बुधवार, 31 जुलाई 2019

👉 गायत्री निवास

बच्चों को स्कूल बस में बैठाकर वापस आ शालू खिन्न मन से टैरेस पर जाकर बैठ गई. सुहावना मौसम, हल्के बादल और पक्षियों का मधुर गान कुछ भी उसके मन को वह सुकून नहीं दे पा रहे थे, जो वो अपने पिछले शहर के घर में छोड़ आई थी.

शालू की इधर-उधर दौड़ती सरसरी नज़रें थोड़ी दूर एक पेड़ की ओट में खड़ी बुढ़िया पर ठहर गईं. ‘ओह! फिर वही बुढ़िया, क्यों इस तरह से उसके घर की ओर ताकती है?’

शालू की उदासी बेचैनी में तब्दील हो गई, मन में शंकाएं पनपने लगीं. इससे पहले भी शालू उस बुढ़िया को तीन-चार बार नोटिस कर चुकी थी. दो महीने हो गए थे शालू को पूना से गुड़गांव शिफ्ट हुए, मगर अभी तक एडजस्ट नहीं हो पाई थी.

पति सुधीर का बड़े ही शॉर्ट नोटिस पर तबादला हुआ था, वो तो आते ही अपने काम और ऑफ़िशियल टूर में व्यस्त हो गए. छोटी शैली का तो पहली क्लास में आराम से एडमिशन हो गया, मगर सोनू को बड़ी मुश्किल से पांचवीं क्लास के मिड सेशन में एडमिशन मिला. वो दोनों भी धीरे-धीरे रूटीन में आ रहे थे, लेकिन शालू, उसकी स्थिति तो जड़ से उखाड़कर दूसरी ज़मीन पर रोपे गए पेड़ जैसी हो गई थी, जो अभी भी नई ज़मीन नहीं पकड़ पा रहा था.

सब कुछ कितना सुव्यवस्थित चल रहा था पूना में. उसकी अच्छी जॉब थी. घर संभालने के लिए अच्छी मेड थी, जिसके भरोसे वह घर और रसोई छोड़कर सुकून से ऑफ़िस चली जाती थी. घर के पास ही बच्चों के लिए एक अच्छा-सा डे केयर भी था. स्कूल के बाद दोनों बच्चे शाम को उसके ऑफ़िस से लौटने तक वहीं रहते. लाइफ़ बिल्कुल सेट थी, मगर सुधीर के एक तबादले की वजह से सब गड़बड़ हो गया.

यहां न आस-पास कोई अच्छा डे केयर है और न ही कोई भरोसे लायक मेड ही मिल रही है. उसका केरियर तो चौपट ही समझो और इतनी टेंशन के बीच ये विचित्र बुढ़िया. कहीं छुपकर घर की टोह तो नहीं ले रही? वैसे भी इस इलाके में चोरी और फिरौती के लिए बच्चों का अपहरण कोई नई बात नहीं है. सोचते-सोचते शालू परेशान हो उठी.

दो दिन बाद सुधीर टूर से वापस आए, तो शालू ने उस बुढ़िया के बारे में बताया. सुधीर को भी कुछ चिंता हुई, “ठीक है, अगली बार कुछ ऐसा हो, तो वॉचमैन को बोलना वो उसका ध्यान रखेगा, वरना फिर देखते हैं, पुलिस कम्प्लेन कर सकते हैं.” कुछ दिन ऐसे ही गुज़र गए.

शालू का घर को दोबारा ढर्रे पर लाकर नौकरी करने का संघर्ष  जारी था, पर इससे बाहर आने की कोई सूरत नज़र नहीं आ रही थी.

एक दिन सुबह शालू ने टैरेस से देखा, वॉचमैन उस बुढ़िया के साथ उनके मेन गेट पर आया हुआ था. सुधीर उससे कुछ बात कर रहे थे. पास से देखने पर उस बुढ़िया की सूरत कुछ जानी पहचानी-सी लग रही थी. शालू को लगा उसने यह चेहरा कहीं और भी देखा है, मगर कुछ याद नहीं आ रहा था. बात करके सुधीर घर के अंदर आ गए और वह बुढ़िया मेन गेट पर ही खड़ी रही.

“अरे, ये तो वही बुढ़िया है, जिसके बारे में मैंने आपको बताया था. ये यहां क्यों आई है?” शालू ने चिंतित स्वर में सुधीर से पूछा.

“बताऊंगा तो आश्चर्यचकित रह जाओगी. जैसा तुम उसके बारे में सोच रही थी, वैसा कुछ भी नहीं है. जानती हो वो कौन है?”

शालू का विस्मित चेहरा आगे की बात सुनने को बेक़रार था.

“वो इस घर की पुरानी मालकिन हैं.”

“क्या? मगर ये घर तो हमने मिस्टर शांतनु से ख़रीदा है.”

“ये लाचार बेबस बुढ़िया उसी शांतनु की अभागी मां है, जिसने पहले धोखे से सब कुछ अपने नाम करा लिया और फिर ये घर हमें बेचकर विदेश चला गया, अपनी बूढ़ी मां गायत्री देवी को एक वृद्धाश्रम में छोड़कर.

छी… कितना कमीना इंसान है, देखने में तो बड़ा शरीफ़ लग रहा था.”

सुधीर का चेहरा वितृष्णा से भर उठा. वहीं शालू याद्दाश्त पर कुछ ज़ोर डाल रही थी.

“हां, याद आया. स्टोर रूम की सफ़ाई करते हुए इस घर की पुरानी नेमप्लेट दिखी थी. उस पर ‘गायत्री निवास’ लिखा था, वहीं एक राजसी ठाठ-बाटवाली महिला की एक पुरानी फ़ोटो भी थी. उसका चेहरा ही इस बुढ़िया से मिलता था, तभी मुझे लगा था कि  इसे कहीं देखा है, मगर अब ये यहां क्यों आई हैं?

क्या घर वापस लेने? पर हमने तो इसे पूरी क़ीमत देकर ख़रीदा है.” शालू चिंतित हो उठी.

“नहीं, नहीं. आज इनके पति की पहली बरसी है. ये उस कमरे में दीया जलाकर प्रार्थना करना चाहती हैं, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली थी.”

“इससे क्या होगा, मुझे तो इन बातों में कोई विश्वास नहीं.”

“तुम्हें न सही, उन्हें तो है और अगर हमारी हां से उन्हें थोड़ी-सी ख़ुशी मिल जाती है, तो हमारा क्या घट जाएगा?”

“ठीक है, आप उन्हें बुला लीजिए.” अनमने मन से ही सही, मगर शालू ने हां कर दी.

गायत्री देवी अंदर आ गईं. क्षीण काया, तन पर पुरानी सूती धोती, बड़ी-बड़ी आंखों के कोरों में कुछ जमे, कुछ पिघले से आंसू. अंदर आकर उन्होंने सुधीर और शालू को ढेरों आशीर्वाद दिए.

नज़रें भर-भरकर उस पराये घर को देख रही थीं, जो कभी उनका अपना था. आंखों में कितनी स्मृतियां, कितने सुख और कितने ही दुख एक साथ तैर आए थे.

वो ऊपरवाले कमरे में गईं. कुछ देर आंखें बंद कर बैठी रहीं. बंद आंखें लगातार रिस रही थीं.

फिर उन्होंने दिया जलाया, प्रार्थना की और फिर वापस से दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहने लगीं, “मैं इस घर में दुल्हन बनकर आई थी. सोचा था, अर्थी पर ही जाऊंगी, मगर…” स्वर भर्रा आया था.

“यही कमरा था मेरा. कितने साल हंसी-ख़ुशी बिताए हैं यहां अपनों के साथ, मगर शांतनु के पिता के जाते ही…” आंखें पुनः भर आईं.

शालू और सुधीर नि:शब्द बैठे रहे. थोड़ी देर घर से जुड़ी बातें कर गायत्री देवी भारी क़दमों से उठीं और चलने लगीं.

पैर जैसे इस घर की चौखट छोड़ने को तैयार ही न थे, पर जाना तो था ही. उनकी इस हालत को वो दोनों भी महसूस कर रहे थे.

“आप ज़रा बैठिए, मैं अभी आती हूं.” शालू गायत्री देवी को रोककर कमरे से बाहर चली गई और इशारे से सुधीर को भी बाहर बुलाकर कहने लगी, “सुनिए, मुझे एक बड़ा अच्छा आइडिया आया है, जिससे हमारी लाइफ़ भी सुधर जाएगी और इनके टूटे दिल को भी आराम मिल जाएगा.

क्यों न हम इन्हें यहीं रख लें? अकेली हैं, बेसहारा हैं और इस घर में इनकी जान बसी है. यहां से कहीं जाएंगी भी नहीं और हम यहां वृद्धाश्रम से अच्छा ही खाने-पहनने को देंगे उन्हें.”

“तुम्हारा मतलब है, नौकर की तरह?”
“नहीं, नहीं. नौकर की तरह नहीं. हम इन्हें कोई तनख़्वाह नहीं देंगे. काम के लिए तो मेड भी है. बस, ये घर पर रहेंगी, तो घर के आदमी की तरह मेड पर, आने-जानेवालों पर नज़र रख सकेंगी. बच्चों को देख-संभाल सकेंगी.

ये घर पर रहेंगी, तो मैं भी आराम से नौकरी पर जा सकूंगी. मुझे भी पीछे से घर की, बच्चों के खाने-पीने की टेंशन नहीं रहेगी.”

“आइडिया तो अच्छा है, पर क्या ये मान जाएंगी?”

“क्यों नहीं. हम इन्हें उस घर में रहने का मौक़ा दे रहे हैं, जिसमें उनके प्राण बसे हैं, जिसे ये छुप-छुपकर देखा करती हैं.”

“और अगर कहीं मालकिन बन घर पर अपना हक़ जमाने लगीं तो?”

“तो क्या, निकाल बाहर करेंगे. घर तो हमारे नाम ही है. ये बुढ़िया क्या कर सकती है.”

“ठीक है, तुम बात करके देखो.” सुधीर ने सहमति जताई.

शालू ने संभलकर बोलना शुरू किया, “देखिए, अगर आप चाहें, तो यहां रह सकती हैं.”

बुढ़िया की आंखें इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से चमक उठीं. क्या वाक़ई वो इस घर में रह सकती हैं, लेकिन फिर बुझ गईं.

आज के ज़माने में जहां सगे बेटे ने ही उन्हें घर से यह कहते हुए बेदख़ल कर दिया कि अकेले बड़े घर में रहने से अच्छा उनके लिए वृद्धाश्रम में रहना होगा. वहां ये पराये लोग उसे बिना किसी स्वार्थ के क्यों रखेंगे?

“नहीं, नहीं. आपको नाहक ही परेशानी होगी.”

“परेशानी कैसी, इतना बड़ा घर है और आपके रहने से हमें भी आराम हो जाएगा.”

हालांकि दुनियादारी के कटु अनुभवों से गुज़र चुकी गायत्री देवी शालू की आंखों में छिपी मंशा समझ गईं, मगर उस घर में रहने के मोह में वो मना न कर सकीं.

गायत्री देवी उनके साथ रहने आ गईं और आते ही उनके सधे हुए अनुभवी हाथों ने घर की ज़िम्मेदारी बख़ूबी संभाल ली.

सभी उन्हें  अम्मा कहकर ही बुलाते. हर काम उनकी निगरानी में सुचारु रूप से चलने लगा.

घर की ज़िम्मेदारी से बेफ़िक्र होकर शालू ने भी नौकरी ज्वॉइन कर ली. सालभर कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला.

अम्मा सुबह दोनों बच्चों को उठातीं, तैयार करतीं, मान-मनुहार कर खिलातीं और स्कूल बस तक छोड़तीं. फिर किसी कुशल प्रबंधक की तरह अपनी देखरेख में बाई से सारा काम करातीं. रसोई का वो स्वयं ख़ास ध्यान रखने लगीं, ख़ासकर बच्चों के स्कूल से आने के व़क़्त वो नित नए स्वादिष्ट और पौष्टिक व्यंजन तैयार कर देतीं.

शालू भी हैरान थी कि जो बच्चे चिप्स और पिज़्ज़ा के अलावा कुछ भी मन से न खाते थे, वे उनके बनाए व्यंजन ख़ुशी-ख़ुशी खाने लगे थे.

बच्चे अम्मा से बेहद घुल-मिल गए थे. उनकी कहानियों के लालच में कभी देर तक टीवी से चिपके रहनेवाले बच्चे उनकी हर बात मानने लगे. समय से खाना-पीना और होमवर्क निपटाकर बिस्तर में पहुंच जाते.

अम्मा अपनी कहानियों से बच्चों में एक ओर जहां अच्छे संस्कार डाल रही थीं, वहीं हर व़क़्त टीवी देखने की बुरी आदत से भी दूर ले जा रही थीं.

शालू और सुधीर बच्चों में आए सुखद परिवर्तन को देखकर अभिभूत थे, क्योंकि उन दोनों के पास तो कभी बच्चों के पास बैठ बातें करने का भी समय नहीं होता था.

