मंगलवार, 30 अगस्त 2022

👉 आत्मचिंतन के क्षण 30 Aug 2022

🔸 आत्मा की दृष्टि से संसार के संपूर्ण प्राणी एक समान हैं। शरीर, धन, मान, पद और प्रतिष्ठा की बहुरूपता आत्मगत नहीं होती है। इस दृष्टि से ऊँच, नीच, वर्णभेद, छोटे-बड़े अशक्त, बलवान्, धनी या निर्धन का कोई भेदभाव नहीं उठता। परमात्मा के दरबार में सब एक समान हैं। कोई ऊँच-नीच, बड़ा, राजा या फकीर नहीं है। जो यह समझकर सबके साथ सदैव सद्भावनाएँ रखता है, वही सच्चा अध्यात्मवादी है।

◼️ मानव जीवन की सार्थकता के लिए विचार पवित्रता अनिवार्य है। केवल ज्ञान, भक्ति और पूजा से मनुष्य का विकास एवं उत्थान नहीं हो सकता। जिसके विचार गंदे होते हैं, उससे सभी घृणा करते हैं। शरीर गंदा रहे तो स्वस्थ रहना जिस प्रकार कठिन हो जाता है, उसी प्रकार मानसिक पवित्रता के अभाव में सज्जनता, प्रेम और सद्व्यवहार के भाव नहीं उठ सकते। आचार-विचार की पवित्रता से ही व्यक्ति का सम्मान व प्रतिष्ठा होती है।

🔹 बुराई पहले आदमी से अज्ञानी व्यक्ति के समान मिलती है और हाथ बाँधकर नौकर की तरह उसके सामने खड़ी हो जाती है, फिर मित्र बन जाती है और निकट आ जाती है। इसके बाद मालिक बनती है और आदमी के सिर पर सवार होकर उसे सदा के लिए अपना दास बना लेती है।

🔸 प्रकृति चाहती हे कि हर व्यक्ति सजग और सतर्क रहे,  सावधानी बरते और घात-प्रतिघात से कैसे बचा जाता है इस कला की जानकारी प्राप्त करे। सज्जन होना उचित है, पर मूर्ख होना अक्षम्य है। हम दूसरों की सेवा-सहायता विवेकपूर्वक करें, यह ठीक है, पर कोई मूर्ख अथवा कमजोर समझकर अपनी घात चलाये और ठग ले जाय, यह अनुचित है।

🔹 धोखा किसी को भी नहीं देना चाहिए, पर धोखा खाना कहाँ की बुद्धिमानी है। हमें हर किसी पर पूरा विश्वास करना चाहिए, साथ ही पैनी निगाह से यह देखते रहना चाहिए कि कहीं असावधानी से वह अवसर तो उत्पन्न नहीं हो रहा है, जिसमें दुर्बल मन मनुष्य का अविश्वासी बन जाना संभव है।

◼️ हमें किसी के साथ अनीति नहीं बरतनी चाहिए, पर अन्याय को भी सहन नहीं करना चाहिए। संघर्ष के बिना कोई छुटकारा नहीं। प्रतिरोध में हानि उठानी पड़ सकती है, पर प्रतिरोध न करने में-चुपचाप अनीति सहते रहने में और भी अधिक घाटे में रहना होगा। अनीति बरतने की प्रक्रिया तभी गतिशील रहती है, जब उसका अवरोध न हो। अनीति को हम कदापि सहन न करें, भले ही उसके प्रतिरोध में कितनी ही बड़ी क्षति क्यों न उठानी पड़े।


✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 क्षुद्र हम, क्षुद्रतम हमारी इच्छाएँ (भाग 6)

🔴 गलत मार्ग पर चलने की परिणति 

रामायण में भी यही बात आती है कि आदमी बहुत कमजोर होता है। आदमी का रूहानी बल, उसका चरित्र, उसकी महानता और आत्मा कमजोर हो जाये, तो आदमी बहुत कमजोर हो जाता है। रावण बहुत ही बलवान था। काल को उसने अपनी पाटी से बाँध रखा था। वह इतना जबरदस्त था कि उसने सब देवताओं को पकड़ लिया था। सोने की लंका बनाई। समुद्र पर काबू पाया, लेकिन एक समय रावण बहुत ही कमजोर हो गया और बहुत ही दुबला हो गया। बहुत ही कमजोर हो गया। कब? जब कि वह सीता जी का हरण करने को गया। सीताजी का हरण करने को बेचारे को बहुत ढोंग रचाने पड़े। भिखारी का रूप बनाना पड़ा। रावण भिखारी क्यों बना? रावण के दरवाजे पर तो अनेक भिखारी पड़े रहते थे। उसे क्यों बनना पड़ा और यह भी इधर- उधर देखकर के, कि कोई मुझे देख तो नहीं रहा? इस तरीके से रावण चला। रावण की दशा बहुत ही दयनीय थी। क्यों? क्योंकि उसने गलत रास्ते पर कदम रखने शुरू किये थे-

‘जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नींद दिन अन्न न खाहीं।’
सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥
अर्थात् व्यक्ति यदि गलत रास्ते पर कदम उठाना शुरू कर देता है, तो उसका तेज, बल और बुद्धि- सारे के सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं- इनका सफाया हो जाता है।

🔵 हम तो लुट गये 

मित्रो! हमारे जीवन की महानतम भूल यही है कि हमको जिस काम के लिए जीवन मिला था, ऐसा उज्ज्वल जीवन जीने के लिए मिला था, उसके बारे में हम बेखबर होते हुए चले गए। हमने वह सारी की सारी चीजें भुला दीं, जिसे भगवान् ने हमको जन्म के समय सौंपी थीं। हम छोटी- छोटी चीजों में उलझ गये और हमारे जीवन का जो महत्त्व और जो लाभ मिलना चाहिए था, वह न मिल सका। हम दुनिया में आकर के लुट गये, बरबाद हो गये। भगवान् के यहाँ से हम कितनी बड़ी दौलत लेकर के आये थे। अपरिमित शक्तियों के भण्डार बनकर के हम आये थे। हमारी आँखों में सूरज, चाँद थे। हमारे सारे शरीर में सारे के सारे देवताओं का निवास था। शक्ति की देवी का हमारे शरीर में निवास है। गणेश जी का निवास हमारे मस्तिष्क में है और सरस्वती का निवास हमारी जिह्वा पर है। हमारे हृदय में चार मुख वाले ब्रह्माजी, नाभि में शंकर भगवान्- इन सारे के सारे देवताओं का निवास हमारे शरीर में है। देवताओं के निवास से भरा हुआ ऐसा शरीर हमको मिला, लेकिन इस देवताओं से भरे हुए शरीर का जो लाभ हमको उठाना चाहिए था, जो फल उसका लेना चाहिए था, हम वह फल लेने से वंचित रह गए। हमारी यह छोटी सी भूल जीवन के उद्देश्य को भूला देने के सम्बन्ध में हुई।

