मंगलवार, 14 नवंबर 2017

👉 आत्मोन्नति के चार आधार (भाग 5)

🔶 इसके लिए हमको नित्य ही आत्म-निरीक्षण करना चाहिए। अपनी गलतियों पर गौर करना चाहिए। उनको सुधारने के लिए कमर कसनी चाहिए और अपने आपका निर्माण करने के लिए आगे बढ़ना और जो अपने आपका निर्माण करने के लिए आगे बढ़ना और जो कमियाँ हमारे स्वभाव के अन्दर हैं, उन्हें दूर करने के लिए जुटे रहना चाहिए। आत्म-विकास इसका एक हिस्सा है। हमको अपनी संकीर्णता में सीमित नहीं रहना चाहिए। अपने अहं को और अपनी स्वार्थपरता को, अपने हितों को व्यापक दृष्टि से बाँट देना चाहिए।
         
🔷 दूसरों के दुःख हमारे दुःख हों, दूसरों के सुखों में हम सुखी रहें, इस तरह की वृत्तियों का हम विकास कर सकें तो कहा जाएगा कि हमने जीवन-साधना करने के लिए जितना प्रयास किया, उतनी सफलता पाई। साधना से सिद्धि की बात में सन्देह की गुंजाइश नहीं है। अन्य किसी बात में सन्देह की गुंजाइश भी है, देवी-देवताओं की उपासना करने पर हमको फल मिले न मिले, कह नहीं सकते, लेकिन जीवन की साधना करने का परिणाम निश्चित रूप से भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही जीवनों में लाभ के रूप में देखा जा सकता है। यह साधना के बारे में निवेदन किया गया।
 
🔶 दूसरा है— स्वाध्याय। मन की मलीनता को धोने के लिए स्वाध्याय अति आवश्यक है। दृष्टिकोण और विचार प्रायः वही जमे रहते हैं हमारे मस्तिष्क में, जो कि बहुत दिनों से पारिवारिक और अपने मित्रों के सान्निध्य में हमने सीखे और जाने। अब हमको श्रेष्ठ पुरुषों का सत्संग करना चाहिए। चारों ओर हम जिस वातावरण से घिरे हुए हैं, वह हमको नीचे की ओर गिराता है। पानी का स्वभाव नीचे गिरने की तरफ होता है। हमारा स्वाभाविक स्वभाव ही ऐसा होता है, जो नीचे स्तर के कामों की तरफ, निकृष्ट उद्देश्य के लिए आसानी से लुढ़क जाता है।

🔷 चारों तरफ का वातावरण जिसमें हमारे कुटुम्बी भी शामिल हैं, मित्र भी शामिल हैं, घरवाले भी शामिल हैं, हमेशा इस बात के लिए दबाव डालते हैं, कि हमको किसी भी प्रकार से किसी भी कीमत पर भौतिक सफलताएँ पा लेनी चाहिए। चाहे उसके लिए नीति बरतनी पड़े अथवा अनीति का आश्रय लेना पड़े ।। हर जगह से यही शिक्षण हमको मिलता है। सारे वातावरण में इसी तरह की हवा फैली हुई है और यही गन्दगी हमें प्रभावित करती हैं। हमारी गिरावट के लिए काफी वातावरण विद्यमान है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 मूर्खता के लक्षण


🌹 मूर्खता के लक्षण छोड़ेंगे तब सद्गुण धारण कर सकेंगे. आगे ऐसे कई मुर्ख के लक्षण बताए गए थे, और भी कुछ लक्षण यहाँ बताए है, श्री समर्थ रामदास स्वामी कहते है कि “इस लक्षणों को जो एकाग्र होकर सुनेगा-पढ़ेगा उसमें से मूर्खता के अवगुण दूर होंगे तथा उसको चातुर्य के लक्षण प्राप्त होगे.”

🔷 १] संसार दुःख के लिए जो ईश्वर को गाली देता है तथा जो अपने मित्रों के दोष-त्रुटी बताता रहेता है वह मुर्ख है।

🔶 २] जो एकत्रित समूह [सभा] का रसभंग हो ऐसा वाणी-वर्तन करता है तथा क्षण में अच्छा क्षण में बुरा बनता है, वह मुर्ख है।

🔷 ३] जो अपने पुराने सेवको की छुट्टी कर देता है, जिसकी सभा निर्नायक होती है, वह मुर्ख है।

🔶 ४] जो अनीति से रुपये एकत्र करता है, धर्म नीति-न्याय को त्याग देता है तथा अपने सहयोगियों को दुःख हो ऐसे बर्तन करता है, वह मुर्ख है।

🔷 ५] घर में सुन्दर स्त्री हो तो भी जो हमेशा परस्त्री के घर जाता है, सब का उच्छिष्ट स्वीकारता है, वह मुर्ख है।

🔶 ६] दुसरे के धन की अभिलाषा करने वाला तथा हरामी लोगों से लेनदेन का व्यवहार करने वाला मुर्ख है।

🔷 ७] आये हुए अतिथि को जो सताता है, कुग्राम में जो रहेता है तथा जो हमेशा चिन्ता करता रहेता है वह मुर्ख है।

🔶 ८] दो लोगों के संभाषण में जो दखल करता है वह मुर्ख है।

🔷 ९] उल्टी करके पानी बिगाड़ता है, पैर से पैर खंजोता है, हीन कुल के लोगों की जो सेवा करता है वह मुर्ख है।

🔶 १०] परस्त्री से जघड़ता है, मूक प्राणी को मारता रहेता है तथा मूर्खो के साथ रहेता है वह मुर्ख है।

🔷 ११] जो झगडा केवल देखता है, छुड़ाने की कोशिश नहीं करता वह मुर्ख है।

🔶 १२] अमीर होते जो पुराने सम्बन्ध-पहचान भूल जाता है तथा देव-ब्राह्मण पर भी सत्ता चलाता है वह मुर्ख है।

🔷 13] अपना काम हो तब तक नम्र रहता है लेकिन परोपकार मात्र ना करता हो वह मुर्ख है।

🔶 १४] जो ना तो पढ़ता है, ना दूसरे को पढ़ने देता है, पुस्तक बंद करके रखता है वह मुर्ख है।

🔷 १५] ऐसे मुर्ख लक्षण संकेत रूप में थोड़े से बताए है, जो बुद्धिमान एकाग्र होकर समझ के उसे मानता है उसे चातुर्य समज में आता है।

👉 पिशाच प्रेमी या पागल (भाग 2)

🔶 देखते हैं कि अबोध किशोर बालकों को लालच या बहकावे में डालकर उन्हें अपनी लिप्सा का साधन बनाने वाले मुहब्बत का दम भरते हैं। उन लड़कों को अपने ही जैसा पतित जीवन बिताने की शिक्षा देने वाले एवं उनका शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य नष्ट कर देने वाले यह कुकर्मी अपने कार्य में प्रेम की गन्ध ढूँढ़ते फिरते हैं!

🔷 देखते हैं कि रूप रंग की चटक-मटक पर लोभित होकर स्त्री-पुरुष इन्द्रिय-प्रेरणा से व्याकुल होते हैं, और एक दूसरे को पाने के लिए बेचैन रहते हैं, पत्र व्यवहार चलता है, गुप्त संदेश दौड़ते हैं, और न जाने क्या क्या होता है, प्रेम रस चखने में उनकी बड़ी व्याकुलता होती है और सोचते हैं कि हमारे यह कार्य प्रेम के परिणाम है।

🔶 देखते हैं कि बालकों को अमर्यादित भोजन करके उन्हें बीमार बनाने वाली माता बेटे के फोड़े को सड़ने देकर हड्डी गल जाने तक डॉक्टर के पास न ले जाने वाला पिता, भाई के अन्याय में सहायता करने वाला भाई, मित्र को पाप पंक में पड़ने से न रोकने वाला मित्र, बीमार को मनचाहा भोजन देने वाला अविवेकी परिचारक समझता है कि मैं प्रेमी हूँ, मैं दूसरे पक्ष के साथ प्रेम का व्यवहार कर रहा हूँ।

🔷 देखते हैं कि साँप को छोड़ देने वाले, चोर को सजा कराने का विरोध कराने वाले, अत्याचारी को क्षमा करने वाले, पाजी की हरकतें चुपचाप सह लेने वाले समझते हैं कि हमने बड़ी दया की है, पुण्य कमा रहे हैं, प्रेम का प्रदर्शन कर रहे हैं।

🔶 इन सब दृश्यों को जब हम देखेंगे तो अनुभव करेंगे कि ईश्वर का वेष बनाकर शैतान आ बैठा है, धर्म की आड़ में पाप बोल रहा है, गाय का चमड़ा ओढ़ कर भेड़िया विचरण कर रहा है। इन्द्रिय लिप्सा, व्यभिचार, पतन प्रोत्साहन, अन्याय वर्धन को यदि प्रेम कहा जायगा तो हम नहीं समझते तो पाप नाम की कौन सी चिड़िया इस दुनिया में शेष रहेगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, मई1942, पृष्ठ 11
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1942/May/v1.11

http://literature.awgp.org

👉 आज का सद्चिंतन 14 Nov 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 14 Nov 2017


👉 विश्वास की परिभाषा:-

🔷 एक बेटी ने एक संत से आग्रह किया कि वो घर आकर उसके बीमार पिता से मिलें, प्रार्थना करें...। बेटी ने ये भी बताया कि उसके बुजुर्ग पिता पलंग से उठ भी नहीं सकते...!!