पहली बार शालू ने महसूस किया कि घर में किसी बड़े-बुज़ुर्ग की उपस्थिति, नानी-दादी का प्यार, बच्चों पर कितना सकारात्मक प्रभाव डालता है. उसके बच्चे तो शुरू से ही इस सुख से वंचित रहे, क्योंकि उनके जन्म से पहले ही उनकी नानी और दादी दोनों गुज़र चुकी थीं.

आज शालू का जन्मदिन था. सुधीर और शालू ने ऑफ़िस से थोड़ा जल्दी निकलकर बाहर डिनर करने का प्लान बनाया था. सोचा था, बच्चों को अम्मा संभाल लेंगी, मगर घर में घुसते ही दोनों हैरान रह गए. बच्चों ने घर को गुब्बारों और झालरों से सजाया हुआ था.

वहीं अम्मा ने शालू की मनपसंद डिशेज़ और केक बनाए हुए थे. इस सरप्राइज़ बर्थडे पार्टी, बच्चों के उत्साह और अम्मा की मेहनत से शालू अभिभूत हो उठी और उसकी आंखें भर आईं.

इस तरह के वीआईपी ट्रीटमेंट की उसे आदत नहीं थी और इससे पहले बच्चों ने कभी उसके लिए ऐसा कुछ ख़ास किया भी नहीं था.

बच्चे दौड़कर शालू के पास आ गए और जन्मदिन की बधाई देते हुए पूछा, “आपको हमारा सरप्राइज़ कैसा लगा?”

“बहुत अच्छा, इतना अच्छा, इतना अच्छा… कि क्या बताऊं…” कहते हुए उसने बच्चों को बांहों में भरकर चूम लिया.

“हमें पता था आपको अच्छा लगेगा. अम्मा ने बताया कि बच्चों द्वारा किया गया छोटा-सा प्रयास भी मम्मी-पापा को बहुत बड़ी ख़ुशी देता है, इसीलिए हमने आपको ख़ुशी देने के लिए ये सब किया.”

शालू की आंखों में अम्मा के लिए कृतज्ञता छा गई. बच्चों से ऐसा सुख तो उसे पहली बार ही मिला था और वो भी उन्हीं के संस्कारों के कारण.
केक कटने के बाद गायत्री देवी ने अपने पल्लू में बंधी लाल रुमाल में लिपटी एक चीज़ निकाली और शालू की ओर बढ़ा दी.

“ये क्या है अम्मा?”

“तुम्हारे जन्मदिन का उपहार.”
शालू ने खोलकर देखा तो रुमाल में सोने की चेन थी.

वो चौंक पड़ी, “ये तो सोने की मालूम होती है.”

“हां बेटी, सोने की ही है. बहुत मन था कि तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हें कोई तोहफ़ा दूं. कुछ और तो नहीं है मेरे पास, बस यही एक चेन है, जिसे संभालकर रखा था. मैं अब इसका क्या करूंगी. तुम पहनना, तुम पर बहुत अच्छी लगेगी.”

शालू की अंतरात्मा उसे कचोटने लगी. जिसे उसने लाचार बुढ़िया समझकर स्वार्थ से तत्पर हो अपने यहां आश्रय दिया, उनका इतना बड़ा दिल कि अपने पास बचे इकलौते स्वर्णधन को भी वह उसे सहज ही दे रही हैं.

“नहीं, नहीं अम्मा, मैं इसे नहीं ले सकती.”

“ले ले बेटी, एक मां का आशीर्वाद समझकर रख ले. मेरी तो उम्र भी हो चली. क्या पता तेरे अगले जन्मदिन पर तुझे कुछ देने के लिए मैं रहूं भी या नहीं.”

“नहीं अम्मा, ऐसा मत कहिए. ईश्वर आपका साया हमारे सिर पर सदा बनाए रखे.” कहकर शालू उनसे ऐसे लिपट गई, जैसे बरसों बाद कोई बिछड़ी बेटी अपनी मां से मिल रही हो.

वो जन्मदिन शालू कभी नहीं भूली, क्योंकि उसे उस दिन एक बेशक़ीमती उपहार मिला था, जिसकी क़ीमत कुछ लोग बिल्कुल नहीं समझते और वो है नि:स्वार्थ मानवीय भावनाओं से भरा मां का प्यार. वो जन्मदिन गायत्री देवी भी नहीं भूलीं, क्योंकि उस दिन उनकी उस घर में पुनर्प्रतिष्ठा हुई थी.

घर की बड़ी, आदरणीय, एक मां के रूप में, जिसकी गवाही उस घर के बाहर लगाई गई वो पुरानी नेमप्लेट भी दे रही थी, जिस पर लिखा था
‘गायत्री निवास’

यदि आपकी आंखे इस कहानी को पढ़कर थोड़ी सी भी नम हो गई   हो तो अकेले में 2 मिनट चिंतन करे कि पाश्चात्य संस्कृति की होड़ में हम अपनी मूल संस्कृति को भुलाकर,  बच्चों की उच्च शिक्षा पर तो सभी का ध्यान केंद्रित हैं किन्तु उन्हें संस्कारवान बनाने में हम पिछड़ते जा रहे हैं। 

👉 आज का सद्चिंतन 31 July 2019

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 31 July 2019


👉 गुरुदेव की वाणी अपनों से अपनी बात

हम अपने परिजनों से लड़ते-झगड़ते भी रहते हैं और अधिक काम करने के लिए उन्हें भला-बुरा भी कहते रहते हैं, पर वह सब इस विश्वास के कारण ही करते हैं कि उनमें पूर्वजन्मों के महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक संस्कार विद्यमान् हैं, आज वे प्रसुप्त पड़े हैं पर उन्हें झकझोरा जाय तो जगाया जा सकना असम्भव नहीं है। कड़ुवे-मीठे शब्दों से हम अक्सर अपने परिवार को इसलिये को झकझोरते रहते हैं कि वे अपनी अंतःस्थिति और गरिमा के अनुरूप कुछ अधिक साहसपूर्ण कदम उठा सकने में समर्थ हो सकें। कटु प्रतीत होने वाली भाषा में और अप्रिय लगने वाले शब्दों में हम अक्सर परिजनों का अग्रगामी उद्बोधन करते रहते हैं। उस सन्दर्भ में रोष या तिरस्कार मन में नहीं रहता वरन् आत्मीयता और अधिकार की भावना ही काम करती रहती है। लोग भले ही भूल गये हों, पर हम तो नहीं भूले हैं।

लम्बी अवधि से चली आ रही ममता और आत्मीयता हमारे भीतर जमी भी पूर्वजन्मों की भाँति सजग है। सो हमें अपनी पूर्वकालीन घनिष्ठता की अनुभूति के कारण वैसा ही कुछ जब भी लगता रहता है कि यह अपनी ही आत्मा के अविच्छिन्न अंग हैं। और इन पर हमारा उतना ही अधिकार है, जितना निकटतम आत्मीय एवं कुटुम्बी-सम्बन्धियों का हो सकता है। अपने इस अधिकार की अनुभूति के कारण ही आग्रह और अनुरोध ही नहीं करते वरन् निर्देश भी देते रहते हैं और उनके प्रति उपेक्षा करते जाने पर लाल-पीले भी होते रहते हैं। इन कटु प्रसंगों के पीछे हमारा कोई व्यक्तिगत राम-द्वेष या स्वार्थ-लोभ नहीं रहना विशुद्ध रूप से लोक-मंगल और जनकल्याण की भावना ही काम करती रहती है। जिस प्रकार लोभी बाप में अपने बेटे को अमीर देखने की लालसा रहती है, उसी प्रकार हमारे मन में भी अपने परिजनों को उत्कृष्ट स्तर के महामानव देखने की आकांक्षा बनी रहती है। और उसी के लिए आवश्यक अनुरोध आग्रह करते रहते हैं।

इस बार झोला पुस्तकालयों की पूर्णता के लिए जो अनुरोध किया गया है, उसके पीछे भी यही भावना काम कर रही है कि हमारा शरीर कहीं सुदूर प्रदेश में भले ही चला जाय पर हमारी आत्मा विचारणा, प्रेरणा, भावना और रोशनी प्रिय परिजनों के घरों में पीछे भी जमी बैठी रहे और हमारी अनुपस्थिति में भी उपयुक्त मार्ग दर्शन करती रहे। जो उपेक्षा और आलस्य करते हैं, उन्हें कटु शब्द भी इसीलिये कह देते हैं कि थोड़ी सी पूँजी में घर की एक बहुमूल्य सम्पदा स्थिर करने में जो कंजूसी बरती जाती है। वहीं हमें रुचती नहीं। अनेक आकस्मिक कार्यों में किसी भी सद्गृहस्थ को बहुत व्यय करना पड़ जाता है। उसे किसी प्रकार करते ही हैं। फिर एक घरेलू पुस्तकालय परिपूर्ण कर लेने के लिए आना-कानी की जाती है तो उसे हमें उपेक्षा मात्र मानते हैं और भर्त्सना करते हैं। हमारी भावनाओं का गलत अर्थ न लगाया जाय और जो बात जैसी है, उसे वैसा ही समझा जाय।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, सितंबर १९६९, पृष्ठ 64


http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/September/v1.64

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग 41)

👉 ज्योतिर्विज्ञान की अति महती भूमिका
ज्योतिष के मर्मज्ञ एवं आध्यात्मिक ज्ञान के विशेषज्ञ दोनों ही एक स्वर से इस सच्चाई को स्वीकारते हैं कि मनुष्य के जन्म के क्षण का विशेष महत्त्व है। यूँ तो महत्त्व प्रत्येक क्षण का होता है, पर जन्म का क्षण व्यक्ति को जीवन भर प्रभावित करता रहता है। ऐसा क्यों है? तो इसका आसान सा जवाब यह है कि प्रत्येक क्षण में ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की विशिष्ट शक्तिधाराएँ किसी न किसी बिन्दु पर किसी विशेष परिमाण में मिलती हैं। मिलन के इन्हीं क्षणों में मनुष्य का जन्म होता है। इस क्षण में ही यह निर्धारित हो पाता है कि ऊर्जा की शक्तिधाराएँ भविष्य में किस क्रम में मिलेंगी और जीवन में अपना क्या प्रभाव प्रदर्शित करेंगी।

बात केवल मनुष्य की नहीं है, उस क्षण में जन्मने वाले मिट्टी, पत्थर, मकान- दुकान, कुत्ता, बिल्ली, वृक्ष- वनस्पति सभी का सच एक ही है। यही कारण है कि ज्योतिष के मर्मज्ञ व विशेषज्ञ प्रत्येक जड़ या चेतन का ऊर्जा चक्र या कुण्डली तैयार करते हैं। यह चक्र प्रायः ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की नव मूल धाराओं या नवग्रह एवं बारह विशिष्ट शक्तिधाराओं या राशियों को लेकर होता है। यदि गणना सही ढंग से की गई है तो इन ऊर्जा धाराओं के सांयोगिक प्रभाव इन पर देखने को मिलते हैं। परन्तु मनुष्य की स्थिति थोड़ी सी भिन्न है। वह न तो जड़ पदार्थों की तरह एकदम अचेतन है और न वृक्ष- वनस्पतियों या अन्य प्राणियों की तरह अर्धचेतन। इसे तो आत्मचेतन कहा गया है। इसमें दूरदर्शी विवेकशीलता का भण्डार है। यही वजह है कि वह स्वयं को अपने ऊपर पड़ने वाले ब्रह्माण्डीय ऊर्जा प्रवाहों के अनुसार समायोजित करने में सक्षम है।

जहाँ तक ज्योतिष की बात है तो वह जन्म क्षण के अनुसार बनाये गये ऊर्जा चक्र के क्रम में यह निर्धारित करती है कि इस व्यक्ति पर कब कौन सी ऊर्जा धाराएँ किस भाँति प्रभाव डालने वाली हैं। इस चक्र से यह भी पता चलता है कि विगत में किये गये किन कर्मों, संस्कारों अथवा प्रारब्ध के किन कुयोगों अथवा सुयोगों के कारण उसका जन्म इस क्षण में हुआ। यह ज्ञान ज्योतिष का एक भाग है। इसी के साथ इसका दूसरा हिस्सा भी जुड़ा हुआ है। यह दूसरा हिस्सा इन विशिष्ट ऊर्जाधाराओं के साथ समायोजन के तौर- तरीकों से सम्बन्धित है। अर्थात् इसमें यह विधि विज्ञान है कि किन स्थितियों में हम क्या करें? यानि कि क्या उपाय करके मनुष्य अपने जीवन में आने वाले सुयोगों व सौभाग्य को बढ़ा सकता है। और किन उपायों को अपना कर वह अपने कुयोगों को कम अथवा निरस्त कर सकता है।

प्रत्येक स्थिति को सँवारने के लिए अनेकों विधियाँ हैं और सभी प्रभावकारी हैं। आध्यात्मिक चिकित्सक इनमें से किसी भी विधि को स्वीकार या अस्वीकार कर सकते हैं। यह सब उनकी विशेषज्ञता पर निर्भर है। हालाँकि इन पंक्तियों में इस सच को स्वीकारने में कोई संकोच नहीं हो रहा है कि आज के दौर में ऐसे विशेषज्ञ व मर्मज्ञ नहीं के बराबर हैं, जो अध्यात्म साधना और ज्योतिष विद्या दोनों में निष्णात हों, पर कुछ दशक पूर्व भारतीय विद्या के महा पण्डित महामहोपाध्याय डॉ. गोपीनाथ कविराज के गुरु स्वामी विशुद्धानन्द जी महाराज के जीवन में यह दुर्गम सुयोग उपस्थित हुआ था। हिमालय के दिव्य क्षेत्र ज्ञानगंज के साधना काल में उन्होंने अपने गुरुओं से अध्यात्म चिकित्सा के साथ ज्योतिष विद्या में भी मर्मज्ञता प्राप्त की थी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 59

👉 Short Stories

Once, Dr. Sarvapalli Radhakrishnan, former President of India, was on a visit to a developed country. A high ranking official of the host country wanted to have his views on the progress of that country. With due regards and modesty, Dr. Radhakrishnan responded: “The scientific and technological development of your country is indeed remarkable. It has enabled man to fly in the skies like the birds and float in the seas like the fishes. However, due to lack of corresponding growth of the inner soul, it has not been able to teach its people to live as cultured human beings on the earth.”

