सोमवार, 31 जनवरी 2022

👉 क्रिया की प्रतिक्रिया का अनिवार्य नियम

क्रिया की प्रतिक्रिया सृष्टि का शाश्वत नियम है। उसे हर कहीं और कभी भी चरितार्थ होते देखा जा सकता है। किसान जो बोता है, वही काटता है। सौभाग्य और दुर्भाग्य के अवसर यों अनायास ही आ उपस्थित हो जाते हैं; पर उनके पीछे भी मनुष्य के अपने कर्म ही झाँकते रहते हैं। भले ही वे अब नहीं, भूतकाल में कभी किये गए हों। यहाँ अकस्मात् कुछ नहीं होता।

जो होता है, उसकी पृष्ठभूमि बहुत दिन पहले से ही बन रही होती है। बच्चे का जन्म प्रसव के उपरांत प्रत्यक्ष आंखों से दीख पड़ता है; पर उसकी आधारशिला बहुत पहले गर्भाधान काल में ही रख गयी होती है। चर्म-चक्षुओं से प्रभात काल ही सूर्योदय का समय समझा जाता है; किन्तु वस्तुतः उसे अन्धकार के समापन की वेला के साथ जुड़ा हुआ ही समझा जा सकता है।

सुयोग के पीछे भी वही परंपरा अपने चमत्कार दिखा रही होती है। कर्मफल ही यहाँ सब कुछ है। संसार के हाट-बाज़ार में सब कुछ सज-धज के साथ रखा-सँजोया गया होता है। पर उसमें से मुफ्त किसी को कुछ नहीं मिलता। यहाँ क्रय-विक्रय का उपक्रम ही चलता रहता है। आदान-प्रदान का शाश्वत सत्य, निरंतर अपनी सुनिश्चित विधि-व्यवस्था का परिचय देता रहता है। मुफ्त में तो जमीन पर बिखरी रेत-मिट्टी भी टोकरी में नहीं आ बैठती, इसके लिए भी खोदने-समेटने-उठाने का श्रम किसी-न-किसी को करना ही पड़ता है। संस्कृत की यह उक्ति ठीक ही है कि सोते सिंह के मुख में मृग नहीं घुस जाते।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

👉 समय जरा भी बर्बाद न कीजिए (अन्तिम भाग)

बिना पढ़े लोग रात-दिन चलने वाले कारखानों में काम खोज सकते हैं। किसी मशीनी कारखाने में जाकर श्रम कर सकते हैं। रात को दुकानों में होने वाले बहुत से कामों में श्रम कर सकते हैं। मजदूर वर्ग के लोग लकड़ी, सींक, कांस, सेंठा, नरकुल, बांस, घास, पटेरा, पतेल, वनस्पतियां, औषधियां, जड़ी-बूटियां जैसी न जाने कितनी चीजें लाकर बाजार में बेच सकते हैं। अत्तारों और हकीम वैद्यों से उनकी आवश्यकता मालूम कर बहुत-सी जंगली चीजें सप्लाई कर सकते हैं। जानवरों का चारा, पत्ते, बेर, करौंदा, जामुन, मकोय, बेल, कैथ आदि बहुत तरह के जंगली फल लाकर बेच सकते हैं। अनेक लोग इन्हीं चीजों के आधार पर अपनी पूरी जीविका चलाया करते हैं। मिट्टी, रेत तथा दातूनों की सप्लाई भी बड़े-बड़े शहरों में लाभदायक होती है। काम करने की लगन तथा जिज्ञासा होनी चाहिये। दुनिया में काम की कमी नहीं है।

इसी प्रकार न जाने कितने घरेलू धन्धे तथा कुटीर-उद्योग हैं जिन्हें करके समय का सदुपयोग किया जा सकता है। उनमें से कढ़ाई-बुनाई, कताई-सिलाई तो साधारण है इसके अतिरिक्त तेल, साबुन, डलिया, झाबे, चटाई, झोले, लिफाफे, थैले, चूरन, चटनी, अचार, मुरब्बे आदि का भी काम किया जा सकता है। इन कामों में लगभग सभी सामान्य घरों की स्त्रियां दक्ष होती हैं। फसल पर आम, नीबू, आंवला, खीरा, ककड़ी, तरबूज, करेला आदि के अनेक प्रकार के अचार बनाकर बाजार में सप्लाई किये जा सकते हैं। बहुत से परिवार पापड़, बरियां तथा मगौड़ियां बना कर भी बनियों को सप्लाई करते रहते हैं। पढ़ी-लिखी योग्य स्त्रियां अपने घर पर सिलाई-कटाई का छोटा-मोटा स्कूल चला सकती हैं। बहुत-सी परिश्रमी नारियां हाथ से सिलने योग्य कपड़ों को दर्जी से लेकर सीकर अर्थ लाभ कर सकती हैं। अनेक परिवार मिल कर अपने घरों पर कताई-बुनाई, दरी-कालीन तथा निबाड़ बुनने के छोटे कारखाने लगा सकते हैं, जिनको घरों की स्त्रियां अपने खाली समय में आराम से चला सकती हैं। कागज, गत्ता तथा मिट्टी के खिलौने और कपड़ों की गुड़िया बना कर बेची जा सकती हैं। इस प्रकार के और भी न जाने कितने काम हो सकते हैं जिनको घर की स्त्रियां अपने फालतू समय में आसानी से कर सकती हैं। आजकल घरों के हाथ से बनी देशी चीजों का समाज में बड़ा आदर किया जाता है। परिश्रमपूर्वक तथा कम मुनाफे पर करने से यह सब काम आसानी से चल सकते हैं।

गरीब आदमियों की अपेक्षा अमीर स्त्री-पुरुषों के पास फालतू समय अधिक होता है। एक तो उनके पास विशेष काम नहीं होता, जो होता भी है वह अधिकतर नौकर-चाकर ही किया करते हैं। उन्हें पैसे की इतनी आवश्यकता भी नहीं होती जिसके लिये वे मगज और शरीर मारी करें। तब भी स्वास्थ्य, कार्यक्षमता तथा विविध प्रकार की बुराइयों तथा व्यसनों से बचने के लिए उन्हें अपने फालतू समय में कुछ न कुछ काम करना ही चाहिये। ऐसे लोग अपने मनोरंजन के लिए बागवानी कर सकते हैं। निरक्षरों को निःशुल्क साक्षर बना सकते हैं। समाज सेवा तथा परोपकार के बहुत से काम कर सकते हैं।

इस प्रकार शेष समय में पढ़े-लिखे, अपढ़ तथा गरीब-अमीर पुरुष सभी कुछ न कुछ अपने योग्य काम कर सकते हैं। फिर वह चाहे आर्थिक हो अथवा अनार्थिक। इस काम को करने में जितना महत्व समय के सदुपयोग का है उतना पैसे का नहीं। फालतू समय में काम करते रहने वाले अनेक रोगों तथा बुराइयों से बच सकते हैं। इसलिए ठल्ले-नबीसी करने के बजाय कुछ न कुछ काम करना चाहिये।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

शनिवार, 22 जनवरी 2022

👉 पुण्य और कर्तव्य

एक बार की बात है एक बहुत ही पुण्य व्यक्ति अपने परिवार सहित तीर्थ के लिए निकला .. कई कोस दूर जाने के बाद पूरे परिवार को प्यास लगने लगी, ज्येष्ठ का महीना था, आस पास कहीं पानी नहीं दिखाई पड़ रहा था.. उसके बच्चे प्यास से ब्याकुल होने लगे.. समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे... अपने साथ लेकर चलने वाला पानी भी समाप्त हो चुका था!!

एक समय ऐसा आया कि उसे भगवान से प्रार्थना करनी पड़ी कि हे प्रभु अब आप ही कुछ करो मालिक... इतने में उसे कुछ दूर पर एक साधू तप करता हुआ नजर आया.. व्यक्ति ने उस साधू से जाकर अपनी समस्या बताई... साधू बोले की यहाँ से एक कोस दूर उत्तर की दिशा में एक छोटी दरिया बहती है जाओ जाकर वहां से पानी की प्यास बुझा लो...

साधू की बात सुनकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुयी और उसने साधू को धन्यवाद बोला.. पत्नी एवं बच्चो की स्थिति नाजुक होने के कारण वहीं रुकने के लिया बोला और खुद पानी लेने चला गया..

जब वो दरिया से पानी लेकर लौट रहा था तो उसे रास्ते में पांच व्यक्ति मिले जो अत्यंत प्यासे थे .. पुण्य आत्मा को उन पांचो व्यक्तियों की प्यास देखि नहीं गयी और अपना सारा पानी उन प्यासों को पिला दिया.. जब वो दोबारा पानी लेकर आ रहा था तो पांच अन्य व्यक्ति मिले जो उसी तरह प्यासे थे ... पुण्य आत्मा ने फिर अपना सारा पानी उनको पिला दिया ...

यही घटना बार बार हो रही थी ... और काफी समय बीत जाने के बाद जब वो नहीं आया तो साधू उसकी तरफ चल पड़ा.... बार बार उसके इस पुण्य कार्य को देखकर साधू बोला - "हे पुण्य आत्मा तुम बार बार अपना बाल्टी भरकर दरिया से लाते हो और किसी प्यासे के लिए ख़ाली कर देते हो... इससे तुम्हे क्या लाभ मिला...? पुण्य आत्मा ने बोला मुझे क्या मिला? या क्या नहीं मिला इसके बारें में मैंने कभी नहीं सोचा.. पर मैंने अपना स्वार्थ छोड़कर अपना धर्म निभाया..

साधू बोला - "ऐसे धर्म निभाने से क्या फ़ायदा जब तुम्हारे अपने बच्चे और परिवार ही जीवित ना बचे? तुम अपना धर्म ऐसे भी निभा सकते थे जैसे मैंने निभाया..

पुण्य आत्मा ने पूछा - "कैसे महाराज?
साधू बोला - "मैंने तुम्हे दरिया से पानी लाकर देने के बजाय दरिया का रास्ता ही बता दिया... तुम्हे भी उन सभी प्यासों को दरिया का रास्ता बता देना चाहिए था... ताकि तुम्हारी भी प्यास मिट जाये और अन्य प्यासे लोगो की भी... फिर किसी को अपनी बाल्टी ख़ाली करने की जरुरत ही नहीं..."  इतना कहकर साधू अंतर्ध्यान हो गया...

पुण्य आत्मा को सब कुछ समझ आ गया की अपना पुण्य ख़ाली कर दुसरो को देने के बजाय, दुसरो को भी पुण्य अर्जित करने का रास्ता या विधि बताये..

मित्रो - ये तत्व ज्ञान है... अगर किसी के बारे में अच्छा सोचना है तो उसे उस परमात्मा से जोड़ दो ताकि उसे हमेशा के लिए लाभ मिले!!!

