बुधवार, 6 फ़रवरी 2019

👉 जो है वही क्या कम है

एक मनुष्य किसी महात्मा के पास पहुँचा व कहने लगा- 'जीवन अल्पकाल कौ है। इस थोडे़ से समय में क्या- क्या करें? बाल्यकाल में ज्ञान नहीं रहता। बुढ़ापा उससे भी बुरा होता है। रात- दिन नींद नहीं लगती है। रोगों का उपद्रव अलग बना रहता है। युवावस्था में कुटुम्ब का भरण- पोषण किये बिना नहीं चलता। तब भला ज्ञान कैसे मिले? लोक- सेवा कब की जाय? इस जिन्दगी में तो कभी समय मिलता दीखता ही नहीं। ' ऐसा कह और खिन्न होकर वह रोने लगा।

उसे रोते देखकर महात्मा भी रोने लगे। उस आदमी ने पूछा- आप क्यों रोते हैं?' महात्मा ने कहा- 'क्या करूँ बच्चा! खाने के लिए अन्न चाहिए। लेकिन अन्न उपजाने के लिए मेरे पास जमीन नहीं है। मैं भूख से मर रहा हूँ। परमात्मा के एक अंश में माया है। माया के एक अंश में तीन गुण है। गुणों के एक अंश में आकाश है। आकाश में थोड़ी- सी वायु है और वायु में बहुत आग है। आग के एक भाग में पानी है। पानी का शतांश पृथ्वी है। पृथ्वी के आधे हिस्से पर पर्वतों का कब्जा है। नदियों और जंगलों को जहाँ देखो, वहाँ अलग बिखरे पड़े है। मेरे लिए भगवान ने जमीन का एक नन्हा सा टुकड़ा भी नहीं छोडा। थोड़ी- सी जमीन थी भी, सो उस पर और- और लोग अधिकार जमाये बैठे हैं। तब बताओ मैं भूखो न मरुँगा ?'

उस मनुष्य ने कहा- 'यह सब होते हुए भी आप जिन्दा तो हो न? फिर रोते क्यों हँ?' महात्मा तुरन्त बोल उठे- "तुम्हें भी तो समय मिला है, बहुमूल्य जीवन मिला है, फिर 'समय नहीं मिलता है, जीवन समाप्त हो रहा है' इसकी रट लगाकर क्यों हाय- हाय करते हो। अब आगे से समय न मिलने का बहाना न करना। जो कुछ भी है उसका तो उपयोग करो। "

साधनों की न्यूनता की दुहाई देना, ईश्वर के राजकुमार को तो कदापि शोभा नहीं देता। अपनी अपूर्णता को पूर्णता में बदल देने की याचना यदि आत्मिक क्षेत्र के विषय में हो तो वह मानवोचित भी है, गरिमापूर्ण भी। पर यदि बाह्य साधन प्रचुर मात्रा में हों तब उसकी ऐसी शिकायत दुर्भाग्यपूर्ण ही है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग १

👉 श्रेष्ठता की परीक्षा:-

“नहीं, नहीं, विरोचन। श्रेष्ठता का आधार वह तप नहीं जो व्यक्ति को मात्र सिद्धियाँ  और सामर्थ्य प्रदान करे। ऐसा तप तो शक्ति-संचय का साधन मात्र है। श्रेष्ठ तपस्वी तो वह है जो अपने लिये कुछ चाहे बिना समाज के शोषित, उत्पीड़ित, दलित और असहाय जनों को निरन्तर ऊपर उठाने के लिये परिश्रम किया करता है। इस दृष्टि से महर्षि कण्व की तुलना राजर्षि विश्वामित्र नहीं कर सकते। कण्व की सर्वोच्च प्रतिष्ठा इसलिये है कि वह समाज और संस्कृति, व्यष्टि और समष्टि के उत्थान के लिये निरंतर घुलते रहते हैं।” भगवान इन्द्र ने विनोद भाव से विरोचन की बात का प्रतिवाद किया।