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

👉 मन की ऊँचाई:-

मंदिरों के शिखर और मस्जिदों की मिनारें ही ऊँची नहीं करनी हैं, मन को भी ऊँचा करना हैं ताकि आदर्शों की स्थापना हो सकें।

एक बार गौतम स्वामी ने महावीर स्वामी से पूछा, ‘भंते ! एक व्यक्ति दिन-रात आपकी सेवा, भक्ति, पूजा में लीन रहता हैं, फलतः उसको दीन-दुखियों की सेवा के लिए समय नहीं मिलता और दूसरा व्यक्ति दुखियों की सेवा में इतना जी-जान से संलग्न रहता हैं कि उसे आपकी सेवा-पूजा, यहां तक कि दर्शन तक की फुरसत नहीं मिलती। इन दोनों में से श्रेष्ठ कौन है।

भगवान महावीर ने कहा, वह धन्यवाद का पात्र हैं जो मेरी आराधना-मेरी आज्ञा का पालन करके करता हैं और मेरी आज्ञा यही हैं कि उनकी सहायता करों, जिनको तुम्हारी सहायता की जरूरत हैं।

अज्ञानी जीव-अमृत में भी जहर खोज लेता हैं और मन्दिर में भी वासना खोज लेता हैं। वह मन्दिर में वीतराग प्रतिमा के दर्शन नहीं करता, इधर-उधर ध्यान भटकाता हैं और पाप का बंधन कर लेता हैं। पता हैं  चील कितनी ऊपर उड़ती हैं ? बहुत ऊपर उड़ती हैं, लेकिन उसकी नजर चांद तारों पर नहीं, जमीन पर पड़े, घूरे में पड़े  हुए मृत चूहे पर होती हैं।

यहीं स्थिति अज्ञानी मिथ्या दृष्टि जीव की हैं। वह भी बातें तो बड़ी-बड़ी करता हैं, सिद्वान्तों की विवेचना तो बड़े ही मन को हर लेने वाले शब्दों व लच्छेदार शैली में करता हैं, लेकिन उसकी नजर घुरे में पड़े हुए मांस पिण्ड पर होती हैं, वासना पर होती हैं और ज्ञानी सम्यकदृष्टि जीव भले ही दलदल में रहे, लेकिन अनुभव परमात्मा का करता हैं।

👉 आज का सद्चिंतन 30 July 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 July 2019


👉 शपथ पूर्वक सृजन यात्रा:-

अब हम सर्वनाश के किनारे पर बिलकुल आ खड़े हुए हैं। कुमार्ग पर जितने चल लिए उतना ही पर्याप्त है। अगले कुछ ही कदम हमें एक दूसरे का रक्तपान करने वाले भेड़ियों के रूप में बदल देंगे। अनीति और अज्ञान से ओत-प्रोत समाज सामूहिक आत्महत्या कर बैठेगा। अब हमें पीछे लौटना होगा। सामूहिक आत्महत्या हमें अभीष्ट नहीं। नरक की आग में जलते रहना हमें अस्वीकार है। मानवता को निकृष्टता के कलंक से कलंकित बनी न रहने देंगे। पतन और विनाश हमारा लक्ष्य नहीं हो सकता।  दुर्बुद्धि एवं दुष्प्रवृत्तियों को सिंहासन पर विराजमान रहने देना सहन न करेंगे। अज्ञान और अविवेक की सत्ता शिरोधार्य किए रहना अब अशक्य है। हम इन परिस्थितियों को बदलेंगे, उन्हें बदलकर ही रहेंगे।
  
शपथपूर्वक परिवर्तन के पथ पर हम चले हैं और जब तक सामर्थ्य की एक बूँद भी शेष है, तब तक चलते ही रहेंगे। अविवेक को पदच्युत करेंगे। जब तक विवेक को मूर्धन्य न बना लेंगे, तब तक चैन न लेंगे। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की प्रकाश किरणें हर अंतःकरण तक पहुँचाएँगे और वासना और तृष्णा के निकृष्ट दलदल से मानवीय चेतना को विमुक्त करके रहेंगे। मानव समाज को सदा के लिए दुर्भाग्यग्रस्त नहीं रखा जा सकता। उसे महान आदर्शों के अनुरूप ढलने और बदलने के लिए बलपूर्वक घसीट ले चलेंगे। पाप और पतन का युग बदला जाना चाहिए। उसे बदल कर रहेंगे।
  
इसी धरती पर स्वर्ग का अवतरण और इसी मानव प्राणी में देवत्व का उदय हमें अभीष्ट है और इसके लिए भागीरथ तप करेंगे। ज्ञान की गंगा को भूलोक में लाया जाएगा और उसके पुण्य जल में स्नान कराके कोटि-कोटि नर-पशुओं को नर-नारायणों में परिवर्तित किया जाएगा। इसी महान शपथ और व्रत को ज्ञानयज्ञ के रूप में परिवर्तित किया गया है। विचारक्रान्ति की आग में गंदगी का कूड़ा-करकट जलाने के लिए होलिका-दहन जैसा अपना अभियान है। अनीति और अनौचित्य के गलित कुष्ठ से विश्वमानव का शरीर विमुक्त करेंगे। समग्र कायाकल्प का युग परिवर्तन का, लक्ष्य पूरा ही किया जाएगा। ज्ञानयज्ञ की चिनगारियाँ विश्व के कोने-कोने में प्रज्वलित होंगी। विचारक्रांति का ज्योतिर्मय प्रवाह जन-जन के मन को स्पर्श करेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, अक्टूबर १९६९, पृष्ठ ५७, ५८

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग 40)

👉 ज्योतिर्विज्ञान की अति महती भूमिका
ज्येातिष की उपयोगिता आध्यात्मिक चिकित्सा के लिए असंदिग्ध है। यदि आध्यात्मिक चिकित्सक की ज्योतिष का सही और समुचित ज्ञान है तो वह रोगी के जीवन का काफी कुछ आकलन कर सकता है। हालाँकि आज के दौर में ज्योतिष विद्या के बारे में अनेकों भ्रान्तियाँ फैली हैं। कई तरह की कुरीतियों, रूढ़ियों व मूढ़ताओं की कालिख ने इस महान विद्या को आच्छादित कर रखा है। यदि लोक प्रचलन एवं लोक मान्यताओं को दरकिनार कर इसके वास्तविक रूप के बारे में सोचा जाय तो इसकी उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता। यह व्यक्तित्व के परीक्षा की काफी कारगर तकनीक है। इसके द्वारा व्यक्ति की मौलिक क्षमताएँ, भावी सम्भावनाएँ आसानी से पता चल जाती हैं। साथ ही यह भी मालूम हो जाता है कि व्यक्ति के जीवन में कौन से घातक अवरोध उसकी राह रोकने वाले हैं अथवा प्रारब्ध के किन दुर्योगों को उसे किस समय सहने के लिए विवश होना है।
लेकिन इसके लिए इसके स्वरूप एवं प्रक्रिया के विषय को जानना जरूरी है।

आज का विज्ञान व वैज्ञानिकता इस सत्य को स्वीकारती है कि अखिल ब्रह्माण्ड ऊर्जा का भण्डार है। यह स्वीकारोक्ति यहाँ तक है कि आधुनिक भौतिक विज्ञानी पदार्थ के स्थान पर ऊर्जा तरंगों के अस्तित्व को स्वीकारते हैं। उनके अनुसार पदार्थ तो बस दिखने वाला धोखा है, यथार्थ सत्य तो ऊर्जा ही है। इस सृष्टि में कोई भी वस्तु हो या फिर प्राणि- वनस्पति, वह जन्मने के पूर्व भी ऊर्जा था और मरने के बाद भी ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तरंगों का एक हिस्सा बन जायेगा। विज्ञानविद् एवं अध्यात्मवेत्ता दोनों ही इस सत्य को स्वीकारते हैं कि ब्रह्माण्डव्यापी इस ऊर्जा के अनेकों तल- स्तर एवं स्थितियाँ हैं जो निरन्तर परिवॢतत होती रहती हैं। इनमें यह परिवर्तन ही सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं लय का कारण है।

हालाँकि यह परिवर्तन क्यों होता है- इस बारे में वैज्ञानिकों एवं अध्यात्मविदों में सैद्धान्तिक असहमति है। वैज्ञानिक दृष्टि जहाँ इस परिवर्तन के मूल कारण मात्र सांयोगिक प्रक्रिया मानकर मौन धारण कर लेती है। वहीं आध्यात्मिक दृष्टिकोण इसे ब्राह्मीचेतना से उपजी सृष्टि प्रकिया की अनिवार्यता के रूप में समझता है। इसके अनुसार मनुष्य जैसे उच्चस्तरीय प्राणी की स्थिति में परिवर्तन उसके कर्मों, विचारों, भावों एवं संकल्प के अनुसार होता है। ज्योतिष विद्या का आधारभूत सब यही है। यद्यपि इस विद्या के विशेषज्ञ यह भी बताते हैं कि जीवन व्यापी परिवर्तन के इस क्रम में ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के विविध स्तर भी किसी न किसी प्रकार से मर्यादित होते हैं। ऊर्जा के इन विभिन्न स्तरों को ज्योतिष के विशेषज्ञों ने प्रतीकात्मक संकेतों में वर्गीकृत किया है। नवग्रह, बारह राशियाँ, सत्ताइस नक्षत्र इस क्रमिक वर्गीकरण का ही रूप है। प्रतीक कथाओं, उपभागों एवं रूपकों में इनके बारे में कुछ भी क्यों न कहा गया हो, पर यथार्थ में ये ब्रह्माण्डीय ऊर्जा धाराओं के ही विविध स्तर व स्थितियाँ हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 58

👉 success.

Don’t aim at success. The more you aim at it and make it a target, the more you are going to miss it. For success, like happiness, cannot be pursued; it must ensue, and it only does so as the unintended side effect of one’s personal dedication to a cause greater than oneself or as the by-product of one’s surrender to a person other than oneself. Happiness must happen, and the same holds for success: you have to let it happen by not caring about it. I want you to listen to what your conscience commands you to do and go on to carry it out to the best of your knowledge. Then you will live to see that in the long-run—in the long-run, I say!—success will follow you precisely because you had forgotten to think about it

Viktor E. Frankl

👉 भावनाओं से संचालित जीवनधारा

शरीर और उसकी गतिविधियों के संबंध में सामान्य रूप से हमारी स्थिति ऐसी रहती है, जैसी बच्चों के प्यारे मामाजी की। जिन्होंने अपनी ऐनक आँखों पर चढ़ा रखी है और सारे घर में ऐनक को ढूँढ़ने के लिए उलट-पुलट कर रहे हैं। भन्नाये हुए मामाजी जब बच्चों से ऐनक का पता पूछते हैं, तो बच्चे भी उनकी इस अनभिज्ञता का खूब आनंद लेकर खिलखिलाते हैं। आँखों पर चश्मा चढ़ा है और दुनिया में ढूँढ़ा जा रहा है।
  
अध्यात्मवेत्ताओं ने लगभग यही स्थिति सामान्य लोगों के संबंध में पायी है। ज्ञान और विभूतियों का अथाह सागर मानवीय काया में भरा हुआ है और मनुष्य दर-दर की ठोकरें खा रहा है। पदार्थों में सुख, शांति, संतोष खोजता फिरता अभावग्रस्त जीवन जी रहा है।
  
