बुधवार, 30 नवंबर 2016

👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 45)

🌞  चौथा अध्याय

🔴  उपरोक्त अनुभूति आत्मा के उपकरणों और वस्त्रों के विस्तार के लिए काफी है। हमें सोचना चाहिए कि यह सब शरीर मेरे हैं, जिनमें एक ही चेतना ओत-प्रोत हो रही है। जिन भौतिक वस्तुओं तक तुम अपनापन सीमित रख रहे हो, अब उससे बहुत आगे बढ़ना होगा और सोचना होगा कि 'इस विश्व सागर की इतनी बूँदें ही मेरी हैं, यह मानस भ्रम है। मैं इतना बड़ा वस्त्र पहने हुए हूँ, जिसके अंचल में समस्त संसार ढँका हुआ है।' यही आत्म-शरीर का विस्तार है। इसका अनुभव उस श्रेणी पर ले पहुँचेगा, जिस पर पहुँचा हुआ मनुष्य योगी कहलाता है। गीता कहती है :

सर्व भूतस्य चात्मानं सर्व भूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र सम दर्शनः।


🔵  अर्थात्- सर्वव्यापी अनन्त चेतना में एकीभाव से स्थित रूप योग से युक्त हुए आत्मा वाला तथा सबमें समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में देखता है।

🔴  अपने परिधान का विस्तार करता हुआ सम्पूर्ण जीवों के बाह्य स्वरूपों में आत्मीयता का अनुभव करता है। आत्माओं की आत्माओं में तो आत्मीयता है ही, ये सब आपस में परमात्म सत्ता द्वारा बँधे हुए हैं। अधिकारी आत्माएँ आपस में एक हैं। इस एकता के ईश्वर बिलकुल निकट हैं। यहाँ हम परमात्मा के दरबार में प्रवेश पाने योग्य और उनमें घुल-मिल जाने योग्य होते हैं वह दशा अनिर्वचनीय है। इसी अनिर्वचनीय आनन्द की चेतना में प्रवेश करना समाधि है और उनका निश्चित परिणाम आजादी, स्वतन्त्रता, स्वराज्य, मुक्ति, मोक्ष होगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part4

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 1 Dec 2016


👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 1 Dec 2016


👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 20) 1 Dec

🌹 *दुष्टता से निपटें तो किस तरह?*

🔵  दुष्टता से निपटने के दो तरीके हैं—घृणा एवं विरोध। यों दोनों ही प्रतिकूल परिस्थितियों एवं व्यक्तियों के अवांछनीय आचरणों से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियायें हैं, पर दोनों में मौलिक अन्तर है। विरोध में व्यक्ति या परिस्थिति को सुधारने-बदलने का भाव है। वह जहां संघर्ष की प्रेरणा देता है वहां उपाय भी सुझाता है। स्थिति बदलने में सफलता मिलने पर शान्त भी हो जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि भ्रान्त सूचनाओं अथवा मन की साररहित कुकल्पनाओं से ही अपने को बुरा लगने लगे और उसका समग्र विश्लेषण किए बिना झगड़ पड़ने की स्थिति बन पड़े।

🔴  वह स्थिति ऐसी भयंकर भी हो सकती है जिसके लिए सदा पश्चाताप करना पड़े। इन बातों को ध्यान में रखते हुए विरोध के पीछे विवेक का भी अंश जुड़ा होता है और उसमें सुधार की, समझौते की गुंजाइश रहती है। बड़ा संघर्ष न बन पड़ने पर अन्यमनस्क हो जाने, असहयोग करने से भी विरोध अपना अभिप्राय किसी कदर सिद्ध कर ही लेता है।

🔵  हमें यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि सम्पर्क क्षेत्र के सभी व्यक्तियों का स्वभाव-आचरण हमारे अनुकूल होगा। जैसा हमने चाहा है, वैसा ही करेंगे—ऐसा तो स्वतन्त्र व्यक्तित्व न रहने पर ही हो सकता है। प्राचीनकाल में दास-दासियों को बाधित करके ऐसी अनुकूलता के लिए तैयार किया जाता था, पर वे भी शारीरिक श्रम करने तक ही मालिकों की आज्ञा मानते थे। मानसिक विरोध बना ही रहता है, उसकी झलक मिलने पर स्वामियों द्वारा सेवकों को प्रताड़ना देने का क्रम आये दिन चलता रहता था।

🔴  अब वह स्थिति भी नहीं रही, लोगों का स्वतन्त्र व्यक्तित्व जगा है और मौलिक अधिकारों का दावा विनम्र या अक्खड़ शब्दों में प्रस्तुत किया जाने लगा है। ऐसी दशा में बाधित करने वाले पुराने तरीके भी अब निरर्थक हो गये हैं। परस्पर तालमेल बिठाकर चलने के अतिरिक्त दूसरा यही मार्ग रह जाता है कि पूर्णतया सम्बन्ध विच्छेद कर लिया जाय। यह मार्ग भी निरापद नहीं है, क्योंकि सामने वाला अपने को अपमानित और उत्पीड़ित अनुभव करता है और जब भी दांव लगता है तभी हानि पहुंचाने के लिए कटिबद्ध हो जाता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 20) 1 Dec

🌹  गृहस्थ योग से परम पद

🔵  पुण्य और पाप किसी कार्य के बाह्य रूप से ऊपर नहीं वरन् उस काम को करने वाले की भावना के ऊपर निर्भर है। किसी कार्य का बाहरी रूप कितना ही अच्छा, ऊंचा या उत्तम क्यों न हो परन्तु यदि करने वाले की भीतरी भावनाएं बुरी हैं तो ईश्वर के दरबार में वह कार्य पाप में ही शुमार होगा। लोगों को धोखा दिया जा सकता है, दुनियां को भ्रम या भुलावे में डाला जा सकता है परन्तु परमात्मा को धोखा देना असंभव है। ईश्वर के दरबार में काम के बाहरी रूप को देखकर नहीं वरन् करने वाले की भावनाओं को परख कर धर्म अधर्म की नाप तोल की जाती  है।

🔴  आज हम ऐसे अनेक धूर्तों को अपने आस पास देखते हैं जो करने को तो बड़े बड़े अच्छे काम करते हैं पर उनका भीतरी उद्देश्य बड़ा ही दूषित होता है। अनाथालय, विधवाश्रम, गौशाला आदि पवित्र संस्थानों की आड़ में भी बहुत से बदमाश आदमी अपना उल्लू सीधा करते हैं। योगी, महात्मा साधु, संन्यासी का बाना पहने अनेक चोर डाकू लुच्चे लफंगे घूमते रहते हैं। यज्ञ करने के नाम पर, पैसा बटोर कर कई आदमी अपना घर भर लेते हैं।

🔵  बाहरी दृष्टि से देखने पर अनाथालय, विधवाश्रम, गौशाला चलाना, साधु, संन्यासी, महात्मा उपदेशक बनना, यज्ञ, कुआं, मन्दिर बनवाना आदि अच्छे कार्य हैं, इनके करने वाले की भावनाएं विकृत हैं तो यह अच्छे काम भी उसकी मुख्य सम्पदा में कुछ वृद्धि न कर सकेंगे। वह व्यक्ति अपने पापमय विचारों के कारण पापी ही बनेगा, पाप का नरक मय दंड ही उसे प्राप्त होगा।

🌹  क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 33)

🌹 सभ्य समाज की स्वस्थ रचना

🔵 45. सत्कार्यों का अभिनन्दन— प्रतिष्ठा की भूख स्वाभाविक है। मनुष्य को जिस कार्य में बड़प्पन मिलता है वह उसी ओर झुकने लगता है। आज धन और पद को सम्मान मिलता है तो लोग उस दिशा में आकर्षित हैं। यदि यह मूल्यांकन बदल जाय और ज्ञानी, त्यागी एवं पराक्रमी लोगों को सामाजिक प्रतिष्ठा उपलब्ध होने लगे तो इस ओर भी लोगों का ध्यान जायगा और समाज में सत्कर्म करने की प्रगति बढ़ेगी। हमें चाहिए कि ऐसे लोगों को मान देने के लिए सार्वजनिक अभिनन्दन करने के लिए समय-समय पर आयोजन करते रहें।

🔴 मानपत्र भेंट करना, सार्वजनिक अभिनन्दन, पदक-उपहार, समाचार पत्रों में उन सत्कर्मों की चर्चा, फोटो, चरित्र-पुस्तिका आदि का प्रकाशन हम लोग कर सकते हैं। उन सत्कर्मकर्ताओं को इसकी इच्छा न होना ही उचित है, पर दूसरों को प्रोत्साहन देने और वैसे ही अनुकरण की इच्छा दूसरों में जागृत हो, इस दृष्टि से सत्कर्मों के अभिनन्दन की परम्परा प्रचलित करना ही चाहिए। ऐसे आयोजन हलके कारणों को लेकर या झूठी प्रशंसा में न किए जांय, अन्यथा ईर्ष्या द्वेष की दुर्भावनाएं बढ़ेंगी। सभ्य समाज का निर्माण करने के लिए धन एवं शक्ति को नहीं, आदर्श को ही सम्मान मिलना चाहिए।

🔵  46. सज्जनता का सहयोग— यदि मानवता का स्तर ऊंचा उठाना हो तो सज्जनता के साथ सहयोग की नीति अपनाई जानी चाहिए सज्जनता को यदि सहयोग और प्रोत्साहन न मिले तो वह मुरझा जायगी। इसी प्रकार दुष्टता का विरोध न किया गया तो वह भी दिन-दिन बढ़ती चली जायगी। इसलिए प्रत्येक सभ्य नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपनी नीति ऐसी रखे जिससे प्रत्यक्ष या परोक्ष में सत्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि होती रहे और अनीति को निरुत्साहित होना पड़े।

🔴  परिस्थितिवश यदि दुष्टता का पूर्ण प्रतिरोध संभव न हो, इसमें अपने लिए खतरा दीखता हो तो कम से कम इतना तो करना ही चाहिए कि उनकी हां में हां मिलाने, सम्पर्क रखने या साथ में रहने से बचा जाय, क्योंकि इससे दूसरे प्रतिरोध करने वाले की हिम्मत टूटती है और अनीति का पक्ष मजबूत होता है। संभव हो तो तीव्र संघर्ष, न हो तो दुष्टता से असहयोग तो हर हालत में करने का साहस रखना ही चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

मंगलवार, 29 नवंबर 2016

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 30 Nov 2016


👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 30 Nov 2016


👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 44)