पर विरोचन अपनी बात पर दृढ़ थे। उनका कहना था- तपस्वियों में तो श्रेष्ठ विश्वामित्र ही हैं। उन दिनों विश्वामित्र शिवालिक-शिखर पर सविकल्प समाधि अवस्था में थे और कण्व वहाँ से कुछ दूर आश्रम-जीवन ज्ञापन कर रहे थे। कण्व के आश्रम में बालकों का ही शिक्षण नहीं बालिकाओं को भी समानान्तर आध्यात्मिक, धार्मिक एवं साधनात्मक प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था।

विरोचन ने फिर वही व्यंग्य करते हुए कहा- “भगवान् आपको तो स्पर्धा का भय है किन्तु आप विश्वास रखिये विश्वामित्र त्यागी सर्व प्रथम है तपस्वी बाद में। उन्हें इन्द्रासन का कोई लोभ नहीं, तप तो वह आत्म-कल्याण के लिये कर रहे हैं। उन्होंने न झुकने वाली सिद्धियाँ अर्जित की हैं। उन सिद्धियों का लाभ तो समाज को भी दिया जा सकता है।“

भगवान् इन्द्र ने पुनः अपने तर्क के प्रमाणित किया- “विश्वामित्र की सिद्धियों को मैं जानता हूँ विरोचन! किन्तु सिद्धियाँ प्राप्त कर लेने के बाद यह आवश्यक नहीं कि वह व्यक्ति उनका उपयोग लोक-कल्याण में करे। शक्ति में अहंभाव का जो दोष है वह सेवा में नहीं इसलिये सेवा को मैं शक्ति से श्रेष्ठ मानता हूँ इसीलिये कण्व की विश्वामित्र से बड़ा मानता हूँ।“

बात आगे बढ़ती किन्तु महारानी शची के आ जाने से विवाद रुक गया। रुका नहीं बल्कि एक मोड़ ले लिया। शची ने हँसते हुए कहा- “अनुचित क्या है? क्यों न इस बात की हाथों-हाथ परीक्षा कर ली जाये।“

बात निश्चित हो गई। कण्व और विश्वामित्र की परीक्षा होगी, यह बात कानों-कान सारी इन्द्रपुरी में पहुँच गई। लोग उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करने लगे देखें सिद्धि की विजय होती है या सेवा की।

निशादेवी ने पहला पाँव रखा। दीप जले, देव-आरती से उनका स्वागत किया गया। दिव्य-ज्योतियों से सारा इन्द्रपुर जगमग-जगमग करने लगा। ऐसे समय भगवान् इन्द्र ने अनुचर को बुलाकर रुपसी अप्सरा मेनका को उपस्थित करने की आज्ञा दी। अविलम्ब आज्ञा का पालन किया गया। थोड़ी ही देर में मेनका वहाँ आ गई। इन्द्र ने उसे सारी बातें समझा दीं। वह रात इस तरह इन्द्रपुर में अनेक प्रकार की मनोभावों में ही बीती।

सबेरा हुआ। भगवती उषा का साम्राज्य ढलने लगा। भुवन भास्कर देव प्राची में अपनी दिव्य सभा के साथ उगने लगे। भगवती गायत्री के आराधना का यह सर्वोत्कृष्ट समय होता है। तपस्वी विश्वामित्र आसन, बंध और प्राणायाम समाप्त कर जप के लिये बैठे थे। उनके हृदय में वैराग्य की धारा अहर्निश बहा करती थी। जप और ध्यान में कोई कष्ट नहीं होता था। बैठते-बैठते चित्त भगवान् सविता के भर्ग से आच्छादित हो गया। एक प्राण भगवती गायत्री और राजर्षि विश्वामित्र। दिव्य तेज फूट रहा था उनकी मुखाकृति से। पक्षी और वन्य जन्तु भी उनकी साधना देख मुग्ध हो जाते थे।