शरीर गतिशील रहता है, बुद्धि निर्णय लेकर उसकी दिशा निर्धारित करती है, किन्तु वास्तविकता तो यह है कि यह निर्णय मानवीय अंतराल की गहराइयों में छिपी भावनाओं के अनुरूप होते हैं। शराबी की बुद्धि नशा किये जाने के विरुद्ध लाख तर्क प्रस्तुत करे या अन्यों के तर्कों से प्रभावित हो, किन्तु अंतः में समायी कुसंस्कार जनित भावना उसके कदम मदिरालय तक खींच ले जाती है। यदि कहा जाये कि व्यक्ति की जीवन धारा भावनाओं पर ही आधारित है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिन मूलभूत भावनाओं पर जीवन सत्ता का आधिपत्य है, वे हैं-
  
पहली शारीरिक प्रवृत्ति सहकारिता- शरीर का प्रत्येक कोश अपने आप में पूर्ण है। यदि उपयुक्त सेल कल्चर में रखा जाये, तो प्रत्येक कोश अमीबा की तरह अपना स्वाभाविक जीवन व्यतीत कर सकता है। फिर भी सभी कोश सहकारिता का परिचय देते हुए अपने आपको विभिन्न ऊतकों, अवयवों एवं संस्थानों में गठित कर लेते हैं।
  
दूसरी प्रवृत्ति संघर्ष की है। जीवकोशों में रसायन, हारमोन्स, विटामिन आदि का सुनिश्चित परिणाम है। यदि विजातीय तत्त्व इस संतुलन को बिगाड़ते हैं,तो सेल मेम्ब्रेन में पाये जाने वाले एन्जाइम निरंतर उन तत्त्वों से जूझते रहते हैं।      जीवन साधना का एक बड़ा  साधन संघर्ष है, जिसके द्वारा अपनी इंद्रियों एवं भावनाओं को नियंत्रित किया जाता है।
  
सामंजस्य  की सुंदर प्रवृत्ति शारीरिक गतिविधियों में देखी जाती है। रक्त किसी कारण से शरीर से बीस  प्रतिशत तक निकल भी जाये, तो रक्त आयतन यथावत् बना रहता है। लगभग दस घण्टे के भीतर उसकी पूर्ति मज्जा कोशों द्वारा कर दी जाती है। एक गुर्दा या एक फेफड़ा किसी कारणवश निकाल भी दिया जाये, तो दूसरा दोनों की पूरी व्यवस्था सँभाल लेता है। दुर्गंध पाते ही श्वास नलियाँ सिकुड़ जाती हैं व खाँसी आने लगती है।
  
अंग-अवयवों की सतत सक्रियता उसकी पराक्रम भावना पर आधारित है। पराक्रम का घटना रोग है तथा रुकना मृत्यु, चाहे वह कोशिका संबंधी हो, अंग अवयव या जीवन संबंधी। निरंतर सक्रियता बनाये रखे बिना निर्बाध जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। भौतिक जीवन में आलस्य, प्रमाद व मानसिक थकान अनुभव करना एक तरह से पराक्रम भावना का घटना है।
  
शरीर की प्रत्यावर्तन  की भावना शरीर को नित नूतनता प्रदान करती है। अस्थियों में जमे कैल्शियम का तो क्त्त् प्रतिशत भाग हर साल नया हो जाता है। रक्तकण एवं शरीर के प्रत्येक कोश की आयु अल्प होती है। नये कोशों का निर्माण एवं पुराने कोशों के अवसान का क्रम चलता रहता है। अस्सी दिनों में शरीर की प्रायः सारी चमड़ी नई हो जाती है।
  
नियमित अनुशासन  बने रहना जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। हृदय को ही लें, उसकी सामान्य धड़कन गति स्त्र0  से त्त्0 बार प्रति मिनट है। यदि यह ताल रहित  हो जाये, तो व्यक्ति कार्डियक फेल्योर की स्थिति में पहुँच जाता है।
  
स्रष्टा की सर्वोच्च कृति मानव शरीर है। उसकी गतिविधियाँ निर्वाह करने में समर्थ है। इनको पोषण देकर परिवार, समाज एवं विश्व व्यवस्था तक फैलाया जा सके, तो स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की सरंचना असंभव नहीं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

सोमवार, 29 जुलाई 2019

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग 39)

👉 चिकित्सक का व्यक्तित्व तपःपूत होता है

अंगुलीमाल क्रूर व निर्मम दस्यु था। उसके बारे में यह प्रचलित था कि वह मिलने वालों को मारकर उसकी तर्जनी अंगुली काट लेता है। ऐसी अनगिनत अंगुलियों को काट कर उसने माला बना रखी थी। सेनाएँ उससे डरती थीं। स्वयं कोशल नरेश प्रसेनजित उससे भय खाते थे। उसकी निर्ममता- क्रूरता एवं हत्यारे होने के सम्बन्ध में अनेकों लोक कथाएँ जन- जन में कही- सुनी जाती थी। लेकिन जब इन किवदन्तियों को बुद्ध ने सुना तो उन्हें अंगुलीमाल में एक हत्यारे के स्थान पर मनोरोगी नजर आया। भगवान् तथागत ने सम्पूर्ण तत्परता के साथ उसकी स्थिति का ऑकलन कर लिया। उन्होंने सोचा अंगुलीमाल की यह दशा किन्हीं क्रियाओं की प्रतिक्रिया है। न जाने कितनों ने कितनी बार उसकी भावनाओं को आहत किया होगा। कितनी बार उसका दिल दुखा होगा। कितनी बार उसकी संवेदनाएँ कुचली, मसली और रौंदी गयी होगी। अंगुलीमाल का वह दर्द जिसे अब तक कोई महसूस न कर सका, भगवान् बुद्ध ने पलक झपकते इसे अपने प्राणों में अनुभव कर लिया।

अंगुलीमाल की पीड़ा उनके अपने प्राणों की पीर बन गयी और वह चल पड़े। वन में उन्हें देखते ही अंगुलीमाल ने अपना गंडासा उठाया, पर बुद्ध खड़े रहे। उनकी आँखों से करूणा झलकती रही। अंगुलीमाल उन्हें डांटता, डपटता, धमकाता रहा, बुद्ध उसे सुनते- सहते रहे। अन्त में जब वह चुप हो गया तो उन्होंने कहा- वत्स तुमको सबने बहुत सताया है। अनगिन लोगों ने अनगिन बार तुम्हारी भावनाओं को चोट पहुँचाई है। मैं तुम्हारे दर्द को बांटने आया हूँ। करूणा से सने ऐसे स्वरों को अंगुलीमाल ने कभी न सुना था। उसने तो सिर्फ घृणा, उपेक्षा एवं अपमान के दंश झेले थे, पर बुद्ध के स्वरों में तो मां की ममता छलक रही थी। उनके ज्योतिपूर्ण नेत्रों से तो उसके लिए सिर्फ प्रेम छलक रहा था।
पल भर में उस दस्यु कहे जाने वाले पीड़ित मानव के आवरण गिर गए। उसका व्यक्तित्व भगवान् तथागत की करूणा से स्नात हो गया।

एक क्षण में अनेकों चमत्कार घटित हो गए। अनास्था आस्था में बदली, अविश्वास विश्वास में, अश्रद्धा श्रद्धा में बदली तो द्वेष मित्रता में और घृणा प्रेम में परिवर्तित हो गयी। दस्यु का व्यक्तित्व भिक्षु के व्यक्तित्व में रूपान्तरित हो गया। लेकिन इस रूपान्तरण का स्रोत आध्यात्मिक चिकित्सक के रूप में बुद्ध का व्यक्तित्व था। जिन्होंने उस मानसिक रोगी के अन्तर्मन को अपनी पवित्रता एवं प्रामाणिकता के धागों से जोड़ लिया था। बाद में विज्ञजनों ने कहा कि वह क्षण ही विशेष था, जिसे भगवान् ने अंगुलीमाल के रूपान्तरण के लिए चुना था। यही कारण है कि यह भी सच है कि आध्यात्मिक चिकित्सा की सफलता के लिए कोई ज्योतिष की उपादेयता को नकार नहीं सकता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 56

शनिवार, 27 जुलाई 2019

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग 38)

👉 चिकित्सक का व्यक्तित्व तपःपूत होता है

इस दृढ़ता के लिए चिकित्सक में संवेदनशीलता के साथ सहिष्णुता भी जरूरी है। वैसे तो यह अनुभूत सच है कि संवदनशीलता, सहिष्णुता, सहनशीलता को विकसित करती है। फिर भी इसके विकास पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। क्योंकि रोगी अवस्था में व्यक्ति शारीरिक रूप से असहाय होने के साथ मानसिक रूप से चिड़चिड़ा हो जाता है। उसमें व्यावहारिक असामान्यताओं का पनपना सामान्य बात है। यदा- कदा तो ये व्यावहारिक असामान्यताएँ इतनी अधिक असहनीय होती हैं, जिन्हें उसके सगे स्वजन भी नहीं सहन कर पाते। उनकी भी यही कोशिश होती है कि अपने इस रोगी परिजन को किसी चिकित्सक के पल्ले बांधकर अपना पीछा छुड़ा लें। ऐसे में चिकित्सक की सहनशीलता उसकी चिकित्सा विधियों को असरदार एवं कारगर बना सकती है।

यूं तो सम्बन्धों का स्वरूप कोई भी हो, पर सम्बन्ध सूत्र हमेशा ही कोमल- नाजुक होते हैं। पर चिकित्सक एवं रोगी के सम्बन्ध सूत्रों की कोमलता व नाजुकता कुछ ज्यादा ही बढ़ी- चढ़ी होती है। थोड़ा सा भी आघात इन्हें हमेशा के लिए तहस- नहस कर सकता है। ऐसे में चिकित्सक को विशेष सावधान होना जरूरी है। क्योंकि रोगी के विगत अनुभवों की कड़वाहट उसे अपनी चिकित्सा साधना से धोनी होती है। कई बार रोगी के पिछले अनुभव अति दुःखद होते हैं। इनकी पीड़ा उसे हमेशा सालती रहती है। विगत में मिले हुए अपमान, लांछन, कलंक, धोखे, अविश्वास को वह भूल नहीं पाता। यहाँ तक कि उसका सम्बन्धों एवं अपनेपन से भरोसा उठ चुका होता है। ऐसी स्थिति में वह चिकित्सक को भी अविश्वसनीय नजरों से देखता है। उसे भी बेइमान व धोखेबाज समझता है। बात- बात पर उस पर चिड़चिड़ाता व गाली बकता है। उसकी इस मनोदशा को सुधारना व संवारना चिकित्सक का काम है। संवेदनशील सहनशीलता का अवरिाम प्रवाह ही यह चमत्कार कर सकता है।

स्थिति जो भी हो रोगी कुछ भी कहे या करे, उसके प्रत्येक आचरण को भुलाकर उसकी चिकित्सा करना चिकित्सक का धर्म है, उसका कर्तव्य है। आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए तो उसकी अनिवार्यता और भी बढ़ी- चढ़ी है। सच्चा आध्यात्मिक चिकित्सक वही है जो रोगी की अनास्था को आस्था में, अविश्वास को विश्वास में, अश्रद्धा को श्रद्धा में, द्वेष को मित्रता में, घृणा को प्रेम में बदल दे। इसी को उसके तपस्वी व्यक्तित्व एवं आध्यात्मिक रूप से ऊर्जावान होने का प्रमाण माना जा सकता है। हर युग में आध्यात्मिक चिकित्सा वही करते रहे हैं। महाप्रभु चैतन्य ने जघाई- मघाई के साथ यही किया था। योगी गोरखनाथ ने दस्यु दुर्दम के साथ यही चमत्कार किया था। स्वयं युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव ने हजारों रोगियों की इसी विधि से चिकित्सा की। डाकू अंगुलीमाल की महात्मा बुद्ध के द्वारा की गयी आध्यात्मिक चिकित्सा को सभी जानते हैं। यह सत्य कथा आज भी किसी आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए आदर्श है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 55

👉 आज का सद्चिंतन 27 July 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 27 July 2019

शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

👉 अंकुरित

एक बच्चे को आम का पेड़ बहुत पसंद था। जब भी फुर्सत मिलती वो आम के पेड के पास पहुच जाता। पेड के उपर चढ़ता, आम खाता, खेलता और थक जाने पर उसी की छाया मे सो जाता। उस बच्चे और आम के पेड के बीच एक अनोखा रिश्ता बन गया।

बच्चा जैसे-जैसे बडा होता गया वैसे-वैसे उसने पेड के पास आना कम कर दिया। कुछ समय बाद तो बिल्कुल ही बंद हो गया। आम का पेड उस बालक को याद करके अकेला रोता। एक दिन अचानक पेड ने उस बच्चे को अपनी तरफ आते देखा और पास आने पर कहा, "तू कहां चला गया था? मै रोज तुम्हे याद किया करता था। चलो आज फिर से दोनो खेलते है।"

बच्चे ने आम के पेड से कहा, "अब मेरी खेलने की उम्र नही है मुझे पढना है,लेकिन मेरे पास फीस भरने के पैसे नही है।"

पेड ने कहा, "तू मेरे आम लेकर बाजार मे बेच दे, इससे जो पैसे मिले अपनी फीस भर देना।"