🔴 गलत सोच बैठी रही मन में

जीवन के उद्देश्य के बारे में हमको यही याद बनी रही, जो कि हमारे मुहल्ले वालों और पड़ोसियों ने कहा। उन्होंने कहा कि मनुष्य खाने- पीने के लिए पैदा हुआ है और मनुष्य कुछ चीजें इकट्ठी करने के लिए पैदा हुआ है। मनुष्य इंद्रियों के लाभ और इंद्रियों की सुविधाएँ इकट्ठी करने के लिए पैदा हुआ है और मनुष्य नाम और यश कमाने के लिए पैदा हुआ है। मनुष्य अपना बड़प्पन, अपना गौरव, अपना आतंक दूसरे लोगों के ऊपर जमाने के लिए पैदा हुआ है। मुहल्ले वालों ने हमसे यही कहा, पड़ोसियों ने हमसे यही कहा और रिश्तेदारों ने हमसे यही बात कही। यह बातें हमारे दिमाग के ऊपर हावी होती गयीं और पूरी तरह सवार हो गयीं। हमने उसी बात को सही मान लिया और सारी जिंदगी को उसी ढंग से खर्च करना शुरू कर दिया।

🔵 एक चूक का परिणाम कितना बड़ा 

मित्रो! हमारी इतनी बड़ी भूल जो कि इस चौराहे पर आकर हमको मालूम हुई। हमारी एक भूल- चूक हो गई। ऐसी ही एक भूल कलिंग देश के एक राजा ने की थी। कलिंग देश का एक राजा था। एक बार उसको जलपान के समय- नास्ते के समय मधुपर्क दिया गया अर्थात् दही और शहद दिया गया। दही और शहद को अच्छे तरीके से खाना चाहिए था, तमीज के साथ खाना चाहिये था लेकिन तमीज के साथ उसने शहद नहीं खाया। इधर- उधर देखता रहा, बात करता रहा और शहद खाता रहा। इस तरह शहद खाने से क्या हुआ? आधा शहद प्याले में गया, आधा खा चुका और आधा शहद जमीन पर फैल गया। इसके बाद कलिंग राजा चला गया।

कलिंग राजा जब चला गया तो थोड़ी देर में जो शहद वहाँ फैल गया था वहाँ मक्खियाँ आयीं और आकर के शहद खाने लगीं। वहाँ बहुत सी मक्खियाँ मँडरा रहीं थी। उसी समय एक छिपकली आयी और मक्खियों को खाने का अंदाज लगाने लगी। फिर एक और छिपकली आयी। जब कई छिपकलियाँ इकट्ठी होने लगीं, तो एक बिल्ली आई। बिल्ली ने कहा कि ये छिपकलियाँ बहुत गड़बड़ करती हैं चलो इन्हें खाना चाहिए। इनको खाने में मजा मिलेगा। बस, मक्खियों को खाने के लिए छिपकलियाँ तैयारी करने लगी थीं और छिपकलियों को खाने के लिए बिल्ली। बिल्ली जैसे ही उन्हें खाने के लिए आई वैसे ही कहीं से एक कुत्ता आ गया। उसने कहा कि यह बिल्ली बहुत अच्छी है। इसको मजा चखाना चाहिये। इसकी टाँग पकड़ लेनी चाहिए। बस, कुत्ता आया और उसने बिल्ली की टाँग पकड़ ली। कान पकड़ लिया और बिल्ली के बाल नोचने लगा। जब तक एक और कुत्ता आ गया और उस कुत्ते के ऊपर बिगड़ने लगा। कुत्ते से लड़ने लगा। बिल्ली तो भाग गई और कुत्तों में लड़ाई हो गयी।

🔴 बात बढ़ती चली गयी

कुत्ते जब आपस में बहुत देर तक लड़ते रहे और घायल हो गये, तो उन कुत्तों के मालिक आये। उन्होंने आपस में कहा कि तुम्हारे कुत्ते ने हमारे कुत्ते को काटा। दूसरे ने कहा कि तुम्हारे कुत्ते ने हमारे कुत्ते को काटा। उन्होंने कहा कि तुम्हारा कुसूर है, तुमने अपने कुत्ते को बाँधकर के क्यों नहीं रखा? दूसरे ने भी यही कहा कि तुमने अपने कुत्ते को बाँधकर के क्यों नहीं रखा? दोनों में टेंशन होने लगी और आपस में मारपीट हो गई। झगड़ा हो गया? फिर क्या हुआ? वे ब्राह्मण और ठाकुर थे। ब्राह्मणों को पता चला कि हमारे ब्राह्मण की ठाकुरों ने पिटाई कर दी, तो उन्होंने कहा ब्राह्मणों की बहुत बेइज्जती हो गई, चलो ठाकुरों पर हमला करेंगे। उधर ठाकुरों ने कहा कि चलो, ब्राह्मणों को ठीक करेंगे। उधर ब्राह्मणों ने कहा कि ठाकुरों का मुकाबला करेंगे। जो होगा देखा जायेगा।

फिर दोनों में बहुत जोरदार लड़ाई हुई। मारपीट और दंगा हो गया। दंगा हो गया, तो मुहल्ले में जो चोर और डाकू थे, उन्होंने कहा कि दंगा हो रहा है। इस समय हमें बड़ा बलवा खड़ा कर देना चाहिए और जो भी माल लूट- पाट में मिले, उसे लेकर के भाग जाना चाहिए। बस दंगा होते ही बहुत सारे दंगाई आ गये और सारे शहर में दंगा मचाने लगे और लूटपाट करने लगे। उन्होंने कहा कि इन गाँव वालों के पास क्या रखा है? सारा खजाना तो राजा के पास है। चलो राजा के पास चलें और उसका सारे का सारा खजाना लूटकर ले आयें। बस दंगाइयों ने राजा के खजाने पर धावा बोल दिया और राजा के खजाने में जो माल रखा था, सब चुराकर ले गये। सोना, चाँदी, नगीना आदि सब गायब हो गये।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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गुरुवार, 25 अगस्त 2022

