बुधवार, 30 सितंबर 2020

👉 कर्म और व्यवहार

एक बार एक राजा ने विद्वान ज्योतिषियों की सभा बुलाकर प्रश्न किया-

मेरी जन्म पत्रिका के अनुसार मेरा राजा बनने का योग था मैं राजा बना, किन्तु उसी घड़ी मुहूर्त में अनेक जातकों ने जन्म लिया होगा जो राजा नहीं बन सके क्यों ..?

इसका क्या कारण है ?
राजा के इस प्रश्न से सब निरुत्तर हो गये ..
अचानक एक वृद्ध खड़े हुये बोले- महाराज आपको यहाँ से कुछ दूर घने जंगल में एक महात्मा मिलेंगे उनसे आपको उत्तर मिल सकता है..

राजा ने घोर जंगल में जाकर देखा कि एक महात्मा आग के ढेर के पास बैठ कर अंगार ( गरमा गरम कोयला ) खाने में व्यस्त हैं.. राजा ने महात्मा से जैसे ही प्रश्न पूछा महात्मा ने क्रोधित होकर कहा “तेरे प्रश्न का उत्तर आगे पहाड़ियों के बीच एक और महात्मा हैं ,वे दे सकते हैं ।”

राजा की जिज्ञासा और बढ़ गयी, पहाड़ी मार्ग पार कर बड़ी कठिनाइयों से राजा दूसरे महात्मा के पास पहुंचा..

राजा हक्का बक्का रह गया, दृश्य ही कुछ ऐसा था, वे महात्मा अपना ही माँस चिमटे से नोच नोच कर खा रहे थे..

राजा को महात्मा ने भी डांटते हुए कहा ” मैं भूख से बेचैन हूँ मेरे पास समय नहीं है...
आगे आदिवासी गाँव में एक बालक जन्म लेने वाला है ,जो कुछ ही देर तक जिन्दा रहेगा..
वह बालक तेरे प्रश्न का उत्तर दे सकता है..

राजा बड़ा बेचैन हुआ, बड़ी अजब पहेली बन गया मेरा प्रश्न..

उत्सुकता प्रबल थी..
राजा पुनः कठिन मार्ग पार कर उस गाँव में पहुंचा..
गाँव में उस दंपति के घर पहुंचकर सारी बात कही..

जैसे ही बच्चा पैदा हुआ दम्पत्ति ने नाल सहित बालक राजा के सम्मुख उपस्थित किया..

राजा को देखते ही बालक हँसते हुए बोलने लगा ..
राजन् ! मेरे पास भी समय नहीं है ,किन्तु अपना उत्तर सुन लो –
तुम,मैं और दोनों महात्मा सात जन्म पहले चारों भाई राजकुमार थे..
एक बार शिकार खेलते खेलते हम जंगल में तीन दिन तक भूखे प्यासे भटकते रहे ।
अचानक हम चारों भाइयों को आटे की एक पोटली मिली ।हमने उसकी चार बाटी सेंकी..

अपनी अपनी बाटी लेकर खाने बैठे ही थे कि भूख प्यास से तड़पते हुए एक महात्मा वहां आ गये..
अंगार खाने वाले भइया से उन्होंने कहा –
“बेटा, मैं दस दिन से भूखा हूँ, अपनी बाटी में से मुझे भी कुछ दे दो, मुझ पर दया करो, जिससे मेरा भी जीवन बच जाय ...

इतना सुनते ही भइया गुस्से से भड़क उठे और बोले..

तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या खाऊंगा आग...? चलो भागो यहां से….।

वे महात्मा फिर मांस खाने वाले भइया के निकट आये उनसे भी अपनी बात कही..

किन्तु उन भईया ने भी महात्मा से गुस्से में आकर कहा कि..
बड़ी मुश्किल से प्राप्त ये बाटी तुम्हें दे दूंगा तो क्या मैं अपना मांस नोचकर खाऊंगा?
भूख से लाचार वे महात्मा मेरे पास भी आये..
मुझसे भी बाटी मांगी… 
किन्तु मैंने भी भूख में धैर्य खोकर कह दिया कि 
चलो आगे बढ़ो मैं क्या भूखा मरुँ …?

अंतिम आशा लिये वो महात्मा, हे राजन !..
आपके पास भी आये, दया की याचना की..
दया करते हुये ख़ुशी से आपने अपनी बाटी में से आधी बाटी आदर सहित उन महात्मा को दे दी।
बाटी पाकर महात्मा बड़े खुश हुए और बोले..
तुम्हारा भविष्य तुम्हारे कर्म और व्यवहार से फलेगा।
बालक ने कहा “इस प्रकार उस घटना के आधार पर हम अपना अपना भोग, भोग रहे हैं...
और वो बालक मर गया 

धरती पर एक समय में अनेकों फल-फूल खिलते हैं, किन्तु सबके रूप, गुण,आकार-प्रकार, स्वाद भिन्न होते हैं ..।

राजा ने माना कि शास्त्र भी तीन प्रकार के हॆ-- 
ज्योतिष शास्त्र, कर्तव्य शास्त्र और व्यवहार शास्त्र
 
जातक सब अपना किया, दिया, लिया ही पाते हैं..
यही है जीवन...

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ४०)

वैराग्य ही देगा साधना में संवेग

साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे-तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम-काज में, बेटी-बेटों में, नाती-पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग-अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह-रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।
 
वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे-बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक  का अर्थ है सही-गलत की ठीक समझ, उचित-अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान-बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।
भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है-‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार-बार चिंतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब्बं दुक्ख्म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे-संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ७२
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 अपनी गुत्थी आप सुलझावें

मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। जिस प्रकार वह अनुपयुक्त विचारों एवं आदतों का गुलाम बनकर अपनी स्थिति दयनीय बनाता है उसी प्रकार यदि वह चाहे तो विवेक को अपनाकर अपनी गतिविधियों को बदल एवं सुधार भी सकता है और उसके फलस्वरूप नरक के दृश्य को देखते−देखते स्वर्ग में परिणत कर सकता है। यह मानसिक परिवर्तन ही युग−निर्माण योजना का प्रधान आधार है। इसे मोटे रूप से ‘विचारक्रान्ति’ भी कह सकते हैं। हमारे सामने अगणित कठिनाइयाँ, गुत्थियाँ, कमियाँ और परेशानियाँ आज उपस्थित हैं। उनका कारण एक ही है—‛अविवेक’। और उनके समाधान का उपाय भी एक ही है—विवेक। 

जिस प्रकार सूर्य का उदय होने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार जिस दिन हमारे अन्तः करण में विवेक का उदय होगा उस दिन न तो व्यक्तिगत कठिनाइयाँ रहेंगी और न सामूहिक समस्याऐं उलझी दिखाई देंगी। मकड़ी अपना जाला आप बुनती है और उसी में फँसी बैठी रहती है। पर जब उसके मन में तरंग आती है तो उस सारे जाले को निगलकर पूर्ण स्वतंत्रता भी अनुभव करने लगती है। हमारी सभी समस्याऐं और सभी कठिनाइयाँ हमारी स्वयं की बनाई हुई हैं, बुनी हुई हैं। इन्हें सुलझा देना बाँये हाथ का काम है। आज गाँठ खुल नहीं रही है पर जब विवेक का दीपक जलेगा और रस्सी के मोड़−तोड़ साफ दीखने लगेंगे तो गाँठ खुलने में कितनी देर लगेगी?

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ३९)

वैराग्य ही देगा साधना में संवेग

साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है।  व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।
    
महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है-वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है-

दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥
शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।
अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
    
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी  कहा जा सकता है।
    
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ७१
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या  

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ३८)


बिन श्रद्घा-विश्वास के नहीं सधेगा अभ्यास

जो साधक किसी तरह अपनी साधना में दीर्घकाल और निरन्तरता को बनाए रखते हैं, उनमें भावभरी श्रद्धा एवं अडिग निष्ठा की कमी रह जाती है। बार-बार मन में सन्देह एवं चित्त में व्यग्रता पनपती रहती है। पता नहीं, यह साधना सही है भी या नहीं। पता नहीं, साधना का पथ दिखाने वाले गुरु ठीक भी हैं या नहीं। पता नहीं, मुझे मंजिल मिलेगी भी या नहीं। इस तरह से डगमगाती श्रद्धा और चंचल निष्ठा, साधक और उसकी साधना को कहीं भी नहीं पहुँचने देती। वह प्रत्यक्ष में क्रिया तो करता रहता है, पर भाव और विचारों की कमजोरी के कारण उसकी साधना सदा प्राणहीन और बलहीन बनी रहती है।
    
साधना के अभ्यास में बल और प्राण कैसे आएँ? इसका उत्तर स्वयं परम पूज्य गुरुदेव का अपना जीवन है। चौबीस वर्षों का दीर्घकाल, उसमें सदा बनी रहने वाली तप की निरन्तरता, सद्गुरु और गायत्री मंत्र पर गहन भाव श्रद्धा एवं अविचल अडिग निष्ठा ने ही उन्हें महासाधक और महायोगी होने का गौरव दिलाया। गुरुदेव अपनी चर्चा में कहते थे कि मेरे लिए गायत्री महामंत्र, गायत्री माता और अपनी मार्गदर्शक सत्ता में कभी कोई अन्तर नहीं रहा। गायत्री महामंत्र के २४ अक्षर ही मेरे जीवन सर्वस्व थे और हैं। अपनी अविराम साधना में पल-पल इनमें मैंने अपने प्राण अर्पित किए हैं। यही है आदर्श मानदण्ड—साधना के अभ्यास का। बिना थके, बिना रुके, समर्पित भावनाओं के साथ साधना का अभ्यास करते जाना चाहिए।
    
गायत्री महामंत्र की साधना के सम्बन्ध में गुरुदेव की एक बात और मनन योग्य है। वह कहते थे- गायत्री साधना के चमत्कार अनुभव करने हैं, तो मन को इधर-उधर मत भटकाओ, अधिक नहीं तो अनुष्ठान के नियमों का पालन करते हुए २४-२४ हजार के अनुष्ठान करते रहो। समर्पित भाव श्रद्धा के साथ की गई निरन्तर, निष्ठापूर्वक और लम्बे समय की साधना के परिणाम में गायत्री महामंत्र तुम्हें सब कुछ दे देगा। इस साधना में भाव श्रद्धा कैसी हो इस बारे में गोस्वामी जी महाराज के वचन है-
पुलक गात हिय सिय रघुबीरु।
जीह नाम जप लोचन नीरू॥
    
भावना से पुलकित शरीर, हृदय में आराध्य की छवि, जिह्वा से मंत्र जप, और नयनों में भाव बिन्दु। महातपस्वी भरत की साधना के प्रसंग में कही गयी चौपाई गायत्री साधकों के लिए जीवन मंत्र बन सकती है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ६९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 Though Inconvenient, ‘Change’ is Inevitable

The juncture of the end of night and the beginning of day is called dawn. This period is filled with unique opportunities for self-growth for the early-risers; but for those who are still half – asleep, it appears as an unwelcome guest and as a burden loaded with new responsibilities. Howsoever unpleasant, they have to rise up and attend to their daily chores. Night does not return and the day does not stop. There is no other alternative than to adjust with the change. The cosmos is in perpetual movement. All our resistance is of no avail to hold back the incessant process of change.

The foetus manages happily in the dark cell of mother’s womb, but when it is fully developed, nature pushes it out of its cozy chamber, separates it from the mother’s umbilical cord and forces it to come out in free atmosphere. In the process of progress, this change is essential and unavoidable. The time of birth is painful and inconvenient to everyone. Mother, nurse, members of the family and friends – all have to abandon their normal routine and get ready to help in whatever way they can in the process of birth. Ultimately the result of this exercise is pleasant to all.

During the present momentous transition period of change of an era, the process of elimination of the Evil and establishment of the Good in human hearts is bound to appear painful for the rigidly orthodox. Other sections of the society may also feel it inconvenient to adopt new ways of life befitting a new era. But there is no other alternative than to adopt the discipline of ushering in of the new enlightened world order that has been ordained by Nature. Once we accept this Truth and are not resistant to change, we will find that change is seed of spiritual growth for all humanity. We will discover that the very change we were fleeing from had held the good we had prayed for.

📖 From Akhand Jyoti

सोमवार, 28 सितंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ३७)

बिन श्रद्घा-विश्वास के नहीं सधेगा अभ्यास
    
इस सच्चाई के बावजूद अनेकों को अभ्यास से शिकायतें भी हैं। उनका कहना है कि इतने सालों से अभ्यास कर रहे हैं, पर मेरे जीवन में वैसा कुछ भी नहीं हुआ, जिसकी उम्मीद थी। सालों-साल साधना करने के बावजूद, सालों तक गायत्री जपने के बावजूद जिन्दगी में कोई चमत्कारी परिवर्तन नहीं हुए। तब क्या; अभ्यास की महिमा गलत है अथवा फिर साधना की विधि में कोई दोष है?
    
इस जिज्ञासा के समाधान में महर्षि पतंजलि कहते हैं कि न तो अभ्यास की महत्ता में कोई सन्देह है और न ही गायत्री महामंत्र की साधना या कोई योग विधि में कोई दोष है। बात सिर्फ इतनी सी है कि अभ्यास ठीक तरह से किया नहीं गया। अभ्यास किस तरह से किया जाय इसकी चर्चा महर्षि अपने अगले सूत्र में करते हैं-

स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढ़भूमिः॥ १/१४॥
शब्दार्थ-तु= परन्तु, सः= वह (अभ्यास), दीर्घकालनैरन्तर्य- सत्कारासेवितः= बहुत काल तक निरन्तर (निरन्तर) और आदरपूर्वक (श्रद्धा-निष्ठा के साथ) सांगोपांग सेवन किया जाने पर, दृढ़भूमि=दृढ़ अवस्था वाला होता है। यानि कि- बिना किसी व्यवधान के श्रद्धा-भरी निष्ठा के साथ लगातार लम्बे समय तक इसे जारी रखने पर वह दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है।
    
महर्षि पतंजलि के अनुसार अभ्यास की सफलता के लिए चार चीजों का होना जरूरी है, इनमें पहली है-लम्बा समय, दूसरी है-निरन्तरता, तीसरी है-भाव भरी श्रद्धा और चौथी है-दृढ़ निष्ठा। साधना अभ्यास में यदि ये चार तत्त्व जुड़े हों, तो अभ्यास चमत्कारी परिणाम उत्पन्न किए बिना नहीं रहता। जिन्हें अपने अभ्यास के परिणाम से शिकायत है, उन्हें महर्षि के इस कथन के प्रकाश में आत्मावलोकन व आत्मसमीक्षा करनी चाहिए। वे अवश्य ही यह पाएँगे कि उनके जीवन में कहीं न कहीं किसी तत्त्व की कमी है।
    
अक्सर देखा जाता है कि लोग शुरुआत तो बड़े उत्साह के साथ करते हैं, बड़ी उमंग-उल्लास से अपनी साधना का प्रारम्भ करते हैं, बाद में महीने-दो-महीने, साल दो साल या ज्यादा से ज्यादा पाँच-छः साल में इसे छोड़ बैठते हैं। जो लोग दीर्घकाल तक साधना जारी भी  रखते हैं, उनमें प्रायः निरन्तरता का अभाव होता है। होता  यह है कि एक महीने मन लगाकर साधना की, बाद में सब कुछ छूट गया। फिर एकाएक मन में उत्साह उमड़ा और दुबारा शुरू हो गया। पर इस बार दो-तीन महीने में थक कर रुक गए। यही सिलसिला जीवन पर्यन्त चलता रहता है। रुक-रुक कर चलना, थक-थक कर रुकना, इस तरह से साधना अभ्यास कभी भी सफल नहीं होता है। साधना की अविराम गति में लय का संगीत होना चाहिए।
    
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ६८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

शनिवार, 26 सितंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ३६)

बिन श्रद्घा-विश्वास के नहीं सधेगा अभ्यास

अभ्यास दृढ़ से दृढ़तर और दृढ़तम कैसे हो? यह समझने से पूर्व यह हृृदयंगम कर लेना चाहिये कि यह यह योग कथा केवल उन्हीं के लिए है, जिनकी आत्मचेतना में योग साधना के प्रति श्रद्घा है, विश्वास है, तड़प है, त्वरा है, तृषा है। महर्षि पतंजलि एवं परम पूज्य गुरुदेव का संवाद सिर्फ उन्हीं से है, जो इस संवाद में अपनी भागीदारी चाहते हैं। दोनों महर्षियों ने अपना खजाना खोल रखा है, पर कोई कोरा बुद्घिवादी इसे छू भी नहीं सकता, उसे साधक बनना ही होगा। अन्यथा गोस्वामी तुलसी बाबा के शब्दों में उसकी स्थिति कुछ ऐसी होगी-

करि न जाइ सर मज्जन पाना।
फिर आवइ समेत अभिमाना।
जो बहोरि कोउ पूछन आवा।
सर निन्दा करि ताहि बुझावा॥
    
अर्थात्- इस योग कथा के सरोवर में उनसे स्नान और जलपान तो किया नहीं जाता; वह इसके पास जा करके भी खाली हाथ अभिमान सहित लौट जाते हैं। यदि उनसे कोई पूछता है कि यह योग कथा कैसी है, तो वे इसकी अनेक तरह से निन्दा करके उसे समझाते है।
    
गोस्वामी जी महाराज आगे कहते हैं-
सकल विघ्न व्यापहिं नहि तेही।
राम सुकृपाँ बिलोकहि जेही॥
    
जो साधक हैं, जिन पर भगवान् की कृपा है, उन्हें कोई विघ्न नहीं सताते हैं। उन्हें इस योग कथा को समझने में किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी। उनकी जाग्रत् आत्मचेतना योग के रहस्यों को बड़ी ही आसानी से ग्रहण कर लेगी।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ६७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ३५)

रस्सी की तरह घिस दें—चुनौतियों के पत्थर
    
इस तरह केन्द्र में स्थित होने के लिए क्या करें? तो इसके जवाब में परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि जप, ध्यान, प्राणायाम आदि योगाभ्यास की सारी प्रक्रियाएँ इसीलिए हैं। योग की सभी प्रक्रियाओं का एक ही मतलब है कि आपको अपना परिचय करा दे। आपको अपने में स्थित कर दे। हालाँकि कभी-कभी यह देखा जाता है कि काफी सालों से जप करने वाले, ध्यान का अभ्यास करने वाले लोगों में भी कोई गुणात्मक मौलिक परिवर्तन नहीं आ पाता। इसकी वजह प्रक्रियाओं का दोष नहीं, बल्कि उसके अभ्यास में खामियाँ हैं। ध्यान रहे योग-प्रक्रियाएँ मात्र क्रियात्मक नहीं हैं, उनमें गहरी विचारणा एवं उच्च  भावनाएँ भी समावेशित हैं।
    
भगवद्गीता में इसके बारे में कहा गया है-
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥—गीता-१७/२८
    
अर्थात्- हे पार्थ! अश्रद्धा से किया गया हवन, दिया गया दान, तपा गया तप और भी जो कुछ आध्यात्मिक क्रिया की गई है, वह सब कुछ असद् है, उसका न कोई परिणाम आध्यात्मिक जीवन में है और नहीं इस लौकिक जीवन में। इसलिए योगाभ्यास की कोइ भी प्रक्रिया हो, उसमें गहरी श्रद्धा और पवित्र विचारणा का समोवश निहायत जरूरी है।
    
इस सम्बन्ध में वृन्दावन के सन्त स्वामी अखण्डानन्द महाराज का संस्मरण बड़ा ही प्रेरक है। ध्यान रहे कि ये सन्त परम पूज्य गुरुदेव पर गहरी श्रद्धा करते थे। इनकी एक पुस्तक है पावन संस्मरण। इसमें उन्होंने लिखा है कि एक दिन वे ब्रह्ममुहूर्त में बैठकर माला जप रहे थे। उनकी कोशिश यही थी कि ज्यादा से ज्यादा मालाएँ जप ली जाएँ। इस बीच परमहंस जगन्नाथपुरी जी उधर से गुजरे। उन्हें जन सामान्य लोग नेपाली बाबा के नाम से जानते थे। इनका जप देखकर वह बोल पड़े- भला कहीं ऐसे जप किया जाता है? उनके वचनों से इनकी आँख खुली। नमस्कार करने पर परमहंस जी ने इन्हें गले लगाया और बोले- मंत्र साक्षात् भगवान् है, अपने ईष्ट की शब्दमूर्ति है। मंत्र चाहे कोई भी हो, उसे जपने में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। सत्कार के साथ, धीर गम्भीर भाव के साथ मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए। प्रत्येक शब्द का गहराई से उच्चारण करें। इस तरह एक अक्षर से दूसरे अक्षर तक पहुँचने में कुछ समय लगे। इससे मन में संकल्प नहीं होगा। जब मन खाली होगा, तो उसमें अपने ईष्ट का प्रकाश होगा।
    
गायत्री महामंत्र को योग साधक अपनी योग साधना का सर्वस्व मानकर अभ्यास करें। मन ही मन प्रत्येक अक्षर का स्पष्ट उच्चारण, साथ ही यह प्रगाढ़ भाव कि इन चौबीस अक्षरों में स्वयं आदि शक्ति जगन्माता अपनी चौबीस शक्तियों के साथ समायी हैं। यह मंत्र स्वयं ही परमा शक्ति है, साथ ही साधक को सब कुछ देने में समर्थ है। जप करते समय ही नहीं, जप करने के बाद रह-रहकर साधक के मन में माता का स्मरण होते रहना चाहिए। ध्यान रहे जप के साथ मौन-एकान्त एवं अधिक से अधिक ब्रह्मचर्य साधक के अभ्यास को दृढ़ करते हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ६५
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

गुरुवार, 24 सितंबर 2020

👉 हमारा व्यवहार ही हमें श्रेष्ठ बनाता है

हमारे द्वारा किये गए कार्यों का फल हमें ज़रूर मिलता है। हमारे द्वारा किये गए अच्छे कार्य हमें दूसरे लोगो की नज़रो में श्रेष्ठ बनाते हैं। हमारा व्यवहार हमें लोगो की नज़रो में इस कदर सम्मानीय बना देता है कि ज़रूरत पड़ने पर लोग हमारे साथ खड़े होते है। हमें अपने सुख दुःख में शामिल करते है।

क्या आजकल की इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में आप इस बात पर एक दम से यकीन कर सकते हैं कि हमारा व्यवहार या हमारा कोई छोटा सा काम कभी हमारी जान बचा सकता है।

एक व्यक्ति एक बर्फ की फैक्ट्री में काम करता था। एक दिन रोजाना की तरह शाम को वह घर जाने की तयारी में था। तभी फैक्ट्री में एक तकनीकी समस्या उत्पन्न हो गयी और वह उसे दूर करने में जुट गया। जब तक वह कार्य पूरा करता, तब तक अत्यधिक देर हो गयी। लाईटें बुझा दी गईं, दरवाजे सील हो गये और वह उसी प्लांट में बंद हो गया। बिना हवा व प्रकाश के पूरी रात बर्फ की फैक्ट्री में फंसे रहने के कारण उसकी मौत होना लगभग तय था।

लगभग आधा घण्टे का समय बीत गया। तभी उसने किसी को दरवाजा खोलते देखा। क्या यह एक चमत्कार था? उसने देखा कि दरवाजे पर सिक्योरिटी गार्ड टार्च लिए खड़ा है। उसने उसे बाहर निकलने में मदद की।

बाहर निकल कर उस व्यक्ति ने सिक्योरिटी से पूछा “आपको कैसे पता चला कि मै फैक्ट्री के अंदर हूँ?”