👉 समय जरा भी बर्बाद न कीजिए (भाग ३)

यदि किये जाने वाले कामों की योजना पहले से ही बनी रहे, यह निश्चित रहे कि कौन-सा काम किस समय प्रारम्भ करके कब तक खत्म कर देना है तो यह दिक्कत न रहे। निश्चित समय आते ही काम में लग जाया जाए और प्रयत्नपूर्वक समय तक समाप्त कर दिया जाये। इसका सबसे सरल तथा उचित उपाय यह है कि दूसरे दिन के सारे कामों की योजना रात में ही बना ली जाये कि दिन प्रारम्भ होते ही कौन-सा काम किस समय प्रारम्भ करना है और किस समय तक उसे समाप्त कर देना है। तो कोई कारण नहीं कि हर काम अपने क्रम से अपने निर्धारित समय पर शुरू होकर ठीक समय पर समाप्त न हो जाये। बहुत से लोग काम का दिन शुरू होने पर—आज क्या-क्या करना है—यह सोचना प्रारम्भ करते हैं। न जाने कितना काम का समय इस सोच विचार में ही निकल जाता है। बहुत-सा समय पहले ही खराब करने के बाद काम शुरू किये जायें तो स्वाभाविक है आगे चलकर समय की कमी पड़ेगी और काम अधूरे पड़े रहेंगे जो दूसरे दिन के लिए और भी भारी पड़ जायेंगे। वासी काम वासी भोजन से भी अधिक अरुचिकर होता है। इसलिए बुद्धिमानी यही है कि दूसरे दिन किये जाने वाले काम रात को ही निश्चित कर लिये जायें। उनका क्रम तथा समय भी निर्धारित कर लिया जाये और दिन शुरू होते ही बिना एक क्षण खराब किये उनमें जुट पड़ा जाये और पूरे परिश्रम तथा मनोयोग से किए जायें। इस प्रकार हर आवश्यक काम समय से पूरा हो जायेगा और बहुत-सा खाली समय शेष बचा रहेगा, जिसका सदुपयोग कर मनुष्य अतिरिक्त लाभ तथा उन्नति का अधिकारी बन सकता है। समय की कमी और काम की अधिकता की शिकायत गलत है। वह अस्त-व्यस्तता का दोष है जो कभी ऐसा भ्रम पैदा कर देता है।

जहां तक फालतू समय का प्रश्न है, उसका अनेक प्रकार से सदुपयोग किया जा सकता है। जैसे कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति बच्चों की ट्यूशन कर सकता है। किसी नाइट स्कूल में काम कर सकता है। किसी फर्म अथवा संस्थान में पत्र-व्यवहार का काम ले सकता है। अर्जियां तथा पत्र टाइप कर सकता है। खाते लिख सकता है, हिसाब-किताब लिखने-पढ़ने का काम कर सकता है। ऐसे एक नहीं बीसियों काम हो सकते हैं जो कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपने फालतू समय में आसानी से कर सकता है और आर्थिक लाभ उठा सकता है। बड़े-बड़े शहरों और विशेष तौर से विदेशों में अपना दैनिक काम करने के बाद अधिकांश लोग जगह-जगह ‘पार्ट टाइम’ काम किया करते हैं।

पढ़े-लिखे लोग अपने बचे हुये समय में कहानी, लेख, निबन्ध, कविता अथवा छोटी-छोटी पुस्तकें लिख सकते हैं। उनका प्रकाशन करा सकते हैं। इससे जो कुछ आय हो सकती है वह तो होगी ही साथ ही उनकी साहित्यिक प्रगति होगी, ज्ञान बढ़ेगा, अध्ययन का अवसर मिलेगा और नाम होगा। कदाचित् पढ़े-लिखे लोग परिश्रम कर सकें तो यह अतिरिक्त काम उनके लिए अधिक उपयोगी लाभकर तथा रुचिपूर्ण होगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १०४)

अनिर्वचनीय है प्रेम

‘‘रूपान्तरित हो जाए मनुष्य, तो उसकी आकृति नहीं बल्कि प्रकृति बदलती है। बाहर से देखने पर सब कुछ वैसा का वैसा ही बना रहता है पर उसके अन्तःकरण का सत्य बदल जाता है।’’ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के शब्द भावों से भीगे थे, जो सुनने वालों के कानों और मनों में दैवी भावनाओं की अनूठी रसमयता को घोल रहे थे।

इस भक्तिसंगम में बैठे हुए ऋषियों व देवों के साथ अन्य सभी जनों को भलीभांति ज्ञात था कि ब्रह्मर्षि, गायत्री के परम सिद्ध एवं अविराम साधक हैं। उन्होंने जबसे गायत्री महाविद्या की साधना प्रारम्भ की तब से आज तक कभी भी विराम नहीं लिया। उन्हें सिद्धियाँ मिलती गयीं और वे नए अन्वेषण-अनुसन्धान करते गए। न तो कभी वरदायिनी वेदमाता के वरदान कम हुए और न कभी विश्वामित्र की तपसाधना का प्रवाह मन्द पड़ा।

सभी की अनुभूति यही कहती थी कि ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की देह के रोम-रोम में, उनके प्राणों के कण-कण में, उनकी चेतना के प्रत्येक चैतन्य स्पन्दन में गायत्री का सत्य एवं तत्त्व ही प्रकाशित होता है। ऐसे ब्रह्मर्षि विश्वामित्र आज बड़े ही भावविभोर होकर ऋषि कहोड़ की साधना का बखान कर रहे थे। ऋषि कहोड़ भी बस मौन हो सुने जा रहे थे। वह अपने गहरे में इतने आत्मलीन थे कि उन्हें कहीं कुछ स्पर्श ही नहीं कर रहा था। बस अपलक हो शून्य में वे कुछ निहारे जा रहे थे, जबकि ब्रह्मर्षि आनन्द में निमग्न हो उत्साह से कह रहे थे- ‘‘जिसके अन्तःकरण का स्वरूप व सत्य बदल जाता है, उसके सोचने, देखने, करने और जीवन की समस्त अनुभवों-अनुभूतियों का रंग-ढंग बदल जाता है।

साधक के साधनाजीवन में यही घटित होता है फिर उसका पथ व मत कोई भी क्यों न हो? मेरा स्वयं का अनुभव भी यही है और अन्यों का भी कुछ ऐसा ही होगा। फिर भक्ति और भक्त की बात ही निराली है। उसका तो समूचा अन्तःकरण ही अपने आराध्य में लीन हो जाता है। यह सच है कि मैंने भी गायत्री साधना की है और ऋषि कहोड़ ने भी भगवती गायत्री की साधना की है परन्तु दोनों में भारी फर्क है। मेरे तप के तीव्र उपक्रम हमेशा ही किसी न किसी प्रयोजनवश हुए हैं, भले ही ये प्रयोजन लोकहितकारी ही क्यों न हो। सदा ही मैंने आदिशक्ति जगन्माता से कुछ न कुछ मांगा है और सदा-सर्वदा उन करूणामयी ने मुझे अपेक्षा से अधिक व आश्चर्यजनक दिया है। प्रत्येक बार यही हुआ है और आगे कब तक और ऐसा होता रहेगा कोई पता नहीं?

परन्तु ऋषि कहोड़ ने तो मांगना कभी सीखा ही नहीं है। उन्होंने तो सर्वदा वरदायिनी वेदमाता को कुछ न कुछ दिया है। उनका प्रत्येक कर्म, समय का प्रत्येक क्षण, जीवन की हर श्वास, प्राणों का कण-कण बस वह माँ को अर्पित करते रहे। उनके भक्तिपूर्ण हृदय में कभी कोई कामना अंकुरित ही नहीं हुई। उन्होंने तो कभी आत्मकल्याण भी नहीं चाहा। बस भाव भरे मन से भवानी का अहर्निश स्मरण और उनमें स्वयं का समर्पण-विसर्जन यही उनकी साधना का क्रम रहा है। तीव्र तप के लिए उन्हें किसी विशेष अनुष्ठान की आवश्यकता कभी पड़ती ही नहीं। इनका मन तो माता के मन्त्र में इतना लीन रहता है कि उनको कभी भूख-प्यास की सुधि ही नहीं रहती। अन्य सांसारिक सुखों की तो चर्चा ही कौन करे। दुःखी अपने हों या पराये ये तो सदा उन्हें प्यार देने और उन्हें अपनाने के लिए दौड़ पड़ते हैं। इनकी भक्ति ने इन्हें दिया है अनिर्वचनीय प्रेम।’’ ब्रह्मर्षि ने ज्यों ही इस अनिर्वचनीय प्रेम शब्द का उच्चारण किया- देवर्षि पुलकित हो बीच में ही बोल पड़े-

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २०६

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

👉 समय जरा भी बर्बाद न कीजिए (भाग २)

आज समय बड़ा तंगी का है। युग पुकार-पुकार कर चेतावनी दे रहा है, ‘उठो तन्द्रा छोड़ो, हर समय काम में जुटे रहो। अपने समय के प्रत्येक क्षण का सार्थक उपयोग करो। संसार आगे बढ़ रहा है तुम बहुत पीछे छूटे जा रहे हो। अपनी, अपने परिवार और अपने समाज, राष्ट्र की उन्नति के लिए काम करो। सुस्ती, आलस्य, तुच्छ मनोरंजन, व्यर्थ की टीका-टिप्पणी करने अथवा लड़ने-झगड़ने में समय और शक्ति बरबाद मत करो। समय उस मनुष्य का विनाश कर देता है जो उसे नष्ट करता रहता है। इसलिए उठो, चेतो और हर क्षण काम में लगे रहो। जो समय जा रहा है वह बहुत मूल्यवान है। एक बार निकल जाने के बाद फिर वापस नहीं आता। वर्तमान का विकृत अभ्यास भविष्य के आगामी समय को नष्ट कर डालता है। जीवन की अवधि सीमित है। इसी सीमित अवधि में सभी कुछ कर डालना है।

युग की पुकार उपयोगी तथा शिक्षाप्रद है। समय का सदुपयोग सारी उन्नतियों का मूलमन्त्र है। राष्ट्र, देश, समाज पिछड़ा हुआ है, व्यक्तिगत उन्नति रुकी हुई है। यह सब अभियान समय का सदुपयोग करने से आगे बढ़ेगा। आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता तथा ठल्लेनवीसी हानिकारक है। इससे शरीर सुस्त और मन मृत जैसा हो जाता है। कार्यक्षमता कम हो जाती है, दक्षता कुण्ठित हो जाती है, मनुष्य संकीर्णता के दायरे में पड़ा-पड़ा मर जाता है। इसलिए जिसके पास जो कुछ समय शेष बचे उसका बुद्धिमानी पूर्वक सदुपयोग करते ही रहना चाहिये। एक नहीं ऐसे अनेक कार्य हो सकते हैं जो फालतू समय में पिये जा सकते हैं। उनसे आर्थिक लाभ भी हो सकता है और मनोरंजन की आवश्यकता भी पूरी हो सकती है।

निश्चय ही हर सामान्य व्यक्ति के पास बहुत-सा फालतू समय बचता है। परन्तु सभी यह शिकायत करते देखे जाते हैं कि उनके पास समय की कमी है। मारे काम-काज और दौड़-धूप के दम मारने की फुरसत नहीं मिलती। लेकिन यह बात सत्य से दूर है। उन्हें काम की बहुतायत तथा समय की कमी का भ्रम बना रहता है। यह भ्रम पैदा होने का कारण है। वह यह कि लोग अपना सारा काम अव्यवस्थित तथा अस्त-व्यस्त ढंग से किया करते हैं। जिससे जिस काम में जितना समय लगना चाहिये उससे कहीं अधिक लग जाता है। काम पूरे नहीं हो पाते और सदैव सिर पर सवार रहते हैं। दिन निकल जाता है, रात आ जाती है और बहुत से काम अनकिये पड़े रहते हैं। लोग यह समझते हैं कि उनके पास काम अधिक है और समय कम, जिससे वे हर समय परेशान और व्यग्र रहते हैं।

यह काम का बटवारा समय के अनुसार रहे और निर्धारित समय के लिए निश्चित किया हुआ काम तत्परता पूर्वक एक क्षण भी नष्ट किये बिना पूरी तन्मयता और शक्ति से किया जाए तो कोई भी काम अपेक्षित समय से अधिक समय न ले। सारे काम समय से पूरे हो जायेंगे। लोग समय और काम का बटवारा करते नहीं। जब जिस काम को चाहा पकड़ लिया और जिसको चाहा छोड़ दिया। काम का समय है लेकिन अलसा रहे हैं। करने के लिए अभी सोच ही रहे हैं। या धीरे-धीरे कर रहे हैं। बैठकर सुस्ताने लगे। ये ऐसे दोष हैं जो समय तो खराब कर ही देते हैं और साथ ही किसी काम को पूरी सफलता के साथ पूरा भी नहीं होने देते। निदान समय का अभाव बना रहता है और काम पड़े रहते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

गुरुवार, 20 जनवरी 2022

👉 सत्य के तीन पहलू

भगवान बुद्ध के पास एक व्यक्ति पहुँचा। बिहार के श्रावस्ती नगर में उन दिनों उनका उपदेश चल रहा था। शंका समाधान के लिए- उचित मार्ग-दर्शन  के लिए लोगों की भीड़ उनके पास प्रतिदिन लगी रहती थी।

एक आगन्तुक ने पूछा- क्या ईश्वर है? बुद्ध ने एक टक उस युवक को देखा- बोले, “नहीं है।” थोड़ी देर बाद एक दूसरा व्यक्ति पहुँचा। उसने भी उसी प्रश्न को दुहराया- क्या ईश्वर हैं? इस बार भगवान बुद्ध का उत्तर भिन्न था। उन्होंने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा- “हाँ ईश्वर है।” संयोग से उसी दिन एक तीसरे आदमी ने भी आकर प्रश्न किया- क्या ईश्वर है? बुद्ध मुस्कराये और चुप रहे- कुछ भी नहीं बोले। अन्य दोनों की तरह तीसरा भी जिस रास्ते आया था उसी मार्ग से वापस चला गया।

आनन्द उस दिन भगवान बुद्ध के साथ ही था। संयोग से तीनों ही व्यक्तियों के प्रश्न एवं बुद्ध द्वारा दिए गये उत्तर को वह सुन चुका था। एक ही प्रश्न के तीन उत्तर और तीनों ही सर्वथा एक-दूसरे से भिन्न, यह बात उसके गले नहीं उतरी। बुद्ध के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा- अविचल निष्ठा थी पर तार्किक बुद्धि ने अपना राग अलापना शुरू किया, आशंका बढ़ी। सोचा, व्यर्थ आशंका-कुशंका करने की अपेक्षा तो पूछ लेना अधिक उचित है।

आनन्द ने पूछा- “भगवन्! धृष्टता के लिए क्षमा करें। मेरी अल्प बुद्धि बारम्बार यह प्रश्न कर रही है कि एक ही प्रश्न के तीन व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न उत्तर क्यों? क्या इससे सत्य के ऊपर आँच नहीं आती?"

