🌞 गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
मित्रो! कर्म के आधार पर प्रत्येक अध्यात्मवादी को क्षत्रिय होना चाहिए, क्योंकि "सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्" अर्थात इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय ही लड़ते हैं। बेटे, अध्यात्म एक प्रकार की लड़ाई है। स्वामी नित्यानन्द जी की बंगला की किताब है 'साधना समर'। 'साधना समर' को हमने पढा, बड़े गजब की किताब है। मेरे ख्याल से हिंदी में इसका अनुवाद शायद नहीं हुआ है। उन्होंने इसमें दुर्गा का, चंडी का और गीता का मुकाबला किया है। दुर्गा सप्तशती में सात सौ श्लोक हैं और गीता में भी सात सौ श्लोक हैं। दुर्गा सप्तशती में अठारह अध्याय हैं, गीता के भी अठारह अध्याय हैं। उन्होंने ज्यों का त्यों सारे के सारे दुर्गा पाठ को गीता से मिला दिया है और कहा है कि साधना वास्तव में समर है। समर मतलब लड़ाई, महाभारत। यह महाभारत है, यह लंकाकाण्ड है। इसमें क्या करना पड़ता है? अपने आप से लड़ाई करनी पड़ती है, अपने आप की पिटाई करनी पड़ती है, अपने आप की धुलाई करनी पड़ती है और अपने आप की सफाई करनी पड़ती हैं। अपने आप से सख्ती से पेश आना पड़ता है।
हम बाहर वालों के साथ जितनी भी नरमी कर सकते हैं वह करें। दूसरों की सहायता कर सकते हैं, उन्हें क्षमा कर सकते हैं, दान दे सकते हैं, उदार हो सकते हैं, दूसरों को सुखी बनाने के लिए जितना भी, जो कुछ भी कर सकते हो, करें। लेकिन अपने साथ, अपने साथ हमको हर तरह से कड़क रहना चाहिए, अपनी शारीरिक वृत्तियों और मानसिक वृत्तियों के विरुद्ध हम जल्लाद के तरीके से, कसाई के तरीके से इस तरह से खड़े हो जाएँ कि हम तुमको पीटकर रहेंगे, तुमको मसलकर रहेंगे, तुमको कुचलकर रहेंगे। अपनी इंद्रियों के प्रति हमारी बगावत इस तरह की होनी चाहिए और अपनी मनःस्थिति के विरुद्ध बगावत इस स्तर की होनी चाहिए।
हम अपनी मानसिक कमजोरियों को समझें, न केवल समझें, न केवल क्षमा माँगे, वरन उनको उखाड़ फेंके। गुरुजी, क्षमा कर दीजिए। बेटे, क्षमा का यहाँ कोई लाभ नहीं, अँग्रेजों के जमाने में जब कांग्रेस वह आंदोलन शुरू हुआ था, तब यह प्रचलन था कि माफी माँगिए, फिर छुट्टी पाइए। जब अँग्रेजों ने देखा कि ये तो माफी माँगकर छुट्टी ले जाते हैं, फिर दोबारा आ जाते हैं। उन्होंने कहा ऐसा ठीक नहीं है, जमानत लाइए पाँच हजार रुपए की। जो जमानत लाएगा, उसी को हम छोड़ेंगे, नहीं तो नहीं छोड़ेंगे। माफी ऐसे नहीं मिल सकती। फिर पाँच- पाँच हजार की जमानतें शुरू हुईं। जिनको जरूरी काम थे, उन्हें इस तरह की जमानत पर छोड़ देते थे। फिर पाँच हजार की इन्क्वायरी शुरू हुई। उन्हें सी०आई०डी० ने रिपोर्ट दी कि साहब, ये जमानत पर चले जाते हैं और पाँच हजार से ज्यादा का आपका नुकसान कर देते है। फिर उन्होंने जमानतें भी बंद कर दी।
अपने साथ कड़ाई करिए
