शनिवार, 16 अप्रैल 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १८

अपने सदगुणों को प्रकाश में लाइए
 
नैपोलियन के बचपन में कोई यह नहीं कहता था कि बड़ा होकर यह किसी काम का निकलेगा। डॉक्टर कैलमर्स और डॉक्टर कुक को उनके अध्यापकों ने स्कूल में से यह कहकर निकाल दिया था कि इन पत्थरों से सिर मारना बेकार है। ' यह उदाहरण बताते हैं कि दूसरे लोग किसी के संबंध में जो कहते हैं वह पूर्णत: सत्य नहीं होता। आमतौर से चंद घटनाओं या बातों से प्रभावित होकर किसी के भले या के हनि का अनुमान लगाया जाता है। इस जल्दबाजी के निर्णय में गलती की बहुत बड़ी संभावना विद्यमान रहती है।

यदि आपको उपरोक्त भावों की तरह लोगों की ओर से निराशा, भर्त्सना, उपेक्षा मिलती है, आपको बुरा या असफल कहा जाता है तो इससे तनिक भी विचलित न हूजिए, मन को जरा भी गिरने न दीजिए। सर्दी, गर्मी के घातक प्रभावों से वस्रों द्वारा अपनी रक्षा करते हैं, मलेरिया या हैजा के कीटाणुओं को दवा के द्वारा शरीर में से मार भगाते हैं, इसी प्रकार आत्मविश्वास द्वारा उन प्रभावों को अपने मस्तिष्क में से निकाल बाहर करिए जो आपको नीच, असफल और मूर्ख ठहराते हैं। यह प्रभाव चाहे आपने स्वयं किया हो या किन्हीं अन्य महानुभावों ने अपनी तुच्छ बुद्धि के कारण संचरित कराया हो, जितनी जल्दी इन निराशाप्रद संक्रामक कीटाणुओं को मस्तिष्क में से मार कर भगा सके भगा दीजिए क्योंकि यह आस्तीन के साँप यदि प्रत्यक्षत: दिखाई नहीं पड़ते तो भी वे आपकी सारी उन्नति के मार्ग को रोक कर भारी विघ्न-बाधा के रूप में खड़े रहते हैं।

कहने वाला कोई कितना ही बडा, कितना ही धनवान, कितना ही प्रतिष्ठित क्यों न हो आप यह मानने को कदापि तत्पर मत हुजिए कि आपके ऊपर ' बुराइयों ने कब्जा जमा लिया है, दुर्भावना से ग्रसित हो गए हैं, 'योग्यता खो बैठे हैं, पाप में डूबे हुए हैं। यह हो सकता है कि अन्य लोगों की भांति आप में भी कुछ दोष हों। यह त्रुटियाँ ऐसी नहीं है जो दूर न हो सकें। भूतकाल में' कुछ ऐसे काम जरूर बन पड़े होंगे जो प्रतिष्ठा को घटाने वाले समझे जाते हों और आगे भी ऐसे अवसर बन पड़ने की संभावना है क्योंकि पूर्णता की मंजिल  क्रमश: पार होती है।
 
फसल अपनी अवधि पर पकती है, आपको ' हटाकर पूर्णता प्राप्त करने के लिए कुछ समय चाहिए पारे को शुद्ध करके रसायन बना देने में वैद्य को कुछ समय लगता है, आपको भी निर्दोष मनोस्थिति तैयार करने के लिए कुछ अवकाश चाहिए यह समय एक जन्म से अधिक भी हो सकता है। पथरीले मार्ग को पार करने में ठोकरें लगने की आशंका रहेगी ही, जिस दुर्गम पर्वत पर आप चढ रहे हैं, उसमें कंकड़- पत्थर पड़े हुए हैं, बहुत बार ठोकरें लगने का क्रम चलता रहेगा।  यदि हर ठोकर पर वेदना प्रकट करने की नीति ग्रहण करेंगे तो यह मार्ग रुदन और पीड़ाओं से भरा हुआ, आनंद रहित हो जाएगा। इसलिए समभूमि, चट्टान, पथरीले मार्ग का हर्ष-विषाद न करते हुए प्रधान लक्ष्य की ओरे आगे बढते चलिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ २७

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👉 भक्तिगाथा (भाग १२०)

भक्ति को किसी प्रमाण की आवश्यकता नही

इतना कहते हुए वे थोड़ी देर के लिए आत्मलीन हुए फिर बोले- ‘‘भक्ति-भगवान भुवनभास्कर की भाँति है। सूर्य उदय हुआ, यह किसी को कहना-बताना, जताना नहीं पड़ता। सूर्य के प्रवेश मात्र से अंधियारा हटने-मिटने लगता है। दिशाएँ प्रकाशित हो जाती हैं। वृक्ष-वनस्पतियों, लताओं, बेलों में नयी चेतना गीत गाने लगती है। पशु-पक्षी से लेकर मनुष्य तक सभी स्वयं में नया जागरण अनुभव करने लगते हैं। सूर्योदय होने भर से धरती-जगती में नए प्राण आ जाते हैं।

कुछ ऐसी ही स्थिति भक्ति की है। भक्ति का अंकुरण, जीवन के समग्र रूपान्तरण का प्रारम्भ है। भक्ति जैसे-जैसे विकसित होती है, जीवन वैसे-वैसे रूपान्तरित होता है। व्यक्ति के चरित्र-चिन्तन-व्यवहार में एक नवीन प्रकाश व प्रभा छा जाती है।’’ ऐसा कहते हुए महात्मा सत्यधृति थोड़ी देर के लिए रुके फिर बोले- ‘‘इस महासत्य को देवर्षि से बढ़कर और कौन जानेगा? किसने और कब सोचा था कि रत्नाकर रूपान्तरित होकर ऋषियों के लिए भी पूजनीय महर्षि वाल्मीकि बन जाएँगे?’’

‘‘भक्ति से समग्र रूपान्तरण का रहस्य क्या है? महात्मन्!’’ गन्धर्व चित्रकेतु ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की। एक क्षण के लिए सभी की दृष्टि चित्रकेतु की ओर उठी परन्तु उसमें प्रशंसा के भाव थे। सम्भवतः इसलिए क्योंकि इसमें अनेकों जिज्ञासाओं का सहज समावेश था। इसके उत्तर में महात्मा सत्यधृति ने कहा- ‘‘हे गन्धर्वश्रेष्ठ! भक्ति के दो चरण हैं-१. स्मरण, २. समर्पण। भगवत्स्मरण से स्वाभाविक ही चित्त परिशुद्ध होता है। ईश्वरस्मरण सतत होता चले तो चित्त से संस्कार, संचित कर्म, प्रारब्ध स्वाभाविक ही हटते-मिटते जाते हैं और ईश्वर के प्रति नित्य समर्पण हो तो अहंता स्वयं ही विगलित होकर मिट जाती है। और ज्यूँ ही, जहाँ भी, जिस किसी के जीवन में ऐसा हुआ, वहाँ ईश्वरीय चेतना, प्रकाश का अवतरण सहज हो जाता है फिर इस सहजता में रूपान्तरण भी सहज, समग्र एवं सम्पूर्ण हो जाता है। इसीलिए तो कहते हैं कि भक्ति को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसकी उपस्थिति स्वयं ही अपना प्रमाण बनती है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २३७

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...