बुद्ध बोले- “आनन्द! महत्व प्रश्न का नहीं है और न ही सत्य का सम्बन्ध शब्दों की अभिव्यक्तियों से है। महत्वपूर्ण वह मनःस्थिति है जिससे प्रश्न पैदा होते हैं। उसे ध्यान में न रखा गया- आत्मिक प्रगति के लिए क्या उपयुक्त है, इस बात की उपेक्षा की गयी तो सचमुच  ही सत्य के प्रति अन्याय होगा। पूछने वाला और भी भ्रमित हुआ तो इससे उसकी प्रगति में बाधा उत्पन्न होगी।"

उस सत्य को और भी स्पष्ट करते हुए भगवान बुद्ध बोले-  "प्रातःकाल सर्वप्रथम जो व्यक्ति आया था, वह था तो आस्तिक पर उसकी निष्ठा कमजोर थी। आस्तिकता उसके आचरण में नहीं, बातों तक सीमित थी। वह मात्र अपने कमजोर विश्वास का समर्थन मुझसे चाहता था। अनुभूतियों की गहराई में उतरने का साहस उसमें न था। उसको हिलाना आवश्यक था ताकि ईश्वर को जानने की सचमुच ही उसमें कोई जिज्ञासा है तो उसे वह मजबूत कर सके इसलिए उसे कहना पड़ा- “ईश्वर नहीं है।”

"दूसरा व्यक्ति नास्तिक था। नास्तिकता एक प्रकार की छूत की बीमारी है जिसका उपचार न किया गया तो दूसरों को भी संक्रमित करेगी। उसे अपनी मान्यता पर अहंकार और थोड़ा अधिक ही विश्वास था। उसे भी समय पर तोड़ना जरूरी था। इसलिए कहना पड़ा- “ईश्वर है।” इस उत्तर से उसके भीतर आस्तिकता के भावों का जागरण होगा। परमात्मा की खोज के लिए आस्था उत्पन्न होगी। उसकी निष्ठा प्रगाढ़ है। अतः उसे दिया गया उत्तर उसके आत्म विकास में सहायक ही होगा।"

"तीसरा व्यक्ति सीधा-साधा, भोला था। उसके निर्मल मन पर किसी मत को थोपना उसके ऊपर अन्याय होता। मेरा मौन रहना ही उसके लिए उचित था। मेरा आचरण ही उसकी सत्य की खोज के लिए प्रेरित करेगा तथा सत्य तक पहुँचायेगा।”

आनन्द का असमंजस दूर हुआ। साथ ही इस सत्य का अनावरण भी कि महापुरुषों द्वारा एक ही प्रश्न का उत्तर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न क्यों होता है? साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि सत्य को शब्दों में बाँधने की भूल कभी भी नहीं की जानी चाहिए।

👉 समय जरा भी बर्बाद न कीजिए (भाग १)

समय को सम्पत्ति कहा गया है। यह गलत भी नहीं है। समय का सदुपयोग करके ही लोग धनवान बनते हैं, विद्वान तथा कर्तृत्ववान बनते हैं। कभी किसी प्रकार भी एक क्षण खराब करना अपनी बड़ी हानि करना है।

जिस प्रकार समय का सदुपयोग लाभकारी होता है उसी प्रकार समय का दुरुपयोग हानिकारक होता है। खाली हाथ बैठा नहीं जा सकता। मनुष्य यदि कोई शारीरिक कार्य न करता हो तो उसके मानसिक तरंग दौड़ रहे होंगे। जिन विचारों के पीछे उद्देश्य नहीं होता, जिनके उपयोग की कोई योजना नहीं होती वे मन मस्तिष्क को विकृत कर देते हैं। फिजूल की कल्पनायें मन में इच्छाओं का जागरण कर देती हैं, ऐसी इच्छायें जिनका कोई स्पष्ट स्वरूप नहीं होता, यों ही मन में उमड़-घुमड़ कर मनुष्य को इधर-उधर लिए घूमती हैं। ऐसी इच्छाओं में काम-वितर्क जैसी विकृत इच्छायें ही अधिक होती हैं।

चौबीस घण्टों में ज्यादा से ज्यादा सामान्य लोग आठ-दस घण्टे ही काम किया करते हैं। बाकी का समय उनके पास बेकार ही रहता है। उस बेकार समय में आठ घण्टे के लगभग नहाने-धोने, सोने में निकल जाते हैं, तब भी उसके पास चार-छह घण्टे तक का समय बिल्कुल बेकार रहता है। इस समय में या तो लोग इधर-उधर मारे-मारे घूमते हैं या यार-दोस्तों के साथ गप मारते, ताश-चौपड़ या शतरंज खेलते हैं। बहुत लोग इसी समय में सिनेमा या स्वांग देखने  जाते हैं या घर में ही बैठ कर पत्नी से मुंह-जोरी या बच्चों पर शासन चलाते हैं, जिससे गृह-कलह होती है। घर का वातावरण खराब होता, बच्चों की हंसी-खुशी मिट जाती है। तात्पर्य यह है कि अपने खाली समय में लोग कुछ ऐसा ही काम किया करते हैं जिसका कोई लाभ तो होता ही नहीं उल्टे कोई हानि या बुराई ही पैदा होती है।

यदि मनुष्य शेष समय का सार्थक सदुपयोग करना सीख जाए तो बहुत-सी बुराइयों से बच जाय और कुछ लाभ भी उठा सकता है। समय का सदुपयोग ही उन्नति का मूल-मन्त्र है। स्त्रियों के पास तो पुरुषों से भी अधिक फालतू समय बचता है। भोजन बनाने खिलाने के उपरान्त उनके पास कोई काम नहीं रहता। काम से निपट कर या तो पड़ी-पड़ी अलसाया करती हैं, या सोया करती हैं अथवा दूसरी स्त्रियों के साथ बैठ कर बातें करेंगी। निन्दा और आलोचना-प्रत्यालोचना का प्रसंग चलायेंगी और कोई बहाना मिल जाने से लड़ाई-झगड़ा करेंगी। फालतू रहना झगड़े-फसाद को आमन्त्रित करना है। यदि पढ़ी-लिखी हुई तो मासिक पत्र-पत्रिकायें और उपन्यास वगैरह पढ़ती रहेंगी सो भी निरुद्देश्य। न ज्ञान के लिए, न स्वास्थ्य, मनोरंजन के लिए, केवल अपना यह फालतू समय काटने के लिये।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १०३)

भक्त स्वयं तरता है और औरों को भी तारता है

गायत्री महाविद्या के महाविज्ञान के अन्वेषक ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने महर्षि कहोड़ से कहा- ‘‘हे ऋषिप्रवर! भक्ति और भक्त किसी भी विज्ञान एवं वैज्ञानिक से श्रेष्ठ हैं क्योंकि विज्ञान एवं वैज्ञानिक तो बस जीवन एवं जगत की छुट-पुट समस्याओं का समाधान करते हैं परन्तु भक्ति एवं भक्त तो जीवन एवं जगत के तारनहार हैं। वह न केवल स्वयं को बल्कि सम्पूर्ण प्राणियों को भवसागर से पार लगाते हैं।’’ महर्षि विश्वामित्र के इस कथन ने देवर्षि नारद को उत्साहित किया। वह प्रसन्न हो उठे। उन्होंने कहा- ‘‘हे ब्रह्मर्षि! आप सत्य कहते हैं। भक्ति एवं भक्त दोनों ही दुर्लभ हैं। यह जहाँ और जिसको सुलभ हो, वह स्थान एवं वह व्यक्ति धन्य हो जाता है। आज हम सब भी धन्य एवं कृतार्थ हैं- क्योंकि महर्षि कहोड़ आज यहाँ हैं, जिनका प्रकाश हम सभी के अन्तःकरण को प्रकाशित कर रहा है।’’

इतना कहकर देवर्षि कुछ पलों के लिए मौन रहे, फिर बोले- ‘‘यदि आप सब अनुमति दें, तो मैं अपने अगले भक्तिसूत्र का उच्चार करूँ।’’ देवर्षि नारद के इस कथन ने ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के साथ महर्षि कहोड़ को भी उत्साहित किया। उत्साहपूरित होकर महर्षि कहोड़ ने कहा- ‘‘हे देवर्षि नारद! मैं तो आपके सूत्रों का ही श्रवण करने यहाँ आया हूँ। आप जैसे परम भगवद्भक्त से भक्ति की बात सुनकर मैं स्वयं को कृतार्थ अनुभव करूँगा।’’ ऋषि कहोड़ के इतना कहने पर ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने कहा- ‘‘आप अपना सूत्र कहें देवर्षि, क्योंकि मेरा विश्वास है कि आप अपने सूत्र के सत्य एवं तत्त्व को वेदमाता गायत्री के परम भक्त महर्षि कहोड़ के व्यक्तित्व में साकार एवं चरितार्थ होता अनुभव करेंगे।’’
‘‘आपके विश्वास में मेरा विश्वास भी सम्मिलित है ब्रह्मर्षि।’’ इतना कहने के साथ देवर्षि नारद ने कहा-
‘स तरति स तरति स लोकांस्तारयति’॥ ५०॥
वह तरता है, वह तरता है, वह लोगों को तार देता है।

‘‘अद्भुत! विलक्षण!! किन्तु सर्वथा सत्य!!!’’ इसे सुनकर अनेकों के मुख से बरबस निकल पड़ा। हाँ! ऋषि कहोड़ अवश्य मौन बने रहे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का हर्षातिरेक उनके मुख पर छलक आया। उन्होंने कहा- ‘‘देवर्षि!  ऋषि कहोड़ की भक्ति का और उन पर उड़ेले जा रहे भगवती वेदमाता के अनुराग का मैं स्वयं साक्षी हूँ। यदि आप अनुमति दे तो मैं कुछ कहूँ।’’ ‘‘अवश्य भगवन्! यह आपकी हम सभी पर कृपा होगी’’।

देवर्षि के कथन का समर्थन अन्य ऋषिगणों ने भी किया। सभी की बातें सुनकर ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने कहा- ‘‘तप, योग, ध्यान, ज्ञान आदि जितनी भी आध्यात्मिक साधनाएँ हैं, वे सभी जीवन में सत्त्वगुण को बढ़ाने वाली हैं परन्तु फिर भी इनमें कहीं न कहीं, रजस का प्रभाव बना रहता है। फिर भले ही यह कितना ही कम क्यों न हो परन्तु भक्त एवं भक्ति की श्रेणी अलग है। यह शुद्धतम सत्त्व है, यह न तो तमस की छाया है और न ही रजस का कोई प्रभाव। उल्टे एक परम आश्चर्य यहाँ घटित होता है। वह आश्चर्य यह है कि यदि भक्ति एवं भक्त अपने में यदि सत्य हो तो उनके स्पर्श एवं सान्निध्य मात्र से रजस एवं तमस भी सत्त्व की शुद्धता में रूपान्तरित हो जाते हैं। यही कारण है कि भक्त न केवल स्वयं को तारता है बल्कि लोक के सभी प्राणियों को तारने का कारण बनता है और ऐसा करने के लिए उसे कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं रहती है। उसका स्पर्श एवं सान्निध्य ही इसके लिए पर्याप्त है। इसी से जीवों के जीवन का स्वतः रूपान्तरण हो जाता है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १९७

