जिसे भक्ति मिल जाए, वो और क्या चाहे?
भगवन्नाम कीर्तन का सुरभित संगीत देवात्मा हिमालय के अणु-अणु में व्याप्त होता गया। भक्ति चेतना की सघनता से वहाँ उपस्थित ऋषियों, देवों एवं दिव्य विभूतियों के अंतस् स्पन्दित हो उठे। हिमालय की पावनता, भक्तिगाथा के निरन्तर श्रवण से और भी अधिक पावन हो रही थी। सब ओर विशुद्ध सत्त्व का भावमय उद्रेक हो रहा था। हिमालय के हिमाच्छादित शुभ्र शिखर मौन, नीरव समाधि में डूबे थे। निर्विचार भावमयता का अजस्र-अविरल-अदृश्य प्रवाह और भी कुछ सुनने को प्रेरित कर रहा था। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का महातेजस् भी आज रोमांचित था। उन्होंने भक्तिविह्वल हो सभी जनों को प्रणाम् करते हुए कहा- ‘‘भक्तिगाथा के श्रवण से अधिक और कोई सुख नहीं है। मेरा देवर्षि नारद से अनुरोध है कि हम सभी को अपने अगले सूत्र से अनुग्रहीत करें।’’
सभी ने इस कथन से अपनी समवेत सहमति जताई और कहा- ‘‘ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने हम सभी के हृदयों के उद्गार व्यक्त किये हैं। हम सभी देवर्षि से आग्रह करते हैं-कुछ और कहें।’’ महर्षियों के इस आग्रह से देवर्षि की भावमय तल्लीनता में कुछ नवस्फुरण हुए। वे कहने लगे- ‘‘हे महर्षिजन! हम बड़भागी हैं जो आप सबके पावन सान्निध्य में भक्ति, भक्त एवं भगवान की दिव्य लीला का अवगाहन कर रहे हैं। भक्ति की महिमा ही कुछ ऐसी है कि जो इसे पा लेता है उसे और कुछ भी पाना शेष नहीं रहता। मेरा आज का सूत्र भी कुछ यही कहता है-
‘यात्प्राप्य न किञ्चद्वाञ्छति न शोचति
न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति’॥ ५॥
भक्ति को प्राप्त करने वाला कुछ और नहीं चाहता, कुछ और नहीं सोचता, किसी से द्वेष नहीं करता, कहीं अन्य नहीं रमता, विषय-भोगों के लिए उत्साही नहीं होता।
देवर्षि नारद के इस स्वर सूत्र में सभी के मन अनायास गुँथने लगे थे। उनके भावों में एक अनोखी मिठास घुलने लगी थी, तभी एक अनोखी घटना ने सभी का ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लिया। सबने देखा कि दूसरे सूर्य के समान परम तेजस्वी ज्योतिपुञ्ज आकाश से अवतरित हो रहा था। हिमालय का यह पावन परिसर इस महासूर्य के प्रकाश से आपूरित हो जा रहा था। कुछ ही क्षणों में यह परम तेजस्वी ज्योतिपुञ्ज मानव आकृति में परिवर्तित हो गया। अद्भुत स्वरूप था इन महाभाग का। इनके सारे शरीर पर सघन रोमावली थी परन्तु प्रत्येक रोम ज्योति किरण की भाँति प्रकाशित था। कुछ ऐसा जैसे कि भगवान भुवन-भास्कर के शरीर को उनकी सहस्र-सहस्र किरणें घेरे हों।
एकबारगी सभी चमत्कृत थे, परन्तु सप्तर्षियों, कल्पजीवी महर्षि मार्कण्डेय एवं देवर्षि नारद को उन्हें पहचानने में अधिक देर न लगी। ये भगवान भोलेनाथ एवं माता जगदम्बा के वरद् पुत्र शिवस्वरूप महर्षि लोमश थे। सभी जानते थे कि सृष्टि में इनसे अधिक दीर्घायु और कोई भी नहीं। सबने उन्हें प्रणाम् किया। महर्षि लोमश ने बड़े हर्षित मन से उन्हें आशीष दिया और बोले-‘‘ऋषियों! मैं चिरकाल से समाधिस्थ था। समाधि में ही मुझे भगवान सदाशिव एवं माता पार्वती के दर्शन हुए। उन्होंने मुझे चेताया-लोमश! हिमालय के आँगन में अद्भुत, अपूर्व भक्तिगंगा बह रही है और तू समाधि में खोया है। बस भगवान महादेव का इंगित मुझे यहाँ ले आया और यहाँ आप सभी के दर्शन हुए।’’
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २९