गुरुवार, 31 जनवरी 2019

👉 जीवन का सफर

जीत किसके लिए, हार किसके लिए
ज़िंदगी भर ये तकरार किसके लिए..
जो भी आया है वो जायेगा एक दिन
फिर ये इतना अहंकार किसके लिए

एक बार एक नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी। एक कौए ने लाश देखी, तो प्रसन्न हो उठा, तुरंत उस पर आ बैठा।

यथेष्ट मांस खाया। नदी का जल पिया। उस लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली। वह सोचने लगा, अहा ! यह तो अत्यंत सुंदर यान है, यहां भोजन और जल की भी कमी नहीं। फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरूं?

कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के ऊपर कई दिनों तक रमता रहा.. भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता। अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह, किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहरी दृश्य-इन्हें देख-देखकर वह विभोर होता रहा।

नदी एक दिन आखिर महासागर में मिली। वह मुदित थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ। सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था, किंतु उस दिन लक्ष्यहीन कौए की तो बड़ी दुर्गति हो गई।

चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहां उसके लिए न भोजन था, न पेयजल और न ही कोई आश्रय। सब ओर सीमाहीन अनंत खारी जल-राशि तरंगायित हो रही थी।

कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता रहा, किंतु महासागर का ओर-छोर उसे कहीं नजर नहीं आया।

आखिरकार थककर, दुख से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुंबी लहरों में गिर गया। एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया।

शारीरिक सुख में लिप्त मनुष्यों की भी गति उसी कौए की तरह होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानते हैं और अंत में अनन्त संसार रूपी सागर में समा जाते है।


Shinkanji Ka Swad ll शिकंजी का स्वाद
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https://youtu.be/FkEa3-JEIeo

👉 जीवन एक बीज फला, दूसरा गला

दो बीज धरती की गोद में जा पड़े। मिट्टी ने उन्हें ढक दिया। दोनों रात सुख की नींद सोये। प्रात:काल दोनों जगे तो एक के अंकुर फूट गये और वह ऊपर उठने लगा। यह देख छोटा बीज बोला- भैया ऊपर मत जाना। वहाँ बहुत भय है। लोग तुझे रौद्र डालेंगे, मार डालेंगे। बीज सब सुनता रहा और चुपचाप ऊपर उठता रहा। धीरे- धीरे धरती की परत पारकर ऊपर निकल आया और बाहर का सौन्दर्य देखकर मुस्कराने लगा। सूर्य देवता ने धूप स्नान कराया और पवन देव ने पंखा डुलाया, वर्षा आई और शीतल जल पिला गई, किसान आया और चक्कर लगाकर चला गया। बीज बढ़ता ही गया। झूमता, लहलहाता, और फलता हुआ बीज एक दिन परिपक्व अवस्था तक जा पहुँचा। जब वह इस संसार से विदा हुआ तो अपने जैसे बीज छोड़कर हँसता और आत्म- सन्तोष अनुभव करता विदा हो गया।

मिट्टी के अन्दर दबा बीज यह देखकर पछता रहा था- भय और संकीर्णता के कारण मैं जहाँ था वहीं पडा रहा और मेरा भाई असंख्य गुना समृद्धि पा गया।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग १

👉 आज का सद्चिंतन 1 Feb 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 1 Feb 2019


👉 आत्म निर्माण-जीवन का प्रथम सोपान (अन्तिम भाग)

तीसरा महासत्य है- अपूर्णता को पूर्णता तक पहुँचाने का जीवन लक्ष्य प्राप्त करना। दोष-दुर्गुणों का निराकरण करते चलने और गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता बढ़ाते चलने से ही ईश्वर और जीव के बीच की खाई पट सकती है। इन्हीं दो कदमों को साहस और श्रद्धा के साथ अनवरत रूप से उठाते रहने पर जीवन लक्ष्य तक पहुँचना सम्भव हो सकता है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की नीति अपनाकर ही आत्मा को परमात्मा बनने और नर को नारायण स्तर तक पहुँचाने का अवसर मिल सकता है। स्वर्ग, मुक्ति, आत्मदर्शन, ईश्वर प्राप्ति आदि इसी अपूर्णता के निराकरण का काम है।

चौथा महासत्य है- इस विश्व ब्रह्माण्ड को ईश्वर की साकार प्रतिमा मानना। श्रम सीकरों और श्रद्धा सद्भावना के अमृत जल से उसका अभिषेक करने की तप साधना करना। दूसरों के दुःख बटाने और अपने सुख बाँटने की सहृदयता विकसित करना। आत्मीयता का अधिकाधिक विस्तार करना। अपनेपन को शरीर परिवार तक सीमित न रहने देकर उसे विश्व सम्पदा मानना और अपने कर्तव्यों को छोटे दायरे में थोड़े लोगों तक सीमित न रख कर अधिकाधिक व्यापक बनाना।

यह चार सत्य-चार तथ्य ही समस्त अध्यात्म विज्ञान के, साधना विधान के केन्द्र बिन्दु हैं। चार वेदों का सार तत्व यहीं है। इन्हीं महासत्यों को हृदयंगम करने और उन्हें व्यवहार में उतारने से परम लक्ष्य की प्राप्ति होती है। जीवनोद्देश्य पूर्ण होता है। इन महासत्यों को जितनी श्रद्धा और जागरूकता के साथ अपनाया जायेगा आत्म-निर्माण उतना ही सरल और सफल होता चला जायेगा। युग निर्माण की दिशा में बढ़ते हुए हमें सर्वप्रथम आत्म-निर्माण पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

Andhvishwas Ka Pardafash अंधविश्वास का पर्दाफाश
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https://youtu.be/nB7sJGZaQog

👉 Learn to Share

You are really fortunate if God has endowed you with vigor, brilliance, knowledge, power, prosperity and glory. Then your life must be progressive and joyful in the worldly sense. But this success or joy would be momentary and won’t be fulfilling, if you keep your resources and belongings closed to your chest and use them only for your selfish interests. Your joy, your satisfaction would expand exponentially if you learn to distribute them and share whatever you have with many others.

