शनिवार, 31 अगस्त 2019
👉 संगठन में ताकत Strength in Organization 💪💪💪
एक वन में बहुत बडा अजगर रहता था। वह बहुत अभिमानी और अत्यंत क्रूर था। जब वह अपने बिल से निकलता तो सब जीव उससे डर कर भाग खडे होते। उसका मुंह इतना विकराल था कि खरगोश तक को निगल जाता था।
एक बार अजगर शिकार की तलाश में घूम रहा था। सारे जीव तो उसे बिल से निकलते देख कर ही भाग चुके थे। उसे कुछ न मिला तो वह क्रोधित होकर फुफकारने लगा और इधर-उधर खाक छानने लगा। वहीं निकट में एक हिरणी अपने नवजात शिशु को पत्तियों के ढेर के नीचे छिपा कर स्वयं भोजन की तलाश में दूर निकल गई थी। अजगर की फुफकार से सूखी पत्तियां उडने लगी और हिरणी का बच्चा नजर आने लगा। अजगर की नजर उस पर पडी हिरणी का बच्चा उस भयानक जीव को देख कर इतना डर गया कि उसके मुंह से चीख तक न निकल पाई। अजगर ने देखते-ही-देखते नवजात हिरण के बच्चे को निगल लिया।
तब तक हिरणी भी लौट आई थी, पर वह क्या करती? आंखों में आंसू भर जड होकर दूर से अपने बच्चे को काल का ग्रास बनते देखती रही। हिरणी के शोक का ठिकाना न रहा। उसने किसी-न-किसी तरह अजगर से बदला लेने की ठान ली। हिरणी की एक नेवले से दोस्ती थी। शोक में डूबी हिरणी अपने मित्र नेवले के पास गई और रो-रोकर उसे अपनी दुख-भरी कथा सुनाई। नेवले को भी बहुत दुख हुआ। वह दुख-भरे स्वर में बोला 'मित्र, मेरे बस में होता तो मैं उस नीच अजगर के सौ टुकडे कर डालता। पर क्या करें, वह छोटा-मोटा सांप नहीं है, जिसे मैं मार सकूं वह तो एक अजगर है। अपनी पूंछ की फटकार से ही मुझे अधमरा कर देगा। लेकिन यहां पास में ही चीटिंयों की एक बांबी हैं। वहां की रानी मेरी मित्र हैं। उससे सहायता मांगनी चाहिए।'
हिरणी ने निराश स्वर में विलाप किया “पर जब तुम्हारे जितना बडा जीव उस अजगर का कुछ बिगाडने में समर्थ नहीं हैं तो वह छोटी-सी चींटी क्या कर लेगी?” नेवले ने कहा 'ऐसा मत सोचो। उसके पास चींटियों की बहुत बडी सेना है | संगठन में बडी शक्ति होती है |'
हिरणी को कुछ आशा की किरण नजर आई। नेवला हिरणी को लेकर चींटी रानी के पास गया और उसे सारी कहानी सुनाई। चींटी रानी ने सोच-विचार कर कहा 'हम तुम्हारी सहायता करेंगे। हमारी बांबी के पास एक संकरीला नुकीले पत्थरों भरा रास्ता है। तुम किसी तरह उस अजगर को उस रास्ते से आने पर मजबूर करो। बाकी काम मेरी सेना पर छोड दो।'
नेवले को अपनी मित्र चींटी रानी पर पूरा विश्वास था। इस लिए वह अपनी जान जोखिम में डालने पर तैयार हो गया। दूसरे दिन नेवला जाकर सांप के बिल के पास अपनी बोली बोलने लगा। अपने शत्रु की बोली सुनते ही अजगर क्रोध में भर कर अपने बिल से बाहर आया। नेवला उसी संकरे रास्ते वाली दिशा में दौडा। अजगर ने पीछा किया। अजगर रुकता तो नेवला मुड कर फुफकारता और अजगर को गुस्सा दिला कर फिर पीछा करने पर मजबूर करता। इसी प्रकार नेवले ने उसे संकरीले रास्ते से गुजरने पर मजबूर कर दिया। नुकीले पत्थरों से उसका शरीर छिलने लगा। जब तक अजगर उस रास्ते से बाहर आया तब तक उसका काफ़ी शरीर छिल गया था और जगह-जगह से ख़ून टपक रहा था।
उसी समय चींटियों की सेना ने उस पर हमला कर दिया। चींटियां उसके शरीर पर चढकर छिले स्थानों के नंगे मांस को काटने लगीं। अजगर तडप उठा। अपना शरीर पटकने लगा जिससे और मांस छिलने लगा और चींटियों को आक्रमण के लिए नए-नए स्थान मिलने लगे। अजगर चींटियों का क्या बिगाडता? वे हजारों की गिनती में उस पर टूट पड रही थीं। कुछ ही देर में क्रूर अजगर ने तडप-तडप कर दम तोड दिया।
सीख -- संगठन शक्ति बड़े-बड़ों को धूल चटा देती है।
एक बार अजगर शिकार की तलाश में घूम रहा था। सारे जीव तो उसे बिल से निकलते देख कर ही भाग चुके थे। उसे कुछ न मिला तो वह क्रोधित होकर फुफकारने लगा और इधर-उधर खाक छानने लगा। वहीं निकट में एक हिरणी अपने नवजात शिशु को पत्तियों के ढेर के नीचे छिपा कर स्वयं भोजन की तलाश में दूर निकल गई थी। अजगर की फुफकार से सूखी पत्तियां उडने लगी और हिरणी का बच्चा नजर आने लगा। अजगर की नजर उस पर पडी हिरणी का बच्चा उस भयानक जीव को देख कर इतना डर गया कि उसके मुंह से चीख तक न निकल पाई। अजगर ने देखते-ही-देखते नवजात हिरण के बच्चे को निगल लिया।
तब तक हिरणी भी लौट आई थी, पर वह क्या करती? आंखों में आंसू भर जड होकर दूर से अपने बच्चे को काल का ग्रास बनते देखती रही। हिरणी के शोक का ठिकाना न रहा। उसने किसी-न-किसी तरह अजगर से बदला लेने की ठान ली। हिरणी की एक नेवले से दोस्ती थी। शोक में डूबी हिरणी अपने मित्र नेवले के पास गई और रो-रोकर उसे अपनी दुख-भरी कथा सुनाई। नेवले को भी बहुत दुख हुआ। वह दुख-भरे स्वर में बोला 'मित्र, मेरे बस में होता तो मैं उस नीच अजगर के सौ टुकडे कर डालता। पर क्या करें, वह छोटा-मोटा सांप नहीं है, जिसे मैं मार सकूं वह तो एक अजगर है। अपनी पूंछ की फटकार से ही मुझे अधमरा कर देगा। लेकिन यहां पास में ही चीटिंयों की एक बांबी हैं। वहां की रानी मेरी मित्र हैं। उससे सहायता मांगनी चाहिए।'
हिरणी ने निराश स्वर में विलाप किया “पर जब तुम्हारे जितना बडा जीव उस अजगर का कुछ बिगाडने में समर्थ नहीं हैं तो वह छोटी-सी चींटी क्या कर लेगी?” नेवले ने कहा 'ऐसा मत सोचो। उसके पास चींटियों की बहुत बडी सेना है | संगठन में बडी शक्ति होती है |'
हिरणी को कुछ आशा की किरण नजर आई। नेवला हिरणी को लेकर चींटी रानी के पास गया और उसे सारी कहानी सुनाई। चींटी रानी ने सोच-विचार कर कहा 'हम तुम्हारी सहायता करेंगे। हमारी बांबी के पास एक संकरीला नुकीले पत्थरों भरा रास्ता है। तुम किसी तरह उस अजगर को उस रास्ते से आने पर मजबूर करो। बाकी काम मेरी सेना पर छोड दो।'
नेवले को अपनी मित्र चींटी रानी पर पूरा विश्वास था। इस लिए वह अपनी जान जोखिम में डालने पर तैयार हो गया। दूसरे दिन नेवला जाकर सांप के बिल के पास अपनी बोली बोलने लगा। अपने शत्रु की बोली सुनते ही अजगर क्रोध में भर कर अपने बिल से बाहर आया। नेवला उसी संकरे रास्ते वाली दिशा में दौडा। अजगर ने पीछा किया। अजगर रुकता तो नेवला मुड कर फुफकारता और अजगर को गुस्सा दिला कर फिर पीछा करने पर मजबूर करता। इसी प्रकार नेवले ने उसे संकरीले रास्ते से गुजरने पर मजबूर कर दिया। नुकीले पत्थरों से उसका शरीर छिलने लगा। जब तक अजगर उस रास्ते से बाहर आया तब तक उसका काफ़ी शरीर छिल गया था और जगह-जगह से ख़ून टपक रहा था।
उसी समय चींटियों की सेना ने उस पर हमला कर दिया। चींटियां उसके शरीर पर चढकर छिले स्थानों के नंगे मांस को काटने लगीं। अजगर तडप उठा। अपना शरीर पटकने लगा जिससे और मांस छिलने लगा और चींटियों को आक्रमण के लिए नए-नए स्थान मिलने लगे। अजगर चींटियों का क्या बिगाडता? वे हजारों की गिनती में उस पर टूट पड रही थीं। कुछ ही देर में क्रूर अजगर ने तडप-तडप कर दम तोड दिया।
सीख -- संगठन शक्ति बड़े-बड़ों को धूल चटा देती है।
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ५९)
👉 अंतर्मन की धुलाई एवं ब्राह्मीचेतना से विलय का नाम है- ध्यान
ध्यान जिसका भी हम करते हैं, वह हमारे ईष्ट, आराध्य हो अथवा सद्गरु या फिर कोई पवित्र विचार या भाव। उसके प्रति प्यार भरे अपनेपन से सोचें- याद करें। नियमित उसके लिए अपनी याद को प्रगाढ़ करें। यहाँ तक कि यह प्रगाढ़ता हमारी आस्था, श्रद्धा व प्रेम का रूप ले ले। फिर इस प्रेम से परिपूर्ण छवि को अपने शरीर के उच्चस्तरीय केन्द्रों यथा अनाहत चक्र, हृदय स्थान अथवा आज्ञा चक्र- मस्तक पर दोनों भौहों के बीच स्थापित करें। अब देखिए हमारी भावनाएँ एवं विचार स्वतः ही उस ओर मुड़ चलेंगे। प्रेम से पुलकित मन स्वतः ही उस ध्यान में डूबने लगेगा। और अपने आप ही व्यक्तित्व में सकारात्मक विचारों व भावनाओं की सघनता सधने लगेगी। सकारात्मक भावों व विचारों का यह सघन रूप औषधि की भाँति है, जिसका नियमित निरन्तर सेवन व्यक्तित्व को सब भाँति विकारों व विषादों से मुक्त कर देगा।
ध्यान की यह चिकित्सा प्रणाली सब भाँति अद्भुत है। इसके पहले चरण में अन्तर्चेतना एकाग्र होती है। इस एकाग्रता के सधने पर हमारी मानसिक क्षमताओं का विकास होता है। दूसरे चरण में यह एकाग्र अन्तर्चेतना- अन्तर्मुखी हो स्वयं ही गहराई में प्रवेश होती है। ऐसा होते ही अन्तर्मन, अचेतन मन धुलने लगता है। यहीं पर हमें अनुभूतियों के प्रथम दर्शन होते हैं। सबसे पहले इन अनुभूतियों में विकार व विषाद के स्रोत के रूप में हमारी दमित वासनाएँ, भावनाएँ व मनोग्रन्थियाँ तरह- तरह के रूप धारणकर प्रकट होती हैं। ध्यान के साधक को न इसमें आकर्षित होना चाहिए और न इससे परेशान होना चाहिए। बस तटस्थ होकर निहारते रहना चाहिए। व्यक्तित्व की आन्तरिक सफाई का यह दौर सालों- साल चलता रहता है। इसके साथ ही रोग- शोक के कारणों से छुटकारा मिल जाता है।
इस परिष्कार के बाद क्रम आता है ब्राह्मी चेतना से लय स्थापित होने का। ज्यों- ज्यों अन्तर्चेतना परिष्कृत होती जाती है, अपने आप ही यह सामञ्जस्य स्थापित होने लगता है। दिव्य अनुभवों के द्वार खुलने लगते हैं। ब्राह्मी चेतना का प्रभाव अन्तर्चेना में घुलने से सभी कुछ दिव्यता में रूपान्तरित हो जाता है। इस स्थिति में जो कुछ अनुभव होता है उसे कहकर अथवा लिखकर नहीं बताया जा सकता। यहाँ तो जो पहुँच सकेंगे वे स्वयं इसके भेद को जान सकेंगे। इसके बारे में बस इतना कहना ही पर्याप्त है कि ध्यान के प्रभाव से साधक में सकारात्मक विचारों व भावों का चुम्बकत्व सघन होने से समूचा व्यक्तित्व स्वयं ही सद्गुणों का स्रोत हो जाता है। युगऋषि गुरुदेव का इस बारे में कहना था कि ध्यान से प्रेम प्रकट होता है। और प्रेम सच्चा हो तो अपने आप ही ध्यान होने लगता है। हालांकि ये रहस्य इतने गहरे हैं कि इन्हें समझने के लिए पहले व्यक्तित्व को स्वाध्याय चिकित्सा से गुजरना आवश्यक है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ८१
ध्यान जिसका भी हम करते हैं, वह हमारे ईष्ट, आराध्य हो अथवा सद्गरु या फिर कोई पवित्र विचार या भाव। उसके प्रति प्यार भरे अपनेपन से सोचें- याद करें। नियमित उसके लिए अपनी याद को प्रगाढ़ करें। यहाँ तक कि यह प्रगाढ़ता हमारी आस्था, श्रद्धा व प्रेम का रूप ले ले। फिर इस प्रेम से परिपूर्ण छवि को अपने शरीर के उच्चस्तरीय केन्द्रों यथा अनाहत चक्र, हृदय स्थान अथवा आज्ञा चक्र- मस्तक पर दोनों भौहों के बीच स्थापित करें। अब देखिए हमारी भावनाएँ एवं विचार स्वतः ही उस ओर मुड़ चलेंगे। प्रेम से पुलकित मन स्वतः ही उस ध्यान में डूबने लगेगा। और अपने आप ही व्यक्तित्व में सकारात्मक विचारों व भावनाओं की सघनता सधने लगेगी। सकारात्मक भावों व विचारों का यह सघन रूप औषधि की भाँति है, जिसका नियमित निरन्तर सेवन व्यक्तित्व को सब भाँति विकारों व विषादों से मुक्त कर देगा।
ध्यान की यह चिकित्सा प्रणाली सब भाँति अद्भुत है। इसके पहले चरण में अन्तर्चेतना एकाग्र होती है। इस एकाग्रता के सधने पर हमारी मानसिक क्षमताओं का विकास होता है। दूसरे चरण में यह एकाग्र अन्तर्चेतना- अन्तर्मुखी हो स्वयं ही गहराई में प्रवेश होती है। ऐसा होते ही अन्तर्मन, अचेतन मन धुलने लगता है। यहीं पर हमें अनुभूतियों के प्रथम दर्शन होते हैं। सबसे पहले इन अनुभूतियों में विकार व विषाद के स्रोत के रूप में हमारी दमित वासनाएँ, भावनाएँ व मनोग्रन्थियाँ तरह- तरह के रूप धारणकर प्रकट होती हैं। ध्यान के साधक को न इसमें आकर्षित होना चाहिए और न इससे परेशान होना चाहिए। बस तटस्थ होकर निहारते रहना चाहिए। व्यक्तित्व की आन्तरिक सफाई का यह दौर सालों- साल चलता रहता है। इसके साथ ही रोग- शोक के कारणों से छुटकारा मिल जाता है।
इस परिष्कार के बाद क्रम आता है ब्राह्मी चेतना से लय स्थापित होने का। ज्यों- ज्यों अन्तर्चेतना परिष्कृत होती जाती है, अपने आप ही यह सामञ्जस्य स्थापित होने लगता है। दिव्य अनुभवों के द्वार खुलने लगते हैं। ब्राह्मी चेतना का प्रभाव अन्तर्चेना में घुलने से सभी कुछ दिव्यता में रूपान्तरित हो जाता है। इस स्थिति में जो कुछ अनुभव होता है उसे कहकर अथवा लिखकर नहीं बताया जा सकता। यहाँ तो जो पहुँच सकेंगे वे स्वयं इसके भेद को जान सकेंगे। इसके बारे में बस इतना कहना ही पर्याप्त है कि ध्यान के प्रभाव से साधक में सकारात्मक विचारों व भावों का चुम्बकत्व सघन होने से समूचा व्यक्तित्व स्वयं ही सद्गुणों का स्रोत हो जाता है। युगऋषि गुरुदेव का इस बारे में कहना था कि ध्यान से प्रेम प्रकट होता है। और प्रेम सच्चा हो तो अपने आप ही ध्यान होने लगता है। हालांकि ये रहस्य इतने गहरे हैं कि इन्हें समझने के लिए पहले व्यक्तित्व को स्वाध्याय चिकित्सा से गुजरना आवश्यक है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ८१
👉 कर सकते थे, किया नहीं
रावण तथा विभीषण एक ही कुल में उत्पन्न हुए सगे भाई थे, दोनों विद्वान-पराक्रमी थे। एक ने अपनी दिशा अलग चुनी व दूसरे ने प्रवाह के विपरीत चलकर अनीति से टकराने का साहस किया। धारा को मोड़ सकने तक की क्षमता भगवान ने मनुष्य को दी ही इसलिए है ताकि वह उसका सहयोगी बन सके।
भगवान ने मनुष्य को इच्छानुसार वरदान माँगने का अधिकार भी दिया है। रावण शिव का भक्त था। उसने अपने इष्ट से वरदान सामर्थ्यवान होने का माँगा पर साथ ही यह भी कि मरूँ तो मनुष्य के हाथों। उसकी अनीति को मिटाने, उसका संहार करने के लिए स्वयं भगवान को राम के रूप में जन्म लेना पड़ा। राम शिव के इष्ट थे। यदि असाधारण अधिकार प्राप्त रावण प्रकाण्ड विद्वान् होते हुए भी अपने इष्ट भगवान शिव से सत्परामर्श लेना नहीं चाहता तो अन्त तो उसका सुनिशित होगा ही। यह भगवान का सहज रूप है जो मनुष्य को स्वतन्त्र इच्छा देकर छोड़ देता है।
जीव विशुद्ध रूप में जल की बूँद के समान इस धरती पर आता है। एक ओर जल की बूँद धरती पर गिरकर कीचड बन जाती हैं व दूसरी ओर जीव माया में लिप्त हो जाता है। यह तो जीव के ऊपर है जो स्वयं को माया से दूर रख समुद्र में पडी बूंद के आत्म विस्तरण की तरह सर्वव्यापी हो मेघ बनकर समाज पर परमार्थ की वर्षा करे अथवा कीचड़ में पड़ा रहे।
मनुष्य को इस विशिष्ट उपलब्धि को देने के बाद विधाता ने यह सोचा भी नहीं होगा कि वह ऊर्ध्वगामी नहीं उर्ध्वगामी मार्ग चुन लेगा। अन्य जीवों, प्राणियों का जहाँ तक सवाल है वे तो बस ईश्वरीय अनुशासन-व्यवस्था के अन्तर्गत अपना प्राकृतिक जीवनक्रम भर पूरा कर पाते हैं। आहार ग्रहण, विसर्जन-प्रजनन यही तक उनका जीवनोद्देश्य सीमित रहता है। परन्तु बहुसंख्य मानव ऐसे होते हैं जो इन्हीं की तरह जीवन बिताते और अदूरदर्शिता का परिचय देते सिर धुन- धुनकर पछताते देखे जाते हैं। इनकी तुलना चासनी में कूद पड़ने वाली मक्खी से की जा सकती है।
चासनी के कढाव को एक बारगी चट कर जाने के लिए आतुर मक्खी बेतरह उसमें कूदती है और अपने पर-पैर उस जंजाल में लपेट कर बेमौत मरती है। जबकि समझदार मक्खी किनारे पर बैठ कर धीरे-धीरे स्वाद लेती, पेट भरती और उन्मूक्त आकाश में बेखटके बिचरती है। अधीर आतुरता ही मनुष्य को तत्काल कुछ पाने के लिए उत्तेजित करती है और उतने समय तक ठहरने नहीं देती जिसमें कि नीतिपूर्वक उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति सरलतापूर्वक सम्भव हो सके।
मछली वंशी में लिपटी आटे की गोली भर को देखती है। उसे उतना अवकाश या धीरज नहीं होता कि यह ढूँढ़-समझ सके कि इसके पीछे कहीं कोई खतरा तो नहीं है। घर बैठे हाथ लगा प्रलोभन उसे इतना सुहाता है कि गोली को निगलते ही बनता है। परिणाम सामने आने में देर नहीं लगती। काँटा आँतों में उलझता है और प्राण लेने के उपरान्त ही निकलता है।
📖 प्रज्ञा पुराण से
भगवान ने मनुष्य को इच्छानुसार वरदान माँगने का अधिकार भी दिया है। रावण शिव का भक्त था। उसने अपने इष्ट से वरदान सामर्थ्यवान होने का माँगा पर साथ ही यह भी कि मरूँ तो मनुष्य के हाथों। उसकी अनीति को मिटाने, उसका संहार करने के लिए स्वयं भगवान को राम के रूप में जन्म लेना पड़ा। राम शिव के इष्ट थे। यदि असाधारण अधिकार प्राप्त रावण प्रकाण्ड विद्वान् होते हुए भी अपने इष्ट भगवान शिव से सत्परामर्श लेना नहीं चाहता तो अन्त तो उसका सुनिशित होगा ही। यह भगवान का सहज रूप है जो मनुष्य को स्वतन्त्र इच्छा देकर छोड़ देता है।
जीव विशुद्ध रूप में जल की बूँद के समान इस धरती पर आता है। एक ओर जल की बूँद धरती पर गिरकर कीचड बन जाती हैं व दूसरी ओर जीव माया में लिप्त हो जाता है। यह तो जीव के ऊपर है जो स्वयं को माया से दूर रख समुद्र में पडी बूंद के आत्म विस्तरण की तरह सर्वव्यापी हो मेघ बनकर समाज पर परमार्थ की वर्षा करे अथवा कीचड़ में पड़ा रहे।
मनुष्य को इस विशिष्ट उपलब्धि को देने के बाद विधाता ने यह सोचा भी नहीं होगा कि वह ऊर्ध्वगामी नहीं उर्ध्वगामी मार्ग चुन लेगा। अन्य जीवों, प्राणियों का जहाँ तक सवाल है वे तो बस ईश्वरीय अनुशासन-व्यवस्था के अन्तर्गत अपना प्राकृतिक जीवनक्रम भर पूरा कर पाते हैं। आहार ग्रहण, विसर्जन-प्रजनन यही तक उनका जीवनोद्देश्य सीमित रहता है। परन्तु बहुसंख्य मानव ऐसे होते हैं जो इन्हीं की तरह जीवन बिताते और अदूरदर्शिता का परिचय देते सिर धुन- धुनकर पछताते देखे जाते हैं। इनकी तुलना चासनी में कूद पड़ने वाली मक्खी से की जा सकती है।
चासनी के कढाव को एक बारगी चट कर जाने के लिए आतुर मक्खी बेतरह उसमें कूदती है और अपने पर-पैर उस जंजाल में लपेट कर बेमौत मरती है। जबकि समझदार मक्खी किनारे पर बैठ कर धीरे-धीरे स्वाद लेती, पेट भरती और उन्मूक्त आकाश में बेखटके बिचरती है। अधीर आतुरता ही मनुष्य को तत्काल कुछ पाने के लिए उत्तेजित करती है और उतने समय तक ठहरने नहीं देती जिसमें कि नीतिपूर्वक उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति सरलतापूर्वक सम्भव हो सके।
मछली वंशी में लिपटी आटे की गोली भर को देखती है। उसे उतना अवकाश या धीरज नहीं होता कि यह ढूँढ़-समझ सके कि इसके पीछे कहीं कोई खतरा तो नहीं है। घर बैठे हाथ लगा प्रलोभन उसे इतना सुहाता है कि गोली को निगलते ही बनता है। परिणाम सामने आने में देर नहीं लगती। काँटा आँतों में उलझता है और प्राण लेने के उपरान्त ही निकलता है।
📖 प्रज्ञा पुराण से
👉 स्वाध्याय, जीवन विकास की एक अनिवार्य आवश्यकता (भाग १)
बहुत बार हम से अनेक लोग किसी की धारा-प्रवाह बोलते एवं भाषण देते देखकर मंत्र कीलित जैसे हो जाते हैं और वक्ता के ज्ञान एवं उसकी प्रतिभा की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगते हैं और कभी-कभी यह भी मान लेते हैं कि इस व्यक्ति पर माता सरस्वती भी प्रत्यक्ष कृपा है। इसके अंतर्पट खुल गये हैं, तभी तो ज्ञान का अविरल स्रोत इसके शब्दों में मुख के द्वारा बाहर बहता चला रहा है।
बात भी सही है, श्रोताओं का इस प्रकार आश्चर्य विभोर हो जाना अस्वाभाविक भी नहीं है। सफल वक्ता अथवा समर्थ प्राध्यापक जिस विषय को ले लेते हैं, उस पर घण्टों एक बार बोलते चले जाते हैं, और यह प्रमाणित कर देते हैं कि उनकी उस विषय का साँगोपाँग ज्ञान है और उनकी सारी विद्या जिह्वा के अग्रभाग पर रखी हुई है। जबकि वह कोई मांत्रिक सिद्धि नहीं होती है। वह सारा चमत्कार उनके उस स्वाध्याय का सुफल होता है, जिसे वे किसी दिन भी, जिसे वे किसी दिन भी, किसी अवस्था में नहीं छोड़ते। उनके जीवन का कदाचित ही कोई ऐसा अभागा दिन जाता हो, जिसमें वे मनोयोगपूर्वक घण्टे दो घण्टे स्वाध्याय न करते हों। स्वाध्याय उनके जीवन का एक अंग और प्रतिदिन की अनिवार्य आवश्यकता बन जाता है। जिस दिन वे अपनी इस आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाते, उस दिन वे अपने तन-मन और आत्मा में एक भूख, एक रिक्तता का कष्ट अनुभव किया करते हैं। उस दिन का वे जीवन का एक मनहूस दिन मानते और उस मनहूस दिन को कभी भी अपने जीवन में आने का अवसर नहीं देते।
यही तो वह अबाध तप है जिसका फल ज्ञान एवं मुखरता के रूप में वक्ताओं एवं विद्वानों की जिह्वा पर सरस्वती के वास का विश्वास उत्पन्न करा देता है। चौबीसों घण्टों सरस्वती की उपासना में लगे रहिये, जीवन भर ब्राह्मी मंत्र एवं ब्राह्मी बूटी का सेवन करते रहिये, किन्तु स्वाध्याय किसी दिन भी न करिये और देखिये कि सरस्वती सिद्धि तो दूर पास की पढ़ी हुई विद्या भी विलुप्त हो जायेगी। सरस्वती स्वाध्याय का अनुगमन करती है, इस सत्य का सम्मान करता हुआ जो साधक उसकी उपासना किया करता है, वह अवश्य उसकी कृपा का भागी बन जाता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च १९६९ पृष्ठ २४
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/March/v1.24
बात भी सही है, श्रोताओं का इस प्रकार आश्चर्य विभोर हो जाना अस्वाभाविक भी नहीं है। सफल वक्ता अथवा समर्थ प्राध्यापक जिस विषय को ले लेते हैं, उस पर घण्टों एक बार बोलते चले जाते हैं, और यह प्रमाणित कर देते हैं कि उनकी उस विषय का साँगोपाँग ज्ञान है और उनकी सारी विद्या जिह्वा के अग्रभाग पर रखी हुई है। जबकि वह कोई मांत्रिक सिद्धि नहीं होती है। वह सारा चमत्कार उनके उस स्वाध्याय का सुफल होता है, जिसे वे किसी दिन भी, जिसे वे किसी दिन भी, किसी अवस्था में नहीं छोड़ते। उनके जीवन का कदाचित ही कोई ऐसा अभागा दिन जाता हो, जिसमें वे मनोयोगपूर्वक घण्टे दो घण्टे स्वाध्याय न करते हों। स्वाध्याय उनके जीवन का एक अंग और प्रतिदिन की अनिवार्य आवश्यकता बन जाता है। जिस दिन वे अपनी इस आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाते, उस दिन वे अपने तन-मन और आत्मा में एक भूख, एक रिक्तता का कष्ट अनुभव किया करते हैं। उस दिन का वे जीवन का एक मनहूस दिन मानते और उस मनहूस दिन को कभी भी अपने जीवन में आने का अवसर नहीं देते।
यही तो वह अबाध तप है जिसका फल ज्ञान एवं मुखरता के रूप में वक्ताओं एवं विद्वानों की जिह्वा पर सरस्वती के वास का विश्वास उत्पन्न करा देता है। चौबीसों घण्टों सरस्वती की उपासना में लगे रहिये, जीवन भर ब्राह्मी मंत्र एवं ब्राह्मी बूटी का सेवन करते रहिये, किन्तु स्वाध्याय किसी दिन भी न करिये और देखिये कि सरस्वती सिद्धि तो दूर पास की पढ़ी हुई विद्या भी विलुप्त हो जायेगी। सरस्वती स्वाध्याय का अनुगमन करती है, इस सत्य का सम्मान करता हुआ जो साधक उसकी उपासना किया करता है, वह अवश्य उसकी कृपा का भागी बन जाता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च १९६९ पृष्ठ २४
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/March/v1.24
गुरुवार, 29 अगस्त 2019
👉 कमी का एहसास
एक प्रेमी-युगल शादी से पहले काफी हँसी मजाक और नोक झोंक किया करते थे। शादी के बाद उनमें छोटी छोटी बातो पे झगड़े होने लगे। कल उनकी सालगिरह थी, पर बीबी ने कुछ नहीं बोला वो पति का रिस्पॉन्स देखना चाहती थी। सुबह पति जल्द उठा और घर से बाहर निकल गया। बीबी रुआँसी हो गई।
दो घण्टे बाद कॉलबेल बजी, वो दौड़ती हुई जाकर दरवाजा खोली। दरवाजे पर गिफ्ट और बकेट के साथ उसका पति था। पति ने गले लग के सालगिरह विश किया। फिर पति अपने कमरे मेँ चला गया। तभी पत्नि के पास पुलिस वाले का फोन आता है की आपके पति की हत्या हो चूकी है, उनके जेब में पड़े पर्स से आपका फोन नम्बर ढूढ़ के कॉल किया।
पत्नि सोचने लगी की पति तो अभी घर के अन्दर आये है। फिर उसे कही पे सुनी एक बात याद आ गई की मरे हुये इन्सान की आत्मा अपना विश पूरा करने एक बार जरूर आती है। वो दहाड़ मार के रोने लगी। उसे अपना वो सारा चूमना, लड़ना, झगड़ना, नोक-झोंक याद आने लगा। उसे पश्चतचाप होने लगा की अन्त समय में भी वो प्यार ना दे सकी।
वो बिलखती हुई रोने लगी। जब रूम में गई तो देखा उसका पति वहाँ नहीं था। वो चिल्ला चिल्ला के रोती हुई प्लीज कम बैक कम बैक कहने लगी, लगी कहने की अब कभी नहीं झगड़ूंगी। तभी बाथरूम से निकल के उसके कंधे पर किसी ने हाथ रख के पूछा क्या हुआ?
