवश आप की अज्ञात, विचित्र, और रहस्यमय शक्तियों के भंडार को नहीं खोलते। आप जिस मनोबल आत्मबल या निश्चयबल का करिश्मा देखते हैं, वह कोई जादू नहीं, वरन् आपके द्वारा सम्पन्न होने वाला एक दैवी नियम है। सब में से असाधारण एवं चमत्कारिक शक्तियाँ समान रूप से व्याप्त हैं। संसार के अगणित व्यक्तियों ने जो महान् कार्य किये हैं, वे आप भी कर सकते हैं।

✍🏻  पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1948 अक्टूबर पृष्ठ 1


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👉 अहंकार के मोह जाल से बचिये।

यद्यपि सम्पूर्ण भीतरी शत्रुओं- माया, मोह, ईर्ष्या, काम, लोभ, क्रोध इत्यादि का तजना कठिन है, तथापि अनुभव से ज्ञान होता है कि ‘अहंकार’ नामक आन्तरिक शत्रु को मिटाना और भी कष्ट साध्य है। यह वह शत्रु है जो छिप कर हम पर आक्रमण करता है। हमें ज्ञान तक नहीं होता कि हम ‘अहंकार’ के वशीभूत हैं।

अहंकार प्रत्येक मनुष्य में वर्तमान है। धनी मानी, वृद्ध, युवक, बालक विज्ञान किसी न किसी प्रकार के अहंकार में डूबे हैं। ‘अहं’ ही घमंड है। हमें किसी न किसी बात का मिथ्या गर्व बना है। विद्वान को अपनी विद्वत्ता का, धनी को अपने धन का, स्त्री को अपने रूप, यौवन, सौंदर्य का अहंकार है, राजा और जागीरदार अपने ऐश्वर्य के अहंकार में किसी दूसरे की नहीं सोचते, पूँजीपति अपनी पूँजी के गर्व में गरीब मजदूरों के अधिकारों को नहीं देना चाहते। संसार के अनेक संघर्षों का कारण यही है कि किसी के ‘अहं’ को चोट पहुँचती है। अभिमान मनुष्य के पतन का मूल है।

‘अहंकार’ को सूर हाथी मानते हैं। उन्होंने इसे ‘दिग्विजयी गज’ कहकर सम्बोधित किया है। अर्थात् संसार में बहुत कम इस दुर्बलता से मुक्त हैं। आदि काल से मनुष्य इस प्रयत्न में है कि वह अभिमान से मुक्त हो जाये और इसी के लिए प्रयत्न करता रहा है। किंतु शोक! महाशोक!! जीवन पर्यंत हम वृथा के अभिमान में फँसे रहते हैं। अपने बराबर किसी को नहीं मानते। अपनी बुद्धि को सबसे अधिक महत्व प्रदान करते हैं। अपनी चीज, बाल बच्चे, विचार, दृष्टिकोण, घर बार सच पर अभिमान करते हैं। इसी वृथा के अहंकार के कारण हम जीवन में और बड़ी बातें सम्पन्न नहीं कर पाते। जहाँ के तहाँ ही पड़े रह जाते हैं। हमारी उन्नति में रोक पहुँचाने वाला शत्रु अहंकार ही तो है।

मनुष्य अभिमान कर विषयों में फंसा रहता है, विवेक भूलता है। और फिर आयु पर्यन्त पछताता है। सम्पत्ति आती है और एक मामूली से झटके से निकल जाती है। शारीरिक शक्ति बीमारी के एक आक्रमण से नष्ट हो जाती है। पग जरा सी गलती से छूट जाना है और मनुष्य पदच्युत हो जाता है फिर कोई उसे टके को भी नहीं पूछता। धन, सम्पदा, ऐश्वर्य, शक्ति सब निस्सार पदार्थ हैं। मनुष्य इनके अभिमान में अपनी आध्यात्मिक उन्नति को भूल जाता है और पतनोन्मुख होता है।

अहंकार का अर्थ संकुचितता है। इससे मनुष्य अपने आपको एक संकुचित परिधि में बाँधे रखता है। वह दूसरों से उन्मुक्त भ्रातृभाव से मिल नहीं पाता, अपना हृदय उनके सामने नहीं खोल सकता। मिथ्या गर्व में वह यह सोचा करता है कि दूसरे आये और आकर उसकी मिथ्या प्रशंसा करे। प्रशंसा से वह फूल उठता है। उसकी शठता, मद, अभिमान द्विगुणित हो उठते हैं। धीरे-धीरे उसे दूसरों से तारीफ कराने की आदत बन जाती है। वह अपनी तनिक सी बुराई सुनते ही विह्वल हो उठता है और क्रोध में कुछ का कुछ कर बैठता है। बन्धन ही मृत्यु है, अहंकार का बन्धन सर्वथा त्याज्य है। अहंकार को चोट पहुँचते ही मनुष्य को हजारों बिच्छुओं के काटने के समान दुःख होता है।

