क्रिया की प्रतिक्रिया सृष्टि का शाश्वत नियम है। उसे हर कहीं और कभी भी चरितार्थ होते देखा जा सकता है। किसान जो बोता है, वही काटता है। सौभाग्य और दुर्भाग्य के अवसर यों अनायास ही आ उपस्थित हो जाते हैं; पर उनके पीछे भी मनुष्य के अपने कर्म ही झाँकते रहते हैं। भले ही वे अब नहीं, भूतकाल में कभी किये गए हों। यहाँ अकस्मात् कुछ नहीं होता।
जो होता है, उसकी पृष्ठभूमि बहुत दिन पहले से ही बन रही होती है। बच्चे का जन्म प्रसव के उपरांत प्रत्यक्ष आंखों से दीख पड़ता है; पर उसकी आधारशिला बहुत पहले गर्भाधान काल में ही रख गयी होती है। चर्म-चक्षुओं से प्रभात काल ही सूर्योदय का समय समझा जाता है; किन्तु वस्तुतः उसे अन्धकार के समापन की वेला के साथ जुड़ा हुआ ही समझा जा सकता है।
सुयोग के पीछे भी वही परंपरा अपने चमत्कार दिखा रही होती है। कर्मफल ही यहाँ सब कुछ है। संसार के हाट-बाज़ार में सब कुछ सज-धज के साथ रखा-सँजोया गया होता है। पर उसमें से मुफ्त किसी को कुछ नहीं मिलता। यहाँ क्रय-विक्रय का उपक्रम ही चलता रहता है। आदान-प्रदान का शाश्वत सत्य, निरंतर अपनी सुनिश्चित विधि-व्यवस्था का परिचय देता रहता है। मुफ्त में तो जमीन पर बिखरी रेत-मिट्टी भी टोकरी में नहीं आ बैठती, इसके लिए भी खोदने-समेटने-उठाने का श्रम किसी-न-किसी को करना ही पड़ता है। संस्कृत की यह उक्ति ठीक ही है कि सोते सिंह के मुख में मृग नहीं घुस जाते।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
जो होता है, उसकी पृष्ठभूमि बहुत दिन पहले से ही बन रही होती है। बच्चे का जन्म प्रसव के उपरांत प्रत्यक्ष आंखों से दीख पड़ता है; पर उसकी आधारशिला बहुत पहले गर्भाधान काल में ही रख गयी होती है। चर्म-चक्षुओं से प्रभात काल ही सूर्योदय का समय समझा जाता है; किन्तु वस्तुतः उसे अन्धकार के समापन की वेला के साथ जुड़ा हुआ ही समझा जा सकता है।
सुयोग के पीछे भी वही परंपरा अपने चमत्कार दिखा रही होती है। कर्मफल ही यहाँ सब कुछ है। संसार के हाट-बाज़ार में सब कुछ सज-धज के साथ रखा-सँजोया गया होता है। पर उसमें से मुफ्त किसी को कुछ नहीं मिलता। यहाँ क्रय-विक्रय का उपक्रम ही चलता रहता है। आदान-प्रदान का शाश्वत सत्य, निरंतर अपनी सुनिश्चित विधि-व्यवस्था का परिचय देता रहता है। मुफ्त में तो जमीन पर बिखरी रेत-मिट्टी भी टोकरी में नहीं आ बैठती, इसके लिए भी खोदने-समेटने-उठाने का श्रम किसी-न-किसी को करना ही पड़ता है। संस्कृत की यह उक्ति ठीक ही है कि सोते सिंह के मुख में मृग नहीं घुस जाते।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य