उनकी यह गहन शान्ति और स्थिरता देखकर पक्षियों को कलरव करने का साहस न होता। जन्तु चराचर नहीं करते थे, उन्हें भय था कहीं ध्यान न टूट जाये और तपस्वी के कोप का भाजन बनना पड़े। सिंह तब दहाड़ना भूल जाते वे दिन के तृतीय प्रहर में ही दहाड़ते और वह भी विश्वामित्र की प्रसन्नता बढ़ाने के लिये क्योंकि वह उस समय वन-विहार के लिये आश्रम छोड़ चुके होते थे।

किन्तु आज उस स्तब्धता को तोड़ने को साहस किया किसी अबला ने। अबला नहीं अप्सरा। मेनका। इन्द्रपुर जिसकी छवि पर दीपक की लौ पर शलभ की भाँति जल जाने के लिये तैयार रहता था। आज उसने अप्रतिम शृंगार कर विश्वामित्र के आश्रम में प्रवेश किया था। पायल की मधुर झंकार से वहाँ का प्राण-पूत वातावरण भी सिहर उठा। लौध्र पुष्प की सुगन्ध सारे आश्रम में छा गई। जहाँ अब तक शान्ति थी, साधना थी वहाँ देखते-देखते मादकता, वैभव और विलास खेलने लगा।

दण्ड और कमण्डलु ऋषि ने एक ओर रख दिये। कस्तूरी मृग जिस तरह बहेलिये की संगीत-ध्वनि से मोहित होकर कालातीत होने के लिये चल पड़ता है। सर्प जिस तरह वेणु का नाद सुनकर लहराने लगता है। उसी प्रकार महर्षि विश्वामित्र ने अपना सर्वस्व उस रुपसी अप्सरा के अञ्चल में न्यौछावर कर दिया। सारे भारतवर्ष में कोलाहल मच गया कि विश्वामित्र का तप भंग हो गया।

एक दिन, दो दिन, सप्ताह, पक्ष और मास बीतते गये और उनके साथ ही विश्वामित्र का तप और तेज भी स्खलित होता गया। विश्वामित्र का अर्जित तप काम के दो कौड़ी दाम बिक गया। और जब तप के साथ उनकी शांति उनका यश और वैभव भी नष्ट हो गया तब उन्हें पता चला कि भूल नहीं अपराध हो गया। विश्वामित्र प्रायश्चित की अग्नि में जलने लगे।

क्रोधोच्छ्दासित विश्वामित्र ने मेनका को दंड देने का निश्चय किया पर प्रातःकाल होने तक मेनका आश्रम से जा चुकी थी, इतने दिन की योग-साधना का परिणाम एक कन्या के रूप में छोड़ कर। विश्वामित्र ने बिलखती आत्मजा के पास भी मेनका को नहीं देखा तो उनकी देह क्रोध से जलने लगी पर अब हो ही क्या सकता? मेनका इन्द्रपुर जा चुकी थी।

रोती-बिलखती कन्या को देखकर भी विश्वामित्र को दया नहीं आई। पाप उन्होंने किया था पश्चाताप भी उन्हें ही करना चाहिये था पर उनकी आँखों में तो प्रतिशोध छाया हुआ था। ऐसे समय मनुष्य को इतना विवेक कहाँ रहता है कि वह यह सोचे कि मनुष्य अपनी भूलें सुधार भी सकता है। और नहीं तो अपनी सन्तान, अपने आगे आने वाली पीढ़ी के मार्गदर्शन के लिये तथ्य और सत्य को उजागर ही रख सकता है। विश्वामित्र को आत्म-कल्याण की चिन्ता थी इसलिये उन्हें इतनी भी दया नहीं आई कि वह बालिका को उठाकर उसके लिये दूध और जल की व्यवस्था करते। बालिका को वही बिलखता छोड़कर वे वहाँ से चले गये।