उस बच्चे ने आम के पेड से सारे आम तोड़ लिए और उन सब आमो को लेकर वहा से चला गया। उसके बाद फिर कभी दिखाई नही दिया। आम का पेड उसकी राह देखता रहता।

एक दिन वो फिर आया और कहने लगा, "अब मुझे नौकरी मिल गई है, मेरी शादी हो चुकी है, मुझे मेरा अपना घर बनाना है,इसके लिए मेरे पास अब पैसे नही है।"

आम के पेड ने कहा, "तू मेरी सभी डाली को काट कर ले जा,उससे अपना घर बना ले।" उस जवान ने पेड की सभी डाली काट ली और ले के चला गया।

आम के पेड के पास अब कुछ नहीं था वो अब बिल्कुल बंजर हो गया था।

कोई उसे देखता भी नहीं था। पेड ने भी अब वो बालक/जवान उसके पास फिर आयेगा यह उम्मीद छोड दी थी।

फिर एक दिन अचानक वहाँ एक बुढा आदमी आया। उसने आम के पेड से कहा, "शायद आपने मुझे नही पहचाना, मैं वही बालक हूं जो बार-बार आपके पास आता और आप हमेशा अपने टुकड़े काटकर भी मेरी मदद करते थे।"

आम के पेड ने दु:ख के साथ कहा, "पर बेटा मेरे पास अब ऐसा कुछ भी नही जो मै तुम्हे दे सकु।"

वृद्ध ने आंखो मे आंसु लिए कहा, "आज मै आपसे कुछ लेने नही आया हूं बल्कि आज तो मुझे आपके साथ जी भरके खेलना है, आपकी गोद मे सर रखकर सो जाना है।"

इतना कहकर वो आम के पेड से लिपट गया और आम के पेड की सुखी हुई डाली फिर से अंकुरित हो उठी।

वो आम का पेड़ हमारे माता-पिता हैं।
जब छोटे थे उनके साथ खेलना अच्छा लगता था।
जैसे-जैसे बडे होते चले गये उनसे दुर होते गये।
पास भी तब आये जब कोई जरूरत पडी,
कोई समस्या खडी हुई।

आज कई माँ बाप उस बंजर पेड की तरह अपने बच्चों की राह देख रहे है।

जाकर उनसे लिपटे,
उनके गले लग जाये
फिर देखना वृद्धावस्था में उनका जीवन फिर से अंकुरित हो उठेगा।

👉 आज का सद्चिंतन 26 July 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 26 July 2019


👉 ज्ञान की मशाल का प्रयोजन:-

जनमानस का भावनात्मक नवनिर्माण करने के लिए जिस विचारक्रांति की मशाल इस ज्ञानयज्ञ के अंतर्गत जल रही है, उसके प्रकाश में अपने देश और समाज का आशाजनक उत्कर्ष सुनिश्चित है। स्वतंत्र चिंतन के अभाव ने हमें मूढ़ता और रूढ़िवादिता के गर्त में गिरा दिया। तर्क का परित्याग कर हम भेड़ियाधसान-अंधविश्वास के दलदल में फँसते चले गए। विवेक छोड़ा तो उचित-अनुचित का ज्ञान ही न रहा। गुण-दोष विवेचन की, नीर-क्षीर विश्लेषण की प्रज्ञा नष्ट हो जाए तो फिर अँधेरे में ही भटकना पड़ेगा।

हम ऐसी ही दुर्दशाग्रस्त विपन्नता में पिछले दो हजार वर्ष से जकड़ गए हैं। मानसिक दासता ने हमें हर क्षेत्र में दीन-हीन और निराश निरुपाय बनाकर रख दिया है। इस स्थिति को बदले बिना कल्याण का और कोई मार्ग नहीं। मानसिक मूढ़ता में ग्रसित समाज के लिए उद्धार के सभी द्वार बंद रहते हैं। प्रगति का प्रारंभ स्वतंत्र चिंतन से होता है। लाभ में विवेकवान रहते हैं। समृद्धि साहसी के पीछे चलती है। इन्हीं सत्प्रवृत्तियों का जनमानस में बीजारोपण और अभिवर्द्धन करना अपनी विचारक्रांति का एकमात्र उद्देश्य है। ज्ञान की मशाल इसी दृष्टि से प्रज्वलित की गई है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, सितंबर १९६९, पृष्ठ-५९, ६०

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग 37)

👉 चिकित्सक का व्यक्तित्व तपःपूत होता है

चिकित्सक और रोगी के सम्बन्ध पवित्रता एवं प्रामाणिकता के तन्तुओं से बुने होते हैं। चिकित्सा की प्रणाली चाहे कोई हो अथवा फिर रोगी की प्रकृति किसी तरह की हो, सम्बन्धों का आधार यही होता है। हां आध्यात्मिक चिकित्सा के क्षेत्र में यह पवित्रता व प्रामाणिकता अपेक्षाकृत शत- सहस्रगुणित सघन हो जाती है। क्योंकि आध्यात्मिक चिकित्सा में चिकित्सक का व्यक्तित्व तप साधना की ऊर्जा तरंगों से ही विनिर्मित होता है। और तप की परिभाषा व तपस्वी होने का पर्याय ही पवित्रता है। व्यक्तित्व में पवित्रता जितनी बढ़ती है, आध्यात्मिक पात्रता उतनी ही विकसित होती है। इसी के अनुपात में व्यक्ति की प्रामाणिकता भी बढ़ती जाती है। यही वे तत्त्व हैं जो रोगी को अपने चिकित्सक के प्रति आस्थावान बनाते हैं।

वैसे भी इन सम्बन्धों को निभाने की, गरिमापूर्ण बनाने की ज्यादा जिम्मेदारी चिकित्सक की होती है। वैसे भी रोगी तो रोगी ठहरा। उसका जीवन तो अनेकों शारीरिक- मानसिक दुर्बलताओं से ग्रसित होता है। ये दुर्बलताएँ एवं कमजोरियाँ ही तो उसे रोगी बनाती हैं। उसके अटपटे आचरण को क्षमा के योग्य माना जा सकता है। किन्तु चिकित्सक की कोई भी कमी- कमजोरी सदा अक्षम्य होती है। उसे अपनी किसी भूल के लिए कभी क्षमा नहीं किया जा सकता। यही वजह है कि चिकित्सक को अपनी पवित्रता व प्रामाणिकता सदा कसौटी पर कसते हुए खरा साबित करते रहना चाहिए। उसमें तनिक सा खोटापन असहनीय है। इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

चिकित्सक के संवेदन सूत्रों से रोगी का जुड़ाव होता है। उसकी संवेदना पर भरोसा करके ही रोगी अपनी परेशानी कहने- बताने की हिम्मत जुटा पाता है। इस संसार में सबसे ज्यादा कमी अपनेपन की है। रोगी के जो अपने सम्बन्ध है, जरूरी नहीं कि वहाँ वह अपनी व्यथा कह पाता हो। क्योंकि अपने और अपनों का खोखलापन जगविदित है। कभी- कभी तो सम्बन्धों का यह खोखलापन खालीपन ही उसके रोग का कारण होता है। अपनी वे बातें जो रोगी कहीं नहीं कह सका, वे दुःख- दर्द जिन्हें किसी से नहीं बाँट सका, व्यथा की वह कहानी जो अनकही रह गयी केवल अपने चिकित्सक को बताना- सुनाना चाहता है। चिकित्सक की संवेदना के बलबूते ही वह ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाता है। रोगी के लिए चिकित्सक से अधिक उसका अपना कोई नहीं होता। इसलिए चिकित्सक का कर्तव्य है कि वह सम्बन्ध सूत्रों की दृढ़ता को बनाए रखे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 54

👉 Happiness lies in contentment.

On a hot summer day a traveler stopped under a shady tree and lay down on the bare ground to rest for a while. Looking up at the sky, he wished he could be lying on a comfortable bed.

He did not know that he was lying under a magical tree that made every thought come true.

Lo! In no time a bed appeared and he was lying on it. ‘This is perfect,’ the traveler thought. “Now all I need is a maiden to give me company in this lonely place.’ Poof! A beautiful young maiden immediately appeared before him. She sat next to him, fanning him for his pleasure. ‘Wow!’ the traveler exclaimed, enjoying the cool breeze. ‘The only thing that could make things any better would be to have some food and drink to enjoy with my lovely companion here.”

As soon as he thought this, a wonderful feast lay before him. The maiden served him the food and drink. Lying in bed eating grapes the maiden served him, the traveler thought, ‘This is the peak of happiness! Wouldn’t it just be awful if it all disappeared and a tiger were to attack me instead?’

As soon as had he thought this, everything disappeared, and the scene was replaced by a ferocious tiger. The man scurried up the tree, thinking to himself - ‘If only I had been content with just the shade of this tree, I wouldn’t be at the mercy of this beast!’

👉 आत्मिक प्रगति की दिशाधारा

शरीर से कोई महत्त्वपूर्ण काम लेना हो तो उसके लिए उसे प्रयत्नपूर्वक साधना पड़ता है। कृषि, व्यवसाय, शिल्प, कला विज्ञान, खेल आदि के जो भी कार्य शरीर से कराने हैं उनके लिए उसे अभ्यस्त एवं क्रिया-कुशल बनाने के लिए आवश्यक ट्रेनिंग देनी पड़ती है। लुहार, सुनार, दर्जी, बुनकर, मूर्तिकार आदि काम करने वाले अपने शिष्यों को बहुत समय तक सीखते हैं, तब उनके हाथ उपयुक्त प्रयोजन के लिए ठीक प्रकार सधते हैं। पत्रकार, गायक, चित्रकार, अभिनेता, पहलवान आदि को अपने-अपने कार्यों को ठीक तरह कर सकने की देर तक शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है। अस्तु शरीर को अभिष्ट कार्यों के लिए प्रशिक्षित करने की आवश्यकता सर्वत्र समझी जाती है और उसके लिए साधन भी जुटाए जाते हैं।
  
शिक्षा का दूसरा क्षेत्र है- मस्तिष्क। मस्तिष्क का ही शरीर पर नियंत्रण है। जीवन की समस्त दिशा धाराओं को प्रवाह देना मस्तिष्क का ही काम है। ‘बुद्धिर्यस्य बलं निबुर्द्धियस्य कुतोबलम्’ सूक्ति में कहा है- जिसमें बुद्धि है, उसी में बल है। बुद्धिहीन तो सदा दुर्बल ही रहता है। प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? हाथी को गधे जैसा लदते और सिंह तथा बन्दर को समान रूप से नाचते देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि दुर्बल काय मनुष्य अपने बुद्धिबल से किस प्रकार सृष्टि के समस्त प्राणियों पर शासन कर रहे हैं। इस शासन के अन्तर्गत वे जीव भी आते हैं, जो शारीरिक प्रतियोगिता में मनुष्य को हजार बार पछाड़ सकते हैं।
  
मस्तिष्कीय शिक्षण के लिए ज्ञान और अनुभव को सम्पादित करना पड़ता है। जानकारी और अभ्यास इसके लिए आवश्यक होती है। इसका बहुत कुछ प्रयोजन स्कूली शिक्षा, सत्साहित्य, सत्संग, मनन, चिन्तन आदि के सहारे पूरा होता है। मस्तिष्कीय क्षमता विकास की उपयोगिता भी सर्वविदित है।  इसलिए अपनी-अपनी परिस्थिति के अनुसार स्कूली अथवा दूसरी प्रकार की शिक्षा पद्धति अपनायी जाती है और जानकारी, समझदारी बढ़ाने के लिए यथासम्भव प्रयत्न किया जाता है। शिक्षा का दूसरा चरण जानकारी की कमी को पूरा करना है। इससे विचार शक्ति बढ़ती है, बुद्धि तीक्ष्ण होती है और व्यवहार में कुशलता आती है। बौद्धिक विकास के लिए शिक्षापरक जो भी उपाय किए जाते हैं, वे सभी सराहनीय हैं। शारीरिक कुशलता की ही तरह मस्तिष्कीय विकास भी आवश्यक है। अस्तु शिक्षा के इन दोनों क्षेत्रों में अधिकाधिक समावेश करने के प्रयत्नों की प्रशंसा ही की जायेगी।
  
शिक्षा का प्रवेश प्रायः शरीर एवं मस्तिष्क तक ही सीमित रहता है, अन्तःकरण का स्तर बदलने में तथाकथित ज्ञान सम्पादन की कोई विशेष उपयोगिता सिद्ध नहीं होती। यदि मस्तिष्कीय शिक्षण से आस्थाएँ बदली जा सकतीं, तो समाज के प्रथम पंक्ति के लोग सच्चे अर्थों में देशभक्त होता- हर अधिकारी, कर्मचारी लोकसेवा में उसी निष्ठापूर्वक संलग्न रहता जैसा कि उसे ट्रेनिंग की पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाया गया था। तब धर्मोपदेशक नीति और सदाचार का ही आदर्श प्रस्तुत करते दिखाई पड़ते।
  