Try to spend at least a fraction of your wealth, your resources for the needy. Your help will not only give them support to rise and progress, more importantly, it will bestow the spiritual benefits of being kind and altruistic. This will augment your happiness manifold. Those being helped by you will also be happy and thus the stock of joy in the world will also expand.

Distributing and sharing with a sight of altruistic wisdom and a feel of compassion provide the golden key to unalloyed joy. God has been so kind to you; you should also be kind to others. God is defined as the eternal source of infinite bliss because HIS mercy pervades everywhere for all creatures, for everything; HIS divine powers are omnipresent; every impulse of joy is an expression of HIS beatitude.

You should see the dignity of HIS divine creation in this world. God has also given you an opportunity to glorify your life by selflessly spreading HIS auspicious grace…

Akhand Jyoti, April 1943


Dharm Ka Saar धर्म का सार
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https://youtu.be/ErM6MW0hZ0M

👉 अपनी रोटी बाँट कर खाइए

आप पड़े सौभाग्यशाली हैं यदि आपको ईश्वर ने श्रम, वैभव, विद्या, पद, बल, यश तथा चातुर्य दिया है। इन विभूतियों की सहायता से आपका जीवन सुखी और आनंदमय होगा, परंतु वह आनंद अधूरा, नीरस और क्षणिक होगा, यदि इन संपदाओं का उपयोग केवल अपने ही संकुचित लाभ के लिए करेंगे। आनंद को अनेक गुना बढ़ाने का मार्ग यह है कि अपनी रोटी बाँट कर खाओ।

जो आपको प्राप्त है, उसका कुछ अंश उन लोगों को बाँट दो, जिन्हें इसकी आवश्यकता है। इससे दुहरा लाभ होगा। वह अभावग्रस्त मनुष्य उन्नति के साधन प्राप्त करके विकसित होगा और त्याग करने पर जो आनंद एवं आध्यात्मिक सुगंध उत्पन्न होती है, आप उसे प्राप्त करेंगे। दोनों पक्षों को एक अपूर्व आनंद प्राप्त होगा और उसके कारण संसार के सुख में कुछ और वृद्धि हो जाएगी।

आनंद का सच्चा मार्ग यह है कि अपनी रोटी बाँट कर खाओ। अपनी संपदाओं से दूसरों की सहायता करके वही करो जो ईश्वर ने तुम्हारे साथ किया है। ईश्वर को `आनंदघन’ कहा जाता है क्योंकि वह अपनी दिव्य विभूतियाँ नि:स्वार्थ भाव से प्राणियों को देता है।

आप भी सर्वोच्च आनंदमय महान पद प्राप्त कर सकते हैं, बशर्ते कि अपनी रोटी बाँट कर खाएँ।

📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1943

न तो हिम्मत हारे ओर न हार स्वीकार करें
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https://youtu.be/VtI_TWH4K2Q

👉 आत्मचिंतन के क्षण 1 Feb 2019

◾ मेरे बच्चो! आज मैं तुम्हें एक बहुत बड़ा सन्देश देने खड़ा हुआ हूँ और वह यह है कि तुम कभी किसी अनीति एवं अविवेक-युक्त मान्यता या परम्परा को अपनाने की बौद्धिक पराधीनता को स्वीकार न करना। सम्भव है इस संघर्ष में तुम अकेले पड़ जाओ, तुम्हें साथ देने वाले लोग अपने हाथ सिकोड़ लें, पर तो भी तुम साहस न हारना। तुम्हारे दो हाथ सौ हाथ के बराबर हैं, इन्हें तान कर खड़े हो जाओगे तो बहुमत द्वारा समर्थित होते हुए भी कोई मूढ़ता तुम्हें झुकने के लिए विवश न कर सकेगी। जब तक तुम्हारी देह में प्राण शेष रहे, सत्य के समर्थन और विवेक के अनुमोदन का तुम्हारा स्वाभिमान न गले, यही अन्त में तुम्हारे गौरव का आधार बनेगा।

◾ बच्चे, जब तक तुम्हारे हृदय में उत्साह एवं गुरू तथा ईश्वर में विश्वास- ये तीनों वस्तुएँ रहेंगी -- तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता। मैं दिनोदिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ। हे साहसी बालकों, कार्य करते रहो।

◾ इस दानशील देश में हमें पहले प्रकार के दान के लिए अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान के विस्तार के लिए साहसपूर्वक अग्रसर होना होगा! और यह ज्ञान-विस्तार भारत की सीमा में ही आबद्ध नहीं रहेगा, इसका विस्तार तो सारे संसार में करना होगा! और अभी तक यही होता भी रहा है! जो लोग कहते हैं कि भारत के विचार कभी भारत से बाहर नहीं गये, जो सोचते हैं कि मैं ही पहला सन्यासी हूँ जो भारत के बाहर धर्म-प्रचार करने गया, वे अपने देश के इतिहास को नहीं जानते! यह कई बार घटित हो चुका है! जब कभी भी संसार को इसकी आवश्यकता हुई, उसी समय इस निरन्तर बहनेवाले आध्यात्मिक ज्ञानश्रोत ने संसार को प्लावित कर दिया!