👉 पराजय में विजय का बीज छिपा होता है।

यदि सदा प्रयत्न करने पर भी तुम सफल न हो सको तो कोई हानि नहीं। पराजय बुरी वस्तु नहीं है। यदि वह विजय के मार्ग में अग्रसर होते हुए मिली हो। प्रत्येक पराजय विजय की दशा में कुछ आगे बढ़ जाना है। अवसर ध्येय की ओर पहली सीढ़ी है। हमारी प्रत्येक पराजय यह स्पष्ट करती है कि अमुक दिशा में हमारी कमजोरी है, अमुक तत्व में हम पिछड़े हुए हैं या किसी विशिष्ट उपकरण पर हम समुचित ध्यान नहीं दे रहे हैं। पराजय हमारा ध्यान उस ओर आकर्षित करती है, जहाँ हमारी निर्बलता है, जहाँ मनोवृत्ति अनेक ओर बिखरी हुई है, जहाँ विचार ओर क्रिया परस्पर विरुद्ध दिशा में बढ़ रहे हैं, जहाँ। दुःख, क्लेश, शोक, मोह इत्यादि परस्पर विरोधी इच्छाएं हमें चंचल कर एकाग्र नहीं होने देतीं।

किसी न किसी दिशा में प्रत्येक पराजय हमें कुछ सिखा जाती है। मिथ्या कल्पनाओं को दूर कर हमें कुछ न कुछ सबल बना जाती हैं, हमारी विश्रृंखल वृत्तियों को एकाग्रता का रहस्य सिखाती हैं। अनेक महापुरुष केवल इसी कारण सफल हुए क्योंकि उन्हें पराजय की कड़वाहट को चखना पड़ा था। यदि उन्हें यह पराजय न मिलती, तो वे महत्वपूर्ण विजय कदापि प्राप्त न कर सकते। अपनी पराजय से उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी संकल्प और इच्छा शक्तियाँ निर्बल हैं, चित्त स्थिर नहीं है, अन्तःकरण में आत्म शक्ति पर्याप्त से जाग्रत नहीं है इन भूलों को उन्होंने सम्भाला और उन्हें दूर करके विजय के पथ पर अग्रसर हुए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1948 दिसम्बर पृष्ठ 1

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👉 अपनी भूलों को स्वीकार कीजिए

जब मनुष्य कोई गलती कर बैठता है, तब उसे अपनी भूल का भय लगता है। वह सोचता है कि दोष को स्वीकार कर लेने पर मैं अपराधी समझा जाऊँगा, लोग मुझे बुरा भला कहेंगे और गलती का दंड भुगतना पड़ेगा। वह सोचता है कि इन सब झंझटों से बचने के लिए यह अच्छा है कि गलती को स्वीकार ही न करूँ, उसे छिपा लूँ या किसी दूसरे के सिर मढ़ दूँ।

इस विचारधारा से प्रेरित होकर काम करने वाले व्यक्ति भारी घाटे में रहते हैं। एक दोष छिपा लेने से बार- बार वैसा करने का साहस होता है और अनेक गलतियों को करने एवं छिपाने की आदत पड़ जाती है। दोषों के भार से अंतःकरण दिन- दिन मैला, भद्दा और दूषित होता जाता है और अंततः: वह दोषों की, भूलों की खान बन जाता है। गलती करना उसके स्वभाव में शामिल हो जाता है।

भूल को स्वीकार करने से मनुष्य की महत्ता कम नहीं होती वरन् उसके महान आध्यात्मिक साहस का पता चलता है। गलती को मानना बहुत बड़ी बहादुरी है। जो लोग अपनी भूल को स्वीकार करते हैं और भविष्य में वैसा न करने की प्रतिज्ञा करते हैं वे क्रमश: सुधरते और आगे बढ़ते जाते हैं। गलती को मानना और उसे सुधारना, यही आत्मोन्नति का सन्मार्ग है। तुम चाहो, तो अपनी गलती स्वीकार कर निर्भय, परम नि:शंक बन सकते हो।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 1946 पृष्ठ 1 


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👉 भलाई करना ही सबसे बड़ी बुद्धिमानी

दुष्ट लोग उस मूर्खता से नहीं डरते, जिसे पाप कहते हैं। विवेकवान सदा उस बेवकूफी से दूर रहते हैं। बुराई से बुराई ही पैदा होती है, इसलिए बुराई को अग्नि से भी भयंकर समझ कर उससे डरना और दूर रहना चाहिए। जिस तरह छाया मनुष्य को कभी नहीं छोड़ती वरन् जहाँ-जहाँ वह जाता है, उसके पीछे लगी रहती है, उसी तरह पाप-कर्म भी पापी का पीछा करते हैं और अंत में उसका सर्वनाश कर डालते हैं। इसलिए सावधान रहिए और बुराई से सदा डरते रहिए।

जो काम बुरे हैं, उन्हें मत करो, क्योंकि बुरे काम करने वालों को अंतरात्मा के शाप की अग्नि में हर घड़ी झुलसना पड़ता है। वस्तुओं को प्रचुर परिणाम में एकत्रित करने की कामना से, इंद्रिय भोगों की लिप्सा से और अहंकार को तृप्त करने की इच्छा से लोग कुमार्ग में प्रवेश करते हैं, पर ये तीनों ही बातें तुच्छ हैं। इनसे क्षणिक तुष्टि होती है, पर बदले में अपार दु:ख भोगना पड़ता है। चीनी मिले हुए विष को लोभवश खाने वाला बुद्धिमान नहीं कहा जाता।