🌞  चौथा अध्याय

🔴  मन के तीनों अंग-प्रवृत्त मानस, प्रबुद्घ मानस, आध्यात्मिक मानस भी अपने स्वतंत्र प्रवाह रखते हैं अर्थात् यों समझना चाहिए कि
'नित्यः सर्वगतः स्थाणु रचलोऽयं सनातनः।' आत्मा को छोड़कर शेष सम्पूर्ण शारीरिक और मानसिक परमाणु गतिशील हैं। यह सब वस्तुएँ एक स्थान से दूसरे स्थानों को चलती रहती हैं। जिस प्रकार शरीर के पुराने तत्त्व आगे बढ़ते और नये आते रहते हैं, उसी प्रकार मानसिक पदार्थों के बारे में भी समझना चाहिए। उस दिन आपका निश्वय था कि आजीवन ब्रह्राचारी रहूँगा, आज विषय भोगों से नहीं अघाते। उस दिन निश्चय था अमुक व्यक्ति की जान लेकर अपना बदला चुकाऊँगा, आज उनके मित्र बने हुए हैं। उस दिन रो रहे थे कि किसी भी प्रकार धन कमाना चाहिए, आज सब कुछ त्याग कर सन्यासी हो रहे हैं। ऐसे असंख्य परिवर्तन होते रहते हैं। क्यों? इसलिए कि पुराने विचार चले गये और नये उनके स्थान पर आ गए।

🔵  विश्व की दृश्य-अदृश्य सभी वस्तुओं की गतिशीलता की धारणा, अनुभूति और निष्ठा यह विश्वास करा सकती है कि सम्पूर्ण संसार एक है। एकता के आधार पर उसका निर्माण है। मेरी अपनी वस्तु कुछ भी नहीं है या सम्पूर्ण वस्तुएँ मेरी हैं। तेज बहती हुई नदी के बीच धार में तुम्हें खड़ा कर दिया जाए और पूछा जाए कि पानी के कितने और कौन से परमाणु तुम्हारे हैं, तब क्या उत्तर दोगे? विचार करोगे कि पानी की धारा बराबर बह रही है। पानी के जो परमाणु इस समय मेरे शरीर को छू रहे हैं, पलक मारते-मारते बहुत दूर निकल जायेंगे। जल-धारा बराबर मुझसे छूकर चलती जा रही है, तब या तो सम्पूर्ण जल धारा को अपनी बनाऊँ या यह कहूँ कि मेरा कुछ भी नहीं है, यह विचार कर सकते हो।

🔴  संसार जीवन और शक्ति का समुद्र है। जीव इसमें होकर अपने विकास के लिए आगे को बढ़ता जाता है और अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुएँ लेता और छोड़ता जाता है। प्रकृति मृतक नहीं है। जिसे हम भौतिक पदार्थ कहते हैं, उसके समस्त परमाणु जीवित हैं। वे सब शक्ति से उत्तेजित होकर लहलहा, चल, सोच और जी रहे हैं। इसी जीवित समुद्र की सत्ता के कारण हम सबकी गतिविधि चल रही है। एक ही तालाब की हम सब मछलियाँ हैं। विश्व व्यापी शक्ति, चेतना और जीवन के परमाणु विभिन्न अभिमानियों को झंकृत कर रहे हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 19) 30 Nov

🌹 *विवेक ही हमारा सच्चा मार्गदर्शक*

🔵  देश, काल, पात्र के अनुसार विधानों में परिवर्तन होता रहता है। भारत जैसे अन्य बहुत से देशों में शाकाहार ही मान्य है, पर उत्तरी ध्रुव के निवासी एस्किमो अन्न कहां पायें? उन्हें तो मांसाहार पर ही जीवित रहना है। सर्दी और गर्मी में एक जैसे वस्त्र नहीं पहने जा सकते। पहलवान और मरीज की खुराक एक जैसी नहीं हो सकती। देश, काल, पात्र की भिन्नता से बदलती हुई परिस्थितियां, विधि-व्यवस्था बदलती रहती हैं। स्मृतियां इसी कारण समय-समय पर नये ऋषियों द्वारा नई बदलती रही हैं। इनमें परस्पर भारी मतभेद है, यह मतभेद सत्य की दिशा में बढ़ते हुए कदमों ने उत्पन्न किये हैं।

🔴  आज जो सत्य समझा जाता है वही भविष्य में भी समझा जायेगा—ऐसा मानकर नहीं चलना चाहिए। क्रमिक विकास की दिशा में बढ़ते हुए हमारे कदम अनेकों प्राचीन मान्यताओं को झुठला चुके हैं। सत्यान्वेषी दृष्टि बिना किसी संकोच और दुराग्रह के सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार रही है। यदि ऐसा न होता तो विज्ञान के क्षेत्र में प्रचलित मान्यताओं को समर्थन न मिला होता। प्राचीनकाल के वैज्ञानिकों की मान्यताओं और आज की मान्यताओं में जमीन-आसमान जितना अन्तर है। फिर भी भूतकाल के मनीषियों की कोई अवज्ञा नहीं करता।

🔵  मान्यताओं-प्रथाओं का प्रचलन समय के अनुरूप निर्धारित किया और बदला जाता रहा है। जब कृषि योग्य भूमि बहुत और जनसंख्या कम थी, हिंस्रपशुओं और जन्तुओं को जोर था तब अधिक उत्पादन और अधिक सुरक्षा की दृष्टि से बहुपत्नी प्रथा प्रचलित हुई थी और बहुत बच्चे उत्पन्न होना सौभाग्य का चिन्ह था।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 गृहस्थ-योग (भाग 19) 30 Nov

🌹 *गृहस्थ धर्म तुच्छ नहीं है*
🔵  दार्शनिक लेटो ने कहा है— ‘‘सृष्टि आदि में मनुष्य अपंग था, वह पृथ्वी एक कोने में पड़ा खिसक रहा था। स्त्री ने ही उसे उठाया और पाल कर बड़ा किया। आज वही कृतघ्न उन स्त्रियों को पैरों की जूती समझता है।’’ कवि हारग्रच की अनुभूति है कि— ‘‘स्त्रियां भूलोक की कविता हैं। पुरुष के भाग्य का निस्तार उन्हीं के हाथों में है।’’ कार्लाइल कहा करते थे— ‘‘यदि तुम प्रेम के साक्षात दर्शन करना चाहते हो तो माता के गदगद नेत्रों को देखो।’’ सृष्टि के आरंभ काल का दिग्दर्शन करते हुए सन्त केलवैल ने कहा कि— ‘‘जब तक आदम अकेला है तब तक उसे स्वर्ग भी कण्टकाकीर्ण था। देवताओं के गीत, शीतल समीर और ललित वाटिकायें उसके लिये सभी व्यर्थ थीं, यह सब होते हुए भी वह उदास रहता था और आहें भरता था, परन्तु जब उसे हवा मिल गई तो सारा दुख दूर हो गया। कांटे फूलों में बदल गये।’’

🔴  जिन सन्तों ने अपने पवित्र नेत्रों से नारी को देखा है उन्हें उसमें ईश्वर की सजीव कविता मूर्तिमान दिखाई दी है। जिनकी आंखों में पाप है उनके लिये बहिन, बेटी और माता की समीपता में ही नहीं, प्रत्येक जड़ चेतन की समीपता में खतरा है। जिनके अंचल में आग बंधी हुई है उसके लिये सर्वत्र अग्निकाण्ड का खतरा है, जिसकी आंखों पर हरा ठंडा चश्मा है उसके लिए कड़ी धूप भी शीतल है। पाठको! अपना दृष्टिकोण पवित्र बनाओ। विश्वास रखो, राजा जनक की भांति आप भी गृहस्थ में रहते हुए सच्चे महात्मा बन सकते हैं।

🌹  क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 32)

🌹 सभ्य समाज की स्वस्थ रचना

🔵 43. सत्प्रवृत्ति का अभ्यास— परिवारों में पारस्परिक सहयोग, सभी का परिश्रमी होना, टूटी, पुरानी वस्तुओं की मरम्मत और सदुपयोग, कोने-कोने में सफाई, वस्त्रों के धोने का काम अधिकांश घर में होना, सभी सदस्यों का नियमित व्यायाम, घरेलू झगड़ों को सुलझाने की व्यवस्था, शिक्षा में सभी की अभिरुचि, स्वावलम्बन और बौद्धिक विकास के लिए सतत् प्रयत्न, मितव्ययिता और सादगी, कपड़ों की सिलाई आदि गृहउद्योगों का सूत्रपात, लोक हित के लिए नित्य नियमित दान जैसे अनेक कार्यक्रम घर की प्रयोगशाला में चलाये जा सकते हैं। यही प्रशिक्षण बड़े रूप से विकसित हों तो सारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत बन सकता है।

🔴 44. सन्तान और उसकी जिम्मेदारी— नई पीढ़ी का निर्माण एक परम पवित्र और समाज सेवा का श्रेष्ठ साधन माना जाय। सन्तानोत्पादन को विलास का नहीं, राष्ट्रीय कर्तव्य की पूर्ति का एक देशभक्ति पूर्ण कार्य माना जाय। इसके लिए माता-पिता अपनी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तैयारी बहुत पहले से ही आरम्भ करें। जो गुण-दोष माता-पिता में होते हैं वही सन्तान में आते हैं, इसलिए पति-पत्नी अपने सद्गुणों को ऊंची से ऊंची स्थिति तक चढ़ावें और अत्यन्त प्रेम एवं आत्मीयता से रहें। इसी एकता की उत्कृष्टता पर बालक का आन्तरिक विकास निर्भर रहता है।

🔵 परस्पर द्वेष अविश्वास एवं कलह रखने वाले माता-पिता दुष्टात्मा सन्तान को ही जन्म देते हैं। गर्भावस्था में माता की भावनाएं जिस प्रकार की रहती हैं वे ही संस्कार बच्चे में आते हैं। बालकों की शिक्षा माता के गर्भ-काल से तो आरम्भ हो ही जाती है, वस्तुतः वह इससे भी बहुत पहले होता है। माता-पिता के गुण, कर्म, स्वभाव, स्वास्थ्य, मनोभाव बौद्धिक स्तर का प्रभाव बालकों पर आता है। इसलिए सभ्य पीढ़ी उत्पन्न करने की क्षमता विचारशील पति-पत्नी को वैवाहिक जीवन के आरंभ से ही प्राप्त करने में लग जाना चाहिए। अधिक ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए और दाम्पत्य जीवन को प्रत्येक दृष्टि से आदर्श बनाना चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

सोमवार, 28 नवंबर 2016

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 29 Nov 2016


👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 29 Nov 2016


👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 31)

🌹 सभ्य समाज की स्वस्थ रचना

🔵 सामाजिक सुव्यवस्था के लिये हमें अपना वैयक्तिक और पारिवारिक जीवन भी ऐसा बनाना चाहिये कि उसका सत्प्रभाव सारे समाज पर पड़े। इसी प्रकार सामाजिक व्यवस्था में जहां व्यतिक्रम उत्पन्न हो गया है उसे सुधारना चाहिए। स्वस्थ परम्पराओं को सुदृढ़ बनाने और अस्वस्थ प्रथाओं को हटाने का ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि सभ्य समाज की रचना का लक्ष्य पूर्ण हो सके। नीचे कुछ ऐसे ही कार्यक्रम दिये गये हैं:—

🔴 41. सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथा— सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथा को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। व्यक्ति अपने आपको संकीर्ण दायरे तक ही सीमित न रखे। स्त्री-बच्चों को ही अपना न माने वरन् भाई, माता-पिता एवं अन्य सम्बद्ध कुटुम्बियों की प्रगति एवं सुव्यवस्था का भी आत्मीयतापूर्ण ध्यान रखना चाहिए। सब लोग मिल जुल कर रहें, एक दूसरे की सहायता करें, सहनशीलता, सहिष्णुता, त्याग और उदारता की सद्वृत्तियों को बढ़ावें, यही आत्म-विकास की श्रेष्ठ परम्परा है। स्वार्थ को परमार्थ में परिणत करने की परम्परा सम्मिलित कुटुम्ब में ही संभव है। अशान्ति और मनोमालिन्य उत्पन्न करने वाले कारणों को हटाना चाहिए किन्तु मूल आधार को नष्ट नहीं करना चाहिए। समाजवाद का प्राथमिक रूप सम्मिलित कुटुम्ब प्रथा ही है, उसे सुविकसित करना ही श्रेष्ठ है।

🔵 42. पारिवारिक विचारगोष्ठी— प्रत्येक परिवार में नित्य विचारगोष्ठी के रूप में सत्संग क्रम चला करे। कथा-कहानी, पुस्तकें पढ़ कर सुनाना सामयिक समाचारों की चर्चा करते हुए जीवन की विभिन्न समस्याओं के सुलझाने का प्रशिक्षण करना चाहिए। बड़ों के चरण छूकर प्रणाम करने की और छोटों की भी ‘तू’ न कह कर तुम या आप कहने की शिष्ट परम्पराएं हर परिवार में चलनी चाहिए। हर घर में उपासना कक्ष हो जहां बैठ कर कम से कम दस मिनट घर का हर सदस्य उपासना किया करे। घरेलू पुस्तकालय से विहीन कोई घर न रहे। जिन्दगी कैसे जिएं और नित्यप्रति सामने आती रहने वाली गुत्थियों को सुलझाने के लिए संजीवन विद्या का साहित्य बचपन से ही पढ़ा और सुना जाना चाहिए। उपासना स्वाध्याय और सत्संग की नियमित व्यवस्था रहे तो उसका प्रतिफल सुखी परिवारों के रूप में सामने आवेगा और सभ्य समाज की रचना का उद्देश्य आसानी से पूर्ण होगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 *गृहस्थ-योग (भाग 18) 29 Nov*

🌹 *गृहस्थ धर्म तुच्छ नहीं है*

🔵  मुद्दतों से शिक्षा, दीक्षा, अनुभव एवं सामाजिक कार्य क्षेत्र से पृथक एक छोटे पिंजड़े से घर में जीवन भर बन्द रहने और अपने जैसी अन्य मूर्खाओं की संगति मिलने के कारण वे बेचारी व्यावहारिक ज्ञान में बहुत कुछ पिछड़ गई हैं तो भी उनमें आत्मिक सद्गुण पुरुषों की अपेक्षा बहुत अधिक विद्यमान है। उनके सान्निध्य में नरक, पतन, माया, बन्धन जैसे किसी संकट के उत्पन्न होने की आशंका नहीं है। सच तो यह है कि उनके पवित्र अंचल की छाया में बैठकर पुरुष अपनी शैतानी आदतों से बहुत कुछ छुटकारा पा सकता है उनकी स्नेह गंगा के अमृत जल का आचमन करके अपने कलुष कषायों से, पाप तापों से छुटकारा पा सकता है।

🔴  जिनका अन्तःकरण पवित्र है वे कोमलता की अधिकता के कारण स्त्री में और भी अधिक सत् तत्व का अनुभव करते हैं। हजरत मुहम्मद साहब कहा करते थे कि ‘‘मेरी स्वर्ग मेरी माता के पैरों तले है’’ महात्मा विलियम का कथन है कि ‘‘ईश्वर ने स्त्री के नेत्रों में दो दीपक रख दिए हैं ताकि संसार में भूले भटके लोग उसके प्रकाश में अपना खोया हुआ रास्ता देख सकें’’ तपस्वी लोवेल ने एक बार कहा था ‘‘नारी का महत्व में इसलिए नहीं मानता कि विधाता ने उसे सुन्दर बनाया है, न उससे इसलिये प्रेम करता हूं कि वह प्रेम के लिये उत्पन्न की गई है। मैं तो उसे इसलिये पूज्य मानता हूं कि मनुष्य का मनुष्यत्व केवल उसी में जीवित है।’’ दिव्यदर्शी टेलर ने अपनी अनुभूति प्रकाशित की थी कि— ‘‘स्त्री की सृष्टि में ईश्वरीय प्रकाश है। वह एक मधुर सरिता है जहां मनुष्य अपनी चिन्ताओं और दुखों से त्राण पाता है।’’

🌹  क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 18) 29 Nov

🌹 *विवेक ही हमारा सच्चा मार्गदर्शक*

🔵  प्रत्येक सम्प्रदाय के अनुयायी अपने मार्गदर्शकों के प्रतिपादनों पर इतना कट्टर विश्वास करते हैं कि उनमें से किसी को झुठलाना उनके अनुयायियों को मर्मान्तक पीड़ा पहुंचाने के बराबर है। सभी मतवादी अपने मान्यताओं का अपने-अपने ढंग से ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि मानो उनका विश्वास ही एकमात्र सत्य है। इसका अर्थ हुआ कि अन्य मतावलम्बी झूठे हैं, जिस एक को सत्य माना जाय वह भी अन्यों की दृष्टि में झूठा है। फिर परस्पर घोर विपरीतता लिए हुए प्रतिपादनों में से किसी को भी सत्य ठहराते नहीं बनता। वह कहानी उपहासास्पद है जिसमें अन्धों ने हाथी के कई अंगों को पकड़कर उसका वर्णन अपने अनुभवों के आधार पर किया था।

🔴  इस कहानी में यह बात नहीं है कि एक ही कान को पकड़कर हर अन्धे ने उसे अलग-अलग प्रकार का बताया था, यहां तो यही होता देखा जा सकता है। पशुबलि को ही लें, एक सम्प्रदाय को तो उसके बिना धर्म-कर्म सम्पन्न ही नहीं होता दूसरा जीव हिंसा को धर्म के घोर विपरीत मानता है। दोनों ही अपनी-अपनी मान्यताओं पर कट्टर हैं, एक वर्ग ईश्वर को साकार बताता है, दूसरा निराकार। अपने-अपने पक्ष की कट्टरता के कारण अब तक असंख्यों बार रक्त की नदियां बहती रही हैं और विपक्षी को धर्मद्रोही बताकर सिर काटने में ईश्वर की प्रसन्नता जानी जाती रही है।

🔵  समाधान जब कभी निकलेगा तब विवेक की कसौटी का सहारा लेने पर ही निकलेगा, अन्य सभी क्षेत्रों की तरह धर्मक्षेत्र में भी असली-नकली का समन्वय बेतरह भरा है। किस धर्म की मान्यताओं में कितना अंश बुद्धि संगत है? यह देखते हुए यदि खिले हुए फूल चुन लिए जांय तो एक सुन्दर गुलदस्ता बन सकता है। बिना दुराग्रह के यदि सार संग्रह की दृष्टि लेकर चला जाये और प्राचीन-नवीन का भेद न किया जाये तो आज की स्थिति में जो उपयुक्त है उसे सर्वसाधारण के लिए प्रस्तुत किया जा सकेगा। वही सामयिक एवं सर्वोपयोगी धर्म हो सकेगा, ऐसे सार-संग्रह में विवेक को—तर्क-तथ्य को ही प्रामाणिक मानकर चलना पड़ेगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 43)

🌞  चौथा अध्याय

🔴  डाक्टर बताते हैं कि शारीरिक कोष हर घड़ी बदल रहे हैं, पुराने नष्ट हो जाते हैं और उनके स्थान पर नये आ जाते हैं। यद्यपि देखने में शरीर ज्यों का त्यों रहता है, पर कुछ ही समय में वह बिलकुल बदल जाता है और पुराने शरीर का एक कण भी बाकी नहीं बचता। वायु, जल और भोजन द्वारा नवीन पदार्थ शरीर में प्रवेश करते हैं और श्वाँस क्रिया तथा मल त्याग के रूप में बाहर निकल रहे हैं। भौतिक पदार्थ बराबर अपनी धारा में बह रहे हैं। नदी-तल में पड़े हुए कछुए के ऊपर होकर नवीन जलधारा बहती रहती है, तथापि वह केवल इतना ही अनुभव करता है कि पानी मुझे घेरे हुए है और मैं पानी में पड़ा हुआ हूँ।

🔵   हम लोग भी उस निरन्तर बहने वाली प्रकृति-धारा से भलीभाँति परिचित नहीं होते, तथापि वह पल भर भी ठहरे बिना बराबर गति करती रहती है। यह मनुष्य शरीर तक ही सीमित नहीं, वरन् अन्य जीवधारियों, वनस्पतियों और जिन्हें हम जड़ मानते हैं, उन सब पदार्थों में होती हुई आगे बढ़ती रहती है। हर चीज हर घड़ी बदल रही है। कितना ही प्रयत्न क्यों न किया जाए, इस प्रवाह की एक बूँद को क्षण भर भी रोककर नहीं रखा जा सकता यह भौतिक सत्य, आध्यात्मिक सत्य भी है। फकीर गाते हैं-'यह दुनियाँ आनी जानी है।'

🔴  भौतिक द्रव्य प्रवाह को तुम समझ गए होगे। यही बात मानसिक चेतनाओं की है। विचारधाराएँ, शब्दावलियाँ, संकल्प आदि का प्रवाह भी ठीक इसी प्रकार जारी है। जो बातें एक सोचता है, वही बात दूसरे के मन में उठने लगती है। दुराचार के अड्डों का वातावरण ऐसा घृणित होता है कि वहाँ जाते-जाते नये आदमी का दम घुटने लगता है। शब्दधारा अब वैज्ञानिक यन्त्रों के वश में आ गई है। रेडियो, बेतार का तार शब्द-लहरों का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मस्तिष्क में आने-जाने वाले विचारों के अब फोटो लिए जाने लगे हैं, जिससे यह पता चल जाता है कि अमुक आदमी किन विचारों को ग्रहण कर रहा है और कैसे विचार छोड़ रहा है ? बादलों की तरह विचार प्रवाह आकाश में मँडराता रहता है और लोगों की आकर्षण शक्ति द्वारा खींचा व फेंका जा सकता है। यह विज्ञान बड़ा महत्वपूर्ण और विस्तृत है, इस छोटी पुस्तक में उसका वर्णन कठिन हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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रविवार, 27 नवंबर 2016