मित्रो! भगवान ने भी ऐसा किया है कि माफी देने का रोड रास्ता बंद कर दिया है। किसी को माफी दीजिए गुरुजी! माफी कहाँ है यहाँ, दंड भोग। इसलिए क्या करना पड़ेगा? अपने साथ में कड़ाई करने की जिस दिन आप कसम खाते हैं, जिस दिन आप प्रतिज्ञा करते है कि हम अपनी कमजोरियों के प्रति कड़क बनेंगे। अपनी शारीरिक कमजोरियों के प्रति और अपनी मानसिक कमजोरियों के प्रति कड़क बनेंगे। बेटे, दोनों क्षेत्रों में इतनी कमजोरियों भरी पड़ी हैं कि इन्होंने हमारा भविष्य चौपट कर डाला, व्यक्तित्व का सत्यानाश कर दिया। अध्यात्म यहाँ से शुरू होता है। यहाँ से ही भगवान को मानने वाली बात शुरू होती है, भगवान का दर्शन शुरू होता है। अंगार के ऊपर चढ़ी हुई परत को जिस तरह हम साफ कर देते हैं और वह चमकने लगता है, उसी तरह हमारी आत्मा पर मलीनताओं की जो परत चढ़ी हुई हैं। मलीनताओं की इन परतों को हम धोते हुए चले जाएँ तो भीतर बैठे हुए भगवान का, आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है।
मंत्र नहीं, मर्म से जानें
क्यों साहब लक्स साबुन से हम कपड़ा धोए कि हमाम से धोएँ या सके से धोएँ। बेटे, मेरा दिमाग मत खा। तू चाहे तो सर्फ से धो सकता है, लक्स से- सम्राट से धो सकता है, हमाम से धो सकता है, नमक से, रीठा से धो सकता है। महाराज जी! क्या गायत्री मंत्र से मेरा उद्धार हो जाएगा? चंडी के मंत्र से उद्धार हो जाएगा या हनुमान जी के मंत्र से उद्धार होगा? बेटे, इसमें बस इतना फर्क है जितना कि सर्फ और सनलाइट में फर्क होता है और कोई खास बात नहीं है। हनुमान जी के मंत्र से भी साफ हो सकता है। तू हिंदू है या मुसलमान है तो भी साफ हो सकता है। बस तू ठीक तरीके से इस्तेमाल कर। गुरुजी! गायत्री मंत्र से मुक्ति मिल जाती है या 'राम रामाय नमः '' से। बेटे, अब मैं इससे कहीं आगे चला गया हूँ। अब मैं यह बहस नहीं करता कि गायत्री मंत्र का जप करेंगे तो आपकी मुक्ति होगी और हनुमान जी का जप करेंगे, तो मुक्ति नहीं होगी। बेटे, सब भगवान के नाम हैं। साबुन में केवल लेबल का फर्क है, असल में उनका उद्देश्य एक है।
मित्रो! साधना का उद्देश्य एक है कि हमारी भीतर वाली मनःस्थिति की सफाई होनी चाहिए, जो हमारी शरीर को विकृतियों और मानसिक विकृतियों के लिए जिम्मेदार है। हमारी मानसिक और शारीरिक विकृतियों ही हैं, जिन्होंने हमारे और भगवान के बीच में एक दीवार खड़ी की है। अगर हम इस दीवार को नहीं हटा सकते, तो हमारे पड़ोस में बैठा हुआ भगवान हमें साक्षात्कार नहीं दे सकता। बेटे, भगवान में और हम में दीवार का फर्क है, जिससे भगवान हमसे कितनी दूरी पर है? गुरुजी! भगवान तो लाखों- करोड़ों कि०मी० दूर रहता है? नहीं बेटे, करोड़ों कि०मी० दूर नहीं रहता। वह हमारे हृदय की धड़कन में रहता है, लपडप के रूप में हमारी साँसों में प्रवेश करता है। हमारी नसों में गंगा- जमुना की तरह से उसी का जीवन प्रवाहित होता है। हमारा प्राण भगवान है और हमारे रोम- रोम में समाया हुआ है। तो दूर कैसे हुआ? दूर ऐसे हो गया कि हमारे और भगवान के बीच में एक दीवार खड़ी हो गई। उस दीवार को गिराने के लिए जिस छेनी- हथौड़े का इस्तेमाल करना पड़ता है, उसका नाम है पूजा और पाठ।
क्रमशः जारी
परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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