वो पलट के देखी तो उसके पति थे। वो रोती हुई उसके सीने से लग गइ फिर सारी बात बताई। तब पति ने बताया की आज सुबह उसका पर्स चोरी हो गया था। फिर दोस्त की दुकान से उधार लिया गिफ्ट।
जिन्दगी में किसी की अहमियत तब पता चलती है जब वो नही होता, हमलोग अपने दोस्तो, रिश्तेदारो से नोकझोंक करते है, पर जिन्दगी की करवटे कभी कभी भूल सुधार का मौका नहीं देती।
!! हँसी खुशी में प्यार से जिन्दगी बिताइये, नाराजगी को ज्यादा दिन मत रखिये !!
दो घण्टे बाद कॉलबेल बजी, वो दौड़ती हुई जाकर दरवाजा खोली। दरवाजे पर गिफ्ट और बकेट के साथ उसका पति था। पति ने गले लग के सालगिरह विश किया। फिर पति अपने कमरे मेँ चला गया। तभी पत्नि के पास पुलिस वाले का फोन आता है की आपके पति की हत्या हो चूकी है, उनके जेब में पड़े पर्स से आपका फोन नम्बर ढूढ़ के कॉल किया।
पत्नि सोचने लगी की पति तो अभी घर के अन्दर आये है। फिर उसे कही पे सुनी एक बात याद आ गई की मरे हुये इन्सान की आत्मा अपना विश पूरा करने एक बार जरूर आती है। वो दहाड़ मार के रोने लगी। उसे अपना वो सारा चूमना, लड़ना, झगड़ना, नोक-झोंक याद आने लगा। उसे पश्चतचाप होने लगा की अन्त समय में भी वो प्यार ना दे सकी।
वो बिलखती हुई रोने लगी। जब रूम में गई तो देखा उसका पति वहाँ नहीं था। वो चिल्ला चिल्ला के रोती हुई प्लीज कम बैक कम बैक कहने लगी, लगी कहने की अब कभी नहीं झगड़ूंगी। तभी बाथरूम से निकल के उसके कंधे पर किसी ने हाथ रख के पूछा क्या हुआ?
वो पलट के देखी तो उसके पति थे। वो रोती हुई उसके सीने से लग गइ फिर सारी बात बताई। तब पति ने बताया की आज सुबह उसका पर्स चोरी हो गया था। फिर दोस्त की दुकान से उधार लिया गिफ्ट।
जिन्दगी में किसी की अहमियत तब पता चलती है जब वो नही होता, हमलोग अपने दोस्तो, रिश्तेदारो से नोकझोंक करते है, पर जिन्दगी की करवटे कभी कभी भूल सुधार का मौका नहीं देती।
!! हँसी खुशी में प्यार से जिन्दगी बिताइये, नाराजगी को ज्यादा दिन मत रखिये !!
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ५८)
👉 अंतर्मन की धुलाई एवं ब्राह्मीचेतना से विलय का नाम है- ध्यान
ध्यान का यह रूप हमारे जीवन में भले न हो, पर कोई न कोई रूप तो है ही। और जैसा यह रूप है वैसा ही हमारा जीवन है। हमारे विचार और भावनाएँ प्रतिपल- प्रतिक्षण कहीं न कहीं तो एकाग्र होती हैं। यह बात अलग है कि यह एकाग्रता कभी द्वेष के प्रति होती है, कभी बैर के प्रति। कभी हम ईर्ष्या के प्रति एकाग्र होते हैं तो कभी लोभ- लालच के प्रति। यही नकारात्मक भाव, यही क्षुद्रताएँ हमारे ध्यान का विषय बनती हैं। और जैसा हमारा ध्यान वैसे ही हम बनते चले जाते हैं। कहीं हम अपने गहरे में इसे अनुभव करें तो यही पाएँगे कि ध्यान के इन नकारात्मक रूपों ने ही हमें रोगी व विषादग्रस्त बनाया। पल- पल भटकते हुए निषेधात्मक ध्यान के कारण ही हमारी यह दशा हुई है। इसकी चिकित्सा भी ध्यान ही है- सकारात्मक व विधेयात्मक ध्यान।
जब सही व सकारात्मक ध्यान की बात आती है, तो अनेको लोग सवाल उठाते हैं- कैसे करें ध्यान? मन ही नहीं लगता है। सच बात तो यह है कि उनका मन पहले से ही कहीं और लगा हुआ है। नकारात्मक क्षुद्रताओं में वह लिप्त है, अब सकारात्मक महानताएँ उसे रास नहीं आ रही। इस समस्या का हल यही है कि मन ने जिस विधि से गलत ध्यान सीखा है, उसी विधि से उसे सही ध्यान सीखना होगा। और यह विधि हमेशा से यह है कि जिस सत्य को, व्यक्ति को, विचार को हम लगातार याद करते हैं, अपने आप ही हमें उससे लगाव होने लगता है। यह लगाव धीरे- धीरे प्रगाढ़ प्रेम में बदलता है। उसी के प्रति हमारी श्रद्धा व आस्था पनपती है। यदि यही प्रक्रिया जारी रही तो इसकी सघनता इतनी अधिक होती है कि दुनिया की बाकी चीजें अपने आप ही बेमानी हो जाती हैं। और सारे विचार और सम्पूर्ण भावनाएँ उसमें एक रस हो जाती हैं। यही भाव दशा तो ध्यान है। साथ ही यही ध्यान में मन लगने के सवाल का समाधान है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ८०
ध्यान का यह रूप हमारे जीवन में भले न हो, पर कोई न कोई रूप तो है ही। और जैसा यह रूप है वैसा ही हमारा जीवन है। हमारे विचार और भावनाएँ प्रतिपल- प्रतिक्षण कहीं न कहीं तो एकाग्र होती हैं। यह बात अलग है कि यह एकाग्रता कभी द्वेष के प्रति होती है, कभी बैर के प्रति। कभी हम ईर्ष्या के प्रति एकाग्र होते हैं तो कभी लोभ- लालच के प्रति। यही नकारात्मक भाव, यही क्षुद्रताएँ हमारे ध्यान का विषय बनती हैं। और जैसा हमारा ध्यान वैसे ही हम बनते चले जाते हैं। कहीं हम अपने गहरे में इसे अनुभव करें तो यही पाएँगे कि ध्यान के इन नकारात्मक रूपों ने ही हमें रोगी व विषादग्रस्त बनाया। पल- पल भटकते हुए निषेधात्मक ध्यान के कारण ही हमारी यह दशा हुई है। इसकी चिकित्सा भी ध्यान ही है- सकारात्मक व विधेयात्मक ध्यान।
जब सही व सकारात्मक ध्यान की बात आती है, तो अनेको लोग सवाल उठाते हैं- कैसे करें ध्यान? मन ही नहीं लगता है। सच बात तो यह है कि उनका मन पहले से ही कहीं और लगा हुआ है। नकारात्मक क्षुद्रताओं में वह लिप्त है, अब सकारात्मक महानताएँ उसे रास नहीं आ रही। इस समस्या का हल यही है कि मन ने जिस विधि से गलत ध्यान सीखा है, उसी विधि से उसे सही ध्यान सीखना होगा। और यह विधि हमेशा से यह है कि जिस सत्य को, व्यक्ति को, विचार को हम लगातार याद करते हैं, अपने आप ही हमें उससे लगाव होने लगता है। यह लगाव धीरे- धीरे प्रगाढ़ प्रेम में बदलता है। उसी के प्रति हमारी श्रद्धा व आस्था पनपती है। यदि यही प्रक्रिया जारी रही तो इसकी सघनता इतनी अधिक होती है कि दुनिया की बाकी चीजें अपने आप ही बेमानी हो जाती हैं। और सारे विचार और सम्पूर्ण भावनाएँ उसमें एक रस हो जाती हैं। यही भाव दशा तो ध्यान है। साथ ही यही ध्यान में मन लगने के सवाल का समाधान है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ८०
बुधवार, 28 अगस्त 2019
👉 अस्थिर आस्था के लूटेरे
एक विशाल नगर में हजारों भीख मांगने वाले थे। अभावों में भीख मांगकर आजिविका चलाना उनका पेशा था। उनमें कुछ अन्धे भी थे। उस नगर में एक ठग आया और भीखमंगो में सम्मलित हो गया। दो तीन दिन में ही उसने जान लिया कि उन भीखारियों में अंधे भीखारी अधिक समृद्ध थे। अन्धे होने के कारण दयालु लोग उन्हे कुछ विशेष ही दान देते थे। उनका धन देखकर ठग ललचाया। वह अंधो के पास पहुंच कर कहने लगा-“सूरदास महाराज ! धन्य भाग जो आप मुझे मिल गये। मै आप जैसे महात्मा की खोज में था! गुरूवर, आप तो साक्षात भगवान हो। मैं आप की सेवा करना चाहता हूँ! लीजिये भोजन ग्रहण कीजिए, मेरे सर पर कृपा का हाथ रखिए और मुझे आशिर्वाद दीजिये।“
अन्धे को तो जैसे बिन मांगी मुराद मिल गई। वह प्रसन्न हुआ और भक्त पर आशिर्वाद की झडी लगा दी। नकली भक्त असली से भी अधिक मोहक होता है। वह सेवा करने लगा। अंधे सभी साथ रहते थे। वैसे भी उन्हे आंखो वाले भीखमंगो पर भरोसा नहीं था। थोडे ही दिनों में ठग ने अंधो का विश्वास जीत लिया। अनुकूल समय देखकर उस भक्त ने, अंध सभा को कहा-“ महात्माओं मुझे आप सभी को तीर्थ-यात्रा करवाने की मनोकामना है। आपकी यह सेवा कर संतुष्ट होना चाहता हूँ। मेरा जन्म सफल हो जाएगा। सभी अंधे ऐसा श्रवणकुमार सा योग्य भक्त पा गद्गद थे। उन्हे तो मनवांछित की प्राप्ति हो रही थी। वे सब तैयार हो गये।सभी ने आपना अपना संचित धन साथ लिया और चल पडे। आगे आगे ठगराज और पिछे अंधो की कतार।
भक्त बोला- “महात्माओं, आगे भयंकर अट्वी है, जहाँ चोर डाकुओं का उपद्रव रहता है। आप अपने अपने धन को सम्हालें”। अंध-समूह घबराया ! हम तो अंधे है अपना अपना धन कैसे सुरक्षित रखें? अंधो ने निवेदन किया – “भक्त ! हमें तुम पर पूरा भरोसा है, तुम ही इस धन को अपने पास सुरक्षित रखो”, कहकर सभी ने नोटों के बंडल भक्त को थमा दिये। ठग ने इस गुरुवर्ग को आपस में ही लडा मारने की युक्ति सोच रखी थी। उसने सभी अंधो की झोलीयों में पत्थर रखवा दिये और कहा – “आप लोग मौन होकर चुपचाप चलते रहना, आपस में कोई बात न करना। कोई मीठी मीठी बातें करे तो उस पर विश्वास न करना और ये पत्थर मार-मार कर भगा देना। मै आपसे दूरी बनाकर नजर रखते हुए चलता रहूंगा”। इस प्रकार सभी का धन लेकर ठग चलते बना।
उधर से गुजर रहे एक राहगीर सज्जन ने, इस अंध-समूह को इधर उधर भटकते देख पूछा –“सूरदास जी आप लोग सीधे मार्ग न चल कर, उन्मार्ग – अटवी में क्यों भटक रहे हो”? बस इतना सुनते ही सज्जन पर पत्थर-वर्षा होने लगी. पत्थर के भी कहाँ आँखे होती है, एक दूसरे अंधो पर भी पत्थर बरसने लगे। अंधे आपस में ही लडकर समाप्त हो गये।
आपकी डाँवाडोल, अदृढ श्रद्धा को चुराने के लिए, सेवा, परोपकार और सरलता का स्वांग रचकर ठग, आपकी आस्था को लूटेने के लिए तैयार बैठे है। यथार्थ दर्शन चिंतन के अभाव में हमारा ज्ञान भी अंध है। अज्ञान का अंधापा हो तो अस्थिर आस्था जल्दी विचलित हो जाती है। एक बार आस्था लूट ली जाती है तो सन्मार्ग दिखाने वाला भी शत्रु लगता है. अज्ञानता के कारण ही अपने समृद्ध दर्शन की कीमत हम नहीं जान पाते। हमेशा डाँवाडोल श्रद्धा को सरल-जीवन, सरल धर्म के पालन का प्रलोभन देकर आसानी से ठगा जा सकता है। विचलित विचारी को गलत मार्ग पर डालना बड़ा आसान है। आस्था टूट जाने के भय में रहने वाले ढुल-मुल अंधश्रद्धालु को सरलता से आपस में लडाकर खत्म किया जा सकता है।
अस्थिर आस्थाओं की ठग़ी ने आज जोर पकड़ा हुआ है। निष्ठा पर ढुल-मुल नहीं सुदृढ बनें।
अन्धे को तो जैसे बिन मांगी मुराद मिल गई। वह प्रसन्न हुआ और भक्त पर आशिर्वाद की झडी लगा दी। नकली भक्त असली से भी अधिक मोहक होता है। वह सेवा करने लगा। अंधे सभी साथ रहते थे। वैसे भी उन्हे आंखो वाले भीखमंगो पर भरोसा नहीं था। थोडे ही दिनों में ठग ने अंधो का विश्वास जीत लिया। अनुकूल समय देखकर उस भक्त ने, अंध सभा को कहा-“ महात्माओं मुझे आप सभी को तीर्थ-यात्रा करवाने की मनोकामना है। आपकी यह सेवा कर संतुष्ट होना चाहता हूँ। मेरा जन्म सफल हो जाएगा। सभी अंधे ऐसा श्रवणकुमार सा योग्य भक्त पा गद्गद थे। उन्हे तो मनवांछित की प्राप्ति हो रही थी। वे सब तैयार हो गये।सभी ने आपना अपना संचित धन साथ लिया और चल पडे। आगे आगे ठगराज और पिछे अंधो की कतार।
भक्त बोला- “महात्माओं, आगे भयंकर अट्वी है, जहाँ चोर डाकुओं का उपद्रव रहता है। आप अपने अपने धन को सम्हालें”। अंध-समूह घबराया ! हम तो अंधे है अपना अपना धन कैसे सुरक्षित रखें? अंधो ने निवेदन किया – “भक्त ! हमें तुम पर पूरा भरोसा है, तुम ही इस धन को अपने पास सुरक्षित रखो”, कहकर सभी ने नोटों के बंडल भक्त को थमा दिये। ठग ने इस गुरुवर्ग को आपस में ही लडा मारने की युक्ति सोच रखी थी। उसने सभी अंधो की झोलीयों में पत्थर रखवा दिये और कहा – “आप लोग मौन होकर चुपचाप चलते रहना, आपस में कोई बात न करना। कोई मीठी मीठी बातें करे तो उस पर विश्वास न करना और ये पत्थर मार-मार कर भगा देना। मै आपसे दूरी बनाकर नजर रखते हुए चलता रहूंगा”। इस प्रकार सभी का धन लेकर ठग चलते बना।
उधर से गुजर रहे एक राहगीर सज्जन ने, इस अंध-समूह को इधर उधर भटकते देख पूछा –“सूरदास जी आप लोग सीधे मार्ग न चल कर, उन्मार्ग – अटवी में क्यों भटक रहे हो”? बस इतना सुनते ही सज्जन पर पत्थर-वर्षा होने लगी. पत्थर के भी कहाँ आँखे होती है, एक दूसरे अंधो पर भी पत्थर बरसने लगे। अंधे आपस में ही लडकर समाप्त हो गये।
आपकी डाँवाडोल, अदृढ श्रद्धा को चुराने के लिए, सेवा, परोपकार और सरलता का स्वांग रचकर ठग, आपकी आस्था को लूटेने के लिए तैयार बैठे है। यथार्थ दर्शन चिंतन के अभाव में हमारा ज्ञान भी अंध है। अज्ञान का अंधापा हो तो अस्थिर आस्था जल्दी विचलित हो जाती है। एक बार आस्था लूट ली जाती है तो सन्मार्ग दिखाने वाला भी शत्रु लगता है. अज्ञानता के कारण ही अपने समृद्ध दर्शन की कीमत हम नहीं जान पाते। हमेशा डाँवाडोल श्रद्धा को सरल-जीवन, सरल धर्म के पालन का प्रलोभन देकर आसानी से ठगा जा सकता है। विचलित विचारी को गलत मार्ग पर डालना बड़ा आसान है। आस्था टूट जाने के भय में रहने वाले ढुल-मुल अंधश्रद्धालु को सरलता से आपस में लडाकर खत्म किया जा सकता है।
अस्थिर आस्थाओं की ठग़ी ने आज जोर पकड़ा हुआ है। निष्ठा पर ढुल-मुल नहीं सुदृढ बनें।
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ५७)
👉 अंतर्मन की धुलाई एवं ब्राह्मीचेतना से विलय का नाम है- ध्यान
ध्यान के प्रयोग अध्यात्म चिकित्सा के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। यदि कोई इन्हें सम्यक् रूप से जान ले- सीख ले तो वह स्वयं ही अपने व्यक्तित्व की चिकित्सा कर सकता है। ध्यान शब्द से बहुसंख्यक लोग सुपरिचित हो चले हैं। क्योंकि इन दिनों इसके बारे में बहुत कुछ कहा- सुना और लिखा- पढ़ा जा रहा है। किन्तु इसके अर्थ के बारे में, मर्म के बारे में प्रायः सभी अपरिचित हैं। इनमें वे भी शामिल हैं जो ध्यान के बारे में जानने और नियमित इसके अभ्यास का दावा करते हैं। यह अचरज भरा सच हो सकता है कई लोगों को नागवार लगे। फिर भी सत्य को कहा जाना चाहिए। यही सोचकर विनम्रतापूर्वक ये पंक्तियाँ लिखी गयी हैं, क्योंकि इनसे आत्मावलोकन में मदद मिलेगी और नए सिरे से ध्यान के बोध को पाया जा सकेगा।
ध्यान के प्रयोग में हम अपने विचारों और भावनाओं को रूपान्तरित करते हैं। इन्हें लयबद्ध करते हैं- स्वरबद्ध करते हैं। और फिर इस लय से हम अपने जीवन की खोई हुई लय को फिर से पाते हैं। बिखरे हुए स्वरों को, ध्यान के संगीत को सजाकर जिन्दगी का भूला हुआ गीत फिर से गाते हैं। दुःख- विषाद को आनन्द में बदलना, पतन के गर्त में गिरती जा रही जीवन की ऊर्जा का फिर से ऊर्ध्वारोहण करना ध्यान के प्रयोगों का ही सुफल है। बस हमें इन्हें करना आना चाहिए। ध्यान के अभाव में ही हम ब्राह्मी चेतना से अपना सामञ्जस्य गंवा बैठे हैं। ब्रह्माण्ड की अनन्त शक्तियों से विलग होकर हम निस्तेज और शक्तिहीन हो गए हैं। ध्यान के प्रयोग से यह योग पुनः सम्भव है।
यूं तो ध्यान अपने में गहरी आध्यात्मिक प्रक्रिया है। प्रत्येक धर्म व पंथ के आचार्यों ने इसका विशद विवेचन किया है। इसकी प्रक्रिया, प्रभावों व परिणामों का बोध कराया है। महर्षि पतंजलि के योग सूत्र का तो यह केन्द्रीय तत्त्व है। अष्टांग योग के आठ अंगों के क्रम में यह सातवें स्थान पर है। इसके पहले के छह अंग ध्यान की तैयारी के लिए है। और बाद का आठवां अंग ध्यान के परिणाम व सुफल बताने के लिए है। यह विवेचन कहीं भी और कितना भी क्यों न किया गया हो, पर उसका सार यही है कि हम अपने विचारों और भावनाओं को श्रेष्ठता- महानता और व्यापकता में एकाग्र करना सीखे। इसके माध्यम से व्यक्तित्व में ऐसे खिड़की- दरवाजे खोलें, जिनके माध्यम से ब्राह्मी चेतना का सुखद- सुरभित और निर्मल झोंका हमारे व्यक्तित्व में प्रवाहित हो सके।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७९
ध्यान के प्रयोग अध्यात्म चिकित्सा के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। यदि कोई इन्हें सम्यक् रूप से जान ले- सीख ले तो वह स्वयं ही अपने व्यक्तित्व की चिकित्सा कर सकता है। ध्यान शब्द से बहुसंख्यक लोग सुपरिचित हो चले हैं। क्योंकि इन दिनों इसके बारे में बहुत कुछ कहा- सुना और लिखा- पढ़ा जा रहा है। किन्तु इसके अर्थ के बारे में, मर्म के बारे में प्रायः सभी अपरिचित हैं। इनमें वे भी शामिल हैं जो ध्यान के बारे में जानने और नियमित इसके अभ्यास का दावा करते हैं। यह अचरज भरा सच हो सकता है कई लोगों को नागवार लगे। फिर भी सत्य को कहा जाना चाहिए। यही सोचकर विनम्रतापूर्वक ये पंक्तियाँ लिखी गयी हैं, क्योंकि इनसे आत्मावलोकन में मदद मिलेगी और नए सिरे से ध्यान के बोध को पाया जा सकेगा।
ध्यान के प्रयोग में हम अपने विचारों और भावनाओं को रूपान्तरित करते हैं। इन्हें लयबद्ध करते हैं- स्वरबद्ध करते हैं। और फिर इस लय से हम अपने जीवन की खोई हुई लय को फिर से पाते हैं। बिखरे हुए स्वरों को, ध्यान के संगीत को सजाकर जिन्दगी का भूला हुआ गीत फिर से गाते हैं। दुःख- विषाद को आनन्द में बदलना, पतन के गर्त में गिरती जा रही जीवन की ऊर्जा का फिर से ऊर्ध्वारोहण करना ध्यान के प्रयोगों का ही सुफल है। बस हमें इन्हें करना आना चाहिए। ध्यान के अभाव में ही हम ब्राह्मी चेतना से अपना सामञ्जस्य गंवा बैठे हैं। ब्रह्माण्ड की अनन्त शक्तियों से विलग होकर हम निस्तेज और शक्तिहीन हो गए हैं। ध्यान के प्रयोग से यह योग पुनः सम्भव है।
यूं तो ध्यान अपने में गहरी आध्यात्मिक प्रक्रिया है। प्रत्येक धर्म व पंथ के आचार्यों ने इसका विशद विवेचन किया है। इसकी प्रक्रिया, प्रभावों व परिणामों का बोध कराया है। महर्षि पतंजलि के योग सूत्र का तो यह केन्द्रीय तत्त्व है। अष्टांग योग के आठ अंगों के क्रम में यह सातवें स्थान पर है। इसके पहले के छह अंग ध्यान की तैयारी के लिए है। और बाद का आठवां अंग ध्यान के परिणाम व सुफल बताने के लिए है। यह विवेचन कहीं भी और कितना भी क्यों न किया गया हो, पर उसका सार यही है कि हम अपने विचारों और भावनाओं को श्रेष्ठता- महानता और व्यापकता में एकाग्र करना सीखे। इसके माध्यम से व्यक्तित्व में ऐसे खिड़की- दरवाजे खोलें, जिनके माध्यम से ब्राह्मी चेतना का सुखद- सुरभित और निर्मल झोंका हमारे व्यक्तित्व में प्रवाहित हो सके।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७९
👉 आत्मचिंतन के क्षण 28 Aug 2019
■ घृणित विचार, क्षणिक उत्तेजना, आवेश हमारी जीवनी शक्ति के अपव्यय के अनेक रुप हैं। जिस प्रकार काले धुएँ से मकान काला पड़ जाता है, उसी प्रकार स्वार्थ, हिंसा, ईर्ष्या, मद, मत्सर के कुत्सित विचारों से मनो-मंदिर काला पड़ जाता है। हमें चाहिये कि इन घातक मनोविकारों से अपने को सदा सुरक्षित रखें। गन्दे, ओछे विचार रखने वाले व्यक्तियों से बचते रहें। वासना को उत्तेजित करने वाले स्थानों पर कदापि न जाय, गन्दा साहित्य कदापि न पढे़।
◇ मानव की कुशलता, बुद्धिमता सांसारिक क्षणिक नश्वर भोगों के एकत्रित करने में न होकर अविनाशी और अमृत स्वरुप ब्रहन की प्राप्ति में है। सब ओर से समय बचाइये, व्यर्थ के कार्यों में जीवन जैसी अमुल्य निधि को नष्ट न कीजिये, वरन उच्च चिन्तन, मनन, ईश्वर पूजन में लगाइये। सदैव परोपकार में निरत रहिये। दूसरों की सेवा, सहायता एवं उपकार से हमे परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं।
★ मनुष्य अपने शरीर को भले ही त्याग दे परन्तु उससे वह अपने कर्म के बन्धनों से कदापि मुक्त नहीं हो सकता। कहावत है कि "कटे न पाप भुगते बिना"। जो लोग जीवन के इस रहस्य को समझते है वे दु:ख पड़ने से कभी विचलित नहीं होते, वे जानते हैं कि दु:ख से केवल पापों का ही क्षय नहीं होता, बल्कि उनका आत्मबल भी बढ़ता है जो उनको जीवन संग्राम में सहायक होगा और नये-नये पाप करने से बचायेगा। मन की दुर्बलता ही मनुष्य को पाप कर्मों की ओर खीच ले जाती है।