अब प्रश्न उठता है कि व्यक्तिगत को सच्चे अर्थों में सुसंस्कृत और समुन्नत बनाने के लिए क्या किया जाय? इसके उत्तर में एक ही तथ्य सामने आता है कि आस्थाओं के सहारे आस्थाओं को उभारा जाय। जंगली हाथी पकड़ने में प्रशिक्षित हाथियों का उपयोग होता है। काँटे से काँटा निकालने और विष से विष को मारने की कहावत प्रसिद्ध है। लोहे को लोहे से काटा जाता है। डूबे को पानी में से निकालने के लिए स्वयं डुबकी लगानी पड़ती है। अन्तःकरण के आस्था क्षेत्र को कुसंस्कारों से मुक्त करने के लिए सदुद्देश्यपूर्ण आस्थाओं की नये सिरे से प्रतिष्ठापना करनी पड़ती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

गुरुवार, 25 जुलाई 2019

👉 प्याले में समुद्र:-

यूनानी दार्शनिक सुकरात समंदर के किनारे टहल रहे थे। उनकी नजर रेत पर बैठे एक अबोध बालक पर पड़ी, जो रो रहा था। सुकरात ने रोते हुए बालक का सिर सहलाते हुए उससे रोने का कारण पूछा। बालक ने कहा, ‘यह जो मेरे हाथ में प्याला है, इसमें मैं समुद्र के सारे पानी को भरना चाहता हूं, किंतु यह मेरे प्याले में समाता ही नहीं।’ बालक की बात सुनकर सुकरात की आंखों में आंसू आ गए।

सुकरात को रोता देख, रोता हुआ बालक शांत हो गया और चकित होकर पूछने लगा, ‘आप भी मेरी तरह रोने लगे, पर आपका प्याला कहां है?’ सुकरात ने जवाब दिया, ‘बच्चे, तू छोटे से प्याले में समुद्र भरना चाहता है, और मैं अपनी छोटी सी बुद्धि में संसार की तमाम जानकारियां भरना चाहता हूं।’ बालक को सुकरात की बातें कितनी समझ में आईं यह तो पता नहीं, लेकिन दो पल असमंजस में रहने के बाद उसने अपना प्याला समंदर में फेंक दिया और बोला, ‘सागर यदि तू मेरे प्याले में नहीं समा सकता, तो मेरा प्याला तो तेरे में समा सकता है।’

बच्चे की इस हरकत ने सुकरात की आंखें खोल दीं। उन्हें एक कीमती सूत्र हाथ लग गया था। सुकरात ने दोनों हाथ आकाश की ओर उठाकर कहा, ‘हे परमेश्वर, आपका असीम ज्ञान व आपका विराट अस्तित्व तो मेरी बुद्धि में नहीं समा सकता, किंतु मैं अपने संपूर्ण अस्तित्व के साथ आपमें जरूर लीन हो सकता हूं।’

दरअसल, सुकरात को परमात्मा ने बालक के माध्यम से ज्ञान दे दिया। जिस सुकरात से मिलने के लिए बड़े-बड़े विद्वानों को समय लेना पड़ता था, उसे एक अबोध बालक ने परमात्मा का मार्ग बता दिया था। असलियत में परमात्मा जब आपको अपनी शरण में लेता है, यानि जब आप ईश्वर की कृपादृष्टि के पात्र बनते हैं तो उसकी एक खास पहचान यह है कि आपके अंदर का ‘मैं’ मिट जाता है। आपका अहंकार ईश्वर के अस्तित्व में विलीन हो जाता है।

‘मैं-पन’ का भाव छूटते ही हमारे समस्त प्रकार के पूर्वाग्रह, अपराधबोध, तनाव, व्यग्रता और विकृतियों का ईश्वरीय चेतना में रूपांतरण हो जाता है। दरअसल, हरेक व्यक्ति को कई बार अपने जीवन में परमात्मा की अनुभूति होती है। जितना हमारा जीवन सहज-सरल, व पावन-पवित्र होता जाता है, उतना ही परमात्मा प्रसाद-स्वरूप हमारे जीवन में समाहित होता जाता है।

👉 आज का सद्चिंतन 25 July 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 25 July 2019


👉 काया से नहीं, प्राणों से प्यार करें:-

जो हमें प्यार करता हो, उसे हमारे मिशन से भी प्यार करना चाहिए। जो हमारे मिशन की उपेक्षा, तिरस्कार करता है लगता है वह हमें ही उपेक्षित-तिरस्कृत कर रहा है। व्यक्तिगत रूप से कोई हमारी कितनी ही उपेक्षा करे, पर यदि हमारे मिशन के प्रति श्रद्धावान् है, उसके लिए कुछ करता, सोचता है तो लगता है मानो हमारे ऊपर अमृत बिखेर रहा है और चंदन लेप रहा है। किंतु यदि केवल हमारे व्यक्तित्त्व के प्रति ही श्रद्धा है, शरीर से ही मोह है, उसी की प्रशस्ति पूजा की जाती है और मिशन की बात उठाकर ताक पर रख दी जाती है तो लगता है हमारे प्राण का तिरस्कार करते हुए केवल शरीर पर पंखा ढुलाया जा रहा हो।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, अगस्त १९६९, पृष्ठ ९, १०

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग 36)

👉 आध्यात्मिक निदान- पंचक

आध्यात्मिक चिकित्सक के रूप में परम पूज्य गुरुदेव इन सभी प्रक्रियाओं में निष्णात व मर्मज्ञ थे। आध्यात्मिक निदान पंचक में उनकी विशेषज्ञता का पास रहने वालों को नित्यप्रति अनुभव होता था। यूं तो इस तरह के अनुभव एवं घटनाएँ तो हजारों हैं, पर यहाँ केवल एक घटना का उल्लेख किया जा रहा है। यह घटना एक ऐसे व्यक्ति से सम्बन्धित है जो गुरुदेव से वर्षों से जुड़ा हुआ था। वर्षों के सान्निध्य के बाजवूद उसका घर- परिवार रोग- शोक से घिरा था। आर्थिक स्थिति भी विपन्न थी। जब भी वह गुरुदेव के पास आता, अपनी परेशानी कहते हुए रोने लगता। गुरुदेव भी उसके दुःख से द्रवित हो जाते। कभी- कभी तो उनके आँसू भी छलक आते। यह भी कहते तुम परेशान न हो बेटा मैं तुम्हारे लिए प्रयास कर रहा हूँ। पर उनके इस कथन एवं आश्वासन के बावजूद उसके जीवन में कहीं कोई अच्छा होने के लक्षण नहीं नजर आ रहे थे।

हार- थक कर एक दिन वह प्रयाग चला गया। वहाँ कुम्भ मेला लगा हुआ था। अनेकों सन्त- महात्मा यहाँ आए हुए थे। एक स्थान पर देवरहा बाबा का भी मचान लगा हुआ था। परेशान तो वह था ही। इस परेशानी को ओढ़े हुए वह उनके पास गया। उसे देखकर पहले तो उन्होंने आशीर्वाद का हाथ उठाया। फिर स्वयं ही बोले- तुम्हारा नाम रामनारायण है, फतेहपुर के रहने वाले हो, शान्तिकुञ्ज के आचार्य जी के शिष्य हो। अच्छा मेरे पास आओ। और उन्होंने भीड़ में से उसे बुलाकर अपना चरण उसके माथे पर रखा और कहा तुम इतने हैरान क्यों हों, तुम्हारे ऊपर आचार्य जी की कृपा है। तुम नहीं जानते कि वह बिना कुछ कहे तुम्हारे लिए क्या कुछ कर रहे हैं।

यह कहते हुए वह थोड़ा रुके और बोले- तुम्हारे संस्कार, प्रारब्ध एवं पूर्वजन्म के कर्म भयावह हैं। अगर आचार्य जी की कृपा न होती तो तुम्हारा सभी कुछ तिनका- तिनका बिखर गया होता। न तुम बचते और न तुम्हारा परिवार। अब तक सब कुछ समाप्त हो चुका होता। आचार्य श्री दिव्य द्रष्टा हैं, वह सब कुछ जानते हैं और उचित उपाय कर रहे हैं। तुम सोचो कि तुम्हारे ऊपर उनका इतना स्नेह है कि अभी थोड़ी देर पहले वह सूक्ष्म रूप से हमारे पास आए थे, और उन्होंने कहा कि आप हमारे इस बच्चे को समझा दो कि उसका सब कुछ ठीक हो जाएगा। देवरहा बाबा की बातों ने सुनने वाले को अभिभूत कर दिया। समयानुसार शान्तिकुञ्ज आने पर उसने ये सारी बातें गुरुदेव को बतायी। सुनकर वह मुस्करा दिए। बस इतना बोले बेटा- तुम अभी मेरे अस्पताल में भरती हो। मैं एक अच्छे डाक्टर की तरह तुम्हारी देखभाल कर रहा हूँ। कुछ ही वर्षों बाद उसकी परिस्थितियाँ बदल गई। उसने चिकित्सक एवं रोगी के सम्बन्धों की पवित्र भावनाओं को अपने अन्तःकरण में महसूस किया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 53

👉 Amrit Chintan 25 July 2019

The lotus is the most beautiful flower, whose petals open one by one. But it will only grow in the mud. In order to grow and gain wisdom, first you must have the mud --- the obstacles of life and its suffering. ... The mud speaks of the common ground that humans share, no matter what our stations in life. ... Whether we have it all or we have nothing, we are all faced with the same obstacles: sadness, loss, illness, dying and death. If we are to strive as human beings to gain more wisdom, more kindness and more compassion, we must have the intention to grow as a lot, open each petal one by one.

Goldie Hawn

Man today is fascinated by the possibility of buying, more, better, and especially, new things. He is consumption hungry... To buy the latest gadget, the latest model of anything that is on the market, is the dream of everybody, in comparison to which the real pleasure in use is quite secondary. Modern man, if he dared to be articulate about his concept of heaven, would describe a vision which would look like the biggest department store in the world.

Erich Fromm

👉 आत्म विकास की सामान्य प्रक्रिया

कई व्यक्ति कम से कम समय में अधिक से अधिक बढ़-चढ़कर उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए आतुर होते और आकुल व्याकुल बनते देखे गए हैं। ऐसे लोगों के लिए बच्चों वाले बालू के महल और टहनियाँ गाड़कर बगीचा खड़ा करने जैसा कौतुक रचना पड़ता है या फिर बाजीगरों जैसा छद्म भरा कौतूहल दिखाकर अबोधजनों को चमत्कृत करना पड़ता है। आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करने का रूप धारा करने में नाटक कर्त्ता ही प्रवीण होते हैं। उन्हीं को मुखौटे लगाना, मेकअप करना और साजसज्जा से अलंकृत होना आता है। शालीनता के रहते बचकानी योजना बन नहीं सकती। कार्यान्वित होने का तो कभी अवसर ही नहीं आता। स्थाई निर्माणों में देर लगती हैं। स्नातक, इंजीनियर, डॉक्टर, पहलवान बनने में भी समय लगता है। जमीन से गढ़ा खजाना मिलने पर धनवान बनने वाले सुने तो जाते हैं, पर देखे नहीं गए। देवता के वरदान अथवा जादू मंत्र से किसी ने ऋद्धि-सिद्धि अर्जित नहीं की है। अंतराल को जगाने, दृष्टिकोण बदलने और गतिविधियों को सुनियोजित  आदर्शवादी बनाने-संकल्पों पर आरूढ़ रहने से ही इस स्तर का विकास हो सकता है, जिसमें बहुविधि सफलताओं के फल-फूल लगें। विभूतियों के चमत्कारी उभार उभरें।

अदूरदर्शी तत्काल सम्पन्नता व सफलता से भरे पूरे अवसर उपलब्ध करना चाहते हैं। प्रकृति क्रम से यह संभव नहीं। उसमें कर्म और फल के बीच अंतर अवधि रहने का विधान है। नौ महीने माँ के पेट में रहने के उपरांत ही भ्रूण इस स्थिति तक पहुँचता है कि प्रसवकाल की कठिनाई सह सके और नये वातावरण में रह सकने की जीवट से सज्जित हो सके। जो इन तथ्यों को अनदेखा करते हैं और अपनी हठवादिता को ही अपनाये रहते हैं। उन्हें इसकी पूर्ति के लिए छद्मों का सहारा लेना पड़ता है। किसी को प्रलोभन देकर या दबाव से विवश करके ही वाहवाही का पुलिंदा हथियायो जा सकता है। काँच के बने नगीने ही सस्ते बिकते हैं। असली हीरा खरीदना हो तो उसके लिए समूचित मूल्य जुटाया जाना चाहिए। फसल से घर भरने के लिए किसान जैसी तत्परता अपनाई जानी चाहिए और बोने से लेकर काटने तक की लम्बी अवधि में धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी चाहिए।

आत्मिक प्रगति के लिए दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण, सुसंस्कारों का अभिवर्धन हेतु दुहरा पुरुषार्थ अपनाया जाना चाहिए। इसका प्रथम चरण है- संयम, साधना और दूसरा- उदार संलगनता। इन दोनों के लिए आवश्यक श्रद्धा विश्वास अंतराल में पक सके, इसके लिए योगाभ्यास स्तर की तपश्चर्याओं का आश्रय लेना चाहिए। यों इस प्रकार के क्रिया कृत्यों विश्वास पर न रखने वाले व्यक्ति अपनी समूची क्रियाशीलता और सद्भावना उच्च स्तरीय क्रिया- कलापों में नियोजित करके समग्र जीवन को साधनामय बना सकते हैं।