✍🏻 स्वामी विवेकानन्द

अपने अंग अवयवों से Apne Ang Avyavon Se
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https://youtu.be/J2Rovz78uwc

👉 आत्म निर्माण-जीवन का प्रथम सोपान (भाग 5)

आत्म-निर्माण के मूलभूत चार दार्शनिक सिद्धांतों पर हर दिन बहुत गम्भीरता के साथ बहुत देर तक मनन-चिन्तन करना चाहिए। जब भी समय मिले चार तथ्यों को चार वेदों का सार तत्त्व मानकर समझना और हृदयंगम करना चाहिए। यह तथ्य जितनी गहराई तक अन्तःकरण में प्रवेश कर सकेंगे, प्रतिष्ठित हो सकेंगे, उसी अनुपात से आत्म-निर्माण के लिए आवश्यक वातावरण बनता चला जायेगा।

आत्म-दर्शन का प्रथम तथ्य है आत्मा को परमात्मा का परम पवित्र अंश मानना और शरीर एवं मन को उससे सर्वथा भिन्न मात्र वाहन अथवा औजार भर समझना। शरीर और आत्मा के स्वार्थों का स्पष्ट वर्गीकरण करना। काया के लिए उससे सम्बन्धित पदार्थों एवं शक्तियों के लिए हम किस सीमा तक क्या करते हैं, इसकी लक्ष्मण रेखा निर्धारित करना और आत्मा के स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपनी क्षमताओं का एक बड़ा अंश बचाना, उसे आत्म कल्याण के प्रयोजनों में लगाना।

दूसरा आध्यात्मिक तथ्य है-मानव जीवन को ईश्वर का सर्वोपरि उपहार मानना। इसे लोकमंगल के लिए दी हुई परम पवित्र अमानत स्वीकार करना। स्पष्ट है कि प्राणिमात्र को ईश्वर की सन्तान मानना। निष्पक्ष न्यायकारी पिता समान रूप से ही अपने सब बालकों को अनुदान देता है। मनुष्य को इतने सुविधा साधन वह विलासिता और अहन्ता की पूर्ति के लिए देकर पक्षपाती और अन्यायी नहीं बन सकता। जो मिला वह खजांची के पास रहने वाली बैंक अमानत की तरह है। संसार को सुखी समुन्नत बनाने के लिए ही मनुष्य को विभिन्न सुविधाएँ मिली हैं। उनमें से निर्वाह के लिए न्यूनतम भाग अपने लिये रखकर शेष को लोकमंगल के लिए ईश्वर के इस सुरम्य उद्यान को अधिक सुरम्य सुविकसित बनाने के लिए खर्च किया जाना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

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बुधवार, 30 जनवरी 2019

👉 आदतों के जंजाल

आदतों के जंजाल से नि‍कलेंगे तभी समझेंगे मुक्ति के मायने

एक बार मिस्र में कुछ कैदि‍यों को उम्रकैद की सजा देकर कि‍ले में रखा गया था। सारे कैदी अपनी जवानी में पकड़े गए थे और जेल में ही बूढ़े हो गए थे। बाद में जब राज्यय की सरकार का तख्ता पलटा, तो इन उम्रकैदियों को आजाद कर दि‍या गया। पर वे तो आजादी भूल चुके थे। उनके लिए जेल ही घर और बेड़ियां जेवर बन चुकी थीं। उन्हों।ने किले के बाहर जाने से इनकार कर दि‍या। उनके इनकार के बावजूद उन सबको जबरदस्ती जेल से निकाल दि‍या गया। उस वक्तए तो वह चले गए, लेकिन शाम को आधे से ज्यादा कैदी जेल के दरवाजे आकर कहने लगे कि हमे अंदर आने दो, हमारा यही घर है।

दरअसल ये कैदी रोज वहां जीवन व्यतीत करते-करते वहीं के हो गए थे। जेल ही उनका घर बन गया था। वह बाहर की दुनिया भूल चुके थे। जेल में समय से खाना मिल जाता था। समय से सो जाते थे। आपस में बातचीत कर लेते थे। जिंदगी व्यतीत हो ही रही थी। बाहर उन कैदियों ने यह कहा कि हमें नींद नहीं आएगी। बेड़ियां न होने से हमारे हाथ-पैर हलके हो गए हैं। हमसे चला नहीं जाता। बेड़ियों के बिना हमें अपने पैर हलके लगते हैं। उन्हें इसकी आदत बन गई थी।

ऐसे ही गुलामी की भी आदत हो जाती है। ठीक ऐसे ही अवगुणों में रहने की भी आदत हो जाती है। और इस आदत में रमा इंसान समय और तकदीर की भी परवाह नहीं करता। समय यदि उनकी तकदीर बदल भी देता है, तो भी वह उन अवगुणों को नहीं छोड़ पाता। आदतों के जंजाल में फंसा इंसान न तो तकदीर की उंगली पकड़कर चल पाता है और न ही समय देख भविष्यम का फैसला ले पाता है। यह तो प्रत्यक्ष है कि वह कैदी याचना कर रहे थे कि उन्हें अंदर आने दिया जाए। हकीकत यह है कि जिन अवगुणों में मनुष्य जी रहा होता है, वह अवगुण उसको अवगुणों की तरह नहीं दिखाई देते। इसलिए उस अवगुण को तोड़ने की जरूरत ही नहीं महसूस होती, क्योंकि अवगुण दिखाई ही नहीं देते। जेल ही जब घर लगता है, तो आजादी उनके लिए क्या मायने रख सकती है? किसको आजाद करना है, जब जेल ही उसका घर है अवगुण ही रस हैं, अवगुण ही जीवन हैं? इन अवगुणों से बचना बड़ी मुश्किल बात है। व्यक्ति अवगुणों के साथ जीवनपर्यंत रहते हैं।

