रविवार, 28 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 28 May 2023

मानवी साहसिकता और धर्मनिष्ठा का तकाजा है कि जहाँ भी अनीति पनपती देखें वहाँ उसके उन्मूलन का प्रयत्न करें। यह न सोचें कि जब अपने ऊपर सीधी विपत्ति आवेगी तब देखा जावेगा। आग अपने छप्पर में लगे तभी उसे बुझाया जाय, इसकी अपेक्षा यह अधिक उत्तम है कि जहाँ भी आग लगी है वहाँ बुझाने को-आत्म रक्षा का अग्रिम मोर्चा मानकर तुरन्त विनाश से लड़ पड़ा जाय। यदि सीधे टकराने की सामर्थ्य अथवा स्थिति न हो तो कम से कम असहयोग एवं विरोध की दृष्टि से जितना कुछ बन पड़े उतना तो करना ही चाहिए।

बुरे कार्य के कारण अपमानित होने का डर ही उन्नति का श्रीगणेश है। उन्नति करनी है तो अपने आपको अनन्त समझो और निश्चय करो कि मैं उन्नति पथ पर अग्रसर हूँ, परन्तु अपनी समझ और अपने निश्चय को यथार्थ बनाने के लिए कटिबद्ध हो जाओ। अपने उन्नत विचारों को शब्दों की अपेक्षा कार्य रूप में प्रकट करो। प्रयत्न करते हुए अपने आपको भूल जाओ। जब तुम अनन्त होने लगो तो अपने आपको महाशक्ति का अंश मानकर गौरव का अनुभव करो, परन्तु शरीर, बुद्धि और धन के अभिमान में चूर न हो जाओ।

भगवान् को इष्ट देव बनाकर उसे प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इष्ट का अर्थ है-लक्ष्य। हम भगवान् के समतुल्य बनें। उसी की जैसी उदारता, व्यापकता, व्यवस्था, उत्कृष्टता, तत्परता अपनाएँ, यही हमारी रीति-नीति होनी चाहिए। इस दिशा में जितना मनोयोगपूर्वक आगे बढ़ा जाएगा उसी अनुपात से ईश्वरीय संपर्क का आनंद और अनुग्रह का लाभ मिलेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 जिन्दगी जीनी हो तो इस तरह जिये (भाग 3)

सहयोग देने की तरह सहयोग लेने की भी आवश्यकता रहती है। पर निर्भर अपने ही पक्षधर रहना चाहिए। इतनी बड़ी बात सोची ही क्यों जाय? इतना बड़ा स्वप्न देखा ही क्यों जाय जिसमें दूसरों का सहयोग न मिलने पर खीज़ या निराशा ही पल्ले बँधे?

कठिनाइयों से कोई बच नहीं सकता। जीवन इतना सरल नहीं है कि उसे गुप-चुप बिना किसी झंझट के जिया जा सके। हमें वह साहस एकत्रित करना ही होगा कि आये दिन नाम रूप बदल कर आने वाली कठिनाइयों का सामना और समाधान करने की सूझ-बूझ परिपक्व होती रहे। शान्ति की आकांक्षा अशान्ति को परास्त करके पाई गई विशय के रूप में की जानी चाहिए। बिना झंझट का सरल और सुख सुविधाओं से भरा पूरा जीवन क्रम एक मधुर कल्पना भर है व्यावहारिक वास्तविकता नहीं जीवन का निर्माण ही खुद इस तरह हुआ है कि उस्तरे की तरह उस पर बार-बार धार रखने की रगड़ से वास्ता पड़ता रहे।

जो इस यथार्थता का सामना नहीं करना चाहता, सरलता को ही शान्ति मानता है उसे खाली हाथ ही रहना पड़ेगा अपना शरीर और मन भी क्या कम अशान्ति उत्पन्न करते हैं। नगर निवासियों की तरह ही वनवासी और सक्रियों की तरह ही निष्क्रिय भी क्षुब्ध रहते हैं। उलझनों का स्वरूप बदला जा सकता है पर उनसे न ता कोई गृही बच सकता है और न वैरागी। शान्ति तो उन्हें ही मिल सकती है जो अशान्ति से टकराने की कला के अभ्यस्त और पारंगत बन चुके  है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- जनवरी 1973 पृष्ठ 35


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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...