गार्ड ने उत्तर दिया – “सर, इस प्लांट में 100 लोग कार्य करते हैँ पर सिर्फ एक आप ही हैँ जो मुझे सुबह आने पर हैलो व शाम को जाते समय बाय कहते हैँ। आज सुबह आप ड्यूटी पर आये थे पर शाम को आप बाहर नहीं गए। इससे मुझे शंका हुई और मैं देखने चला आया।”

वह व्यक्ति नहीं जानता था कि उसका किसी को छोटा सा सम्मान देना कभी उसका जीवन बचाएगा। उसने प्रसन्न मन से उसका धन्यवाद किया और अपने घर चला गया।

तो मित्रों, जब भी आप किसी से मिले, गर्मजोशी से मिले और प्यारी से मुस्कान के साथ उसका सम्मान करे। कभी भी किसी से घमंड या अभिमान से बात न करें। चाहे कोई आपसे उम्र या पद में छोटा हो या बड़ा सबसे एक समान व्यवहार करे। सबका सम्मान करें। आपका ये व्यवहार लोगो कि नज़रो में आपको सबसे अलग बना देगा और लोग हर परिस्तिथि में आपके साथ रहेंगे।

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ३४)

रस्सी की तरह घिस दें—चुनौतियों के पत्थर

अन्तर्यात्रा का विज्ञान जीवन के हर झूठ से जूझ रहे योग साधकों के लिए पथ प्रदीप है। योग साधना की डगर कब किस ओर मुड़ती है, इसके प्रकाश में साफ-साफ समझा जा सकता है। साधकों की राह में आने वाले प्रश्न-कंटकों को हटाने-बीनने की पूरी व्यवस्था इसके उजाले में सम्भव है। इसकी किरणें साधकों के अन्तर्मन के अँधियारे की घुटन और घबराहट को हटाती है। इससे साधकों में अपनी साधना के लिए हिम्मत और हौसला बढ़ता है।
    
चेतना के धरातल पर देखें, तो यह पुस्तक ऐसे हिम्मती साधकों एवं महान् गुरुओं के बीच निरन्तर चलने वाला रहस्यमय वार्तालाप है। महर्षि पतंजलि एवं परम पूज्य गुरुदेव स्वयं इस योग कथा के माध्यम से अगणित साधकों की भावनाओं को सुनते हैं और उन्हें अपनी योग अनुभूतियों के अमृत रस का भागीदार बनाते हैं। इस योग कथा के शब्द तो बस उनकी विचार तरंगों के माध्यम भर हैं। इससे अधिक और कुछ भी नहीं।
    
जब साधक के सामने सवाल आता है कि आखिर यह अभ्यास क्या है और इसे करें कैसे? तो महर्षि समाधान करते हुए अगला सूत्र कहते हैं-
        
तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः॥ १/१३॥
शब्दार्थ- तत्र= उन दोनों (अभ्यास और वैराग्य) में से, स्थितौ= चित्त की स्थिति में, यत्नः= यत्न करना, अभ्यासः= अभ्यास है। यानि कि इन दोनों में, चित्त की स्थिति में (स्वयं में दृढ़ता से) प्रतिष्ठित होने का प्रयास करना अभ्यास है। अभ्यास की सामान्य महिमा से तो हममें से प्रायः सभी परिचित हैं। छोटे बच्चों और गाँव के किसानों से लेकर विशिष्टों, वरिष्ठों एवं विशेषज्ञों तक इसकी महिमा का गुणगान करते हैं। ग्रामीण जीवन में अभ्यास के बारे में एक कहावत अक्सर सुनी जाती है- करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात है सिल पर परत निसान॥ अर्थात् अभ्यास करते-करते एकदम जड़मति भी सविज्ञ-सुजान हो जाते हैं। कुछ उसी तरह से जैसे निरन्तर रस्सी की रगड़ से पाषाण पर भी निशान पड़ जाते हैं। मनुष्य की सारी क्षमताएँ उसके अभ्यास का ही फल है। यहाँ-तक कि पशु-पक्षी भी अभ्यास के बलबूते ऐसे-ऐसे करतब दिखाने लगते हैं, जिन्हें देखकर दाँतों तले उँगली दबाने का मन करता है।
    
बाहरी जीवन में, लौकिक जीवन में अभ्यास के ढेरों चमत्कार हम रोज देखते हैं। खुद की निजी जिन्दगी में भी अभ्यास के अनेकों अनुभवों को हमने जब-तब अनुभव किया है। परन्तु यह अभ्यास आन्तरिक जीवन में, आध्यात्मिक जीवन में किस तरह किया जाय, यह बात समझना अभी बाकी है। आध्यात्मिक जीवन में- आन्तरिक प्रयास। एक ऐसी होशपूर्ण कोशिश, जिसका मतलब है कि इससे पहले हम बाहर बढ़ें, हमें भीतर बढ़ना चाहिए। पहले हमें अपने केन्द्र में स्थित होने का प्रयास करना चाहिए। पहले हम अपने केन्द्र में स्थित होकर विचार करें और फिर कुछ दूसरा निर्णय करें। यह इतनी बड़ी रूपान्तरकारी घटना है कि एक बार जब हम अपने भीतर केन्द्रित हो जाते हैं, तो सारी बात ही अलग दिखाई पड़ने लगती है, सारा का सारा परिदृश्य ही बदल जाता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ६४
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 Think! Who are you?

SOHUM (I am That): Indeed potentially I am That Absolute Truth - Consciousness incarnated in human form. Attaining higher spiritual levels are easy for me. I am a Sadhak (devotee) whom Yug Rishi has given an opportunity to do Sadhana towards Self-Realization.

SHIVOHUM (I am akin to Lord Shiva): Shiva means auspicious. Essentially I am a blessed person; so how can there be any place for evil in my thoughts, feelings or actions? If any inappropriate trait has stuck to me due to bad company/surroundings, it is foreign to my essential nature and I resolve to rid myself of this dross.

SACHCHIDANANDOHUM (My intrinsic Nature is – Truth – Consciousness - Bliss): Why should I be affected by falsehood?  Why should I chase a mirage? I am innate bliss; why should I vainly seek happiness in the transient world?

AYMATMA BRAHMA (Thy soul is a Spark of Brahma (Divine)): As the ocean is water so also is a drop. Every ray of the Sun has the qualities of its Radiator. Howsoever small the Soul confined by the ego may seem it has the capacity of uniting with its origin – Brahma. Both tap and tank are capable of giving water. So why should I remain caged in the false sense of identity with the ego and feel miserable; why not become Omnipresent?

TATVAMASI (You are That): You inherit the attributes of the Supreme Soul and the whole creation is your embodiment.

We are sparks of the Eternal and Imperishable spirit and our souls are here on their upward path to immortality. The essence of our Being is the Supreme Spirit (Parmatma – Brahma) – the source of the creative cosmic play; and we are here to awaken to the Reality of true identity.

बुधवार, 23 सितंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ३३)

कहीं पाँव रोक न लें सिद्घियाँ
    
मन के पार जाना, मन की वृत्तियों के चक्रव्यूह से उबरना है, तो उपाय दो ही है- अभ्यास और वैराग्य। जिस योग साधक के जीवन में ये दोनों तत्त्व हैं, उसकी सफलता निश्चित है। इनमें से एक का अभाव योग साधक को असफल बनाये बिना नहीं रहता। यदि अभ्यास है, पर वैराग्य नहीं है, तो जो भी साधना की जाती है, जो भी योग-ऊर्जा अवतरित होती है, वह सबकी सब विभिन्न इच्छाओं और आसक्तियों के छिद्रों से बह जाती है। साधक सदा खाली का खाली बना रहता है। इसी तरह केवल वैराग्य है, अभ्यास में दृढ़ता नहीं है, तो केवल आलस्य का अँधेरा ही जिन्दगी में घिरा रहता है। ऊर्जा, शक्ति, चैतन्यता की किरणें कहीं भी दिखाई नहीं देती। यही कारण है कि महर्षि दोनों की समन्वित आवश्यकता बताते हैं।
    
अभ्यास और वैराग्य को समन्वित रूप से अपनाने में साधना जीवन की सभी समस्याओं का एक साथ समाधान हो जाता है। प्रायः प्रायः सभी साधकों की साधनागत समस्याएँ एवं परेशानियाँ एक ही बिन्दु के इर्द-गिर्द घूमती रहती है - मन नहीं लगता, मन एक जगह में टिकता नहीं है। धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में अर्जुन ने विश्वम्भर कृष्ण से भी यही समस्या कही थी- ‘चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढ़म्’ - हे कृष्ण! यह मन बड़ा की चंचल है, बड़े ही प्रमथन स्वभाववाला और बहुत ही बलवान् है। अर्थात् मन की चंचलता ही इतनी बढ़ी-चढ़ी है कि किसी भी तरह काबू में ही नहीं आती। महारथी अर्जुन के इस सवाल को सुनकर भगवान् कृष्ण ने कहा-

‘असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥’ - गीता-६/३५
    
हे कुन्तीपुत्र महाबाहु अर्जुन! तुम्हारे इस कथन में कोई संशय नहीं है। इस मन की चंचलता किसी भी तरह से वश में आने वाली नहीं है। परन्तु अभ्यास और वैराग्य से इसे बड़ी आसानी से वश में किया जा सकता है। इसके बाद जगद्गुरु कृष्ण अर्जुन को चेताते हुए एक सूत्र और भी कहते हैं-
    
‘असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥’ - गीता-६/३६
    
अर्थात्- जिसके वश में मन नहीं है, ऐसे असंयत साधक के द्वारा योग में सफलता पाना अतिकठिन है, असम्भव है। जबकि जिन्होंने अपने मन को वश में कर लिया है, ऐसे साधक बड़ी आसानी से योग में सफल हो जाते हैं।
    
इस प्रकरण में प्रकारान्तर से भगवान् कृष्ण अभ्यास और वैराग्य की साधक के जीवन में अनिवार्य आवश्यकता बताते हैं। इन दोनों तत्त्वों को साधक का परिचय, पर्याय और पहचान भी कहा जा सकता है। यानि कि यदि कोई योग साधक है, तो उसके जीवन में साधनात्मक अभ्यास और वैराग्य होगा ही। इन दोनों के अभाव में साधक और उसकी साधना दोनों ही झूठे हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ६१
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या


मंगलवार, 22 सितंबर 2020

👉 ईश्वर की कृपा पाना चाहते हो तो

शहर में एक अमीर सेठ रहता था। उसके पास बहुत पैसा था। वह बहुत फैक्ट्रियों का मालिक था।

एक शाम अचानक उसे बहुत बैचेनी होने लगी। डॉक्टर को बुलाया गया सारी जाँच करवा  ली गयी। पर कुछ भी नहीं निकला। लेकिन उसकी बैचेनी बढ़ती गयी। उसके समझ में नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है। रात हुई, नींद की गोलियां भी खा ली पर न नींद आने को तैयार और ना ही बैचेनी कम होने का नाम ले।

वो रात को उठकर तीन बजे घर के बगीचे में घूमने लगा। घुमते-घुमते उसे लगा कि बाहर थोड़ा सा सुकून है तो वह बाहर सड़क पर पैदल निकल पड़ा।

चलते- चलते हजारों विचार मन में चल रहे थे। अब वो घर से बहुत दूर निकल आया था। और थकान की वजह से वो एक चबूतरे पर बैठ गया। उसे थोड़ी शान्ति मिली तो वह आराम से बैठ गया।

इतने में एक कुत्ता वहाँ आया और उसकी चप्पल उठाकर ले गया। सेठ ने देखा तो वह दूसरी चप्पल उठाकर उस कुत्ते के पीछे भागा। कुत्ता पास ही बनी जुग्गी-झोपड़ीयों में घुस गया। सेठ भी उसके पीछे था, सेठ को करीब आता देखकर कुत्ते ने चप्पल वहीं छोड़ दी और चला गया। सेठ ने राहत की सांस ली और अपनी चप्पल पहनने लगा। इतने में उसे किसी के रोने की आवाज सुनाई दी।

वह और करीब गया तो एक झोपड़ी में से आवाज आ रहीं थीं। उसने झोपड़ी के फटे हुए बोरे में झाँक कर देखा तो वहाँ एक औरत फटेहाल मैली सी चादर पर दीवार से सटकर रो रही हैं। और ये बोल रही है -- हे भगवान मेरी मदद कर ओर रोती जा रहीं है।

सेठ के मन में आया कि यहाँ से चले जाओ, कहीं कोई गलत ना सोच लें। वो थोड़ा आगे बढ़ा तो उसके दिल में ख़्याल आया कि आखिर वो औरत क्यों रो रहीं हैं, उसको तकलीफ क्या है? और उसने अपने दिल की सुनी और वहाँ जाकर दरवाजा खटखटाया।

उस औरत ने दरवाजा खोला और सेठ को देखकर घबरा गयी। तो सेठ ने हाथ जोड़कर कहा तुम घबराओं मत, मुझे तो बस इतना जानना है कि तुम रो क्यों रही हो।

वह औरत के आखों में से आँसू टपकने लगें। और उसने पास ही गीदड़ी में लिपटी हुई उसकी 7-8 साल की बच्ची की ओर इशारा किया। और रोते -रोते कहने लगी कि मेरी बच्ची बहुत बीमार है उसके इलाज में बहुत खर्चा आएगा। और में तो घरों में जाकर झाड़ू-पोछा करके जैसे-तैसे हमारा पेट पालती हूँ। में कैसे इलाज कराउ इसका?

