मंगलवार, 19 सितंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 19 Sep 2023

🔶 आपको निम्न आदतें छोड़ देनी चाहिएं - निराशावादिता, कुढ़न, क्रोध, चुगली और ईर्ष्या। इनका आन्तरिक विष मनुष्य को कभी भी पनपने नहीं देता, समाज में निरादर होता है, आन्तरिक विद्वेष से मनुष्य निरन्तर दग्ध होता रहता है। बात को टालने की एक ऐसी गन्दी आदत है जिससे अनेक व्यक्ति अपना सब कुछ खो बैठे हैं। इनके स्थान पर सहानुभूति, आशावाद, प्रेम, सहनशीलता, संयम की आदतें लोक एवं परलोक दोनों में मनुष्य को सन्तुष्ट रखती हैं। यदि हम आत्मनिर्माण में अपना समय लगायें, तो हमारा जीवन बहुत ऊँचा उठ सकता है।

🔷 जीवन का लक्ष्य उन्नति है, बुरी बातों को अंदर से निकालना और अच्छी चीजें धारण करना। जिस धर्म में उन्नति नहीं होती वह छोड़ देने योग्य है। आर्य-समाज के नियमों में कहा गया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के त्याग करने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए-यह धर्म का तत्व है। दूसरी बात जो हम वृक्ष की अवस्था में देखते हैं वह यह है कि वृक्ष अपने जीवन के लिए ऊपर और नीचे दोनों ओर से भोजन लेता है। नीचे से जड़ें खुराक लेती हैं पत्ते वायु-मंडल से नमी और भोजन लेते हैं-इसी तरह धर्म नीचे और ऊपर दोनों ओर से जीवन ग्रहण करता है। धर्म वह है जिससे इहलोक और परलोक का भला होता है। जीते जागते धर्म का संबंध इहलोक और परलोक दोनों से है।

🔶 संसार के कितने ही व्यक्ति अपने जीवन को उचित, श्रेष्ठ और श्रेय के मार्ग पर नहीं लगाते। किसी एक उद्देश्य को स्थिर नहीं करते, न वे अपने मानसिक संकल्प को इतना दृढ़ ही बनाते है कि निज प्रयत्नों में सफल हो सकें। सोचते कुछ हैं करते कुछ और हैं। काम किसी एक पदार्थ के लिए करते हैं आशा किसी दूसरे की ही करते हैं। करील के वृक्ष बोकर आम खाने की अभिलाषा रखते हैं। हाथ में लिए हुए कार्य के विपरीत मानसिक भाव रखने से हमें अपनी निदिष्ट वस्तु कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। बल्कि हम इच्छित वस्तु से और भी दूर जा पड़ते हैं। तभी हमें नाकामयाबी, लाचारी, तंगी, क्षुद्रता प्राप्त होती है। अपने को भाग्यहीन समझ लेना, बेबसी की बातों को लेकर झोंकना और दूसरों की सिद्धि पर कुढ़ना हमें सफलता से दूर ले जाता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 ज्ञान

🔷 संसार में प्रत्येक व्यक्ति ज्ञानी है, प्रत्येक व्यक्ति ज्ञान चाहता है, प्रत्येक व्यक्ति अपने को ज्ञानी समझता है, इसीलिये ज्ञान को नहीं प्राप्त कर पाता है। क्योंकि ज्ञानी को ज्ञान की क्या आवश्यकता है, ज्ञान की आवश्यकता तो अज्ञानी को होती है, जो व्यक्ति अपने को अज्ञानी समझता है उसे ही ज्ञान की प्राप्ति हो पाती है।

🔶 संसार में प्रत्येक व्यक्ति भक्त है, प्रत्येक व्यक्ति भक्ति चाहता है, प्रत्येक व्यक्ति अपने को भक्त समझता है, इसीलिये भक्ति को प्राप्त नहीं कर पाता है। क्योंकि भक्त को भक्ति की क्या आवश्यकता है, भक्ति की आवश्यकता तो अभक्त को होती है, जो व्यक्ति अपने को अभक्त समझता है उसे ही भक्ति प्राप्त हो पाती है।

🔷 बिना ज्ञान के भक्ति नहीं हो सकती है, बिना भक्ति के ज्ञान नहीं हो सकता है, ज्ञान से भक्ति प्राप्त हो या भक्ति से ज्ञान प्राप्त हो एक ही बात है। ज्ञान और भक्ति दोनों ही एक दूसरे के बिना अधूरे हैं, जब तक दोनों बराबर मात्रा में स्वयं के अन्दर प्रकट नहीं हो जाते तब तक कोई भी व्यक्ति कर्म के बंधन से मुक्त नहीं हो सकता है। जब तक व्यक्ति कर्म बंधन से मुक्त नहीं होता है तब तक भगवान का दर्शन प्राप्त नहीं हो सकता है।

🔶 भक्ति के पास आँखे नहीं होती है और ज्ञान के पास पैर नहीं होते हैं, भगवत पथ पर भक्ति ज्ञान की आँखो की सहायता से देख पाती है और ज्ञान भक्ति के पैरों की सहायता से चल पाता है। जब तक ज्ञान और भक्ति साथ-साथ नहीं चलते हैं तब तक भगवत पथ की दूरी तय नहीं हो सकती है।

🔷 ज्ञानी व्यक्ति को कभी ज्ञान को श्रेष्ठ नहीं समझना चाहिये और भक्त को कभी भक्ति को श्रेष्ठ नहीं समझना चाहिये, प्रत्येक व्यक्ति में ज्ञान और भक्ति दोनों ही सम्पूर्ण मात्रा में होते हैं। किसी व्यक्ति में ज्ञान अधिक प्रकट होता है तो किसी व्यक्ति में भक्ति अधिक प्रकट होती है, मिलकर दोनों का आदान-प्रदान करना चाहिये।

🔶 अधिकतर पुरुषों में ज्ञान की अधिकता प्रकट रहती है और अधिकतर स्त्रीयों में भक्ति की अधिकता प्रकट रहती है, जिस प्रकार स्त्री और पुरुष एक दूसरे के बिना अधूरे हैं उसी प्रकार ज्ञान और भक्ति एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। इसीलिये भक्त की संगति मिले तो स्वयं को अभक्त समझते हुए भक्तों की संगति करनी चाहिये और यदि ज्ञानी की संगति मिले तो स्वयं को अज्ञानी समझते हुए ज्ञानीयों की संगति करनी चाहिये।

🔷 भक्त और ज्ञानी दोनों को किसी से भी बहस नहीं करनी चाहिये, यदि कोई कुछ भी पूछे तो उसे ज्ञानी समझते हुए और स्वयं को अज्ञानी समझते हुए जबाब दे देना चाहिए। जबाब देने के बाद यह विचार भी नहीं करना चाहिये कि मैने क्या जबाब दिया है, क्योंकि विचार करने से उसके परिणाम का विचार मन में उत्पन्न हो जाता है, फल का विचार ही तो बंधन का कारण होता है।

🔶 सामने वाला तो बहस करेगा लेकिन उससे विचलित नहीं होना चाहिये बल्कि अपनी समझ के अनुसार शान्त चित्त से जबाब देना चाहिये। जब ऎसा महसूस होने लगे कि सामने वाला व्यक्ति बात को समझ नहीं रहा है तो उससे विनम्रता पूर्वक क्षमा माँगते हुए, मैं तो अज्ञानी हूँ ऎसा कहकर उससे अपना पीछा छुड़ा लेना चाहिये।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...