महात्मा गांधी ने कहा है कि, 'आपके विचार आपके शब्द बन जाते हैं, आपके शब्द आपके कर्म बन जाते हैं, आपके कर्म आपकी आदतें बन जाती हैं, आपकी आदतें आपके मूल्य बन जाते है और आपके मूल्य आपकी तकदीर बन जाते है।' बेहतर जीवन शैली आदतों की विवेचना कर मूल्यांकन करने की सलाह देगी। तय हमें करना होगा कि हम आदतों के कभी दास न बनें और कभी भी गलत आदतों को फलने-फूलने न दें।

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👉 चेतना की स्वतंत्रता

एक संध्या एक पहाड़ी सराय में एक नया अतिथि आकर ठहरा। सूरज ढलने को था, पहाड़ उदास और अंधेरे में छिपने को तैयार हो गए थे। पक्षी अपने निबिड़ में वापस लौट आए थे। तभी उस पहाड़ी सराय में वह नया अतिथि पहुंचा। सराय में पहुंचते ही उसे एक बड़ी मार्मिक और दुख भरी आवाज सुनाई पड़ी। पता नहीं कौन चिल्ला रहा था?

पहाड़ की सारी घाटियां उस आवाज से...लग गई थीं। कोई बहुत जोर से चिल्ला रहा था--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।

वह अतिथि सोचता हुआ आया, किन प्राणों से यह आवाज उठ रही है? कौन प्यासा है स्वतंत्रता को? कौन गुलामी के बंधनों को तोड़ देना चाहता है? कौनसी आत्मा यह पुकार कर रही? प्रार्थना कर रही?

और जब वह सराय के पास पहुंचा, तो उसे पता चला, यह किसी मनुष्य की आवाज नहीं थी, सराय के द्वार पर लटका हुआ एक तोता स्वतंत्रता की आवाज लगा रहा था।
वह अतिथि भी स्वतंत्रता की खोज में जीवन भर भटका था। उसके मन को भी उस तोते की आवाज ने छू लिया।

रात जब वह सोया, तो उसने सोचा, क्यों न मैं इस तोते के पिंजड़े को खोल दूं, ताकि यह मुक्त हो जाए। ताकि इसकी प्रार्थना पूरी हो जाए। अतिथि उठा, सराय का मालिक सो चुका था, पूरी सराय सो गई थी। तोता भी निद्रा में था, उसने तोते के पिंजड़े का द्वार खोला, पिंजड़े के द्वार खोलते ही तोते की नींद खुल गई, उसने जोर से सींकचों को पकड़ लिया और फिर चिल्लाने लगा--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।

वह अतिथि हैरान हुआ। द्वार खुला है, तोता उड़ सकता था, लेकिन उसने तो सींकचे को पकड़ रखा था। उड़ने की बात दूर, वह शायद द्वार खुला देख कर घबड़ा आया, कहीं मालिक न जाग जाए। उस अतिथि ने अपने हाथ को भीतर डाल कर तोते को जबरदस्ती बाहर निकाला। तोते ने उसके हाथ पर चोटें भी कर दीं। लेकिन अतिथि ने उस तोते को बाहर निकाल कर उड़ा दिया।

निश्चिंत होकर वह मेहमान सो गया उस रात। और अत्यंत आनंद से भरा हुआ। एक आत्मा को उसने मुक्ति दी थी। एक प्राण स्वतंत्र हुआ था। किसी की प्रार्थना पूरी करने में वह सहयोगी बना। वह रात सोया और सुबह जब उसकी नींद खुली, उसे फिर आवाज सुनाई पड़ी, तोता चिल्ला रहा था--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।

वह बाहर आया, देखा, तोता वापस अपने पिंजड़े में बैठा हुआ है। द्वार खुला है और तोता चिल्ला रहा है--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। वह अतिथि बहुत हैरान हुआ। उसने सराय के मालिक को जाकर पूछा, यह तोता पागल है क्या? रात मैंने इसे मुक्त कर दिया था, यह अपने आप पिंजड़े में वापस आ गया है और फिर भी चिल्ला रहा, स्वतंत्रता?

सराय का मालिक पूछने लगा, उसने कहा, तुम भी भूल में पड़ गए। इस सराय में जितने मेहमान ठहरते हैं, सभी इसी भूल में पड़ जाते हैं। तोता जो चिल्ला रहा है, वह उसकी अपनी आकांक्षा नहीं, सिखाए हुए शब्द हैं। तोता जो चिल्ला रहा है, वह उसकी अपनी प्रार्थना नहीं, सिखाए हुए शब्द हैं, यांत्रिक शब्द हैं। तोता स्वतंत्रता नहीं चाहता, केवल मैंने सिखाया है वही चिल्ला रहा है। तोता इसीलिए वापस लौट आता है। हर रात यही होता है, कोई अतिथि दया खाकर तोते को मुक्त कर देता है। लेकिन सुबह तोता वापस लौट आता है।