◇ पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों से संसार में स्वार्थपरता की वृद्धि के साथ ही ईश्वर से विमुखता का भाव भी जोर पकड रहा था। अब कई बार ठोकरें खाने के बाद संसार को विशेष रुप से सबसे धनी और ऐश्वर्यशाली देशों को फिर से ईश्वर की याद आ रही है। केवल धन से ही सुख तथा शान्ति नहीं मिलती। इसके लिए चित्त की शुद्धता बिना विवेक के संभव नहीं और विवेक धर्म तथा ईश्वर के ज्ञान से ही उत्पन्न हो सकता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
◇ मानव की कुशलता, बुद्धिमता सांसारिक क्षणिक नश्वर भोगों के एकत्रित करने में न होकर अविनाशी और अमृत स्वरुप ब्रहन की प्राप्ति में है। सब ओर से समय बचाइये, व्यर्थ के कार्यों में जीवन जैसी अमुल्य निधि को नष्ट न कीजिये, वरन उच्च चिन्तन, मनन, ईश्वर पूजन में लगाइये। सदैव परोपकार में निरत रहिये। दूसरों की सेवा, सहायता एवं उपकार से हमे परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं।
★ मनुष्य अपने शरीर को भले ही त्याग दे परन्तु उससे वह अपने कर्म के बन्धनों से कदापि मुक्त नहीं हो सकता। कहावत है कि "कटे न पाप भुगते बिना"। जो लोग जीवन के इस रहस्य को समझते है वे दु:ख पड़ने से कभी विचलित नहीं होते, वे जानते हैं कि दु:ख से केवल पापों का ही क्षय नहीं होता, बल्कि उनका आत्मबल भी बढ़ता है जो उनको जीवन संग्राम में सहायक होगा और नये-नये पाप करने से बचायेगा। मन की दुर्बलता ही मनुष्य को पाप कर्मों की ओर खीच ले जाती है।
◇ पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों से संसार में स्वार्थपरता की वृद्धि के साथ ही ईश्वर से विमुखता का भाव भी जोर पकड रहा था। अब कई बार ठोकरें खाने के बाद संसार को विशेष रुप से सबसे धनी और ऐश्वर्यशाली देशों को फिर से ईश्वर की याद आ रही है। केवल धन से ही सुख तथा शान्ति नहीं मिलती। इसके लिए चित्त की शुद्धता बिना विवेक के संभव नहीं और विवेक धर्म तथा ईश्वर के ज्ञान से ही उत्पन्न हो सकता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
मंगलवार, 27 अगस्त 2019
👉 कमियाँ नज़र अंदाज़ करें
एक बार की बात है किसी राज्य में एक राजा था जिसकी केवल एक टाँग और एक आँख थी। उस राज्य में सभी लोग खुशहाल थे क्योंकि राजा बहुत बुद्धिमान और प्रतापी था।
एक बार राजा के विचार आया कि क्यों न खुद की एक तस्वीर बनवायी जाये। फिर क्या था, देश विदेशों से चित्रकारों को बुलवाया गया और एक से एक बड़े चित्रकार राजा के दरबार में आये। राजा ने उन सभी से हाथ जोड़कर आग्रह किया कि वो उसकी एक बहुत सुन्दर तस्वीर बनायें जो राजमहल में लगायी जाएगी।
सारे चित्रकार सोचने लगे कि राजा तो पहले से ही विकलांग है फिर उसकी तस्वीर को बहुत सुन्दर कैसे बनाया जा सकता है, ये तो संभव ही नहीं है और अगर तस्वीर सुन्दर नहीं बनी तो राजा गुस्सा होकर दंड देगा। यही सोचकर सारे चित्रकारों ने राजा की तस्वीर बनाने से मना कर दिया। तभी पीछे से एक चित्रकार ने अपना हाथ खड़ा किया और बोला कि मैं आपकी बहुत सुन्दर तस्वीर बनाऊँगा जो आपको जरूर पसंद आएगी।
फिर चित्रकार जल्दी से राजा की आज्ञा लेकर तस्वीर बनाने में जुट गया। काफी देर बाद उसने एक तस्वीर तैयार की जिसे देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और सारे चित्रकारों ने अपने दातों तले उंगली दबा ली।
उस चित्रकार ने एक ऐसी तस्वीर बनायीं जिसमें राजा एक टाँग को मोड़कर जमीन पे बैठा है और एक आँख बंद करके अपने शिकार पे निशाना लगा रहा है। राजा ये देखकर बहुत प्रसन्न हुआ कि उस चित्रकार ने राजा की कमजोरियों को छिपा कर कितनी चतुराई से एक सुन्दर तस्वीर बनाई है। राजा ने उसे खूब इनाम दिया।
तो मित्रों, क्यों ना हम भी दूसरों की कमियों को छुपाएँ, उन्हें नजरअंदाज करें और अच्छाइयों पर ध्यान दें। आजकल देखा जाता है कि लोग एक दूसरे की कमियाँ बहुत जल्दी ढूंढ लेते हैं चाहें हममें खुद में कितनी भी बुराइयाँ हों लेकिन हम हमेशा दूसरों की बुराइयों पर ही ध्यान देते हैं कि अमुक आदमी ऐसा है, वो वैसा है। सोचिये अगर हम भी उस चित्रकार की तरह दूसरों की कमियों पर पर्दा डालें उन्हें नजरअंदाज करें तो धीरे धीरे सारी दुनियाँ से बुराइयाँ ही खत्म हो जाएँगी और रह जाएँगी सिर्फ अच्छाइयाँ।
इस कहानी से ये भी शिक्षा मिलती है कि कैसे हमें नकारात्मक परिस्थितियों में भी सकारात्मक सोचना चाहिए और किस तरह हमारी सकारात्मक सोच हमारी समस्यों को हल करती है।
एक बार राजा के विचार आया कि क्यों न खुद की एक तस्वीर बनवायी जाये। फिर क्या था, देश विदेशों से चित्रकारों को बुलवाया गया और एक से एक बड़े चित्रकार राजा के दरबार में आये। राजा ने उन सभी से हाथ जोड़कर आग्रह किया कि वो उसकी एक बहुत सुन्दर तस्वीर बनायें जो राजमहल में लगायी जाएगी।
सारे चित्रकार सोचने लगे कि राजा तो पहले से ही विकलांग है फिर उसकी तस्वीर को बहुत सुन्दर कैसे बनाया जा सकता है, ये तो संभव ही नहीं है और अगर तस्वीर सुन्दर नहीं बनी तो राजा गुस्सा होकर दंड देगा। यही सोचकर सारे चित्रकारों ने राजा की तस्वीर बनाने से मना कर दिया। तभी पीछे से एक चित्रकार ने अपना हाथ खड़ा किया और बोला कि मैं आपकी बहुत सुन्दर तस्वीर बनाऊँगा जो आपको जरूर पसंद आएगी।
फिर चित्रकार जल्दी से राजा की आज्ञा लेकर तस्वीर बनाने में जुट गया। काफी देर बाद उसने एक तस्वीर तैयार की जिसे देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और सारे चित्रकारों ने अपने दातों तले उंगली दबा ली।
उस चित्रकार ने एक ऐसी तस्वीर बनायीं जिसमें राजा एक टाँग को मोड़कर जमीन पे बैठा है और एक आँख बंद करके अपने शिकार पे निशाना लगा रहा है। राजा ये देखकर बहुत प्रसन्न हुआ कि उस चित्रकार ने राजा की कमजोरियों को छिपा कर कितनी चतुराई से एक सुन्दर तस्वीर बनाई है। राजा ने उसे खूब इनाम दिया।
तो मित्रों, क्यों ना हम भी दूसरों की कमियों को छुपाएँ, उन्हें नजरअंदाज करें और अच्छाइयों पर ध्यान दें। आजकल देखा जाता है कि लोग एक दूसरे की कमियाँ बहुत जल्दी ढूंढ लेते हैं चाहें हममें खुद में कितनी भी बुराइयाँ हों लेकिन हम हमेशा दूसरों की बुराइयों पर ही ध्यान देते हैं कि अमुक आदमी ऐसा है, वो वैसा है। सोचिये अगर हम भी उस चित्रकार की तरह दूसरों की कमियों पर पर्दा डालें उन्हें नजरअंदाज करें तो धीरे धीरे सारी दुनियाँ से बुराइयाँ ही खत्म हो जाएँगी और रह जाएँगी सिर्फ अच्छाइयाँ।
इस कहानी से ये भी शिक्षा मिलती है कि कैसे हमें नकारात्मक परिस्थितियों में भी सकारात्मक सोचना चाहिए और किस तरह हमारी सकारात्मक सोच हमारी समस्यों को हल करती है।
👉 चतुर्विधि कार्यक्रम
प्रचारात्मक, संगठनात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक चतुर्विधि कार्यक्रमों को लेकर युग निर्माण योजना क्रमशः अपना क्षेत्र बनाती और बढ़ाती चली जायेगी। निःसन्देह इसके पीछे ईश्वरीय इच्छा और महाकाल की विधि व्यवस्था काम कर रहीं है, हम केवल उसके उद्घोषक मात्र है। यह आन्दोलन न तो शिथिल होने वाला है, न निरस्त। हमारे तपश्चर्या के लिये चले जाने के बाद वह घटेगा नहीं - हजार लाख गुना विकसित होगा। सो हममें से किसी को शंका कुशंकाओं के कुचक्र में भटकने की अपेक्षा अपना वह दृढ़ निश्चय परिपक्व करना चाहिए कि विश्व का नव निर्माण होना ही है और उससे अपने अभियान को, अपने परिवार को अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका का सम्पादन करना ही है।
परिजनों की अपनी जन्म-जन्मान्तरों की उस उत्कृष्ट सुसंस्कारिता का चिन्तन करना चाहिए जिसकी परख से उन्हें अपनी माला में पिरोया है। युग की की पुकार, जीवनोद्देश्य की सार्थकता, ईश्वर की इच्छा और इस ऐतिहासिक अवसर की स्थिति, महामानव की भूमिका को ध्यान में रखते हुए कुछ बड़े कदम उठाने की बात सोचनी चाहिए। इस महा अभियान की अनेक दिशाएं है जिन्हें पैसे से, मस्तिष्क से, श्रम सीकरों से सींचा जाना चाहिए जिसके पास जो विभूतियां है उन्हें लेकर महाकाल के चरणों में प्रस्तुत होना चाहिए।
लोभ, मोह के अज्ञान और अन्धकार की तमिस्रा को चीरते हुए हमें आगे बढ़ना चाहिए और अपने परिवार के लिए रख कर शेष को विश्व मानव के चरणों में समर्पित करना चाहिए। नव निर्माण की लाल मशाल में हमने अपने सर्वस्व का तेल टपका कर उसे प्रकाशवान रखा है अब परिजनों की जिम्मेदारी है कि वे उसे जलती रखने के लिये हमारी ही तरह अपने अस्तित्व के सार तत्व को टपकाएं। परिजनों पर यही कर्तव्य और उत्तरदायित्व छोड़कर इस आशा के साथ हम विदा हो रहे है कि महानता की दिशा में कदम बढ़ाने की प्रवृत्ति अपने परिजनों में घटेगी नहीं बढ़ेगी ही।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ६२
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.62
परिजनों की अपनी जन्म-जन्मान्तरों की उस उत्कृष्ट सुसंस्कारिता का चिन्तन करना चाहिए जिसकी परख से उन्हें अपनी माला में पिरोया है। युग की की पुकार, जीवनोद्देश्य की सार्थकता, ईश्वर की इच्छा और इस ऐतिहासिक अवसर की स्थिति, महामानव की भूमिका को ध्यान में रखते हुए कुछ बड़े कदम उठाने की बात सोचनी चाहिए। इस महा अभियान की अनेक दिशाएं है जिन्हें पैसे से, मस्तिष्क से, श्रम सीकरों से सींचा जाना चाहिए जिसके पास जो विभूतियां है उन्हें लेकर महाकाल के चरणों में प्रस्तुत होना चाहिए।
लोभ, मोह के अज्ञान और अन्धकार की तमिस्रा को चीरते हुए हमें आगे बढ़ना चाहिए और अपने परिवार के लिए रख कर शेष को विश्व मानव के चरणों में समर्पित करना चाहिए। नव निर्माण की लाल मशाल में हमने अपने सर्वस्व का तेल टपका कर उसे प्रकाशवान रखा है अब परिजनों की जिम्मेदारी है कि वे उसे जलती रखने के लिये हमारी ही तरह अपने अस्तित्व के सार तत्व को टपकाएं। परिजनों पर यही कर्तव्य और उत्तरदायित्व छोड़कर इस आशा के साथ हम विदा हो रहे है कि महानता की दिशा में कदम बढ़ाने की प्रवृत्ति अपने परिजनों में घटेगी नहीं बढ़ेगी ही।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ६२
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.62
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ५६)
👉 प्रत्येक कर्म बनें भगवान की प्रार्थना
व्यावहारिक जीवन का पल हमारे स्थूल शरीर का तल है। वैचारिक प्रगाढ़ता हमें सूक्ष्म चेतना की अनुभूति देती है। भावनात्मक एकाग्रता में हम कारण शरीर में जीते हैं। यहाँ हम जितना अधिक स्थिर एकाग्र होते हैं, उतना ही अधिक भावनात्मक ऊर्जा इकट्ठा होती है। हमारी श्रद्धा की परम सघनता में यह स्थिति अपने सर्वोच्च बिन्दु पर होती है। कारण शरीर के इस सर्वोच्च शिखर अथवा अपने अस्तित्त्व की चेतना के इस महाकेन्द्र में हम परम कारण को यानि कि स्वयं प्रभु का स्पर्श पाते हैं। हमारी श्रद्धा की सघनता में हुआ भावनात्मक ऊर्जा का विस्फोट हमें सर्वेश्वर की सर्वव्यापी चेतना से एकाकार कर देता है। इस स्थिति में हमारे जीवन में उन प्रभु का असीम ऊर्जा प्रवाह उमड़ता चला आता है। और फिर उनकी अनन्त शक्ति के संयोग से हमारे जीवन में सभी असम्भव सम्भव होने लगते हैं।
परन्तु विपत्ति के बादल छंटते ही हम पुनः अपने जीवन की क्षुद्रताओं में रस लेने लगते हैं। फिर से विषय- भोग हमें लुभाते हैं। लालसाओं की लोलुपता हमें ललचाती है। और हम अपनी भावचेतना के सर्वोच्च शिखर से पतित हो जाते हैं। प्रार्थना ने जो हमें उपलब्ध कराया था, वह फिर से खोने लगता है। हम सबके सामान्य जीवन का यही सच है। लेकिन सन्त या भक्त, जिनके भोगों की, लालसाओं की कोई चाहत नहीं है, वे हर पल प्रार्थना में जीते हैं उनकी भाव चेतना सदा उस स्थिति में होती है, जहाँ वह सर्वव्यापी परमेश्वर के सम्पर्क में रह सके। यही वजह है कि उनकी प्रार्थनाएँ कभी भी निष्फल नहीं होती हैं। प्रत्येक असम्भव उनके लिए हमेशा सदा सम्भव होता है। वे जिसके लिए भी अपने प्रभु से प्रार्थना करते हैं, उसी का परम कल्याण होता है।
यही कारण है कि प्रार्थनाशीलमनुष्य आध्यात्मिक चिकित्सक होकर इस संसार में जीवन जीते हैं। हमने परम पूज्य गुरुदेव को इसी रूप में देखा और उनकी कृपा को अनुभव किया है। उन्होंने अपने जीवन की हर श्वास को प्रभु प्रार्थना बना लिया था। एक दिन जब वह बैठे थे, उनके श्री चरणों के पास हम सब भी थे। चर्चा साधना की चली तो उन्होंने कहा कि बेटा सारा योग, जप, ध्यान एक तरफ और प्रार्थना एक तरफ। प्रार्थना इन सभी से बढ़- चढ़कर है। इतना कहकर उन्होंने अपनी अनुभूति बताते हुए कहा- मैंने तो अपने प्रत्येक कर्म को भगवान् की प्रार्थना बना लिया है। बेटा यदि कोई तुमसे मेरे जीवन का रहस्य जानना चाहे तो उसे बताना, हमारे गुरुजी का प्रत्येक कर्म, उनके शरीर द्वारा की जाने वाली भगवान् की प्रार्थना था। उनके मन का चिन्तन मन से उभरने वाले प्रभु प्रार्थना के स्वर थे। उनकी भावना का हर स्पन्दन भावों से प्रभु पुकार ही थे। हमारे गुरुदेव का जीवन प्रार्थनामय जीवन था। इसलिए वे अपने भगवान् के साथ सदा घुल- मिलकर जीते थे। मीरा के कृष्ण की तरह उनके भगवान् उनके साथ, उनके आस- पास ही रहते थे। वे अपने भगवान् का कहा मानते थे, और भगवान् हमेशा उनका कहा करते थे।
यह कथन उनका है, जिन्हें हमने अपना प्रभु माना है। इस प्रार्थनामय जीवन के कारण ही उन्होंने असंख्य लोगों की आध्यात्मिक चिकित्सा की। एक बार उनके पास एक युवक आया। उसकी चिन्ता यह थी कि उसके पिता को कैंसर हो गया था। ज्यों ही उसने अपनी समस्या गुरुदेव को बतायी, वह बोले, बस बेटा, इतनी सी बात तू माँ से प्रार्थना कर। मैं भी तेरे लिए प्रार्थना करूँगा। डाक्टरों के लिए कोई चीज असम्भव हो सकती है। पर जगन्माता के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। और सचमुच ही उस युवक ने उनकी बात को गांठ बांध लिया। थोड़े दिनों बाद जब वह पुनः उनसे मिला तो उसने बताया कि सही में मां ने उसकी प्रार्थना सुनी ली। उसके पिता अब ठीक हैं। गुरुदेव कहते थे कि प्रार्थना करते समय हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि अमुक काम असम्भव है। भला यह कैसे होगा? बल्कि यह सोचना चाहिए भगवान् प्रत्येक असम्भव को सम्भव कर सकते हैं। प्रार्थना की इस प्रगाढ़ता एवं निरन्तरता में ध्यान के प्रयोगों की सफलता समायी है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७७
व्यावहारिक जीवन का पल हमारे स्थूल शरीर का तल है। वैचारिक प्रगाढ़ता हमें सूक्ष्म चेतना की अनुभूति देती है। भावनात्मक एकाग्रता में हम कारण शरीर में जीते हैं। यहाँ हम जितना अधिक स्थिर एकाग्र होते हैं, उतना ही अधिक भावनात्मक ऊर्जा इकट्ठा होती है। हमारी श्रद्धा की परम सघनता में यह स्थिति अपने सर्वोच्च बिन्दु पर होती है। कारण शरीर के इस सर्वोच्च शिखर अथवा अपने अस्तित्त्व की चेतना के इस महाकेन्द्र में हम परम कारण को यानि कि स्वयं प्रभु का स्पर्श पाते हैं। हमारी श्रद्धा की सघनता में हुआ भावनात्मक ऊर्जा का विस्फोट हमें सर्वेश्वर की सर्वव्यापी चेतना से एकाकार कर देता है। इस स्थिति में हमारे जीवन में उन प्रभु का असीम ऊर्जा प्रवाह उमड़ता चला आता है। और फिर उनकी अनन्त शक्ति के संयोग से हमारे जीवन में सभी असम्भव सम्भव होने लगते हैं।
परन्तु विपत्ति के बादल छंटते ही हम पुनः अपने जीवन की क्षुद्रताओं में रस लेने लगते हैं। फिर से विषय- भोग हमें लुभाते हैं। लालसाओं की लोलुपता हमें ललचाती है। और हम अपनी भावचेतना के सर्वोच्च शिखर से पतित हो जाते हैं। प्रार्थना ने जो हमें उपलब्ध कराया था, वह फिर से खोने लगता है। हम सबके सामान्य जीवन का यही सच है। लेकिन सन्त या भक्त, जिनके भोगों की, लालसाओं की कोई चाहत नहीं है, वे हर पल प्रार्थना में जीते हैं उनकी भाव चेतना सदा उस स्थिति में होती है, जहाँ वह सर्वव्यापी परमेश्वर के सम्पर्क में रह सके। यही वजह है कि उनकी प्रार्थनाएँ कभी भी निष्फल नहीं होती हैं। प्रत्येक असम्भव उनके लिए हमेशा सदा सम्भव होता है। वे जिसके लिए भी अपने प्रभु से प्रार्थना करते हैं, उसी का परम कल्याण होता है।
यही कारण है कि प्रार्थनाशीलमनुष्य आध्यात्मिक चिकित्सक होकर इस संसार में जीवन जीते हैं। हमने परम पूज्य गुरुदेव को इसी रूप में देखा और उनकी कृपा को अनुभव किया है। उन्होंने अपने जीवन की हर श्वास को प्रभु प्रार्थना बना लिया था। एक दिन जब वह बैठे थे, उनके श्री चरणों के पास हम सब भी थे। चर्चा साधना की चली तो उन्होंने कहा कि बेटा सारा योग, जप, ध्यान एक तरफ और प्रार्थना एक तरफ। प्रार्थना इन सभी से बढ़- चढ़कर है। इतना कहकर उन्होंने अपनी अनुभूति बताते हुए कहा- मैंने तो अपने प्रत्येक कर्म को भगवान् की प्रार्थना बना लिया है। बेटा यदि कोई तुमसे मेरे जीवन का रहस्य जानना चाहे तो उसे बताना, हमारे गुरुजी का प्रत्येक कर्म, उनके शरीर द्वारा की जाने वाली भगवान् की प्रार्थना था। उनके मन का चिन्तन मन से उभरने वाले प्रभु प्रार्थना के स्वर थे। उनकी भावना का हर स्पन्दन भावों से प्रभु पुकार ही थे। हमारे गुरुदेव का जीवन प्रार्थनामय जीवन था। इसलिए वे अपने भगवान् के साथ सदा घुल- मिलकर जीते थे। मीरा के कृष्ण की तरह उनके भगवान् उनके साथ, उनके आस- पास ही रहते थे। वे अपने भगवान् का कहा मानते थे, और भगवान् हमेशा उनका कहा करते थे।
यह कथन उनका है, जिन्हें हमने अपना प्रभु माना है। इस प्रार्थनामय जीवन के कारण ही उन्होंने असंख्य लोगों की आध्यात्मिक चिकित्सा की। एक बार उनके पास एक युवक आया। उसकी चिन्ता यह थी कि उसके पिता को कैंसर हो गया था। ज्यों ही उसने अपनी समस्या गुरुदेव को बतायी, वह बोले, बस बेटा, इतनी सी बात तू माँ से प्रार्थना कर। मैं भी तेरे लिए प्रार्थना करूँगा। डाक्टरों के लिए कोई चीज असम्भव हो सकती है। पर जगन्माता के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। और सचमुच ही उस युवक ने उनकी बात को गांठ बांध लिया। थोड़े दिनों बाद जब वह पुनः उनसे मिला तो उसने बताया कि सही में मां ने उसकी प्रार्थना सुनी ली। उसके पिता अब ठीक हैं। गुरुदेव कहते थे कि प्रार्थना करते समय हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि अमुक काम असम्भव है। भला यह कैसे होगा? बल्कि यह सोचना चाहिए भगवान् प्रत्येक असम्भव को सम्भव कर सकते हैं। प्रार्थना की इस प्रगाढ़ता एवं निरन्तरता में ध्यान के प्रयोगों की सफलता समायी है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७७
👉 आत्मचिंतन के क्षण 27 Aug 2019
■ ज्ञान वृद्धि और आत्मोत्कर्ष के लिए अच्छे साहित्य का अध्ययन करना आवश्यक है पर उनका केवल पढ़ना मात्र काफी नहीं है उस पर मनन तथा विचार भी होना चाहिये। विचार में बडी शक्ति है। सद्विचारों का प्रभाव तो मन में सदा ही चलता रहना चाहिए। विचार जब परिपक्व होकर परिपक्वावस्था पर पहुँच जावेंगा तभी तो वह आचरण का रुप धारण करेगा।
