ध्यान का अगला चरण है—समर्पण
इन सभी सबीज समाधियों में क्रमिक रूप से मानसिक विकास भी होता है और परिष्कार भी, परन्तु मन तो रहता है। चित्त में निर्मलता आती है, परिशोधन भी होता है, परन्तु चित्त का विलय बाकी बचा रहता है। जीव और शिव में भेद करने वाली अहं की अन्तिम गाँठ अभी भी नहीं खुल पाती। यौगिक शक्तियाँ एवं सिद्धियाँ तो इन सभी समाधियों में क्रमिक रूप से प्रस्फुरित होती हैं, परन्तु इन सिद्धियों एवं शक्तियों का प्रकृति लय अभी भी बचा रहता है। इन समाधियों में आत्मतत्त्व की झलकियाँ तो मिलती हैं, पर आध्यात्मिक साम्राज्य की प्रतिष्ठा होनी अभी भी बाकी रहती है।
इस गूढ़ रहस्य को अपनी सहज अनुभूति के स्वरों में ढालते हुए युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि ध्यान कितना भी और कैसा भी क्यों न हो पर वह मानसिक क्रिया के अलावा और क्या है? इस ध्यान की परिणति जिस समाधि में होती है, उससे चित्त का परिष्कार होता है, चक्रों को पार करते हुए आज्ञाचक्र में अवस्थित हो गयी।
उनके ध्यान में महिमामयी माँ काली की दिव्य लीलाएँ विहरने लगी। भाव विह्वल श्रीरामकृष्ण देव की समाधि प्रगाढ़ हो गयी। परन्तु साकार से निराकार, सबीज से निर्बीज तक पहुँचना अभी भी बाकी था। तोतापुरी ने निर्देश दिया- आगे बढ़ो। श्रीरामकृष्णदेव ने कहा- माँ को छोड़कर? तोतापुरी ने कहा- हाँ, ज्ञान की तलवार लेकर काली के शतखण्ड करो और अखण्ड निराकार के धाम में प्रवेश करो। अनेकों प्रयास के बावजूद श्रीरामकृष्ण यह न कर सके। उनका निर्मल चित्त भी ध्यान की उच्चस्तरीय सूक्ष्मता से मुक्ति न पा सका। मनोलय न सध सका। मन के आँगन में, चित्त के अन्तःप्रकोष्ठ में चित्शक्ति की लीलाएँ चलती रहीं।
और तोतापुरी ने अपने हाथों में एक नुकीले पत्थर का टुकड़ा लिया और उससे भ्रूमध्य में आज्ञाचक्र को तीव्रतापूर्वक दबाया- और साथ ही उन्हें निर्देश दिया- पार करो अन्तिम बाधा, उठाओ ज्ञान की तलवार और भेदन करो चित्शक्ति, खोलो ब्रह्म की अनन्तता के द्वार। इस बार का निर्देश श्रीरामकृष्ण के अस्तित्व में व्याप गया। और फिर पल भर में सब कुछ घटित हो गया, वे परमहंस हो गए। शुद्ध, बुद्ध, नित्य-निरंजन, महामाया ने अपनी माया समेट कर उन्हें निर्बीजता में प्रवेश दे दिया।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या