मैंने यह घटना सुनी थी। और मैं हैरान होकर सोचने लगा, क्या हम सारे मनुष्यों की भी स्थिति यही नहीं है? क्या हम सब भी जीवन भर नहीं चिल्लाते हैं-- मोक्ष चाहिए,
स्वतंत्रता चाहिए, सत्य चाहिए, आत्मा चाहिए, परमात्मा चाहिए? लेकिन मैं देखता हूं कि हम चिल्लाते तो जरूर हैं, लेकिन हम उन्हें सींकचों को पकड़े हुए बैठे रहते हैं जो हमारे बंधन हैं।

हम चिल्लाते हैं, मुक्ति चाहिए, और हम उन्हीं बंधनों की पूजा करते रहते हैं जो हमारा पिंजड़ा बन गया, हमारा कारागृह बन गया। कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह मुक्ति की प्रार्थना भी सिखाई गई प्रार्थना हो, यह हमारे प्राणों की आवाज न हो? अन्यथा कितने लोग स्वतंत्र होने की बातें करते हैं, मुक्त होने की, मोक्ष पाने की, प्रभु को पाने की। लेकिन कोई पाता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। और रोज सुबह मैं देखता हूं, लोग अपने पिंजड़ों में वापस बैठे हैं, रोज अपने सींकचों में, अपने कारागृह में बंद हैं। और फिर निरंतर उनकी वही आकांक्षा बनी रहती है।

सारी मनुष्य-जाति का इतिहास यही है। आदमी शायद व्यर्थ ही मांग करता है स्वतंत्रता की। शायद सीखे हुए शब्द हैं। शास्त्रों से, परंपराओं से, हजारों वर्ष के प्रभाव से सीखे हुए शब्द हैं। हम सच में स्वतंत्रता चाहते हैं? और स्मरण रहे कि जो व्यक्ति अपनी चेतना को स्वतंत्र करने में समर्थ नहीं हो पाता, उसके जीवन में आनंद की कोई झलक कभी उपलब्ध नहीं हो सकेगी। स्वतंत्र हुए बिना आनंद का कोई मार्ग नहीं है।

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👉 आत्म निर्माण-जीवन का प्रथम सोपान (भाग 4)

मन को, मस्तिष्क को अस्त-व्यस्त उड़ने की छूट नहीं देनी चाहिए। शरीर की तरह उसे भी क्रमबद्ध और उपयोगी चिन्तन के लिए सधाया जाना चाहिए। कुसंस्कारी मन बनैले सुअर की तरह कहीं भी किधर भी दौड़ लगाता रहता है शरीर भले ही विश्राम करे पर मन तो कुछ सोचेगा ही। यह सोचना भी शारीरिक श्रम की तरह ही उत्पादक होता है। समय की बर्बादी की तरह ही अनुपयोगी और निरर्थक चिन्तन भी हमारी बहुमूल्य शक्ति को नष्ट करता है। दुष्ट चिन्तन तो आग से खेलने की तरह है। आज परिस्थितियों में जो सम्भव नहीं वैसी आकाश पाताल जैसी कल्पनाएँ करते रहने, योजनाएँ बनाते रहने से मनुष्य अव्यावहारिक बनता जाता है।

व्यभिचार, आक्रमण, षड्यन्त्र जैसी कल्पनाएँ करते रहने से मन निरन्तर कलुषित होता चला जाता है और उपयोगी योजनायें बनाने के लिए गहराई तक प्रवेश कर सकना उसके लिए सम्भव नहीं रहता। उद्धत आचरण शरीर को नष्ट करते हैं और उद्धत विचार मन मस्तिष्क का सत्यानाश करके रख देते हैं। मनोनिग्रह का योगाभ्यास में बहुत माहात्म्य गाया गया है। उस चित्त निरोध का व्यावहारिक स्वरूप यही है कि जिस दिशा को हम उपयोगी मानते हैं और जिस सन्दर्भ में सोचना आवश्यक समझते हैं उसी निर्देश पर हमारी विचारणा गतिशील रहे। वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों और योगाभ्यासियों में यही विशेषता होती है कि वे अपने मस्तिष्क को निर्धारित प्रयोजन पर ही लगाये रहते है। अस्त-व्यस्त उड़ानों में उसे तनिक भी नहीं भटकने देते।

यह आदत हमें डालनी चाहिए कि चिन्तन का क्षेत्र निर्धारित करके उस पर मन को केन्द्रित करने की आदत यदि डाली जा सके तो मस्तिष्कीय प्रखरता का, मनोबल सम्पादन का द्वार खुल जायेगा और मन्दबुद्धि जैसी मस्तिष्कीय बनावट रहते हुए भी अपने चिन्तन क्षेत्र में निष्णात बन जायेंगे। समय की दिनचर्या में बाँधकर शरीर का श्रेष्ठतम उपयोग किया जा सकता है। मन का महत्त्व शरीर से कम नहीं अधिक है। उसका भटकाव रोककर उसे उपयोगी निर्दिष्ट चिन्तन में यदि सधाया जाना सम्भव हो सके तो मस्तिष्क की विचारशक्ति से बहुमूल्य लाभ उठाया जा सकता है। समुन्नत जीवन विकास में यह शरीर और मन पर बन्धन लगाने की साधना सही रूप से तप तितीक्षा का, व्रत संयम का उच्चस्तरीय लाभ दे सकती है।