सेठ ने कहा--- तो किसी से माँग लो। इसपर औरत बोली मैने सबसे माँग कर देख लिया खर्चा बहुत है कोई भी देने को तैयार नहीं। तो सेठ ने कहा तो ऐसे रात को रोने से मिल जायेगा क्या?

तो औरत ने कहा कल एक संत यहाँ से गुजर रहे थे तो मैने उनको मेरी समस्या बताई तो उन्होंने कहा बेटा-- तुम सुबह 4 बजे उठकर अपने ईश्वर से माँगो। बोरी बिछाकर बैठ जाओ और रो रो टर -गिड़गिगिड़ाके उससे मदद माँगो वो सबकी सुनता है तो तुम्हारी भी सुनेगा।

मेरे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था। इसलिए में उससे माँग रही थीं और वो बहुत जोर से रोने लगी।

ये सब सुनकर सेठ का दिल पिघल गया और उसने तुरन्त फोन लगाकर एम्बुलेंस बुलवायी और उस लड़की को एडमिट करवा दिया। डॉक्टर ने डेढ़ लाख का खर्चा बताया तो सेठ ने उसकी जवाबदारी अपने ऊपर ले ली, और उसका इलाज कराया। और उस औरत को अपने यहाँ नौकरी देकर अपने बंगले के सर्वेन्ट क्वाटर में जगह दी। और उस लड़की की पढ़ाई का जिम्मा भी ले लिया।

वो सेठ कर्म प्रधान तो था पर नास्तिक था। अब उसके मन में सैकड़ो सवाल चल रहे थे। क्योंकि उसकी बैचेनी तो उस वक्त ही खत्म हो गयी थी जब उसने एम्बुलेंस को बुलवाया था। वह यह सोच रहा था कि आखिर कौन सी ताकत है जो मुझे वहाँ तक खींच ले गयीं? क्या यहीं ईश्वर हैं? और यदि ये ईश्वर है तो सारा संसार आपस में धर्म, जात -पात के लिये क्यों लड़ रहा है। क्योंकि ना मैने उस औरत की जात पूछी और ना ही ईश्वर ने जात -पात देखी। बस ईश्वर ने तो उसका दर्द देखा और मुझे इतना घुमाकर उस तक पहुंचा दिया। अब सेठ समझ चुका था कि कर्म के साथ सेवा भी कितनी जरूरी है क्योंकि इतना सुकून उसे जीवन में कभी भी नहीं मिला था।

तो दोस्तों मानव और प्राणी सेवा का धर्म ही असली इबादत या भक्ति हैं। यदि ईश्वर की कृपा या रहमत पाना चाहते हो तो इंसानियत अपना लो और समय-समय पर उन सबकी मदद करो जो लाचार या बेबस है। क्योंकि ईश्वर इन्हीं के आस -पास रहता हैं।

👉 सविता का प्रचण्ड सामर्थ्य

मानव व सूर्य के आदि काल से ही महान् भावनात्मक संबंध रहे हैं। वैदिक वाङ्मय सूर्य के माहात्म्य, उनकी विश्व संचालन में चेतनात्मक भूमिका तथा सूर्योपासना के लाभों के विवरणों से भरा पड़ा है। सूर्य मानव के लिए प्राणदाता, जीवन रक्षक व सांस्कृतिक विकास का परिचायक है।

संसार के हर तत्त्व की तरह सूर्य तत्त्व भी त्रिआयामी है। आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक ये उनके तीन आयाम हैं। वैज्ञानिकों ंने सूर्य देव के भौतिक रूप से सम्पर्क कर प्रकाश, ऊर्जा एवं काल ज्ञान प्राप्त किया है। प्राचीन भारतीय विचारक मात्र पदार्थ विद्या के जानकार नहीं होते थे, अपितु देवतत्त्व तथा आत्म-तत्त्व के भी मर्मज्ञ होते थे। उनकी अभिव्यक्ति-प्रणाली एक साथ त्रिस्तरीय थी। स्वाभाविक है कि इसके लिए अनुपम मेधा की आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति वे गायत्री मंत्र के द्वारा करते थे।
    
सूर्य का दैविक पक्ष कहीं, अधिक सशक्त और रहस्यमय है। इसकी उपासना से पवित्रता, प्रखरता, वर्चस्, तेजस् प्राप्त होता है। ब्रह्माण्ड के रहस्य जाने जा सकते हैं। लोक-लोकान्तरों के रहस्यों को प्रत्यक्ष किया जा सकता है। सिर्फ भौतिक विज्ञान द्वारा तीनों स्तरों का ज्ञान संभव नहीं होगा। आजकल का विज्ञान आधिभौतिक स्वरूप की ही खोजबीन में जुटा है। आधिदैविक रहस्य को समझने के लिए उपकरण भी आधिदैविक चाहिए। यह भौतिकी से संभव नहीं है। देवता किसी की प्रतिकृति नहीं, वरन् विशिष्ट गुणों या शक्तियों के रूप में सूक्ष्म जगत् में क्रियाशील हैं।
    
सूर्य व सविता के स्वरूप को वेद स्पष्ट करता है। सविता अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के सूर्यों में समान विराजमान, प्रेरक दिव्य शक्ति रूप परब्रह्म परमात्मा। ऋषि के अनुसार ब्रह्माण्ड का प्रत्येक सूर्य सविता है। ऋग्वेद के ‘ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव, यद्भद्रं तन्न आसुव’ मन्त्र में श्रेष्ठ विचारों को सूर्य के माध्यम से आमंत्रित किया गया है। सविता अमृत तत्त्व का स्रोत है। आदित्य देवताओं का मधु है। आदित्य का आधिभौतिक रूप हैै परमाणु, आधिदैविक रूप है- ग्यारह प्रमुख देवगणों में से एक आदित्य देव तथा आध्यात्मिक रूप है चेतना। आदित्य-सविता सर्वव्यापी ब्रह्म है। सूर्य जगत् की आत्मा है। यहाँ सूर्य शब्द से विश्व को प्रकाशित करने का व आकाश में उगने वाले सूरज से किसी को अर्थ नहीं लगाना चाहिए और न यह भ्रम पालना चाहिए कि यही विश्वात्मा है। जिस प्रकार शरीर व आत्मा का संबंध है, कुछ इसी प्रकार का संबंध सूर्य और सविता में है।
    
सविता वह चेतन सत्ता है, जिससे सूर्य प्रकाशित होता है, जो स्वयं चेतना है। वही प्राण चेतना के रूप में अन्यत्र प्रगट हो सकता है। सविता में ही यह गुण है। यजुर्वेद में कहा गया है ‘ब्रह्म सूर्य समं ज्योतिः’ अर्थात् ब्रह्म सूर्य ज्योति के समतुल्य है। जिस प्रकार भौतिक दिनमान संसार को प्रकाशित करता  रहता है, उसी प्रकार चैतन्य सविता उसकी ज्योति से जगत् का समस्त जड़ चेतन, कण-कण, अणु-अणु समान रूप से प्रकाशित हो रहा है। यह सविता प्रकाश ही ब्रह्म है।
    
मानवीय मन इतना चलायमान है कि उसे ईश्वर व एकाग्र करने के लिए दृश्य माध्यमों का सहारा लेना पड़ता है। जिसने निराकार ब्रह्म को देखा नहीं, उसे साकार साधनों से काम चलाना पड़ता है। अतः जड़ सूर्य को ब्रह्म का मूर्तिमान् प्रकाश मानकर सूर्य की ध्यान साधना का विधान किया गया है। इतने पर भी अंतिम लक्ष्य वह सर्वव्यापी तेजोमय ब्रह्म की उपलब्धि ही होता है।
    
सूर्य को त्रयी विद्या कहा गया है तथा पापनाशक माना गया है। उसका भर्ग ब्रह्मतेज व पापनाशिनी शक्ति वाला है। इसलिए पापों से मुक्ति व सद्बुद्धि की याचना वाला गायत्री मंत्र सविता के ध्यान के साथ जपा जाता है। आद्य शंकराचार्य ने संध्या भाष्य में सूर्य माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा है कि चराचर जगत् के उत्पादक सूर्य की आराधना पापों का नाश करती है। वे हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं। प्राचीनकाल में सर्वत्र सूर्योपासना के प्रमाण मिलते हैं। प्राचीनकाल की तरह वर्तमान में भी सूर्य की उपासना करके उनके त्रिस्तरीय आयामों से लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए कहा गया है कि नित्य सूर्य का ध्यान करेंगे, अपनी प्रतिभा प्रखर करेंगे।  

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ३२)

कहीं पाँव रोक न लें सिद्घियाँ
    
योगकथा की प्रत्येक पंक्ति अनुभूति रस में सनी-लिपटी एवं रची-बसी है। यह आमंत्रण  है उनके लिए, जो अन्तर्यात्रा विज्ञान को समझना चाहते हैं। साथ ही स्वयं भी अन्तर्यात्रा करने की चाहत रखते हैं। जिनकी चाहत सच्ची है, जिनमें मात्र कौतुक-कौतुहल नहीं आन्तरिक जिज्ञासा है, उनसे कहा जा रहा है कि अब यूँ ही सिकुड़े-सहमे-ठिठके खड़े न रहें, आगे बढ़ें, अपने कदमों में गति लायें। जो बताया जा रहा है, उसे समझें ही नहीं, करें भी और योग विभूतियों के अधिकारी बनें।
    
योग साधना के मार्ग पर कदम बाधाएँ रोकें, यह जरूरी नहीं। बाहरी बाधाएँ तो अक्सर साधक के आगे बेबस हो जाती हैं, पर इस मार्ग पर मिलने वाली शक्तियाँ, सिद्धियाँ और विभूतियाँ जरूर साधक को चुनौतियाँ देती हैं। ध्यान रखना होगा कि इनका मिलना छोटा-मोटा तमाशा भर है। महर्षि पतञ्जलि चेतावनी देते हैं कि इन शक्तियों को अर्जित करना, सिद्धियों को पाना और विभूतियों के अधिकारी बनना सच्चे साधक का उद्देश्य नहीं है। साधक तो इन्हें उपेक्षा भरी दृष्टि से देखकर आगे अपनी मञ्जिल की ओर बढ़ जाता है।
    
