शुक्रवार, 11 मार्च 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १३

त्याग और सेवा द्वारा सच्चे प्रेम का प्रमाण दीजिए।

आप प्रेमी बनना चाहते हैं, तो पवित्र प्रेम का अभ्यास पहिले अपने घर से आरंभ कीजिए। प्रेम की प्रारंभिक पाठशाला अपना घर ही हो सकता है। घर के समस्त स्री-पुरुषों, बालक-बालिकाओं से निःस्वार्थ प्रेम करिए। फिर देखिए कि बदले में कितना अधिक प्रेम आपको प्राप्त होता है।

जानना चाहिए कि प्रेम का अर्थ है-त्याग और सेवा। आप घर के हर एक व्यक्ति के पक्ष में स्वार्थों को छोड़िए और जिसे जिस की आवश्यकता है, उसे वह प्रदान कीजिए। वृद्ध आप से शारीरिक सेवा  चाहते हैं, बालक आप के साथ हँसना-खेलना चाहते हैं, भाइयों को आपका आर्थिक सहयोग चाहिए,स्त्री को आपके स्नेह पूर्ण वार्तालाप की आवश्यकता है।
 
 जो जिस वस्तु को चाहता है, उसे वह प्रदान कीजिए परंतु ध्यान रखिए प्रेम कोई व्यापार नहीं है। एक हाथ से देकर दूसरे हाथ से माँगने की नीति प्रेमी को शोभा नहीं दे सकती। वृद्धों से आप आशा मत करिए कि वे आपकी प्रशंसा करें। न भाइयों से यह चाहिए कि कमाऊ होने के नाते आपको कुछ अधिक महत्त्व दें। स्त्री यदि आपकी इच्छानुसार  सेवा-सुभूषा करने में असमर्थ है, तो उस पर झुंझलाएँ मत,क्योंकि आप प्रेमी बनने जा रहे है। प्रेमी देकर माँग नहीं सकता।

दुनियाँ में सारे झगड़ों की जड यह है कि हम देते कम हैं और माँगते ज्यादा हैं। हमें चाहिए यह किं दें बहुत और बदला बिलकुल न माँगे या बहुत कम पाने की आशा रखें। यह नीति ग्रहण करते ही हमारे आसपास के सारे झगड़े मिट जाते हैं। प्रेमी त्याग करता है- उसका त्याग बेकार नहीं जाता, वरन हजार होकर लौट आता है। झगड़ा करने पर जितना बदला मिलता है, उससे अनेक गुना उसे बिना माँगे मिल जाता है। कदाचित कुछ कम भी मिले तो प्रेम से उत्पन्न होने वाले आंतरिक आनंद के मुकाबिले में वह कमी नगण्य है। निरंतर देते रहने का स्वभाव जिसके ह्दयों में स्थान कर लेता है, वह जानते हैं कि स्वर्गीय निर्धन आत्माएँ हर्षान्दोलित करने में कितनी समर्थ हैं। त्याग की दैवी वृत्तियाँ हमारे आसपास के वातावरण को स्वर्गीय संपदाओं से भर देती हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ २०

👉 भक्तिगाथा (भाग ११५)

श्रेष्ठ ही नहीं, सुलभ भी है भक्ति

महात्मा सत्यधृति, भक्त विमलतीर्थ के भक्ति अनुभव को कहते-सुनाते स्वयं में लीन हो गए थे। चिन्तन भक्त का हो या भगवान का, चित्त को परिशुद्ध, परिष्कृत कर ही देता है। भावनाएँ जब भी कभी भक्त अथवा भगवान के स्मरण से भीगती हैं, तब उनमें भक्ति का प्रादुर्भाव हो ही जाता है। महात्मा सत्यधृति अपने जीवनकाल में सम्राट थे। अखिल भूमण्डल पर राज्य था उनका। प्रजापालन, प्रजा का संरक्षण सर्वोपरि दायित्व था उनका। प्रशासन, न्याय व सुरक्षा, वह भी इतने व्यापक साम्राज्य की, ऐसे में उनके पास समय ही कहाँ था अन्य बातों के लिए। कठिन आध्यात्मिक साधनाएँ तो उनके वश में थी ही नहीं। यदि वह आसन, मुद्राओं का कठिन-जटिल अभ्यास करते, तो राज्य शासन के गुरुतर दायित्व कैसे निभते?

यम-नियम के दुःसाध्य व्रतों के साथ भला सैन्य संचालन किस तरह बन पड़ता? प्रत्याहार का अभ्यास करते हुए यदि वह मन व इन्द्रियों को अन्तर्लीन कर लेते तो बाह्य जगत् की परिस्थितियों की समयोचित व्यवस्था कैसे हो पाती? धारणा, ध्यान व समाधि के अनुकूल वह स्वयं ही अपने को नहीं मानते थे। हाँ, इतना अवश्य था कि उनमें आध्यात्मिक अभीप्सा अवश्य थी। जीवन की इन समस्त जटिलताओं की अनुभूति के साथ वह वह यह कामना अवश्य करते थे कि वह भी स्वयं के जीवन को सार्थक कर सकें। उनकी भावनाएँ भी भगवान में डूब सकें, ऐसी प्रार्थना वह परमेश्वर से जब-तब अवश्य कर लिया करते थे। अपने जीवन की जटिल दुरुहताओं को देख कर उन्हें निराशा भी होती और वे बहुधा सोचने लगते भला कैसे हो पाएगा यह सब? फिर तभी सोचने लगते भगवान तो करूणासिन्धु हैं, कोई न कोई मार्ग वह सुझाएँगे ही। अपने किसी न किसी प्रिय भक्त को अवश्य मेरे पास तक भेजेंगे।