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 28 Nov 2016


👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 28 Nov 2016


👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 41)

🌞  चौथा अध्याय

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित जगत्यां जगत्।
'संसार में जितना भी कुछ है वह सब ईश्वर से ओत-प्रोत है।'

🔴  पिछले अध्यायों में आत्म-स्वरूप और उसके आवरणों से जिज्ञासुओं को परिचित कराने का प्रयत्न किया गया है। इस अध्याय में आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध बताने का प्रयत्न किया जायेगा। अब तक जिज्ञासु 'अहम्' का जो रूप समझ सके हैं, वास्तव में वह उससे कहीं अधिक है। विश्वव्यापी आत्मा परमात्मा, महत् तत्व परमेश्वर का ही अंश है। तत्त्वतः उसमें कोई भिन्नता नहीं है।

🔵  तुम्हें अब इस तरह अनुभव करना चाहिए कि 'मैं' अब तक अपने को जितना समझता हूँ उससे कई गुना बड़ा हूँ। 'अहम्' की सीमा समस्त ब्रह्माण्डों के छोर तक पहुँचती है। वह परमात्म शक्ति की सत्ता में समाया हुआ है और उसी से इस प्रकार पोषण ले रहा है, जैसे गर्भस्थ बालक अपनी माता के शरीर से। वह परमात्मा का निज तत्त्व है। तुम्हें आत्मा परमात्मा की एकता का अनुभव करना होगा और क्रमशः अपनी अहन्ता को बढ़ाकर अत्यन्त महान् कर देने को अभ्यास में लाना होगा। तब उस चेतना में जग सकोगे, जहाँ पहुँच कर योग के आचार्य कहते हैं 'सोहम्'।

🔴  आइए, अब इसी अभ्यास की यात्रा आरम्भ करें। अपने चारों ओर दूर तक नजर फैलाओ और अन्तर नेत्रों से जितनी दूरी तक के पदार्थों को देख सकते हो देखो, प्रतीत होगा कि एक महान् विश्व चारों ओर बहुत दूर, बहुत दूर तक फैला हुआ है। यह विश्व केवल ऐसा ही नहीं है जैसा मोटे तौर पर समझा जाता है, वरन् यह एक चेतना का समुद्र है। प्रत्येक परमाणु आकाश एवं ईथर तत्त्व में बराबर गति करता हुआ आगे को बह रहा है। शरीर के तत्त्व हर घड़ी बदल रहे हैं। आज जो रासायनिक पदार्थ एक वनस्पत्ति में है, वह कल भोजन द्वारा हमारे शरीर में पहुँचेगा और परसों मल रूप में निकलकर अन्य जीवों के शरीर का अंग बन जाएगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 17) 28 Nov

🌹 *विवेक ही हमारा सच्चा मार्गदर्शक*

🔵  विवेकशीलता को ही सत्य की प्राप्ति का एकमात्र साधन कहा जा सकता है। सत्य को नारायण कहा गया है, भगवान का सर्वाधिक सारगर्भित नाम सत्यनारायण है। यथार्थता के हम जितने अधिक निकट पहुंचते हैं भगवान के सान्निध्य का, उसके दर्शन का उतना ही लाभ लेते हैं। हीरा पेड़ों पर फूल की तरह लटका नहीं मिलता, वह कोयले की गहरी खदानें खोदकर निकालना पड़ता है। सत्य किसी को अनायास ही नहीं मिल जाता, उसे विवेक की कुदाली से खोदकर निकालना पड़ता है।

🔴  दूध और पानी के अलग कर देने की आदत हंस में बताई जाती है। इस कथन में तो अलंकार मात्र है, पर यह सत्य है कि विवेक रूपी हंसवृत्ति उचित और अनुचित के चालू सम्मिश्रण में से यथार्थता को ढूंढ़ निकालती है और उस पर चढ़े हुए कलेवर को उतार फेंकती है।
शरीर की आंतरिक स्थिति का सामान्यतः कुछ भी पता नहीं चलता, पर रक्त ‘एक्सरे’ मल-मूत्र आदि के परीक्षण से उसे जाना जाता है। सत्य और असत्य का विश्लेषण करने के लिए विवेक ही एकमात्र परीक्षा का आधार है। मात्र मान्यताओं, परम्पराओं, शास्त्रीय आप्त वचनों से वस्तुस्थिति को जान सकना अशक्य है।

🔵  धर्मक्षेत्र का पर्यवेक्षण किया जाये तो पता चलता है कि संसार में हजारों धर्म सम्प्रदाय मत-मतान्तर प्रचलित हैं। उनकी मान्यतायें एवं परम्परायें एक दूसरे के सर्वथा विपरीत हैं, नैतिकता के थोड़े से सिद्धान्तों पर आंशिक रूप से वे जरूर सहमत होते हैं बाकी सृष्टि के इतिहास से लेकर ईश्वर की आकृति-प्रकृति अन्त उपासना तक के सभी प्रतिपादनों में घोर मतभेद है। प्रथा परम्पराओं के सम्बन्ध में कोई तालमेल नहीं, ऐसी दशा में किस शास्त्र को, किस अवतार को सही माना जाय—यह निर्णय नहीं हो सकता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 गृहस्थ-योग (भाग 17) 28 Nov

🌹 *गृहस्थ धर्म तुच्छ नहीं है*

🔵  वास्तविक बात यह है कि आत्मसाधना में जो विक्षेप पैदा होता है उसका कारण अपनी कुवासना, संकीर्णता, तुच्छता अनुदारता, और स्वार्थपरता है। यह दुर्भाव ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यास जिस भी आश्रम में रहेंगे उसे ही पाप मय बना देंगे। इसके विपरीत यदि अपने मन में त्याग, सेवा, सत्यता, सृजनता, एवं उदारता की भावनाएं विद्यमान हों तो कोई भी आश्रम स्वर्ग दायक, मुक्ति प्रद, परम पद पा जाने वाला, हो सकता है। आध्यात्मिक साधकों को अपने मनी, वानप्र इस भ्रम को पूर्णतया बहिष्कृत कर देना चाहिए कि गृहस्थाश्रम कोई छोटा या गिराने वाला धर्म है। यदि समुचित रीति से उसका पालन किया जाय तो ब्रह्मचर्य या संन्यास की तरह वह भी सिद्धिदाता प्रमाणित हो सकता है।

🔴  गृहस्थ धर्म जीवन का एक पुनीत, आवश्यक एवं उपयोगी अनुष्ठान है। स्त्री और पुरुष के एकत्रित होने से दो अपूर्ण जीवन एक पूर्ण जीवन का रूप धारण करते हैं। पक्षी के दो पंखों की तरह, रथ के दो पहियों की तरह, स्त्री और पुरुष का मिलन एक दृढ़ता एवं स्थिरता की सृष्टि करता है। शारीरिक और मानसिक तत्व के आचार्य जानते हैं कि कुछ तत्वों की पुरुष में अधिकता और स्त्री में न्यूनता होती है इसी प्रकार कुछ तत्व स्त्री में अधिक और पुरुष में कम होते हैं। इस अभाव की पूर्ति दोनों के सहचरत्व से होती है। स्त्री पुरुष में एक दूसरे के प्रति जो असाधारण आकर्षण होता है उसका कारण वही क्षति पूर्ति है। मन की सूक्ष्म चेतना अपनी क्षति पूर्ति के उपयुक्त साधनों को प्राप्त करने के लिए विचलित होता है तब उसे संयोग की अभिलाषा कहा जाता है। अंध और पंगु मिलकर देखने और चलने के लाभों को प्राप्त कर लेते हैं ऐसे ही लाभ एक दूसरे की सहायता से दम्पत्ति को भी मिल जाते हैं।

🔵  मूलतः न तो पुरुष बुरा है न स्त्री। दोनों ही ईश्वर की पवित्र कृतियां है। दोनों में ही आत्मा का निर्मल प्रकाश जगमगाता है। पुरुष का कार्यक्षेत्र घर से बाहर रहने के कारण उसकी बाह्य योग्यतायें विकसित हो गई हैं वह बलवान, प्रभाव शाली, कमाऊ और चतुर दिखाई देता है, पर इसके साथ साथ ही आत्मिक सद्गुणों को इस बाह्य संघर्ष के कारण उसने बहुत कुछ खो दिया है। सरलता, सरसता, वफादारी, आत्म-त्याग, दयालुता, प्रेम तथा वात्सल्य की वृत्तियां आज भी स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा बहुत अधिक देखी जाती हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 30)

🌹 जन-मानस को धर्म-दीक्षित करने की योजना

🔵 38. युग निर्माण के ज्ञान मन्दिर— जगह-जगह ऐसे केन्द्र स्थापित किये जांय जिनका स्वरूप ज्ञान मन्दिर जैसा हो। सद्भावना और सत्प्रवृत्ति की प्रतीक गायत्री माता का सुन्दर चित्र इन केन्द्रों में स्थापित करके, प्रातः सायं पूजा, आरती, भजन, कीर्तन की व्यवस्था करके इन केन्द्रों में मन्दिर जैसा धार्मिक वातावरण बनाया जाय। उसमें पुस्तकालय, वाचनालय रहें। सदस्यों के नित्य प्रति मिलने-जुलने, पढ़ने सीखने और विचार विनिमय करने एवं रचनात्मक कार्यों की योजनायें चलाने के लिये इसे एक क्लब या मिलन मन्दिर का रूप दिया जाय। योजना की स्थानीय प्रवृत्तियों के संचालक के लिये इस प्रकार के केन्द्र कार्यालय हर जगह होने चाहिए।

🔴 39. साधु ब्राह्मण भी कर्तव्य पालें— पंडित, पुरोहित, ग्राम गुरु, पुजारी, साधु, महात्मा, कथा वाचक आदि धर्म के नाम पर आजीविका चलाने वाले व्यक्तियों की संख्या भारतवर्ष में 60 लाख है। इन्हें जन सेवा एवं धर्म प्रवृत्तियों को चलाने के लिये प्रेरणा देनी चाहिए। ईसाई धर्म में करीब 1 लाख पादरी हैं जिनके प्रयत्न से संसार की तीन अरब आबादी में से करीब 1 अरब लोग ईसाई बन चुके हैं। इधर साठ लाख सन्त-महन्तों के होते हुए भी हिन्दू धर्म की संख्या और उत्कृष्टता दिन दिन गिरती जा रही है, यह दुःख की बात है। इस पुरोहित वर्ग को समय के साथ बदलने और जनता से प्राप्त होने वाले मान एवं निर्वाह के बदले कुछ प्रत्युपकार करने की बात सुझाई-समझाई जाय। इतने बड़े जन समाज को केवल आडम्बर के नाम पर समय और धन नष्ट करते हुये नहीं रहने देना चाहिये। यदि यह प्रयत्न सफल नहीं होता है तो धर्म-प्रचार के उत्तरदायित्व को हम लोग मिल जुल कर कंधों पर उठावें, हम में हर व्यक्ति धर्म प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने के लिये कुछ समय नियमित रूप से दिया करे।

