भक्ति से होती है भावों की निर्मलता
देवर्षि के इस कथन के साथ ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के मुख पर चिंतन की प्रगाढ़ प्रदीप्ति झलकने लगी। इसे वहाँ सभी ने अनुभव किया। देवर्षि के अंतस् में भी स्पन्दित हुआ कि ब्रह्मर्षि कुछ कहना चाहते हैं। उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा कि ‘‘इस सूत्र के मर्म का प्रबोध आप ही कहें ब्रह्मर्षि!’’ वशिष्ठ ने नारद के आग्रह पर स्वीकृति की हामी भरी और बोले- ‘‘मेरी स्मृति में इस समय अयोध्या नरेश महाराज चक्कवेण की छवि उभर रही है। उनके जीवन में मैंने इस सूत्र को चरितार्थ होते देखा है।’’ ‘‘आप ठीक कहते हैं महर्षि!’’ ऋषि पुलस्त्य ने अपनी सहमति जताते हुए कहा- ‘‘चक्कवेण का चरित्र तो चित्त को पवित्र करने वाला है। आप उनके संस्मरण से हम सभी को अनुग्रहीत करें।’’
ऋषि पुलस्त्य का आग्रह सुन कर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने कथा आरंभ की- ‘‘अयोध्या के विशाल गौरवमय साम्राज्य के अधिपति थे महाराज चक्कवेण। वे जितने रणकुशल थे, उतने ही नीतिकुशल। न्यायनिष्ठ एवं परम उदार थे महाराज। भगवान नारायण की भक्ति एवं सहज निःस्पृहता उनका स्वभाव था। जहाँ राजन्यवर्ग एवं राजपुरुषों की महत्त्वाकांक्षाओं की चर्चा होती है व उनकी विलासिता, ऐश्वर्य एवं वैभव का बखान किया जाता है, वहीं इस युग में महाराज चक्कवेण के तप एवं ज्ञान की कथाएँ कहीं जाती हैं। चर्चा इस बात की होती थी कि इतने महासाम्राज्य का अधिपति झोपड़ी में रहता है और थोड़ी सी खेती करके अपनी गुजर-बसर करता है। सचमुच ऋषियों एवं मुनियों के भी आदर्श थे महाराज चक्कवेण।’’
ब्रह्मर्षि वशिष्ठ कह रहे थे और सभी जन सुनने के लिए उत्सुक थे। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ आगे बोले- ‘‘एक बार उनके महामंत्री ने उनसे अनुरोध किया-राजन! अन्य राजागण अपने जीवन की प्रत्येक क्रिया में ऐश्वर्य का प्रदर्शन करते हैं। इतना ही नहीं वे आपस की चर्चा में यह व्यंग्य भी करते हैं कि तुम्हारा राजा दरिद्र है। महामंत्री के इस कथन पर महाराज थोड़ी देर चुप रहे फिर बोले मंत्रीवर! यह सच है कि एक अर्थ में मैं दरिद्र हूँ, पर एक अर्थ में वे महादरिद्र हैं। मैं अपनी सभी लौकिक सम्पदा को अपनी प्रजा की सेवा में लगा चुका हूँ, परन्तु इसी के साथ मैंने सत्कर्म-सद्भाव व सद्ज्ञान की सम्पदा पायी है।
कोई इस सत्य पर विचार कर सकता हो तो वह जान सकता है कि सेवा से श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नहीं है। जब हृदयपूर्वक सेवा की जाती है, जब हृदय दूसरों के दुःख से विदीर्ण होना सीख जाता है, तब व्यक्ति के एक नये व्यक्तित्व का जन्म होता है। परदुःख से जब हृदय विदीर्ण होता है, तब व्यक्तित्व की सीमाएँ भी विदीर्ण होती हैं। व्यक्तित्व में पनपती है एक परम व्यापकता। स्वचेतना में परमचेतना समाती है। नारायण का भक्त भी अपने भगवान की तरह व्यापक हो जाता है और ऐसे में निजी लाभ-लोभ की कामनाएँ चित्त से उसी तरह से झड़ जाती हैं जैसे कि पतझड़ आने पर पेड़ से सूखे पत्ते। मेरे अंतःकरण की स्थिति कुछ ऐसी ही हो गयी है।
उस समय महाराज चक्कवेण की वाणी अमृत निर्झर की तरह झर रही है। महामंत्री सुन रहे थे। वह कह रहे थे कि जैसे अन्य राजाओं को विलासिता में, ऐश्वर्य में सुख मिलता है, उसी तरह बल्कि उससे कई गुना अधिक सुख मुझे मिलता है-जनजीवन की सेवा में। सेवा में मिलने वाला प्रत्येक कष्ट मुझे गहरी तृप्ति देता है। प्रत्येक दिन मेरे द्वारा जो भावभरे हृदय से सत्कर्म किये जाते हैं, मन से जो जनता की भलाई के लिए योजनाएँ बनायी जाती हैं, इसके लिए सद्चिंतन किया जाता है, वही उस दिन की सार्थकता है।’’
महर्षि वशिष्ठ ने महाराज चक्कवेण के इस अमृत प्रसंग की चर्चा करते हुए कहा- ‘‘हे महर्षियों! मैंने चक्कवेण की इस स्थिति को स्वयं देखा है। सचमुच ही सेवा करते हुए उनका चित्त कामनाशून्य हो गया था और निरुद्ध हो गयी थीं उनकी चित्तवृत्तियाँ। यही वजह थी कि उनके सहज जीवन में स्वाभाविक ही योग की पराकाष्ठा प्रकट होती रहती थी। प्रजावत्सल महाराज इसका भी सदुपयोग अपनी प्रजा की सेवा में करते रहते थे। सचमुच ही भक्ति से वह सब कुछ सहज प्राप्त होता है जो महायोगियों के लिए भी दुर्लभ हैं।’’ अपनी इस चर्चा का समापन करते हुए ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने देवर्षि नारद की ओर देखा जो अब सम्भवतः अगला सूत्र बताने वाले थे।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ३८