इस दुनिया में सबसे बड़ा बुद्धिमान, विद्वान, चतुर और समझदार वह है, जो अपने को कुविचारों और कुकर्मों से बचाकर सत्य को अपनाता है, सत्मार्ग पर चलता है और सद्विचारों को ग्रहण करता है। यही बुद्धिमानी अंत में लाभदायक ठहरती है और दुष्टता करने वाले अपनी बेवकूफी से होने वाली हानि के कारण सिर घुन-धुन कर पछताते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति-नवं. 1946 पृष्ठ 1

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👉 आत्मचिंतन के क्षण 26 Aug 2022

🔸 जिसे तुम अच्छा मानते हो, यदि तुम उसे अपने आचरण में नहीं लाते तो यह तुम्हारी कायरता है। हो सकता है कि भय तुम्हें ऐसा नहीं करने देता हो, लेकिन इससे तुम्हारा न तो चरित्र ऊँचा उठेगा और न तुम्हें गौरव मिलेगा। मन में उठने वाले अच्छे विचारों को दबाकर तुम बार-बार जो आत्म हत्या कर रहे हो आखिर उससे तुमने किस लाभ का अंदाजा लगाया है?

◼️ अपनी बात को ही प्रधान मानने और ठीक मानने का अर्थ और सबकी बातें झूठी मानना है। इस प्रकार का अहंकार अज्ञान का द्योतक है। इस असहिष्णुता से घृणा और विरोध बढ़ता है, सत्य की प्राप्ति नहीं होती। सत्य की प्राप्ति होनी तभी संभव है जब हम अपनी भूलों, त्रुटियों और कमियों को निष्पक्ष भाव से देखें। अपने विश्वास बीजों का हमें निरीक्षण और परीक्षण करना चाहिए।

🔹 संसार में लगभग ऐसे मनुष्य हैं जो स्वयं तो उन्नति कर नहीं सकते और दूसरों के भी उन्नति पथ में रोड़े अटकाते हैं। ऐसे पुरुषों की परवाह न करके  हमें तो केवल बढ़ना ही चाहिए, क्योंकि उन्नति को कष्ट साध्य समझने वाले मानव उन्नति पथ पर आपकी खिल्ली उड़ायेंगे और आपको निरुत्साहित करने की कोशिश करेंगे, परन्तु यदि आप उनकी ओर ध्यान देंगे तो आपको अपनी ही उन्नति से भय लगेगा जैसे पर्वत की चोटी पर चढ़े हुए पुरुष को उसके नीचे देखने से।

🔸 उत्साह जीवन का धर्म है। अनुत्साह मृत्यु का प्रतीक है। उत्साहवान् मनुष्य ही सजीव कहलाने योग्य है। उत्साहवान् मनुष्य आशावादी होता है। उसे सारा विश्व आगे बढ़ता हुआ दिखाई देता है। विजय, सफलता और कल्याण सदैव आँख में नाचा करते हैं, जबकि उत्साहहीन हृदय को अशान्ति ही अशान्ति दिखाई देती है।

🔹 मनुष्यता के गुणों से हीन प्राणी चाहे रावण से धनवान्, शुक्राचार्य से विद्वान्, हिरण्यकश्यपु से पराक्रमी, कंस से योद्धा, मारीच से मायावी, कालनेमि से कूटनीतिज्ञ, भस्मासुर से शक्तिशाली क्यों न हो जावें, पर वे न अपने लिए, न दूसरों के लिए-किसी के लिए भी शान्ति का कारण न बन सकेंगे। यह समृद्धि अयोग्य लोगों के, कुपात्रों के हाथ में जितनी बढ़ेगी उतना ही क्लेश बढ़ेगा, अशान्ति की कालिमा घनी होगी।

◼️ ईश्वर को प्रसन्न करने का उपाय केवल यही है कि अपने से निःस्वार्थ भाव से जो भी सेवा, त्याग, परोपकार हो सके, वह किया जाय। संसार क्या करता है? संसार क्या कहेगा? यह सब व्यर्थ की बातें हैं। आत्मा क्या कहेगी? ईश्वर क्या कहेगा? यही मुख्य बात है। यही ईश्वर की प्रसन्नता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 क्षुद्र हम, क्षुद्रतम हमारी इच्छाएँ (भाग 5)

🔴 वह तो तेरे पास रे

मित्रो! मैं आपको जगह बता दूँ, तो आप पहुँचेंगे? नहीं पहुँचेंगे। पहुँचना भी मत, अगर वहाँ पहुँच जायेंगे, तो भगवान् जी बहुत नाराज होंगे। जहाँ भगवान् जी रहते हैं, वह जगह मैं बताये देता हूँ। आप जब चाहें, उन्हें पा सकते हैं। आप जब चाहें, उनसे मिल सकते हैं और जब चाहें तो बात भी हो सकती है। भगवान् जी का द्वार खुला हुआ है, पर है ऐसा कि भगवान् दिखाई नहीं पड़ता वह जगह ऐसी है, जो आदमी की पकड़ में नहीं आती है और पता भी नहीं चलता है। आपको बताऊँ, कहाँ है वह जगह? अच्छा! आपको बताये देता हूँ, आप किसी से मत कहना, नहीं तो और लोग पहुँच जायेंगे। वह जगह है इन्सान का दिल- हृदय। इन्सान के हृदय में- दिल में भगवान् बैठा हुआ है। वह कहीं बाहर नहीं है। जब कभी भी किसी को भी भगवान् मिला है, अपने हृदय के भीतर मिला है। वह बाहर दुनिया में नहीं है वह। बाहर दुनिया में केवल प्रकृति है, पंचभूत हैं, जड़ पदार्थ हैं। बस, और कुछ नहीं। बाहर की दुनिया में शान्ति नहीं है। वस्तुओं में शान्ति नहीं है? वस्तुओं में कोई शान्ति नहीं है। पदार्थों में कोई शान्ति नहीं है।