🔵 40. वानप्रस्थ का पुनर्जीवन— जिन्हें पारिवारिक उत्तर-दायित्वों से छुटकारा मिल चुका है, जो रिटायर्ड हो चुके हैं या जिनके घर में गुजारे के आवश्यक साधन मौजूद हैं उन्हें अपना अधिकांश समय लोक-हित और परमार्थ के लिये लगाने की प्रेरणा उत्पन्न हो, ऐसा प्रयत्न किया जाय। वानप्रस्थ आश्रम पालन करने की प्रथा अब लुप्त हो गई है। उसे पुनः सजीव किया जाय। ढलती आयु में गृहस्थ के उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर लोग घर में रहते हुए लोकसेवा में अधिक समय दिया करें तो सन्त-महात्माओं और ब्राह्मण पुरोहितों का आवश्यक उत्तरदायित्व किसी प्रकार अन्य लोग अपने कंधे पर उठाकर पूरा कर सकते हैं। वानप्रस्थ की पुण्य परम्परा का पुनर्जागरण युग-निर्माण की दृष्टि से नितांत आवश्यक है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

शनिवार, 26 नवंबर 2016

👉 गृहस्थ-योग (भाग 16) 27 Nov

🌹 गृहस्थ धर्म तुच्छ नहीं है

🔵  यह एक बिल्कुल ही बे सिर पैर का विचार है कि पुराने समय में ऋषि लोग अविवाहित ही रहते थे। यह ठीक है कि ऋषि मुनियों में कुछ ऐसे भी थे, जो बहुत समय तक अथवा आजीवन ब्रह्मचारी रहते थे पर उसमें से अधिकांश गृहस्थ थे। स्त्री बच्चों के साथ होने से तपश्चर्या में आत्मोन्नति में उन्हें सहायता मिलती थी। इसलिए पुराणों में पग-पग पर इस बात की साक्षी मिलती है कि भारतीय महर्षिगण, योगी, यती, साधु, तपस्वी, अन्वेषक, चिकित्सक, वक्ता, रचियता, उपदेष्टा, दार्शनिक, अध्यापक, नेता आदि विविध रूपों में अपना जीवन-यापन करते थे और अपने महान-कार्य में स्त्री बच्चों को भी भागीदारी बनाते थे।

🔴  आध्यात्मिक मार्ग पर कदम बढ़ाने वाले साधक के आज अज्ञान और अविवेक भरे मूढ़ विश्वासों ने एक भारी उलझन पैदा कर दी है। ‘‘आत्म साधना गृहस्थ से नहीं हो सकती, स्त्री नरक का द्वार है, कुटुम्ब परिवार माया का बन्धन है, इनके रहते भजन नहीं हो सकता, परमात्मा नहीं मिल सकता’’ इस प्रकार की अज्ञान जन्य भ्रम पूर्ण कल्पनाऐं साधक के मस्तिष्क में चक्कर लगाती हैं। परिणाम यह होता है कि या तो वह आत्म मार्ग को अपने लिये असंभव समझ कर उसे छोड़ देता है या फिर पारिवारिक महान् उत्तरदायित्व को छोड़कर भीख टूक मांग खाने के लिये घर से निकल भागता है।

🔵  यदि बीच में ही लटका रहा तो और भी अधिक दुर्दशा होती है। परिवार उसे गले में बंधे हुए चक्की के पाट की तरह भार रूप प्रतीत होता है। उपेक्षा, लापरवाही, गैर जिम्मेदारी के दृष्टि से बर्ताव करने के कारण उसके हर एक व्यवहार में कुरूपता एवं कटुता रहने लगती है। स्त्री बच्चे सोचते हैं कि यह हमारे जीवन को दुखमय बनाने वाला है, शत्रुता के भाव मन में जगते हैं, प्रतिशोध की वृत्तियां पैदा होती हैं, कटुता कलह, घृणा और तिरष्कार के विषैले वातावरण की सृष्टि होती है। उस वातावरण में रहने वाला कोई भी प्राणी स्वस्थता और प्रसन्नता कायम नहीं रख सकता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 29)

🌹 जन-मानस को धर्म-दीक्षित करने की योजना

🔵 35. जन्म-दिन समारोह— हर व्यक्ति का जन्मदिन समारोह मनाया जाय। उसके स्वजन सम्बन्धी बधाई और शुभ कामनाएं दिया करें। एक छोटा जन्मोत्सव मनाया जाया करे जिसमें वह व्यक्ति आत्म-निरीक्षण करते हुए शेष जीवन को और भी अधिक आदर्शमय बनाने के लिए कदम उठाया करे। बधाई देने वाले लोग भी कुछ ऐसा ही प्रोत्साहन उसे दिया करें। हर जन्म-दिन जीवन शोधन की प्रेरणा का पर्व बने, ऐसी प्रथा परम्पराएं प्रचलित की जानी चाहिये।

🔴 36. व्रतशीलता की धर्म धारणा— प्रत्येक व्यक्ति व्रतशील बने, इसके लिये व्रत आन्दोलन को जन्म दिया जाना चाहिए। भोजन, ब्रह्मचर्य, अर्थ उपार्जन, दिनचर्या, खर्च का निर्धारित बजट, स्वाध्याय, उपासना, व्यायाम, दान, सोना, उठना आदि हर कार्य की निर्धारित मर्यादाएं अपनी परिस्थितियों के अनुकूल निर्धारित करके उसका कड़ाई के साथ पालन करने की आवश्यकता हर व्यक्ति अनुभव करे, ऐसा लोक शिक्षण किया जाय। बुरी आदतों को क्रमशः घटाते चलना और सद्गुणों को निरन्तर बढ़ाते चलना भी इस आन्दोलन का एक अंग रहे। साधनामय, संयमी और मर्यादित जीवन बिताने की कला हर व्यक्ति को सिखाई जाय ताकि उसके लिये प्रगतिशील हो सकना संभव हो सके।

🔵 37. मन्दिरों को प्रेरणा-केन्द्र बनाया जाय— मन्दिर, मठों को नैतिक एवं धार्मिक प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाया जाय। इतनी बड़ी इमारतों में प्रौढ़ पाठशालायें, रात्रि पाठशालायें, कथा-कीर्तन, प्रवचन, उपदेश, पर्व त्यौहारों के सामूहिक आयोजन, यज्ञोपवीत, मुण्डन आदि संस्कारों के कार्यक्रम, औषधालय, पुस्तकालय, संगीत, शिक्षा, आसन, प्राणायाम, व्यायाम की व्यवस्था, व्रत आन्दोलन जैसी युग-निर्माण की अनेकों गतिविधियों को चलाया जा सकता है। भगवान की सेवा पूजा करने वाले व्यक्ति ऐसे हों जो बचे हुए समय का उपयोग मन्दिर को धर्म प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाये रहने और उनका संचालन करने में लगाया करें। प्रतिमा की आरती, पूजा, भोग, प्रसाद की तरह ही जन-सेवा के कार्यक्रमों को भी यज्ञ माना जाना चाहिए और इनके लिए मन्दिरों के संचालकों एवं कार्यकर्ताओं से अनुरोध करना चाहिए कि मन्दिरों को उपासना के साथ-साथ धर्म सेवा का भी केन्द्र बनाया जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 16) 27 Nov

🌹 *विवेक ही हमारा सच्चा मार्गदर्शक*

🔵  वस्तुस्थिति का सही मूल्यांकन कर सकना, कर्म के प्रतिफल का गम्भीरतापूर्वक निष्कर्ष निकलना, उचित-अनुचित के सम्मिश्रण में से जो श्रेयस्कर है उसी को अपनाना—यह विवेक बुद्धि का काम है। मोटी अकल इन प्रसंगों में बेतरह असफल होती है। अवांछनीयता में रहने वाला आकर्षण सामान्य चिन्तन को ऐसे व्यामोह में डाल देता है कि उसे तात्कालिक लाभ को छोड़ने का साहस ही नहीं होता, भले ही पीछे उसका प्रतिफल कुछ भी क्यों न भुगतना पड़े।

🔴  इसी व्यामोह में ग्रस्त होकर अधिकतर लोग आलस्य-प्रमाद से लेकर व्यसन-व्यभिचार तक और क्रूर कुकर्मों की परिधि तक बढ़ते चले जाते हैं। इन्द्रिय लिप्सा में ग्रस्त होकर लोग अपना स्वास्थ्य चौपट करते हैं। वासना-तृष्णा के गुलाम किस प्रकार बहुमूल्य जीवन का निरर्थक गतिविधियों में जीवन सम्पदा गंवाते हैं—यह प्रत्यक्ष है। आंतरिक दोष-दुर्गुणों, षडरिपुओं को अपनाये रहकर व्यक्ति किस प्रकार खोखला होता चला जाता है, इसका प्रमाण आत्म-समीक्षा करके हम स्वयं ही पा सकते हैं।

🔵  अनर्थ मूलक भ्रम-जंजाल से निकालकर श्रेयस्कर दिशा देने की क्षमता केवल विवेक में ही होती है। वह जिसके पास मौजूद है समझना चाहिए कि उसी के लिए औचित्य अपनाना सम्भव होगा और वही कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर सकने में समर्थ होगा। विवेक शीलता की कमी अन्य किसी गुण से पूरी नहीं हो सकती, अन्य गुण कितनी ही बड़ी मात्रा में क्यों न हों, पर यदि विवेक का अभाव है तो वह सही दिशा का चुनाव न कर सकेगा। दिग्भ्रान्त मनुष्य कितना ही श्रम क्यों न करे अभीष्ट लक्ष्य तक पहुंच सकना उसके लिए सम्भव ही न होगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 27 Nov 2016


👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 40)

🌞  तीसरा अध्याय

🔴  संतोष और धैर्य धारण करो कार्य कठिन है, पर इसके द्वारा जो पुरस्कार मिलता है, उसका लाभ बड़ा भारी है। यदि वर्षों के कठिन अभ्यास और मनन द्वारा भी तुम अपने पद, सत्ता, महत्व, गौरव, शक्ति की चेतना प्राप्त कर सको, तब भी वह करना ही चाहिए। यदि तुम इन विचारों में हमसे सहमत हो, तो केवल पढ़कर ही संतुष्ट मत हो जाओ। अध्ययन करो, मनन करो, आशा करो, साहस करो और सावधानी तथा गम्भीरता के साथ इस साधन-पथ की ओर चल पड़ो।

🔵  इस पाठ का बीज मंत्र-

    'मैं' सत्ता हूँ। मन मेरे प्रकट होने का उपकरण है।
    'मैं' मन से भिन्न हूँ। उसकी सत्ता पर आश्रित नहीं हूँ।
    'मैं' मन का सेवक नहीं, शासक हूँ।
    'मैं' बुद्धि, स्वभाव, इच्छा और अन्य समस्त मानसिक उपकरणों को अपने से अलग कर सकता हूँ। तब जो कुछ शेष रह जाता है, वह 'मैं' हूँ।
    'मैं' अजर-अमर, अविकारी और एक रस हूँ।
    'मैं हूँ'।.......