◇ संसार का अनियन्ता का अभ्यास अहंकार का विनाशक है। जिस व्यक्ति का अहंकार जितना अधिक होता है उसके दु:ख भी उतने अधिक होते है। अहंकार की वृद्धि एक प्रकार का पागलपन है। अहंकारी मनुष्य दुराग्रही होता है। वह जिस बात को सच मान बैठता है उसके प्रतिकूल किसी की कुछ भी सुनने को तैयार नहीं रहता और जो उसका विरोध करता है वह उसका घोर शत्रु हो जाता है।
★ विचार एक महान शक्ति है "जैसा सोचोगे, वैसा बनोगे।" सोचो कि आप शक्तिहीन हैं, आप शक्तिहीन हो जायेंगे। अपने को मूर्ख समझो, सचमुच आप मुर्ख हो जायेगे। ध्यान करो कि आप स्वयं परमात्मा हो, यथार्थ में आप परमात्मा का रुप प्राप्त कर लोगे। प्रतिपक्ष-भावना का अभ्यास करो। क्रोध की हालत में प्रेम की भावना करो। निराशा में मन को आनन्द और उत्साह से भरो।
◇ हमारे जीवन का उद्देश्य भगवतप्राप्त या मुक्ति है। परमेश्वर बीजरुप से हमारे अन्तरात्मा में स्थित हैं। हृदय को राग, द्वेष आदि मानसिक शत्रुओं, सांसारिक प्रवंचों व्यर्थ के वितण्डवाद, उद्वेराकारक बातों से बचाकर ईश्वर-चिन्तन में लगाना चाहिये। दैनिक जीवन का उत्तरदायित्व पूर्ण करने के उपरान्त भी हममें से प्राय: सभी ईश्वर को प्राप्त कर ब्रह्मानन्द लूट सकते है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
◇ संसार का अनियन्ता का अभ्यास अहंकार का विनाशक है। जिस व्यक्ति का अहंकार जितना अधिक होता है उसके दु:ख भी उतने अधिक होते है। अहंकार की वृद्धि एक प्रकार का पागलपन है। अहंकारी मनुष्य दुराग्रही होता है। वह जिस बात को सच मान बैठता है उसके प्रतिकूल किसी की कुछ भी सुनने को तैयार नहीं रहता और जो उसका विरोध करता है वह उसका घोर शत्रु हो जाता है।
★ विचार एक महान शक्ति है "जैसा सोचोगे, वैसा बनोगे।" सोचो कि आप शक्तिहीन हैं, आप शक्तिहीन हो जायेंगे। अपने को मूर्ख समझो, सचमुच आप मुर्ख हो जायेगे। ध्यान करो कि आप स्वयं परमात्मा हो, यथार्थ में आप परमात्मा का रुप प्राप्त कर लोगे। प्रतिपक्ष-भावना का अभ्यास करो। क्रोध की हालत में प्रेम की भावना करो। निराशा में मन को आनन्द और उत्साह से भरो।
◇ हमारे जीवन का उद्देश्य भगवतप्राप्त या मुक्ति है। परमेश्वर बीजरुप से हमारे अन्तरात्मा में स्थित हैं। हृदय को राग, द्वेष आदि मानसिक शत्रुओं, सांसारिक प्रवंचों व्यर्थ के वितण्डवाद, उद्वेराकारक बातों से बचाकर ईश्वर-चिन्तन में लगाना चाहिये। दैनिक जीवन का उत्तरदायित्व पूर्ण करने के उपरान्त भी हममें से प्राय: सभी ईश्वर को प्राप्त कर ब्रह्मानन्द लूट सकते है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
सोमवार, 26 अगस्त 2019
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ५५)
👉 प्रत्येक कर्म बनें भगवान की प्रार्थना
व्यावहारिक जीवन का पल हमारे स्थूल शरीर का तल है। वैचारिक प्रगाढ़ता हमें सूक्ष्म चेतना की अनुभूति देती है। भावनात्मक एकाग्रता में हम कारण शरीर में जीते हैं। यहाँ हम जितना अधिक स्थिर एकाग्र होते हैं, उतना ही अधिक भावनात्मक ऊर्जा इकट्ठा होती है। हमारी श्रद्धा की परम सघनता में यह स्थिति अपने सर्वोच्च बिन्दु पर होती है। कारण शरीर के इस सर्वोच्च शिखर अथवा अपने अस्तित्त्व की चेतना के इस महाकेन्द्र में हम परम कारण को यानि कि स्वयं प्रभु का स्पर्श पाते हैं। हमारी श्रद्धा की सघनता में हुआ भावनात्मक ऊर्जा का विस्फोट हमें सर्वेश्वर की सर्वव्यापी चेतना से एकाकार कर देता है। इस स्थिति में हमारे जीवन में उन प्रभु का असीम ऊर्जा प्रवाह उमड़ता चला आता है। और फिर उनकी अनन्त शक्ति के संयोग से हमारे जीवन में सभी असम्भव सम्भव होने लगते हैं।
परन्तु विपत्ति के बादल छंटते ही हम पुनः अपने जीवन की क्षुद्रताओं में रस लेने लगते हैं। फिर से विषय- भोग हमें लुभाते हैं। लालसाओं की लोलुपता हमें ललचाती है। और हम अपनी भावचेतना के सर्वोच्च शिखर से पतित हो जाते हैं। प्रार्थना ने जो हमें उपलब्ध कराया था, वह फिर से खोने लगता है। हम सबके सामान्य जीवन का यही सच है। लेकिन सन्त या भक्त, जिनके भोगों की, लालसाओं की कोई चाहत नहीं है, वे हर पल प्रार्थना में जीते हैं उनकी भाव चेतना सदा उस स्थिति में होती है, जहाँ वह सर्वव्यापी परमेश्वर के सम्पर्क में रह सके। यही वजह है कि उनकी प्रार्थनाएँ कभी भी निष्फल नहीं होती हैं। प्रत्येक असम्भव उनके लिए हमेशा सदा सम्भव होता है। वे जिसके लिए भी अपने प्रभु से प्रार्थना करते हैं, उसी का परम कल्याण होता है।
यही कारण है कि प्रार्थनाशीलमनुष्य आध्यात्मिक चिकित्सक होकर इस संसार में जीवन जीते हैं। हमने परम पूज्य गुरुदेव को इसी रूप में देखा और उनकी कृपा को अनुभव किया है। उन्होंने अपने जीवन की हर श्वास को प्रभु प्रार्थना बना लिया था। एक दिन जब वह बैठे थे, उनके श्री चरणों के पास हम सब भी थे। चर्चा साधना की चली तो उन्होंने कहा कि बेटा सारा योग, जप, ध्यान एक तरफ और प्रार्थना एक तरफ। प्रार्थना इन सभी से बढ़- चढ़कर है। इतना कहकर उन्होंने अपनी अनुभूति बताते हुए कहा- मैंने तो अपने प्रत्येक कर्म को भगवान् की प्रार्थना बना लिया है। बेटा यदि कोई तुमसे मेरे जीवन का रहस्य जानना चाहे तो उसे बताना, हमारे गुरुजी का प्रत्येक कर्म, उनके शरीर द्वारा की जाने वाली भगवान् की प्रार्थना था। उनके मन का चिन्तन मन से उभरने वाले प्रभु प्रार्थना के स्वर थे। उनकी भावना का हर स्पन्दन भावों से प्रभु पुकार ही थे। हमारे गुरुदेव का जीवन प्रार्थनामय जीवन था। इसलिए वे अपने भगवान् के साथ सदा घुल- मिलकर जीते थे। मीरा के कृष्ण की तरह उनके भगवान् उनके साथ, उनके आस- पास ही रहते थे। वे अपने भगवान् का कहा मानते थे, और भगवान् हमेशा उनका कहा करते थे।
यह कथन उनका है, जिन्हें हमने अपना प्रभु माना है। इस प्रार्थनामय जीवन के कारण ही उन्होंने असंख्य लोगों की आध्यात्मिक चिकित्सा की। एक बार उनके पास एक युवक आया। उसकी चिन्ता यह थी कि उसके पिता को कैंसर हो गया था। ज्यों ही उसने अपनी समस्या गुरुदेव को बतायी, वह बोले, बस बेटा, इतनी सी बात तू माँ से प्रार्थना कर। मैं भी तेरे लिए प्रार्थना करूँगा। डाक्टरों के लिए कोई चीज असम्भव हो सकती है। पर जगन्माता के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। और सचमुच ही उस युवक ने उनकी बात को गांठ बांध लिया। थोड़े दिनों बाद जब वह पुनः उनसे मिला तो उसने बताया कि सही में मां ने उसकी प्रार्थना सुनी ली। उसके पिता अब ठीक हैं। गुरुदेव कहते थे कि प्रार्थना करते समय हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि अमुक काम असम्भव है। भला यह कैसे होगा? बल्कि यह सोचना चाहिए भगवान् प्रत्येक असम्भव को सम्भव कर सकते हैं। प्रार्थना की इस प्रगाढ़ता एवं निरन्तरता में ध्यान के प्रयोगों की सफलता समायी है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७७
व्यावहारिक जीवन का पल हमारे स्थूल शरीर का तल है। वैचारिक प्रगाढ़ता हमें सूक्ष्म चेतना की अनुभूति देती है। भावनात्मक एकाग्रता में हम कारण शरीर में जीते हैं। यहाँ हम जितना अधिक स्थिर एकाग्र होते हैं, उतना ही अधिक भावनात्मक ऊर्जा इकट्ठा होती है। हमारी श्रद्धा की परम सघनता में यह स्थिति अपने सर्वोच्च बिन्दु पर होती है। कारण शरीर के इस सर्वोच्च शिखर अथवा अपने अस्तित्त्व की चेतना के इस महाकेन्द्र में हम परम कारण को यानि कि स्वयं प्रभु का स्पर्श पाते हैं। हमारी श्रद्धा की सघनता में हुआ भावनात्मक ऊर्जा का विस्फोट हमें सर्वेश्वर की सर्वव्यापी चेतना से एकाकार कर देता है। इस स्थिति में हमारे जीवन में उन प्रभु का असीम ऊर्जा प्रवाह उमड़ता चला आता है। और फिर उनकी अनन्त शक्ति के संयोग से हमारे जीवन में सभी असम्भव सम्भव होने लगते हैं।
परन्तु विपत्ति के बादल छंटते ही हम पुनः अपने जीवन की क्षुद्रताओं में रस लेने लगते हैं। फिर से विषय- भोग हमें लुभाते हैं। लालसाओं की लोलुपता हमें ललचाती है। और हम अपनी भावचेतना के सर्वोच्च शिखर से पतित हो जाते हैं। प्रार्थना ने जो हमें उपलब्ध कराया था, वह फिर से खोने लगता है। हम सबके सामान्य जीवन का यही सच है। लेकिन सन्त या भक्त, जिनके भोगों की, लालसाओं की कोई चाहत नहीं है, वे हर पल प्रार्थना में जीते हैं उनकी भाव चेतना सदा उस स्थिति में होती है, जहाँ वह सर्वव्यापी परमेश्वर के सम्पर्क में रह सके। यही वजह है कि उनकी प्रार्थनाएँ कभी भी निष्फल नहीं होती हैं। प्रत्येक असम्भव उनके लिए हमेशा सदा सम्भव होता है। वे जिसके लिए भी अपने प्रभु से प्रार्थना करते हैं, उसी का परम कल्याण होता है।
यही कारण है कि प्रार्थनाशीलमनुष्य आध्यात्मिक चिकित्सक होकर इस संसार में जीवन जीते हैं। हमने परम पूज्य गुरुदेव को इसी रूप में देखा और उनकी कृपा को अनुभव किया है। उन्होंने अपने जीवन की हर श्वास को प्रभु प्रार्थना बना लिया था। एक दिन जब वह बैठे थे, उनके श्री चरणों के पास हम सब भी थे। चर्चा साधना की चली तो उन्होंने कहा कि बेटा सारा योग, जप, ध्यान एक तरफ और प्रार्थना एक तरफ। प्रार्थना इन सभी से बढ़- चढ़कर है। इतना कहकर उन्होंने अपनी अनुभूति बताते हुए कहा- मैंने तो अपने प्रत्येक कर्म को भगवान् की प्रार्थना बना लिया है। बेटा यदि कोई तुमसे मेरे जीवन का रहस्य जानना चाहे तो उसे बताना, हमारे गुरुजी का प्रत्येक कर्म, उनके शरीर द्वारा की जाने वाली भगवान् की प्रार्थना था। उनके मन का चिन्तन मन से उभरने वाले प्रभु प्रार्थना के स्वर थे। उनकी भावना का हर स्पन्दन भावों से प्रभु पुकार ही थे। हमारे गुरुदेव का जीवन प्रार्थनामय जीवन था। इसलिए वे अपने भगवान् के साथ सदा घुल- मिलकर जीते थे। मीरा के कृष्ण की तरह उनके भगवान् उनके साथ, उनके आस- पास ही रहते थे। वे अपने भगवान् का कहा मानते थे, और भगवान् हमेशा उनका कहा करते थे।
यह कथन उनका है, जिन्हें हमने अपना प्रभु माना है। इस प्रार्थनामय जीवन के कारण ही उन्होंने असंख्य लोगों की आध्यात्मिक चिकित्सा की। एक बार उनके पास एक युवक आया। उसकी चिन्ता यह थी कि उसके पिता को कैंसर हो गया था। ज्यों ही उसने अपनी समस्या गुरुदेव को बतायी, वह बोले, बस बेटा, इतनी सी बात तू माँ से प्रार्थना कर। मैं भी तेरे लिए प्रार्थना करूँगा। डाक्टरों के लिए कोई चीज असम्भव हो सकती है। पर जगन्माता के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। और सचमुच ही उस युवक ने उनकी बात को गांठ बांध लिया। थोड़े दिनों बाद जब वह पुनः उनसे मिला तो उसने बताया कि सही में मां ने उसकी प्रार्थना सुनी ली। उसके पिता अब ठीक हैं। गुरुदेव कहते थे कि प्रार्थना करते समय हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि अमुक काम असम्भव है। भला यह कैसे होगा? बल्कि यह सोचना चाहिए भगवान् प्रत्येक असम्भव को सम्भव कर सकते हैं। प्रार्थना की इस प्रगाढ़ता एवं निरन्तरता में ध्यान के प्रयोगों की सफलता समायी है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७७
👉 ‘युगसेना’ का गठन
दुष्टता की दुष्प्रवृत्तियाँ कई बार इतनी भयावह होती है कि उनका उन्मूलन करने के लिये संघर्ष के बिना काम ही नहीं चल सकता। रूढ़िवादी, प्रतिक्रिया वादी, दुराग्रही मूढ़मति अहंकारी, उद्दण्ड निहित स्वार्थ ओर असामाजिक तत्व विचारशीलता और न्याय की बात सुनने को ही तैयार नहीं होते। वे सुधार और सदुद्देश्य को अपनाना तो दूर और उलटे प्रगति के पथ पर पग-पग पर रोड़े अटकाते हैं। ऐसी पशुता और पैशाचिकता से निपटने के लिये प्रतिरोध और संघर्ष अनिवार्य रूप से निपटने के लिये प्रतिरोध और संघर्ष अनिवार्य रूप से आवश्यक है। हिन्दू-समाज में अन्ध परम्पराओं का बोलबाला है। जाति-पाँति के आधार पर ऊँच-नीच, स्त्रियों पर अमानवीय प्रतिरोध, बेईमानी और गरीबी के लिये विवश करने वाला विवाहोन्माद मृत्यु-भोज, धर्म के नाम पर लोक-श्रद्धा का शोषण, आदि ऐसे अनेक कारण है जिनने देश की आर्थिक बर्बादी और तज्जनित असंख्य विकृतियों को जन्म दिया है।
बेईमानी, मिलावट, रिश्वत और भ्रष्टाचार का हर जगह बोलबाला है, सामूहिक प्रतिरोध के अभाव में गुण्डात्मक दिन-दिन प्रबल होता जा रहा है और अपराधों की प्रवृत्ति दिन दूनी रात चौगुनी पनप रही है। शासक और नेता जो करतूतें कर रहे है उनसे धरती पाँवों तले निकलती है। यह सब केवल प्रस्तावों और प्रवचनों से मिलने वाला नहीं है। जिनकी दाढ़ में खून लग गया है या जिनका अहंकार आसमान छूने लगा है वे सहज ही अपनी गतिविधियाँ बदलने वाले नहीं है। उन्हें संघर्षात्मक प्रक्रिया द्वारा इस बाते के लिये विवश किया जायेगा कि वे टेढ़ापन छोड़ें और सीधे रास्ते चलें। इसके लिये हमारे दिमाग में गाँधीजी के सत्याग्रह, मजदूरों के घिराव, चीनी कम्युनिस्टों की साँस्कृतिक क्रान्ति के कडुए मीठे अनुभवों को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी समग्र योजना है जिससे अराजकता भी न फैले और अवाँछनीय तत्वों को बदलने के लिये विवश किया जा सके।
उसके लिए जहाँ स्थानीय, व्यक्तिगत और सामूहिक संघर्षों के क्रम चलेंगे वहाँ स्वयं सेवकों की एक विशाल ‘युगसेना’ का गठन भी करना पड़ेगा जो बड़े से बड़ा त्याग बलिदान करके अनौचित्य से करारी टक्कर ले सकें। भावी महाभारत इसी प्रकार का होगा वह सेनाओं से नहीं -- महामानवों लोकसेवियों और युगनिर्माताओं द्वारा लड़ा जायेगा। सतयुग लाने से पूर्व ऐसा महाभारत अनिवार्य है। अवतारों की शृंखला-सृजन के साथ-साथ संघर्ष की योजना भी सदा साथ लाई है। युग-निर्माण की लाल मशाल का निष्कलंक अवतार अगल दिनों इसी भूमिका का सम्पादन करें तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं मानना चाहिए।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ६१
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.61
बेईमानी, मिलावट, रिश्वत और भ्रष्टाचार का हर जगह बोलबाला है, सामूहिक प्रतिरोध के अभाव में गुण्डात्मक दिन-दिन प्रबल होता जा रहा है और अपराधों की प्रवृत्ति दिन दूनी रात चौगुनी पनप रही है। शासक और नेता जो करतूतें कर रहे है उनसे धरती पाँवों तले निकलती है। यह सब केवल प्रस्तावों और प्रवचनों से मिलने वाला नहीं है। जिनकी दाढ़ में खून लग गया है या जिनका अहंकार आसमान छूने लगा है वे सहज ही अपनी गतिविधियाँ बदलने वाले नहीं है। उन्हें संघर्षात्मक प्रक्रिया द्वारा इस बाते के लिये विवश किया जायेगा कि वे टेढ़ापन छोड़ें और सीधे रास्ते चलें। इसके लिये हमारे दिमाग में गाँधीजी के सत्याग्रह, मजदूरों के घिराव, चीनी कम्युनिस्टों की साँस्कृतिक क्रान्ति के कडुए मीठे अनुभवों को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी समग्र योजना है जिससे अराजकता भी न फैले और अवाँछनीय तत्वों को बदलने के लिये विवश किया जा सके।
उसके लिए जहाँ स्थानीय, व्यक्तिगत और सामूहिक संघर्षों के क्रम चलेंगे वहाँ स्वयं सेवकों की एक विशाल ‘युगसेना’ का गठन भी करना पड़ेगा जो बड़े से बड़ा त्याग बलिदान करके अनौचित्य से करारी टक्कर ले सकें। भावी महाभारत इसी प्रकार का होगा वह सेनाओं से नहीं -- महामानवों लोकसेवियों और युगनिर्माताओं द्वारा लड़ा जायेगा। सतयुग लाने से पूर्व ऐसा महाभारत अनिवार्य है। अवतारों की शृंखला-सृजन के साथ-साथ संघर्ष की योजना भी सदा साथ लाई है। युग-निर्माण की लाल मशाल का निष्कलंक अवतार अगल दिनों इसी भूमिका का सम्पादन करें तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं मानना चाहिए।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ६१
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.61
शुक्रवार, 23 अगस्त 2019
👉 पहले अपने अंदर झांको Pehle Apne Andar Jhanko
पुराने जमाने की बात है। गुरुकुल के एक आचार्य अपने शिष्य की सेवा भावना से बहुत प्रभावित हुए। विधा पूरी होने के बाद शिष्य को विदा करते समय उन्होंने आशीर्वाद के रूप में उसे एक ऐसा दिव्य दर्पण भेंट किया, जिसमें व्यक्ति के मन के भाव को दर्शाने की क्षमता थी।
शिष्य उस दिव्य दर्पण को पाकर बहुत खुश हुआ। उसने परीक्षा लेने की जल्दबाजी में दर्पण का मुँह सबसे पहले गुरुजी के सामने ही कर दिया। वह यह देखकर आश्चर्यचकित हो गया कि गुरुजी के हृदय में मोह, अहंकार, क्रोध आदि दुर्गुण परिलक्षित हो रहे थे। इससे उसे बड़ा दुख हुआ। वह तो अपने गुरुजी को समस्त दुर्गुणों से रहित सत्पुरुष समझता था।
दर्पण लेकर वह गुरुकुल से रवाना हो गया। उसने अपने कई मित्रों तथा अन्य परिचितों के सामने दर्पण रखकर परीक्षा ली। सब के हृदय में कोई न कोई दुर्गुण अवश्य दिखाई दिया। और तो और अपने माता व पिता की भी वह दर्पण से परीक्षा लेने से नहीं चूका। उनके हृदय में भी कोई न कोई दुर्गुण देखा, तो वह हतप्रभ हो उठा। एक दिन वह दर्पण लेकर फिर गुरुकुल पहुँचा।
उसने गुरुजी से विनम्रतापूर्वक कहा- “गुरुदेव, मैंने आपके दिए दर्पण की मदद से देखा कि सबके दिलों में तरह तरह के दोष और दुर्गुण हैं।“ तब गुरु जी ने दर्पण का रुख शिष्य की ओर कर दिया। शिष्य दंग रह गया। क्योंकि उसके मन के प्रत्येक कोने में राग,द्वेष, अहंकार, क्रोध जैसे दुर्गुण थे।
तब गुरुजी बोले- “वत्स यह दर्पण मैंने तुम्हें अपने दुर्गुण देखकर जीवन में सुधार लाने के लिए दिया था। दूसरों के दुर्गुण देखने के लिए नहीं। जितना समय तुमने दूसरों के दुर्गुण देखने में लगाया, उतना समय यदि तुमने स्वयं को सुधारने में लगाया होता तो अब तक तुम्हारा व्यक्तित्व बदल चुका होता। मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह दूसरों के दुर्गुण जानने में ज्यादा रुचि रखता है। वह स्वयं को सुधारने के बारे में नहीं सोचता। इस दर्पण की यही सीख है जो तुम नहीं समझ सके।“
दोस्तों ये हम पर भी लागु होती है। हममें से भी ज़्यादातर लोग अपने अंदर छिपी बड़ी बड़ी बुराइयों को, दुर्गुणों को, गलत आदतों को भी सुधारना नहीं चाहते। लेकिन दूसरों की छोटी छोटी बुराइयों को भी उसके प्रति द्वेष भावना रखते हैं या उसे बुरा भला कहते हैं या फिर दूसरो को सुधरने के लिए उपदेश देने लग जाते हैं। तो सबसे पहले अपने अंदर झांको और अपनी बुराइयों को दूर करो।
शिष्य उस दिव्य दर्पण को पाकर बहुत खुश हुआ। उसने परीक्षा लेने की जल्दबाजी में दर्पण का मुँह सबसे पहले गुरुजी के सामने ही कर दिया। वह यह देखकर आश्चर्यचकित हो गया कि गुरुजी के हृदय में मोह, अहंकार, क्रोध आदि दुर्गुण परिलक्षित हो रहे थे। इससे उसे बड़ा दुख हुआ। वह तो अपने गुरुजी को समस्त दुर्गुणों से रहित सत्पुरुष समझता था।