🔵 शान्ति वहाँ नहीं है

मित्रो! सुख- सुविधाओं में शान्ति है? नहीं, सुख- सुविधाओं में कोई शान्ति नहीं है। सुख- सुविधाओं में शान्ति रही होती, तो रावण ने शान्ति प्राप्त कर ली होती। क्यों? क्योंकि उसके पास बहुत सुविधाएँ थीं। उसके पास सोने के अम्बार लगे हुए थे और उसका मकान सोने का बना हुआ था। संतान? संतान के द्वारा अगर दुनिया में शान्ति मिली होती, तो रावण के एक लाख पूत और सवा लाख नाती अर्थात्, सवा दो लाख थे। सवा दो लाख संतान पाने के बाद में रावण जरूर सुखी हो गया होता। मित्रो! जिन चीजों के बारे में लोगों का यह सवाल है कि यह चीजें हमको मिल जायें, तो हम सुखी बन सकते हैं। वह वास्तव में ईमानदारी की बात है कि कोई सुख दे नहीं सकते। विद्या हमको मिल जाये, हम एम.ए. पास हो जायें, फर्स्ट डिवीजन में पास हो जायें, पी- एच.डी. हो जायें, नौकरी मिल जाये और हम बड़े विद्वान हो जायें, तो हम दुनिया में शान्ति पा सकते हैं? यह नामुमकिन है।

🔴 विद्वान पर खोखला व्यक्ति

साथियो! रावण बहुत विद्वान था। ज्यादा पढ़ा हुआ था। उसके पास कोई कमी नहीं थी। कोई आदमी बलवान हो जाये, ताकतवर हो जाये, तो उसे शान्ति मिल जायेगी? सुविधा मिल जाये, तो चैन मिल जायेगा? नहीं, न शान्ति मिल सकती और न चैन मिल सकता है। रावण बहुत ताकतवर था, बहुत बलवान था और उसकी कलाइयों में बहुत बल था। वह बड़ा संपन्न था। उसके पास न विद्या की कमी थी, न पैसे की कमी थी, न ताकत की कमी थी, न पुरुषार्थ की कमी थी। किसी चीज की कमी नहीं थी। पर बेचारा शान्ति नहीं पा सका। और जब मरने का समय आया, तब उसके शरीर में हजारों छेद बने हुए विद्यमान थे। जब लक्ष्मण जी ने रामचंद्र जी से यह पूछा कि महाराज! आपने जब रावण को मारा था, तब आपने एक ही तीर चलाया था न? हाँ, हमने तो एक ही तीर चलाया था। तो रावण के शरीर में एक ही निशान होना चाहिए, एक ही घाव होना चाहिए, लेकिन उसकी जो लाश पड़ी हुई है, उसमें तो जहाँ तहाँ हजारों छेद हैं। यह कैसे हुआ? रावण को इतने तीर किसने मारे? इतने छेद किसने कर दिए? इतने सुराख इसमें कैसे हो गए? किस तरीके से इन सूराखों से खून बह रहा है। आपने तो एक ही तीर मारा था? हाँ, हमने एक ही तीर मारा था। तो ये हजारों तीर किस तरीके से लगे? रामचंद्र जी ने बताया कि ये जो हजारों छेद हैं, रावण के पाप हैं, रावण के गुनाह हैं। रावण की कमजोरियाँ, रावण का घटियापन एवं रावण का कमीनापन है, जिसने कि उसके सारे शरीर में छेद कर डाले और उसका सारे का सारा व्यक्तित्व खराब कर दिया।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य


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बुधवार, 24 अगस्त 2022

👉 झूठी भावुकता एक अभिशाप है:-

दूसरों से व्यवहार करने में ठंडा दिमाग चाहिए। अनेक अवसर ऐसे आयेंगे, जब दूसरे तैश में, क्रोध के उफान में, या ईर्ष्या की अग्नि में आप उत्तेजित हो उठेंगे। उत्तेजना और क्रोध का आवेश तीव्रता से आग की ज्वाला की भाँति बढ़ता है। यदि उसे दूसरी ओर से अर्थात् आपकी तरफ से भी वैसा ही वातावरण प्राप्त हो जाय, तो तमाम लौकिक व्यवहार टूट-फूट जायेंगे, आप अनाप शनाप कह बैठेंगे। गुस्से में ऐसी-2 गुप्त बातें आपके मुख से प्रगट हो जायेंगी, जो कदाचित आप कभी उच्चारण करना पसन्द न करते।

उद्वेग एक तेजी से आने वाले तूफान की तरह है, जिसमें मनुष्य अन्धा हो जाता है। उसे नीर क्षीर का विवेक नहीं रहता। दूसरे को जोश में आया देखकर आप शान्त रहिए। उसकी उत्तेजना को ठंडा होने का अवसर दीजिए। ठंडे दिमाग का महत्व आप स्वयं देखेंगे जब दूसरा अपनी जल्दबाजी, आवेश की उत्तेजना, क्रोध, के आवेश पर क्षमा चाहेगा। आवेश में बुद्धि पंगु हो जाती है। हमें अपनी शक्ति का ज्ञान नहीं रहता।

इसी प्रकार झूठी भावुकता के पंजे में फँसकर दयार्द्र, या सहानुभूति में इतने द्रवित न हो जाइये कि दूसरे की आफत आपके गले आ पड़े। भावुकता में बह कर लोग बड़े-2 दान देने का वचन दे बैठते हैं; छात्र वृति के वायदे करते है; संस्थाओं की सहायता का वचन पक्का कर लेते हैं। दीन दुखियों, घर परिवार वालों की सहायता करना ठीक है किन्तु झूठी भावुकता के कारण अपनी मर्यादा या आर्थिक स्थिति से बाहर न निकल जाइये।

यदि क्रोध, प्रतिहिंसा, तैश बुरे हैं, तो अधिक भावुकता, नर्मी, सहानुभूति, दया आदि भी अधिक अच्छे नहीं हैं। ये दो सीमाएँ हैं। चतुर व्यक्ति को इन दोनों के मध्य में शान्त चित्त होकर अपना दृष्टिकोण स्वभाव तथा आदतें निर्माण करनी चाहिए। न इतने कठोर ही बनिये कि दूसरे आपसे मिलना, बातें करना सलाह लेना पसन्द न करें, न इतने सरल दयावान, भावुक ही बन जाइये कि आपका कोई अस्तित्व ही न रह जाय और उपेक्षा की जाय।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड  ज्योति जनवरी 1952

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👉 क्षुद्र हम, क्षुद्रतम हमारी इच्छाएँ (भाग 4)