अतीत की इन्हीं स्मृतियों से महात्मा सत्यधृति का मन सिंचित हो रहा था। काफी देर हो गयी थी, उन्हें यूं ही मौन बैठे हुए। सभी को उनके कुछ कहने की प्रतीक्षा थी पर उन्हें तो जैसे भावसमाधि हो गयी थी। देवर्षि नारद भी उनकी ओर देख रहे थे। लेकिन सत्यधृति की चेतना को जैसे चेत ही नहीं था। ऐसे में ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने स्थिति के संचालन सूत्र स्वयं के हाथों में लेते हुए कहा- ‘‘हे भक्तप्रवर देवर्षि! आप भक्ति का अपना अगला सूत्र कहें।’’ उत्तर में देवर्षि ने एक नजर महात्मा सत्यधृति की ओर देखते हुए धीमे स्वरों में कहा- ‘‘लेकिन महात्मा सत्यधृति तो अन्तर्लीन हैं, ऐसे में............?’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २३०

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 11 March 2022

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👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 11 March 2022

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आध्यात्मिक शिक्षण क्या है? भाग 2

साथियो! आपने हर हाल में समाज की सेवा की; लेकिन जब चुनाव में खड़े हुए, तो एमपी एमएलए के लिए लोगों ने आपको वोट नहीं दिया और दूसरे को दे दिया। इससे आपको बहुत धक्का लगा। आपने कहा कि भाई। हमने तो अटूट सेवा की थी; लेकिन जनता ने चुनाव में जीतने ही नहीं दिया। ऐसी खराब है जनता। भाड़ में जाये, हम तो अपना काम करते हैं। हमें चुनाव नहीं जीतना है।
 
उपासना में भी ऐसी ही निष्ठा की आवश्यकता है। आपने पत्थर की एकांगी उपासना की और एकांगी प्रेम किया। उपासना के लिए, पूजा करने के लिए हम जा बैठते हैं। धूपबत्ती जलाते हैं। धूपबत्ती क्या है? धूपबत्ती एक कैंडिल का नाम है। एक सींक का नाम है। एक लकड़ी का नाम है। वह जलती रहती है और सुगंध फैलाती रहती है।

सुगंध फैलाने में भगवान् को क्या कोई लाभ हो जाता है? हमारा कुछ लाभ हो जाता है क्या? हाँ, हमारा एक लाभ हो जाता है और वह यह कि इससे हमें ख्याल आता है कि धूप बत्ती के तरीके से और कंडी के तरीके से हमको भी जलना होगा और सारे समाज में सुगंध फैलानी होगी। इसलिए हमारा जीवन सुगंध वाला जीवन, खुशबू वाला जीवन होना चाहिए।

धूपबत्ती भी जले और हम भी जलें जलने से सुगंध पैदा होती है। धूपबत्ती को रखा रहने दीजिए और उससे कहिए कि धूपबत्ती सुगंध फैलाएँगी धूपबत्ती कहती है कि मैं तो नहीं फैलाती। क्यों? जलने पर सुगंध फैलाई जा सकती है। जलना होगा। इसीलिए मनुष्य को जीवन में जलना होता है। धूपबत्ती की तरह से सुगंध फैलानी पड़ती है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: ११

अकेला चलो

महान व्यक्ति सदैव अकेले चले हैं और इस अकेलेपन के कारण ही दूर तक चले हैं। अकेले व्यक्तियों ने अपने सहारे ही संसार के महानतम कार्य संपन्न किए हैं। उन्हें एकमात्र अपनी ही प्रेरणा प्राप्त हुई है। वे अपने ही आंतरिक सुख से सदैव प्रफुल्लित रहे हैं। दूसरे से दु:ख मिटाने की उन्होंने कभी आशा नहीं रखी। निज वृतियों में ही उन्होंने सहारा नहीं देखा।

अकेलापन जीवन का परम सत्य है। किंतु अकेलेपन से घबराना, जी तोडऩा, कर्तव्यपथ से हतोत्साहित या निराश होना सबसे बड़ा पाप है। अकेलापन आपके निजी आंतरिक प्रदेश में छिपी हुई महान शक्तियों को विकसित करने का साधन है। अपने ऊपर आश्रित रहने से आप अपनी उच्चतम शक्तियों को खोज निकालते हैं।

~ पं श्रीराम शर्मा आचार्य


👉 Lose Not Your Heart Day 11
Walk Alone

Great men go far on their paths because they walk alone. Their inspiration comes from within. They alone spur their happiness and remove their sadness and they are helped along only by their own ideas.

Loneliness is an undeniable truth. To be afraid of it, feel inferior because of it, or lose sight of your duties because of it is the greatest sin. What you believe to be loneliness is actually a kind of solitude, given to you to develop your own inner strength. When you depend on yourself, you are better able to realize your full potential.

 ~ Pt. Shriram Sharma Acharya

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...