परम पूज्य गुरुदेव ने ऐसे तमाशों से योग साधकों को सावधान करते हुए गायत्री महाविज्ञान में लिखा है - ‘कोई ऐसा अद्भुत कार्य करके दिखाना, जिससे लोग यह समझ लें कि यह सिद्धपुरुष है, गायत्री उपासकों के लिए कड़ाई से वर्जित  है। यदि वे इस चक्कर में पडें़, तो निश्चित रूप से कुछ ही दिनों में उनकी शक्ति का स्रोत सूख जायेगा और छूँछ बनकर अपनी कष्ट साध्य आध्यात्मिक कमाई से हाथ धो बैठेंगे। उनके लिए संसार को सद्ज्ञान दान कार्य ही इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसी के द्वारा वे जनसाधारण के आन्तरिक, बाह्य और सामाजिक कष्टों को भलीभाँति दूर कर सकते हैं और स्वल्प साधनों से ही स्वर्गीय सुखों का आस्वादन कराते हुए लोगों के जीवन को सफल बना सकते हैं। इस दिशा में कार्य करने से उनकी आध्यात्मिक शक्ति भी बढ़ेगी। इसके प्रतिकूल यदि वे चमत्कार के प्रदर्शन के चक्कर में पड़ेंगे, तो लोगों का क्षणिक कौतूहल, अपने प्रति उनका आकर्षण थोड़े समय के लिए भले ही बढ़ा लें, पर वस्तुतः अपनी और दूसरों की इस प्रकार भारी कुसेवा होनी सम्भव है।

इन सब बातों का ध्यान रखते हुए हम कड़े शब्दों में आदेश देते हैं कि योग साधक अपनी सिद्धियों को गुप्त रखें, किसी के सामने प्रकट न करें। जो दैवी चमत्कार अपने को दिखाई दें, उन्हें किसी से न कहें। गायत्री साधकों की यह जिम्मेदारी है कि वे प्राप्त शक्ति का रत्ती भर भी दुरुपयोग न करें। हम सावधान करते हैं कि कोई भी साधक इस मर्यादा का उल्लंघन न करे।’ परम पूज्य गुरुदेव के इस आदेश में सद्गुरु का अपने शिष्यों के लिए मार्गदर्शन एवं पथप्रदर्शन निहित है। महायोगी महर्षि पतञ्जलि हों या महान् योगसिद्ध परम पूज्य गुरुदेव दोनों ने ही योग साधकों को मन और उसकी वृत्तियों के खतरे से सावधान किया है। साधक को भटकाने  वाला दूसरा कोई नहीं, उसका अपना मन और मन की वृत्तियाँ हैं। इनके  निग्रह और निरोध से ही योग सधता है। पर यह सम्भव कैसे हो? योग सूत्रकार महर्षि पतञ्जलि अगले सूत्र में इसका समाधान करते हैं।

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः॥ १/१२॥

शब्दार्थ-अभ्यास-वैराग्याभ्यां=अभ्यास और वैराग्य से; तन्-निरोधः=उनका (वृत्तियों का) निरोध होता है। यानि कि अभ्यास और वैराग्य से इन वृत्तियों का निरोध हो जाता है।    

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ६०
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 One who has conquered the Self, can conquer the World

The essence of Sadhana is ‘self-discipline’. One who has conquered the ego-centered self is the true warrior. It is easy to subdue others with brute force; it involves no virtuous valor.

Our real enemies are our evil impressions and animal tendencies deeply entrenched in our psyche. They keep suppressed the inner virtues and prove to be heavy obstacles in the path of inner growth. Rooting them out is real bravery.

The woodlouse eats the wood and the virus seriously disturbs the natural harmonies of the psychosomatic organism. Likewise the vices and addictions of a person relentlessly push him downwards; and none of his efforts to rise up gets successful.

If we can identify our real enemies – the evil impressions - and resolutely eradicate them, then will we be successful in achieving the Supreme goal of life. That is why seers and thinkers have been stressing again and again that – true seekers must do the inner Inquiry – Who am I? Who can know us better than ourselves? It is really simple to point to other’s faults, but being continuously aware of our own faults and sweep them out of our minds is indeed a tough task. However, one who accomplishes such a self-refinement is a conqueror of the lower self; and such a person indeed possesses the power to conquer the world. Self-conquest is the greatest conquest.
 
 ✍🏻 Pt Shriram Sharma Acharya

सोमवार, 21 सितंबर 2020

👉 घास और बाँस

ये कहानी एक ऐसे व्यक्ति की है जो एक Business man था लेकिन उसका business डूब गया और वो पूरी तरह hopeless हो गया। अपनी life से बुरी तरह थक चुका था। अपनी life से frustrate चुका था।

एक दिन परेशान होकर वो जंगल में गया और जंगल में काफी देर अकेले बैठा रहा। कुछ सोचकर भगवान से बोला – मैं हार चुका हूँ, मुझे कोई एक वजह बताइये कि मैं क्यों ना हताश होऊं, मेरा सब कुछ खत्म हो चुका है।

मैं क्यों ना frustrate होऊं?

Please help me God

भगवान का जवाब

तुम जंगल में इस घास और बांस के पेड़ को देखो- जब मैंने घास और इस बांस के बीज को लगाया। मैंने इन दोनों की ही बहुत अच्छे से देखभाल की। इनको बराबर पानी दिया, बराबर Light दी।

घास बहुत जल्दी बड़ी होने लगी और इसने धरती को हरा भरा कर दिया लेकिन बांस का बीज बड़ा नहीं हुआ। लेकिन मैंने बांस के लिए अपनी हिम्मत नहीं हारी।

दूसरी साल, घास और घनी हो गयी उसपर झाड़ियाँ भी आने लगी लेकिन बांस के बीज में कोई growth नहीं हुई। लेकिन मैंने फिर भी बांस के बीज के लिए हिम्मत नहीं हारी।

तीसरी साल भी बांस के बीज में कोई वृद्धि नहीं हुई, लेकिन मित्र मैंने फिर भी हिम्मत नहीं हारी।

चौथे साल भी बांस के बीज में कोई growth नहीं हुई लेकिन मैं फिर भी लगा रहा।

पांच साल बाद, उस बांस के बीज से एक छोटा सा पौधा अंकुरित हुआ……….. घास की तुलना में ये बहुत छोटा था और कमजोर था लेकिन केवल 6 महीने बाद ये छोटा सा पौधा 100 फ़ीट लम्बा हो गया।
मैंने इस बांस की जड़ को grow करने के लिए पांच साल का समय लगाया। इन पांच सालों में इसकी जड़ इतनी मजबूत हो गयी कि 100 फिट से ऊँचे बांस को संभाल सके।

जब भी तुम्हें life में struggle करना पड़े तो समझिए कि आपकी जड़ मजबूत हो रही है। आपका संघर्ष आपको मजबूत बना रहा है जिससे कि आप आने वाले  कल को सबसे बेहतरीन बना सको।

मैंने बांस पर हार नहीं मानी,
मैं तुम पर भी हार नहीं मानूंगा,
किसी दूसरे से अपनी तुलना(comparison) मत करो
घास और बांस दोनों के बड़े होने का time अलग अलग है दोनों का उद्देश्य अलग अलग है।

तुम्हारा भी समय आएगा। तुम भी एक दिन बांस के पेड़ की तरह आसमान छुओगे। मैंने हिम्मत नहीं हारी, तुम भी मत हारो !
अपनी life में struggle से मत घबराओ, यही संघर्ष हमारी सफलता की जड़ों को मजबूत करेगा।
लगे रहिये, आज नहीं तो कल आपका भी दिन आएगा।

👉 सात्विक दान

सात्विक प्रवृत्ति वाला आत्मज्ञ सात्विक दान को जीवन में उपयुक्त स्थान देता है। यदि सच कहा जाय तो अखिल विश्व की समस्त गतिविधि दान के सतोगुण नियम के आधार पर चल रही हैं। परमेश्वर ने कुछ ऐसा क्रम रखा है कि पहले बोयो तब काटो। जो कोई भी तत्त्व अपने दान की प्रक्रिया बन्द कर देता है, वही नष्ट हो जाता है, विकृत एवं कुरूप हो जीवन युद्ध में धराशायी हो जाता है। संसार की किसी भी जड़ चेतन यहाँ तक कि मन्द बुद्धि पशु जाति तक देखिए। सर्वत्र दान का अखण्ड नियम कार्य कर रहा है। यदि कुएँ जल दान देना बन्द कर दें, खेत अन्न देना रोक दे, पेड़-फल, पत्तियाँ, छाल देना बन्द कर दें, हवा, जल, धूप, गाय, भैंस इत्यादि पशु अपनी सेवाएँ रोक दें, तो समस्त सृष्टि का संचालन बन्द समझिये। माता-पिता बालक का ठीक पालन करना बन्द कर दें, तो चेतन जीवों का बीज ही मिट जायेगा और सबसे बड़ा दानी परमेश्वर तो हर पल, हर घड़ी हमें कुछ न कुछ प्रदान करता रहता है। उसकी रचना में दान तत्त्व प्रमुख है।
    
दान का अभिप्राय क्या है? यह है संकीर्णता से छुटकारा आत्म संयम का अभ्यास एवं दूसरों की सहायता भावना की उत्तेजना। दान करते समय हमारे मन में यश प्राप्ति की इच्छा, फल की आशा या अहंकार की भावना नहीं होनी चाहिए। दान तो प्रसन्नता, सुख और सन्तोष का दाता है। दान करना स्वयं में एक आनन्द है। देते समय जो सन्तोष की उच्च सात्विक दृष्टि अन्तःकरण में उठती है, वह इतनी महान् है कि कोई भी भौतिक सुख उसकी तुलना नहीं कर सकता।
    
पैसा, धन तथा वस्तुएँ सबके काम में आनी चाहिए। यदि आपके पास व्यर्थ पड़ा है, तो उन्हें मुक्त कण्ठ से दूसरे को दीजिए। पैसे की, रुपये की बुरी तरह चौकीदारी करने वाला कंजूस दान के स्वर्गीय आत्म-सुख का रसास्वादन करने से वंचित रहता है। जो मुक्त हृदय से देता है, वह वास्तविक आत्मवादी है। जो दान करता है, वह मानव के हृदय में रहने वाले एक सात्विक प्रवाह की रक्षा करता है, स्वार्थों को मारता है और तुच्छ संकीर्णता से ऊपर उठता है।     

आत्मा की संकीर्णता छोड़िये। यदि आप दूसरों को देंगे, तो परमात्मा आपको और देगा। किन्तु यदि आप कंजूसी करेंगे, तो आपको मिलना बन्द हो जायेगा। जो उदार है, दानी है, सत्कर्मों में अपनी सामर्थ्य भर देता है वास्तव में वही बुद्धिमान है तथा बुद्धिमानों के ही पास दैवी सम्पदाएँ रहती हैं। देश, काल, पात्र का विचार करके केवल कर्तव्य बुद्धि से द्रव्य अथवा आवश्यक वस्तु का दान करना श्रेयस्कर है।
    
मनुष्य एकत्रित किए हुए धन की सदुपयोग करने का अच्छे से अच्छा समय तथा मार्ग यही है कि वह अपने जीवन-काल में ही प्रतिदिन उसका परोपकार (दान) में सदुपयोग करे। ऐसा करने से उसका जीवन अधिक उन्नत और विकसित होगा। एक समय ऐसा आयेगा, जब धन का ढेर छोड़कर मरने वाले की पीछे से निन्दा होगी। आशय यह है कि परोपकार का पुण्यकार्य भविष्य की पीढ़ियों तथा दृष्टियों को सौंप जाने की अपेक्षा जीते जी अपने हाथ से कर जाने में ही धन का अधिक सदुपयोग होता है। सात्विक दान ही परमगति को देने वाला मुक्ति स्वरूप साधन है। दान से त्याग, बलिदान एवं वैराग्य की त्रिविध भवभय नाशिनी अलौकिक सुधा धारा उत्पन्न होकर हमें जगत का वास्तविक स्वरूप प्रदान करती है। ऐसा दानी व्यक्ति जगत के समस्त कर्म करते हुए भी अहंकार, स्वार्थ, मोह, माया से मुक्त रहता है। पाप तापों की कोई शक्ति नहीं जो उसे विचलित कर सकें।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ३१)