🔴  समुद्र में पहुँचे भगवान्

इस बार भगवान् वहाँ से भागकर समुद्र में जा पहुँचे। और कहा कि देखें अब यहाँ मनुष्य कहाँ से आ जायेंगे? द्वारिका के पास बेट द्वारिका नाम की एक जगह है, बस भगवान् वहाँ जा पहुँचे। वह चारों ओर से समुद्र से घिरा हुआ पड़ा था। चारों ओर समुद्र था और बीच में एक टापू था। बस, भगवान् जी वहाँ बैठ गये और वहीं रहने लगे। उन्होंने कहा कि देखें अब हमारे पास मनुष्य कहाँ से आ जायेगा? अब वह हमको खामख्वाह तंग नहीं करेगा। एक बार उनका मन आया कि अपने घर चलना चाहिए लक्ष्मी जी के पास, पर यह अपना वीक प्वाइंट था, क्योंकि लक्ष्मी जी से यह कह करके आये थे कि हम मनुष्यों के पास रहेंगे। और लक्ष्मी जी ने कह दिया था कि आपको वहाँ नहीं जाना चाहिए। मनुष्य बड़े निकम्मे हो गये हैं और अपने ही धंधे में फँस गये हैं। वे अपने जीवन के लक्ष्य को भूल गये हैं। वे आपकी बात सुनेंगे नहीं। एक बार उन्होंने फिर सोचा कि चलो लक्ष्मी जी के पास चलें, मनुष्यों को छोड़ दें। फिर उन्होंने कहा कि भाई! यह तो बड़े शर्म की बात है और उनके सामने नाक नीची करने से क्या फायदा? यहीं रहना चाहिए। भगवान् जी बेट द्वारिका में रहने लगे।

🔵 पशोपेश में भगवान्

मित्रो! लोगों को जब यह पता चला कि भगवान् जी द्वारिका में निवास करते हैं, तो उन्होंने नावें बना लीं, बोट बना लिए और भाग- भागकर वहीं जा पहुँचे। भगवान् ने कहा- ‘‘अब क्या करना चाहिए? पहाड़ पर वे छोड़ने वाले नहीं, जमीन पर वे छोड़ने वाले नहीं। समुद्र में भागकर आये तो भी इनसे पिण्ड नहीं छूटा। अब क्या करना चाहिए।’’ भगवान् जी बहुत दुःखी हो रहे थे, परेशान हो रहे थे और उनकी आँखों से बहुत आँसू आ रहे थे। उन्होंने कहा- ‘‘भाइयो! घर जाते हैं तो ठिकाना नहीं और इनके पास रहते हैं, तो ठिकाना नहीं। अब क्या करना चाहिए? अपनी कोई जगह बनानी चाहिए, जहाँ हम पृथ्वी पर भी बने रहें और लक्ष्मी जी के सामने बेइज्जती भी न हो। हम जमीन पर भी बने रहें और जो अच्छे मनुष्य हमको पाना चाहें, तो आसानी से पा भी सकें। ऐसी जगह भी न चुनी जाय कि कोई अच्छा मनुष्य चाहता हो कि हमको भगवान् मिल जायँ और हम उसे मिल न सकें। ऐसी जगह कहाँ तलाश करें।’’

🔴 विवेक का हो जागरण, तो हो कल्याण

इससे पूर्व के अंक में आप पढ़ चुके हैं कि साहस और विवेक, पात्रता संवर्धन तथा आत्म चिन्तन, जिसने इन चार पर गंभीरता पूर्वक ध्यान दिया, उसका जीवन बदलता चला गया। जिसने इनकी उपेक्षा की, वह पिछड़ता चला गया। हम गहराई तक प्रवेश करें और ढूँढ़ें अनन्त शक्ति एवं शान्ति के स्रोत को। इस सम्बन्ध में परम पूज्य गुरुदेव ने एक रोचक कथानक सुनाया है जिसका आधा हिस्सा आप पढ़ चुके हैं। भगवान् ज्ञान बाँटने धरती पर आए पर मनोकामनाओं की लिस्ट लिए आदमी उनसे आशीर्वाद माँगने लगा। घबराए वे पहाड़ पर पहुँचे, मनुष्य वहाँ भी चला गया। क्षुद्र मनुष्य समुद्र में भी पहुँच गया, जब उसे पता चला कि अब भगवान् का डेरा वहाँ है। असमंजस में पड़े भगवान् को अब एक ही सहारा था। इस कथानक का व इस व्याख्यान का भी, अब उत्तरार्द्ध आगे पढ़ें।

🔵 देवर्षि से भेंट

मित्रो! भगवान् जी ऐसी एकांत जगह तलाश करने के लिए सिर खुजला रहे थे, जहाँ कोई पहुँच न सके। इतनी देर में वीणा बजाते हुए कहीं से नारद जी आ गये। उन्होंने कहा कि महाराज जी! आज आपको क्या हुआ? कोई जुकाम, बुखार हो गया है क्या? भगवान् जी ने कहा- ‘‘नहीं नारद जी! जुकाम- बुखार तो कुछ नहीं हुआ।’’ फिर क्या हुआ? कोई लड़ाई- झगड़ा हुआ? नहीं, कोई लड़ाई- झगड़ा नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि लड़ाई- झगड़ा भी नहीं हुआ, तो फिर किस्सा क्या है? आप दुःखी क्यों बैठे हुए हैं? भगवान् ने कहा कि हम लोगों के पास आये थे और उन्हें कल्याण का रास्ता बताना चाहते थे। उन्हें सुख और शान्ति का मार्ग बताना चाहते थे। उनको स्वर्ग और मुक्ति का आनन्द देना चाहते थे और उनको महामानव बनाना चाहते थे। हम उनको यह बताना चाहते थे कि इन्सान भगवान् का बेटा है और भगवान् के तरीके से उसको दुनिया में शान से रहना चाहिए। भगवान् के पास जो आनन्द है, उसका पूरा- पूरा लाभ उठाना चाहिए।