आप जन्म से दूसरों के समान हैं। दूसरे भी आप जैसे ही हैं। सब में समानता है। फिर किस बात का वृथा अहंकार आप करते हैं। मिथ्या अभिमान में फँसकर क्यों आप एक नए आन्तरिक दुःख की सृष्टि कर रहे हैं। यदि आप अभिमानी नहीं हैं तो आपका अन्तस्थल शुद्ध निर्मल रहेगा, मानसिक वृत्तियाँ शाँत बनी रहेगी, मधुर निद्रा आवेगी, जनता में प्रत्येक जगह आपका सम्मान होगा। आपके पड़ौसी आपको भली प्रकार समझ सकेंगे। आन्तरिक दृष्टि से सफाई, स्वास्थ्य और सौभाग्य की जननी है। इस मनोविकार के मोहजाल में मुक्त हो जाइये।

📖 अखण्ड ज्योति-मार्च 1949 पृष्ठ 19

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1949/September/v1.11

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बुधवार, 12 अक्तूबर 2022

👉 यथार्थता को समझें—आग्रह न थोपें

संसार जैसा कुछ है हमें उसे उसी रूप में समझना चाहिए और प्रस्तुत यथार्थता के अनुरूप अपने को ढालना चाहिए। संसार केवल हमारे लिए ही नहीं बना हैं ओर उसके समस्त पदार्थों एवं प्राणियों का हमारी मनमर्जी के अनुरूप बन या बदल जाना सम्भव नहीं है। तालमेल बिठा कर समन्वय की गति पर चलने से ही हम संतोष पूर्वक रह सकते हैं और शान्ति पूर्वक रहने दे सकते हैं।
  
यहां रात भी होती है और दिन भी रहता हैं। स्वजन परिवार में जन्म भी होते हैं और मरण भी। सदा दिन ही रहे कभी रात न हो। परिवार में जन्म संख्या ही बढ़ती रहे मरण कभी किसी का न हो। ऐसी शुभेच्छा तो उचित हैं पर वैसी इच्छा पूर्ण नहीं हो सकती। रात को रात के ढंग से और दिन को दिन के ढंग से प्रयोग करके हम सुखी रह सकते हैं ओर दोनों स्थितियों के साथ जुड़े हुए लाभों का आनन्द ले सकते हैं। जीवन को अपनी उपयोगिता है और मरण को अपनी। दोनों का संतुलन मिलाकर सोचा जा सकेगा। तो हर्ष एवं उद्वेग के उन्मत्त विक्षिप्त बना देने वाले आवेशों से हम बचे रह सकते हैं।

हर मनुष्य की आकृति भिन्न है, किसी की शकल किसी से नहीं मिलती। इसी प्रकार प्रकृति भी भिन्न हैं। हर मनुष्य का व्यक्तित्व अपने ढंग से विकसित हुआ है। उसमंस सुधार परिवर्तन की एक सीमा तक ही सम्भावना है। जितना सम्भव हो उतना सुधार का प्रयत्न किया जाय पर यह आग्रह न रहे कि दुनिया को वैसा ही बना लेंगे जैसा हम चाहते हैं। तालमेल बिठाकर चलना ही व्यवहार कौशल हैं। उसी को अपना कर सुख से रहना ओर शान्ति से रहने देना सम्भव हो सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- मई 1974 पृष्ठ 1



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मंगलवार, 11 अक्तूबर 2022

👉 देने से ही मिलेगा

किसी को कुछ दीजिए या उसका किसी प्रकार का उपकार कीजिए तो बदले में उस व्यक्ति से किसी प्रकार की आशा न कीजिए। आपको जो कुछ देना हो दे दीजिए। वह हजार गुणा अधिक होकर आपके पास लौट आवेगा। परन्तु आपको उसके लौटने या न लौटने की चिन्ता ही न करनी चाहिए। अपने में देने की शक्ति रखिए, देते रहिए। देकर ही फल प्राप्त कर सकेंगे। यह बात सीख लीजिए कि सारा जीवन दे रहा है। प्रकृति देने के लिए आप को बाध्य करेगी। इसलिए प्रसन्नतापूर्वक दीजिए। आज हो या कल, आपको किसी न किसी दिन त्याग करना पड़ेगा ही।

जीवन में आप संचय करने के लिए आते हैं परन्तु प्रकृति आपका गला दबाकर मुट्ठी खुलवा लेती है। जो कुछ आपने ग्रहण किया है वह देना ही पड़ेगा, चाहे आपकी इच्छा हो या न हो। जैसे ही आपके मुँह से निकला कि ‘नहीं, मैं न दूँगा।’ उसी क्षण जोर का धक्का आता है। आप घायल हो जाते हैं। संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो जीवन की लम्बी दौड़ में प्रत्येक वस्तु देने, परित्याग करने के लिए बाध्य न हो। इस नियम के प्रतिकूल आचरण करने के लिए जो जितना ही प्रयत्न करता है वह अपने आपको उतना ही दुखी अनुभव करता है।

हमारी शोचनीय अवस्था का कारण यह है कि परित्याग करने का साहस हम नहीं करते इसी से हम दुखी हैं। ईंधन चला गया उसके बदले में हमें गर्मी मिलती है। सूर्य भगवान समुद्र से जल ग्रहण किया करते हैं उसे वर्षा के रूप में लौटाने के लिए आप ग्रहण करने और देने के यन्त्र हैं। आप ग्रहण करते हैं देने के लिए। इसलिए बदले में कुछ माँगिए नहीं। आप जितना भी देंगे, उतना ही लौटकर आपके पास आवेगा।

✍🏻 स्वामी विवेकानन्द
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1964 पृष्ठ 1


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