शुक्रवार, 24 जून 2022

👉 अनुशासन सीखिये

एक बार मेढ़कों को अपने समाज की अनुशासनहीनता पर बड़ा खेद हुआ और वे शंकर भगवान के पास एक राजा भेजने की प्रार्थना लेकर पहुँचे।

प्रार्थना स्वीकृत हो गई। कुछ समय बाद शिवजी ने अपना बैल मेढ़कों के लोक में शासन करने भेजा। मेढ़क इधर-उधर निःशंक भाव से घूमते फिरे सौ उसके पैरों के नीचे दब कर सैकड़ों मेढ़क ऐसे ही कुचल गये।

ऐसा राजा उन्हें पसंद नहीं आया मेढ़क फिर शिवलोक पहुँचे और पुराना हटा कर नया राजा भेजने का अनुरोध करने लगे।

वह प्रार्थना स्वीकार कर ली गई। बैल वापिस बुला लिया गया। कुछ दिन बाद स्वर्गलोक  से एक भारी शिला मेढ़कों के ऊपर गिरी उससे हजारों की संख्या में वे कुचल कर मर गये।

इस नई विपत्ति से मेढ़कों को और भी अधिक दुःख हुआ और वे भगवान के पास फिर शिकायत करने पहुँचे।

शिवजी ने गंभीर होकर कहा-बच्चों पहले हमने अपना वाहन बैल भेजा था, दूसरी बार, हम जिस स्फटिक शिला पर बैठते हैं उसे भेजा। इसमें शासकों का दोष नहीं है। तुम लोग जब तक स्वयं अनुशासन में रहना न सीखोगे और मिल-जुलकर अपनी व्यवस्था बनाने के लिए स्वयं तत्पर न होगे तब तक कोई भी शासन तुम्हारा भला न कर सकेगा। मेढ़कों ने अपनी भूल समझी और शासन से बड़ी आशायें रखने की अपेक्षा अपना प्रबंध करने में जुट गये।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1973 पृष्ठ 1

👉 प्रगति के पाँच आधार

अरस्तू ने एक शिष्य द्वारा उन्नति का मार्ग पूछे जाने पर उसे पाँच बातें बताई।

(1) अपना दायरा बढ़ाओ, संकीर्ण स्वार्थ परता से आगे बढ़कर सामाजिक बनो।

(2) आज की उपलब्धियों पर संतोष करो और भावी प्रगति की आशा करो।

(3) दूसरों के दोष ढूँढ़ने में शक्ति खर्च न करके अपने को ऊँचा उठाने के प्रयास में लगे रहो।

(4) कठिनाई को देख कर न चिन्ता करो न निराश होओ वरन् धैर्य और साहस के साथ उसके निवारण का उपाय करने में जुट जाओ।

(5) हर किसी में अच्छाई खोजो और उससे कुछ सीख कर अपना ज्ञान और अनुभव बढ़ाओ। इन पाँच आधारों पर ही कोई व्यक्ति उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सकता है।

अखण्ड ज्योति अप्रैल 1973 पृष्ठ 1

👉 आदतों के गुलाम न बनें (भाग 1)

जिन कार्यों या बातों को मनुष्य दुहराता रहता है, वे स्वभाव में सम्मिलित हो जाती हैं और आदतों के रूप में प्रकट होती हैं। कई मनुष्य आलसी प्रवृत्ति के होते हैं। यों जन्मजात दुर्गुण किसी में नहीं हैं। अपनी गतिविधियों में इस प्रवृत्ति को सम्मिलित कर लेने और उसे समय कुसमय बार बार दुहराते रहने से वैसा अभ्यास बन जाता है। यह समग्र क्रिया−कलाप ही अभ्यास बन कर इस प्रकार आदत बन जाते हैं मानो वह जन्मजात ही हो। या किसी देव दानव ने उस पर थोप दिया हो। पर वस्तुतः यह अपना ही कर्तृत्व होता है जो कुछ ही दिन में बार-बार प्रयोग से ऐसा मजबूत हो जाता है मानो वह अपने ही व्यक्तित्व का अंग हो और वह किसी अन्य द्वारा ऊपर से लाद दिया गया हो।

जिस प्रकार बुरी आदतें अभ्यास में आते रहने के कारण स्वभाव बन जाती है और फिर छुड़ायें नहीं छूटती, वैसी ही बात अच्छी आदतों के सम्बन्ध में है।