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 26 Nov 2016


👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 28)

🌹 जन-मानस को धर्म-दीक्षित करने की योजना

🔵 34. पर्व और त्यौहारों का सन्देश— जिस प्रकार व्यक्तिगत नैतिक प्रशिक्षण के लिये संस्कारों की उपयोगिता है उसी प्रकार सामाजिक सुव्यवस्था की शिक्षा पर्व और त्यौहारों के माध्यम से दी जाती है। हर त्यौहार के साथ महत्वपूर्ण आदर्श और संदेश सन्निहित हैं जिन्हें हृदयंगम करने से जन साधारण को अपने सामाजिक कर्तव्यों का ठीक तरह बोध हो सकता है और उन्हें पालन करने की आवश्यक प्रेरणा मिल सकती है।

🔴 त्यौहारों के मनाये जाने के सामूहिक कार्यक्रम बनाये जाया करें, और उनके विधान, कर्मकाण्ड ऐसे रहें जिनमें भाग लेने के लिये सहज ही आकर्षण हो और इच्छा जगे। सब लोग इकट्ठे हों, पुरोहित लोग उस पर्व का संदेश सुनाते हुए प्रवचन करें और उस संदेश में जिन प्रवृत्तियों की प्रेरणा है उन्हें किसी रूप से कार्यान्वित भी किया जाया करे।

🔵 संस्कारों और त्यौहारों को कैसे मनाया जाया करे और उपस्थित लोगों को क्या सिखाया जाया करे इसकी शिक्षा व्यवस्था हम जल्दी ही करेंगे। उसे सीख कर अपने संबद्ध समाज में इन पुण्य प्रक्रियाओं को प्रचलित करने का प्रयत्न करना चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य 

👉 गृहस्थ-योग (भाग 15) 26 Nov

🌹 गृहस्थ धर्म तुच्छ नहीं है

🔵  पाठकों को हमारा आशय समझने में भूल न करनी चाहिए। हम ब्रह्मचर्य की अपेक्षा विवाहित जीवन को अच्छा बताने का प्रयत्न नहीं कर रहे हैं। ब्रह्मचर्य एक अत्यन्त उपयोगी और हितकारी साधना है इसके लाभों की कोई गणना नहीं हो सकती। इन पंक्तियों में हम मानसिक असंयम और विवाहित जीवन की तुलना कर रहे हैं। जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य की साधना में अपने को समर्थ न पावें, जो मानसिक वासना पर काबू न रख सकें उनके लिए यही उचित है कि विवाहित जीवन व्यतीत करें। होता भी ऐसा ही है सौ में से निन्यानवे आदमी गृहस्थ जीवन बिताते हैं। इस स्वाभाविक प्रक्रिया में कोई अनुचित बात भी नहीं है।

🔴  यह सोचना ठीक नहीं कि गृहस्थाश्रम में बंधने से आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती। आत्मा को ऊंचा उठाकर परमात्मा तक ले जाना यह पुनीत आत्मिक साधना अन्तःकरण की भीतरी स्थिति से सम्बन्ध रखती है। बाह्य जीवन से इसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। जिस प्रकार ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ या संन्यासी आत्म-साधना द्वारा जीवन लक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं वैसे ही गृहस्थ भी कर सकता है। सदा सनातन काल से ऐसा होता आया है। अध्यात्म साधकों में गृहस्थ ही हम अधिक देखते हैं। 

🔵  प्राचीन काल के ऋषिगण आज के गैर जिम्मेदार और अव्यवस्थित बाबाजीओं से सर्वथा भिन्न थे। धनी बस्ती न बसाकर स्वच्छ वायु को दूर-दूर घर बनाना, पक्के मकान न बनाकर छोटी झोंपड़ियों में रहना, वस्त्रों से लदे न रहकर शरीर को खुला रखना आदि उस समय की साधारण प्रथायें थीं। उस समय के राजा तथा देवताओं के जो चित्र मिलते हैं उससे वे सब भी कटि वस्त्र के अतिरिक्त और कोई कपड़ा पहने नहीं दीखते। यह उस समय की परिपाटी थी। आज जिस वेश-भूषा की नकल करके लोग अपने को साधु मान लेते हैं वह पहनाव-उढ़ाव, रहन-सहन उस समय में सर्व साधारण का था।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 15) 26 Nov

🌹 विवेक ही हमारा सच्चा मार्गदर्शक

🔵  कर्म करने में मनुष्य पूर्ण स्वतन्त्र है, पर परिणाम भुगतने के लिए वह नियोजक सत्ता के पराधीन है। हम विष पीने में पूर्ण स्वतन्त्र हैं, पर मृत्यु का परिणाम भुगतने से बच जाना अपने हाथ में नहीं है। पढ़ना, न पढ़ना विद्यार्थी के अपने हाथ में है, पर उत्तीर्ण होने, न होने में उसे परीक्षकों के निर्णय पर आश्रित रहना पड़ता है। कर्मफल की पराधीनता न रही होती तो फिर कोई सत्कर्म करने के झंझट में पड़ना स्वीकार ही न करता। दुष्कर्मों के दण्ड से बचना भी अपने हाथ में होता तो फिर कुकर्मों में निरत रहकर अधिकाधिक लाभ लूटने से कोई भी अपना हाथ न रोकता।

🔴  अदूरदर्शी इसी भूल-भुलैयों में भटकते देखे जाते हैं, वे तत्काल का लाभ देखते हैं और दूरगामी परिणाम की ओर से आंख बन्द किये रहते हैं। आटे के लोभ में गला फंसाने वाली मछली और दाने के लालच में जाल पर टूट पड़ने वाले पक्षी अपनी आरम्भिक जल्दबाजी पर प्राण गंवाते समय तक पश्चाताप करते हैं। आलसी किसान और आवारा विद्यार्थी आरम्भ में मौज करते हैं, पर जब असफलताजन्य कष्ट भुगतना पड़ता है तो पता चलता है कि वह अदूरदर्शिता कितनी महंगी पड़ी।

🔵  व्यसन-व्यभिचार में ग्रस्त मनुष्य भविष्य के दुष्परिणाम को नहीं देखते। अपव्यय आरम्भ में सुखद और अन्त में कष्टप्रद होता है—यह समझ यदि समय रहते उपज पड़े तो फिर अपने समय-धन आदि को बर्बाद करने में किसी को उत्साह न हो। दुष्कर्म करने वाले अनाचारी लोग भविष्य में सामने आने वाले दुष्परिणामों की कल्पना ठीक तरह नहीं कर पाते और कुमार्ग पर चलते रहते हैं। सिर धुनकर तब पछताना पड़ता है जब दण्ड व्यवस्था सिर पर बेहिसाब बरसती और नस-नस को तोड़कर रखती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 39)

🌞  तीसरा अध्याय

🔴  लोग समझते हैं कि मन ने हमें ऐसी स्थिति में डाल दिया है कि हमारी वृत्तियाँ हमें बुरी तरह काँटों में घसीटे फिरती हैं और तरह-तरह से त्रास देकर दुखी बनाती हैं। साधक इन दुखों से छुटकारा पा जावेंगे, क्योंकि वह उन सब उद्गमों से परिचित हैं और यहाँ काबू पाने की योग्यता सम्पादन कर चुके हैं। किसी बड़े मिल में सैकड़ों घोड़ों की ताकत से चलने वाला इंजन और उसके द्वारा संचालित होने वाली सैकड़ों मशीनें तथा उनके असंख्य कल-पुर्जे किसी अनाड़ी को डरा देंगे। वह उस घर में घुसते ही हड़बड़ा जाएगा। 

🔵  किसी पुर्जे में धोती फँस गई, तो उसे छुटाने में असमर्थ होगा और अज्ञान के कारण बड़ा त्रास पावेगा। किन्तु वह इँजीनियर जो मशीनों के पुर्जे-पुर्जे से परिचित है और इंजन चलाने के सारे सिद्धान्त को भली भाँति समझा हुआ है, उस कारखाने में घुसते हुए तनिक भी न घबरायेगा और गर्व के साथ उन दैत्याकार यन्त्रों पर शासन करता रहेगा, जैसे एक महावत हाथी पर और सपेरा भयंकर विषधरों पर करता है। उसे इतने बड़े यंत्रालय का उत्तरदायित्व लेते हुए भय नहीं अभिमान होगा। वह हर्ष और प्रसन्नतापूर्वक शाम को मिल मालिक को हिसाब देगा, बढ़िया माल की इतनी बड़ी राशि उसने थोड़े समय में ही तैयार कर दी है। 

🔴  उसकी फूली हुई छाती पर से सफलता का गर्व मानो टपका पड़ रहा है। जिसने अपने 'अहम्' और वृत्तियों का ठीक-ठीक स्वरूप और सम्बन्ध जान लिया है, वह ऐसा ही कुशल इंजीनियर, यंत्र संचालक है। अधिक दिनों का अभ्यास और भी अद्भुत शक्ति देता है। जागृत मन ही नहीं, उस समय प्रवृत्त मन, गुप्त मानस भी शिक्षित हो गया होता है और वह जो आज्ञा प्राप्त करता है, उसे पूरा करने के लिए चुपचाप तब भी काम किया करता है, जब लोग दूसरे कामों मे लगे होते हैं या सोये होते हैं। गुप्त मन जब उन कार्यों को पूरा करके सामने रखता है, तब नया साधक चौंकता है कि यह अदृष्ट सहायता है, यह अलौकिक करामात है, परन्तु योगी उन्हें समझाता है कि वह तुम्हारी अपनी अपरिचित योग्यता है, इससे असंख्य गुनी प्रतिभा तो अभी तुम में सोई पड़ी है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

गुरुवार, 24 नवंबर 2016

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 25 Nov 2016


👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 27)