मध्याह्न वेला। ऋषि कण्व लकड़ियाँ काटकर लौट रहे थे। मार्ग में विश्वामित्र का आश्रम पड़ता था। बालिका के रोने का स्वर सुनकर कण्व ने निर्जन आश्रम में प्रवेश किया। आश्रम सूना पड़ा था। अकेली बालिका दोनों हाथों के अंगूठे मुँह में चूसती हुई भूख को धोखा देने का असफल प्रयत्न कर रही थी।

कण्व ने भोली बालिका को देखा, स्थिति का अनुमान करते ही उनकी आंखें छलक उठीं। उन्होंने बालिका को उठाया, चूमा और प्यार किया और गले लगाकर अपने आश्रम की ओर चल पड़े। पीछे-पीछे उनके सब शिष्य चल रहे थे।

इन्द्र ने विरोचन से पूछा- “तात बोलो न। जिस व्यक्ति के हृदय में पाप करने वाले के प्रति कोई दुर्भाव नहीं, पाप से उत्पीड़ित के लिये इतना गहन प्यार की उसकी सेवा माता की तरह करने को तैयार वह कण्व श्रेष्ठ हैं या विश्वामित्र?”

विरोचन आगे कुछ न बोल सके। उन्होंने लज्जावश अपना सिर नीचे झुका लिया।

अखण्ड ज्योति,सितम्बर-1969 से साभार

👉 आज का सद्चिंतन 6 Feb 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 6 Feb 2019


👉 आत्मचिंतन के क्षण 6 Feb 2019

■ समाज के कल्याण की बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, किन्तु अपने जीवन के बारे में कभी कुछ सोचा है हमने? जिन बातों को भाषण, उपदेश, लेखों में हम व्यक्त करते हैं, क्या उन्हें कभी अपने अंतर में देखा है! क्या उन आदर्शों को हम अपने परिवार, पड़ोस और राष्ट्रीय जीवन में व्यवहृत करते हैं? यदि ऐसा होने लग जाय तो हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में महान् सुधार, व्यापक क्रान्ति सहज ही हो जाए।

□ नम्रता एक प्रबल पुरुषार्थ है जिसमें सबके हित के लिए अन्यायी को मिटाने की नहीं, वरन् उसके अत्याचार को सहन करके उसे सुधारने का ठोस विज्ञान है। यह भूल सुधार का एक साधन है, जिसमें दूसरों को कष्ट न देकर स्वयं कष्ट सहन करने की क्षमता है।

◆ सच्ची प्रगति झूठे आधार अपनाने से उपलब्ध नहीं हो सकती। स्थायी सफलता और स्थिर समृद्धि के लिए उत्कृष्ट मानवीय गुणों का परिचय देना पड़ता है। जो इस कसौटी पर कसे जाने से बचना चाहते हैं, जो जैसे बने तुरन्त-तत्काल बहुत कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, उनके सपने न सार्थक होते हैं, न सफल।

◇ धर्म अफीम की गोली नहीं है। परस्पर विद्वेष और असहिष्णुता उत्पन्न करने वाली कट्टरता को साम्प्रदायिक कहा जा सकता है, पर जिसका एकमात्र उद्देश्य ही प्रेम, दया, करुणा, सेवा, उदारता, संयम एवं सद्भावना को बढ़ाना है, उस धर्म को न तो अनावश्यक कहा जा सकता है और न अनुपयोगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 निराश मत होइए

रे. क्राक जो भी काम करने बैठते उसमें असफल हो जाते। सबसे पहले उन्होंने फ्लोरिडा में रीयल एस्टेट बेचने की कोशिश की, किंतु उसमें उन्हें घाटा हो गया। रीयल एस्टेट में घाटा होने के बाद उन्होंने उस काम को छोड़ दिया और एक बैंड में पियानो बजाने लगे। लेकिन वहां भी उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। कुछ समय खाली रहने के बाद वे काफी परेशान हो गए। जीविका चलाने के लिए कोई न कोई काम करना तो जरूरी था। जब उन्हें काफी कोशिशों के बाद भी काम नहीं मिला, तो वे फ्रांस में कार ड्राईवर बन गए। लेकिन इसमें भी उनका मन नहीं लगा। ड्राईवरी छोड़कर वे सेल्समैन बन गए। उन्हें यह समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर उनका काम में मन क्यों नहीं लगता है?