अच्छी आदतों के संबंध में भी यही बात है। हँसते मुस्कराते रहने की आदत ऐसी ही है। उसके लिए कोई महत्वपूर्ण कारण होना आवश्यक नहीं। आमतौर से सफलता या प्रसन्नता के कोई कारण उपलब्ध होने पर ही चेहरे पर मुसकान उभरती है। किन्तु कुछ दिनों बिना किसी विशेष कारण के भी मुसकराते रहने की स्वाभाविक पुनरावृत्ति करते रहने पर वैसी आदत बन जाती हैं फिर उनके लिए किसी कारण की आवश्यकता नहीं पड़ती है और लगता है कि व्यक्ति कोई विशेष सफलता प्राप्त कर चुका है। साधारण मुसकान से भी सफलता मिलकर रहती है।

क्रोधी स्वभाव के बारे में भी यही बात है। कोई व्यक्ति अनायास ही चिड़चिड़ाते रहते देखे गये हैं। अपमान, विद्वेष या आशंका जैसे कारण रहने पर तो खीजते रहने की बात समय में आती है, पर तब आश्चर्य होता है कि कोई प्रतिकूल परिस्थिति न होने पर भी लोग खीचते झल्लाते चिड़चिड़ाते देखे जाते हैं। यह और कुछ नहीं उसके कुछ दिन के अभ्यास का प्रतिफल है।

शेष कल
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति 1990 नवम्बर पृष्ठ 38

👉 आदतों के गुलाम न बनें (भाग 2)

आदतों को आरम्भ करने में तो कुछ भी नहीं करना पड़ता है। पर पीछे वे बिना किसी कारण के भी क्रियान्वित होती रहती हैं। इतना ही नहीं कई बार तो ऐसा भी होता है कि मनुष्य आदतों का गुलाम हो जाता है और कोई विशेष कारण न होने पर भी उपयुक्त अनुपयुक्त आचरण करने लगता है। बाद में स्थिति ऐसी बन जाती है कि उस आदत के बिना काम ही नहीं चलता।

आलसियों और गंदगी पसन्द लोगों के कुटेवों को लोग नापसन्द भी करते हैं और इनके लिए टीका टिप्पणी भी करते हैं। पर अभ्यस्त व्यक्ति को यह प्रतीत ही नहीं होता कि उसने कोई ऐसी आदत पाल रखी है जिन्हें लोग नापसन्द करते हैं और बुरा मानते है। अच्छी आदतों के संबंध में यह बात है। साफ सुथरे रहना, किफायत बरतना और किसी न किसी उपयोगी कामों में लगे रहना, न होने पर प्रयत्न पूर्वक सौंपा हुआ काम कर लेना, एक प्रकार की अच्छी आदत ही है जो अपने व्यक्तित्व का वजन बढ़ाती है। कुछ न कुछ उपयोगी प्रक्रिया बन पड़ने पर अनायास ही सहज श्रेय प्राप्त करते हैं।

🔵 तिनके-तिनके इकट्ठे करने पर मोटा या मजबूत रस्सा बन जाता है। अच्छी या बुरी आदतों के संबन्ध में भी ऐसी बात है। आरम्भ में वे अनायास ही आरम्भ हो जाती है और थोड़ा सा प्रयत्न करने कुछ बार दुहरा देने भर से मनःस्थिति अनुकूल बन जाती है। स्वभाव का अंग बन जाने पर समूचे व्यक्तित्व को ही उस ढाँचे में ढाल लेती है। अच्छी आदतों का अभ्यास किया जाय तो व्यक्तित्व सद्गुणी स्तर का बन जाता है। दूसरों के मन में अपने लिए सम्मान जनक स्थान बना लेता है। उसे सभ्य या शिष्ट माना जाता है। उसके संबंध में लोग और भी अच्छे सद्गुणों की मान्यता बना लेते है। उसके कार्यों में सहयोग करने लगते हैं या अवसर मिलते ही उन्हें अपना सहयोगी बना लेते हैं। सहयोग या असहयोग ही किसी की उन्नति या अवनति का प्रमुख कारण है। अच्छी आदतें फलतः अपना हित साधन करती हैं। इनका देर-सबेर में उपयोगी लाभ मिलता है। इसके विपरीत बुरी आदतों से प्रत्यक्षतः और परोक्षतः निकट भविष्य में हानि ही उठाने का अवसर आता रहता है।

समाप्त
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति नवम्बर 1990 पृष्ठ 238

