गुरुवार, 1 नवंबर 2018

👉 दुःखी होने की क्या आवश्यकता

🔶 एक नहीं, अनेक सामाजिक कुरीतियाँ अपने देश में नागफनी की तरह फैल रही हैं। इनके काँटों से रोज अनेक मासूम जिंदगियाँ तार-तार हो जाती है। उनके मस्तिष्क की यह हलचल एक निश्चय में बदल गई-वह सामाजिक कुरीतियों की नागफनी को साफ करेंगे, ताकि फिर किसी मासूम चंपा की खिलखिलाहट न छिने।

🔷 एक सेठ था। उसके पास बहुत धन था, पर स्वभाव से वह था कंजूस। न स्वयं खा-पी सके और न किसी को दे सके। घर में अपने धन को इसलिए नहीं रखता था कि कोई चोर-डाकू न चुरा ले, अतः गाँव के बाहर एक जंगल में गड्ढा करके अपना सारा धन गाड़ आया। दूसरे-तीसरे दिन जाता और उस स्थान को चुपचाप देख आता। उसे अपने पर बड़ा गर्व था।

🔶 एक बार एक चोर को शक हुआ, वह कंजूस के पीछे-पीछे चुपचाप गया और छिपकर देख आया। उसे समझते देर न लगी कि इस स्थान पर अवश्य कोई मूल्यवान वस्तु दबी है। जब कंजूस चक्कर लगाकर घर चला गया, तो उस चोर ने खुदाई करके सारा धन प्राप्त कर लिया और वहाँ से रफूचक्कर हो गया।

🔷 दूसरे दिन जब वह कंजूस फिर अपने छिपे धन को देखने गया, तो उसे जमीन खुदी हुई दिखाई दी। आसपास मिट्टी का ढेर लग रहा था और बीच में एक खाली गड्ढा था। उसका सारा धन जा चुका था। इतनी बड़ी हानि वह सहन नहीं कर सका। माथा पकड़कर जोर से रोने-चिल्लाने लगा-”हाय! मैं तो लुट गया, मेरे सारे जीवन की कमाई चोर ले गए।”

🔶 रोना चिल्लाना सुनकर जंगल में रहने वाले आस-पास के कई आदमी आ गए। उन्होंने पूछकर स्थिति जानी। एक आदमी ने समझाते हुए कहा- “सेठ जी ! धन तो आपके काम पहले भी न आया था और न आपके जीवन में आ सकता था। हाँ उस पर आपका अधिकार अवश्य था और उसे यहाँ छिपाकर रख छोड़ा वह बेकार ही था। ऐसी स्थिति में दुःखी होने की क्या आवश्यकता है?

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/2000/April/v2.20

👉 आज का सद्चिंतन 1 November 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 1 November 2018


👉 साधना- अपने आपे को साधना (भाग 1)

🔷 विश्रृंखलित-अव्यवस्थित, अस्त-व्यस्त स्थिति में भी कुछ न कुछ उत्पादन-विकास तो होता है, पर वह किस गति से- कि क्रम से और किस दिशा में चलेगा यह नहीं कहा जा सकता। कँटीले झाड़-झंखाड़ जंगलों में उगते हैं और बेढंगी रीति से छितराते हुए उस क्षेत्र की भूमि को कंटकाकीर्ण बना देते हैं। इसके विपरीत माली की देख-रेख में सुनियोजित ढंग से लगाये गये पौधे सुरम्य उद्यान बनकर फलते-फूलते हैं। पौधों को क्रमबद्ध रूप से लगाने और उनको निरन्तर सँभालने वाली माली की सजग कर्त्तव्य-निष्ठा उस की साधना है जिसका प्रतिफल उसे सम्मान तथा अर्थ लोभ के रूप में- पौधों का हरे-भरे, फले-फूले सौन्दर्य के रूप में तथा सर्व साधारण को छाया, सुगन्ध, फल, सुषमा आदि के रूप में उपलब्ध होता है। माली की उद्यान साधना सर्वतोमुखी सत्परिणाम ही प्रस्तुत करती है।

🔶 मानवी व्यक्तित्व एक प्रकार का उद्यान है। उसके साथ अनेकों आत्मिक और भौतिक विशेषताएँ जुड़ी हुई हैं। उनमें से यदि कुछ को क्रमबद्ध, व्यवस्थित और विकसित बनाया जा सके तो उनके स्वादिष्ट फल खाते-खाते गहरी तृप्ति का आनन्द मिलता है। पर यदि चित्तगत वृत्तियों और शरीरगत प्रवृत्तियों को ऐसे ही अनियन्त्रित छोड़ दिया जाय तो वे भोंड़े, गँवारू एवं उद्धत स्तर पर बढ़ती हैं और दिशा विहीन उच्छृंखलता के कारण जंगली झाड़ियों की तरह उस समूचे क्षेत्र को अगम्य एवं कंटकाकीर्ण बना देती हैं।

🔷 जीवन कल्प-वृक्ष की तरह असंख्य सत्परिणामों से भरा-पूरा है। पर उसका लाभ मिलता तभी है जब उसे ठीक तरह साधा, सँभाला जाय। इस क्षेत्र की सुव्यवस्था के लिए की गई चेष्टा को साधना कहते हैं। कितने ही देवी-देवताओं की साधना की जाती है और उससे कतिपय वरदान पाने की बात पर विश्वास किया जाता है। इस मान्यता के पीछे सत्य और तथ्य इतना ही है कि इस मार्ग पर चलते हुए अन्तःक्षेत्र की श्रद्धा को विकसित किया जाता है। आदतों को नियन्त्रित किया जाता है। चिन्तन प्रवाह को दिशा विशेष में नियोजित रखा जाता है और सात्विक जीवन के नियमोपनियमों का तत्परता पूर्वक पालन किया जात है। इन सबका मिला-जुला परिणाम व्यक्तित्व पर चढ़ी हुई दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण करने तथा सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव का अंग बनाने में सहायक सिद्ध होता है। सुसंस्कारों का अभिवर्धन प्रत्यक्षतः दैवी वरदान है। उसके मूल्य पर हर व्यक्ति अभीष्ट प्रयोजन की दिशा में अग्रसर को सकता है और उत्साहवर्धक सत्परिणाम प्राप्त कर सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1976 पृष्ठ 11
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1976/January/v1.11

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...