🌹 जन-मानस को धर्म-दीक्षित करने की योजना
🔵 32. स्वाध्याय की साधना— जीवन-निर्माण की आवश्यक प्रेरणा देने वाला सत्साहित्य नित्य नियमपूर्वक पढ़ना ही चाहिये। स्वाध्याय को भी साधना का ही एक अंग माना जाय और कुछ समय इसके लिए नियत रखा जाय। कुविचारों को शमन करने के लिए नित्य सद्विचारों का सत्संग करना आवश्यक है। व्यक्ति का सत्संग तो कठिन पड़ता है पर साहित्य के माध्यम से संसार भर के जीवित या मृत सत्पुरुषों के साथ सत्संग किया जा सकता है। यह जीवन का महत्वपूर्ण लाभ है, जिससे किसी को भी वंचित नहीं रहना चाहिये। जो पढ़े लिखे नहीं हैं उन्हें दूसरों से सत्साहित्य पढ़ा कर सुनने की व्यवस्था करनी चाहिये।

🔴 33. संस्कारित जीवन— जीवन को समय-समय पर संस्कारित करने के लिये हिन्दू धर्म में षोडश संस्कारों का महत्वपूर्ण विधान है। पारिवारिक समारोह के उत्साहपूर्ण वातावरण में सुव्यवस्थित जीवन की शिक्षा इन अवसरों पर मनीषियों द्वारा दी जाती है और अग्निदेव तथा देवताओं की साक्षी में इन नियमों पर चलने के लिये प्रतिज्ञा कराई जाती है तो उसका ठोस प्रभाव पड़ता है। पुंसवन, सीमन्त, नामकरण, मुण्डन, अन्न प्राशन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ, अन्त्येष्टि आदि संस्कारों का कर्मकाण्ड बहुत ही शिक्षा और प्रेरणा से भरा हुआ है। यदि उन्हें ठीक तरह किया जाय तो हर व्यक्ति पर गहरा प्रभाव पड़े।

🔵 खेद है कि संस्कारों के कर्मकाण्ड अब केवल चिन्हपूजा मात्र रह गये हैं। उनमें खर्च तो बहुत होता है पर प्रेरणा कुछ नहीं मिलती। हमें संस्कारों का महत्व जानना चाहिए और कराने की विधि तथा शिक्षा को सीखना समझना चाहिए। संस्कारों का पुनः प्रसार किया जाय और उनके कर्मकाण्ड इस प्रकार किये जांय कि कम-से-कम खर्च में अधिक से अधिक प्रेरणा प्राप्त कर सकना सर्वसुलभ हो सके।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 *गृहस्थ-योग (भाग 14) 25 Nov*

🌹 *गृहस्थ धर्म तुच्छ नहीं है*

🔵  किसी स्रोत में से पानी का प्रवाह जारी हो किन्तु उसके बहाव के मार्ग को रोक दिया जाय तो वह पानी जमा होकर दूसरे मार्ग से फूट निकलेगा। मन से विषय और चिन्तन और बाहर से ब्रह्मचर्य यह भी इसी प्रकार का कार्य है। मन में वासना उत्पन्न होने से जो उत्तेजना पैदा होती है वह फूट निकलने के लिए कोई न कोई मार्ग ढूंढ़ती है। साधारण मार्ग बन्द होता है तो कोई और मार्ग बनाकर वह निकलती है। यह नया मार्ग अपेक्षाकृत बहुत खतरनाक और हानिकारक साबित होता है।

🔴  संसार भर की जनगणना की रिपोर्टों का अवलोकन करने से यह सच्चाई और भी अधिक स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाती है। विवाहित स्त्री-पुरुषों की प्रतिशत जितनी मृत्यु होती है विधवा या विधुरों की मृत्यु का अनुपात प्रायः उससे ड्यौढ़ा रहता है। मोटी दृष्टि से देखने पर विवाहितों की जीवनी-शक्ति अधिक और अविवाहितों की कम खर्च होती है इससे विवाहितों की अल्पायु और रोगी रहने की सम्भावना प्रतीत होती है परन्तु होता इसका ठीक उलटा है।

🔵  विवाहित लोग सम्भोगजन्य क्षय, बालकों का भरण-पोषण, अधिक चिन्ता तथा जिम्मेदारी आदि के भार को खींचते हुए भी जितनी आयु और निरोगता प्राप्त करते हैं अविवाहित लोग उतने नहीं कर पाते। इसका एक मात्र कारण वासना की अतृप्ति से उत्पन्न हुआ मानसिक उद्वेग है, जो बड़ा घातक होता है, उसकी विषाक्त ज्वाला से सारे जीवन तत्व भीतर ही भीतर जल-भुन जाते हैं। चित्त की अस्थिरता और अशान्ति के कारण कोई कहने लायक महान कार्य भी उनसे सम्पादित नहीं हो पाता कोई बड़ी सफलता भी नहीं मिल पाती। इस प्रकार विवाहितों  की अपेक्षा यह अविवाहित अधिक घाटे में रहते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 14) 25 Nov

🌹 विवेक ही हमारा सच्चा मार्गदर्शक

🔵  यह संसार जड़ और चेतन के, सत् और असत् के सम्मिश्रण से बना है। देव और दानव दोनों यहां रहते हैं। देवत्व और असुरता के बीच सदा सत्ता-संघर्ष चलता रहता है। भगवान का प्रतिद्वन्दी शैतान भी अनादिकाल से अपना अस्तित्व बनाये हुए है। परस्पर विरोधी रात और दिन का, अन्धकार और प्रकाश का जोड़ा न जाने कब से जुड़ा चला आ रहा है। कपड़ा ताने और बाने से मिलकर बना है, यद्यपि दोनों की दिशा परस्पर विरोधी है। यहां जलाने वाली गर्मी भी बहुत है। शीतलता देने वाली बर्फ से भी पूरे ध्रुव प्रदेश और पर्वत शिखर लदे पड़े हैं।

🔴  यहां न सन्त-सज्जनों की कमी है और न दुष्ट-दुर्जनों की। पतन के गर्त में गिराने वाले तत्व अपनी पूरी साज-सज्जा बनाये बैठे और अपने आकर्षण जाल में सारे संसार को जकड़ने के प्रयास में संलग्न हैं। दूसरी ओर उत्थान की प्रेरणा देने वाली उत्कृष्टता भी मर नहीं गई है, उसकी प्रकाश किरणों का आलोक भी सदा ही दीप्तिमान रहता है और असंख्यों को श्रेष्ठता की दिशा में चलने के लिए बलिष्ठ सहयोग प्रदान करता है। परस्पर विरोधी सत्-असत् तत्वों का मिश्रण ही यह संसार है। भाप में जल की शीतलता और अग्नि की ऊष्मा का विचित्र संयोग हुआ है, यह संसार भाप से बने बादलों की तरह अपनी सत्ता बनाये बैठा है।

🔵 इस हाट में से क्या खरीदा जाय, क्या नहीं? यह निर्णय करना हर मनुष्य का अपना काम है। पतन या उत्थान में से किस मार्ग पर चलना है? यह फैसला करना पूरी तरह अपनी इच्छा एवं रुचि पर निर्भर है। ईश्वर ने मनुष्य पर विश्वास किया है और इतनी स्वतन्त्रता दी है कि वह अपनी इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति किसी भी दिशा में किसी भी प्रयोजन के लिए उपयोग करे। इसमें किसी दूसरे का, यहां तक कि परमेश्वर तक का कोई हस्तक्षेप नहीं है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 38)

🌞  तीसरा अध्याय

🔴  इस महान तत्त्व की व्याख्या में हमारे यह विचार और शब्दावली हीन, शिथिल और सस्ते प्रतीत होते होंगे। यह विषय अनिर्वचनीय है। वाणी की गति वहाँ तक नहीं है। गुड़ का मिठास जबानी जमा खर्च द्वारा नहीं समझाया जा सकता। हमारा प्रयत्न केवल इतना ही है कि तुम ध्यान और दिलचस्पी की तरफ झुक पड़ो और इन कुछ मानसिक कसरतों को करने के अभ्यास में लग जाओ। ऐसा करने से मन वास्तविकता का प्रमाण पाता जायेगा और आत्म-स्वरूप में दृढ़ता होती जायेगी। जब तक स्वयं अनुभव न हो जाए, तब तक ज्ञान, ज्ञान नहीं है। एक बार जब तुम्हें उस सत्य के दर्शन हो जायेंगे तो वह फिर दृष्टि से ओझल नहीं हो सकेगा और कोई वाद-विवाद उस पर अविश्वास नहीं करा सकेगा।

🔵  अब तुम्हें अपने को दास नहीं, स्वामी मानना पड़ेगा। तुम शासक हो और मन आज्ञा-पालक। मन द्वारा जो अत्याचार अब तक तुम्हारे ऊपर हो रहे थे, उन सबको फड़फड़ाकर फेंक दो और अपने को उनसे मुक्त हुआ समझो। तुम्हें आज राज्य सिंहासन सौंपा जा रहा है, अपने को राजा अनुभव करो। दृढ़तापूर्वक आज्ञा दो कि स्वभाव, विचार, संकल्प, बुद्धि, कामनाएँ समस्त कर्मचारी शासन को स्वीकर करें और नये सन्धि-पत्र पर दस्तखत करें कि हम वफादार नौकर की तरह अपने राजा की आज्ञा मानेंगे और राज्य-प्रबन्ध को सर्वोच्च एवं सुन्दरतम बनाने में रत्ती भर भी प्रमाद न करेंगे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part3.4

👉 गृहस्थ-योग (भाग 13) 24 Nov

🌹 गृहस्थ धर्म तुच्छ नहीं है
🔵  ब्रह्मचर्य व्रत का पालन बहुत ही उत्तम, उपयोगी एवं लाभदायक साधना है। यह शारीरिक और मानसिक दोनों की दृष्टियों से हितकर है। जो जितने अधिक समय तक ब्रह्मचारी रह सके उसके लिए उतना ही अच्छा है। साधारणतः लड़कों को कम से कम 20 वर्ष तक और लड़कियों को 16 वर्ष तक तो ब्रह्मचारी अवश्य ही रहना चाहिए। जो अपने मन को वश में रख सकें वे अधिक समय तक रहें।

🔴  ब्रह्मचर्य में मानसिक संयम प्रधान है। यदि मन वासनाओं में भटकता रहे और शरीर को हठ पूर्वक संयम में रखा जाय तो उससे लाभ की जगह पर हानि ही है। शारीरिक काम सेवन से जितनी हानि है उससे कई गुनी हानि मानसिक असंयम से है। वीर्यपात की क्षति आसानी से पूरी हो जाती है परन्तु मानसिक विषय चिन्तन से जो उत्तेजना पैदा होती है वह यदि तृप्त न हो तो कुचले हुए सर्प की तरह क्रुद्ध होकर अपने छेड़ने वालों के ऊपर आक्रमण करती है।