🔴 सही स्थान की तलाश

भगवान् ने कहा ‘‘नारद जी! हम इनको यही सिखाने के लिए आये थे, लेकिन ये मनुष्य बड़े निकम्मे हैं और बड़े स्वार्थी हैं। ये केवल छोटी- छोटी चीजों के लिए ख्वाहिश करते हैं और बड़ी- बड़ी चीजों के लिए इनका मन नहीं है। मैं इनके पास नहीं रहूँगा। भाग जाऊँगा और इनसे दूर रहूँगा; लेकिन मैं अपने घर नहीं जाना चाहता। नारद जी! मैं ऐसी जगह तलाश करना चाहता हूँ, जहाँ मैं बना भी रहूँ, पृथ्वी पर भी रहूँ और मेरा मनुष्यों से सम्बन्ध भी बना रहे। लेकिन मैं दिखाई भी न पड़ूँ। ऐसी जगह मुझे चाहिए, जो दिखाई न पड़े, समुद्र में गया, तो वहाँ भी लोगों ने पकड़ लिया, यहाँ भी लोगों ने पकड़ लिया। पहाड़ पर गया, तो वहाँ भी लोगों ने पकड़ लिया और जमीन पर था, तो वहाँ भी मुझे पकड़ लिया। अब अगर तुम्हारे दिमाग में हो, तो ऐसी जगह बताओ- जहाँ मैं आराम से छिपा बैठा रहूँ और कोई आदमी चाहे, तो आसानी से वह मुझ तक पहुँच सके। ऐसा भी न हो जाये कि चाहने वाला कोई आदमी पहुँच भी न सके और ऐसा भी न हो कि लोग मुझे आसानी से पकड़ लें और तंग करने लगें। ऐसा स्थान बता दीजिए।’’

🔵 आज तक वहीं पर हैं भगवान्

नारद जी ने कहा- ‘‘वाह! भगवन्! आपको इतना भी नहीं मालूम? इतनी बढ़िया जगह है, मैं अभी आपको बताता हूँ। भगवान् जी को नारद जी ने जगह बता दी और भगवान् जी उस दिन के बाद से आज तक उसी जगह पर विराजमान हैं। न वहाँ से हटे, न वहाँ से चले, बिलकुल वहीं बैठे रहते हैं। जमीन पर रहते हैं और वहाँ आसानी से आदमी पहुँच सकता है और जो भी चाहे प्राप्त कर सकता है। भगवान् से वार्तालाप कर सकता है और भगवान् के पास रहने का बहुत फायदा उठा सकता है। तब से लेकर अब तक भगवान् वहीं बैठे हुए हैं। आप पूछना चाहेंगे गुरु जी! हमें भी बता दीजिये। बता दूँ आपको? नहीं, आप किसी से कहना मत। कहेंगे तो नहीं किसी से? कह देंगे, तो नहीं बताऊँगा। कहना मत। नहीं तो सबको मालूम पड़ जायेगा। वे सब वहीं पहुँच जायेंगे और भगवान् जी बहुत नाराज होंगे। वे कहेंगे कि हमने तो अपने को छिपाकर ऐसी जगह रखा था, जहाँ नारद जी ने हमसे कहा था, उन्होंने कहा था कि कोई आदमी आप तक नहीं आएगा। लोग दुनिया में चक्कर काटते रहेंगे और कोई आप तक पहुँच ही नहीं सकेगा।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 आत्मचिंतन के क्षण 24 Aug 2022

🔸 बातें बनाना बड़ा सरल है, दूसरों को उपदेश देने में बहुतेरे कुशल होते हैं, किन्तु वास्तविक तथ्य तो यह है कि जो बात अंतरात्मा को लगे उसे कार्य रूप में परिणत कर प्रत्यक्ष किया जाय। कर्म ही संसार में मुख्य तत्त्व है। सफलता के लिए यदि कोई आवश्यक चीज है तो वह कठोर कर्म ही है। बातें बनाना तो शेखचिल्लियों-ढपोरशंखों का काम है। असली मनुष्य वही है जो बात कम करता है, किन्तु काम बहुत अधिक करता है।

◼️ हमारा जीवन भी हर घड़ी थोड़ा-थोड़ा करके मर रहा है। इस दीपक का तेल शनैः-शनैः चूकता चला जा रहा है। भविष्य की ओर हम चल रहे हैं और वर्तमान को भूत की गोदी में पटकते जाते हैं। यह सब देखते हुए भी हम नहीं सोचते कि क्या वर्तमान का कोई सदुपयोग हो सकता है? जो बीत गया सो गया, जो आने वाला है वह भविष्य के गर्भ में है। वर्तमान हमारे हाथ में है। हम चाहें तो उसका सदुपयोग करके इस नश्वर जीवन में से कुछ अनश्वर लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

🔹 सच्ची कमाई है उत्तम से उत्तम सद्गुणों का संग्रह। संसार का प्रत्येक प्राणी किसी न किसी सद्गुण से संपन्न है, परन्तु आत्म गौरव का गुण मनुष्यों के लिए प्रभु की सबसे बड़ी देन है। इस गुण से विभूषित प्रत्येक प्राणी को संसार के समस्त जीवों को अपनी आत्मा की भाँति ही देखना चाहिए। सदैव उसकी ऐसी धारणा रहे कि उसके मन, वचन एवं कर्म किसी से भी जगत् के किसी जीव को क्लेश न हो। ऐसी प्रकृति वाला अंत में परब्रह्म को पाता है।

🔸 चाहे किसी भी धर्म को न मानना, परन्तु मनुष्य बनकर रहना बहुत अच्छा है। मूढ़ धर्म को मानना अच्छा नहीं है। मूढ़ धर्म का अर्थ है-धर्म का सत्य, सुंदर और शिव रूप नष्ट करके अथवा धर्म में से मनुष्यता निकालकर उसे मिथ्याचार, पशुता और क्रूरता से जोड़ देना। आजकल वास्तविक धर्म का स्थान इसी मूढ़ धर्म ने ले लिया है और निस्संदेह यह घृणा करने के योग्य है।

🔹 जब कभी आपको क्रोध आवे तो मन ही मन कहिए-दूसरों से गलती हो ही जाती है, मुझे दूसरों की गलतियों पर कु्रद्ध नहीं होना चाहिए। यदि दूसरे गलती करते हैं तो उसका यह मतलब नहीं कि मैं और भी बड़ी गलती कर उसका प्रतिशोध लूँ। मैं शुभ संकल्प वाला साधक हूँ। शुभ संकल्प के फलित होने के लिए उद्विग्न मन होना उचित नहीं। हम सहिष्णु बनेंगे। दूसरे स्वयं अपनी गलती का अनुभव करेंगे।

