मंगलवार, 26 फ़रवरी 2019

👉 आदमी बनो!

आपके जीवन में एक नहीं, अनेक बार ऐसे अवसर आये होंगे कि आपके साथ कोई पूरा आदमी हो और उसके विषय में किसी ने पूछा हो कि ‘आप की तारीफ?’ अर्थात् यह कौन है, तो आपने उत्तर दिया हो कि ‘आप अमुक फैक्टरी के मैनेजर हैं, अच्छे लेखक और वक्ता हैं अथवा डॉक्टर हैं, ग्रेजुएट हैं, गुजराती हैं, इत्यादि’ किन्तु किसी की तारीफ में आपने न तो कभी यह कहा होगा न कि किसी दूसरे के मुँह से सुना होगा, कि आप मनुष्य हैं। क्या हुआ यदि आपने किसी से पूछा हो-”आप कौन हैं?” तो किसी ने मजाक में कह ही दिया हो-”आदमी है।”

आप ऐसा जवाब सुनकर या तो खीझ गये होंगे या हंस दिया होगा। हमारा ख्याल है कि आपने कभी यकीन नहीं किया होगा कि वे कहने वाले सचमुच आदमी हैं। दुनिया में चाहे आज झूठ का बोल बाला हो पर यदि कहीं कुछ झूठ नहीं कही जाती तो केवल यही कि किसी को आदमी कहने के विषय में आज भी बड़े संयम और सत्य से काम लिया जाता है। एक साहब राजपूत हैं और साथ ही राजस्थानी भी हैं, हिन्दुस्तानी भी हैं, गोरे हैं-प्रोफेसर हैं, तो भी हो सकता है कि वे आदमी न हों। एक बच्चा ठोकर खाकर गिर पड़ता है, पीछे आने वाली लकड़ी उस गिरे हुए बच्चे को खून में लथपथ देखकर भी छोड़कर चली जाती है। इसलिये न कि वह उसका कोई नहीं है।

दिन दहाड़े एक भले आदमी को एक गुण्डा तंग कर रहा है, आप उसे क्यों नहीं बचाते। इसलिये कि आप उन दोनों से परिचित नहीं है या वे दोनों लड़ने वाले दूसरी कौम या मजहब के हैं। आप अपने बच्चे के लिये खिलौने लाये हैं, दूसरा एक बच्चा भी सामने खड़ा है, वह भी आपके बच्चे की तरह खिलौने के लिये लालायित है पर खिलौना आप उसे नहीं देते, इसलिये कि वह बच्चा आपका नहीं है, चाहे वह यह भेद न जानता हो। एक बेचारा रोगी दर्द से पीड़ित आपको कुर्सी के पास बैठा मुँह की तरफ देख रहा है आप उसे देखने से पहले सेठजी के कब्ज की शिकायत सुन रहे हैं। आप कैसे डॉक्टर हैं। उस दिन जो एक थका हुआ आदमी बिना पूछे आपकी सड़क पर पड़ी खाली चारपाई पर बैठ गया था तो आप उससे क्यों लड़ पड़े थे। इसलिये तो कि वह अनजान पंजाबी था यह आपकी रोज की आदतें हैं।

आप इन बातों में कभी अपनी कमजोरी या गलती अनुभव नहीं करते, इसलिये कि आप अभ्यस्त हो गये हैं उन हाकिमों की तरह जो क्लर्कों से 10-11 घण्टे काम लेकर भी उन पर इसलिये नाराज हो उठते हैं कि वे काम नहीं करते। तब सोलह आना हमारी समझ में आ गया कि आप सचमुच आदमी न होकर कुछ और ही हैं। आप अपने जन्म की स्थिति को चाहे न जानते हों, परन्तु किसी बच्चे को जन्म के समय अवश्य देखा होगा। आप बताइये, वह उस समय क्या था बेदर्दी डॉक्टर या निर्दय अफसर या बेईमान वकील? क्या उस समय वह मुसलमान था। उसकी सुन्नत हुई थी? क्या वह हिन्दू था? क्या उस समय उसके चोटी या जनेऊ या तिलक था?

📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1943 पृष्ठ 9

👉 आज का सद्चिंतन 26 Feb 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 26 Feb 2019


👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 21 से 23

ईदृश्यां च दशायां तु स्वप्रतिज्ञानुसारत: ।
जाता नवावतारस्य व्यवस्थायाः स्थिति: स्वयम्॥२१॥
प्रज्ञावतारनाम्नां च युगस्यास्यावतारक:।
भूलोके मानवानां तु सर्वेषां हि मन:स्थितौ॥२२॥
परिस्थितौ च विपुलं चेष्टते परिवर्तनम्।
सृष्टिक्रमे चतुर्विश एष निर्धार्यतां क्रम:॥२३॥

टीका:- ऐसी दशा में अपनी प्रतिज्ञानुसार नये अवतार की व्यवस्था बन गई। प्रज्ञावतार नाम से इस का अवतरण भूलोक के मनुष्य समुदाय की मनःस्थिति एवं में भारी परिवर्तन करने जा रहा है । सृष्टि क्रम में इस प्रकार का यह चौबीसवाँ निर्धारण है॥२१-२३॥

व्याख्या:- आस्था संकट के दौर में भगवान हमेशा अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हैं, ऐसी परिस्थिति में ईश्वरीय, संत्ता के अवतरण का उद्देश्य एक ही रहता है । गीता में कहा हैं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थनमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे॥

गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार-
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निजश्रुति सेतु ।
जग विस्तारहिं विशद यश राम जनम कर हेतु ॥

भावार्थ यह है किं अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना अवतार प्रक्रिया का मूलभूत प्रयोजन है। यह संकल्प विराट है और अनादिकाल से यथावत् चला आ रहा हैं।


.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 10-11

👉 अशुभ चिंतन छोड़िये-भय मुक्त होइये (भाग 3)

भय और मनोबल, अशुभ और शुभ चिन्तन आशंकाएं और आशाएँ सब मन के ही खेल हैं। इनमें पहले वर्ग का चुनाव जहाँ व्यक्ति को आत्मघाती स्थिति में धकेलता है वही दूसरे प्रकार का चुनाव उसे उत्कर्ष तथा प्रगति के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करता है। सर्वविदित है कि आत्मघात, व्यक्तित्व का हनन या असफलता का चुनाव व्यक्ति किन्हीं विवशताओं के कारण ही चुनता है। अन्यथा सभी अपना विकास, प्रगति और अपने अभियानों में सफलता चाहते हैं। जब सभी लोग सफलता और प्रगति की ही आकाँक्षा करते हैं तो मन में समाये भय के भूत को जगाकर क्यों असफलताओं को आमन्त्रित करता है? इसके लिए मन की उस दुर्बलता को उत्तरदायी ठहराया जा सकता है जिसे आत्मविश्वास का अभाव कहा जाता है।

प्रथम तो अशुभ चिन्तन और अमंगलकारी आशंकाओं से ही बचा जाना चाहिए। लेकिन यह स्वभाव में सम्मिलित हो गया है और अपने आपके प्रति अविश्वास बहुत गहरे तक बैठ गया तो उसके लिए भी प्रयत्न करना चाहिए। इस दिशा में सचेष्ट होते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि हम स्वयं ही भय की रचना करते हैं, उसे बुलाते और अपनी हत्या के लिए आमन्त्रित करते हैं। यह जान लिया गया तो यह समझ पाना भी कठिन नहीं है कि स्वयं ही भय को नष्ट भी किया जा सकता है।

अपने लगाये पेड़ को स्वयं काटा भी जा सकता है और सन्दर्भों में यह बात लागू होती हो अथवा नहीं होती हो किन्तु मन के सम्बन्ध में यह बात शत प्रतिशत लागू होती है कि वह तभी भयभीत होता है, जब जाने अनजाने उसे भयभीत होने की आज्ञा दे दी जाती है। यह आज्ञा अशुभ आशंकाओं के रूप में भी हो सकती है और अतीत के कटु अनुभवों तथा दुःखद स्मृतियों के रूप में भी। कहने का आशय यह कि किसी भी व्यक्ति के मन में उसकी इच्छा और अनुमति के विपरीत भय प्रवेश कर ही नहीं सकता। तो भीरुता को अपने स्वभाव से हटाने के लिए पहली बात तो यह आवश्यक है कि भय को अपने मनःक्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति न दी जाए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1981 पृष्ठ 21
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1981/January/v1.21

👉 स्वप्न का राजा

एक युवक ने स्वप्न देखा कि वह किसी बड़े राज्य का राजा हो गया है। स्वप्न में मिली इस आकस्मिक विभूति के कारण उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। प्रात:काल पिता ने काम पर चलने को कहा, माँ ने लकडियाँ लाने की आज्ञा दी, धर्मपत्नी ने बाजार से सौदा लाने का आग्रह किया, पर युवक ने कोई भी काम न कर एक ही उत्तर दिया- 'मैं राजा हूँ, मैं कोई भी काम कैसे कर सकता हूँ?'

घर वाले बड़े हैरान थे, आखिर किया क्या जाये? तब कमान सम्भाली उसकी छोटी बहिन ने। एक- एक कर उसने सबको बुलाकर चौके में भोजन करा दिया, अकेले खयाली महाराज ही बैठे के बैठे रह गये। शाम हो गई, भूख से आँतें कुलबुलाने लगीं। आखिर जब रहा नहीं गया तो उसने बहन से कहा- 'क्यों री! मुझे खाना नहीं देगी क्या?' बालिका ने मुँह बनाते कहा- '
राजाधिराज! रात आने दीजिए, परियाँ आकाश से उतरेंगी तथा वही आपके लिए उपयुक्त भोजन प्रस्तुत करेंगी। हमारे रूखे- सूखे भोजन से आपको सन्तोष कहाँ होगा?'

व्यर्थ की कल्पनाओं में विचरण करने वाले युवक ने हार मानी और शाश्वत और सनातन सत्य को प्राप्त करने का, श्रमशील बनकर पुरुषार्थरत होने का, वचन देने पर ही भोजन पाने का अधिकारी बन सका।

ऐसे लोगों की स्थिति वैसी ही होती है, जिनका कबीर ने अपनी ही शैली में वर्णन किया है-

ज्यों तिल माही तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा साँई तुझ में, जागि सके तो जाग॥
ज्यों नैनों में पूतली, त्यों मालिक सर मांय।
मूर्ख लोग ना जानिये, बाहर ढूँढ़न जाँय॥

📖 प्रज्ञा पुराण भाग १

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...