शनिवार, 24 मार्च 2018

👉 जटायु व गिलहरी चुप नहीं बैठे

🔶 पंख कटे जटायु को गोद में लेकर भगवान् राम ने उसका अभिषेक आँसुओं से किया। स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए भगवान् राम ने कहा-तात्। तुम जानते थे रावण दुर्द्धर्ष और महाबलवान है, फिर उससे तुमने युद्ध क्यों किया ?

🔷 अपनी आँखों से मोती ढुलकाते हुए जटायु ने गर्वोन्नत वाणी में कहा-' प्रभो! मुझे मृत्यु का भय नहीं है, भय तो तब था जब अन्याय के प्रतिकार की शक्ति नहीं जागती?

🔶 भगवान् राम ने कहा- तात्! तुम धन्य हो! तुम्हारी जैसी संस्कारवान् आत्माओं से संसार को कल्याण का मार्गदर्शन मिलेगा।

🔷 गिलहरी पूँछ में धूल लाती और समुद्र में डाल आती। वानरों ने पूछा-देवि! तुम्हारी पूँछ की मिट्टी से समुद्र का क्या बिगडे़गा। तभी वहाँ पहुँचे भगवान् राम ने उसे अपनी गोद में उठाकर कहा 'एक-एक कण धूल एक-एक बूँद पानी सुखा देने के मर्म को समझो वानरो। यह गिलहरी चिरकाल तक सत्कर्म में सहयोग के प्रतीक रूप में सुपूजित रहेगी। '

🔶 जो सोये रहते हैं वे तो प्रत्यक्ष सौभाग्य सामने आने पर भी उसका लाभ नहीं उठा पाते। जागृतात्माओं की तुलना में उनका जीवन जीवित-मृतकों के समान ही होता है।

👉 कहिए कम-करिये ज्यादा (भाग 1)

🔶 मानव स्वभाव की एक बड़ी कमजोरी प्रदर्शन प्रियता है। बाहरी दिखावे को वह बहुत ज्यादा पसन्द करता है। यद्यपि वह जानता और मानता है कि मनुष्य की वास्तविक कीमत उसकी कर्मशीलता, कर्मठता है। ठोस और रचनात्मक कार्य ही स्थायी लाभ, प्रतिष्ठा का कारण होता है। दिखावा और वाक शूरता नहीं। यह जानते हुये भी उसे अपनाता नहीं। इसीलिये उसे एक कमजोरी के नाम से सम्बोधित करना पड़ता है।

🔷 प्रकृति ने मनुष्य को कई अंगोपाँग दिये हैं और उनसे उचित काम लेते रहने से ही मनुष्य एवं विश्व की स्थिति रह सकती है। पर मानव स्वभाव कुछ ऐसा बन गया है कि सब अंगों का उपयोग ठीक से न कर केवल वाक्शक्ति का ही अधिक उपयोग करता है। इससे बातें तो बहुत हो जाती हैं, पर तदनुसार कार्य कुछ भी नहीं हो पाता। हो भी कैसे वह करना भी नहीं चाहता और इसीलिये दिनों दिन वाक्शक्ति का प्रभाव क्षीण होता जाता है। कार्य करने वाले को बोलना प्रिय नहीं होता, उसे व्यर्थ की बातें बनाने को अवकाश ही कहाँ होता है? वह तो अपनी वाक्शक्ति का उपयोग आवश्यकता होने पर ही करता है। अधिक बोलने से वाक्शक्ति का महत्व घट जाता है। जिसकी जबान के पीछे धर्म शक्ति का बल होता है उसी का प्रभाव पड़ता है।

🔶 वस्तुतः कार्य करना एक साधना है। इससे साधित वाक्शक्ति मंत्रवत् बलशाली बन जाती है। साधक के प्रत्येक वाक्य में अनुभव एवं कर्म साधना की शक्ति का परिचय मिलता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में मौन का बड़ा महत्व है। जैन तीर्थंकर अपनी साधना अवस्था में प्रायः मौनावलम्बन करते हैं। इसी से उनकी वाणी में शक्ति निहित रहती है।

🔷 वर्तमान युग के महापुरुष महात्मा गाँधी के जबरदस्त प्रभाव का कारण उनका कर्मयोग ही है। वे जो कुछ कहते उसे करके बताते थे। इसी में सचाई का बल रहता है। इस सचाई और कर्मठता के कारण ही गाँधी जी के हजारों लाखों करोड़ों अनुयायी विश्व में फैले हुये हैं। गाँधी जी अपने एक क्षण को भी व्यर्थ न खोकर किसी न किसी कार्य में लगे रहते थे। और आवश्यकता होने पर कार्य की बातें भी कर लेते थे। इसी का प्रभाव है कि बड़े-बड़े विद्वान-बुद्धिमान एवं श्रीमान् उनके भक्त बन गये।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति-जून 1950 पृष्ठ 15
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1950/June/v1.15

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 25 March 2018


👉 आज का सद्चिंतन 25 March 2018


👉 नारी को विकसित किया जाना आवश्यक है। (भाग 6)

🔶 हमारा व्यक्तिगत और राष्ट्रीय भविष्य इस बात पर निर्भर है कि भावी पीढ़ियाँ सुसंस्कृत हों। स्कूली शिक्षा से आजीविका उपार्जन करने तथा विविध क्षेत्रों की साधारण जानकारी मिलने की बात पूरी हो सकती है, पर वे सद्गुण जो मानव की प्रधान सम्पत्ति हैं और जिनके ऊपर व्यक्ति तथा राष्ट्र की श्रेष्ठता निर्भर करती है, स्कूलों में नहीं सीखे जा सकते। उनके शिक्षण का सही स्थान है- घर का वातावरण और उसका निर्माण करती है- गृहिणी व्यक्ति और राष्ट्र की उन्नति के लिए हो रहे अनेकों प्रयत्नों में सुगृहिणी निर्माण कार्य अत्यधिक आवश्यक है। उपेक्षा करने पर बड़ी से बड़ी प्रगति भी व्यर्थ सिद्ध होगी। क्योंकि जब आगामी पीढ़ियों का व्यक्तित्व ही विकसित न हो सका तो बढ़ी हुई समृद्धि का भी कुछ लाभ न उठाया जा सकेगा वरन् बन्दर के हाथ में पड़ी हुई तलवार की तरह उसका दुरुपयोग एवं दुष्परिणाम ही हाथ लगेगा।

🔷 56 लाख साधुओं एवं भिखारियों का प्रश्न राष्ट्रीय प्रश्न है। इतने लोगों की उपार्जन क्षमता कुण्ठित पड़ी रहे और उनका निर्वाह भार जनता को वहन करना पड़े तो यह अर्थ संतुलन को बिगाड़ने वाली बात है। उससे भी बढ़कर चिंता की बात यह है कि हमारी आधी आबादी-नारी, कैदियों की भाँति घरों की चार-दीवारी में कलंकियों की तरह मुँह पर पर्दा डाले, घर वालों के लिए एक भार बनी बैठी रहे। इससे भी हमारा पारिवारिक एवं राष्ट्रीय अर्थ तंत्र असंतुलित ही होगा। यदि उनकी सामर्थ्य को विकसित किया जाए तो राष्ट्र के अर्थ तंत्र को समुन्नत बनाने में इतना योग मिल सकता है जितना कितनी ही विशालकाय योजनाएं भी नहीं दे सकती। इस समस्या के सामने भिखारियों की समस्या तुच्छ है। यदि हम नारी के विकास की समस्या को हल कर लें तो भिखारियों से भी अनेकों गुनी समस्या का हल हुआ समझना चाहिए।

🔶 जिन नारियों को हम माता, पत्नी, बहिन या पुत्री के रूप में प्यार करते हैं, जिन्हें सुखी बनाने की कुछ चिन्ता करते हैं उनके लिये रूढ़िवादी मान्यताओं द्वारा हम अपकार भी पूरा-पूरा करते है। किसी स्त्री का जब सूर्य अस्त हो जाता है और घर की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं होती तो उस बेचारी पर कैसी बीतती है इसे हममें से हर कोई जानता है। पर्दा प्रथा के कारण जो नारी बाजार से साग खरीदकर लाना भी नहीं सीख सकी, किसी के बात करना भी जिसे नहीं आता वह मुसीबत के समय पति या बच्चों के लिये दवा खरीदने या चिकित्सक को बुलाकर लाने में भी समर्थ नहीं हो सकती।

🔷 ऐसी स्त्रियों को जब अपने और अपने बच्चों के गुजारे की समस्या सामने आती है तब आगे केवल अंधकार ही दीखता है। किसी के दरवाजे पर भिखारी की तरह अपमान पूर्वक टुकड़ों से पेट भरते हुए उन्हें जिस व्यथा का सामना करना पड़ता है उसकी कल्पना यदि नारी को बन्धन में रखने वाले करें तो उनकी छाती पसीजे बिना न रहेगी। मानवता का दृष्टिकोण अपनाया जाए तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि नारी का भविष्य अंधेरे में लटकता हुआ छोड़ना अभीष्ट न हो तो उसे स्वावलंबी, अपने पैरों पर खड़ी होने योग्य बनाना ही चाहिये।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति -दिसंबर 1960 पृष्ठ 28

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1960/December/v1.28

👉 The Spirituality & its Reality. (Part 3)

🔶 Friends! If I ever help you on any account either of humanity, spirituality or my soul and BHAGWAN, it is not my any favour extended to you, rather it is a favour done to my own soul which continues to complain me, ‘‘O rude man! Give something to this world, don’t eat up things. Avoid getting burdened with debt as here the man has been born only to give other eligible ones.’’
                                       
🔷 Friends! Each of you will land in above position once BHAGWAN comes to you, GAYTARI mantra comes to you. Each of you will land in the same position as that of mine. Whenever RAM will come to you, you will be living a life of HANUMAN; it means attaining a state of mind of HANUMAN implies RAM approaching to you. The day KRISHAN BHAGWAN comes to you; you will be living like ARJUN. If your approach in life is like that of HANUMAN and ARJUN, it can be said that either RAM or KRISHAN is with you.
                                  
🔶 Friends! It is an education of spirituality, of GAYATRI. You will say, ‘‘GURU JI, I came here to learn the magical tricks of GAYATRI mantra and yours’ other accomplishments. BETA!  There is no magic in the world and there is no importance and value of any ritual. Had it not been so, MARA, MARA of dacoit VALMIKI would not have worked; RAM, RAM of SHABRI would not have worked; your chanting of VISHNU SAHASTRNAM would not have gone in vein; your BHAGWAT-PATH( chanting of BHAGWAT) did not work but of SHABRI, her RAM-RAM continued to do miracles.

📖 From Akhand Jyoti

👉 आत्मावलोकन का सरल उपाय—एकान्तवास (भाग 4)

🔶 माघ के महीने में लोग झोंपड़े लगा लेते हैं, उसी में रहते हैं, बाहर-निकलते ही नहीं, बाहर जाते ही नहीं, घर वालों को बुलाते ही नहीं। घरवाला अगर कोई आता है, तो सिर्फ खुशी के समाचार ही सुनाता है। कोई जरूरत की बात कहने आता है; पर यह नहीं कहने आता कि घर में यह आफत आ रही है कि वह आफत आ रही है। उनके चित्त में चंचलता उत्पन्न न हो, इसलिए वह लोग चिट्ठी-पत्री पर भी रोकथाम रखते हैं। हमारे पास चिट्ठी-पत्री मत भेजना, हमको एक महीने भगवान का नाम लेने देना, चिट्ठी-पत्री भेजकर, हम जो काम नहीं कर सकते हैं, उस काम के लिए हम पर दबाव मत डालना, न हम इधर के रहेंगे, न हम उधर के रहेंगे—न हम भगवान में ध्यान लगा सकेंगे, न घर की कोई सहायता कर सकेंगे। आप डावाँडोल स्थिति को मत रहने दीजिए। कल्प-साधना वालों का यह नियम है। आप भी इन नियमों का पालन कीजिए और अनुभव कीजिए कि हम एकान्तवास में हैं।

🔷 एक दिन मैंने आपसे पिछले समय में कहा भी है कि एक महीने आप यहाँ सिर्फ दो बातों का अनुभव किया कीजिए कि हम यहाँ न सिर्फ एकान्त में रहते हैं, बल्कि माताजी के पेट में निवास करते हैं। आप शान्तिकुञ्ज को यह मानकर चलिए कि यह माताजी का पेट है और पेट में जैसे बच्चा रहता है, भ्रूण रहता है, उसी तरह, भ्रूण की तरह, बच्चे की तरह आप निवास करिए। यह माताजी का आध्यात्मिक पेट है, जिसमें आप बच्चे की तरह निवास कर सकते हैं और यहाँ से जाने के बाद में आप अपने आपके एक नये जन्म का अनुभव कर सकते हैं। माताजी का बेटा—माताजी का बेटा आप नहीं बन सकते? क्या हर्ज है, आपको, बताइए?

🔶 मदालसा के बेटे आप नहीं बन सकते? कुन्ती के बेटे बनने में आपको शर्म आती है, बताइए? सीता के बेटे अगर आप बन जाएँ, तो क्या हर्ज है आपको? नहीं, कुछ हर्ज नहीं होगा आपका। आप अगर ऐसी मनःस्थिति बना लें, तो आपको अपनी गौरव-गरिमा का भान होगा और गौरव-गरिमा का आपको कदाचित् भान हो जाए, तो आप यकीन रखिए, आपका कल्प-साधना में आना सार्थक हो जाएगा। फिर आप ऐसी दिशा, ऐसी प्रेरणा और ऐसा चिन्तन लेकर जाएँगे कि मजा आ जाएगा! इसलिए आप यह अनुभव करते रहिए कि एक महीने तक हम माताजी के पेट में बैठे हुए हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 71)

👉 एक ही यज्ञ-अहं को भस्म कर देना
  
🔶 गुरुगीता के महामंत्रों की साधना से शिष्य के अस्तित्व का सद्गुरु की चेतना में लय होता है। अध्यात्म जगत् में यह अनुभूति बड़ी दुर्लभ है और यह किसी को यूँ ही नहीं मिल जाती। इसके पहले शिष्य को असंख्य-अनगिनत परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। प्रत्येक परीक्षा उसके अहं पर संघातिक प्रहार करती है। इस बज्राघात की पीड़ा जिसने सही है, वही जान सकता है। इस तरह का प्रत्येक आघात शिष्य के समर्पण के समक्ष महाचुनौती खड़ी करता है। ऐसी असंख्य चुनौतियों का सक्षम उत्तर विरले ही दे पाते हैं। अन्यथा बाकी तो बुद्धि के तर्कों एवं मन द्वारा खड़े किए गए उपद्रवों के सामने हथियार डाल देते हैं। उनके हाथ-पाँव अनायास ही फूल जाते हैं और समर्पण पथ से विचलित हो पलायन कर बैठते हैं। आध्यात्मिक साधना की समरभूमि ऐसे अनेकों पलायनवादियों की कायरता की साक्षी रही है।
  
🔷 समर्पण के भाव बने रहें, शिष्य का अस्तित्व सद्गुरु की चेतना में घुलता रहे, इसके लिए परम पूज्य गुरुदेव के ध्यान का सातत्य हमेशा बना रहना चाहिए। इसी ध्यान के बारे में ऊपर के मंत्रों में शिष्यों ने पढ़ा कि भगवान् शिव माता पार्वती से कहते हैं कि शिष्यत्व की साधना करने वालों को अपने हृदय कमल की कर्णिकाओं के बीच गुरुदेव की दिव्य भावमूर्ति का ध्यान करना चाहिए। भाव यह रहे कि उनकी दिव्य मूर्ति से शुभ्र चाँदनी सा प्रकाश विकीर्ण हो रहा है। ये सद्गुरु देव अपने शिष्यों के लिए वरदायी मुद्रा में आसीन हैं। उनके वामभाग में उनकी लीला सहचरी दिव्य शक्ति माँ विद्यमान हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 113

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...