◼️ जब भाइयों-भाइयों, मित्रों-मित्रों में भी सभी बातें समान नहीं होती तो साधारण मनुष्यों में तो सदा विचारों का मेल खाते जाना असंभव ही है। यदि विवाद में सफल होना चाहते हो तो विवाद निष्कर्ष के लिए करो, केवल बकवास के लिए नहीं। यदि अपनी बात की सच्चाई में तुम्हें विश्वास हो तो उस पर अड़े मत रहो। दूसरों को उसे समझाने का प्रयत्न करो। अपने पक्ष को स्थापित करना चाहते हो तो युक्तियों से काम लो, अपने अभिमान  के कारण उसे थोपने का प्रयत्न न करो।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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मंगलवार, 23 अगस्त 2022

👉 प्रेम का वास्तविक स्वरूप

निश्चय ही प्रेम और आनंद का उद्गम आत्मा के अंदर है। उसे परमात्मा के साथ जोड़ने से ही अपरिमित और स्थायी आनंद प्राप्त हो सकता है। सांसारिक नाशवान वस्तुओं के कंधे पर यदि आत्मीयता का बोझ रखा जाए तो उन नाशवान वस्तुओं में परिवर्तन होने पर या नाश होने पर सहारा टूट जाता है और उसके कंधे पर जो बोझ रखा था, वह सहसा नीचे गिर पड़ता है, फलस्वरूप बड़ी चोट लगती है और हम बहुत समय तक तिलमिलाते रहते हैं। धन-नाश पर, प्रियजन की मृत्यु पर, अपयश होने पर कितने ही व्यक्ति दहाड़े मार कर रोते-बिलखते और जीवन को नष्ट करते हुए देखे जाते हैं।  

बालू पर महल बनाकर उसे अजर-अमर रखने का स्वप्न देखने वालों की जो दुर्दशा होती है, वही इन हाहाकार करते हुए प्रेमियों की होती है। भौतिक पदार्थ नाशवान् हैं, इसलिए उनसे प्रेम जोड़ना एक बड़ा अधूरा और लॅगड़ा-लूला सहारा है, जो कभी भी टूटकर गिर सकता है और गिरने पर प्रेमी को हृदयविदारक आघात पहुँचा सकता है। प्रेम का गुण तो आनंदमय है।

प्रेम का आध्यात्मिक स्वरूप यह है कि आत्मा का आधार परमात्मा को बनाया जाए। चैतन्य और अजर-अमर आत्मा का अवलंबन सच्चिदानंद परमात्मा ही हो सकता है। इसलिए जड़ पदार्थों से, भौतिक वस्तुओं से, चित्त हटाकर परमात्मा में लगाया जाए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति-जुलाई 1945

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👉 आत्मचिंतन के क्षण 23 Aug 2022

🔹 समय एक ईश्वरीय चक्र है, जिसे परिश्रम के बैंक में भुनाने से नकद संपत्ति मिल जाती है। कर्म परायणता सौभाग्य की कुञ्जी है। जिसके हाथ में यह कुञ्जी होगी, वह अपने आपको सौभाग्यशाली बना लेगा। परमात्मा के भण्डार में सब कुछ भरा हुआ है, पर व्यक्ति के प्रयत्न के आधार पर ही उस भण्डार में से दिया जाता है। अपनी पात्रता से अधिक कोई एक रत्ती भर भी अधिक नहीं पा सकता।

◼️ विवाहोन्माद हिन्दू समाज के रोगग्रस्त शरीर में  सबसे भयंकर गलित कुष्ट है। धन और चरित्र की बर्बादी का यह सबसे विषम और सबसे भयावह छिद्र है। उसे न रोका गया तो शिक्षा, व्यवसाय, आहार, विज्ञान आदि के आधार पर जो कुछ भी प्राप्त किया जा रहा है वह सब इसी छिद्र से होकर धूलि में टपक जाएगा। हर कोई जानता है कि अपने समाज में विवाह बाहर से धूमधाम और भीतर से शोक-संताप से भरे हुए होते हैं। हमें आगे बढ़कर इस अविवेक भरी असुरता से जूझना पड़ेगा। यह कदम अनिवार्य है।

🔸 हमारा मन जब ईमानदारी को छोड़कर बेईमानी की तरफ चलने लगे तो समझना चाहिए कि अब हमारा सर्वनाश निकट आने वाला है। बेईमानी से पैसा मिल सकता है, पर देखो उससे सावधान रहना। उस पैसे को छूना मत, क्योंकि वह आग की तरह चमकीला तो है, पर छूने पर जलाये बिना रह नहीं सकता।

🔹 यदि हम वास्तव में कोई उत्तम कार्य करना चाहते हैं, तो समय का रोना न रोते रहें।  हमारी परिस्थिति, दुनिया की उलझनें तो यों ही चलती रहेंगी और हम सोते-सोते ही पूर्ण आयु समाप्त कर डालेंगे। समय अति अल्प है और हमें कार्य अत्यधिक करना है। वायुवेग से हमारा अमूल्य जीवन कम हो रहा है। समय का अपव्यय जितना रोक सकें, रोकें अवश्य।

◼️ सत्य की कसौटी यह नहीं है कि उसे बहुत, बूढ़े और धनी लोग ही कहते हों। सत्य हमेशा उचित, आवश्यक, न्याययुक्त तथ्यों से एवं ईमानदारी से भरा हुआ होता है। थोड़ी संख्या में, कम उम्र के, गरीब आदमी भी यदि ऐसी बात को कहते हैं तो वह मान्य है। अकेली आपकी आत्मा ही यदि सत्य की पुकार करती है तो वह पुकार लाखों मूर्खों की बक-बक से अधिक मूल्यवान् है।

🔸 अनीति से धन कमाना बुरा है, संपूर्ण शक्तियों को धन उपार्जन में ही लगाये रहना बुरा है, धन का अतिशय मोह, अहंकार, लालच बुरा है, धन के नशे में उचित-अनुचित का विचार छोड़ देना बुरा है, परन्तु यह किसी भी प्रकार बुरा नहीं है कि जीवन निर्वाह की उचित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ईमानदारी और परिश्रमशीलता के साथ धन उपार्जन किया जाय।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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