आत्मिक विकास के लिए शरीर को स्वस्थ रखना परम आवश्यक है और शरीर को समुन्नत, समग्र, सुविकसित बनाने का सामान्य तरीका अत्यंत सरल और सामान्य है। शरीर स्वस्थता के लिए अकेला संयम भी अपना चमत्कार दिखाता है फिर अगर पौष्टिक भोजन और नियमित व्यायाम का सुयोग भी मिल जाय, तो समझना चाहिए सोना और सुगन्ध मिलने जैसी बात बन गई। वस्तुतः इन्द्रिय असंयम ही शरीर को रुग्णता और दुर्बलता के गर्त में गिराता है। मानसिक स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के लिए संतुलन अपने आपमें पूर्ण है। राग-द्वेष से आवेश, अवसाद से-लिप्सा, लालसा से-अहमन्यता और महत्त्वाकांक्षा से यदि अपने को बचाये रखा जा सके, तो कल्पना-शक्ति, विचार-शक्ति, निर्णय शक्ति न केवल सुरक्षित रहती है, वरन् बढ़ती भी रहती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

बुधवार, 24 जुलाई 2019

👉 "त्याग का फल"

"भैया, परसों नये मकान पे हवन है। छुट्टी (इतवार) का दिन है। आप सभी को आना है, मैं गाड़ी भेज दूँगा।" छोटे भाई लक्ष्मण ने बड़े भाई भरत से मोबाईल पर बात करते हुए कहा।

"क्या छोटे, किराये के किसी दूसरे मकान में शिफ्ट हो रहे हो?" " नहीं भैया, ये अपना मकान है, किराये का नहीं । " अपना मकान", भरपूर आश्चर्य के साथ भरत के मुँह से निकला। "छोटे तूने बताया भी नहीं कि तूने अपना मकान ले लिया है।" " बस भैया", कहते हुए लक्ष्मण ने फोन काट दिया।

"अपना मकान", " बस भैया " ये शब्द भरत के दिमाग़ में हथौड़े की तरह बज रहे थे।

भरत और लक्ष्मण दो सगे भाई और उन दोनों में उम्र का अंतर था करीब पन्द्रह साल। लक्ष्मण जब करीब सात साल का था तभी उनके माँ-बाप की एक दुर्घटना में मौत हो गयी। अब लक्ष्मण के पालन-पोषण की सारी जिम्मेदारी भरत पर थी। इस चक्कर में उसने जल्द ही शादी कर ली कि जिससे लक्ष्मण की देख-रेख ठीक से हो जाये।

प्राईवेट कम्पनी में क्लर्क का काम करते भरत की तनख़्वाह का बड़ा हिस्सा दो कमरे के किराये के मकान और लक्ष्मण की पढ़ाई व रहन-सहन में खर्च हो जाता। इस चक्कर में शादी के कई साल बाद तक भी भरत ने बच्चे पैदा नहीं किये। जितना बड़ा परिवार उतना ज्यादा खर्चा।

पढ़ाई पूरी होते ही लक्ष्मण की नौकरी एक अच्छी कम्पनी में लग गयी और फिर जल्द शादी भी हो गयी। बड़े भाई के साथ रहने की जगह कम पड़ने के कारण उसने एक दूसरा किराये का मकान ले लिया। वैसे भी अब भरत के पास भी दो बच्चे थे, लड़की बड़ी और लड़का छोटा।

मकान लेने की बात जब भरत ने अपनी बीबी को बताई तो उसकी आँखों में आँसू आ गये। वो बोली, " देवर जी के लिये हमने क्या नहीं किया। कभी अपने बच्चों को बढ़िया नहीं पहनाया। कभी घर में महँगी सब्जी या महँगे फल नहीं आये। दुःख इस बात का नहीं कि उन्होंने अपना मकान ले लिया, दुःख इस बात का है कि ये बात उन्होंने हम से छिपा के रखी।"

इतवार की सुबह लक्ष्मण द्वारा भेजी गाड़ी, भरत के परिवार को लेकर एक सुन्दर से मकान के आगे खड़ी हो गयी। मकान को देखकर भरत के मन में एक हूक सी उठी। मकान बाहर से जितना सुन्दर था अन्दर उससे भी ज्यादा सुन्दर। हर तरह की सुख-सुविधा का पूरा इन्तजाम। उस मकान के दो एक जैसे हिस्से देखकर भरत ने मन ही मन कहा, " देखो छोटे को अपने दोनों लड़कों की कितनी चिन्ता है। दोनों के लिये अभी से एक जैसे दो हिस्से (portion) तैयार कराये हैं। पूरा मकान सवा-डेढ़ करोड़ रूपयों से कम नहीं होगा। और एक मैं हूँ, जिसके पास जवान बेटी की शादी के लिये लाख-दो लाख रूपयों का इन्तजाम भी नहीं है।"

मकान देखते समय भरत की आँखों में आँसू थे जिन्हें उन्होंने बड़ी मुश्किल से बाहर आने से रोका। तभी पण्डित जी ने आवाज लगाई, " हवन का समय हो रहा है, मकान के स्वामी हवन के लिये अग्नि-कुण्ड के सामने बैठें।"

लक्ष्मण के दोस्तों ने कहा, " पण्डित जी तुम्हें बुला रहे हैं।" यह सुन लक्ष्मण बोले, " इस मकान का स्वामी मैं अकेला नहीं, मेरे बड़े भाई भरत भी हैं। आज मैं जो भी हूँ सिर्फ और सिर्फ इनकी बदौलत। इस मकान के दो हिस्से हैं, एक उनका और एक मेरा।"

हवन कुण्ड के सामने बैठते समय लक्ष्मण ने भरत के कान में फुसफुसाते हुए कहा, " भैया, बिटिया की शादी की चिन्ता बिल्कुल न करना। उसकी शादी हम दोनों मिलकर करेंगे।"

पूरे हवन के दौरान भरत अपनी आँखों से बहते पानी को पोंछ रहे थे, जबकि हवन की अग्नि में धुँए का नामोनिशान न था।

👉 आज का सद्चिंतन 24 July 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 24 July 2019

👉 श्रद्धा है, तो सक्रिय हों

हमारी इन दिनों अभिलाषा यह है कि अपने स्वजन-परिजनों को नव निर्माण के लिए कुछ करने के लिए कहते-सुनते रहने का अभ्यस्त मात्र न बना दें, वरन कुछ तो करने के लिए उनमें सक्रियता पैदा करें। थोड़े कदम तो उन्हें चलते-चलाते अपनी आँखों से देख लें। हमने अपना सारा जीवन जिस मिशन के लिए तिल-तिल जला दिया, जिसके लिए हम आजीवन प्रकाश प्रेरणा देते रहे उसका कुछ तो सक्रिय स्वरूप दिखाई देना ही चाहिए। हमारे प्रति आस्था और श्रद्धा व्यक्त करने वाले क्या हमारे अनुरोध को भी अपना सकते हैं? क्या हमारे पद-चिह्नों पर कुछ दूर चल सकते हैं? देखा यह भी जाना चाहिए। ताकि हम देख सकें कि हम सच्चे साथियों के रूप में परिवार का सृजन करते रहें अथवा शेखचिल्ली जैसी कल्पना के महल गढ़ते रहे? इस परख में वस्तुस्थिति सामने आ जाएगी और हम अपने परिवार के साथ जोड़े हुए प्रश्नों की यथार्थता, निरर्थकता के संबंध में किसी सुरक्षित निष्कर्ष पर पहुँच जाएँगे।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, अगस्त १९६९, पृष्ठ ९

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग 35)

👉 आध्यात्मिक निदान- पंचक

आध्यात्मिक चिकित्सा के क्षेत्र में रोग निदान का परिदृश्य थोड़ा अधिक व्यापक है। इसमें प्रचलित व पारम्परिक तरीकों से अलग हटकर इसका तंत्र विकसित किया गया है। इसका कारण यह है कि आध्यात्मिक दृष्टि मानवीय जीवन को समग्रता एवं परिपूर्णता से देखने पर विश्वास करती है। उसका जोर किसी एक आयाम पर नहीं है, बल्कि दृश्य- अदृश्य सभी आयामों पर समान रूप से है। इसी को ध्यान में रखकर इसकी रोग निदान विधियों को विकसित किया गया है। ताकि रोग की जड़ें कितनी भी गहरी क्यों न हो, उन्हें उखाड़ा और नष्ट किया जा सके।

इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए आध्यात्मिक चिकित्सा के, रोग निदान के पांच आयामों का ताना- बाना बुना गया है। आयुर्वेद- निदान पंचक की भाँति इसे आध्यात्मिक निदान- पंचक नाम दिया जा सकता है। इसके अन्तर्गत आध्यात्मिक चिकित्सक रोगी के व्यक्तित्व के पांच तत्त्वों का परीक्षण करते हैं। इनमें से पहला है व्यवहार, २. चिन्तन, ३. संस्कार, ४. प्रारब्ध एवं ५. पूर्वजन्म के दोष- दुष्कर्म। इन पांच का परीक्षण करके रोग का सही निदान कर लिया जाता है। जहाँ तक इन पाँच तत्त्वों का प्रश्र है, तो आध्यात्मिक चिकित्सा के लिए इन सभी का व्यापक महत्त्व है। हालांकि इनमें एक को छोड़कर बाकी सभी आयाम अदृश्य हैं, जो आध्यात्मिक दृष्टि एवं शक्ति के बिना देखे एवं जाने नहीं जा सकते। लेकिन इन अदृश्य तथ्यों को जाने बिना आध्यात्मिक चिकित्सा भी तो सम्भव नहीं है।

इसमें से पहले यानि कि व्यवहार के अन्तर्गत रोगी की शारीरिक पीड़ा- परेशानी अथवा मानसिक दुःख- दर्द का लेखा- जोखा उसके व्यवहार की स्थिति के आधार पर करते हैं। इस सबसे उसके चिन्तन चेतना पर पड़े हुए प्रभावों की पड़ताल, चिन्तन प्रक्रिया की जाँच से की जाती है। तीसरे क्रम में संस्कार की परत अपेक्षाकृत गहरी है। इसकी जांच किसी भी मनोवैज्ञानिक परीक्षण के द्वारा सम्भव नहीं। इसे तो सीधे ही आध्यात्मिक दृष्टि एवं शक्ति से किया जाना होता है। ज्यादातर रोगों के कारण यहीं जड़ जमाए होते हैं। चौथे क्रम में प्रारब्ध की जाँच परख थोड़ी और जटिल होती है। यदि रोग के कारण हमारे बाह्य जीवन में कहीं नजर नहीं आ रहे। और इनका पता हमारे संस्कार क्षेत्र में नहीं चल रहा तो फिर प्रारब्ध की छान- बीन करनी ही पड़ती है।

लम्बे समय तक यानि कि दस- पन्द्रह वर्षों तक चलने वाले रोग अथवा फिर एक के बाद एक नए कष्ट- कठिनाइयों का प्रकट होना प्रायः प्रारब्ध के ही कारण होता है। यहीं पर इनकी जड़ें होती हैं। यदि इस गहरी परत को सही ढंग से न जाना समझा गया तो रोग या कष्ट निवारण के सारे प्रयास धरे रह जाते हैं। पांचवे क्रम में आध्यात्मिक चिकित्सक को कतिपय विशेष रोगियों के रोग निवारण में यह भी जानना पड़ता है कि उसके जीवन में प्रारब्ध के ये दुर्योग क्यों आए। यह दुःखद प्रक्रिया आखिर चली ही क्यों? पिछले जन्मों के कौन से कर्म इसका कारण रहे हैं। पूर्वजन्मों के ज्ञान से ही इस सच का पता लगाया जा सकता है। ऐसा करके ही रोग के सटीक निदान एवं सार्थक समाधान तक पहुँचना सम्भव हो पाता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 51

👉 The Paradoxical Commandments

People are illogical, unreasonable, and self-centered. Love them anyway. If you do good, people will accuse you of selfish ulterior motives. Do good anyway. If you are successful, you will win false friends and true enemies. Succeed anyway. The good you do today will be forgotten tomorrow. Do good anyway. Honesty and frankness make you vulnerable. Be honest and frank anyway. The biggest men and women with the biggest ideas can be shot down by the smallest men and women with the smallest minds. Think big anyway. What you spend years building may be destroyed overnight. Build anyway. People really need help but may attack you if you do help them. Help people anyway. Give the world the best you have and you’ll get kicked in the teeth. Give the world the best you have anyway.

