मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

👉 परम मित्र कौन है?

एक व्यक्ति था उसके तीन मित्र थे। एक मित्र ऐसा था जो सदैव साथ देता था। एक पल, एक क्षण भी बिछुड़ता नहीं था।

दूसरा मित्र ऐसा था जो सुबह शाम मिलता।

और तीसरा मित्र ऐसा था जो बहुत दिनों में जब तब मिलता।

एक दिन कुछ ऐसा हुआ की उस व्यक्ति को अदालत में जाना था और किसी कार्यवश साथ में किसी को गवाह बनाकर साथ ले जाना था। अब वह व्यक्ति अपने सब से पहले अपने उस मित्र के पास गया जो सदैव उसका साथ देता था और बोला :- "मित्र क्या तुम मेरे साथ अदालत में गवाह बनकर चल सकते हो?

वह मित्र बोला :- माफ़ करो दोस्त, मुझे तो आज फुर्सत ही नहीं। उस व्यक्ति ने सोचा कि यह मित्र मेरा हमेशा साथ देता था। आज मुसीबत के समय पर इसने मुझे इंकार कर दिया।

अब दूसरे मित्र की मुझे क्या आशा है। फिर भी हिम्मत रखकर दूसरे मित्र के पास गया जो सुबह शाम मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।

दूसरे मित्र ने कहा कि :- मेरी एक शर्त है कि मैं सिर्फ अदालत के दरवाजे तक जाऊँगा, अन्दर तक नहीं।

वह बोला कि :- बाहर के लिये तो मै ही बहुत हूँ मुझे तो अन्दर के लिये गवाह चाहिए। फिर वह थक हारकर अपने तीसरे मित्र के पास गया जो बहुत दिनों में मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।

तीसरा मित्र उसकी समस्या सुनकर तुरन्त उसके साथ चल दिया।

अब आप सोच रहे होंगे कि...
वो तीन मित्र कौन है...?

तो चलिये हम आपको बताते है इस कथा का सार।

जैसे हमने तीन मित्रों की बात सुनी वैसे हर व्यक्ति के तीन मित्र होते हैं। सब से पहला मित्र है हमारा अपना 'शरीर' हम जहा भी जायेंगे, शरीर रुपी पहला मित्र हमारे साथ चलता है। एक पल, एक क्षण भी हमसे दूर नहीं होता।

दूसरा मित्र है शरीर के 'सम्बन्धी' जैसे :- माता - पिता, भाई - बहन, मामा -चाचा इत्यादि जिनके साथ रहते हैं, जो सुबह - दोपहर शाम मिलते है।

और तीसरा मित्र है :- हमारे 'कर्म' जो सदा ही साथ जाते है।

अब आप सोचिये कि आत्मा जब शरीर छोड़कर धर्मराज की अदालत में जाती है, उस समय शरीर रूपी पहला मित्र एक कदम भी आगे चलकर साथ नहीं देता। जैसे कि उस पहले मित्र ने साथ नहीं दिया।

दूसरा मित्र - सम्बन्धी श्मशान घाट तक यानी अदालत के दरवाजे तक "राम नाम सत्य है" कहते हुए जाते हैं तथा वहाँ से फिर वापिस लौट जाते है।

और तीसरा मित्र आपके कर्म हैं।
कर्म जो सदा ही साथ जाते है चाहे अच्छे हो या बुरे।

अब अगर हमारे कर्म सदा हमारे साथ चलते है तो हमको अपने कर्म पर ध्यान देना होगा अगर हम अच्छे कर्म करेंगे तो किसी भी अदालत में जाने की जरुरत नहीं होगी।

और धर्मराज भी हमारे लिए स्वर्ग का दरवाजा खोल देगा।

रामचरित मानस की पंक्तियां हैं कि...
"काहु नहीं सुख-दुःख कर दाता।
निजकृत कर्म भोगि सब भ्राता।।"

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तमसो मा ज्योतिर्गमय
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👉 MISCONCEPTIONS ABOUT ELIGIBILITY FOR GAYATRI SADHANA (Part 2)

Q.2. Is it true that Gayatri Sadhana is permissible to a particular caste only ?

Ans. The concept of caste is grossly misunderstood in the modern society. Ancient Indian Culture did not relate the caste system to one’s parentage or ancestry. In those days, defaulters of basic codes of social conduct were deprived of normal civil rights. They were compelled by the society to undertake specific duties along with deprivation of the right to worship Gayatri. The caste of a person thus denoted the field of his activity rather than his parentage. Denial of worship was, therefore, a punishment to the guilty. In the present context, the codes for “social punishment” have changed. Work-assignments have also undergone a sea-change. Under these circumstances, all human beings, owing their existence to the one Supreme Being, are entitled to worship Gayatri irrespective of their ancestry, parentage or belief.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 28

👉 कुछ ख़ास बातें..

1. आप कुछ नहीं करेंगे..
तो आप को कोई कुछ नहीं कहेगा..!!

2. आप अगर सक्रिय हैँ..
तो हमेशा आप पर उँगलियाँ उठेगी..!!

3. अगर आप ये नहीं सोचेंगे..
कि श्रेय किसको मिलेगा..
तो आप बहुत कुछ कर सकते हैँ..!!