दर्पण लेकर वह गुरुकुल से रवाना हो गया। उसने अपने कई मित्रों तथा अन्य परिचितों के सामने दर्पण रखकर परीक्षा ली। सब के हृदय में कोई न कोई दुर्गुण अवश्य दिखाई दिया। और तो और अपने माता व पिता की भी वह दर्पण से परीक्षा लेने से नहीं चूका। उनके हृदय में भी कोई न कोई दुर्गुण देखा, तो वह हतप्रभ हो उठा। एक दिन वह दर्पण लेकर फिर गुरुकुल पहुँचा।
उसने गुरुजी से विनम्रतापूर्वक कहा- “गुरुदेव, मैंने आपके दिए दर्पण की मदद से देखा कि सबके दिलों में तरह तरह के दोष और दुर्गुण हैं।“ तब गुरु जी ने दर्पण का रुख शिष्य की ओर कर दिया। शिष्य दंग रह गया। क्योंकि उसके मन के प्रत्येक कोने में राग,द्वेष, अहंकार, क्रोध जैसे दुर्गुण थे।
तब गुरुजी बोले- “वत्स यह दर्पण मैंने तुम्हें अपने दुर्गुण देखकर जीवन में सुधार लाने के लिए दिया था। दूसरों के दुर्गुण देखने के लिए नहीं। जितना समय तुमने दूसरों के दुर्गुण देखने में लगाया, उतना समय यदि तुमने स्वयं को सुधारने में लगाया होता तो अब तक तुम्हारा व्यक्तित्व बदल चुका होता। मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह दूसरों के दुर्गुण जानने में ज्यादा रुचि रखता है। वह स्वयं को सुधारने के बारे में नहीं सोचता। इस दर्पण की यही सीख है जो तुम नहीं समझ सके।“
दोस्तों ये हम पर भी लागु होती है। हममें से भी ज़्यादातर लोग अपने अंदर छिपी बड़ी बड़ी बुराइयों को, दुर्गुणों को, गलत आदतों को भी सुधारना नहीं चाहते। लेकिन दूसरों की छोटी छोटी बुराइयों को भी उसके प्रति द्वेष भावना रखते हैं या उसे बुरा भला कहते हैं या फिर दूसरो को सुधरने के लिए उपदेश देने लग जाते हैं। तो सबसे पहले अपने अंदर झांको और अपनी बुराइयों को दूर करो।
👉 योजना का दूसरा चरण संगठनात्मक
योजना का दूसरा चरण संगठनात्मक है। भीड़ का संगठन बेकार है। मुर्दों का पहाड़ इकट्ठा करने से तो बदबू ही फैलेगी। जिनके मन में कसक है जो वस्तुस्थिति को समझ चुके है उन्हीं का एक महान् प्रयोजन के लिए एकत्रीकरण वास्तविक संगठन कहला सकता है। युग-निर्माण परिवार संगठन में अब वे ही लोग लिये जा रहे है जो ज्ञान-यज्ञ के लिए दस पैसे और एक घण्टा समय देने के लिये निष्ठा और तत्परता दिखाने लगे है कर्मठ लोगों का संगठन बन जाने पर प्रचारात्मक अभियान को सन्तोषजनक स्तर तक पहुंचा देने पर ऐसी स्थिति आ जायेगी कि जो अति महत्व पूर्ण इन दिनोँ शक्ति एवं स्थिति के अभाव में कर नहीं पा रहे है वे आसानी से किये जा सकें।
सृजनात्मक और संघर्षात्मक कार्यक्रम की हमें अति विशाल परिमाण पर तैयारी करनी होगी। इन दिनों तो उनकी चर्चा मात्र करते हैं बहुत जोर नहीं देते क्योंकि जिस लोक-समर्थन के लिए प्रचार और कार्य कर सकने के लिए जिस संगठन की आवश्यकता है वे दोनों ही तत्व अपने हाथ में उतने नहीं है जिससे कि अगले कार्यों को सन्तोष-जनक स्थिति में चलाया जा सके। पर विश्वास है कि प्रचार और संगठन का पूर्वार्ध कुछ ही दिन में संतोष जनक स्तर तक पहुंच जायेगा तब हम सृजन और संघर्ष का विशाल और निर्णायक अभियान आसानी से छेड़ सकेंगे और उसे सरलता पूर्वक सफल बना सकेंगे।
सृजन एक मनोवृत्ति है, जिससे प्रभावित हर व्यक्ति को अपने समय के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए कुछ न कुछ कार्य व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से निरन्तर करना होता है। उसके बिना उसे चैन ही नहीं मिलता। किस परिस्थिति का किस योग्यता का व्यक्ति नवनिर्माण के लिए क्या रचनात्मक कार्य करें यह स्थानीय आवश्यकताओं को देख कर ही निर्णय किया जा सकता है। युग-निर्माण योजना के ‘शत-सूत्री’ कार्यक्रमों में इस प्रकार के संकेत विस्तार पूर्वक किये गये है। रात्रि पाठशालायें प्रौढ़ पाठशालायें, पुस्तकालय, व्यायामशालायें स्वच्छता, श्रमदान, सहकारी संगठन, सुरक्षा शाक, पुष्प, फल उत्पादन आदि अनेक कार्यों की चर्चा उस संदर्भ में की जा चुकी है। प्रगति के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि हर नागरिक में मन में यह दर्द उठता रहे कि विश्व का पिछड़ापन दूर करने के लिए-सुख-शान्ति की सम्भावनायें बढ़ाने के लिये उसे कुछ न कुछ रचनात्मक कार्य करने चाहिए। यह प्रयत्न कोटि-कोटि हाथों, मस्तिष्कों और श्रम सीकरों से सिंचित होकर इतने व्यापक हो सकते हैं कि सृजन के लिए सरकार का मुँह ताकने और मार्ग दर्शन लेने की कोई आवश्यकता ही न रह जाय।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ६१
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.61
सृजनात्मक और संघर्षात्मक कार्यक्रम की हमें अति विशाल परिमाण पर तैयारी करनी होगी। इन दिनों तो उनकी चर्चा मात्र करते हैं बहुत जोर नहीं देते क्योंकि जिस लोक-समर्थन के लिए प्रचार और कार्य कर सकने के लिए जिस संगठन की आवश्यकता है वे दोनों ही तत्व अपने हाथ में उतने नहीं है जिससे कि अगले कार्यों को सन्तोष-जनक स्थिति में चलाया जा सके। पर विश्वास है कि प्रचार और संगठन का पूर्वार्ध कुछ ही दिन में संतोष जनक स्तर तक पहुंच जायेगा तब हम सृजन और संघर्ष का विशाल और निर्णायक अभियान आसानी से छेड़ सकेंगे और उसे सरलता पूर्वक सफल बना सकेंगे।
सृजन एक मनोवृत्ति है, जिससे प्रभावित हर व्यक्ति को अपने समय के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए कुछ न कुछ कार्य व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से निरन्तर करना होता है। उसके बिना उसे चैन ही नहीं मिलता। किस परिस्थिति का किस योग्यता का व्यक्ति नवनिर्माण के लिए क्या रचनात्मक कार्य करें यह स्थानीय आवश्यकताओं को देख कर ही निर्णय किया जा सकता है। युग-निर्माण योजना के ‘शत-सूत्री’ कार्यक्रमों में इस प्रकार के संकेत विस्तार पूर्वक किये गये है। रात्रि पाठशालायें प्रौढ़ पाठशालायें, पुस्तकालय, व्यायामशालायें स्वच्छता, श्रमदान, सहकारी संगठन, सुरक्षा शाक, पुष्प, फल उत्पादन आदि अनेक कार्यों की चर्चा उस संदर्भ में की जा चुकी है। प्रगति के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि हर नागरिक में मन में यह दर्द उठता रहे कि विश्व का पिछड़ापन दूर करने के लिए-सुख-शान्ति की सम्भावनायें बढ़ाने के लिये उसे कुछ न कुछ रचनात्मक कार्य करने चाहिए। यह प्रयत्न कोटि-कोटि हाथों, मस्तिष्कों और श्रम सीकरों से सिंचित होकर इतने व्यापक हो सकते हैं कि सृजन के लिए सरकार का मुँह ताकने और मार्ग दर्शन लेने की कोई आवश्यकता ही न रह जाय।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ६१
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.61
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ५४)
👉 प्रत्येक कर्म बनें भगवान की प्रार्थना
कैसे सफल होती है प्रार्थना? किस विधि से होती है प्रार्थना से आध्यात्मिक चिकित्सा? क्या है प्रार्थना की प्रक्रिया का विज्ञान? ऐसे सवाल हमारे मन- मस्तिष्क में इस अनुभूति के बाद भी बने रहते हैं। इनके जवाब हममें से किसी को दुनियादारी की झंझटों में ढूँढे नहीं मिलते। हालांकि यह ज्यादा कठिन नहीं है। इन्हें ढूँढा- खोजा और जाना जा सकता है। यही नहीं हममें से हर एक प्रार्थना के विज्ञान से परिचित हो सकता है।
इस सम्बन्ध में बात इतनी सी है कि हमारा सामान्य जीवन व्यावहारिक धरातल पर बीतता है। हममें से प्रायः ज्यादातर लोग स्थूल देह की अनुभूतियों एवं संवेदनों में जीते हैं। गाढ़े सोच- विचार के अवसर भी प्रायः जीवन में कम ही आते हैं। वैचारिक एकाग्रता या तन्मयता यदि होती भी है, तो केवल कुछ पलों के लिए। और यह भी सांसारिक- सामाजिक एवं बाहरी जीवन के विषयों को लेकर होता है। आन्तरिक चेतना से जुड़ने के तो अवसर ही नहीं आते। रही बात भावनाओं की तो यहाँ हम सबसे ज्यादा अस्थिर और उथले साबित होते हैं। हमारा प्रेम सदा ही ईर्ष्या, द्वेष एवं प्रपंच से कलुषित व मैला होता है। हमेशा रूठने- भटकने के कारण हमारी भावनाएँ पल- पल टूटती- बिखरती और विलीन होती रहती हैं। हम न तो इनके सत्य से परिचित हो पाते हैं और न शक्ति से।
लेकिन साधारण जीवन के धरातल पर जिया जाने वाला यह सच विपत्ति के क्षणों में बदल जाता है। रोग- शोक और संकट के भयावह पल हमें व्यावहारिक जीवन से मुख मोड़ने के लिए विवश करते हैं। जब एक- एक करके सभी से हमें निराशा मिलती हैं, तब हम अपनी गहराइयों में सहारा तलाशते हैं। हमारी अन्तुर्मखी चेतना स्थूल जगत् से सूक्ष्म जगत् में प्रवेश करती है। कहीं कोई अपना न पाकर विकल भावनाएँ पहले तो आन्दोलित, आलोड़ित व उद्वेलित होती हैं, फिर एकाग्र होने लगती है। हमारे अन्तर्मुखी विचार इस एकाग्रता को अधिक स्थिर करते हैं। ऐसे में संकट भरी परिस्थितियाँ बार- बार हमें चेताती हैं, सोच लो भगवान् के सिवा अब अपना कोई नहीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७६
कैसे सफल होती है प्रार्थना? किस विधि से होती है प्रार्थना से आध्यात्मिक चिकित्सा? क्या है प्रार्थना की प्रक्रिया का विज्ञान? ऐसे सवाल हमारे मन- मस्तिष्क में इस अनुभूति के बाद भी बने रहते हैं। इनके जवाब हममें से किसी को दुनियादारी की झंझटों में ढूँढे नहीं मिलते। हालांकि यह ज्यादा कठिन नहीं है। इन्हें ढूँढा- खोजा और जाना जा सकता है। यही नहीं हममें से हर एक प्रार्थना के विज्ञान से परिचित हो सकता है।
इस सम्बन्ध में बात इतनी सी है कि हमारा सामान्य जीवन व्यावहारिक धरातल पर बीतता है। हममें से प्रायः ज्यादातर लोग स्थूल देह की अनुभूतियों एवं संवेदनों में जीते हैं। गाढ़े सोच- विचार के अवसर भी प्रायः जीवन में कम ही आते हैं। वैचारिक एकाग्रता या तन्मयता यदि होती भी है, तो केवल कुछ पलों के लिए। और यह भी सांसारिक- सामाजिक एवं बाहरी जीवन के विषयों को लेकर होता है। आन्तरिक चेतना से जुड़ने के तो अवसर ही नहीं आते। रही बात भावनाओं की तो यहाँ हम सबसे ज्यादा अस्थिर और उथले साबित होते हैं। हमारा प्रेम सदा ही ईर्ष्या, द्वेष एवं प्रपंच से कलुषित व मैला होता है। हमेशा रूठने- भटकने के कारण हमारी भावनाएँ पल- पल टूटती- बिखरती और विलीन होती रहती हैं। हम न तो इनके सत्य से परिचित हो पाते हैं और न शक्ति से।
लेकिन साधारण जीवन के धरातल पर जिया जाने वाला यह सच विपत्ति के क्षणों में बदल जाता है। रोग- शोक और संकट के भयावह पल हमें व्यावहारिक जीवन से मुख मोड़ने के लिए विवश करते हैं। जब एक- एक करके सभी से हमें निराशा मिलती हैं, तब हम अपनी गहराइयों में सहारा तलाशते हैं। हमारी अन्तुर्मखी चेतना स्थूल जगत् से सूक्ष्म जगत् में प्रवेश करती है। कहीं कोई अपना न पाकर विकल भावनाएँ पहले तो आन्दोलित, आलोड़ित व उद्वेलित होती हैं, फिर एकाग्र होने लगती है। हमारे अन्तर्मुखी विचार इस एकाग्रता को अधिक स्थिर करते हैं। ऐसे में संकट भरी परिस्थितियाँ बार- बार हमें चेताती हैं, सोच लो भगवान् के सिवा अब अपना कोई नहीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७६
👉 आत्मचिंतन के क्षण 23 Aug 2019
■ मनुष्य का अज्ञान तब स्पष्ट समझ में आ जाता है, जब वह अपनी ही हुई भुलों और उनके परिणाम के लिए ईश्वर को दोषी ठहराता है, शताब्दियों से सन्त-महात्मा चिल्ला-चिल्ला कर कहते आये हैं कि मनुष्य को सदा अच्छे काम ही करना चाहिए और बुरे काम छोड़ देना चाहिए। उन्होंने यह भी बताया है कि कौन-सा काम अच्छा है और कौन-सा काम बुरा।
◇ यदि शान्ति धन में भोग-विलास में अर्थात सांसारिक वस्तुओं में नहीं है और न तो संसार से विरक्त एवं वैराग्य में ही है तो शान्ति है कहाँ? अरेए शान्ति के इच्छुक यदि शान्ति की अभिलाषा करते हो तो तनिक दूसरी ओर भी दृष्टि डालो । देखो शान्ति तो अपने हृदय में अपने कर्म एवं कर्त्तव्य में विराजमान है।
★ संयम से रहो। हृदय में सद्गुणों को स्थान दो। मन की चंचलता दूर करों। चित्त को एकाग्र करने का अभ्यास करो। तुम्हारे अन्दर जो शक्तियाँ गुप्त है वे प्रकट होंगी। चर्म-चक्षुओं की सहायता के बिना तुम देख सकोगे। बिना कानों से सुन सकोगे। तुम अपने मन से ही सीधे देखने और सुनने की क्षमता प्राप्त कर लोगे।
◇ संसार में अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए ईश्वर का चिन्तन भी करने से सच्ची शान्ति प्राप्त हो सकती है। यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तवयों का पालन न करे, अपने आश्रितों की रक्षा एवं देख-रेख न करे तथा घर-बार छोड़कर दूर घनघोर जंगल में आकर तपस्या करे तो उसी सच्ची शान्ति का अनुभव नहीं हो सकता भले ही वह ज्ञानी हो जाय, ब्रह्म को समझ ले किन्तु उसे सच्ची शान्ति नहीं प्राप्त हो सकती है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
◇ यदि शान्ति धन में भोग-विलास में अर्थात सांसारिक वस्तुओं में नहीं है और न तो संसार से विरक्त एवं वैराग्य में ही है तो शान्ति है कहाँ? अरेए शान्ति के इच्छुक यदि शान्ति की अभिलाषा करते हो तो तनिक दूसरी ओर भी दृष्टि डालो । देखो शान्ति तो अपने हृदय में अपने कर्म एवं कर्त्तव्य में विराजमान है।
★ संयम से रहो। हृदय में सद्गुणों को स्थान दो। मन की चंचलता दूर करों। चित्त को एकाग्र करने का अभ्यास करो। तुम्हारे अन्दर जो शक्तियाँ गुप्त है वे प्रकट होंगी। चर्म-चक्षुओं की सहायता के बिना तुम देख सकोगे। बिना कानों से सुन सकोगे। तुम अपने मन से ही सीधे देखने और सुनने की क्षमता प्राप्त कर लोगे।
◇ संसार में अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए ईश्वर का चिन्तन भी करने से सच्ची शान्ति प्राप्त हो सकती है। यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तवयों का पालन न करे, अपने आश्रितों की रक्षा एवं देख-रेख न करे तथा घर-बार छोड़कर दूर घनघोर जंगल में आकर तपस्या करे तो उसी सच्ची शान्ति का अनुभव नहीं हो सकता भले ही वह ज्ञानी हो जाय, ब्रह्म को समझ ले किन्तु उसे सच्ची शान्ति नहीं प्राप्त हो सकती है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
गुरुवार, 22 अगस्त 2019
👉 युग-परिवर्तन के लिए चतुर्मुखी योजना
लोभ और मोह के बंधन काटने और अज्ञान प्रलोभन से ऊंचा उठाने पर ही जीवनोद्देश्य पूरा कर सकने वाले-ईश्वरीय प्रयोजन एवं युग पुकार के पूरा कर सकने वाले मार्ग पर चल सकते हैं सो इसके लिये हमें आवश्यक साहस जुटाना ही चाहिए। इतने से कम में कोई व्यक्ति युग-निर्माताओं महा मानवों की पंक्ति में खड़ा नहीं हो सकता। इन चार कसौटियों पर हमें खरा सिद्ध होना ही चाहिए। फौज में भर्ती करते समय नये रंगरुटों की लम्बाई, वजन, सीना तथा निरोगिता जाँची जाती हैं, तब कहीं प्रवेश मिलता है। बड़प्पन की तृष्णा में मरने खपने वाले नर-पशुओं के वर्ग से निकल कर जिन्हें नर-नारायण बनने की उमंग उठे उन्हें उपरोक्त चार प्रयोजनों को अधिकाधिक मात्रा में हृदयंगम करने तथा तद्नुकूल आचरण करने का साहस जुटाना चाहिए। यदि यह परिवर्तन प्रस्तुत जीवनक्रम में न किया जाया तो मनोविनोद के लिए कुछ छुट-पुट भले ही चलता रहे कोई महत्व पूर्ण ऐसा कार्य एवं प्रयोग न बन सकेगा जिससे आत्म-कल्याण और लोक-मंगल की सन्तोष-जनक भूमिका सम्पन्न हो सकें।
युग-परिवर्तन के लिए अपनी चतुर्मुखी योजना हर प्रेमी परिजन को भली प्रकार समझ लेनी चाहिए। (1) प्रचारात्मक (2) संगठनात्मक (3) रचनात्मक (4) संघर्षात्मक अपनी प्रक्रिया क्रमशः इन चार चरणों में विकसित होगी। शुभारम्भ प्रचारात्मक प्रयोग से किया गया है। ज्ञान-यज्ञ या विचार-क्राँति के नाम से इसी प्रयोग को पुकारते हैं। जब तक वस्तु स्थिति विदित न हो, समस्याओं बीमारियों का निदान और कारण मालूम न हो, तब तक उपचार का सही कदम नहीं उठ सकता। अपने प्रचार अभियान में इन दिनों यही सिखाया जा रहा है कि व्यक्ति और समाज की समस्त समस्याओं का एक मात्र कारण मनुष्य की चिन्तन-पद्धति का विकृति हो जाना है। इसे सुधरे बदले बिना किसी समस्या का चिरस्थायी हल न निकलेगा। वस्तु स्थिति है भी यही। भावनात्मक नवनिर्माण ही विश्वव्यापी प्रगति और शान्ति का एक मात्र हल है। इस तथ्य पर सर्वसाधारण का ध्यान जितनी गहराई तक केन्द्रित होगा उतनी ही तत्परता से बौद्धिक क्राँति के सरंजाम जुटेंगे। उनके स्थान पर परिष्कृत प्रचार तन्त्र का निर्माण करना पड़ेगा।
इस दृष्टि से वे सभी कार्य अति महत्वपूर्ण है जिनका आरम्भ युग-निर्माण योजना के अंतर्गत इन दिनों छोटे रूप में आरम्भ किया गया है। वाणी, लेखनी, प्रकाशन, कला, संगीत, अभिनय, शिक्षा, प्रदर्शन, वाक्य पट, समारोह आदि अगणित प्रचार माध्यमों की विशाल परिमाण में आवश्यकता पड़ेगी। जिसके लिए प्रचुर धन-शक्ति की आवश्यकता है। मस्तिष्कों को ढालने के लिये प्रचार तंत्र जितना समर्थ होगा उतना ही सफलता पूर्वक मानवीय चिन्तन एवं क्रिया-कलाप को परिष्कृत किया ज सकेगा। प्रचार तंत्र द्वारा वर्तमान विनाशात्मक स्वरूप को निरस्त करने के लिये उतना ही बड़े सृजनात्मक प्रचार तंत्र को खड़ा करना पड़ेगा। इसके लिये साहित्य-निर्माण उसकी खपत, प्रवचन, संगीत, फिल्म आदि अनेक माध्यमों के विशाल रूप दिया जाना है। इसके लिए प्रचुर परिमाण में धन-शक्ति और जन शक्ति की जरूरत पड़ेगी। इसकी व्यवस्था हम लोग स्वयं बड़ी आसानी से जुटा सकते हैं यदि लोभ और मोह के जंजाल से निकल कर वासना तृष्णा को ठोकर मार कर- निर्वाह भर के लिए प्राप्त पर सन्तोष करके अपनी शारीरिक मानसिक और आर्थिक क्षमता को प्रयुक्त करने लगें।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ६०
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.60
युग-परिवर्तन के लिए अपनी चतुर्मुखी योजना हर प्रेमी परिजन को भली प्रकार समझ लेनी चाहिए। (1) प्रचारात्मक (2) संगठनात्मक (3) रचनात्मक (4) संघर्षात्मक अपनी प्रक्रिया क्रमशः इन चार चरणों में विकसित होगी। शुभारम्भ प्रचारात्मक प्रयोग से किया गया है। ज्ञान-यज्ञ या विचार-क्राँति के नाम से इसी प्रयोग को पुकारते हैं। जब तक वस्तु स्थिति विदित न हो, समस्याओं बीमारियों का निदान और कारण मालूम न हो, तब तक उपचार का सही कदम नहीं उठ सकता। अपने प्रचार अभियान में इन दिनों यही सिखाया जा रहा है कि व्यक्ति और समाज की समस्त समस्याओं का एक मात्र कारण मनुष्य की चिन्तन-पद्धति का विकृति हो जाना है। इसे सुधरे बदले बिना किसी समस्या का चिरस्थायी हल न निकलेगा। वस्तु स्थिति है भी यही। भावनात्मक नवनिर्माण ही विश्वव्यापी प्रगति और शान्ति का एक मात्र हल है। इस तथ्य पर सर्वसाधारण का ध्यान जितनी गहराई तक केन्द्रित होगा उतनी ही तत्परता से बौद्धिक क्राँति के सरंजाम जुटेंगे। उनके स्थान पर परिष्कृत प्रचार तन्त्र का निर्माण करना पड़ेगा।
