अन्य आश्रयों का त्याग ही है अनन्यता
भक्तों में अग्रणी प्रह्लाद। भावनाओं में परम अनन्यता की भावमयी मूर्ति प्रह्लाद। इन भक्तश्रेष्ठ के नाम में ही कुछ जादू था। सभी इनके स्मरण मात्र से भाव विह्वल हो गये। श्रवण की उत्सुकता जाग्रत हुई। हरिवाहन-विनितानन्दन गरुड़ कह रहे थे- ‘‘मैं भक्तश्रेष्ठ प्रह्लाद के भक्तिमय जीवन के कई पावन पलों का स्वयं साक्षी रहा हूँ। उन्होंने तो अपनी माँ के गर्भ में ही भक्ति का पाठ पढ़ा था। उस समय उनकी माता देवर्षि के सान्निध्य में रह रही थीं।’’
पक्षीराज गरुड़ के स्वरों ने देवर्षि की स्मृतियों को कुरेद दिया। उन्हें याद हो आये वे बीते दिन, जब वे अपनी भ्रमणकारी प्रवृत्ति के विपरीत एक स्थान पर स्थिर होकर रहे थे। प्रह्लाद की माता उनके आश्रम में प्रभु भक्ति में लीन रहती थीं। आश्रम के समीप का वह वनप्रान्त एक नवीन भावचेतना से पूरित हो गया था। अपनी माता के गर्भ में स्थित प्रह्लाद की चेतना चारों ओर एक दैवीभाव बिखेर रही थी। देवर्षि स्वयं उन्हें भक्ति के नवीन सूत्र सुनाया करते थे। उन्हीं दिनों उन्हें अनन्यता के उपदेश मिले थे।
अपनी स्मृतियों में विभोर देवर्षि को चेतन जब आया, जब गरुड़ जी के स्वर उनके कानों में पड़े। वह कह रहे थे कि ‘‘भक्त प्रह्लाद अपने गर्भकाल से ही असुरता के निशाने पर थे। उन्हें उस युग के सबसे महाशक्तिशाली जनों के कोप का भाजन बनना पड़ा। प्रह्लाद के पिता महाशक्तिशाली सम्राट हिरण्यकश्यपु एवं महान् तांत्रिक एवं यौगिक शक्तियों से सम्पन्न शुक्राचार्य। अपने युग की ये दो महान् शक्तियाँ प्रत्येक ढंग से प्रह्लाद का विनाश चाहती थीं। प्रह्लाद की मृत्यु ही इन दोनों का लक्ष्य थी। इनके पास अनेक साधन थे। अनेकों ढंग से ये हर दिन प्रह्लाद के विनाश की योजनाएँ रचते थे।
लेकिन प्रह्लाद को केवल नारायण के नाम का आश्रय था। नारायण के नाम और अपने नारायण की भक्ति के सिवा उन्होंने कभी किसी साधन या साधना के बारे में नहीं सोचा अन्यथा प्रतिभाशाली एवं असीम धैर्यवान् प्रह्लाद कभी भी किसी साधना में प्रवीण हो सकते थे। तंत्र एवं योग की सभी प्रक्रियाओं का ज्ञान उनके लिए सम्भव था। परन्तु इस अनूठे भक्त की अनन्य भक्ति तो केवल अपने भगवान के लिए थी। भगवान! भगवान!! और सिर्फ भगवान!!! अन्य कुछ भी नहीं।
सम्राट हिरण्यकश्यपु के प्रहार संघातक थे। कारागार की यातनाएँ, कभी पहाड़ से फिंकवाना तो कभी हाथी के नीचे कुचलवाने का आदेश देना, कभी उन्हें समुद्र में डुबा देने का आदेश। इतने पर भी जब उसे संतोष न हुआ तो अपनी वर प्राप्त बहन होलिका को प्रह्लाद को जला देने के लिए कहना। नित-नयी आपत्तियों को भक्त प्रह्लाद वरदान की तरह मानते थे। जब उन्हें होलिका ने जला देने का प्रयास किया तब इस घटना में होलिका की मृत्यु हो गयी। प्रह्लाद को उसकी मृत्यु पर सहज दुःख हुआ।
ऐसे में एक दिन उन्होंने देवर्षि से कहा था- ‘‘देवर्षि! मैं इतने लोगों के दुःख का कारण क्यों हूँ?’’ तब देवर्षि ने उनसे कहा- ‘‘पुत्र! तुम नहीं, उनकी प्रवृत्तियाँ उनके दुःखों का कारण हैं।’’ इसके बाद देवर्षि ने उनके मन को टटोलते हुए पूछा- ‘‘वत्स! क्या तुम्हें इन आपदाओं से कभी डर लगता है।’’ उत्तर में प्रह्लाद बड़े ही निश्छल भाव से हँसे और कहने लगे- ‘‘हे देवर्षि! मुझे तो आप ने ही यह पाठ पढ़ाया है कि भक्त के जीवन में आने वाली आपदाएँ, भक्त एवं भगवान दोनों की परीक्षा लेती हैं। भक्त की यह परीक्षा होती है कि उसकी प्रभुभक्ति कितनी प्रगाढ़ एवं अनन्य है और भगवान की परीक्षा कि वह अपने अनन्य भक्त की किस कुशलता से रक्षा करते हैं। साथ ही आपने यह भी बताया था कि भक्त से भले ही चूक हो जाये, परन्तु भगवान कभी भी नहीं चूकते। उनसे भक्त रक्षा में कभी प्रमाद नहीं होता।
और सचमुच ही भगवान नहीं चूके। उन्होंने अपने भक्त के लिए नृसिंह का रूप धरा। हिरण्यकश्यपु के घातक प्रहारों का उन्होंने संहार किया। भक्त प्रह्लाद की अनन्यता प्रभु भक्तों का अनुकरणीय आदर्श बनी।’’ गरुड़ के मुख से इस कथा को सुनकर महर्षियों के मुख पर प्रसन्नता के भाव छलके। उन्होंने हर्षित होकर कहा- ‘‘धन्य है भक्त प्रह्लाद, जिन्होंने भगवद्भक्ति की मर्यादाओं को परमोज्ज्वल रूप प्रदान दिया।’’
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ५०