जो यादों का धुँधलका साफ हो जाए
    
इस महाप्रश्न का उत्तर हमारी अपनी अन्तश्चेतना की गहराइयों में है। जिसकी अनुभूतियों से हम अभी तक अछूते हैं। सामान्य क्रम में हम स्मृति का अर्थ वही यादें समझते हैं, जो बचपन से लेकर अब तक हमारे साथ जुड़ी हैं। लेकिन यादों का यह क्रम यहीं तक सीमित तो नहीं है। इसके दायरे में वह सब भी है, जो इस जीवन के पार और परे है। इसमें वे अनुभव भी आते हैं, जो हमें विगत जन्मों में भी हुए हैं। उनकी यादें भी तो हमारे अपने ही चित्त में संग्रहीत है। भले ही काल क्रम में ये थोड़ा धुँधली पड़ गयी हों। इन्हें पार करते हुए यदि हम अपने अस्तित्व के केन्द्र में झाँके, तो एक मूल्यवान् स्मृति और भी है- और वह  हमारे अपने ही स्वरूप का अनुभव। हमारा वह स्वरूप जिसके लिए बाबा तुलसीदास ने कहा है- ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशी॥’ इस मौलिक अनुभव की स्मृति तो जैसे एकदम ही लुप्त हो गयी है। इस स्मृति पर न जाने कितनी स्मृतियों ने धुँधले आवरण डाल दिए हैं।
    
लेकिन यह हुआ कैसे? गीता माता कहती है कि इसकी एक लम्बी कड़ी है।  ‘संगात् संजायते कामः, कामात् क्रोधोऽभिजायते। क्रोधाद् भवति संमोहः, सम्मोहात् स्मृति विभ्रमः॥’ यानि कि विषयों के संग से उनकी कामना, फिर कामना से क्रोध, फिर क्रोध से सम्मोह और इस सम्मोह से स्मृति भ्रम। यह क्रम यहीं नहीं खत्म होता। आगे की कड़ियाँ और भी हैं- ‘स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति।’ अर्थात्- स्मृति भ्रंश से बुद्धि का नाश और बुद्धि के नाश से स्वयं का नाश। आज के इन क्षणों में हमारी अपनी क्या दशा है? यह हम बड़ी अच्छी तरह से जान सकते हैं।
    
इस स्थिति से उबरने का उपाय क्या है? इस सवाल के जवाब में परम पूज्य गुरुदेव कहते हैं- उपाय एक ही है- उलटे को उलटकर सीधा करना। अर्थात् आत्मनाश की स्थिति से बचने के लिए पहले हमें आत्मउद्धार का संकल्प लेना होगा। फिर बुद्धिनाश की स्थिति को उलटने के लिए महाप्रज्ञा माता गायत्री का आँचल थामना होगा। वही हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर ले जा सकती है। इसके पश्चात् स्मृति विभ्रम दूर होना शुरू होता है। यानि कि तब हमें गायत्री साधना के बीच में अपने स्वरूप की हल्की झलकियाँ मिलती हैं। लेकिन सम्मोह का जाल अभी भी बना रहता है। यह तब टूटता है, जब क्लिष्ट स्मृति यानि जीवन के ईर्ष्या, द्वेष, वैरभाव या विषयानुभूति की यादों को अपने पास न फटकने दें। इनके स्थान पर याद करें-सत्पुरुषों के संग को, अपने सद्गुरु के संग और उनके वचनों को। इससे न केवल सम्मोह नष्ट होता है, बल्कि क्रोध भी नष्ट होता है। विषयों की कामना भी जाती रहती है। फिर उनके संग की चाहत भी नहीं पैदा होती।
    
उलटे को उलटकर सीधा करने का पूरा क्रम यही है। यह क्रम पूर्ण होते ही अन्तश्चेतना में शुद्ध सत्त्व का उदय होता है। इस शुद्ध सत्त्व का परिणाम है-ध्रुवा स्मृतिः अर्थात् अपने और परम चेतना के शाश्वत सम्बन्धों की दृढ़ भावानुभूति। इस सत्य को प्रकट करते हुए उपनिषदों का कथन है- ‘शुद्ध सत्त्व ध्रुवाःस्मृतिः’  स्मृति की साधना का सार यही है कि हम ईर्ष्या, वैरभाव, विषयभोगों से जुड़ी हुई यादों को हटाकर-भगाकर बार-बार अपनी आत्मचेतना को पवित्र करने वाली यादों को दुहराएँ।
    
सन्तों ने इसी को सुमिरन कहा है। सुमिरन यानि की प्रभु की याद, अपने आत्मस्वरूप का बार-बार चिन्तन। यही स्मृति का सार्थक उपयोग है। मानव चेतना के रहस्य इसी से उजागर होते हैं। अपने स्मृति विभ्रम के कारण हम भूल चुके हैं कि आखिर हम कौन हैं? हमारा अपना ही परिचय हमसे खो गया है। स्वयं की याद का ही विलोप हो गया है। हाँ, दूसरों की भली-बुरी न जाने कितनी ही यादों को हम ढोते फिरते हैं। मर्म को छूती परम पूज्य गुरुदेव की पुस्तक - ‘मैं कौन हूँ?’  में उन सभी विधियों का समावेश है- जिससे हम अपनी खोयी स्मृतियों को पा सकते हैं। इसके साधना सूत्र बड़े ही प्रभावकारी हैं। स्मृति के रहस्य के जिज्ञासु साधकों के लिए यह पुस्तक नित्य पठनीय है। ध्यान रहे- हमारे दैनिक जीवन के सारे दुःखों के मूल में एक मात्र सत्य यही है कि हमने अपनी स्मृति को कष्टकारक बना लिया है। स्थिति को उलटने के लिए हमें इसे ही सुखकारक बनाना होगा। तभी योग की असल मंजिल की तरफ कदम बढ़ते रह सकते हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ५८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 Yug Nirman Yojana – A Sure Remedy for Present-day Ills

‘Yug Nirman Yojana’ (Campaign for Era - Transformation) through the medium of Gayatri Sadhana is the sure remedy prescribed by the Seer-Sage Swami Sarveswaranandji for all the ills of soul-mind-body by which mankind is afflicted in the present age. His disciple – Acharya Sriram Sharma – made Herculean efforts to implement his Master’s Plan and established the global Gayatri Mission, with its headquarters at Gayatri Teerth Shantikunj Hardwar, for the production of this wonder cure-all drug. The followers of Acharyasri, the Gayatri Parijans, are making an all – out effort to distribute this medicine (of Gayatri Sadhana) to one and all. Acharyasri asserted that Gayatri is for everyone; it is a divinely inspired revolution, which is bound to succeed in spite of all the opposition from dogmatic forces of outmoded traditions and beliefs.

The aim of ‘Yug Nirman’- revolution is to achieve the inner refinement and upliftment of the individual, the family and the society at large; and thus lay a firm foundation for the emergence of the golden era of genuine peace on earth.

The role of Gayatri Sadhana is to bring about a synthesizing transformation of attitudes, feelings and thoughts. If the existing divisive and ego-driven beliefs / traditions of the masses could be transmuted through spiritual awakening, then people, physically remaining the same, will intuitively experience the underlying Unity and Harmony of all that exists and will be rid of their mis-identity with the body.

This process of change of the era has already begun. The visible emergence of the bright future of humanity in the twenty-first century is very much linked with the success of Yug Nirman Yojana. Since its fulfillment is divinely ordained, the one thing that the parijans have to do in this transition period is to contribute their mite by uplifting and transmuting themselves through Gayatri Sadhana and then, by example, inspire others to do so. This will have the needed ripple effect, which will steadily build up the needed critical mass for initiating the process of human transformation, resulting in lasting peace and harmony on earth.

शनिवार, 19 सितंबर 2020

👉 मन की चंचलता दूर करने का रहस्य

एक दिन सत्संग में एक सज्जन ने प्रश्न उठाया कि मन बड़ा चंचल है कैसे वश में किया जाय। बिना न के एकाग्र हुए भजन वृथा है। मन की चाल हवा से भी तेज है। क्षण भर में चौदह लोकों में घूम आता है। जाग्रत में ही नहीं, स्वप्न में भी चुप होकर नहीं बैठता। जन्म भर में कभी देखे सुने न हो, ऐसे-ऐसे अनोखे पदार्थ रच लेता है। यह बड़ा दुष्ट, चंचल प्रबल व ढीठ है।

एक दूसरे सज्जन ने कहा- मन की बात मत छेड़ो। मैं जब भजन करने बैठता हूँ तो और भी भागता है। बहुतेरा रोकता हूँ रुकता नहीं। मंत्र में लगाता हूँ तो बिना सिर पैर के ख्याली पुलाव पकाने लगता है। भगवान का ध्यान करना चाहता हूँ तो भागा-भागा फिरता है। राम-राम जपता हूँ तो ग्राम-ग्राम घूमता है। घर बाहर के, कचहरी दरबार के सब झगड़े भजन में लाकर खड़े कर देता है।

एक तीसरे सज्जन ने अपनी कठिनाई बताई कि-मैं तो इस मन की हरकतों से तंग आ गया हूँ। एक न एक बखेड़ा यह बराबर खड़े किये रहता है। मैं संसार से मुक्त होना चाहता हूँ तो मुझे लौटा-लौटा कर उसी में डालता है। सत्संग में जाना चाहता हूँ तो गप्प, ताश, शतरंज में लगा देता है। मन्दिर में दर्शन करने जाता हूँ तो सिनेमा के सामने ला खड़ा कर देता है। स्वाध्याय करना चाहता हूँ तो उपन्यास सामने जाकर रख देता है। गीता पढ़ने बैठता हूँ तो कहता है घर में दाल नहीं है, घी नहीं, मिर्च मसाला नहीं है, लकड़ी नहीं है, चलो, ले आओ। गीता फिर पढ़ लेना। यह तो रोज का गीत है। पेट पूजा तो प्रधान है। गीता का समरत्व योग भूखे पेट की ज्वाला नहीं शाँत कर सकता। मन की फरमाइशों के मारे तो तबियत परेशान हो गई है।

सबकी सुन लेने पर अन्त में उस सत्संग में उपस्थित एक महात्मा जी ने कहा कि-आप लोग उलटी गंगा बहा रहे हैं। आप लोगों के कहने के अनुसार तो आप कोई और हैं और मन कोई और। मगर बात असल में यह है कि आप ही से मन की सत्ता हैं। मन से आपकी सत्ता नहीं है। आप ही से मन निकला है। जैसे आप हैं वैसा आपका मन है। मन तो सरल, अबल और बेपेंदी का लोटा है। बिना कौड़ी पैसे का गुलाम है। वचन में बंधा हुआ है। इशारे पर काम करता है। जो-जो भोग आप माँगते हैं कि भजन नहीं करने देता। भजन करना आप चाहते ही कब हैं। धन में, स्त्री में, पुत्र में, नाम में, जुए मैं, माँस-मदिरा में, बीड़ी-सिगरेट में, सिनेमा, क्लब में आपकी रुचि है। इनसे आपको फुरसत ही कहाँ है। चौबीस घंटा में 23 घंटा इन्हीं का ध्यान करते हैं फिर एक घंटा राम नाम लेने का आडम्बर करते हैं और उस समय भी साँसारिक कार्यों का ताना बाना बुनते रहते हैं।
भाई! जो खाओगे उसकी डकार आवेगी। ग्रामोफोन में जो राग भरा जायेगा वही बजेगा। जैसे आप बनोगे वैसा मन भी बन जायेगा। आप चाहते हैं कि स्वाद में कमी न आने पावे। खाना-पीना राजसी व तामसी होता रहे। नेत्रों से सिनेमा आदि देखते रहें। कानों से फिल्मी संगीत सुनते रहें। वीर्यपात में भी कोई बन्धन न हो। आहार-विहार अनियमित होता रहे, मगर मन वश में हो जावे यह कैसे मुमकिन है। सभी विषयों पर लगाम लगाइये, मन आपसे आप आपका गुलाम हो जायेगा।