👉 झूठा वैराग्य

कितने ऐसे मनुष्य हैं जो संसार के किसी पदार्थ से प्रेम नहीं करते, उनके भीतर किसी भी मौलिक वस्तु के प्रति सद्भाव नहीं होता। वे निर्दय, निर्भय, निष्ठुर होते हैं। निस्संदेह वे अनेक प्रकार की कठिनाइयों से, मुसीबतों से, बच जाते हैं, किन्तु वैसे तो निर्जीव पत्थर की चट्टान को भी कोई शोक नहीं होता, कोई वेदना नहीं होती, लेकिन क्या हम सजीव मनुष्य की तुलना पत्थर से कर सकते हैं? जो वज्र वत कठोर हृदय होते हैं, नितान्त एकाकी होते हैं, वे चाहे कष्ट न भोगें पर जीवन के बहुत से आनन्दों का उपभोग करने से वे वंचित रह जाते हैं। ऐसा जीवन भी भला कोई जीवन है? वैरागी वह है जो सब प्रकार से संसार में रह कर, सब तरह के कार्यक्रम को पूरा कर, सब की सेवा कर, सबसे प्रेम कर, फिर भी सबसे अलग रहता है।

हम लोगों को यह एक विचित्र आदत सी पड़ गई है कि जो भी दुष्परिणाम हमको भोगने पड़ते हैं, जो भी कठिनाइयाँ आपत्तियाँ हमारे सामने आती हैं, उनके लिए हम अपने को दोषी न समझ कर दूसरे के सर दोष मढ़ दिया करते हैं। संसार बुरा है, नारकीय है, भले लोगों के रहने की यह जगह नहीं है, यह हम लोग मुसीबत के समय कहा करते हैं। यदि संसार ही बुरा होता और हम अच्छे होते तो भला हमारा जन्म ही यहाँ क्यों होता? यदि थोड़ा सा भी आप विचार करो तो तुरन्त विदित हो जायेगा कि यदि हम स्वयं स्वार्थी न होते तो स्वार्थियों की दुनिया में आप का वास असंभव था। हम बुरे हैं तो संसार भी बुरा प्रतीत होगा लेकिन लोग वैराग्य का झूठा ढोल पीटकर अपने को अच्छा और संसार को बुरा बताने की आत्म वंदना किया करते हैं।

अखण्ड ज्योति मार्च 1943 पृष्ठ 5

मंगलवार, 21 जून 2022

👉 देने से ही मिलेगा

किसी को कुछ दीजिए या उसका किसी प्रकार का उपकार कीजिए तो बदले में उस व्यक्ति से किसी प्रकार की आशा न कीजिए। आपको जो कुछ देना हो दे दीजिए। वह हजार गुणा अधिक होकर आपके पास लौट आवेगा। परन्तु आपको उसके लौटने या न लौटने की चिन्ता ही न करनी चाहिए। अपने में देने की शक्ति रखिए, देते रहिए। देकर ही फल प्राप्त कर सकेंगे। यह बात सीख लीजिए कि सारा जीवन दे रहा है। प्रकृति देने के लिए आप को बाध्य करेगी। इसलिए प्रसन्नतापूर्वक दीजिए। आज हो या कल, आपको किसी न किसी दिन त्याग करना पड़ेगा ही।

जीवन में आप संचय करने के लिए आते हैं परन्तु प्रकृति आपका गला दबाकर मुट्ठी खुलवा लेती है। जो कुछ आपने ग्रहण किया है वह देना ही पड़ेगा, चाहे आपकी इच्छा हो या न हो। जैसे ही आपके मुँह से निकला कि ‘नहीं, मैं न दूँगा।’ उसी क्षण जोर का धक्का आता है। आप घायल हो जाते हैं। संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो जीवन की लम्बी दौड़ में प्रत्येक वस्तु देने, परित्याग करने के लिए बाध्य न हो। इस नियम के प्रतिकूल आचरण करने के लिए जो जितना ही प्रयत्न करता है वह अपने आपको उतना ही दुखी अनुभव करता है।

हमारी शोचनीय अवस्था का कारण यह है कि परित्याग करने का साहस हम नहीं करते इसी से हम दुखी हैं। ईंधन चला गया उसके बदले में हमें गर्मी मिलती है। सूर्य भगवान समुद्र से जल ग्रहण किया करते हैं उसे वर्षा के रूप में लौटाने के लिए आप ग्रहण करने और देने के यन्त्र हैं। आप ग्रहण करते हैं देने के लिए। इसलिए बदले में कुछ माँगिए नहीं। आप जितना भी देंगे, उतना ही लौटकर आपके पास आवेगा।

~ स्वामी विवेकानन्द
~ अखण्ड ज्योति फरवरी 1964 पृष्ठ 1

👉 जीवन के हर प्रभात का स्वागत करिये

जीवन का हर प्रभात एक सच्चे मित्र की तरह नित्य अभिनव उपहार लेकर आता है। वह चाहता है कि आप वे उपहार ग्रहण करें और उनसे अपने उस शुभ दिन का शृंगार करें। उसकी इच्छा रहती है कि जब दूसरे दिन वह आये तो आपका एक बढ़ा हुआ कदम देखे और उसके दिये हुए उपहारों के ठीक उपयोग के साथ नये उपहार लेने के लिए प्रस्तुत पाये! किन्तु जब आदर-पूर्वक उठकर उत्साह से उसका स्वागत नहीं किया जाता है तो वह निराशा होकर द्वार से लौट जाता है और दूसरे दिन आने में न उसको वह उत्साह रहता है और न उसके उपहारों में वह सौंदर्य! बार-बार निराश होने पर वह आता और अपरिचित राही की तरह द्वार के सामने से निकल जाता है।