बुधवार, 19 जनवरी 2022

👉 तटस्थ रहिए—दुःखी मत हूजिये (भाग ३)

जिस प्रकार आवश्यकता को अविष्कार की जननी कहा जाता है इसी प्रकार दुःख को सुख का जनक मान लिया जाय तो अनुचित न होगा। जिसके सम्मुख दुःख आते हैं वही सुख के लिये प्रयत्न करता है। जिसने गरीबी से टक्कर ली है वही अर्थाभाव दूर करने के लिये अग्रसर होगा। दुःख, तकलीफ ही पुरुषार्थी व्यक्ति की क्रियाशीलता पर धार रखती हैं उस पर पानी चढ़ाती हैं। अन्यथा मनुष्य निकम्मा तथा निर्जीव होकर एक मृतक तुल्य बन कर रह जाये।

सुख में अत्यधिक प्रसन्न होना भी दुःख का एक विशेष कारण है। यह साधारण नियम है कि जो अनुकूल परिस्थितियों में खुशी से पागल हो उठेगा, उसी अनुपात से प्रतिकूल परिस्थितियों में दुःखी होगा। सुख प्रसन्नता का कारण होता है, किन्तु इसका अर्थ कदापि नहीं कि आप उसमें इतना प्रसन्न हो जायें कि आपकी अनुभूतियां सुख की ही गुलाम बन कर रह जाये। वे प्रसन्नता परक परिस्थितियों की ही अभ्यस्त हो जायें। ऐसा होने से आपकी सहन शक्ति समाप्त हो जायेगी और जरा-सा भी कारण उपस्थित होते ही आप अत्यधिक दुःखी होने लगेंगे। अस्तु दुःख से बचने का एक उपाय यह भी है कि सुख की दशा में भी बहुत प्रसन्न न हुआ जाये। सन्तुलन पूर्ण तटस्थ अवस्था का अभ्यास इस दिशा में बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। तटस्थ भाव सिद्ध करने के लिये दुःख से नहीं सुख से अभ्यास करना होगा। जब-जब मनोनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हों, सुख का अवसर मिले तब तब साधारण मनोभाव से उसका स्वागत कीजिये। हर्षातिरेकता में न आइये। इस प्रकार प्रसन्नावस्था में जो कार्य किया अथवा सीखा जाता है वह जल्दी सीखा जा सकता है।
हर्ष के समय जो अपना संतुलन बनाये रखता है, विषाद के अवसर पर भी वह सुरक्षित रहता है। दुःख-सुख में समान रूप से तटस्थ रहना इसलिये भी आवश्यक है कि अतिरेकता के समय किसी बात का ठीक निर्णय नहीं किया जा सकता। हर्ष के समय ठीक बात भी गलत लगती है। इस प्रकार बुद्धि भ्रम हो जाने से दुःख के कारणों की कोई कमी नहीं रहती। हर्ष के समय जब हमें किसी की कोई बात अथवा काम गलत होने पर भी ठीक लगेगी तो फिर भ्रम वश किसी समय भी वैसा कर सकते हैं और तब हमें क्षोभ होगा, जिससे दुखी होना स्वाभाविक ही है।

किसी मनुष्य की भावुकता जब अपनी सीमा पार कर जाती है तो वह भी दुःख का विशेष कारण बन जाती है। अत्यधिक भावुक तुनुक मिज़ाज हो जाता है। एक बार वह सुख में भले ही प्रसन्न न हो किन्तु मन के प्रतिकूल परिस्थितियों में वह अत्यधिक दुःखी हुआ करता है। अत्यधिक भावुक कल्पनाशील भी हुआ करता है। वे इसके एक छोटे से आघात को पहाड़ जैसा अनुभव करता है। एक क्षण दुख के लिये घंटों दुःखी रहता है। जिन बहुत सी घटनाओं को लोग महत्वहीन समझ कर दूसरे दिन ही भूल जाया करते हैं भावुक व्यक्ति उनको अपने जीवन का एक अंग बना लेता है, स्वभाव का एक व्यसन बना लिया करता है।

भावुक व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संवेदनशील होता है। यहां तक कि एक बार दुःखी व्यक्ति तो अपना दुःख भूल सकता है किन्तु भावुक व्यक्ति उसके दुःख को अपनाकर महीनों दुःखी होता रहता है। आवश्यक भावुकता तथा संवेदनशीलता ठीक है किन्तु इसका सीमा से आगे बढ़ जाना दुःख का कारण बन जाता है।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य


👉 भक्तिगाथा (भाग १०३)

भक्त स्वयं तरता है और औरों को भी तारता है

प्रतीक्षा के क्षण पूरे हुए। महर्षि कहोड़ के अधरों पर हल्का सा स्मित झलका। उनकी आँखों की चमक और गहरी हुई, माथे की रेखाएँ अचानक बनीं और मिटीं। सभी उपस्थित जनों को लगा महर्षि कुछ कहना चाहते हैं। उनके चेहरे के भावों में भी कई उतार-चढ़ाव आए। हालांकि, महर्षि कहोड़ अभी मौन थे, उन्होंने अभी तक कुछ कहा नहीं था पर यह जरूर लग रहा था कि वह कुछ कहने के लिए उत्सुक हैं। उनकी मुखभंगिमा देखकर वहाँ उपस्थित ऋषियों, देवों, गन्धर्वों, सिद्धों, विद्याधरों की उत्सुकता अवश्य बढ़ गयी क्योंकि सभी ने महर्षि के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। सब जानते थे कि वे वेदमाता के वरदपुत्र हैं। वरदायिनी वेदमाता उनके हृदय में विराजती हैं। उनकी अटूट, निष्काम एवं निष्कपट भक्ति से स्वयं सृष्टिजननी भी उनसे सम्मोहित हैं।

आदिशक्ति जगन्माता को अपने इस पुत्र पर सदा से गर्व रहा है और पुत्र तो ऐसा कि उसने माँ के स्मरण और समर्पण को ही सब कुछ मान लिया है। ऐसे महर्षि कहोड़ ने जब कहना शुरू किया तो सबकी सांसें थम गयीं। हिमालय के आंगन में वायु की गति भी ठहर गयी और सूर्यदेव तो बस अपना रथ रोककर सावित्री के इस श्रद्धावान भक्त को बस देखे जा रहे थे। महर्षि कहोड़ कह रहे थे, ‘‘कोई भी निष्काम कर्म जब सम्पूर्ण भक्ति से भगवती को अर्पण किया जाता है, तो स्वतः ही चित्त-चिन्तन एवं चेतना परिष्कृत हो जाते हैं। इस निष्काम कर्मयज्ञ को करने से तप करने की योग्यता का विकास होता है। तप की यह प्रक्रिया स्थूल न होकर सूक्ष्म में होती है। इसकी तपन में चित्त की सभी अशुद्धियों का हवन होता है और घटित होता है एक अपूर्व रूपान्तरण।

इस तप से चित्त स्फटिकवत निर्मल हो जाता है। तब इसमें समस्त ज्ञान प्रकट होता है। चर-अचर, जड़-चेतन, प्रकृति के सभी रूप-आकारों, लोक-लोकान्तरों, चौदह भुवनों एवं इसमें बसने वाली सभी स्थूल-सूक्ष्म प्रजातियों का लौकिक एवं अलौकिक ज्ञान। प्रकृति एवं परमेश्वर का तत्त्व ज्ञान। ऐसा समस्त ज्ञान जो संसार के अतीत-वर्तमान एवं भविष्य में हो चुके, हो रहे एवं होने वाले ऋषियों-मनीषियों में उदय होना सम्भव है, वह सबका सब स्वतः ही अनायास प्रकट हो जाता है। इस ज्ञान के प्रकट होने पर, इसे आत्मसात करने पर, इससे तदाकार होने पर प्रकट होती है- पराभक्ति, जो जीवात्मा को ज्ञान के पार ले जाती है। ऐसा भक्त सचमुच ही सभी वेदों के पार चला जाता है। तब स्वतः ही बिना किसी प्रयास के वह वेदों से भी संन्यास ले लेता है क्योंकि तब उसमें ज्ञान नहीं, बल्कि परमेश्वरी की परात्पर चेतना के प्रति अखण्ड, असीम, अपरिछिन्न अनुराग प्रतिष्ठित होता है।’’

महर्षि कहोड़ के इस सारगर्भित कथन को सभी आश्चर्यजड़ित हो सुन रहे थे। महर्षि कहोड़ के द्वारा कहा गया प्रत्येक शब्द उनके लिए स्वाति नक्षत्र की बूंदो के समान था, जिसे वे सब चातकों की भांति ग्रहण-धारण कर रहे थे क्योंकि इस सत्य की सभी को स्पष्ट अनुभूति हो रही थी कि महर्षि कहोड़ वही कह रहे हैं, जिसे उन्होंने अपने जीवन में अनुभव किया है। ऋषि कहोड़ की इन बातों ने सबके साथ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र को भी प्रेरित, पुलकित एवं प्रभावित किया। इस सच को सभी जानते थे कि ब्रह्मर्षि विश्वामित्र इस सृष्टि के परम तपस्वी हैं। उनके पास तप शक्ति का महाकोष है। इस अकूत-अनन्त तपशक्ति के अतिरिक्त वह सृष्टि की सभी परा व अपरा विद्याओं के मर्मज्ञ-विशेषज्ञ भी हैं लेकिन आज सभी पहली बार ब्रह्मर्षि विश्वामित्र को भावविभोर होते हुए देख रहे थे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १९६

मंगलवार, 18 जनवरी 2022

👉 तटस्थ रहिए—दुःखी मत हूजिये (भाग २)

दुर्भावनापूर्ण व्यक्ति अपने निजी सुख के लिये कुछ ऐसे काम भी करने की कामना कर सकता है जो शासन तथा समाज की दृष्टि में अवांछनीय हों। दुर्भावनायें प्रायः होती ही समाज विरोधिनी हैं। ऐसी दशा में जब वह दण्ड के भय से उन्हें नहीं कर पाता तो मन ही मन दुःखी होता रहता है और उसके पाले हुये अविचारों के अतृप्त प्रेत उसे प्रति क्षण पीड़ा देते रहते हैं। अविचारी का अपना कोई मित्र नहीं होता। सारा मानव समाज ऐसे व्यक्ति से घृणा किया करता है और ऐसी दशा में किसी का दुःखी न होना किस प्रकार सम्भव हो सकता है?