इस दृष्टि से वे सभी कार्य अति महत्वपूर्ण है जिनका आरम्भ युग-निर्माण योजना के अंतर्गत इन दिनों छोटे रूप में आरम्भ किया गया है। वाणी, लेखनी, प्रकाशन, कला, संगीत, अभिनय, शिक्षा, प्रदर्शन, वाक्य पट, समारोह आदि अगणित प्रचार माध्यमों की विशाल परिमाण में आवश्यकता पड़ेगी। जिसके लिए प्रचुर धन-शक्ति की आवश्यकता है। मस्तिष्कों को ढालने के लिये प्रचार तंत्र जितना समर्थ होगा उतना ही सफलता पूर्वक मानवीय चिन्तन एवं क्रिया-कलाप को परिष्कृत किया ज सकेगा। प्रचार तंत्र द्वारा वर्तमान विनाशात्मक स्वरूप को निरस्त करने के लिये उतना ही बड़े सृजनात्मक प्रचार तंत्र को खड़ा करना पड़ेगा। इसके लिये साहित्य-निर्माण उसकी खपत, प्रवचन, संगीत, फिल्म आदि अनेक माध्यमों के विशाल रूप दिया जाना है। इसके लिए प्रचुर परिमाण में धन-शक्ति और जन शक्ति की जरूरत पड़ेगी। इसकी व्यवस्था हम लोग स्वयं बड़ी आसानी से जुटा सकते हैं यदि लोभ और मोह के जंजाल से निकल कर वासना तृष्णा को ठोकर मार कर- निर्वाह भर के लिए प्राप्त पर सन्तोष करके अपनी शारीरिक मानसिक और आर्थिक क्षमता को प्रयुक्त करने लगें।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ६०
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.60
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ५३)
👉 प्रत्येक कर्म बनें भगवान की प्रार्थना
प्रेममयी भक्ति की प्रक्रिया प्रार्थना में है। प्रेम यदि अपने प्यारे प्रभु से है, उनके प्रति भक्ति सघन है, तो प्रार्थना स्वतः स्फुरित होने लगती है। प्रार्थना के ये स्वर न केवल देह, बल्कि सम्पूर्ण जीवन की आध्यात्मिक चिकित्सा करते हैं। रोग मिटते हैं, शोक दूर होते हैं, संकट कटते हैं, सन्ताप शान्त होते हैं। जिस समय हमारे चारों ओर पीड़ा- परेशानी और विपत्ति के बादल मण्डराने लगते हैं, अन्धकार छा जाता है, कोई साथी नहीं रहता, उस समय यदि हमारे अन्तःकरण में थोड़ा सा भी प्रभु विश्वास जग सका, तो हम बरबस उन्हें पुकार उठते हैं, रक्षा करो भगवन्, तुम्हारे सिवा और कोई नहीं है प्रभु।
और तब हममें से बहुतों का यह अनुभव है कि पुकार लगाते ही, ऐसे विचित्र ढंग से हमारी रक्षा होती है कि जिसकी हम कल्पना तक नहीं कर सकते। भयावह रोग, कठिन शोक, चमत्कारी ढंग से अनायास ही दूर हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि भगवान् हमसे दूर नहीं है। वे भक्त वत्सल भगवान् अपने सम्पूर्ण ज्ञान, अनन्त सामर्थ्य, भावभरा प्रेम लिए प्रति पल हमारे साथ है। बस उनसे हृदय का तार जुड़ते ही उनकी सम्पूर्ण शक्ति हमारी रक्षा के लिए, चिकित्सा के लिए, दुःख- विषाद दूर करने के लिए प्रकट हो जाती है। जहाँ उनकी अनन्त शक्ति, अपरिसीम प्रेम को व्यक्त होने का अवसर मिलता है कि काले बादल बिखर जाते हैं, निर्मल प्रकाश छा जाता है। प्यार देने वाले साथी आ पहुँचते हैं और पथ निष्कंटक हो जाता है। हम भी अपनी राह पर चल पड़ते हैं।
किन्तु प्यारे प्रभु से अपने हृदय का यह संयोग स्थायी नहीं हो पाता। प्रार्थना का यह चमत्कार अनुभव करने के बावजूद भी हमारा जीवन भगवद् प्रार्थनामय नहीं बनता। अनुकूल परिस्थिति आते ही हम अपने प्यारे प्रभु को, उनकी भक्ति को भूलने लगते हैं। इससे उपजी प्रार्थना की प्रक्रिया बिसरने लगती है। यहाँ तक कि प्रभु की प्रार्थना ऐसी अद्भुत चमत्कारी है, यह याद भी धीरे- धीरे धुँधली होने लगती है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७५
प्रेममयी भक्ति की प्रक्रिया प्रार्थना में है। प्रेम यदि अपने प्यारे प्रभु से है, उनके प्रति भक्ति सघन है, तो प्रार्थना स्वतः स्फुरित होने लगती है। प्रार्थना के ये स्वर न केवल देह, बल्कि सम्पूर्ण जीवन की आध्यात्मिक चिकित्सा करते हैं। रोग मिटते हैं, शोक दूर होते हैं, संकट कटते हैं, सन्ताप शान्त होते हैं। जिस समय हमारे चारों ओर पीड़ा- परेशानी और विपत्ति के बादल मण्डराने लगते हैं, अन्धकार छा जाता है, कोई साथी नहीं रहता, उस समय यदि हमारे अन्तःकरण में थोड़ा सा भी प्रभु विश्वास जग सका, तो हम बरबस उन्हें पुकार उठते हैं, रक्षा करो भगवन्, तुम्हारे सिवा और कोई नहीं है प्रभु।
और तब हममें से बहुतों का यह अनुभव है कि पुकार लगाते ही, ऐसे विचित्र ढंग से हमारी रक्षा होती है कि जिसकी हम कल्पना तक नहीं कर सकते। भयावह रोग, कठिन शोक, चमत्कारी ढंग से अनायास ही दूर हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि भगवान् हमसे दूर नहीं है। वे भक्त वत्सल भगवान् अपने सम्पूर्ण ज्ञान, अनन्त सामर्थ्य, भावभरा प्रेम लिए प्रति पल हमारे साथ है। बस उनसे हृदय का तार जुड़ते ही उनकी सम्पूर्ण शक्ति हमारी रक्षा के लिए, चिकित्सा के लिए, दुःख- विषाद दूर करने के लिए प्रकट हो जाती है। जहाँ उनकी अनन्त शक्ति, अपरिसीम प्रेम को व्यक्त होने का अवसर मिलता है कि काले बादल बिखर जाते हैं, निर्मल प्रकाश छा जाता है। प्यार देने वाले साथी आ पहुँचते हैं और पथ निष्कंटक हो जाता है। हम भी अपनी राह पर चल पड़ते हैं।
किन्तु प्यारे प्रभु से अपने हृदय का यह संयोग स्थायी नहीं हो पाता। प्रार्थना का यह चमत्कार अनुभव करने के बावजूद भी हमारा जीवन भगवद् प्रार्थनामय नहीं बनता। अनुकूल परिस्थिति आते ही हम अपने प्यारे प्रभु को, उनकी भक्ति को भूलने लगते हैं। इससे उपजी प्रार्थना की प्रक्रिया बिसरने लगती है। यहाँ तक कि प्रभु की प्रार्थना ऐसी अद्भुत चमत्कारी है, यह याद भी धीरे- धीरे धुँधली होने लगती है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७५
👉 आत्मचिंतन के क्षण 22 Aug 2019
■ मनुष्य के व्यक्तित्व का मुल्यांकन करते समय उसकी आदतों को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है। जिस मनुष्य की जैसी आदतें है, जैसा स्वभाव है, वैसा ही उसका मूल्यांकन किया जाता है। विद्या, बुद्धि, चतुरता, रौव दौव आदि का भी मनुष्य जीवन में अपना स्थान है परन्तु उन सबसे ऊपर मनुष्य का रहन सहन का तरीका, स्वभाव, दृष्टिकोण एवं कार्य करने की गति विधि ही है।
◇ जो मनुष्य आत्म कल्याण चाहता है उसे नि:स्वार्थ भाव से ही दूसरों के प्रति उदारता दिखाना और उनकी सेवा करना आवश्यक होता है। इस प्रकार के कार्य से उसे कोई लौकिक लाभ हो या नहीं उसे आध्यात्मिक लाभ अवश्य होता है उसके उदार विचारों की संख्या बढ़ जाती है और ये उदार विचार उसे आपत्ति काल मे काम देते हैं । उदार विचार रोग से बचाते हैं और सहज में ही आरोग्य बना देते हैं।
★ मानव-जाति ने जो भूलें की हैं, उनके लिए दण्ड का जब विधान होता है, तब विधान होता है, तब कोई भी उसे बचा नहीं सकता। इसीलिये हमारे पूर्वज कहा करते थे कि मनुष्य को हमेशा अच्छे कर्म करना चाहिये। अगर अच्छे काम किये जायेंगे, तो उनका फल भी अच्छा ही होगा। अगर तुम किसी को हानि नहीं पहुँचाओगे तो कोई भी तुम्हारी हानि नहीं कर सकता।
◇ अपने आप को ऊपर उठाना और गिराना मनुष्य के अपने हाथ की बात है। साहस, उत्साह, पराक्रम और विश्वास के आधार पर मनुष्य ऊँचा उठता है। यह उसका उत्कर्षजन्य प्रयास है। इसके विपरीत यदि कोई हीनता की भावनाओं से ग्रसित हो, भय, निराशा, उद्विग्नता, अविश्वास, आशंका से घिरा रहे तो उसका भौतिक एवं आत्मिक पतन होता चलता है। साधन और अवसर सामने होने पर भी उसे अधोगामी मार्ग ही पकड़ना पड़ता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
◇ जो मनुष्य आत्म कल्याण चाहता है उसे नि:स्वार्थ भाव से ही दूसरों के प्रति उदारता दिखाना और उनकी सेवा करना आवश्यक होता है। इस प्रकार के कार्य से उसे कोई लौकिक लाभ हो या नहीं उसे आध्यात्मिक लाभ अवश्य होता है उसके उदार विचारों की संख्या बढ़ जाती है और ये उदार विचार उसे आपत्ति काल मे काम देते हैं । उदार विचार रोग से बचाते हैं और सहज में ही आरोग्य बना देते हैं।
★ मानव-जाति ने जो भूलें की हैं, उनके लिए दण्ड का जब विधान होता है, तब विधान होता है, तब कोई भी उसे बचा नहीं सकता। इसीलिये हमारे पूर्वज कहा करते थे कि मनुष्य को हमेशा अच्छे कर्म करना चाहिये। अगर अच्छे काम किये जायेंगे, तो उनका फल भी अच्छा ही होगा। अगर तुम किसी को हानि नहीं पहुँचाओगे तो कोई भी तुम्हारी हानि नहीं कर सकता।
◇ अपने आप को ऊपर उठाना और गिराना मनुष्य के अपने हाथ की बात है। साहस, उत्साह, पराक्रम और विश्वास के आधार पर मनुष्य ऊँचा उठता है। यह उसका उत्कर्षजन्य प्रयास है। इसके विपरीत यदि कोई हीनता की भावनाओं से ग्रसित हो, भय, निराशा, उद्विग्नता, अविश्वास, आशंका से घिरा रहे तो उसका भौतिक एवं आत्मिक पतन होता चलता है। साधन और अवसर सामने होने पर भी उसे अधोगामी मार्ग ही पकड़ना पड़ता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
बुधवार, 21 अगस्त 2019
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ५२)
👉 व्यक्तित्व की समग्र साधना हेतु चान्द्रायण तप
ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरूदेव ने अपना समूचा जीवन तप के इन उच्चस्तरीय प्रयोगों में बिताया। उन्होंने अपने समूचे जीवन काल में कभी भी तप की प्रक्रिया को विराम् नहीं दिया। अपने अविराम तप से उन्होंने जो प्राण ऊर्जा इकट्ठी की उसके द्वारा उन्होंने लाखों लोगों को स्वास्थ्य के वरदान दिये। इतना ही नहीं उनने कई कुमार्गगामी- भटके हुए लोगों को तप के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित भी किया। ऐसा ही एक उदाहरण गुजरात के सोमेश भाई पटेल का है। आर्थिक रूप से समृद्ध होते हुए भी ये सज्जन शराब, सिगरेट, जुआ, नशा जैसी अनेकों बुरी आदतों की गिरफ्त में थे। इन आदतों के कारण उनके घर में तो कलह रहती ही थी, स्वयं के स्वास्थ्य में भी घुन लग चुका था। उच्च रक्तचाप, मधुमेह के साथ कैंसर के लक्षण भी उनमें उभर आये थे।
ऐसी अवस्था में वे गुरुदेव के पास आये। गुरुदेव ने उनकी पूरी विषद् कथा धैर्य से सुनी। सारी बातें सुनकर वह बोले बेटा मैं तुझे ठीक तो कर सकता हूँ पर इसके लिए तुझे मेरी फीस देनी पड़ेगी। ‘फीस’ इस शब्द ने सोमेश भाई पटेल को पहले तो चौंकाया, लेकिन बाद में सम्हलते हुए बोले- आप जो माँगेंगे मैं दूँगा। पहले सोच ले- गुरुदेव ने उन्हें चेताया। इस बात के उत्तर में सोमेश भाई थोड़ा सहमे, पर उन्होंने कहा यही कि ठीक है आप जो भी माँगेंगे मैं दूँगा। तो ठीक है पहले तू यहीं शान्तिकुञ्ज में रहकर एक महीने चन्द्रायण करते हुए गायत्री का अनुष्ठान कर। इसके बाद महीने भर बाद मिलना। गुरुदेव का यह आदेश यूँ तो उनकी प्रकृति के विरुद्ध था, फिर भी उन्होंने उनकी बात स्वीकार की। उन दिनों शान्तिकुञ्ज में चान्द्रायण सत्र चल रहा था। वह भी उसमें भागीदार हो गये। चान्द्रायण तप करते हुए एक महीना बीत गया। इस एक महीने में उनके शरीर व मन का आश्चर्यजनक ढंग से कायाकल्प हो गया।
इसके बाद जब वह गुरुदेव से मिलने गये तो उन्होंने कहा- तू अब ठीक है, आगे भी ठीक रहेगा। गुरुजी आप की फीस? सोमेश भाई की इस बात पर वह हँसे और बोले- सो तो मैं लूँगा ही, छोडूँगा नहीं। मेरी फीस यह है कि तू प्रत्येक साल में चार महीने आश्विन, चैत्र, माघ, आषाढ़ चन्द्रायण करते हुए गायत्री साधना करना। साधक बनकर के जीना। जो साधक के योग्य न हो वैसा तू कुछ भी नहीं करना। बस यही मेरी फीस है। वचन के धनी सोमेश भाई ने अपनी फीस पूरी ईमानदारी से चुकायी। इसी के साथ उन्हें समग्र स्वास्थ्य का अनुदान भी मिला। साथ ही उन्हें लगने लगा- असली सुख- भोग विलास में नहीं, प्रेममयी भक्ति में है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७३
ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरूदेव ने अपना समूचा जीवन तप के इन उच्चस्तरीय प्रयोगों में बिताया। उन्होंने अपने समूचे जीवन काल में कभी भी तप की प्रक्रिया को विराम् नहीं दिया। अपने अविराम तप से उन्होंने जो प्राण ऊर्जा इकट्ठी की उसके द्वारा उन्होंने लाखों लोगों को स्वास्थ्य के वरदान दिये। इतना ही नहीं उनने कई कुमार्गगामी- भटके हुए लोगों को तप के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित भी किया। ऐसा ही एक उदाहरण गुजरात के सोमेश भाई पटेल का है। आर्थिक रूप से समृद्ध होते हुए भी ये सज्जन शराब, सिगरेट, जुआ, नशा जैसी अनेकों बुरी आदतों की गिरफ्त में थे। इन आदतों के कारण उनके घर में तो कलह रहती ही थी, स्वयं के स्वास्थ्य में भी घुन लग चुका था। उच्च रक्तचाप, मधुमेह के साथ कैंसर के लक्षण भी उनमें उभर आये थे।
ऐसी अवस्था में वे गुरुदेव के पास आये। गुरुदेव ने उनकी पूरी विषद् कथा धैर्य से सुनी। सारी बातें सुनकर वह बोले बेटा मैं तुझे ठीक तो कर सकता हूँ पर इसके लिए तुझे मेरी फीस देनी पड़ेगी। ‘फीस’ इस शब्द ने सोमेश भाई पटेल को पहले तो चौंकाया, लेकिन बाद में सम्हलते हुए बोले- आप जो माँगेंगे मैं दूँगा। पहले सोच ले- गुरुदेव ने उन्हें चेताया। इस बात के उत्तर में सोमेश भाई थोड़ा सहमे, पर उन्होंने कहा यही कि ठीक है आप जो भी माँगेंगे मैं दूँगा। तो ठीक है पहले तू यहीं शान्तिकुञ्ज में रहकर एक महीने चन्द्रायण करते हुए गायत्री का अनुष्ठान कर। इसके बाद महीने भर बाद मिलना। गुरुदेव का यह आदेश यूँ तो उनकी प्रकृति के विरुद्ध था, फिर भी उन्होंने उनकी बात स्वीकार की। उन दिनों शान्तिकुञ्ज में चान्द्रायण सत्र चल रहा था। वह भी उसमें भागीदार हो गये। चान्द्रायण तप करते हुए एक महीना बीत गया। इस एक महीने में उनके शरीर व मन का आश्चर्यजनक ढंग से कायाकल्प हो गया।
इसके बाद जब वह गुरुदेव से मिलने गये तो उन्होंने कहा- तू अब ठीक है, आगे भी ठीक रहेगा। गुरुजी आप की फीस? सोमेश भाई की इस बात पर वह हँसे और बोले- सो तो मैं लूँगा ही, छोडूँगा नहीं। मेरी फीस यह है कि तू प्रत्येक साल में चार महीने आश्विन, चैत्र, माघ, आषाढ़ चन्द्रायण करते हुए गायत्री साधना करना। साधक बनकर के जीना। जो साधक के योग्य न हो वैसा तू कुछ भी नहीं करना। बस यही मेरी फीस है। वचन के धनी सोमेश भाई ने अपनी फीस पूरी ईमानदारी से चुकायी। इसी के साथ उन्हें समग्र स्वास्थ्य का अनुदान भी मिला। साथ ही उन्हें लगने लगा- असली सुख- भोग विलास में नहीं, प्रेममयी भक्ति में है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७३
मंगलवार, 20 अगस्त 2019
👉 वास्तविक सौंदर्य
राजकुमारी मल्लिका इतनी खूबसूरत थी कि कईं राजकुमार व राजा उसके साथ विवाह करना चाहते थे, लेकिन वह किसी को पसन्द नहीं करती थी। आखिरकार उन राजकुमारों व राजाओं ने आपस में एकजुट होकर मल्लिका के पिता को किसी युद्ध में हराकर उसका अपहरण करने की योजना बनायी।
मल्लिका को इस बात का पता चल गया। उसने राजकुमारों व राजाओं को कहलवाया कि "आप लोग मुझ पर कुर्बान हैं तो मैं भी आप पर कुर्बान हूँ। तिथि निश्चित कीजिये और आप लोग आकर बातचीत करें। मैं आप सबको अपना सौंदर्य दे दूँगी।"
इधर मल्लिका ने अपने जैसी ही एक सुन्दर मूर्ति बनवायी। मूर्ति ठोस नहीं थी, वह भीतर से खाली थी। मल्लिका ने निश्चित की गयी तिथि से दो, चार दिन पहले से उस मूर्ति के भीतर भोजन डालना शुरु कर दिया।
जिस महल में राजकुमारों व राजाओं को मुलाकात के लिए बुलाया गया था, उसी महल में एक ओर वह मूर्ति रखवा दी गयी। निश्चित तिथि पर सारे राजा व राजकुमार आ गये। मूर्ति इतनी हूबहू थी कि उसकी ओर देखकर सभी राजकुमार एकटक होकर देख रहे थे और मन ही मन में विचार कर रहे थे कि बस, अब बोलने वाली है . . अब बोलेगी . .!
कुछ देर बाद मल्लिका स्वयं महल में आयीं और जैसे ही वह महल में दाखिल हुयी तो सारे राजा व राजकुमार उसे देखकर दंग रह गये कि वास्तविक मल्लिका हमारे सामने बैठी है तो यह कौन है?
मल्लिका बोली - "यह मेरी ही प्रतिमा है। मुझे विश्वास था कि आप सब इसको ही सचमुच की मल्लिका समझेंगे और इसीलिए मैंने इसके भीतर सच्चाई छुपाकर रखी हुयी है। आप लोग जिस सौंदर्य पर आकर्षित हो रहे हो, उस सौंदर्य की सच्चाई क्या है? वह सच्चाई मैंने इसमें छुपाकर रखी हुयी है।" यह कहकर ज्यों ही मूर्ति का ढक्कन खोला गया, त्यों ही सारा कक्ष दुर्गन्ध से भर गया। क्योंकि पिछले कईं दिनों से जो भोजन उसमें डाला जा रहा था, उसके सड़ जाने से ऐसी भयंकर बदबू निकल रही थी कि सबके सब छिः छिः करने लगे।
तब मल्लिका ने वहाँ आये हुए सभी राजाओं व राजकुमारों को सम्बोधित करते हुए कहा - "सज्जनों! जिस अन्न, जल, दूध, फल, सब्जी इत्यादि को खाकर यह शरीर सुन्दर दिखता है, मैंने उन्हीं खाद्य सामग्रियों को कईं दिनों से इस मूर्ति के भीतर डालना शुरु कर दिया था। अब वो ही खाद्य सामग्री सड़कर दुर्गन्ध पैदा कर रही हैं। दुर्गन्ध पैदा करने वाले इन खाद्यान्नों से बनी हुई चमड़ी पर आप इतने फिदा हो रहे हो तो सोच करके देखो कि इस अन्न को रक्त बनाकर सौंदर्य देने वाला वह आत्मा कितना सुन्दर होगा!"
मल्लिका की इन सारगर्भित बातों का उन राजाओं और राजकुमारों पर गहरा असर पड़ा। उनमें से अधिकतर राजकुमार तो सन्यासी बन गए। उधर मल्लिका भी सन्तों की शरण में पहुँच गयी और उनके मार्गदर्शन से अपनी आत्मा को परमात्मा में विलीन कर दिया।
मल्लिका को इस बात का पता चल गया। उसने राजकुमारों व राजाओं को कहलवाया कि "आप लोग मुझ पर कुर्बान हैं तो मैं भी आप पर कुर्बान हूँ। तिथि निश्चित कीजिये और आप लोग आकर बातचीत करें। मैं आप सबको अपना सौंदर्य दे दूँगी।"
इधर मल्लिका ने अपने जैसी ही एक सुन्दर मूर्ति बनवायी। मूर्ति ठोस नहीं थी, वह भीतर से खाली थी। मल्लिका ने निश्चित की गयी तिथि से दो, चार दिन पहले से उस मूर्ति के भीतर भोजन डालना शुरु कर दिया।
जिस महल में राजकुमारों व राजाओं को मुलाकात के लिए बुलाया गया था, उसी महल में एक ओर वह मूर्ति रखवा दी गयी। निश्चित तिथि पर सारे राजा व राजकुमार आ गये। मूर्ति इतनी हूबहू थी कि उसकी ओर देखकर सभी राजकुमार एकटक होकर देख रहे थे और मन ही मन में विचार कर रहे थे कि बस, अब बोलने वाली है . . अब बोलेगी . .!
कुछ देर बाद मल्लिका स्वयं महल में आयीं और जैसे ही वह महल में दाखिल हुयी तो सारे राजा व राजकुमार उसे देखकर दंग रह गये कि वास्तविक मल्लिका हमारे सामने बैठी है तो यह कौन है?
मल्लिका बोली - "यह मेरी ही प्रतिमा है। मुझे विश्वास था कि आप सब इसको ही सचमुच की मल्लिका समझेंगे और इसीलिए मैंने इसके भीतर सच्चाई छुपाकर रखी हुयी है। आप लोग जिस सौंदर्य पर आकर्षित हो रहे हो, उस सौंदर्य की सच्चाई क्या है? वह सच्चाई मैंने इसमें छुपाकर रखी हुयी है।" यह कहकर ज्यों ही मूर्ति का ढक्कन खोला गया, त्यों ही सारा कक्ष दुर्गन्ध से भर गया। क्योंकि पिछले कईं दिनों से जो भोजन उसमें डाला जा रहा था, उसके सड़ जाने से ऐसी भयंकर बदबू निकल रही थी कि सबके सब छिः छिः करने लगे।
तब मल्लिका ने वहाँ आये हुए सभी राजाओं व राजकुमारों को सम्बोधित करते हुए कहा - "सज्जनों! जिस अन्न, जल, दूध, फल, सब्जी इत्यादि को खाकर यह शरीर सुन्दर दिखता है, मैंने उन्हीं खाद्य सामग्रियों को कईं दिनों से इस मूर्ति के भीतर डालना शुरु कर दिया था। अब वो ही खाद्य सामग्री सड़कर दुर्गन्ध पैदा कर रही हैं। दुर्गन्ध पैदा करने वाले इन खाद्यान्नों से बनी हुई चमड़ी पर आप इतने फिदा हो रहे हो तो सोच करके देखो कि इस अन्न को रक्त बनाकर सौंदर्य देने वाला वह आत्मा कितना सुन्दर होगा!"
