सोमवार, 5 जून 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 5 June 2023

🔶 गई गुजरी स्थिति में पड़े हुए लोग जब ऊँची सफलताओं के सपने देखते हैं तो स्थिति और लक्ष्य के बीच भारी अन्तर होने से लगता है कि इतनी चौड़ी खाई पाटी न जा सकेगी, किन्तु अनुभव से यह देखा गया है कि कठिनाई उतनी बड़ी थी नहीं जितनी कि समझी गई थी। धीमी किन्तु अनवरत चाल से चलने वाली चींटी भी पहाड़ों के पार चली जाती है, फिर धैर्य, साहस, लगन, मनोयोग और विश्वास के साथ कठोर पुरुषार्थ में संलग्न व्यक्ति को प्रगति की मंजिलें पार करते चलने से कौन रोक सकेगा?

🔷 ज्ञानयोग की साधना यह है कि मस्तिष्कीय गतिविधियों पर-विचारधाराओं पर विवेक का आधिपत्य स्थापित किया जाय। मस्तिष्क को चाहे जो कुछ सोचने की छूट न हो, चाहे जिस स्तर की चिन्तन प्रक्रिया अपनाने न दी जाय। मात्र औचित्य ही चिंतन का आधार हो सकता है, यह निर्देश मस्तिष्क को लाख बार समझाया जाय और उसे सहमत अथवा बाध्य किया जाय कि इसके अतिरिक्त उसे और किसी अनुपयुक्त प्रवाह में बह चलने की छूट न मिल सकेगी।

🔶 असत्य से किसी प्रकार के लाभ, सुख अथवा संतोष की आशा करना मृगतृष्णा में भटकने के समान है। असत्य से व्यक्ति, समाज और राष्ट्र किसी का भी हित नहीं होता। असत्य आत्मिक और भौतिक दोनों प्रकार का दोष है। इससे आत्मा का पतन होता है और समाज में विघटन। असत्यवाद के स्वभाव को बलपूर्वक त्याग देने में ही कल्याण है। सत्य का आश्रय ईश्वर का आश्रय है। इसको स्वीकार कर चलने वाला व्यक्ति जीवन में न तो कभी अशान्त होता है और न अपमानित।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (भाग 4)

किसी मित्र सम्बन्धी अथवा आत्मीयजन ने मानिये जन्म-दिन अथवा किसी अन्य शुभ अवसर पर अपनी योग्यता एवं समाज के अनुसार कोई उपहार दिया अथवा भेजा। कोई भी व्यक्ति इस सम्मान और स्नेह से पुलकित हो उठता और आभार भरा धन्यवाद देते-देते न अघाता। किन्तु दोषदर्शी तो अपने रोग से मजबूर ही रहता है। यद्यपि वह आभार एवं धन्यवाद न प्रकट करने की असभ्यता नहीं करता तथापि और कुछ नहीं उसमें इतना ही शामिल कर देता कि आपने बेकार यह चीज भेजी। यह तो मेरे पास पहले से ही थी और मुझे ऐसा रंग यह डिजाइन पसन्द नहीं है। यह रंग और प्रकार उपहार के रूप में बहुत आम और सस्ते हो गये हैं। इससे अच्छा यह होता कि आप सद्भावना और बधाई के ही दो शब्द दे देते। बात भले ही सही रही हो। किन्तु इस भावना ने, इस दोष-दृष्टि ने उसको स्वयं तो प्रसन्न नहीं ही होने दिया साथ ही अपने मित्र और स्वजन की प्रसन्नता भी छीन ली।

यही बात नहीं कि दोष-दृष्टा केवल दूसरों में ही बुराई और कमियाँ देखता हो। स्वयं अपने प्रति भी उसका यही अत्याचार रहा करता है। उदाहरण के लिये वह बाजार से अपने लिये कोई वस्तु खरीदने जाती है। पहले तो वह कितनी ही प्रकार की चीजें क्यों न दिखलाई जायें, उसे पसन्द ही नहीं आती, सबमें कोई-न-कोई दोष दिखलाई देता है। वस्तु के निर्दोष होने पर भी वह अपनी और से किसी दोष का आरोपण कर ही लेगा। अपनी इस प्रक्रिया से थक जाने के बाद जब चीज लेकर घर आता है। तब भी उसका पेट अप्रशंसा से भरा नहीं होता। चीज डाली और कहना आरम्भ कर दिया- ‘‘खरीदने को खरीद तो अवश्य लाया लेकिन कुछ पसन्द नहीं आई। यदि पत्नी इस बात को नहीं मानती और चुनाव की प्रशंसा करती है, तो झूठी प्रशंसा का करने का आरोप पाती है। जब तक वह अपनी पसन्द, बाजारदारी, चीज की पहचान के विषय में आलोचना नहीं कर लेता, बुराई नहीं निकाल लेता, अपनी अकल और अनुभव को कोस नहीं लेता चैन नहीं पड़ता। इस प्रकार वह इस प्रसन्नता के छोटे अवसर को भी खिन्नता से कडुआ बना ही लेता है।

तात्पर्य यह है कि दोष-दर्शी कितने ही सुन्दर स्थान, वस्तु और व्यक्ति के संपर्क में क्यों न आये अपने अवगुण के प्रभाव से उससे मिलने वाले आनन्द से वंचित ही रहता है। निदान इस लम्बे-चौड़े संसार में उसे न तो कहीं आनन्द दीखता है और न किसी वस्तु में सामंजस्य का सुख प्राप्त होता है। उसे हर व्यक्ति, हर वस्तु और हर वातावरण अपनी रुचि के साथ असमंजस उत्पन्न करती ही दीखती है। जबकि गुण-ग्राहक हर व्यक्ति, हर वस्तु और हर वातावरण में सामंजस्य और सुन्दरता ही खोज निकालता है। यही कारण है कि गुण-ग्राहक सदैव प्रसन्न और दोषान्वेषक सदा खिन्न बना रहता है।

वस्तुतः बात यह है कि संसार की प्रत्येक वस्तु गुण-दोषमय ही है। कोई भी वस्तु एवं व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता कि जिसमें या तो गुण-ही-गुण भरे हों अथवा दोष-ही-दोष। अपनी दृष्टि के अनुसार हर व्यक्ति उसमें गुण या दोष देख कर प्रसन्न अथवा खिन्न हुआ करता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, मई 1968, पृष्ठ 23
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/May/v1.23
http://literature.awgp.org


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