🔵  मनोविज्ञान शास्त्र के यशस्वी आचार्य डॉक्टर फ्राइड, डॉक्टर ब्राईन, डॉक्टर बने प्रभृति विद्वानों का मत है कि वासनाएं कुचली जाने पर सुप्त मन से किसी कोने में एक बड़ा घाव लेकर पड़ी रहती हैं और जब अवसर पाती हैं तभी भयानक, शारीरिक या मानसिक रोगों को उत्पन्न करती हैं। उनका कहना है कि पागलपन, मूर्छा, मृगी, उन्माद, नाड़ी संस्थान का विक्षेप, अनिद्रा, कायरता आदि अनेक रोग वासनाओं के अनुचित रीति से कुचले जाने के कारण उत्पन्न होते हैं। इसलिए ब्रह्मचर्य की पहली शर्त ‘मन की स्थिरता’ मानी गई है। जिनका मन किन्हीं उत्तम विचारों में निमग्न रहता है, विषय वृत्तियों की ओर जिनका ध्यान ही नहीं जाता या जाता है तो तुरन्त ही अरुचि और घृणापूर्वक वहां से हट जाता है वे ही ब्रह्मचारी हैं। जिनका मन वासना में भटकता है, चित्त पर जो काबू रख नहीं पाते, उनके शारीरिक ब्रह्मचर्य को विडम्बना ही कहा जा सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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बुधवार, 23 नवंबर 2016

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 24 Nov 2016


👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 13) 24 Nov

🌹 *प्रगति की महत्वपूर्ण कुंजी : नियमितता*

🔵  भारत के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नाभिकीय भौतिक विज्ञानी डा. मेघनाद साहा ने अपने जीवन क्रम का सुनियोजन इसी ढंग से किया। ढाका से 75 किलोमीटर दूर सियोराताली गांव में एक दुकानदार के घर जन्मे बालक साहा अपने पिता की आठ सन्तानों में से एक थे। घर की आर्थिक समस्या के कारण उन्हें पिता का सहयोग करना पड़ता था। घर के अन्यान्य कार्यों को करते हुए अध्ययन की नियमितता में उन्होंने कोई कमी नहीं की। अध्ययन की व्यस्तता के साथ-साथ उन्होंने देश सेवा का भी समय निर्वाह किया।

🔴  आर.एस. एण्डरसन ने अपनी पुस्तक ‘‘बिल्डिंग आफ साइन्टिफिक इन्स्टीट्यूशन्स इन इण्डिया’’ में उनके बारे में लिखते हुए बताया कि डा. साहा का प्रत्येक कार्य योजनाबद्ध रीति से सुनियोजित क्रम से होता है। किसी भी कार्य को हाथ में लेकर वे उसे नियमित रूप से करते और भली प्रकार सम्पन्न करते हैं। इसी के कारण उन्होंने अपने जीवन में विविध सफलतायें पायीं और उस समय के मूर्धन्य भौतिक विदों आइन्स्टीन, सोमरफील्ड, मैक्स फ्लेक आदि के द्वारा सम्मानित हुए। उन्हें रायल सोसायटी का सभासद भी मनोनीत किया गया।

🔵 नियमितता ही वह महामंत्र है, जिसको अपनाकर कोई भी अपने जीवन को समग्र रूप से विकसित करने, प्रगति-समृद्धि के उच्च शिखर पर आरूढ़ होने का सुयोग-सौभाग्य प्राप्त कर सकता है। यह गुण दीखने में भले ही छोटा लगे, पर प्रभाव और परिणाम की दृष्टि से इसका महत्व सर्वाधिक है। इसे अपनाने और व्यावहारिक जीवन में क्रियान्वित करने में ही सही माने में जीवन की सार्थकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 37)

🌞 तीसरा अध्याय

🔴 हे साधक! अपनी आत्मा का अनुभव प्राप्त करने में सफल होओ और समझो कि तुम सोते हुए देवता हो। अपने भीतर प्रकृति की महान सत्ता धारण किए हुए हो, जो कार्यरूप में परिणत होने के लिए हाथ बाँधकर खड़ी हुई आज्ञा माँग रही है। इस स्थान तक पहुँचने में बहुत कुछ समय लगेगा। पहली मंजिल तक पहुँचने में भी कुछ देर लगेगी, परन्तु आध्यात्मिक विकास की चेतना में प्रवेश करते ही आँखें खुल जायेंगी। आगे का प्रत्येक कदम साफ होता जायेगा और प्रकाश प्रकट होता जायेगा।

🔵 इस पुस्तक के अगले अध्याय में हम यह बताएँगे कि आपकी विशुद्घ आत्मा भी स्वतंत्र नहीं, वरन् परमात्मा का ही एक अंश है और उसी में किस प्रकार ओत-प्रोत रही है? परन्तु उस ज्ञान को ग्रहण करने से पूर्व तुम्हें अपने भीतर 'अहम्' की चेतना जगा लेनी पड़ेगी। हमारी इस शिक्षा को शब्द-शब्द और केवल शब्द समझकर उपेक्षित मत करो, इस निर्बल व्याख्या को तुच्छ समझकर तिरस्कृत मत करो, यह एक बहुत सच्ची बात बताई जा रही है। तुम्हारी आत्मा इन पंक्तियों को पढ़ते समय आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होने की अभिलाषा कर रही है। उसका नेतृत्व ग्रहण करो और आगे को कदम उठाओ।

🔴 अब तक बताई हुई मानसिक कसरतों का अभ्यास कर लेने के बाद 'अहम्' से भिन्न पदार्थों का तुम्हें पूरा निश्चय हो जाएगा। इस सत्य को ग्रहण कर लेने के बाद अपने को मन और वृत्तियों का स्वामी अनुभव करोगे और तब उन सब चीजों को पूरे बल और प्रभाव के साथ काम में लाने की सामर्थ्य प्राप्त कर लोगे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part3.3

मंगलवार, 22 नवंबर 2016

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 23 Nov 2016


👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 26)

🌹 जन-मानस को धर्म-दीक्षित करने की योजना

🔵 ज्ञान को उपनिषदों में अमृत कहा गया है। जीवन को ठीक प्रकार जीने और सही दृष्टिकोण अपनाये रहने के लिए प्रेरणा देते रहना और श्रद्धा स्थिर रखना यही ज्ञान का उद्देश्य है। जिन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया उनका मनुष्य जन्म धन्य हो जाता है। शिक्षा का उद्देश्य भी ज्ञान की प्राप्ति ही है। सद्ज्ञान को ही विद्या या दीक्षा कहते हैं। जिसे यह सम्पत्ति प्राप्त हो गई उसे और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता।

जीवन में ज्ञान को कैसे धारण किया जाय और उसे व्यापक कैसे बनाया जाय, इस सम्बन्ध में कुछ कार्यक्रम नीचे प्रस्तुत हैं—

🔴 31. आस्तिकता की आस्था—
आस्तिकता पर गहरी निष्ठा-भावना मन में जमी रहने से मनुष्य अनेक दुष्कर्मों से बच जाता है और उसी आन्तरिक प्रगति सन्मार्ग की ओर होती रहती है। परमात्मा को सर्व-व्यापक और न्यायकारी मानने से छुपकर पाप करना भी कठिन हो जाता है। राजदण्ड से बचा जा सकता है पर सर्वज्ञ ईश्वर के दण्ड से चतुरता करने वाले भी नहीं बच सकते। यह विश्वास जिनमें स्थिर रहेगा वे कुमार्ग से बचेंगे और सत्कर्मों द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करने और उसकी कृपा प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहेंगे। आस्तिकता व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के सुख शान्तिमय बनाये रहने का अचूक साधन है। उसे हर व्यक्ति अपने अन्तःकरण में गहराई तक प्रतिष्ठित रखे यह प्रयत्न करना चाहिये।

🔵 चाहे कितना ही व्यस्त कार्यक्रम क्यों न हो प्रातः सोकर उठते और रात को सोते समय कम से कम 15-15 मिनट सर्वशक्तिमान, न्यायकारी परमात्मा का ध्यान करना चाहिये और उससे सद्विचारों एवं सत्कर्मों की प्रेरणा के लिए प्रार्थना करनी चाहिये। इतनी उपासना तो प्रत्येक व्यक्ति करने ही लगे। जिन्हें कुछ सुविधा और श्रद्धा अधिक हो वे नित्य नियमपूर्वक स्नान करके उपासना स्थल पर गायत्री महामन्त्र का जप किया करें। अन्य देवताओं या विधानों से उपासना करने वाले भी कुछ गायत्री मन्त्र अवश्य जप कर लिया करें। इससे आत्मिक प्रगति में बड़ी सहायता मिलती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 *गृहस्थ-योग (भाग 12) 23 Nov*

🌹 *गृहस्थ में वैराग्य*

🔵  गृहस्थाश्रम का बोझ पड़ने पर मनुष्य जिम्मेदारी की ओर कदम बढ़ाता है। अपना और अपने परिवार का बोझ पीठ पर लाद कर उसे चलना पड़ता है इसलिये उच्छृंखलता को छोड़कर वह जिम्मेदारी अनुभव करता है। यह जिम्मेदारी ही आगे चलकर विवेकशीलता में परिणत हो जाती है। राजा को एक साम्राज्य के संचालन की बागडोर हाथ में लेकर जैसे संभल-संभलकर चलना पड़ता है वैसे ही एक सद्गृहस्थ को पूरी दूरदर्शिता, विचारशीलता, धैर्य, सहनशीलता और आत्मसंयम के साथ अपना हर एक कदम उठाना पड़ता है।

🔴  चाबुक सवार जैसे घोड़े को अच्छी चाल चलना सिखाकर उसे हमेशा के लिये बढ़िया घोड़ा बना देता है वैसे ही गृहस्थ धर्म भी ठोक-पीटकर कड़ुवे-मीठे अनुभव कराकर एक मनुष्य को आत्म-संयमी, दूरदर्शी गम्भीर एवं स्थिर चित्त बना देता है। यह सब योग के लक्षण हैं। जैसे फल पक कर समयानुसार डाली से स्वयं अलग हो जाता है वैसे ही गृहस्थ की डाल से चिपका हुआ मनुष्य धीरे धीरे आत्म निग्रह और आत्म त्याग को शिक्षा पाता रहता है और अन्ततः एक प्रकार का योगी हो जाता है।

🔵  लिप्सा, लालसा, तृष्णा, लोलुपता, मदान्धता, अविवेक आदि बातें त्याज्य हैं, यह बुरी बातें गृहस्थ आश्रम में भी हो सकती हैं और आश्रमों में भी। इसीलिये गृहस्थ आश्रम त्यागने योग्य नहीं वरन् अपनी कुवासनाएं ही त्यागने योग्य हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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