एक भेद की बात जान लीजिये कि वीर्य, प्राण व मन एक ही स्तर की वस्तुएं है। एक को रोक लेने पर दूसरी दोनों स्वयमेव रुक जाती है। मन को रोकिये प्राण व वीर्य वश में हो जाते हैं। वीर्य की गति ऊर्ध्वरत कीजिये तो मन व वीर्य पर आधिपत्य मिल जाता है। इन तीनों को वश में करने का एक भी साधन है और अलग-अलग भी। वीर्य पर विजय पाने के लिए मनसा वाचा कर्मण ब्रह्मचारी बनना पड़ेगा। सात्विक आहार व सात्विक विहार रखना पड़ेगा। आसन, प्राणायाम, बन्ध, मुद्राओं द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करना पड़ेगा। इसी तरह प्राण को रोकने के लिए हठयोग, अष्टाँग योग, विशेष प्राणायामों आदि का साधन करना पड़ेगा। मगर यह सब क्रियाएं बड़ी कठिन व कष्ट साध्य हैं। सबसे सरल उपाय यह है कि आप लोग ध्यान सहित गायत्री का जप कीजिये और देखिये कि कितनी जल्दी आप मन को अपना चाकर बना लेते हैं। श्रद्धापूर्वक स्वर, ताल व लय से गायत्री मंत्र का जप करने से अभीष्ट की पूर्ति हो जाती है। भगवान ने कहा कि यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ। इसका मुख्य कारण है कि अन्य यज्ञों में जो बाहरी तैयारी, सहायता आदि की आवश्यकता पड़ती है। वे सब झंझटें जप यज्ञ में नहीं होती। जप यज्ञ में केवल सात्विक भाव, प्रेम साधना, तन्मयता, एकाग्रता की ही आवश्यकता पड़ती है। प्रेम भाव से किसी स्थान, अवस्था, समय व परिस्थिति में जप किया जा सकता है। गायत्री जप से जो मन की एकाग्रता होती है उसका वैज्ञानिक आधार भी है।

गायत्री मंत्र के अक्षरों व शब्दों का गुन्थन कुछ इस प्रकार का है कि उसके जप से स्वर यंत्रों में जो कंपन उत्पन्न होता है उसका प्रभाव पृष्ठ वंश में स्थित नस नाड़ियों में पड़ता रहता है। उन्हीं शब्दों के बार-बार दुहराने से कंपन के झटके चक्रों में लगा करते हैं और कुछ दिनों के अभ्यास के बाद वे चक्र खुलने लगते हैं। कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है। यह क्रियाएं अनजाने हुआ करती हैं।

गायत्री मंत्र में 24 अक्षर हैं और तीन पद। ओउम् व व्याहृतियों का एक पद है। इस तरह चार पद हो जाते हैं। इन पदों व शब्दों का उच्चारण कुछ इस प्रकार किया जाता है कि ध्वनि में ताल, स्वर व लय का समावेश हो जाता है। एक स्वर में तालयुक्त लय के साथ जब जप किया जाता है तब ध्वनि का माधुर्य इतना बढ़ जाता है कि मन सब तरफ से खिंच कर इन्द्रियों सहित एक ओर लग जाता है। जप का यह तरीका गुरु मुख से ही जानने योग्य है। जैसे किसी एक योग को सीखने के लिए बार-बार अभ्यास करना पड़ता है उसी तरह गायत्री मंत्र के तालयुक्त जप का ढंग गुरु के पास रह कर अभ्यास द्वारा सीखा जाता है। जब जप ठीक ढंग से होने लगता है तब मन नहीं भागता है बल्कि उसी में आनन्द प्राप्त करने लगता है।

संगीत के जानकार जानते हैं कि विभिन्न राग-रागनियों के विभिन्न रूप होते हैं। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इसका पता लगा लिया था। पश्चिमी विद्वानों ने भी विज्ञान द्वारा यह प्रमाणित कर दिया है कि खास तरह के राग छेड़ने पर एक खास तरह की आकृति बन जाती है। फ्राँस में दो बार इस विषय को लेकर प्रदर्शन व परीक्षण किये गये हैं। एक में मेडम लैंग ने एक राग छेड़ा तो फलस्वरूप देवी मेरी की आकृति शिशु जिजस क्राइष्ट को गोद में लिये हुई प्रकट होती दीख पड़ी। दूसरी बार एक भारतीय गायक ने भैरव राग छेड़ा था जिसके फलस्वरूप भैरव की भीषण आकृति प्रकट हुई थी।

इसी प्रकार इटली में एक युवती ने एक भारतीय से सामवेद की एक ऋचा को सितार पर बजाना सीखा। खूब अभ्यास कर लेने के अनन्तर उसने एक बार नदी के किनारे रेत में सितार रख कर उसी राग को छेड़ा। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहाँ रेत पर एक चित्र सा बन गया। उसने अन्य कोई विद्वानों को यह बात बतलाई। उन्होंने उस चित्र का फोटो लिया। चित्र वाणी पुस्तक धारिणी सरस्वती का निकला। जब वह युवती तन्मय होकर उस राग को छेड़ती तब वही चित्र बन जाता।

इस प्रकार जब गायत्री मंत्र का जप ताल स्वर व लय के साथ किया जाता है तो राग से पुस्तक, पुष्प, कमण्डल, माला लिये हुए हंस पर आरुढ़ एक देवी का चित्र बन जाता है। उसको हमारे ऋषियों ने वेदमाता गायत्री की संज्ञा दी है। लय की विभिन्नता होने पर किसी को एक मुख वाली, किसी को पाँच मुख वाली गायत्री माता के दर्शन होते हैं। इसी प्रकार प्रातः ध्यान में दूसरा रूप रहता है, मध्याह्न ध्यान में दूसरा और सायंकालीन ध्यान में दूसरा रूप रहता है। मूल तत्व में माता का ही चित्र विभिन्न रूपों व कलाओं में भासित होता है। हर मनुष्य की प्रकृति पृथक-पृथक होती है। उसी के अनुसार और समय के भेद से जप के समय गायत्री माता का ध्यान विभिन्न रूपों में किया जाता है जब अभ्यास आगे बढ़ता है तब साधक माता के ध्यान में इतना तन्मय हो जाता है कि उसकी आत्मा उसी रूप में अवस्थित हो जाती है। उस समय जप ध्यान में लीन हो जाता है।

वैज्ञानिक बता रहे हैं कि जिन विचारों का उदय मस्तिष्क में बार-बार होता है वे वहाँ चित्रित हो जाते हैं। उसी प्रकार के भाव मस्तिष्क में घर बना लेते हैं। उनसे मन का इतना लगाव हो जाता है कि उन्हीं में वह आनन्द प्राप्त करने लगता है। उन्हीं में मग्न रहता है। इसी प्रकार जब गायत्री का जप ध्यान सहित किया जाता है तब वही संस्कार घर बनाने लगते हैं। दैवी गुणों का प्रादुर्भाव होने लगता है और पूर्व संस्कार और आसुरी वृत्तियाँ मिटने लगती हैं।

एक पात्र में जल भरा है। उसमें पिघला हुआ शीशा उड़ेला जाता है। जैसे-जैसे शीशे की धार पात्र की तरह धंसती जाती है वैसे ही वैसे पानी का अंश पात्र के ऊपर से बाहर बहकर निकलता जाता है। अन्त में शीशे की तह पात्र के मुँह तक आ जाती है तब पानी का कुल भाग पात्र से बाहर निकल जाता है। पात्र में शीशा ही शीशा दिखाई पड़ता है ।
इसी तरह जब साधक ध्यान सहित गायत्री का जप करता है तब मस्तिष्क रूपी पात्र मैं दैवी गुणों की धारा उड़ेलने लगता है और जल रूपी गंदे विचार बाहर गिरने लगते हैं। शुद्ध सात्विक भाव आने लगते हैं। काम, क्रोध, लोभ, सात्विक भाव आने लगते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, मद, मत्सर दूर होने लगते हैं। मन शुद्ध-निर्मल होने से एकाग्र होने लगता है। वह भागा-भागा नहीं फिरता। आपका खरीदा गुलाम बन जाता है। जो चाहिए काम लीजिये।

मन की चंचलता दूर करने के लिए गायत्री जप यज्ञ से बढ़कर और कोई तरीका इतना सरल सुसाध्य व शीघ्र फल देने वाला नहीं है।

👉 साधना एवं सिद्धि

महर्षि अरविन्द ने अपनी पूर्ण योग रूपी सर्वांगपूर्ण पद्धति में बताया है कि जगत् और जीवन से बाहर निकलकर स्वर्ग या निर्वाण योग का लक्ष्य नहीं है, जीवन एवं जगत् को परिवर्तित करना ही पूर्ण योग है।
  
सर्वांगपूर्ण योग पद्धति के चार प्रमुख अंग हैं- शुद्धि, मुक्ति, सिद्धि और भुक्ति। साधना की प्रथम अनिवार्य आवश्यकता है-शुद्धि। विभिन्न उपदिष्ट साधना प्रणालियों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका क्षेत्र अति विशाल है। अंतः और बाह्य दोनों के परिशोधन का एक प्रयास है। इससे जीवन को एक काल तक परिवर्तित भी कर लेते हैं। पूर्ण योग में शरीर ही नहीं मन, प्राण, अंतःकरण अर्थात् सत्ता के समस्त अंगों का परिष्कार होता है।
  
शुद्धि की शुरुआत होती है, समता के दिग्दर्शन से। साधक निम्न प्रकृति की सभी क्रियाओं, विभिन्न द्वन्द्वों, अविद्या के आक्रमण और अपने अज्ञान को इस दृष्टि से देखता है और उसे दूर करने हेतु प्रयत्न करता है। इस शुद्धि के फलस्वरूप मन की शांति, चित्त की स्थिरता, प्राण की एकाग्रता, हृदय की तन्मयता और विकारों से निष्कृति प्राप्त होती है, जो पूर्ण योग की आधार भूमि है। ऐसे शुद्ध, शांत, चंचल और नीरव आधार पर ही तो भागवत आनन्द, प्रेम, ज्ञान का अवरोहण संभव है।
  
इसका दूसरा अंग है- मुक्ति। इसका तात्पर्य कहीं अन्य लोक-लोकान्तर में न पलायन है, न ही समस्त स्थूल क्रिया-कलापों अथवा प्रकृतिगत चेष्टाओं का परित्याग कर निर्वाण प्राप्त करना। यह आत्मा का, विभिन्न वासनाओं, शरीर बंधन एवं आकर्षणों से पहले हो जाना है। ससीम से असीम की अमरता में अभुक्त होना। इसके दो पद हैं-त्याग और ग्रहण। इसमें एक है निषेधात्मक और दूसरा विधेयात्मक। प्रथम का अर्थ है, सत्ता की निम्न प्रकृति के बंधनों, आकर्षणों से छुटकारा। द्वितीय भावनात्मक पक्ष का- तात्पर्य है उच्च स्तर आध्यात्मिक सत्ता में समाहित होना, उसकी दिव्य अनुभूतियों में रमण करना।
  
संसार भगवान् का लीला क्षेत्र है। वे इसके अणु-अणु में विद्यमान हैं। इसका पलायन करके कोई भी यथार्थ में इस  योग का योगी नहीं बन सकता है। वासना और अहंता ही हैं अज्ञान की पिटारियाँ। इनसे ही छुटकारा पाना है। सचमुच निष्काम और निरहंकारी हो अपनी आत्मा को विश्वात्मा के साथ एक करके, उच्चतम दिव्यता को धारण करना। दूसरे शब्दों में, भगवान् के समान बनना ही मुक्ति का सम्पूर्ण एवं समग्र आशय है।
  
शुद्धि एवं मुक्ति दोनों  ‘सिद्धि’  की पहले की अवस्थाएँ हैं। पूर्णयोग में सिद्धि का अर्थ है भागवत् सत्ता की प्रकृति के साथ एकत्व की प्राप्ति। अन्यान्य दर्शनों में सिद्धि की मान्यता के संदर्भ में मतभेद है। मायावादी सत्ता के सर्वोच्च सत्य निर्विकार निर्गुण एवं आत्म सचेतन ब्रह्म है। अतएव आत्मा की शुद्ध, निर्विकार शान्ति एवं चेतनता में विकसित एकाकार होना ही उसकी सिद्धि है। बौद्ध उच्चतम सत्य- सत्ता को अस्वीकृत करते हैं। उनके लिए सत्ता की क्षणिकता, कामना की विनाशकारी निस्सारता का बोध, अहंता तथा तत्संबंधी विचारों, संस्कारों एवं कर्म शृंखलाओं का विलय ही सर्वांगपूर्ण मार्ग है। पर सर्वांगपूर्ण योग में सिद्धि का तात्पर्य है-एक ऐसी दिव्य आत्मा और दिव्य कर्म को प्राप्त करना, जो विश्व में दिव्य संबंध एवं दिव्य कर्म का खुला क्षेत्र प्रदान करे। इसका समग्र अर्थ है- सम्पूर्ण प्रकृति को दिव्य बनाना तथा उसके अस्तित्व और कर्म की समस्त असत्य गुत्थियों का परित्याग।
  