Kent M. Keith

👉 आत्मा की परमात्मा से पुकार

आत्मा ने परमात्मा से याचना की ‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतंगमय’। यह तीनों ही पुकारें ऐसी हैं, जिन्हें द्रौपदी और गज की पुकार के समतुल्य समझा जा सकता है। निर्वस्त्र होते समय द्रौपदी ने अपने को असहाय पाकर भगवान् को पुकारा था। गज जब ग्राह के मुख में फँसता ही चला गया, पराक्रम काम न आया, जब जौ भर सूँड़ जल से बाहर रह गयी, तो उसने भी गुहार मचाई। दोनों को ही समय रहते सहारा मिला। एक की लाज बच गयी, दूसरे के प्राण बच गये। जीवात्मा की तात्त्विक स्थिति भी ऐसी ही है। उसका संकट इनसे किसी भी प्रकार कम नहीं है।

प्रश्न उठता है कि इस स्थिति का कारण क्या है? जब इस प्रश्न पर विचार किया जाता है, तब पता चलता है कि जो असत् था, अस्थिर था, नाशवान् था, जाने वाला था, उसे चाहा गया, उसे पकड़ा गया। जो स्थिर, शाश्वत्, सनातन, सत्-चित् आनन्द से ओत-प्रोत था, उसकी उपेक्षा की गयी। फलस्वरूप भीतर और बाहर से सब प्रकार से सम्पन्न होते हुए भी अभावग्रस्तों की तरह, दीन-हीन की तरह, अभागी जिन्दगी जियी गयी।

सत् स्थिर आत्मा है। गुण कर्म स्वभााव में सन्निहित मानवीय गरिमा ही सत् है। जो सत् को पकड़ता है,अपनाता है और धारण करता है, उसका आनन्द सुरक्षित रहता है। भीतर से उभरी गरिमा बाह्य जीवन को भी उल्लसित, विकसित विभूतिवान बना देती है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में ऐसी शालीनता भर देती है, जिसका प्रतिफल दसों दिशाओं में अमृत तुल्य अनुदान बरसता है। आत्मा ने उसी के लिए पुकार की है। ‘असतो मा सद्गमय’। उसे सत् की उपलब्धि हो। असत् की ओर आँखें मूँदकर दौड़ने की प्रवृत्ति रूके। शान्ति का सरोवर सामने रहते हुए भी सड़न भरे दल-दल में घुस पड़ने और चीखने-चिल्लाने की आदत पर अंकुश लगे। अपने अंतराल से ही आनन्द का ऐसा निर्झर बहे, जो अपने को गौरव प्रदान करे और दूसरों की हित साधना करते हुए धन्य बने।

आत्मा की दूसरी पुकार है- ‘तमसो माँ ज्योतिर्गमय’। हे सर्वशक्तिमान्! हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल। जो क्रम अपनाया गया है, वह अंधकार में भटकने के समान है। रात के अंधियारे में कुछ पता नहीं चलता कि किस दिशा में चल रहे हैं। यथार्थता का बोध नहीं होने से ठोकर खाते और काँटों की चुभन से मर्माहत होते हैं। कुछ का कुछ समझ में आता है, कुछ का कुछ दीख पड़ता है। शरीरगत सुविधाएँ भी लक्ष्य रखती है। जड़ का जड़ता के साथ पाला पड़ता है। वर्तमान और भविष्य अंधकारमय दीखता है। ऐसी परिस्थिति में घिरी हुई आत्मा अपने सृजेता से पुकारता है- ‘अंधकार से प्रकाश की ओर’। ‘अज्ञान से ज्ञान की ओर लें चल। भटकाव से निकाल और उस राह पर खड़ा कर जिसे अपनाकर सफलतापूर्वक लक्ष्य तक पहुँचा जा सके।

जीवात्मा की तीसरी पुकार है- ‘मृत्योर्मा मा अमृतं गमय’। मृत्यु की ओर नहीं, अमृत की ओर ले चल। कुसंस्कारिता के कषाय-कल्मष सम्पर्क क्षेत्र के प्रचलन, उस ओर घसीट लिए जा रहे हैं, जिस पर मरण ही मरण है। आत्म हनन के उपरांत जो कुछ हस्तगत होता है, उसे मरणधर्मा ही कहा जा सकता है। आकांक्षाओं की बाढ़ के बहाव में न धैर्य टिक पाता है, न विवेक।

प्रकृति चक्र के अनुसार समय-समय पर उनमें परिवर्तन होते रहते हैं। व्यक्तियों पर इन परिवर्तनों का प्रभाव पड़ता है और वह प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। इसलिए हे परमात्मन्! अपनी सत्ता का मरण हो रहा है। मौत एक-एक कदम आगे बढ़ती आ रही है और अब तब में दबोचने ही वाली है। इससे पूर्व हम अपने अन्तःकरण को, आनन्द को, भविष्य को निरन्तर मारते-कुचलते रहते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

मंगलवार, 23 जुलाई 2019

👉 भगवान को भेंट

पुरानी बात है एक सेठ के पास एक व्यक्ति काम करता था। सेठ उस व्यक्ति पर बहुत विश्वास करता था। जो भी जरुरी काम हो सेठ हमेशा उसी व्यक्ति से कहता था। वो व्यक्ति भगवान का बहुत बड़ा भक्त था l वह सदा भगवान के चिंतन भजन कीर्तन स्मरण सत्संग आदि का लाभ लेता रहता था।

एक दिन उस ने सेठ से श्री जगन्नाथ धाम यात्रा करने के लिए कुछ दिन की छुट्टी मांगी सेठ ने उसे छुट्टी देते हुए कहा- भाई ! "मैं तो हूं संसारी आदमी हमेशा व्यापार के काम में व्यस्त रहता हूं जिसके कारण कभी तीर्थ गमन का लाभ नहीं ले पाता। तुम जा ही रहे हो तो यह लो 100 रुपए मेरी ओर से श्री जगन्नाथ प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना।" भक्त सेठ से सौ रुपए लेकर श्री जगन्नाथ धाम यात्रा पर निकल गया।

कई दिन की पैदल यात्रा करने के बाद वह श्री जगन्नाथ पुरी पहुंचा। मंदिर की ओर प्रस्थान करते समय उसने रास्ते में देखा कि बहुत सारे संत, भक्त जन, वैष्णव जन, हरि नाम संकीर्तन बड़ी मस्ती में कर रहे हैं। सभी की आंखों से अश्रु धारा बह रही है। जोर-जोर से हरि बोल, हरि बोल गूंज रहा है। संकीर्तन में बहुत आनंद आ रहा था। भक्त भी वहीं रुक कर हरिनाम संकीर्तन का आनंद लेने लगा।

फिर उसने देखा कि संकीर्तन करने वाले भक्तजन इतनी देर से संकीर्तन करने के कारण उनके होंठ सूखे हुए हैं वह दिखने में कुछ भूखे भी प्रतीत हो रहे हैं। उसने सोचा क्यों ना सेठ के सौ रुपए से इन भक्तों को भोजन करा दूँ।

उसने उन सभी को उन सौ रुपए में से भोजन की व्यवस्था कर दी। सबको भोजन कराने में उसे कुल 98 रुपए खर्च करने पड़े। उसके पास दो रुपए बच गए उसने सोचा चलो अच्छा हुआ दो रुपए जगन्नाथ जी के चरणों में सेठ के नाम से चढ़ा दूंगा l

जब सेठ पूछेगा तो मैं कहूंगा पैसे चढ़ा दिए। सेठ यह तो नहीं कहेगा 100 रुपए चढ़ाए। सेठ पूछेगा पैसे चढ़ा दिए मैं बोल दूंगा कि, पैसे चढ़ा दिए। झूठ भी नहीं होगा और काम भी हो जाएगा।

भक्त ने श्री जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिए मंदिर में प्रवेश किया श्री जगन्नाथ जी की छवि को निहारते हुए अपने हृदय में उनको विराजमान कराया। अंत में उसने सेठ के दो रुपए श्री जगन्नाथ जी के चरणो में चढ़ा दिए। और बोला यह दो रुपए सेठ ने भेजे हैं।

उसी रात सेठ के पास स्वप्न में श्री जगन्नाथ जी आए आशीर्वाद दिया और बोले सेठ तुम्हारे 98 रुपए मुझे मिल गए हैं यह कहकर श्री जगन्नाथ जी अंतर्ध्यान हो गए। सेठ जाग गया सोचने लगा मेरा नौकर तौ बड़ा ईमानदार है, पर अचानक उसे क्या जरुरत पड़ गई थी उसने दो रुपए भगवान को कम चढ़ाए ? उसने दो रुपए का क्या खा लिया ? उसे ऐसी क्या जरूरत पड़ी ? ऐसा विचार सेठ करता रहा।

काफी दिन बीतने के बाद भक्त वापस आया और सेठ के पास पहुंचा। सेठ ने कहा कि मेरे पैसे जगन्नाथ जी को चढ़ा दिए थे  ? भक्त बोला हां मैंने पैसे चढ़ा दिए। सेठ ने कहा पर तुमने 98 रुपए क्यों चढ़ाए दो रुपए किस काम में प्रयोग किए।

तब भक्त ने सारी बात बताई की उसने 98 रुपए से संतो को भोजन करा दिया था। और ठाकुरजी को सिर्फ दो रुपए चढ़ाये थे। सेठ सारी बात समझ गया व बड़ा खुश हुआ तथा भक्त के चरणों में गिर पड़ा और बोला- "आप धन्य हो आपकी वजह से मुझे श्री जगन्नाथ जी के दर्शन यहीं बैठे-बैठे हो गए l

सन्तमत विचार- भगवान को आपके धन की कोई आवश्यकता नहीं है। भगवान को वह 98 रुपए स्वीकार है जो जीव मात्र की सेवा में खर्च किए गए और उस दो रुपए का कोई महत्व नहीं जो उनके चरणों में नगद चढ़ाए गए...

इस कहानी का सार ये है कि.........
भगवान को चढ़ावे की जरूरत नही होती जी🙏
सच्चे मन से किसी जरूरतमंद की जरूरत को पूरा कर देना भी .....
भगवान को भेंट चढ़ाने से भी कहीं ज्यादा अच्छा होता है जी..!!!
हम उस परमात्मा को क्या दे सकते हैं..... जिसके दर पर हम ही भिखारी हैं।

👉 आज का सद्चिंतन 23 July 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 23 July 2019


👉 मजबूत आधारशिला रखना है

युग निर्माण योजना की मजबूत आधारशिला रखे जाने का अपना मन है। यह निश्चित है कि निकट भविष्य में ही एक अभिनव संसार का सृजन होने जा रहा है। उसकी प्रसव पीड़ा में अगले दस वर्ष अत्यधिक अनाचार, उत्पीड़न, दैवीय कोप, विनाश और क्लेश, कलह से भरे बीतने हैं। दुष्प्रवृत्तियों का परिपाक क्या होता है, इसका दंड जब भरपूर मिल लेगा, तब आदमी बदलेगा। यह कार्य महाकाल करने जा रहा है। हमारे हिस्से में नवयुग की आस्थाओं और प्रक्रियाओं को अपना सकने योग्य जनमानस तैयार करना है। लोगों को यह बताना है कि अगले दिनों संसार का एक राज्य, एक धर्म, एक अध्यात्म, एक समाज, एक संस्कृति, एक कानून, एक आचरण, एक भाषा और एक दृष्टिकोण बनने जा रहा है, इसलिए जाति, भाषा, देश, सम्प्रदाय आदि की संकीर्णताएँ छोड़ें और विश्वमानव की एकता की, वसुधैव कुटुंबकम् की भावना स्वीकार करने के लिए अपनी मनोभूमि बनाएँ।

लोगों को समझाना है कि पुराने से सार भाग लेकर विकृत्तियों को तिलांजलि दे दें। लोकमानस में विवेक जाग्रत् करना है और समझाना है कि पूर्व मान्यताओं का मोह छोड़कर जो उचित उपयुक्त है केवल उसे ही स्वीकार शिरोधार्य करने का साहस करें। सर्वसाधारण को यह विश्वास कराना है कि धन की महत्ता का युग अब समाप्त हो चला, अगले दिनों व्यक्तिगत संपदाएँ न रहेंगी, धन पर समाज का स्वामित्व होगा। लोग अपने श्रम एवं अधिकार के अनुरूप सीमित साधन ले सकेंगे। दौलत और अमीरी दोनों ही संसार से विदा हो जाएँगी। इसलिए धन के लालची बेटे-पोतों के लिए जोड़ने-जाड़ने वाले कंजूस अपनी मूर्खता को समझें और समय रहते स्वल्प संतोषी बनने एवं शक्तियों को संचय उपयोग से बचाकर लोकमंगल की दिशाओं में लगाने की आदत डालें। ऐसी-ऐसी बहुत बातें लोगों के गले उतारनी हैं, जो आज अनर्गल जैसी लगती हैं।

संसार बहुत बड़ा है, कार्य अति व्यापक है, हमारे साधन सीमित हैं। सोचते हैं एक मजबूत प्रक्रिया ऐसी चल पड़े जो अपने पहिए पर लुढ़कती हुई उपरोक्त महान लक्ष्य को सीमित समय में ठीक तरह पूरा कर सके।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च 1969, पृष्ठ 59,60

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