मल्लिका की इन सारगर्भित बातों का उन राजाओं और राजकुमारों पर गहरा असर पड़ा। उनमें से अधिकतर राजकुमार तो सन्यासी बन गए। उधर मल्लिका भी सन्तों की शरण में पहुँच गयी और उनके मार्गदर्शन से अपनी आत्मा को परमात्मा में विलीन कर दिया।
👉 परिजनों को परामर्श
हमारा चौथा परामर्श यह है कि पुण्य परमार्थ की अन्तः चेतना यदि मन में जागे तो उसे सस्ती वाहवाही लूटने की मानसिक दुर्बलता से टकरा कर चूर-चूर न हो जाने दिया जाय। आमतौर से लोगों की ओछी प्रवृत्ति नामवरी लूटने का ही दूसरा नाम पुण्य मान बैठती है और ऐसे काम करती है जिनकी वास्तविक उपयोगिता भले ही नगण्य हो पर उनका विज्ञापन अधिक हो जाय। मन्दिर, धर्मशाला बनाने आदि के प्रयत्नों को हम इसी श्रेणी का मानते हैं। वे दिन लद गये जबकि मन्दिर जन जागृति के केन्द्र रहा करते थे। वे परिस्थितियां चली गई जब धर्म प्रचारकों और पैदल यात्रा करने वाले पथिकों के लिये विश्राम ग्रहों की आवश्यकता पड़ती थी। अब व्यापारिक या शादी-ब्याह सम्बन्धी स्वार्थपरक कामों के लिये लोगों को किराया देकर ठहरना या ठहराना ही उचित है। मुफ्त की सुविधा वे क्योँ लें-और क्यों दें। कहने का तात्पर्य यह है कि इस तरह के विडम्बनात्मक कामों से शक्ति का अपव्यय बचाया जाना चाहिये और उसे जन मानस के परिष्कार कर सकने वाले कार्यों की एक ही दिशा में लगाया जाना चाहिये।
हमें नोट कर लेना चाहिए कि आज की समस्त उलझनों और विपत्तियों का मात्र एक ही कारण है मनुष्य की विचार विकृति। दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों ने ही शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, राजनैतिक संकट खड़े किये है। वाह्य उपचारों से--पत्ते सींचने से कुछ बन नहीं पड़ेगा हमें मूल तक जाना चाहिये और जहां से संकट उत्पन्न होते हैं उस छेद को बन्द करना चाहिये। कहना न होगा कि विचारों और भावनाओं का स्तर गिर जाना ही समस्त संकटों का केन्द्र बिन्दु है। हमें इसी मर्मस्थल पर तीर चलाने चाहिए। हमें ज्ञानयज्ञ और विचार-क्राँति को ही इस युग की सर्वोपरि आवश्यकता एवं समस्त विकृतियों की एक मात्र चिकित्सा मान कर चलना चाहिए। और उन उपायों को अपनाना चाहिए जिससे मानवीय विचारणा एवं आकाँक्षा को निकृष्टता से विरत कर उत्कृष्टता का स्तर उन्मुख किया जा सके। ज्ञान-यज्ञ की सारी योजना इसी लक्ष्य को ध्यान में रख कर बनाई गई है। हमें अर्जुन को लक्ष्य भेदते समय मछली की आंख देखने की तरह केवल युग की आवश्यकता विचार-क्राँति पर ही ध्यान एकत्रित करना चाहिए और केवल उन्हीं परमार्थ प्रयोजनों को हाथ में लेना चाहिए जो ज्ञान-यज्ञ के पुण्य-प्रयोजन पूरा कर सकेगा।
अन्यान्य कार्यक्रमों से हमें अपना कन बिलकुल हटा लेना चाहिए, शक्ति बखेर देने से कोई काम पूरा नहीं सकता हमारा चौथा परामर्श परिजनों को यही है कि वे परमार्थ भावना से सचमुच कुछ करना चाहते हों तो उस कार्य को हजार बार इस कसौटी पर कस लें कि इस प्रयोग से आज कि मानवीय दुर्बुद्धि को उलटने के लिये अभीष्ट प्रबल पुरुषार्थ की पूर्ति इससे होती है या नहीं। शारीरिक सुख सुविधायें पहुंचाने वाले धर्म-पुण्यों को अभी कुछ समय रोका जा सकता है, वे पीछे भी हो सकते हैं पर आज की तात्कालिक आवश्यकता तो विचार-क्राँति एवं भावनात्मक नव-निर्माण ही है सो उसी को आपत्ति धर्म युग धर्म-मानकर सर्वतोभावेन हमें उसी प्रयोजन में निरत हो जाना चाहिए। ज्ञान-यज्ञ के कार्य इमारतों की तरह प्रत्यक्ष नहीं दीखते और स्मारक की तरह वाह-वाही का प्रयोजन पूरा नहीं करते तो भी उपयोगिता की दृष्टि से ईंट चूने की इमारतें बनाने की अपेक्षा इन भावनात्मक परमार्थों के परिणाम लाख करोड़ गुना अधिक है। हमें वाह-वाही लूटने की तुच्छता से आगे बढ़कर वे कार्य हाथ में लेने चाहिए जिनके ऊपर मानव-जाति का भाग्य और भविष्य निर्भर है। यह प्रक्रिया ज्ञान-यज्ञ का होता अध्वर्यु बने बिना और किसी तरह पूरी नहीं होती।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ५९
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.59
हमें नोट कर लेना चाहिए कि आज की समस्त उलझनों और विपत्तियों का मात्र एक ही कारण है मनुष्य की विचार विकृति। दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों ने ही शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, राजनैतिक संकट खड़े किये है। वाह्य उपचारों से--पत्ते सींचने से कुछ बन नहीं पड़ेगा हमें मूल तक जाना चाहिये और जहां से संकट उत्पन्न होते हैं उस छेद को बन्द करना चाहिये। कहना न होगा कि विचारों और भावनाओं का स्तर गिर जाना ही समस्त संकटों का केन्द्र बिन्दु है। हमें इसी मर्मस्थल पर तीर चलाने चाहिए। हमें ज्ञानयज्ञ और विचार-क्राँति को ही इस युग की सर्वोपरि आवश्यकता एवं समस्त विकृतियों की एक मात्र चिकित्सा मान कर चलना चाहिए। और उन उपायों को अपनाना चाहिए जिससे मानवीय विचारणा एवं आकाँक्षा को निकृष्टता से विरत कर उत्कृष्टता का स्तर उन्मुख किया जा सके। ज्ञान-यज्ञ की सारी योजना इसी लक्ष्य को ध्यान में रख कर बनाई गई है। हमें अर्जुन को लक्ष्य भेदते समय मछली की आंख देखने की तरह केवल युग की आवश्यकता विचार-क्राँति पर ही ध्यान एकत्रित करना चाहिए और केवल उन्हीं परमार्थ प्रयोजनों को हाथ में लेना चाहिए जो ज्ञान-यज्ञ के पुण्य-प्रयोजन पूरा कर सकेगा।
अन्यान्य कार्यक्रमों से हमें अपना कन बिलकुल हटा लेना चाहिए, शक्ति बखेर देने से कोई काम पूरा नहीं सकता हमारा चौथा परामर्श परिजनों को यही है कि वे परमार्थ भावना से सचमुच कुछ करना चाहते हों तो उस कार्य को हजार बार इस कसौटी पर कस लें कि इस प्रयोग से आज कि मानवीय दुर्बुद्धि को उलटने के लिये अभीष्ट प्रबल पुरुषार्थ की पूर्ति इससे होती है या नहीं। शारीरिक सुख सुविधायें पहुंचाने वाले धर्म-पुण्यों को अभी कुछ समय रोका जा सकता है, वे पीछे भी हो सकते हैं पर आज की तात्कालिक आवश्यकता तो विचार-क्राँति एवं भावनात्मक नव-निर्माण ही है सो उसी को आपत्ति धर्म युग धर्म-मानकर सर्वतोभावेन हमें उसी प्रयोजन में निरत हो जाना चाहिए। ज्ञान-यज्ञ के कार्य इमारतों की तरह प्रत्यक्ष नहीं दीखते और स्मारक की तरह वाह-वाही का प्रयोजन पूरा नहीं करते तो भी उपयोगिता की दृष्टि से ईंट चूने की इमारतें बनाने की अपेक्षा इन भावनात्मक परमार्थों के परिणाम लाख करोड़ गुना अधिक है। हमें वाह-वाही लूटने की तुच्छता से आगे बढ़कर वे कार्य हाथ में लेने चाहिए जिनके ऊपर मानव-जाति का भाग्य और भविष्य निर्भर है। यह प्रक्रिया ज्ञान-यज्ञ का होता अध्वर्यु बने बिना और किसी तरह पूरी नहीं होती।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ५९
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.59
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ५१)
👉 व्यक्तित्व की समग्र साधना हेतु चान्द्रायण तप
जबकि संयम प्रतिरोधक शक्ति की लौह दीवार को मजबूत करता है। संयम से जीवन इतना शक्तिशाली होता है कि किसी भी तरह के जीवाणु- विषाणु अथवा फिर नकारात्मक विचार प्रवेश ही नहीं पाते हैं। तप के प्रयोग का यह प्रथम चरण प्राणबल को बढ़ाने का अचूक उपाय है। इससे संरक्षित ऊर्जा स्वस्थ जीवन का आधार बनती है। जिनकी तप में आस्था है वे नित्य- नियमित संयम की शक्तियों को अनुभव करते हैं। मौसम से होने वाले रोग, परिस्थितियों से होने वाली परेशानियाँ उन्हें छूती ही नहीं। इससे साधक में जो बल बढ़ता है, उसी से दूसरे चरण को पूरा करने का आधार विकसित होता है। परिशोधन के इस दूसरे चरण में तप की आन्तरिकता प्रकट होती है। इसी विन्दु पर तप के यथार्थ प्रयोगों की शुरुआत होती है। मृदु चन्द्रायण, कृच्छ चन्द्रायण के साथ की जाने वाली गायत्री साधनाएँ इसी शृंखला का एक हिस्सा है। विशिष्ट मुहूर्तों, ग्रहयोगों, पर्वों पर किये जाने वाले उपवास का भी यही अर्थ है।
परिशोधन किस स्तर पर और कितना करना है, इसी को ध्यान में रखकर इन प्रयोगों का चयन किया जाता है। इसके द्वारा इस जन्म में भूल से या प्रमादवश हुए दुष्कर्मों का नाश होता है। इतना ही नहीं विगत जन्मों के दुष्कर्म, प्रारब्धजनित दुर्योगों का इस प्रक्रिया से शमन होता है। तप के प्रयोग में यह चरण महत्त्वपूर्ण है। इस क्रम में क्या करना है, किस विधि से करना है, इसका निर्धारण कोई सफल आध्यात्मिक चिकित्सक ही कर सकता है। जिनकी पहुँच उच्चस्तरीय साधना की कक्षा तक है वे स्वयं भी अपनी अन्तर्दृष्टि के सहारे इसका निर्धारण करने में समर्थ होते हैं। अगर इसे सही ढंग से किया जा सके तो तपश्चर्या में प्रवीण साधक अपने भाग्य एवं भविष्य को बदलने, उसे नये सिरे से गढ़ने में समर्थ होता है।
तीसरे क्रम में जागरण का स्थान है। यह तप के प्रयोग की सर्वोच्च कक्षा है। इस तक पहुँचने वाले साधक नहीं, सिद्ध जन होते हैं। परिशोधन की प्रक्रिया में जब सभी कषाय- कल्मष दूर हो जाते हैं तो इस अवस्था में साधक की अन्तर्शक्तियाँ विकसित होती हैं। इनके द्वारा वह स्वयं के साथ औरों को जान सकता है। अपने संकल्प के द्वारा वह औरों की सहायता कर सकता है। इस अवस्था में पहुँचा हुआ व्यक्ति स्वयं तो स्वस्थ होता ही है औरों को भी स्वास्थ्य का वरदान देने में समर्थ होता है। जागरण की इस अवस्था में तपस्वी का सीधा सम्पर्क ब्रह्माण्ड की विशिष्ट शक्तिधाराओं से हो जाता है। इनसे सम्पर्क, ग्रहण, धारण व नियोजन की कला उसे सहज ज्ञात हो जाती है। इस अवस्था में वह अपने भाग्य का दास नहीं, बल्कि उसका स्वामी होता है। उसमें वह सामर्थ्य होती है कि स्वयं के भाग्य के साथ औरों के भाग्य का निर्माण भी कर सके।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७२
जबकि संयम प्रतिरोधक शक्ति की लौह दीवार को मजबूत करता है। संयम से जीवन इतना शक्तिशाली होता है कि किसी भी तरह के जीवाणु- विषाणु अथवा फिर नकारात्मक विचार प्रवेश ही नहीं पाते हैं। तप के प्रयोग का यह प्रथम चरण प्राणबल को बढ़ाने का अचूक उपाय है। इससे संरक्षित ऊर्जा स्वस्थ जीवन का आधार बनती है। जिनकी तप में आस्था है वे नित्य- नियमित संयम की शक्तियों को अनुभव करते हैं। मौसम से होने वाले रोग, परिस्थितियों से होने वाली परेशानियाँ उन्हें छूती ही नहीं। इससे साधक में जो बल बढ़ता है, उसी से दूसरे चरण को पूरा करने का आधार विकसित होता है। परिशोधन के इस दूसरे चरण में तप की आन्तरिकता प्रकट होती है। इसी विन्दु पर तप के यथार्थ प्रयोगों की शुरुआत होती है। मृदु चन्द्रायण, कृच्छ चन्द्रायण के साथ की जाने वाली गायत्री साधनाएँ इसी शृंखला का एक हिस्सा है। विशिष्ट मुहूर्तों, ग्रहयोगों, पर्वों पर किये जाने वाले उपवास का भी यही अर्थ है।
परिशोधन किस स्तर पर और कितना करना है, इसी को ध्यान में रखकर इन प्रयोगों का चयन किया जाता है। इसके द्वारा इस जन्म में भूल से या प्रमादवश हुए दुष्कर्मों का नाश होता है। इतना ही नहीं विगत जन्मों के दुष्कर्म, प्रारब्धजनित दुर्योगों का इस प्रक्रिया से शमन होता है। तप के प्रयोग में यह चरण महत्त्वपूर्ण है। इस क्रम में क्या करना है, किस विधि से करना है, इसका निर्धारण कोई सफल आध्यात्मिक चिकित्सक ही कर सकता है। जिनकी पहुँच उच्चस्तरीय साधना की कक्षा तक है वे स्वयं भी अपनी अन्तर्दृष्टि के सहारे इसका निर्धारण करने में समर्थ होते हैं। अगर इसे सही ढंग से किया जा सके तो तपश्चर्या में प्रवीण साधक अपने भाग्य एवं भविष्य को बदलने, उसे नये सिरे से गढ़ने में समर्थ होता है।
तीसरे क्रम में जागरण का स्थान है। यह तप के प्रयोग की सर्वोच्च कक्षा है। इस तक पहुँचने वाले साधक नहीं, सिद्ध जन होते हैं। परिशोधन की प्रक्रिया में जब सभी कषाय- कल्मष दूर हो जाते हैं तो इस अवस्था में साधक की अन्तर्शक्तियाँ विकसित होती हैं। इनके द्वारा वह स्वयं के साथ औरों को जान सकता है। अपने संकल्प के द्वारा वह औरों की सहायता कर सकता है। इस अवस्था में पहुँचा हुआ व्यक्ति स्वयं तो स्वस्थ होता ही है औरों को भी स्वास्थ्य का वरदान देने में समर्थ होता है। जागरण की इस अवस्था में तपस्वी का सीधा सम्पर्क ब्रह्माण्ड की विशिष्ट शक्तिधाराओं से हो जाता है। इनसे सम्पर्क, ग्रहण, धारण व नियोजन की कला उसे सहज ज्ञात हो जाती है। इस अवस्था में वह अपने भाग्य का दास नहीं, बल्कि उसका स्वामी होता है। उसमें वह सामर्थ्य होती है कि स्वयं के भाग्य के साथ औरों के भाग्य का निर्माण भी कर सके।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७२
👉 आत्मचिंतन के क्षण 20 Aug 2019
■ नम्रता, नैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र की वह भावना है, जो सब मनुष्यों में, सब प्राणियों में, स्थित शाश्वत सत्य से ईश्वर से सम्बन्ध कराती है। इस तरह उसे जीवन के ठीक-ठीक लक्ष्य की प्राप्ति कराती है। जगत में उस शाश्वत चेतना का, ईश्वर का दर्शन कर, मनुष्य का मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है।
"सियाराम मय सब जग जानी,
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।"
◇ अन्त:करण को बलवान बनाने का उपाय यह है कि आप कभी उसकी अवहेलना न करें। वह जो कहे, उसे सुनें और कार्यरुप में परिणत करें। किसी कार्य को करने से पूर्व अपनी अन्तरात्मा की गवाही अवश्य लें। यदि प्रत्येक कार्य में आप अन्तरात्मा की सम्मति प्राप्त कर लिया करेंगे तो विवेक पथ नष्ट न होगा। दुनियाँ भर का विरोध करने पर भी यदि आप अपनी अन्तरात्मा का पालन कर सकें, तो कोई आपको सफलता प्राप्त करने से नहीं रोक सकता।
★ आत्म चिन्तन से नवशक्ति एवं विश्राम मिलता है, आनेवाली आवश्यकताओं के लिए शक्ति रक्षित होती है, और जीवन को संतुलित और लचीला बनाये रखने में सहायता मिलती है। इसके द्वारा हम बहुधा अपने अच्छे बुरे कर्मों पर पुनर्विचार कर सकते है। इस क्रिया से आन्तरिक विकास में बडी सहायता मिलती है।
◇ सदा कार्य में व्यस्त रहना, टांगे-घोडे की तरह सदा काम में जुते रहना शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत हानि-कारक होता है। इस पर भी हममें से अधिकतर मनुष्य अपने अवकाश के समय का उपयोग केवल दो ही रीतियों से करने का विचार कर सकते हैं या तो हम केवल काम करते हैं या केवल खेल में ही समय बिता देते हैं। हममें से बहुत कम लोग यह विचार करते हैं कि दैनन्दिन जीवन में आने वाले विरामों का एक दूसरा बहुमूल्य उपयोग भी है वह है- आत्म चिन्तन।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
"सियाराम मय सब जग जानी,
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।"
◇ अन्त:करण को बलवान बनाने का उपाय यह है कि आप कभी उसकी अवहेलना न करें। वह जो कहे, उसे सुनें और कार्यरुप में परिणत करें। किसी कार्य को करने से पूर्व अपनी अन्तरात्मा की गवाही अवश्य लें। यदि प्रत्येक कार्य में आप अन्तरात्मा की सम्मति प्राप्त कर लिया करेंगे तो विवेक पथ नष्ट न होगा। दुनियाँ भर का विरोध करने पर भी यदि आप अपनी अन्तरात्मा का पालन कर सकें, तो कोई आपको सफलता प्राप्त करने से नहीं रोक सकता।
★ आत्म चिन्तन से नवशक्ति एवं विश्राम मिलता है, आनेवाली आवश्यकताओं के लिए शक्ति रक्षित होती है, और जीवन को संतुलित और लचीला बनाये रखने में सहायता मिलती है। इसके द्वारा हम बहुधा अपने अच्छे बुरे कर्मों पर पुनर्विचार कर सकते है। इस क्रिया से आन्तरिक विकास में बडी सहायता मिलती है।
◇ सदा कार्य में व्यस्त रहना, टांगे-घोडे की तरह सदा काम में जुते रहना शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत हानि-कारक होता है। इस पर भी हममें से अधिकतर मनुष्य अपने अवकाश के समय का उपयोग केवल दो ही रीतियों से करने का विचार कर सकते हैं या तो हम केवल काम करते हैं या केवल खेल में ही समय बिता देते हैं। हममें से बहुत कम लोग यह विचार करते हैं कि दैनन्दिन जीवन में आने वाले विरामों का एक दूसरा बहुमूल्य उपयोग भी है वह है- आत्म चिन्तन।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
शनिवार, 17 अगस्त 2019
👉 ऊंचा क़द
चार महीने बीत चुके थे, बल्कि 10 दिन ऊपर हो गए थे, किंतु बड़े भइया की ओर से अभी तक कोई ख़बर नहीं आई थी कि वह पापा को लेने कब आएंगे. यह कोई पहली बार नहीं था कि बड़े भइया ने ऐसा किया हो. हर बार उनका ऐसा ही रवैया रहता है. जब भी पापा को रखने की उनकी बारी आती है, वह समस्याओं से गुज़रने लगते हैं. कभी भाभी की तबीयत ख़राब हो जाती है, कभी ऑफिस का काम बढ़ जाता है और उनकी छुट्टी कैंसिल हो जाती है. विवश होकर मुझे ही पापा को छोड़ने मुंबई जाना पड़ता है. हमेशा की तरह इस बार भी पापा की जाने की इच्छा नहीं थी, किंतु मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और उनका व अपना मुंबई का रिज़र्वेशन करवा लिया.
दिल्ली-मुंबई राजधानी एक्सप्रेस अपने टाइम पर थी. सेकंड एसी की निचली बर्थ पर पापा को बैठाकर सामने की बर्थ पर मैं भी बैठ गया. साथवाली सीट पर एक सज्जन पहले से विराजमान थे. बाकी बर्थ खाली थीं. कुछ ही देर में ट्रेन चल पड़ी. अपनी जेब से मोबाइल निकाल मैं देख रहा था, तभी कानों से पापा का स्वर टकराया, “मुन्ना, कुछ दिन तो तू भी रहेगा न मुंबई में. मेरा दिल लगा रहेगा और प्रतीक को भी अच्छा लगेगा.”
पापा के स्वर की आर्द्रता पर तो मेरा ध्यान गया नहीं, मन-ही-मन मैं खीझ उठा. कितनी बार समझाया है पापा को कि मुझे ‘मुन्ना’ न कहा करें. ‘रजत’ पुकारा करें. अब मैं इतनी ऊंची पोस्ट पर आसीन एक प्रशासनिक अधिकारी हूं. समाज में मेरा एक अलग रुतबा है. ऊंचा क़द है, मान-सम्मान है. बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति मुन्ना शब्द सुनकर मुझे एक सामान्य-सा व्यक्ति समझ रहा होगा. मैं तनिक ज़ोर से बोला, “पापा, परसों मेरी गर्वनर के साथ मीटिंग है. मैं मुंबई में कैसे रुक सकता हूं?” पापा के चेहरे पर निराशा की बदलियां छा गईं. मैं उनसे कुछ कहता, तभी मेरा मोबाइल बज उठा. रितु का फोन था. भर्राए स्वर में वह कह रही थी, “पापा ठीक से बैठ गए न.”
“हां हां बैठ गए हैं. गाड़ी भी चल पड़ी है.” “देखो, पापा का ख़्याल रखना. रात में मेडिसिन दे देना. भाभी को भी सब अच्छी तरह समझाकर आना. पापा को वहां कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए.”
“नहीं होगी.” मैंने फोन काट दिया. “रितु का फोन था न. मेरी चिंता कर रही होगी.”
पापा के चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया था. रात में खाना खाकर पापा सो गए. थोड़ी देर में गाड़ी कोटा स्टेशन पर रुकी और यात्रियों के शोरगुल से हड़कंप-सा मच गया. तभी कंपार्टमेंट का दरवाज़ा खोलकर जो व्यक्ति अंदर आया, उसे देख मुझे बेहद आश्चर्य हुआ. मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि रमाशंकर से इस तरह ट्रेन में मुलाक़ात होगी.
एक समय रमाशंकर मेरा पड़ोसी और सहपाठी था. हम दोनों के बीच मित्रता कम और नंबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा अधिक रहती थी. हम दोनों ही मेहनती और बुद्धिमान थे, किंतु न जाने क्या बात थी कि मैं चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न कर लूं, बाज़ी सदैव रमाशंकर के हाथ लगती थी. शायद मेरी ही एकाग्रता में कमी थी. कुछ समय पश्चात् पापा ने शहर के पॉश एरिया में मकान बनवा लिया. मैंने कॉलेज चेंज कर लिया और इस तरह रमाशंकर और मेरा साथ छूट गया.
दो माह पूर्व एक सुबह मैं अपने ऑफिस पहुंचा. कॉरिडोर में मुझसे मिलने के लिए काफ़ी लोग बैठे हुए थे. बिना उनकी ओर नज़र उठाए मैं अपने केबिन की ओर बढ़ रहा था. यकायक एक व्यक्ति मेरे सम्मुख आया और प्रसन्नता के अतिरेक में मेरे गले लग गया, “रजत यार, तू कितना बड़ा आदमी बन गया. पहचाना मुझे? मैं रमाशंकर.” मैं सकपका गया. फीकी-सी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर आकर विलुप्त हो गई. इतने लोगों के सम्मुख़ उसका अनौपचारिक व्यवहार मुझे ख़ल रहा था. वह भी शायद मेरे मनोभावों को ताड़ गया था, तभी तो एक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत जब वह मेरे केबिन में दाख़िल हुआ, तो समझ चुका था कि वह अपने सहपाठी से नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक अधिकारी से मिल रहा था. उसका मुझे ‘सर’ कहना मेरे अहं को संतुष्ट कर गया. यह जानकर कि वह बिजली विभाग में महज़ एक क्लर्क है, जो मेरे समक्ष अपना तबादला रुकवाने की गुज़ारिश लेकर आया है, मेरा सीना अभिमान से चौड़ा हो गया. कॉलेज के प्रिंसिपल और टीचर्स तो क्या, मेरे सभी कलीग्स भी यही कहते थे कि एक दिन रमाशंकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा. हुंह, आज मैं कहां से कहां पहुंच गया और वह…
पिछली स्मृतियों को पीछे धकेल मैं वर्तमान में पहुंचा तो देखा, रमाशंकर ने अपनी वृद्ध मां को साइड की सीट पर लिटा दिया और स्वयं उनके क़रीब बैठ गया. एक उड़ती सी नज़र उस पर डाल मैंने अख़बार पर आंखें गड़ा दीं. तभी रमाशंकर बोला, “नमस्ते सर, मैंने तो देखा ही नहीं कि आप बैठे हैं.” मैंने नम्र स्वर में पूछा, “कैसे हो रमाशंकर?”
“ठीक हूं सर.”
“कोटा कैसे आना हुआ?”
“छोटी बुआ की बेटी की शादी में आया था. अब मुंबई जा रहा हूं. शायद आपको याद हो, मेरा एक छोटा भाई था.”
“छोटा भाई, हां याद आया, क्या नाम था उसका?” मैंने स्मृति पर ज़ोर डालने का उपक्रम किया जबकि मुझे अच्छी तरह याद था कि उसका नाम देवेश था.
“सर, आप इतने ऊंचे पद पर हैं. आए दिन हज़ारों लोगों से मिलते हैं. आपको कहां याद होगा? देवेश नाम है उसका सर.”
पता नहीं उसने मुझ पर व्यंग्य किया था या साधारण रूप से कहा था, फिर भी मेरी गर्दन कुछ तन-सी गई. उस पर एहसान-सा लादते हुए मैं बोला,“देखो रमाशंकर, यह मेरा ऑफिस नहीं है, इसलिए सर कहना बंद करो और मुझे मेरे नाम से पुकारो. हां तो तुम क्या बता रहे थे, देवेश मुंबई में है?”
“हां रजत, उसने वहां मकान ख़रीदा है. दो दिन पश्चात् उसका गृह प्रवेश है.
चार-पांच दिन वहां रहकर मैं और अम्मा दिल्ली लौट आएंगे.”