ऊपर की पंक्तियों में कुछ मोटे सुझाव संकेत भर हैं। विचार करने पर अनेकों प्रसंग ऐसे सामने आते हैं जिनमें विधि निषेध की आवश्यकता पड़ती है। क्या छोड़ना, क्या अपनाना इसका महत्त्वपूर्ण निर्णय करना पड़ता है। यह हर दिन प्रस्तुत परिस्थितियों और आवश्यकताओं को देखते हुए किया जाना चाहिए। यह मान्यता हृदयंगम की जानी चाहिए कि आत्म-निर्माण का महान लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अवांछनीयताओं का क्रमशः परित्याग करना ही पड़ेगा और उपयोगी गुण, कर्म, स्वभाव को व्यावहारिक जीवन में समाविष्ट करने का साहसपूर्ण प्रयास करना ही होगा। विधि और निषेध के दो कदम क्रमबद्ध रूप से निरन्तर उठाते चलने की व्रतशीलता ही हमें आत्मिक प्रगति के उच्च लक्ष्य तक पहुँचा सकने में समर्थ हो सकती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Jan 2019


👉 बादलों की तरह बरसते रहो

वे लोग अगले जन्म में दु:ख भोगेंगे जो किसी को कुछ नहीं देते और पैसे को जोड़कर जमा करते जाते हैं। जिसने अपने घर में दौलत के ढेर जोड़ रख हैं मगर उसका सदुपयोग नहीं करता उसे एक प्रकार का चौकीदार ही कहना चाहिए। उसका जीवन पृथ्वी के लिए भार रूप है जो वेश की परवाह किए बिना निरंतर धन के लिए ही हाय-हाय करते हैं। जो न तो खुद खा सकता है और न दूसरों को दे सकता, चाहे वह करोड़पति ही क्यों न हो, मामूली गरीब आदमी से उसमें कुछ विशेषता नहीं है। उचित-अनुचित तरीकों से पेट पर पट्टी बाँध कर जो धन जोड़ा या है, वह उसके किसी काम न आएगा, उसका उपयोग तो दूसरे ही करेंगे। वह मनुष्य बुद्धिमान् है, जिसने अपना धन शुभ कार्यों में खर्च कर दिया है। असल में वह बरसने वाले बादलों के समान है, जो आज खाली होता है, तो कल फिर भर जाएगा।

मिलनसारी, भलमनसाहत का व्यवहार और दूसरों के हितों का ख्याल रखना, ये ऐसे गुण हैं, जिनसे दुनिया अपनी हो सकती है। संसार उनको भुला नहीं सकता, जो अपने से छोटे और बड़ों के साथ शिष्टता का व्यवहार करते हैं।

कटुभाषी और निष्ठुर स्वभाव के मनुष्य का जीवन लोहे और काठ की तरह नीरस होता है चाहे वे भले ही आरी की तरह तेज हों। जिस कर्महीन मनुष्य को इतने लम्बे चौड़े विश्व में हँसने और मुस्कराने योग्य कुछ दिखाई नहीं देता और सारे दिन कुड़ कुढ़ता रहता है, उसे उस रोगी की तरह समझना चाहिए जिस दिन में भी नहीं दीखता। बद-मिज़ाज व्यक्ति के पास चाहे कितनी ही विद्या और सम्पत्ति क्यों न हों, वह उस दूध के समान निकम्मा है जो गन्दे पात्र में रखा होने से दूषित हो गया है।

📖 अखण्ड ज्योति -फरवरी 1943

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👉 Generous Like the Clouds

Stingy fellows, who keep their resources only to themselves and remain apathetic to others’ sufferings, are in fact accounting sins for their future destiny. Those who have stocked heaps of wealth in their possession but never use it are mere ‘guards’ of money. Such fellows are burden on this earth that can do nothing for anyone. Even materialistically, they don’t enjoy anything; the thirst of gaining more, the worries and tensions of safeguarding the possession and the miserly attitude do not let them live in peace; they neither eat well nor can give anything to others. Despite having millions or billions of riches, they remain poor, beggars… Thirst for more and more of selfish possession does not even let one see what are the right or wrong means of piling the stocks of wealth. Prosperity earned by unfair means cannot let one prosper… One dies empty handed and later one all that ‘dead property’ possessed by him does no good to even to those who grabs it afterwards…

On the contrary, those who earn honestly and spend magnanimously and wisely in good, constructive and auspicious activities are always prospering. They are like clouds, which enshower generously; even if emptied today, the clouds are filled again and return back tomorrow with same dignity.

Integrity, benevolence, caring and helping sociability – are virtues of greatness, which can make the entire world your own. No one can forget the warmth of meeting such amicable personalities. But, the selfish fellows, howsoever talented and affluent they might be, remain aloof and virtually isolated; their state is like that of milk kept in a dirty pot, which is thrown without use…

📖 Akhand Jyoti, Feb. 1943

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👉 आत्मचिंतन के क्षण 30 Jan 2019

◾ किसी विचारधारा का परिणाम तभी प्राप्त हो सकता है, जब वह कार्यरूप में परिणत हो। मानसिक व्यसन के रूप में कुछ पढ़ते-सुनते और सोचते रहें, कार्यरूप में उसे परिणत न करें तो उस विचार विलास मात्र से कितना उद्देश्य पूर्ण हो सकेगा। आध्यात्मिक विचारधारा का लम्बा स्वाध्याय मन पर एक हलकी सी सतोगुणी छाप तो छोड़ता है, पर जब तक क्रिया में वे विचार न उतरें तब तक यह स्वाध्याय भी एक विनोद व्यसन ही बना रहता है।