4. आपके जितने विरोधी होंगे..
आपका उतना बड़ा कद होगा..!!

5. आप जितना ज्यादा काम करेंगे..
उतना ज्यादा और काम करना पड़ेगा..!!

6. जिम्मेदारी उसी की तरफ खिंची आती हैं..
जो उन्हें उठाना चाहता है..!!

7. आप जो भी प्रोजेक्ट करेंगे..
उसकी सफलता का श्रेय संस्था को मिलेगा..
और असफलता की जवाबदेही आपकी होगी..!!

8. जो आपका सबसे अच्छा हितैषी है..
वो आपके मुँह पर आपकी आलोचना करेगा.!!

9. आप को प्रशंसा जब मिलेगी..
जब आप उसकी अपेक्षा करना बंद कर देंगे..!!

10. आप लोकप्रिय तब होंगे..
जब अपने साथियों के कार्यों को सराहेंगे..
और उनका उत्साह बढ़ाएंगे..!!

11. आप कब सही थे..कोई याद नहीं रखेगा, आप कब गलत थे..कोई नहीं भूलेगा..!!

12. आप जितना नियम मान कर चलेंगे..
आप पर उतना ज्यादा नियम मानने का दबाव बनाया जायेगा..!!

सबसे ख़ास बात..
सामाजिक कार्यों का उद्देश्य मन की संतुष्टि होता है..और इस के लिए बहुत कुछ सहना होता है..और आत्मसंतुष्टि से बढ़कर कुछ नहीं है...!!!

👉 आध्यात्मिक चिकित्सा

आध्यात्मिक चिकित्सा- बोध, निदान एवं विज्ञान का पूर्ण तंत्र है। इसमें जीवन की दृश्य-अदृश्य संरचना का सम्पूर्ण बोध है। इसी के साथ यहाँ जीवन के दैहिक-दैविक एवं आध्यात्मिक रोगों के निदान की सूक्ष्म विधियों का समग्र ज्ञान है। इतना ही नहीं इसमें इन सभी रोगों के सार्थक समाधान का प्रायोगिक विज्ञान भी समाविष्ट है, जो मानव जीवन की सम्पूर्ण चिकित्सा के ऋषि संकल्प को दुहराता है।
  
यह वही महासंकल्प है, जो ऋग्वेद के दशम मण्डल के रोग निवारण सूक्त के पंचम मंत्र के ऋषि विश्वामित्र की अन्तर्चेतना में गूँजा था। नवयुग की नवीन सृष्टि करने वाले ब्रह्मर्षि विश्वामित्र उन क्षणों में चिन्तन में निमग्न थे। तभी उन्हें एक करूण, आर्त स्वर सुनाई दिया। यह विकल स्वर एक दुःखी नारी का था, जिसे उनका शिष्य जाबालि लिए आ रहा था। इस युवती नारी को रोगों ने असमय वृद्ध बना दिया था।
  
पास आते ही ब्रह्मज्ञानी महर्षि ने उसकी व्यथा के सारे सूत्र जान लिए। और जाबालि को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा- वत्स! चिकित्सा की सारी प्रचलित विधियाँ एवं औषधियाँ इस पर नाकाम हो गयी हैं, यही कहना चाहते हो न। हँं आचार्यवर...। वह अभी आगे कुछ कह पाता तभी ऋषि बोले-वत्स! अभी एक चिकित्सा विधि बाकी है- और वह है आध्यात्मिक चिकित्सा। तुम्हारे सम्मुख मैं आज इसका प्रयोग करूँगा।
  
शिष्य जाबालि अपने आचार्य की अनन्त आध्यात्मिक शक्तियों से परिचित थे, सो वे शान्त रहे। फिर भी उनमें जिज्ञासा तो थी ही। जिसका समाधान करते हुए अन्तर्यामी ब्रह्मर्षि बोले- पुत्र जाबालि, सफल चिकित्सा के लिए जीवन का समग्र बोध आवश्यक है। और जीवन मात्र देह नहीं है। इसमें इन्द्रिय, प्राण, मन, चित्त, बुद्धि, अहं एवं अन्तरात्मा की अन्य अदृश्य कड़ियाँ भी हैं। रोग के सही निदान के लिए इनका पारदर्शी ज्ञान होना चाहिए। तभी समाधान का विज्ञान कारगर होता है। यह कहते हुए महर्षि ने उस पीड़ित नारी को सामने बिठाकर उसे अपने महातप के एक अंश का अनुदान देने का संकल्प करते हुए कहा- आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्टातातिभिः। दक्षं त उग्रमाभारिषं परा यक्ष्मं सुवामि ते॥
  
अर्थात्- ‘आपके पास शान्ति फैलाने वाले तथा अविनाशी साधनों के साथ आया हूँ। तेरे लिए प्रचण्ड बल भर देता हूँ। तेरे रोग को दूर भगा देता हूँ।’ महर्षि के इस संकल्प ने उस पीड़ित नारी को स्वास्थ्य का वरदान देने के साथ आध्यात्मिक चिकित्सा की पुण्य परम्परा का प्रारम्भ भी किया।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १३५

Jeevan Ki Bagdor Aapke Hath Mai | जीवन की बागडोर आपके हाथ में | Pt Shrir...



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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...