ईश्वर मनुष्य को एक साथ इकठ्ठा जीवन न देकर क्षणों के रूप में देता है। एक नया क्षण देने के पूर्व वह पुराना क्षण वापिस ले लेता है। अतएव मिले हुए प्रत्येक क्षण का ठीक-ठीक सदुपयोग करो जिससे तुम्हें नित्य नए क्षण मिलते रहें।

पास ही क्षितिज तट पर तुम्हारा लक्ष्य जगमगा रहा है। किन्तु उसको तुम स्पष्ट नहीं देख पाते, क्योंकि उस पर तुम्हारी कमजोरियों के बादल छाये हुए हैं।

~रवीन्द्रनाथ टैगोर
~अखण्ड ज्योति फरवरी 1965 पृष्ठ 1*

मंगलवार, 7 जून 2022

👉 मानव अभ्युदय का सच्चा अर्थ

बुद्ध ने उपनिषद् की शिक्षाओं को जीवन में कार्यान्वित करने की कला का अभ्यास करने के बाद अपना संदेश दिया था। वह संदेश था कि भूमि या आकाश में, दूर या पास में, दृश्य या अदृश्य में, जो कुछ भी है उसमें असीम प्रेम की भावना रखो, हृदय में द्वेष या हिंसा की कल्पना भी जाग्रत न होने दो। जीवन की ही चेष्टा में उठते-बैठो, सोते-जागते, प्रतिक्षण इसी प्रेमभावना में ओतप्रोत रहना ही ब्रह्म-विहार है, दूसरे शब्दों में जीवन की यही गतिविधि है जिससे ब्रह्म का आत्मा में विचार किया जाता है।

यह ब्रह्म की आत्मा क्या है? उपनिषद् के शब्दों में जो आकाश में तेजोमय और अमृतमय है और जो विश्वचेतना है वही ब्रह्म है और उपनिषद् का कहना है कि आकाश में ही नहीं बल्कि जो हमारे अन्तःकरणों में भी तेजोमय और अमृतमय पुरुष है और जो विश्वचेतना का स्रोत है वह ब्रह्म है। इस विराट विश्व के रिक्त स्थान में उस को चेतनता प्राप्त है और हमारी अंतर-आत्मा में भी उसी की चेतनता है।

इस लिये इस व्यापक चेतना की प्राप्ति के लिए हमें अपने अन्तर की चेतना से विश्व की असीम चेतनता का समभाव स्थापित करना है। वस्तुतः मानव के अभ्युदय का सच्चा अर्थ इसी चेतना के उदय और विस्तार में है। वही हमारे-सारे ज्ञान-विज्ञान का ध्येय रहा है।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर
अखण्ड ज्योति 1967 जनवरी पृष्ठ 1

👉 जीवन की सार्थकता और निरर्थकता

शरीर की दृष्टि से मनुष्य की सत्ता नगण्य है। इस तुलना में तो वह पशु-पक्षियों से भी पिछड़ा हुआ है। अन्य जीवों में कितनी ही विशेषतायें ऐसी हैं जिन्हें मनुष्य ललचाई दृष्टि से ही देखता रह सकता है।

मानवीय महत्ता उसकी भावनात्मक उत्कृष्टता में सन्निहित है। जिसकी आस्थाओं का स्तर ऊंचा है, जो दूरदर्शिता और विवेकशीलता के साथ हर समस्या को सोचता और समझता है वही सच्चे अर्थों में मनुष्य है। गुण, कर्म, स्वभाव की महानता ही व्यक्तित्व को ऊंचा उठाती है और उसी के आधार पर किसी को सफल एवं सार्थक जीवन व्यतीत करने का अवसर मिलता है।

जीवन उसी का धन्य है जिसने अपनी आस्थाओं को ऊंचा उठाया और सत्कर्मों में समय लगाया। अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य इसीलिए बड़ा है कि वह अपने आन्तरिक बड़प्पन का परिचय दें। जो इस दृष्टि से पिछड़ा रहा-उसने नर-तन के सौभाग्य को निरर्थक ही गंवा दिया।

 ~ स्वामी विवेकानन्द
अखण्ड ज्योति 1967 मार्च पृष्ठ 1

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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