इसके विपरीत जो व्यक्ति सद्भावना पूर्ण है, जिसके हृदय में दूसरों के लिये हितकर भाव है, जो सबको अपना समझता है, सबके हित में अपना हित मानता है, वही डाह तथा ईर्ष्या द्वेष से सर्वथा मुक्त रहता है। जिसका हृदय स्वच्छ है, निर्मल है उसके हृदय में मलीनताजन्य कीटाणु उत्पन्न ही न होंगे। निर्विकार हृदय व्यक्ति को न ईर्ष्या के सर्प डसते हैं और न डाह के बिच्छू डंक मारते हैं। वह सदा सुखी तथा प्रसन्न रहता है।

सबके प्रति सद्भावना रखने वाला बदले में सद्भावना ही पाता है जो उसे सब प्रकार से शीतल और शांत रखती है। सब के हित में अपना हित देखने वाला प्रत्येक के अभ्युदय से प्रसन्न ही होता है। दूसरों की उन्नति में सहायता करता है और बदले में सहयोग पाकर सुखी वह सन्तुष्ट होता है। दुर्भावना तथा सद्भावना रखने वाले दो व्यक्तियों की स्थिति में वही अन्तर रहता है जो विष से मरणासन्न और अमृत से परितृप्त तथा प्रसन्न व्यक्ति में।

सुख की अत्यधिक चाह भी दुःख का कारण है। हर समय हर क्षण तथा हर परिस्थिति में सुख के लिये लालायित रहना एक निकृष्ट हीन भावना है। इस क्षण-क्षण परिवर्तनशील तथा द्वन्द्वात्मक संसार में हर समय सुख कहां? जो सम्भव नहीं उसकी कामना करना असंगत ही नहीं अबुद्धिमत्ता भी है। दुःख उठाकर ही सुख पाया जा सकता है। साथ ही दुःख के अत्यन्ताभाव में सुख का कोई मूल्य महत्व भी नहीं है। विश्रांति के बाद ही विश्राम का मूल्य है। भूख प्यास से विकल होने पर ही भोजन का स्वाद है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

शनिवार, 15 जनवरी 2022

👉 असली शांति

एक राजा था जिसे चित्रकला से बहुत प्रेम था। एक बार उसने घोषणा की कि जो कोई भी चित्रकार उसे एक ऐसा चित्र बना कर देगा जो शांति को दर्शाता हो तो वह उसे मुँह माँगा पुरस्कार देगा।

निर्णय वाले दिन एक से बढ़ कर एक चित्रकार पुरस्कार जीतने की लालसा से अपने-अपने चित्र लेकर राजा के महल पहुँचे। राजा ने एक-एक करके सभी चित्रों को देखा और उनमें से दो चित्रों को अलग रखवा दिया। अब इन्ही दोनों में से एक को पुरस्कार  के लिए चुना जाना था।

पहला चित्र एक अति सुंदर शांत झील का था। उस झील का पानी इतना स्वच्छ  था कि उसके अंदर की सतह तक दिखाई दे रही थी। और उसके आस-पास विद्यमान हिमखंडों की छवि उस पर ऐसे उभर रही थी मानो कोई दर्पण रखा हो। ऊपर की ओर नीला आसमान था जिसमें रुई के गोलों के सामान सफ़ेद बादल तैर रहे थे। जो कोई भी इस चित्र को देखता उसको यही लगता कि शांति को दर्शाने के लिए इससे अच्छा कोई चित्र हो ही नहीं सकता। वास्तव में यही शांति का एक मात्र प्रतीक है।

दूसरे चित्र में भी पहाड़ थे, परंतु वे बिलकुल सूखे, बेजान, वीरान थे और इन पहाड़ों के ऊपर घने गरजते बादल थे जिनमें बिजलियाँ चमक रहीं थीं…घनघोर वर्षा होने से नदी उफान पर थी… तेज हवाओं से पेड़ हिल रहे थे… और पहाड़ी के एक ओर स्थित झरने ने रौद्र रूप धारण कर रखा था। जो कोई भी इस चित्र को देखता यही सोचता कि भला इसका ‘शांति’ से क्या लेना देना… इसमें तो बस अशांति ही अशांति है।

सभी आश्वस्त थे कि पहले चित्र बनाने वाले चित्रकार को ही पुरस्कार मिलेगा। तभी राजा अपने सिंहासन से उठे और घोषणा की कि दूसरा चित्र बनाने वाले चित्रकार को वह मुँह माँगा पुरस्कार देंगे। हर कोई आश्चर्य में था!

पहले चित्रकार से रहा नहीं गया, वह बोला, “लेकिन महाराज उस चित्र में ऐसा क्या है जो आपने उसे पुरस्कार देने का फैसला लिया… जबकि हर कोई यही कह रहा है कि मेरा चित्र ही शांति को दर्शाने के लिए सर्वश्रेष्ठ है?”

“आओ मेरे साथ!”, राजा ने पहले चित्रकार को अपने साथ चलने के लिए कहा।दूसरे चित्र के समक्ष पहुँच कर राजा बोले, “झरने के बायीं ओर हवा से एक ओर झुके इस वृक्ष को देखो। उसकी डाली पर बने उस घोंसले को देखो… देखो कैसे एक चिड़िया इतनी कोमलता से, इतने शांत भाव व प्रेमपूर्वक अपने बच्चों को भोजन करा रही है…”

फिर राजा ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों को समझाया, “शांत होने का अर्थ यह नहीं है कि आप ऐसी स्थिति में हों जहाँ कोई शोर नहीं हो…कोई समस्या नहीं हो… जहाँ कड़ी मेहनत नहीं हो… जहाँ आपकी परीक्षा नहीं हो… शांत होने का सही अर्थ है कि आप हर तरह की अव्यवस्था, अशांति, अराजकता के बीच हों और फिर भी आप शांत रहें, अपने काम पर केंद्रित रहें… अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहें।”

अब सभी समझ चुके थे कि दूसरे चित्र को राजा ने क्यों चुना है।
 
मित्रों, हर कोई अपने जीवन में शांति चाहता है। परंतु प्राय: हम ‘शांति’ को कोई बाहरी वस्तु समझ लेते हैं, और उसे दूरस्थ स्थलों में ढूँढते हैं, जबकि शांति पूरी तरह से हमारे मन की भीतरी चेतना है, और सत्य यही है कि सभी दुःख-दर्दों, कष्टों और कठिनाइयों के बीच भी शांत रहना ही वास्तव में शांति है।

👉 तटस्थ रहिए—दुःखी मत हूजिये (भाग १)

‘‘संसार-दुख-सागर है’’—ऐसी मान्यता रखने वाले प्रायः वे ही लोग हुआ करते हैं जो अपनी दुर्बलताओं के कारण संसार में सुख-दर्शन नहीं कर पाते। उनकी यह मान्यता ही बतलाती है कि वे कितने दुखी रहने वाले व्यक्ति होंगे। ऐसे व्यक्तियों के लिये संसार की प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया, प्रत्येक परिस्थिति तथा घटना दुःख-दायी ही होती है—और होनी भी चाहिये। जिसका विश्वास बन चुका है कि संसार दुःख-सागर है उसे इस दुनिया में सिवाय दुःख के और क्या हाथ आ सकता है? ऐसी निराशापूर्ण भावना बना लेने वाला जीवन भर रोने, झींखने, चिढ़ाने और कुढ़ाने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकता है? दूसरे को हंसते, खेलते, खाते-पीते, बोलते, बात करते और प्रसन्न रहते देख कर ईर्ष्या करता और मन ही मन जलता रहता है। ऐसे व्यक्ति को औरों का हंसना, बोलना अपने पर व्यंग मालूम होता है, अपना उपहास-सा प्रतीत होता है। हंसना, बोलना ही नहीं दूसरों का रोना धोना भी उसे अच्छा नहीं लगता। किसी का हंसना, प्रसन्न होना तो ईर्ष्या के कारण नहीं भाता और खुद के दुःख को उत्तेजित करने के कारण किसी के रोने-धोने में भी बुरा मानता है। निःसन्देह, ऐसे दुःख-प्रवण व्यक्तियों का जीवन एक भयंकर अभिशाप बन जाता है।

दुःखों के कारणों में दुर्भावनायें भी बहु बड़ा कारण है। दुर्भावनायें एक भयंकर रोग की तरह हैं। जिसको लग जाती हैं, जिसके हृदय में बस जाती हैं, उसे कहीं का नहीं रखती हैं। दुर्भावना वाले व्यक्ति का जीवन प्रतिक्षण दुःखी रहता है।

दुर्भावनाओं में अधिकतर दूसरों का अहित करने का ही भाव निहित रहता है। दुर्भावनाओं वाला व्यक्ति किसी का थोड़ा-सा भी अभ्युदय नहीं देख सकता। किसी के अभ्युदय से अपनी कोई हानि न होने पर भी ऐसा व्यक्ति यही प्रयत्न करता है कि अमुक व्यक्ति की उन्नति न हो, विकास न हो, उसे कोई सफलता न मिले। किन्तु जो प्रयत्नशील है, परिश्रम कर रहा है उसकी उन्नति तो होती है। ऐसी दशा में रोड़े अटकाने, कोसने अथवा चाहने पर भी जब किसी की उन्नति नहीं रोक पाता तो दुर्भावी व्यक्ति के लिये जलने, कुढ़ने तथा दुःखी होने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं रह जाता। इस प्रकार दुर्भावना रखने वाला व्यक्ति दुहरा दुःख पाता है—एक तो किसी का अहित चाहने पर भी उसकी असफलता तथा आत्म-प्रतारणा दण्डित करती है, दूसरे जिसका उसने अहित चाहा उसकी उन्नति उसे दिन-रात चैन न लेने देगी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १०२)

भगवत्प्रेमी ही है सच्चा भक्त

विचारों के निःशब्द स्पन्दन सब ओर सम्पूर्णता में व्याप रहे थे। महान सप्तर्षिगण; वहाँ उपस्थित सभी देवता, ऋषि, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण सभी भक्ति की सुकोमल भावनाओं से पुलकित थे। उन्हें ऐसा लग रहा था कि भक्तिगाथा का श्रवण करने के साथ उनमें काफी कुछ बदल रहा है। वे एक गहरे आन्तरिक रूपान्तरण से गुजर रहे हैं। कुछ ऐसा जैसे कि निशा-दिवस में रूपान्तरित होती है। भोर के सूरज की उजास बिना कुछ कहे ही सबको स्वतः ही परिवर्तित कर देती है, सभी स्वयं में ऐसा ही कुछ अनुभव कर रहे थे। अभी कुछ ही देर पहले सभी ब्रह्मबेला में की जाने वाली उपासना को पूर्ण करके आ जुटे थे।

पूर्व दिशा में भोर की अरूणिमा छाने लगी थी। सूर्योदय हो रहा है यह अहसास ऋषियों एवं देवों को ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण प्रकृति को भी था। एक विचित्र सी ऊर्जावान स्फूर्ति का अनुभव सभी में संव्याप्त था। इस अनोखे सिंचन से सिंचित गायत्री महामन्त्र के स्वर ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के पावन मुख से सबसे पहले निःसृत हुए। इसके बाद सभी ने मिलकर पवित्र सामगान किया। यह सामगान अभी सम्पूर्ण होने वाला ही था कि एक अनोखे ओंकार के अनहद स्वर को सबके सब अपने अन्तःकरण में महसूस करने लगे। अपनी साधना एवं समाधि में यह अनुभव पहले भी बहुतों को हो चुका था। पर इस अनुभव की विचित्रता यह थी कि अब की बार इन क्षणों में अन्तःकरण के साथ वहाँ के प्राकृतिक पर्यावरण में भी ये अनहद स्वर परिव्याप्त हो रहे थे।

इस अनोखी अनुभूति ने कहीं गहरे में सबको जता दिया कि शीघ्र ही कोई विशेष घटनाक्रम घटित होने वाला है। हालांकि, अभी तो सभी के नेत्र भगवान् भुवनभास्कर की अगवानी करने में लगे थे। सप्तवर्णी, सप्त रश्मि अश्वों पर बैठे अरूण सारथी को आगे किए सूर्यदेव आकाश मण्डल में आ विराजे थे। उनके आने से सारे अग-जग में उजियारा हो गया था। हिमालय के उत्तुंग हिमशिखर सूर्य रश्मियों की स्वर्ण राशि अपने में समेटने में लगे थे। हिमपक्षियों एवं हिमालय के वन्य पशुओं में एक नवीन संचेतना संचारित हो रही थी। उत्साह, उल्लास एवं प्राकृतिक उत्सव के इन पलों में सबके सब, तब चकित रह गए जब उन्होंने देखा सूर्यमण्डल धरा पर अवतीर्ण हो रहा है। इन क्षणों में सभी विस्मय जड़ित से हो गए। उन्हें लगने लगा कि क्या आज स्वयं सूर्यनारायण धरती पर उतर रहे हैं अथवा उनका सम्पूर्ण प्रकाश व प्रभा धारण करके स्वयं वेदमाता गायत्री अवतरित हो रही हैं।