◾ अनावश्यक दुर्भावनाओं को मन में स्थान देना, दूसरों के लिए अशुभ सोचते रहना, औरों के लिए उतना हानिकारक नहीं होता, जितना अपने लिए। उचित यही है कि हम सद्भाव संपन्न रहें। जिनमें वस्तुतः दोष-दुर्गुण हों उन्हें चारित्रिक रुग्णता से ग्रसित समझकर सुधार का भरसक प्रयत्न करें, पर उस द्वेष-दुर्बुद्धि  से बचे रहें, जो अंततः अपने ही व्यक्तित्व को आक्रामक असुरता से भर देती है और दूसरों को ही नहीं अपना भी सर्वनाश प्रस्तुत करती है।

◾ ऊँचा उठना ही मनुष्य जीवन की सफलता का चिह्न है। मन को निग्रहीत, बुद्धि को परिष्कृत, चित्त को उदात्त और अहंकार को निर्मल बनाकर इसी शरीर में दिव्य शक्तियों का अवतरण किया जा सकता है और उन विभूतियों से लाभान्वित हुआ जा सकता है, जो देवताओं में सन्निहित मानी जाती हैं।

◾ यदि तुम भलाई का अनुकरण करके कष्ट सहन करो तो कुछ समय पश्चात् कष्ट तो चला जाता है,  पर भलाई बनी रहती है। पर यदि तुम बुराई का अनुकरण करके सुखोपभोग करो तो समय आने पर सुख तो चला जायेगा और बुराई बनी रहेगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

मंगलवार, 29 जनवरी 2019

👉 आत्म निर्माण-जीवन का प्रथम सोपान (भाग 3)

दूसरों का आदर करना, सद्व्यवहार का अभ्यस्त होना, सज्जनोचित शिष्टाचार बरतना, मधुर वचन बोलना यह व्यक्तित्व की गरिमा बढ़ाने वाली साधना है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसे दूसरों के साथ मिल-जुल कर रहना पड़ता है। स्नेह सौहार्द का वातावरण तभी बना रह सकता है जब दूसरों के साथ शालीनता का व्यवहार किया जाय। अहंकारी व्यक्ति दूसरों को तुच्छ समझते है और कटु वचन एवं दुर्व्यवहार पर उतारू रहते हैं। उद्धत आतंकवादी उच्छृंखल आचरण करके कोई अपने अहंकार की पूर्ति होने की बात सोच सकता है, पर वस्तुतः वह हर किसी की दृष्टि में अपना सम्मान खोता है। स्तर गिराता है और घृणास्पद बनता है। उद्धत आचरण से सम्भव है सामने वाला चुप ही रहे, परन्तु उसका स्नेह सहयोग तो चला ही जाता है। इस प्रकार क्रोधी, अशिष्ट, उच्छृंखल व्यक्ति अपना नाम बढ़ाने की बात सोचता है, पर वस्तुतः उसे निरन्तर खोता चला जाता है। कुसमय में अपने को एकाकी अनुभव करता है। स्नेह सहयोग से वंचित होकर वह भूत बेताल की अशान्त अतृप्त मनःस्थिति में जा फँसता है।

ईर्ष्या, द्वेष, झूठ, छल, प्रपंच, दुरभिसन्धि, षड्यन्त्र, शोषण, अपहरण, आक्रमणों की आसुरी मनोवृत्ति अपना कर मनुष्य अपराधी आचरण ही करता हैं उसकी गतिविधियाँ ऐसी हो जाती हैं, जिससे मनुष्य सबकी आँखों में गिरता है यहाँ तक कि अपनी आँखों में भी। धन या पद पाने की अपेक्षा लोकश्रद्धा प्राप्त करना अधिक मूल्यवान है। दुष्ट-दुराचारी बनकर कोई यदि साधन सम्पन्न बन जाय तो यही कहा जाना चाहिए कि उसने खोया बहुत पाया कम। व्यसनी, व्यभिचारी, आलसी और प्रमादी, आतंकवादी, अत्याचारी, उस सुखद उपलब्धि से वंचित ही रहते है जिसे पाने के लिए यह कुमार्ग अपनाया। दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का आश्रय लेकर मनुष्य दूसरों की जितनी हानि करता है उसकी तुलना में अपनी असंख्य गुनी हानि कर लेता है।

समय को नियमितता के बन्धनों में बाँधा जाना चाहिए। चौबीसों घण्टे की निर्धारित दिनचर्या बनानी चाहिए और उस पर तत्परतापूर्वक चलते जाना चाहिए। समय ही सबसे बड़ी सम्पदा है, उसका एक क्षण भी बर्बाद नहीं होना चाहिये। शरीर की क्षमता के अनुरूप श्रम किया जाय, काम का स्तर और सिलसिला बदलते ही रहा जाय ताकि थकान नहीं चढ़ेगी। हर काम में दिलचस्पी पैदा की जाय, उसे खेल समझते हुए पूरे मनोयोग के साथ करना चाहिए। यह आदत पड़ जाय तो दुर्बल शरीर वाला व्यक्ति भी बिना थके बहुत काम करता रह सकता है। आहार-विहार विवेकपूर्ण और क्रमबद्ध होने चाहिए। समयानुसार काम बदलने से विश्राम और विनोद का उद्देश्य पूरा हो सकता है। सामने प्रस्तुत कामों को दिलचस्पी और मनोयोग के साथ करने का अभ्यास करना मनोनिग्रह का सर्वोत्तम योगाभ्यास है। उस साधना में निष्णात व्यक्ति हाथों हाथ क्रिया कुशलता के अभिवर्धन और सफलताओं के वरण का उत्साहवर्द्धक लाभ प्राप्त करता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

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सोमवार, 28 जनवरी 2019

👉 झुठा

"मम्मी , मम्मी ! मैं उस बुढिया के साथ स्कुल नही जाउँगा ना ही उसके साथ वापस आउँगा "मेरे दस वर्ष के बेटे ने गुस्से से अपना स्कुल बैग फेकतै हुए कहा तो मैं बुरी तरह से चौंक गई !