शायद मन कोई नया और साहसिक काम करना चाहता था। ये तरह-तरह के धंधे आजमाने के बाद उन्होंने अपनी एक कंपनी बनाई और तेरह वर्ष तक मल्टी मिक्सर्स बेचते रहे। इसी तरह समय के साथ-साथ उनकी आयु बढ़ती रही और उन्हें सबसे बड़ी सफलता अपने जीवन के बावन वर्ष बिताने के बाद मिली। उन्होंने देखा कि उनके मल्टी मिक्सर्स का सबसे बड़ा खरीददार एक ऐसा रेस्तरां है, जिसे दो भाई मिलकर चलाते हैं।

एक दिन रे. क्राक उस रेस्तरां में गए। वहां उन्होंने देखा कि लोग लाइन में खड़े होकर हैमबर्गर के लिए हल्ला मचा रहे हैं। वहां से वापस आने के बाद उन्होंने काफी सोच-विचार कर मैक डोनल्ड बंधुओं के फ्रेंचाइजी अधिकार खरीद लिए। इसके बाद धीरे-धीरे उन्होंने मैक डोनल्ड फ्रेंचाइजी चेन बनाकर पूरे विश्व में अपना व्यापार फैलाना शुरू किया और आज दुनिया के हर शहर में उनके बर्गर बिक रहे हैं। इस प्रकार रे. क्राक ने जीवन के उस समय में सफलता प्राप्त की, जब लोग कार्य करके और असफलता मिलने पर हार कर बैठ जाते हैं और अपना जीवन समाप्त समझते हैं।

👉 दलिया खाने के लाभ

■ दलिया में कम कैलोरी, कम वसा और उच्च फाइबर होता है जो शरीर के वजन को कम करने में मदद करता है।

□ दलिया में मौजूद अघुलनशील फाइबर कब्ज को रोकने और पाचन तंत्र के स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में मदद करता है। यह पेट के स्वास्थ्य को बनाए रखने और साथ ही साथ पेट के कैंसर के जोखिम को कम करने में मदद करता है।

◆ दलिया प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट का एक बड़ा स्रोत है जो शरीर को ऊर्जा प्रदान करने में सहायक होता है।

◇ दलिया में फाइबर भरपूर मात्रा में पाया जाता है जो कैंसर के खिलाफ शरीर की रक्षा करने में मदद कर सकते हैं।

■ दलिया का सेवन करने से हृदय रोग, उच्च कोलेस्ट्रॉल और उच्च रक्तचाप का खतरा कम हो जाता है।

□ दलिया में एंटी ऑक्सीडेंट गुण होते हैं जो हानिकारक विषाक्त पदार्थों से शरीर की रक्षा करते है।

◆ दलिया का सेवन मधुमेह के रोगियों के लिए भी काफी फायदेमंद होता है।

◇ दलिया कैल्शियम और मैग्नीशियम का एक अच्छा स्रोत है जो हड्डियों को मजबूत बनाता है।

■ दलिया आयरन का एक अच्छा स्त्रोत है जो हीमोग्लोबिन निर्माण करने के लिए हमारे शरीर के लिए बहुत आवश्यक है। लोहा शरीर के तापमान और चयापचय को विनियमित करने में मदद करता है।

□ दलिया पित्त पथरी के गठन को रोकने में मदद करता है।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...