अनेकों अन्तःकरण में ऐसे अनेक प्रश्न चुभे। हालांकि इन प्रश्नों की चुभन सुखद व मधुर थी। हाँ, सब इससे ऊहापोह में अवश्य थे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र इस विचित्र मनःस्थिति को अनुभव कर मन्द-मन्द मुस्करा रहे थे। उनकी यह रहस्यमयी मुस्कान देखकर ऋषि विवर्ण से न रहा गया और आखिर उन्होंने पूछ ही लिया- ‘‘हे ब्रह्मर्षि! आपकी इस मुस्कान का क्या अर्थ है?’’ उत्तर में विश्वामित्र ने शान्त स्वर में कहा- ‘‘कुछ अधिक नहीं महर्षि! बस जिस तेज को देखकर आप सब चकित हो रहे हैं, वह तेज परम तेजस्वी ऋषि कहोड़ का है। वे भगवती वेदमाता गायत्री के अनन्य भक्त हैं। उन्होंने अपनी भक्ति के प्रभाव से भगवती के भर्ग को इतनी सम्पूर्णता से धारण कर लिया है कि वे स्वयं सूर्य हो गए हैं।’’
‘‘किन्तु ब्रह्मर्षि?’’ ‘‘मैं आपका आशय समझता हूँ ऋषिश्रेष्ठ!’’ ऋषि विवर्ण कुछ अधिक कह पाते इसके पहले ही ब्रह्मर्षि विश्वामित्र उन्हें विनम्र स्वरों में रोकते हुए कहा- ‘‘यह सच है कि भगवती वेदमाता के महामन्त्र गायत्री का द्रष्टा ऋषि मैं हूँ। मैंने ही इसके अनोखे विज्ञान को धरती पर प्रकट किया है, परन्तु जहाँ तक बात भक्ति की है, वहाँ मैं किसी भी तरह से महर्षि कहोड़ की बराबरी नहीं कर सकता। वे अद्भुत हैं, अपूर्व हैं।’’

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र अभी कुछ और कह पाते, इतने में वह परम तेजस्वी प्रकाशपुञ्ज धरा पर अवतरित हो गया। इसके पास आने पर सबने अनुभव किया कि आश्चर्यजनक रूप से यह प्रकाशपुञ्ज सुखद एवं शीतल है। धीरे-धीरे इससे एक मानवाकृति प्रकट हुई- यह गौरवर्ण, सुन्दर देहयष्टि वाले ऋषि कहोड़ थे। जिनके सिर के केश, श्मश्रु व रोमावलि ऐसे प्रकाशित हो रहे हैं जैसे कि ये केश न होकर सूर्यरश्मियाँ हों। इनकी आँखों से निकलती प्रकाशधाराएँ तो अवर्णनीय थीं।

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने स्वयं आगे आकर उनकी अभ्यर्थना की। अन्य ऋषियों ने भी उनका स्वागत किया। देवों सहित अन्य सभी उनके तेजस्वी स्वरूप को देखकर अभिभूत थे। परन्तु स्वयं वे शिशु की भाँति सरल व निश्छल थे। उन्होंने दूर से ही देवर्षि को प्रणाम करते हुए कहा- ‘‘हे भक्ति के आचार्य! मुझे तो बस आपके सूत्रों को श्रवण करने की इच्छा यहाँ तक खींच लायी है।’’ उनका यह भावुक भोलापन देवर्षि नारद को भी गहरे से छू गया। उन्होंने बड़े आदरपूर्ण स्वरों में कहा- ‘‘मैं और मेरे सभी सूत्र आज आपका सान्निध्य पाकर कृतार्थ हैं।’’
इतना कहने के साथ देवर्षि नारद ने मधुर स्वर में कहा-
‘वेदानपिसंन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते’॥ ४९॥

जो वेदों का भी भली भाँति परित्याग कर देता है और जो अखण्ड, असीम भगवत्प्रेम प्राप्त कर लेता है।

भक्ति के महान आचार्य ऋषि नारद का यह सूत्र श्रवण करने के बाद ब्रह्मर्षि वशिष्ठ एवं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र दोनों ही लगभग एक साथ कह उठे- ‘‘हे देवर्षि! आपके इस सूत्र ने आज महर्षि कहोड़ के रूप में साकार स्वरूप धारण किया।’’ ‘‘ऐसा न कहें आप दोनों’’, थोड़ा संकुचित होते हुए ऋषि कहोड़ ने कहा। ‘‘मैंने तो बस ज्यादा कुछ न करके भगवती वेदमाता गायत्री की भक्तिपूर्ण अर्चना की है।’’ उनके इस तरह से कहने पर नारद ऋषि ने कहा- ‘‘भगवन्! आपकी सारी बातें हम सबको शिरोधार्य हैं। बस आप गायत्री भक्ति के बारे में कुछ कहें। आप जो भी कहेंगे वही मेरे सूत्र का सत्य होगा। वही उसकी व्याख्या होगी।’’

देवर्षि नारद के ऐसा कहने पर महातपस्वी कहोड़ ऋषि ने कहा- ‘‘हे भक्तप्रवर! मैंने बचपन से ही अपने पिताश्री से सुना था कि गायत्री सभी वेदों का सार है। इसके उपासक को स्वयं ही वेद का सम्पूर्ण मर्म पता चल जाता है। मैंने सोचा कि यदि ऐसा है तो फिर व्यर्थ में समय गंवाने का क्या प्रयोजन? यही सोचकर मैंने सब छोड़कर भगवती गायत्री की भक्ति प्रारम्भ की। गायत्री महामन्त्र का जप तो बस मेरे लिए सामान्य सी क्रिया थी। मेरी साधना का सत्य तो भगवती के चरणों में असीम अनुराग था। स्वयं के अस्तित्त्व एवं स्वयं की चेतना का उनमें पल-प्रतिपल अर्पण था। उनका अहर्निश स्मरण एवं उनमें सतत समर्पण था।

ऐसा करते हुए न तो कभी बोझ लगा और न कभी थकान अनुभव हुई। इस बीच अनेकों विपत्तियाँ-बाधाएँ एवं विघ्न आए। इन सबको मैंने माता का कृपाप्रसाद माना। वर्षों तक यही चलता रहा। लेकिन इसके साथ ही भगवती के भर्ग के प्रभाव से मेरा चित्त भी निर्मल होता गया और धीरे-धीरे वेद के सभी तत्त्व एवं सत्य स्वयं ही मेरे मन-अन्तःकरण में प्रकट हो गए और फिर मेरी चैतन्यता इनके पार भी चली गयी। बची रह गयी तो सिर्फ भक्ति।’’ इतना कहकर ऋषि कहोड़ शान्त हो गए। फिर उन्होंने धीमे स्वरों मे किन्तु रूंधे गले से कहा- ‘‘आगे की कथा मैं कुछ समय रूक कर कह सकूँगा-आप सब प्रतीक्षा करें।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १९४

बुधवार, 12 जनवरी 2022

👉 हित-साधना के दो प्रयाग

लुहार अपनी दुकान पर लोहे के टुकड़ों से तरह तरह की चीजें बनाता रहता है। उन टुकड़ों को वह कभी गरम करने के लिए भट्टी में तपाता है कभी पानी में डालकर ठण्डा कर लेता है। इन विसंगतियों को देखकर कोई भोला मनुष्य असमंजस में पड़ सकता है कि लुहार ने इस दुमुँही प्रक्रिया को क्यों अपना रखा है। पर वह कारीगर जानता है कि किसी लोहे के टुकड़े को बढ़िया उपकरण की शक्ल में परिणत करने के लिये दोनों ही प्रकार की ठण्डी-गरम प्रणालियों का प्रयुक्त होना आवश्यक है।

मनुष्य के जीवन में भी सुख-दुख का, धूप-छाँह का अपना महत्व है। रात-दिन की अँधेरी, उजेली, विसंगतियाँ ही तो कालक्षेप का एक सर्वांगपूर्ण विधान प्रस्तुत करती हैं। यदि मनुष्य सदा सुखी और सम्पन्न ही रहे तो निश्चय ही उसकी आन्तरिक प्रगति रूप जाएगी। जो झटके प्रगति के लिए आवश्यक हैं उन्हें ही हम कष्ट कहते हैं। इन्हें सच्चा भक्त कड़ुई औषधि की तरह ही शिरोधार्य करता है। सन्निपात का मरीज जैसे डॉक्टर को गाली देता है वैसी भूल समझदार आस्तिक ईश्वर के प्रति नहीं कर सकता।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १०१)

कर्मों का त्याग ही है सच्ची भक्ति

देवर्षि नारद के सूत्र उच्चारित करने के उपरांत ब्रह्मर्षि विश्वामित्र सुगना की कथा को आगे बढ़ाते हुए बोले- ‘‘निर्द्वन्द्वता उसमें साफ झलक रही थी। न कोई भय, न कोई शंका और न ही अभिमान। महामायिविनी-भीम भयंकर ताड़का के क्षेत्र में एकाकी-सर्वसाधन विहीन भील के मन में ऐसी निश्चिन्तता चकित कर देने वाली थी। मैंने उससे जानना चाहा- वत्स! तुम्हें यहाँ कभी कोई चिन्ता सताती है?

उत्तर में सुगना हल्के से हँस दिया और बोला- महर्षि! आप तो परमज्ञानी हैं, भली-भाँति जानते हैं कि जब ‘मैं’ होता है तो ही चिन्ता, परेशानी अथवा भय भयभीत करते हैं। लेकिन मेरा ‘मैं’ तो प्रभु के चरणों में विलीनता पा चुका है। मैं सर्वदा यह सच अनुभव करता हूँ कि बस यह देह सुगना भील की है, इसमें जो चैतन्यता अथवा क्रियाशक्ति है, वह तो स्वयं नारायण की है। मेरे प्रभु परम समर्थ हैं, जब तक वह चाहेंगे, इस देह को रखेंगे, जब नहीं चाहेंगे, यह पंचभौतिक देह, पंचभूतों में विलीन हो जाएगी।

फिर उसने अपनी ओर इंगित करते हुए कहा- इस देह से होने वाले समस्त कर्म उन्हीं के द्वारा, उन्हीं के लिए हो रहे हैं। मैं बीते वर्षों से यही अनुभव किए जा रहा हूँ कि क्रिया, कर्त्ता, कर्मफल सभी का आधार परमेश्वर नारायण ही हैं। बातचीत में कहा जाने वाला ‘मैं’ अथवा इस देह का ‘सुगना नाम’ तो बस व्यवहार निभाने के लिए है। यथार्थ अनुभव में न तो ‘मैं’ का कोई अस्तित्त्व है और न ही ‘सुगना नाम’ का। उसकी सभी बातें अद्भुत थीं। साथ ही अद्भुत था उसका भोलापन। वह अन्दर से बाहर तक सम्पूर्ण सच्चा और निष्कपट था। मेरा उसके साथ अभी तक का वार्तालाप खड़े-खड़े ही हो रहा था। अब सम्भवतः उसे चेत हुआ और उसने अपनी भावनाओं से उबरते हुए कहा- प्रभु! आप दोनों इस तरह खड़े न रहें, इधर विराज कर इस अकिंचर के कक्ष को पावन करें। ऐसा कहते हुए उसने पास के दर्भासन की तरफ इशारा किया।

मैं और ऋषि रुद्रांश दोनों ही बैठ गए। सुगना हम दोनों की ही आवभगत करने की कोशिश कर रहा था। उसने झोपड़ी में रखे हुए फल हमारे सामने रखते हुए कहा- भगवन्! यह नारायण का प्रसाद है इसे ग्रहण करें। उसका प्रेम, आदर और अपूर्व निश्छलता मेरा मन मोहित कर रही थी। मैं देख रहा था कि वह कर्म करते हुए भी करता नहीं है, और कर्मफल की उसे कोई आकांक्षा नहीं है। सचमुच ही वह अतीत, वर्तमान एवं भविष्य से ऊपर उठ चुका था। उसने न तो कोई लौकिक विद्याएँ अर्जित की थीं और न ही आध्यात्मिक विद्याओं का अर्जन कर रहा था। इन सबकी कोई चाहत भी नहीं थी उसे। उसकी दिनचर्या भी सहज थी, उसमें कोई भी कठिन व्रत, अनुष्ठान या तप का समावेश नहीं था। सम्भवतः उसे इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं थी।