🔶 जब संत घर आए तो पिता पलंग पर दो तकियों पर सिर रखकर लेटे हुए थे। एक खाली कुर्सी पलंग के साथ पड़ी थी। संत ने सोचा कि शायद मेरे आने की वजह से ये कुर्सी यहां पहले से ही रख दी गई है।

🔷 संत... "मुझे लगता है कि आप मेरी ही उम्मीद कर रहे थे... !"

🔶 पिता... नहीं, आप कौन हैं... ?

🔷 संत ने अपना परिचय दिया। और फिर कहा... "मुझे ये खाली कुर्सी देखकर लगा कि आप को मेरे आने का आभास था।"

🔶 पिता... ओह ये बात... । खाली कुर्सी। आप...! आपको अगर बुरा न लगे तो कृपया कमरे का दरवाज़ा बंद करेंगे... !

🔷 संत को ये सुनकर थोड़ी हैरत हुई, फिर भी दरवाज़ा बंद कर दिया... ।

🔶 पिता.."दरअसल इस खाली कुर्सी का राज़ मैंने किसी को नहीं बताया। अपनी बेटी को भी नहीं। पूरी ज़िंदगी, मैं ये जान नहीं सका कि प्रार्थना कैसे की जाती है। मंदिर जाता था, पुजारी जी के श्लोक सुनता। वो सिर के ऊपर से गुज़र जाते। कुछ पल्ले नहीं पड़ता था। मैंने फिर प्रार्थना की कोशिश करना छोड़ दिया...!"

🔷 "लेकिन चार साल पहले मेरा एक दोस्त मिला। उसने मुझे बताया कि प्रार्थना कुछ नहीं, भगवान से सीधे संवाद का माध्यम होती है। उसी ने सलाह दी कि एक खाली कुर्सी अपने सामने रखो। फिर विश्वास करो कि वहां भगवान खुद ही विराजमान हैं। अब भगवान से ठीक वैसे ही बात करना शुरू करो, जैसे कि अभी तुम मुझसे कर रहे हो। मैंने ऐसा करके देखा। मुझे बहुत अच्छा लगा। फिर तो मैं रोज़ दो-दो घंटे ऐसा करके देखने लगा। लेकिन ये ध्यान रखता कि मेरी बेटी कभी मुझे ऐसा करते न देख ले। अगर वो देख लेती तो उसका ही नर्वस ब्रेकडाउन हो जाता या वो फिर मुझे साइकाइट्रिस्ट के पास ले जाती... !"

🔶 ये सब सुनकर संत ने बुजुर्ग के लिए प्रार्थना की। सिर पर हाथ रखा और भगवान से बात करने के क्रम को जारी रखने के लिए कहा... ।

🔷 संत को उसी दिन दो दिन के लिए शहर से बाहर जाना था...इसलिए विदा लेकर चले गए...।

🔶 दो दिन बाद बेटी का संत को फोन आया कि उसके पिता की उसी दिन कुछ घंटे बाद मृत्यु हो गई थी, जिस दिन वो आप से मिले थे...।

🔷 संत ने पूछा कि उन्हें प्राण छोड़ते वक्त कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई... ?

🔶 बेटी ने जवाब दिया... नहीं! मैं जब घर से काम पर जा रही थी तो उन्होंने मुझे बुलाया...मेरा माथा प्यार से चूमा...ये सब करते हुए उनके चेहरे पर ऐसी शांति थी, जो मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। जब मैं वापस आई तो वो हमेशा के लिए आंखें मूंद चुके थे... लेकिन मैंने एक अजीब सी चीज़ भी देखी...वो ऐसी मुद्रा में थे जैसे कि खाली कुर्सी पर किसी की गोद में अपना सिर झुकाया हो। संत जी, वो क्या था... ।

🔷 ये सुनकर संत की आंखों से आंसू बह निकले... बड़ी मुश्किल से बोल पाए... - काश, मैं भी जब दुनिया से जाऊं तो ऐसे ही जाऊं।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...