भुक्ति का तात्पर्य श्री अरविन्द की दृष्टि में है-तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा अर्थात् अनासक्त भाव से उपभोग। जीवन में दिव्य पूर्णता का अवतरण करना, सम्पूर्ण जीवन को आध्यात्मिक शक्ति का क्षेत्र मानकर दिव्य भोग करना ही भुक्ति का आंतरिक सार है। तभी सिद्धि संभव हो सकेगी, देव-मानव अतिमानव बन सकेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ३०)

जो यादों का धुँधलका साफ हो जाए

जो जग गया, उसमें साधना के लिए तीव्र लगन और गहरा समर्पण उपजेगा ही, वही इस योगकथा के सत्य को समझने के लिए सुपात्र भी हैं। महर्षि पतंजलि केवल सुपात्रों और सत्पात्रों को ही जिन्दगी के रहस्य एवं विभूतियाँ सौंपने के इच्छुक हैं। जो सत्पात्र नहीं है, जिनकी साधना नियमित और सघन नहीं है, वे इस अन्तर्यात्रा विज्ञान के शब्दों कों तो हथिया सकते हैं, पर इनका सत्य उनसे सदा दूर रहेगा। एक महान् वैज्ञानिक की भाँति महर्षि पतंजलि ने अपने अन्तर्यात्रा विज्ञान में ऐसी व्यवस्था कर रखी है। जो अनाधिकारी हैं, वे सदा वंचित रहेंगे। अन्तर्यात्रा विज्ञान का सत्य एक ही है, अधिकारी बनें और प्राप्त करें।
  
यह योगकथा आपको श्रेष्ठतम अधिकारी बनाने के लिए ही है। अपने जीवन को रूपान्तरित करके आप वह पा सकते हैं, जो महर्षि पतंजलि आपको सौंपने के लिए इच्छुक हैं, परम पूज्य गुरुदेव ने जिसे खास आपको देने के लिए सम्हाल कर रखा हुआ है। महर्षि कहते हैं कि वृत्तियों के फेर में हमारा जीवन भले ही कितना ही क्लिष्ट क्यों न हो, पर यह योग विधि से अक्लिष्ट या सुखकर हो सकता है। इसी क्रम में महर्षि पाँचवी और अन्तिम वृत्ति के रहस्य को उजागर करते हैं ः-
  
अनुभूतविषया सम्प्रमोषः स्मृतिः॥ १/११॥
  
शब्दार्थ- अनुभूत= अनुभव किए हुए, जाने हुए; विषय= (किसी) विषय का; असम्प्रमोषः = जो खोया हुआ न हो- यानि कि चित्त में संग्रहित हो, उसका ज्ञान होना; स्मृतिः= स्मृति है। संक्षेप में, किन्तु स्पष्ट स्वरों में- स्मृति पिछले अनुभवों को स्मरण करना है।
  
मन की इस पाँचवी वृत्ति के रूप में स्मृति की शक्ति का थोड़ा-बहुत अनुभव हममें से प्रायः सभी को है। बच्चों से लेकर वृद्धजनों तक सभी अपनी-अपनी स्मृति का उपयोग करते रहते हैं। विद्यार्थियों के लिए तो यह स्मृति क्षमता वरदान ही है। इसी आधार पर उन्हें श्रेष्ठता का गौरव मिलता है। स्मृति के निरन्तर और अविराम उपयोग के बावजूद इसके गहन रहस्यों के बारे में बहुसंख्यक जन अनजान ही हैं। ज्यादातर लोगों के लिए तो  बस यह स्मृति कभी दुःख देती है, तो कभी सुख। कभी वे इस वृत्ति के क्लिष्ट रूप का अनुभव करते हैं, तो कभी अक्लिष्ट रूप का अहसास करते हैं। यादों के झोंके कभी तो उन्हें रुला जाते हैं, तो कभी अचानक इनका स्पर्श उन्हें हँसा देता है। स्मृति के इन्हीं रूपों एवं पर्यायों से हम परिचित हैं। पर क्या सत्य इतना ही है?

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ५६
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

👉 साधु की सीख

किसी गाँव मे एक साधु रहा करता था, वो जब भी नाचता तो बारिस होती थी। अतः गाव के लोगों को जब भी बारिस की जरूरत होती थी, तो वे लोग साधु के पास जाते और उनसे अनुरोध करते की वे नाचे, और जब वो नाचने लगता तो बारिस ज़रूर होती।

कुछ दिनों बाद चार लड़के शहर से गाँव में घूमने आये, जब उन्हें यह बात मालूम हुई की किसी साधू के नाचने से बारिस होती है तो उन्हें यकीन नहीं हुआ।

शहरी पढाई लिखाई के घमंड में उन्होंने गाँव वालों को चुनौती दे दी कि हम भी नाचेंगे तो बारिस होगी और अगर हमारे नाचने से नहीं हुई तो उस साधु के नाचने से भी नहीं होगी.फिर क्या था अगले दिन सुबह-सुबह ही गाँव वाले उन लड़कों को लेकर साधु की कुटिया पर पहुंचे।

साधु को सारी बात बताई गयी , फिर लड़कों ने नाचना शुरू किया , आधे घंटे बीते और पहला लड़का थक कर बैठ गया पर बादल नहीं दिखे, कुछ देर में दूसरे ने भी यही किया और एक घंटा बीतते-बीतते बाकी दोनों लड़के भी थक कर बैठ गए, पर बारिश नहीं हुई।

अब साधु की बारी थी, उसने नाचना शुरू किया, एक घंटा बीता, बारिश नहीं हुई, साधु नाचता रहा …दो घंटा बीता बारिश नहीं हुई…. पर साधु तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था, धीरे-धीरे शाम ढलने लगी कि तभी बादलों की गड़गडाहत सुनाई दी और ज़ोरों की बारिश होने लगी। लड़के दंग रह गए।
और तुरंत साधु से क्षमा मांगी और पूछा-

”बाबा भला ऐसा क्यों हुआ कि हमारे नाचने से बारिस नहीं हुई और आपके नाचने से हो गयी?”

साधु ने उत्तर दिया – ”जब मैं नाचता हूँ तो दो बातों का ध्यान रखता हूँ, पहली बात मैं ये सोचता हूँ कि अगर मैं नाचूँगा तो बारिस को होना ही पड़ेगा और दूसरी ये कि मैं तब तक नाचूँगा जब तक कि बारिस न हो जाये।”

सफलता पाने वालों में यही गुण विद्यमान होता है वो जिस चीज को करते हैं उसमे उन्हें सफल होने का पूरा यकीन होता है और वे तब तक उस चीज को करते है जब तक सफल नहीं हो जाते है।

👉 साधन और साध्य

गीताकार ने साधना क्रिया पर जोर देते हुए कहा है- ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।’  (गीता १८/४६) जो व्यक्ति सच्चाई के साथ अपना कार्य करता है, उसे ही सिद्धि मिलती है। कर्म साधना ही साध्य की अर्चना है।
  
साध्य कितना ही पवित्र, उत्कृष्ट, महान् क्यों न हो, यदि उस तक पहुँचने का साधन गलत है, दोषयुक्त है, तो साध्य की उपलब्धि भी असंभव है। उत्तम साध्य के लिए उत्तम साधनों का होना आवश्यक हे, अनिवार्य है। ठीक इसी तरह उत्कृष्ट साध्य-लक्ष्य का बोध न हो, तो उत्तम साधन भी हानिकारक सिद्ध हो जाते हैं।
  
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में  सबसे बड़ी भूल हमारी यह होती है कि हम साध्य तो उत्तम चुन लेते हैं, महान् उत्कृष्ट लक्ष्य भी निर्धारित कर लेते हैं, लेकिन उसके अनुकूल साधनों के स्वरूप, उसकी उत्कृष्टता पर समुचित ध्यान नहीं देते। फलस्वरूप हमारे निज एवं सार्वजनिक सामाजिक जीवन में गतिरोध पैदा हो जाता है। हम अपने लक्ष्य को किसी भी तरह प्राप्त करने की कोशिश करते  हैं तथा कई बार हम भ्रम में भटक कर गलत साधनों का उपयोग कर बैठते हैं।  परिणामतः लक्ष्य के प्राप्त होने का जो संतोष एवं प्रसन्नता मिलनी चाहिए, उससे हम वंचित रह जाते हैं।
  
चाहे सामाजिक क्रांति हो या व्यक्तिगत साधना, लक्ष्य की प्राप्ति तभी संभव होगी, जब साधन और साध्य को जोड़कर मनुष्य साधन निष्ठ बनेगा।
  
उच्च पद, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए मनुष्य के सामने विस्तृत संसार पड़ा हुआ है, पुरुषार्थ और प्रयत्न के साथ मनुष्य कुछ भी प्राप्त कर सकता है। लेकिन वह इस राजमार्ग को न अपना कर दूसरों को  नुकसान पहुँचाता है, बढ़ते हुओं की टाँग खींचता है, व्यर्थ ही संघर्ष पैदा करता है अथवा किसी की खुशामद-मिन्नतें करता है। ये दोनों ही साधन गलत हैं। इसके लिए व्यक्तिगत प्रयत्न आवश्यक है। अपने पुरुषार्थ के बल पर मनुष्य क्या नहीं प्राप्त कर सकता है?
  
लोग चलते हैं, जन सेवा का लक्ष्य लेकर, लेकिन वे जनता से अपनी सेवा कराने लगते हैं। बहुत से ज्ञानी उपदेशक धर्म पर चलने के लिए बड़े लम्बे-चौड़े उपदेश देते हैं, लेकिन उनके स्वयं  के जीवन में अनेकों विकृतियाँ भरी पड़ी रहती हैं। देश सेवा के लिए, राष्ट्र को उन्नति और विकास की ओर अग्रसर करने के लिए लोग राजनीति में आते हैं, लेकिन अफसोस होता है जब वे पार्टीबाजी, सत्ता हथियाने के लिए, गुटबंदी के लिए परस्पर लड़ते-झगड़ते हैं, कूटनीति का गंदा खेल खेलते हैं, अपने घर भरते हैं, जनता की आँखों में धूल झोंकते हैं।
  
साधनों में इस तरह की भ्रष्टता व्यक्ति और समाज दोनों के लिए अहितकर सिद्ध होती है। इससे किसी का भी भला नहीं होता, सिद्धि उनसे बहुत दूर हट जाती है। जिस तरह साधनों की पवित्रता आवश्यक है, उसी तरह साध्य की उत्कृष्टता भी आवश्यक है। साध्य निकृष्ट हो और उसमें अच्छे साधनों को भी लगा दिया जाय, तो कोई हितकर परिणाम प्राप्त नहीं होगा। उलटे उससे व्यक्ति और समाज की हानि ही होगी। उत्कृष्ट साधन भी निकृष्ट लक्ष्य की पूर्ति के आधार बन कर समाज में बुराइयाँ पैदा करने लगते हैं। अतः जिनके पास साधन हैं, माध्यम हैं उन्हें आवश्यकता है उत्कृष्ट लक्ष्य के निर्धारण की।
  
सफलता प्राप्ति के लिए उत्कृष्ट लक्ष्य का चयन एवं उसके अनुकूल ही उत्कृष्ट साधनों का समुचित उपयोग आवश्यक होता है। साध्य और साधन की एकरूपता ही सफलता की आधारशिला होती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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