अपनी स्मृतियों के झरोखे से झांकते हुए ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने कहा- सुगना से मिलने के बाद मैं जान सका कि भक्त भगवान है, क्योंकि वह भगवान की ओर सतत अग्रसर है। भक्त इसलिए भी भगवान है, क्योंकि वह भगवान होने की तरफ प्रतिक्षण रूपान्तरित हो रहा है। सत्य यही है कि भक्त निरन्तर भगवान में बदल रहा होता है। उसकी प्रत्येक प्रार्थना उसे भगवान बना रही होती है। उसकी हर पूजा उसे भगवान में बदल रही होती है। भक्तिपथ पर चलते हुए भक्त और भगवान का फासला निरन्तर कम होता जाता है। हर क्षण, हर पल यह घटित होता है और एक पल वह भी आता है जबकि भक्त अपने भगवान में होता है और भगवान अपने भक्त में होते हैं। सुगना के रूप में उस दिन मैंने इस सत्य को प्रकट देखा।’’ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की बातें सुनकर ऋषिमण्डल एवं देवमण्डल चकित रह गया। देवर्षि नारद स्वयं में अन्तर्लीन थे। सम्भवतः वह अपने अगले सूत्र के बारे में विचार कर रहे थे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १९२

सोमवार, 10 जनवरी 2022

👉 अपनी पड़ताल स्वयं करे

"दूसरों की आलोचना करने वालों को इस घटना को भी स्मरण रखना चाहिए।"

एक व्यक्ति के बारे में मशहूर हो गया कि उसका चेहरा बहुत मनहूस है। लोगों ने उसके मनहूस होने की शिकायत राजा से की। राजा ने लोगों की इस धारणा पर विश्वास नहीं किया, लेकिन इस बात की जाँच खुद करने का फैसला किया। राजा ने उस व्यक्ति को बुला कर अपने महल में रखा और एक सुबह स्वयं उसका मुख देखने पहुँचा। संयोग से व्यस्तता के कारण उस दिन राजा भोजन नहीं कर सका। वह इस नतीजे पर पहुंचा कि उस व्यक्ति का चेहरा सचमुच मनहूस है। उसने जल्लाद को बुलाकर उस व्यक्ति को मृत्युदंड देने का हुक्म सुना दिया।

जब मंत्री ने राजा का यह हुक्म सुना तो उसने पूछा,"महाराज! इस निर्दोष को क्यों मृत्युदंड दे रहे हैं? राजा ने कहा,"हे मंत्री! यह व्यक्ति वास्तव में मनहूस है। आज सर्वप्रथम मैंने इसका मुख देखा तो मुझे दिन भर भोजन भी नसीब नहीं हुआ। इस पर मंत्री ने कहा,"महाराज क्षमा करें, प्रातः इस व्यक्ति ने भी सर्वप्रथम आपका मुख देखा। आपको तो भोजन नहीं मिला, लेकिन आपके मुखदर्शन से तो इसे मृत्युदंड मिल रहा है।

अब आप स्वयं निर्णय करें कि कौन अधिक मनहूस है। "राजा भौंचक्का रह गया। उसने इस दृष्टि से तो सोचा ही नहीं था। राजा को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर मंत्री ने कहा, "राजन्! किसी भी व्यक्ति का चेहरा मनहूस नहीं होता। वह तो भगवान की देन है। मनहूसियत हमारे देखने या सोचने के ढंग में होती है।

आप कृपा कर इस व्यक्ति को मुक्त कर दें। राजा ने उसे मुक्त कर दिया। उसे सही सलाह मिली।


👉 कटु और मधु अनुभूतियाँ

माता मधुर मिष्ठान्न भी खिलाती है और आवश्यकता पड़ने पर कड़ुई दवा भी खिलाती है। दुलार से गोदी में भी उठाये फिरती है और जब आवश्यकता समझती है डॉक्टर के पास सुई लगाने या आपरेशन कराने के लिए भी ले जाती है। माता की प्रत्येक क्रिया बालक के कल्याण के लिये ही होती है, परमात्मा की ममता जीवन के प्रति माता से भी अधिक है। प्रतिकूलताएं प्रस्तुत करने में उसकी उपेक्षा या निष्ठुरता नहीं, हितकामना ही छिपी रहती है।

अपनी कठिनाइयों को हल करने मात्र के लिए, अपनी सुविधाएँ बढ़ाने की लालसा मात्र से जो प्रार्थना पूजा करते हैं वे उपासना के तत्वज्ञान से अभी बहुत पीछे हैं। उन्हें उन बालकों में गिना जाना चाहिये जो प्रसाद के लालच से मन्दिर में जाया करते हैं। ऐसे बच्चे वह आनन्द कहाँ पाते हैं जो भक्तिरस में निमग्न एक भावनाशील आस्तिक को प्रभु के सम्मुख अपना हृदय खोलने और मस्तक झुकाने में आता है। प्रभु के चरणों पर अपनी अन्तरात्मा की अर्पण करने वाले भावविभोर भक्त और प्रसाद को मिठाई लेने के उद्देश्य में खड़े हुए भिखमंगे में जो अन्तर होता है वही सच्चे और झूठे उपासकों में होता है। एक का उद्देश्य परमार्थ है दूसरे का स्वार्थ। स्वार्थी को कहीं भी सम्मान नहीं मिलता। परमात्मा की दृष्टि में भी ऐसे लोगों का क्या कुछ मूल्य होगा?

👉 भक्तिगाथा (भाग १०१)

कर्मों का त्याग ही है सच्ची भक्ति

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के भावों से भीगे हुए शब्द सभी की भावनाओं को भिगोते चले गए। हिमालय का आर्द्र वातावरण और भी आर्द्र हो उठा। हालांकि यह आर्द्रता जलीय नहीं रसमयता की थी। भक्तिरस की फुहारों ने इसे रससिक्त किया था, आर्द्र बनाया था। सुनने वाले भावविभोर विश्वामित्र को देखकर चकित थे, आश्चर्यजड़ित थे। उन्होंने अब तक कर्मकठोर विश्वामित्र को देखा था। उन्होंने कभी भी न थकने वाले, कभी भी किसी से हार न मानने वाले, विलक्षण साहसी, सतत संघर्षरत योद्धा ऋषि विश्वामित्र को देखा था, जिन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में दुर्धर्ष एवं प्रचण्ड चुनौतियों को सामना किया था और उन पर विजय पायी थी। सम्पूर्ण ऋषिमण्डल एवं देवमण्डल ने महाचुनौतियों के शिखरों पर उनके साहसिक तप की प्रज्ज्वलित पताकाएँ फहराती हुई देखी थीं। बड़ी से बड़ी चुनौतियाँ भी उनके पदाघात से चकनाचूर होती रही थीं। विरोधियों के प्रबलतम पराक्रम उनके सम्मुख आते ही स्वयं पराजित हो जाते थे।

ऐसे महाबज्र विश्वामित्र के अन्तस भावों की रसधार को देखकर सबके सब चकित भाव से उन्हें देखते रहे। उन सबमें सुगना भील के बारे में और भी अधिक जानने की लालसा बढ़ गयी। ऐसा क्या था सुगना में, जिसने कुलिश कठोर, महर्षि विश्वामित्र की तेजस्विता, प्रखरता को रसमय बना दिया। सब के मन के इन मानसिक स्पन्दनों को शब्द दिए ऋषि क्रतु ने। उन्होंने कहा- ‘‘हे  परमतेजस्वी महर्षि! हम सभी को सुगना भील की भक्तिकथा का श्रवण कराएँ।’’ ऋषि क्रतु के इस कथन ने कथा की बिखरी कड़ियाँ जोड़ दीं। तप तेजस के सघन स्वरूप ऋषि विश्वामित्र को सुगना का स्मरण हो आया। वह कृष्णवर्ण भील, सुडौल-सुगठित कद-काठी का स्वामी था, जिसकी काली किन्तु चमकदार स्वच्छ आँखों में सदा भक्ति छलकती रहती थी।

उसे याद करते हुए विश्वामित्र कहने लगे- ‘‘उस दिन मैं ऋषि रुद्रांश के साथ उसकी झोपड़ी में गया। सघन अरण्य में वृक्षों के झुरमुट की ओट में बनी वह फूस की झोपड़ी भक्ति के दिव्य प्रकाश से पूर्ण थी। झोपड़ी के अन्दर व बाहर थोड़ी दूर तक की भूमि गाय के गोबर से लिपी हुई थी। बाहर सुगन्धित पुष्प वाले पौधे लगे हुए थे। अन्दर पूजा की चौकी थी, जिस पर भगवान् नारायण का चित्र रखा था। यह चित्र सम्भवतः उसी ने अपने हाथों से बनाया था। चित्र के पास कुछ पुष्प बिखरे थे। उससे थोड़ी दूर हटकर पुआल का एक बिछौना था। सामान के नाम पर वहाँ प्रायः कुछ भी नहीं था। बस थोड़ी सी पत्तियाँ, कुछ फल, कुछ काष्ठ सामग्री- यही सब कुछ था। यह सब देखकर ऋषि रुद्रांश ने मुझसे कहा- महर्षि! यह झोपड़ी किसी सिद्धस्थल से भी बढ़कर है। इस पर मैंने अनुभव किया कि ऋषि रुद्रांश सम्पूर्ण सत्य कह रहे हैं।

मैंने कुछ क्षणों के बाद सुगना से पूछा- वत्स! तुम्हारी दिनचर्या क्या है? तुम काम क्या करते हो? उत्तर में उसने कहा- भगवन्! भगवान नारायण का स्मरण! उन्हीं में समर्पण, यही मेरी दिवसचर्या है, यही मेरी रात्रिचर्या है। रही काम की बात तो नर में नारायण का रूप देखकर उनकी सेवा का यत्न करता हूँ। पर सच तो यह है महर्षि! न तो मुझे कर्मफल की आकांक्षा है और न ही कर्मों में अभिरुचि। बस मैं अपने नारायण का यंत्र हूँ। मुझे ऐसा अनुभव होता है कि मैं कुछ नहीं करता, मेरे माध्यम से जो कुछ भी होता है, वह सब कुछ मेरे आराध्य भगवान नारायण ही करते हैं।’’ महर्षि विश्वामित्र की ये बातें सुनकर देवर्षि नारद उत्साहित हो गए और कहने लगे यही तो है भक्त की भक्ति का सही परिचय। यही मेरा अगला सूत्र भी है, जो मैं आप सबके सामने कह रहा हूँ-

‘यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति, ततो निर्द्वन्द्वो भवति’॥ ४८॥
जो कर्मफल का त्याग करता है, कर्मों का भी त्याग करता है और तब सब कुछ त्याग कर जो निर्द्वन्द्व हो जाता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १९१

शनिवार, 8 जनवरी 2022

👉 पूजा और उपासना

किसी व्यक्ति की उपासना सच्ची है या झूठी है उसकी एक ही परीक्षा है कि साधक की अन्तरात्मा में सन्तोष, प्रफुल्लता, आशा, विश्वास और सद्भावना का कितनी मात्रा में अवतरण हुआ। यदि यह गुण नहीं आये हैं और हीन वृत्तियाँ उसे घेरे हुए हैं तो समझना चाहिए कि वह व्यक्ति पूजा पाठ कितना ही करता हो उपासना से अभी दूर ही है।
पूजा पाठ अलग बात है, उपासना अलग। उपासना के लिए पूजा पाठ से कर्मकाण्ड की चिन्हपूजा करते रहने मात्र से उपासना का उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सकता। जीव को जीवन धारण करने के लिये शरीर की आवश्यकता होती है पर शरीर ही जीवन नहीं है। जीव विहीन शरीर देखा तो जा सकता है पर उसका कोई लाभ नहीं। इसी प्रकार उपासना विहीन पूजा भी होती तो है पर उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

आत्मा जब परमात्मा की गोदी में बैठता है तो उसे प्रभु की सहज करुणा और अनुकम्पा का लाभ मिलता है। उसे तुरन्त ही निर्भयता और निश्चिन्तता की प्राप्ति होती है। हानि, घाटा, रोग, शोक, विछोह, चिन्ता, असफलता और विरोध की विपन्न स्थितियों में भी उसे विचलित होने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसे इन प्रतिकूलताओं में भी अपने हित साधन का कोई विधान छिपा दिखाई पड़ता है। वस्तुतः विपन्नता हमारी त्रुटियों का शोधन करने और पुरुषार्थ को बढ़ाने के लिए ही आती है। आलस्य और प्रमाद को, अहंकार और मत्सर को मनोभूमि से हटाना ही प्रतिकूलताओं का उद्देश्य होता है। सच्चे आस्तिक को अपने प्रिय परमेश्वर पर सच्ची आस्था होती है और वह अनुकूलताओं की तरह प्रतिकूलताओं का भी खुले हृदय से स्वागत करता है।

👉 भक्तिगाथा (भाग १००)

योग-क्षेम का त्यागी कहलाता है भक्त

इस सूत्र में सभी को भक्ति की सर्वथा नवीन परिभाषा की झलक दिखायी दी परन्तु सभी की तुलना में इस सूत्र को सुनकर महर्षि विश्वामित्र के मुख पर अधिक ही प्रसन्नता छलक उठी, इसे सब ने अनुभव किया। महर्षि क्रतु ने तो कह भी दिया- ‘‘लगता है ऋषिश्रेष्ठ विश्वामित्र को इस सूत्र ने उनकी कठिन तपस्या के दिन याद दिला दिए।’’ इसे सुनकर विश्वामित्र हल्के से हँसे, फिर बोले- ‘‘नहीं महर्षि! मेरी तपस्या कठिन अवश्य थी, परन्तु उसमें भक्ति की कोमल भावनाएँ नहीं, बल्कि अहंकार की कठोरता थी। एक अहंकारी का कर्म भला भक्ति की पावनता कैसे पा सकता है, फिर भले ही वह तप क्यों न हो?’’