“इस उम्र में इन्हें इतना घुमा रहे हो?” “अम्मा की आने की बहुत इच्छा थी. इंसान की उम्र भले ही बढ़ जाए, इच्छाएं तो नहीं मरतीं न.”
“हां, यह तो है. पिताजी कैसे हैं?”
“पिताजी का दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया था. अम्मा यह दुख झेल नहीं पाईं और उन्हें हार्टअटैक आ गया था, बस तभी से वह बीमार रहती हैं. अब तो अल्ज़ाइमर भी बढ़ गया है.”
“तब तो उन्हें संभालना मुश्किल होता होगा. क्या करते हो? छह-छह महीने दोनों भाई रखते होंगे.” ऐसा पूछकर मैं शायद अपने मन को तसल्ली दे रहा था. आशा के विपरीत रमाशंकर बोला, “नहीं-नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता. अम्मा शुरू से दिल्ली में रही हैं. उनका कहीं और मन लगना मुश्किल है. मैं नहीं चाहता, इस उम्र में उनकी स्थिति पेंडुलम जैसी हो जाए. कभी इधर, तो कभी उधर. कितनी पीड़ा होगी उन्हें यह देखकर कि पिताजी के जाते ही उनका कोई घर ही नहीं रहा. वह हम पर बोझ हैं.”
मैं मुस्कुराया, “रमाशंकर, इंसान को थोड़ा व्यावहारिक भी होना चाहिए. जीवन में स़िर्फ भावुकता से काम नहीं चलता है. अक्सर इंसान दायित्व उठाते-उठाते थक जाता है और तब ये विचार मन को उद्वेलित करने लगते हैं कि अकेले हम ही क्यों मां-बाप की सेवा करें, दूसरा क्यों न करे.”
“पता नहीं रजत, मैं ज़रा पुराने विचारों का इंसान हूं. मेरा तो यह मानना है कि हर इंसान की करनी उसके साथ है. कोई भी काम मुश्क़िल तभी लगता है, जब उसे बोझ समझकर किया जाए. मां-बाप क्या कभी अपने बच्चों को बोझ समझते हैं? आधे-अधूरे कर्त्तव्यों में कभी आस्था नहीं होती रजत, मात्र औपचारिकता होती है और सबसे बड़ी बात जाने-अनजाने हमारे कर्म ही तो संस्कार बनकर हमारे बच्चों के द्वारा हमारे सम्मुख आते हैं. समय रहते यह छोटी-सी बात इंसान की समझ में आ जाए, तो उसका बुढ़ापा भी संवर जाए.”
मुझे ऐसा लगा, मानो रमाशंकर ने मेरे मुख पर तमाचा जड़ दिया हो. मैं नि:शब्द, मौन सोने का उपक्रम करने लगा, किंतु नींद मेरी आंखों से अब कोसों दूर हो चुकी थी. रमाशंकर की बातें मेरे दिलोदिमाग़ में हथौड़े बरसा रही थीं. इतने वर्षों से संचित किया हुआ अभिमान पलभर में चूर-चूर हो गया था. प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी के लिए इतनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहा, किंतु पापा के मन की संवेदनाओं को, उनके हृदय की पीड़ा को नहीं पढ़ सका. क्या इतना बड़ा मुक़ाम मैंने स़िर्फ अपनी मेहनत के बल पर पाया है. नहीं, इसके पीछे पापा-मम्मी की वर्षों की तपस्या निहित है.
आख़िर उन्होंने ही तो मेरी आंखों को सपने देखने सिखाए. जीवन में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी. रात्रि में जब मैं देर तक पढ़ता था, तो पापा भी मेरे साथ जागते थे कि कहीं मुझे नींद न आ जाए. मेरे इस लक्ष्य को हासिल करने में पापा हर क़दम पर मेरे साथ रहे और आज जब पापा को मेरे साथ की ज़रूरत है, तो मैं व्यावहारिकता का सहारा ले रहा हूं. दो वर्ष पूर्व की स्मृति मन पर दस्तक दे रही थी. सीवियर हार्टअटैक आने के बाद मम्मी बीमार रहने लगी थीं.
एक शाम ऑफिस से लौटकर मैं पापा-मम्मी के बेडरूम में जा रहा था, तभी अंदर से आती आवाज़ से मेरे पांव ठिठक गए. मम्मी पापा से कह रही थीं, “इस दुनिया में जो आया है, वह जाएगा भी. कोई पहले, तो कोई बाद में. इतने इंटैलेक्चुअल होते हुए भी आप इस सच्चाई से मुंह मोड़ना चाह रहे हैं.”
“मैं क्या करूं पूजा? तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी मेरे लिए कठिन है. कभी सोचा है तुमने कि तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा?” पापा का कंठ अवरुद्ध हो गया था, किंतु मम्मी तनिक भी विचलित नहीं हुईं और शांत स्वर में बोलीं थीं, “आपकी तरफ़ से तो मैं पूरी तरह से निश्चिंत हूं. रजत और रितु आपका बहुत ख़्याल रखेंगे, यह एक मां के अंतर्मन की आवाज़ है, उसका विश्वास है जो कभी ग़लत नहीं हो सकता.”
इस घटना के पांच दिन बाद ही मम्मी चली गईं थीं. कितने टूट गए थे पापा. बिल्कुल अकेले पड़ गए थे. उनके अकेलेपन की पीड़ा को मुझसे अधिक मेरी पत्नी रितु ने समझा. यूं भी वह पापा के दोस्त की बेटी थी और बचपन से पापा से दिल से जुड़ी हुई थी. उसने कभी नहीं चाहा, पापा को अपने से दूर करना, किंतु मेरा मानना था कि कोरी भावुकता में लिए गए फैसले अक्सर ग़लत साबित होते हैं. इंसान को प्रैक्टिकल अप्रोच से काम लेना चाहिए. अकेले मैं ही क्यों पापा का दायित्व उठाऊं? दोनों बड़े भाई क्यों न उठाएं? जबकि पापा ने तीनों को बराबर का स्नेह दिया, पढ़ाया, लिखाया, तो दायित्व भी तीनों का बराबर है. छह माह बाद मम्मी की बरसी पर यह जानते हुए भी कि दोनों बड़े भाई पापा को अपने साथ रखना नहीं चाहते, मैंने यह फैसला किया था कि हम तीनों बेटे चार-चार माह पापा को रखेंगे. पापा को जब इस बात का पता चला, तो कितनी बेबसी उभर आई थी उनके चेहरे पर. चेहरे की झुर्रियां और गहरा गई थीं. उम्र मानो 10 वर्ष आगे सरक गई थी. सारी उम्र पापा की दिल्ली में गुज़री थी. सभी दोस्त और रिश्तेदार यहीं पर थे, जिनके सहारे उनका व़क्त कुछ अच्छा बीत सकता था, किंतु… सोचते-सोचते मैंने एक गहरी सांस ली.
आंखों से बह रहे पश्चाताप के आंसू पूरी रात मेरा तकिया भिगोते रहे. उफ्… यह क्या कर दिया मैंने. पापा को तो असहनीय पीड़ा पहुंचाई ही, मम्मी के विश्वास को भी खंडित कर दिया. आज वह जहां कहीं भी होंगी, पापा की स्थिति पर उनकी आत्मा कलप रही होगी. क्या वह कभी मुझे क्षमा कर पाएंगी? रात में कई बार अम्मा का रमाशंकर को आवाज़ देना और हर बार उसका चेहरे पर बिना शिकन लाए उठना, मुझे आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य कर रहा था. उसे देख मुझे एहसास हो रहा था कि इंसानियत और बड़प्पन हैसियत की मोहताज नहीं होती. वह तो दिल में होती है. अचानक मुझे एहसास हुआ, मेरे और रमाशंकर के बीच आज भी प्रतिस्पर्धा जारी है. इंसानियत की प्रतिस्पर्धा, जिसमें आज भी वह मुझसे बाज़ी मार ले गया था. पद भले ही मेरा बड़ा था, किंतु रमाशंकर का क़द मुझसे बहुत ऊंचा था.
गाड़ी मुंबई सेंट्रल पर रुकी, तो मैं रमाशंकर के क़रीब पहुंचा. उसके दोनों हाथ थाम मैं भावुक स्वर में बोला, “रमाशंकर मेरे दोस्त, चलता हूं. यह सफ़र सारी ज़िंदगी मुझे याद रहेगा.” कहने के साथ ही मैंने उसे गले लगा लिया.
आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी से वह मुझे देख रहा था. मैं बोला, “वादा करो, अपनी फैमिली को लेकर मेरे घर अवश्य आओगे.”
“आऊंगा क्यों नहीं, आखिऱ इतने वर्षों बाद मुझे मेरा दोस्त मिला है.” ख़ुशी से उसकी आवाज़ कांप रही थी. अटैची उठाए पापा के साथ मैं नीचे उतर गया. स्टेशन के बाहर मैंने टैक्सी पकड़ी और ड्राइवर से एयरपोर्ट चलने को कहा. पापा हैरत से बोले, “एयरपोर्ट क्यों?” भावुक होकर मैं पापा के गले लग गया और रुंधे कंठ से बोला, “पापा, मुझे माफ़ कर दीजिए. हम वापिस दिल्ली जा रहे हैं. अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे.” पापा की आंखें नम हो उठीं और चेहरा खुशी से खिल उठा.
“जुग जुग जिओ मेरे बच्चे.” वह बुदबुदाए. कुछ पल के लिए उन्होंन अपनी आंखें बंद कर लीं, फिर चेहरा उठाकर आकाश की ओर देखा. मुझे ऐसा लगा मानो वह मम्मी से कह रहे हों, देर से ही सही, तुम्हारा विश्वास सही निकला.
सुमंगलं
सुस्वागतं
आप किस राह पर हैं,??
रजत या रमाशंकर
विचारणीय 🤔
दिल्ली-मुंबई राजधानी एक्सप्रेस अपने टाइम पर थी. सेकंड एसी की निचली बर्थ पर पापा को बैठाकर सामने की बर्थ पर मैं भी बैठ गया. साथवाली सीट पर एक सज्जन पहले से विराजमान थे. बाकी बर्थ खाली थीं. कुछ ही देर में ट्रेन चल पड़ी. अपनी जेब से मोबाइल निकाल मैं देख रहा था, तभी कानों से पापा का स्वर टकराया, “मुन्ना, कुछ दिन तो तू भी रहेगा न मुंबई में. मेरा दिल लगा रहेगा और प्रतीक को भी अच्छा लगेगा.”
पापा के स्वर की आर्द्रता पर तो मेरा ध्यान गया नहीं, मन-ही-मन मैं खीझ उठा. कितनी बार समझाया है पापा को कि मुझे ‘मुन्ना’ न कहा करें. ‘रजत’ पुकारा करें. अब मैं इतनी ऊंची पोस्ट पर आसीन एक प्रशासनिक अधिकारी हूं. समाज में मेरा एक अलग रुतबा है. ऊंचा क़द है, मान-सम्मान है. बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति मुन्ना शब्द सुनकर मुझे एक सामान्य-सा व्यक्ति समझ रहा होगा. मैं तनिक ज़ोर से बोला, “पापा, परसों मेरी गर्वनर के साथ मीटिंग है. मैं मुंबई में कैसे रुक सकता हूं?” पापा के चेहरे पर निराशा की बदलियां छा गईं. मैं उनसे कुछ कहता, तभी मेरा मोबाइल बज उठा. रितु का फोन था. भर्राए स्वर में वह कह रही थी, “पापा ठीक से बैठ गए न.”
“हां हां बैठ गए हैं. गाड़ी भी चल पड़ी है.” “देखो, पापा का ख़्याल रखना. रात में मेडिसिन दे देना. भाभी को भी सब अच्छी तरह समझाकर आना. पापा को वहां कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए.”
“नहीं होगी.” मैंने फोन काट दिया. “रितु का फोन था न. मेरी चिंता कर रही होगी.”
पापा के चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया था. रात में खाना खाकर पापा सो गए. थोड़ी देर में गाड़ी कोटा स्टेशन पर रुकी और यात्रियों के शोरगुल से हड़कंप-सा मच गया. तभी कंपार्टमेंट का दरवाज़ा खोलकर जो व्यक्ति अंदर आया, उसे देख मुझे बेहद आश्चर्य हुआ. मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि रमाशंकर से इस तरह ट्रेन में मुलाक़ात होगी.
एक समय रमाशंकर मेरा पड़ोसी और सहपाठी था. हम दोनों के बीच मित्रता कम और नंबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा अधिक रहती थी. हम दोनों ही मेहनती और बुद्धिमान थे, किंतु न जाने क्या बात थी कि मैं चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न कर लूं, बाज़ी सदैव रमाशंकर के हाथ लगती थी. शायद मेरी ही एकाग्रता में कमी थी. कुछ समय पश्चात् पापा ने शहर के पॉश एरिया में मकान बनवा लिया. मैंने कॉलेज चेंज कर लिया और इस तरह रमाशंकर और मेरा साथ छूट गया.
दो माह पूर्व एक सुबह मैं अपने ऑफिस पहुंचा. कॉरिडोर में मुझसे मिलने के लिए काफ़ी लोग बैठे हुए थे. बिना उनकी ओर नज़र उठाए मैं अपने केबिन की ओर बढ़ रहा था. यकायक एक व्यक्ति मेरे सम्मुख आया और प्रसन्नता के अतिरेक में मेरे गले लग गया, “रजत यार, तू कितना बड़ा आदमी बन गया. पहचाना मुझे? मैं रमाशंकर.” मैं सकपका गया. फीकी-सी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर आकर विलुप्त हो गई. इतने लोगों के सम्मुख़ उसका अनौपचारिक व्यवहार मुझे ख़ल रहा था. वह भी शायद मेरे मनोभावों को ताड़ गया था, तभी तो एक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत जब वह मेरे केबिन में दाख़िल हुआ, तो समझ चुका था कि वह अपने सहपाठी से नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक अधिकारी से मिल रहा था. उसका मुझे ‘सर’ कहना मेरे अहं को संतुष्ट कर गया. यह जानकर कि वह बिजली विभाग में महज़ एक क्लर्क है, जो मेरे समक्ष अपना तबादला रुकवाने की गुज़ारिश लेकर आया है, मेरा सीना अभिमान से चौड़ा हो गया. कॉलेज के प्रिंसिपल और टीचर्स तो क्या, मेरे सभी कलीग्स भी यही कहते थे कि एक दिन रमाशंकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा. हुंह, आज मैं कहां से कहां पहुंच गया और वह…
पिछली स्मृतियों को पीछे धकेल मैं वर्तमान में पहुंचा तो देखा, रमाशंकर ने अपनी वृद्ध मां को साइड की सीट पर लिटा दिया और स्वयं उनके क़रीब बैठ गया. एक उड़ती सी नज़र उस पर डाल मैंने अख़बार पर आंखें गड़ा दीं. तभी रमाशंकर बोला, “नमस्ते सर, मैंने तो देखा ही नहीं कि आप बैठे हैं.” मैंने नम्र स्वर में पूछा, “कैसे हो रमाशंकर?”
“ठीक हूं सर.”
“कोटा कैसे आना हुआ?”
“छोटी बुआ की बेटी की शादी में आया था. अब मुंबई जा रहा हूं. शायद आपको याद हो, मेरा एक छोटा भाई था.”
“छोटा भाई, हां याद आया, क्या नाम था उसका?” मैंने स्मृति पर ज़ोर डालने का उपक्रम किया जबकि मुझे अच्छी तरह याद था कि उसका नाम देवेश था.
“सर, आप इतने ऊंचे पद पर हैं. आए दिन हज़ारों लोगों से मिलते हैं. आपको कहां याद होगा? देवेश नाम है उसका सर.”
पता नहीं उसने मुझ पर व्यंग्य किया था या साधारण रूप से कहा था, फिर भी मेरी गर्दन कुछ तन-सी गई. उस पर एहसान-सा लादते हुए मैं बोला,“देखो रमाशंकर, यह मेरा ऑफिस नहीं है, इसलिए सर कहना बंद करो और मुझे मेरे नाम से पुकारो. हां तो तुम क्या बता रहे थे, देवेश मुंबई में है?”
“हां रजत, उसने वहां मकान ख़रीदा है. दो दिन पश्चात् उसका गृह प्रवेश है.
चार-पांच दिन वहां रहकर मैं और अम्मा दिल्ली लौट आएंगे.”
“इस उम्र में इन्हें इतना घुमा रहे हो?” “अम्मा की आने की बहुत इच्छा थी. इंसान की उम्र भले ही बढ़ जाए, इच्छाएं तो नहीं मरतीं न.”
“हां, यह तो है. पिताजी कैसे हैं?”
“पिताजी का दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया था. अम्मा यह दुख झेल नहीं पाईं और उन्हें हार्टअटैक आ गया था, बस तभी से वह बीमार रहती हैं. अब तो अल्ज़ाइमर भी बढ़ गया है.”
“तब तो उन्हें संभालना मुश्किल होता होगा. क्या करते हो? छह-छह महीने दोनों भाई रखते होंगे.” ऐसा पूछकर मैं शायद अपने मन को तसल्ली दे रहा था. आशा के विपरीत रमाशंकर बोला, “नहीं-नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता. अम्मा शुरू से दिल्ली में रही हैं. उनका कहीं और मन लगना मुश्किल है. मैं नहीं चाहता, इस उम्र में उनकी स्थिति पेंडुलम जैसी हो जाए. कभी इधर, तो कभी उधर. कितनी पीड़ा होगी उन्हें यह देखकर कि पिताजी के जाते ही उनका कोई घर ही नहीं रहा. वह हम पर बोझ हैं.”
मैं मुस्कुराया, “रमाशंकर, इंसान को थोड़ा व्यावहारिक भी होना चाहिए. जीवन में स़िर्फ भावुकता से काम नहीं चलता है. अक्सर इंसान दायित्व उठाते-उठाते थक जाता है और तब ये विचार मन को उद्वेलित करने लगते हैं कि अकेले हम ही क्यों मां-बाप की सेवा करें, दूसरा क्यों न करे.”
“पता नहीं रजत, मैं ज़रा पुराने विचारों का इंसान हूं. मेरा तो यह मानना है कि हर इंसान की करनी उसके साथ है. कोई भी काम मुश्क़िल तभी लगता है, जब उसे बोझ समझकर किया जाए. मां-बाप क्या कभी अपने बच्चों को बोझ समझते हैं? आधे-अधूरे कर्त्तव्यों में कभी आस्था नहीं होती रजत, मात्र औपचारिकता होती है और सबसे बड़ी बात जाने-अनजाने हमारे कर्म ही तो संस्कार बनकर हमारे बच्चों के द्वारा हमारे सम्मुख आते हैं. समय रहते यह छोटी-सी बात इंसान की समझ में आ जाए, तो उसका बुढ़ापा भी संवर जाए.”
मुझे ऐसा लगा, मानो रमाशंकर ने मेरे मुख पर तमाचा जड़ दिया हो. मैं नि:शब्द, मौन सोने का उपक्रम करने लगा, किंतु नींद मेरी आंखों से अब कोसों दूर हो चुकी थी. रमाशंकर की बातें मेरे दिलोदिमाग़ में हथौड़े बरसा रही थीं. इतने वर्षों से संचित किया हुआ अभिमान पलभर में चूर-चूर हो गया था. प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी के लिए इतनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहा, किंतु पापा के मन की संवेदनाओं को, उनके हृदय की पीड़ा को नहीं पढ़ सका. क्या इतना बड़ा मुक़ाम मैंने स़िर्फ अपनी मेहनत के बल पर पाया है. नहीं, इसके पीछे पापा-मम्मी की वर्षों की तपस्या निहित है.
आख़िर उन्होंने ही तो मेरी आंखों को सपने देखने सिखाए. जीवन में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी. रात्रि में जब मैं देर तक पढ़ता था, तो पापा भी मेरे साथ जागते थे कि कहीं मुझे नींद न आ जाए. मेरे इस लक्ष्य को हासिल करने में पापा हर क़दम पर मेरे साथ रहे और आज जब पापा को मेरे साथ की ज़रूरत है, तो मैं व्यावहारिकता का सहारा ले रहा हूं. दो वर्ष पूर्व की स्मृति मन पर दस्तक दे रही थी. सीवियर हार्टअटैक आने के बाद मम्मी बीमार रहने लगी थीं.
एक शाम ऑफिस से लौटकर मैं पापा-मम्मी के बेडरूम में जा रहा था, तभी अंदर से आती आवाज़ से मेरे पांव ठिठक गए. मम्मी पापा से कह रही थीं, “इस दुनिया में जो आया है, वह जाएगा भी. कोई पहले, तो कोई बाद में. इतने इंटैलेक्चुअल होते हुए भी आप इस सच्चाई से मुंह मोड़ना चाह रहे हैं.”
“मैं क्या करूं पूजा? तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी मेरे लिए कठिन है. कभी सोचा है तुमने कि तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा?” पापा का कंठ अवरुद्ध हो गया था, किंतु मम्मी तनिक भी विचलित नहीं हुईं और शांत स्वर में बोलीं थीं, “आपकी तरफ़ से तो मैं पूरी तरह से निश्चिंत हूं. रजत और रितु आपका बहुत ख़्याल रखेंगे, यह एक मां के अंतर्मन की आवाज़ है, उसका विश्वास है जो कभी ग़लत नहीं हो सकता.”
इस घटना के पांच दिन बाद ही मम्मी चली गईं थीं. कितने टूट गए थे पापा. बिल्कुल अकेले पड़ गए थे. उनके अकेलेपन की पीड़ा को मुझसे अधिक मेरी पत्नी रितु ने समझा. यूं भी वह पापा के दोस्त की बेटी थी और बचपन से पापा से दिल से जुड़ी हुई थी. उसने कभी नहीं चाहा, पापा को अपने से दूर करना, किंतु मेरा मानना था कि कोरी भावुकता में लिए गए फैसले अक्सर ग़लत साबित होते हैं. इंसान को प्रैक्टिकल अप्रोच से काम लेना चाहिए. अकेले मैं ही क्यों पापा का दायित्व उठाऊं? दोनों बड़े भाई क्यों न उठाएं? जबकि पापा ने तीनों को बराबर का स्नेह दिया, पढ़ाया, लिखाया, तो दायित्व भी तीनों का बराबर है. छह माह बाद मम्मी की बरसी पर यह जानते हुए भी कि दोनों बड़े भाई पापा को अपने साथ रखना नहीं चाहते, मैंने यह फैसला किया था कि हम तीनों बेटे चार-चार माह पापा को रखेंगे. पापा को जब इस बात का पता चला, तो कितनी बेबसी उभर आई थी उनके चेहरे पर. चेहरे की झुर्रियां और गहरा गई थीं. उम्र मानो 10 वर्ष आगे सरक गई थी. सारी उम्र पापा की दिल्ली में गुज़री थी. सभी दोस्त और रिश्तेदार यहीं पर थे, जिनके सहारे उनका व़क्त कुछ अच्छा बीत सकता था, किंतु… सोचते-सोचते मैंने एक गहरी सांस ली.
आंखों से बह रहे पश्चाताप के आंसू पूरी रात मेरा तकिया भिगोते रहे. उफ्… यह क्या कर दिया मैंने. पापा को तो असहनीय पीड़ा पहुंचाई ही, मम्मी के विश्वास को भी खंडित कर दिया. आज वह जहां कहीं भी होंगी, पापा की स्थिति पर उनकी आत्मा कलप रही होगी. क्या वह कभी मुझे क्षमा कर पाएंगी? रात में कई बार अम्मा का रमाशंकर को आवाज़ देना और हर बार उसका चेहरे पर बिना शिकन लाए उठना, मुझे आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य कर रहा था. उसे देख मुझे एहसास हो रहा था कि इंसानियत और बड़प्पन हैसियत की मोहताज नहीं होती. वह तो दिल में होती है. अचानक मुझे एहसास हुआ, मेरे और रमाशंकर के बीच आज भी प्रतिस्पर्धा जारी है. इंसानियत की प्रतिस्पर्धा, जिसमें आज भी वह मुझसे बाज़ी मार ले गया था. पद भले ही मेरा बड़ा था, किंतु रमाशंकर का क़द मुझसे बहुत ऊंचा था.
गाड़ी मुंबई सेंट्रल पर रुकी, तो मैं रमाशंकर के क़रीब पहुंचा. उसके दोनों हाथ थाम मैं भावुक स्वर में बोला, “रमाशंकर मेरे दोस्त, चलता हूं. यह सफ़र सारी ज़िंदगी मुझे याद रहेगा.” कहने के साथ ही मैंने उसे गले लगा लिया.
आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी से वह मुझे देख रहा था. मैं बोला, “वादा करो, अपनी फैमिली को लेकर मेरे घर अवश्य आओगे.”
“आऊंगा क्यों नहीं, आखिऱ इतने वर्षों बाद मुझे मेरा दोस्त मिला है.” ख़ुशी से उसकी आवाज़ कांप रही थी. अटैची उठाए पापा के साथ मैं नीचे उतर गया. स्टेशन के बाहर मैंने टैक्सी पकड़ी और ड्राइवर से एयरपोर्ट चलने को कहा. पापा हैरत से बोले, “एयरपोर्ट क्यों?” भावुक होकर मैं पापा के गले लग गया और रुंधे कंठ से बोला, “पापा, मुझे माफ़ कर दीजिए. हम वापिस दिल्ली जा रहे हैं. अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे.” पापा की आंखें नम हो उठीं और चेहरा खुशी से खिल उठा.
“जुग जुग जिओ मेरे बच्चे.” वह बुदबुदाए. कुछ पल के लिए उन्होंन अपनी आंखें बंद कर लीं, फिर चेहरा उठाकर आकाश की ओर देखा. मुझे ऐसा लगा मानो वह मम्मी से कह रहे हों, देर से ही सही, तुम्हारा विश्वास सही निकला.
सुमंगलं
सुस्वागतं
आप किस राह पर हैं,??
रजत या रमाशंकर
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