ऐसा कहते हुए महर्षि के नेत्र छलछला उठे। थोड़ी देर बाद वह अपने भावों को संयत करते हुए बोले- ‘‘मुझे तो बस भोले भक्त सुगना भील की याद आ गयी।’’ सुगना का नाम सुनकर ऋषि वसिष्ठ से न रहा गया, वे बोल उठे- ‘‘हे ब्रह्मर्षि! हम आपके व्यक्तित्व के सतत रूपान्तरण के स्वयं साक्षी हैं पर सुगना के बारे में मैंने मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम से सुना है। उसकी चर्चा करते हुए वे भी यदा-कदा भावुक हो उठते थे। वह था ही ऐसा भोला भक्त, उसका जीवन अपने भगवान में इतना अधिक अर्पित था कि भगवान उस पर अवश्य सम्मोहित हुए होंगे।’’

ब्रह्मर्षि वसिष्ठ एवं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का यह वार्तालाप सभी ने सुना। इसकी कुछ ही पंक्तियों ने सभी के मन में यह जिज्ञासा पैदा कर दी कि आखिर यह सुगना कौन है? अब तो सभी की आँखें ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के मुख पर टिक गयीं। महर्षि क्रतु ने तो प्रकट में कह भी दिया कि- ‘‘हे ब्रह्मर्षि! आप हम सबको भक्त सुगना भील का कथा वृतान्त सुनाकर तृप्त करें।’’ ऋषि क्रतु के इस कथन पर महर्षि विश्वामित्र ने भावुक स्वर में कहा- ‘‘हे महर्षि! यह कथा उन दिनों की है, जब मैं भारतभूमि के मिथिला प्रदेश में सिद्धाश्रम में रहा करता था। सिद्धाश्रम मेरी प्रयोगस्थली ओर साधनास्थली दोनों ही था। मेरे साथ विशिष्ट ऋषियों, मनीषियों, विशेषज्ञों, विद्वानों का एक खास समुदाय था। ये सभी विविध विद्याओं के धनी एवं अनेकों चमत्कारी प्रयोगों में निष्णात थे।

मेरे और मेरे सभी सहयोगियों के सारे प्रयोगों का उद्देश्य एक ही था कि देवभूमि भारत सदा के लिए आसुरी आतंक से मुक्त हो सके। हम सभी के दिन और रात, इन्हीं सब प्रयोगों एवं विद्याओं की साधना में बीतते थे। एक दिन प्रातः ब्रह्मबेला में जबमैं ऋषि रूद्रांश के साथ भ्रमण के लिए निकला तो देखा कि पास के बीहड़ वन में एक कृष्ण वर्ण युवा भील वट वृक्ष की छांव में बैठा हुआ ध्यानमग्न है।

ऋषि रूद्रांश ने मेरा ध्यान उसकी ओर आकर्षित करते हुए कहा- महर्षि यह भीषण वन तो महामायाविनी एवं महाभयाविनी ताड़का का क्षेत्र है। यहाँ तो ताड़का, मारीच, सुबाहु के साथ मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों को ही नहीं, वृक्ष-वनस्पतियों को भी आतंकित करती रहती है। हम जैसे तपस्वियों एवं आप सदृश परम तेजस्वी महर्षि को भी इधर आने से पहले रक्षोघ्न प्रयोगों को करना पड़ता है। ऐसे में यह एकाकी युवा भील, इतना निर्भय एवं इतना अधिक प्रसन्नचित्त- सचमुच अचरज है।

ऋषि रुद्रांश का कथन सच था, बात अचरज की ही थी। इस युवा भील का वहाँ जीवित होना ही आश्चर्य था। उसकी प्रसन्नता एवं निर्भयता तो शायद उस युग का परम आश्चर्य थी। हम दोनों धीमे कदमों से चलते हुए उसके पास गए। वह हम दोनों के पांव की आहट सुनकर उठ गया। उसके नेत्रों से भक्ति के आंसू छलक रहे थे। पास पहुँचते ही उसने हम दोनों को ही प्रणाम किया। उसके प्रणाम में उसके भावों की गहराई स्पष्ट थी।

हमने उसे आशीष देते हुए पूछा-पुत्र! तुम यहीं रहते हो। उत्तर में उसने थोड़ी दूर पर वृक्षों के झुरमुट की ओट में बनी एक झोंपड़ी की ओर इशारा किया। उसे पहली दृष्टि में देखकर लगा- सचमुच ही निर्जन स्थान पर रहने वाले इस भील भक्त ने सभी लौकिक बन्धन तोड़ डाले हैं। निःसन्देह उसकी चेतना तीनों गुणों के पार है और भगवान् के इस अनन्य भक्त ने असन्दिग्ध रूप से योग तथा क्षेम का परित्याग कर दिया है। परन्तु उसके बारे में अभी अनेकों जिज्ञासाएँ थीं, जिनका समाधान आगे होना था।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १८८


बुधवार, 5 जनवरी 2022

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

मेरी दृढ धारणा है कि तुममें अन्धविश्वास नहीं है। तुममें वह शक्ति विद्यमान है, जो संसार को हिला सकती है, धीरे - धीरे और भी अन्य लोग आयेंगे। 'साहसी' शब्द और उससे अधिक 'साहसी' कर्मों की हमें आवश्यकता है। उठो! उठो! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकते हो? हम बार - बार पुकारें, जब तक सोते हुए देवता न जाग
 उठें, जब तक अन्तर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन में और क्या है? इससे महान कर्म क्या है?

अकेले रहो, अकेले रहो। जो अकेला रहता है, उसका किसीसे विरोध नहीं होता, वह किसीकी शान्ति भंग नहीं करता, न दूसरा कोई उसकी शान्ति भंग करता है।

जो पवित्र तथा साहसी है, वही जगत् में सब कुछ कर सकता है। माया-मोह से प्रभु सदा तुम्हारी रक्षा करें। मैं तुम्हारे साथ काम करने के लिए सदैव प्रस्तुत हूँ एवं हम लोग यदि स्वयं अपने मित्र रहें तो प्रभु भी हमारे लिए सैकडों मित्र भेजेंगे, आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः।

अफसोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो - चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी होते - तमाम संसा हिल उठता। क्या करूँ धीरे - धीरे अग्रसर होना पड रहा है। तूफ़ान मचा दो तूफ़ान!

👉 भक्तिगाथा (भाग १००)

योग-क्षेम का त्यागी कहलाता है भक्त

अजामिल की कथा, भगवान के पवित्र नारायण नाम का प्रभाव एवं सत्संग की महिमा सुनकर, सुनने वालों की अन्तर्भूमि में भक्ति सरिता प्रवाहित हो उठी। वे सोचने लगे कि भक्ति भावनाओं को भिगोने के साथ उन्हें धुलकर धवल करती है। जो किसी भी भांति प्रत्यक्ष या परोक्ष, भक्तिमय भावनाओं अथवा भक्तिपूर्ण वातावरण के सम्पर्क में रहता है, उसे किसी भी कारण कल्मष की कालिमा छू भी नहीं सकती। कुटिल कुसंस्कार उसको सहज ही छोड़ देते हैं। सोचने वालों की ये चिन्तन तरंगें हिमालय के दिव्य वातावरण की सम्पूर्णता में व्याप्त हो गयीं। इनके पवित्र स्पन्दनों ने वहाँ की पावनता को भी पावन कर दिया। सभी ने महर्षि पुलह की ओर कृतज्ञ नजरों से देखा, जिन्होंने भक्ति, भक्त और भगवान के पवित्र नाम की महिमा बखान करने वाली यह सुमनोरम कथा सुनायी थी।

स्वयं महर्षि पुलह भी कम आह्लादित नहीं थे। उन्हें स्वयं में गहरी पुलकन एवं रोम-रोम में रोमांच की अनुभूति हो रही थी। अजामिल के अनुभव की बात सोचकर उन्हें लग रहा था कि कोई भी किसी भी स्थिति में क्यों न हो, उसका पुनरोदय सम्भव है। आखिरकार किसी जीवात्मा का पतन उसके चित्त की कालिमा और कलुष के कारण ही होता है, यदि यह कलुष व कालिमा किसी भी तरह धुल सके तो जीवात्मा अपने ईश्वरीय स्वरूप को पुनः पा सकती है और यह सब भक्तिमय भावना के द्वारा सम्भव है। भक्ति की पावनता से ही सब कुछ पावन होता है। भक्ति में वह परमपावनी सामर्थ्य है जिससे साधक, साधना एवं उसकी सिद्धि, तीनों ही पवित्र होते हैं। यही तो आध्यात्मिक जीवन साधना का शीर्ष व शिखर है। जो इसके अतिरिक्त किसी अन्य सिद्धि, उपलब्धि, सम्पदा व विभूति को साधना मान लेते हैं, वे भ्रम के भटकावों में ही भटकते रहते हैं।

महर्षि पुलह के इस अन्तर्चिन्तन के साथ सब तरफ मौन पसरा रहा। अन्य सभी के मन भी कहीं गहरे में डूबे रहे। यह स्थिति कितनी देर तक रही किसी को पता न चला।

हिमालय के हिमप्रपातों की कल-कल ध्वनि, हिमपक्षियों का कलरव एवं हिमप्रदेश में रहने वाले पशुओं की चित्र-विचित्र आवाजें भी इस निःस्पन्दता को स्पन्दित न कर सकीं। इसे तो महर्षि विश्वामित्र के स्वरों ने बेधा। उन्होंने देवर्षि को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘‘हे भगवान विष्णु के परमप्रिय भक्त! हम सभी को आपके नवीन सूत्र की प्रतीक्षा है।’’ अब तक देवर्षि नारद भी पता नहीं किन भावों में खोए हुए थे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के स्वरों ने उन्हें चेताया। विश्वामित्र का सम्बोधन सुनकर वह बड़े हल्के से मुस्कराए, फिर उनके मुख से बड़े मधुर स्वरों में प्रभु का परम पावन नाम नारायण! नारायण!! उच्चारित हुआ। इस अनोखे भक्तिपूर्ण उच्चारण से अन्य सभी की चिन्तन चेतना भी बाह्य जगत् में लौट आयी।
इसी के साथ देवर्षि नारद ने अपने नवीन सूत्र का मधुरवाणी में उच्चारण किया-

‘यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति,
निस्त्रैगुण्यो भवति, योगक्षेमं त्यजति’॥ ४७॥
जो निर्जन स्थान में वास करता है, जो लौकिक बन्धनों को तोड़ डालता है और जो योग तथा क्षेम का परित्याग कर देता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १८६

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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