यह क्या कह रहा है? अपनी दादी को बुढिया क्यों कह रहा है? कहाँ से सीख रहा है इतनी बदतमीजी?

मैं सोच ही रही थी कि बगल के कमरे से उसके चाचा बाहर निकले और पुछा-"क्या हुआ बेटा?"

उसने फिर कहा -"चाहे कुछ भी हो जाए मैं उस बुढिया के साथ स्कुल नहीं जाउँगा हमेशा डाँटती रहती है और मेरे दोस्त भी मुझे चिढाते हैं !"

घर के सारे लोग उसकी बात पर चकित थे
घर मे बहुत सारे लोग थे मैं और मेरे पति, दो देवर और देवरानी , एक ननद , ससुर और नौकर भी !

फिर भी मेरे बेटे को स्कुल छोडने और लाने की जिम्मेदारी उसकी दादी की ही थी पैरों मे दर्द रहता था पर पोते के प्रेम मे कभी शिकायता नही करती थी बहुत प्यार करती थी उसको क्योंकि घर का पहला पोता था।

पर अचानक बेटे के मुँह से उनके लिए ऐसे शब्द सुन कर सबको बहुत आश्चर्य हो रहा था शाम को खाने पर उसे बहुत समझाया गया पर वह अपनी जिद पर अडा रहा
पति ने तो गुस्से मे उसे थप्पड़ भी मार दिया तब सबने तय किया कि कल से उसे स्कुल छोडने और लेने माँजी नही जाएँगी !!!

अगले दिन से कोई और उसे लाने ले जाने लगा पर मेरा मन विचलित रहने लगा कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया?
मै उससे कुछ नाराज भी थी !

शाम का समय था मैने दुध गर्म किया और बेटे को देने के लिए उसने ढुँढने लगी मैं छत पर पहुँची तो बेटे के मुँह से मेरे बारे मे बात करते सुन कर मेरे पैर ठिठक गये...
मैं छुपकर उसकी बात सुनने लगी वह अपनी दादी के गोद मे सर रख कर कह रहा था-

"मैं जानता हूँ दादी कि मम्मी मुझसे नाराज है पर मैं क्या करता?
इतनी ज्यादा गरमी मे भी वो आपको मुझे लेने भेज देते थे ! आपके पैरों मे दर्द भी तो रहता है मैने मम्मी से कहा तो उन्होंने कहा कि दादी अपनी मरजी से जाती हैं !
दादी मैंने झुठ बोला......बहुत गलत किया पर आपको परेशानी से बचाने के लिये मुझे यही सुझा...

आप मम्मी को बोल दो मुझे माफ कर दे "

वह कहता जा रहा था और मेरे पैर तथा मन सुन्न पड़ गये थे मुझे अपने बेटे के झुठ बोलने के पीछे के बड़प्पन को महसुस कर गर्व हो रहा था....
मैने दौड कर उसे गले लगा लिया और बोली-"नहीं , बेटे तुमने कुछ गलत नही किया

हम सभी पढे लिखे नासमझो को समझाने का यही तरीका था..शाबाश... बेटा !!!

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👉 आत्म निर्माण-जीवन का प्रथम सोपान (भाग 2)

स्वच्छता और व्यवस्था ऐसा गुण है जिसमें किसी की कुरुचि का सहज ही परिचय प्राप्त किया जा सकता है। गन्दगी से घृणा और स्वच्छता से प्रेम रखा जाय तो वह उत्साह सहज ही बना रहेगा जिसके आधार पर शरीर, वस्त्र, फर्नीचर, पुस्तकें, स्टेशनरी, बर्तन, फर्श, चित्र, साइकिल आदि सम्बन्धित सामान को स्वच्छ एवं सुव्यवस्थित रखा जा सके। सफाई की यह आदत हिसाब-किताब पर, लेन-देन पर भी लागू होती है। घर, दफ्तर को, बच्चों को, वस्तुओं को साफ-सुथरा रखकर न केवल आगन्तुकों को अपनी सुरुचि का परिचय देते हैं वरन् अपने स्वभाव में अनोखी विशेषता उत्पन्न करते है।

जिसे ईमानदारी का जीवन जीना हो उसे पूर्व तैयारी मितव्ययी रहने की, सादा जीवन जीने की करनी चाहिए। जो कम में गुजारा करना जानता है उसी के लिए यह सम्भव है कि कम आमदनी से सन्तोष पूर्वक निर्वाह कर ले। ईमानदारी से आय सीमित रहती है, उतनी नहीं हो सकती जितनी बेईमानी अपनाने से। ऐसी दशा में यदि श्रेष्ठ जीवन जीना हो तो अपने खर्च जहाँ तक सम्भव हो वहाँ तक घटाने चाहिए। जिसने खर्च बढ़ा रखे हैं उन्हें उनकी पूर्ति के लिए बेईमानी का रास्ता ही अपनाना पड़ेगा। फिजूलखर्ची यों निर्दोष भी मालूम पड़ सकती है। अपना कमाना अपना उड़ाना इसमें किसी को क्या ऐतराज होना चाहिए। परन्तु बात इतनी सरल नहीं है। प्रकारान्तर से फिजूलखर्ची बेईमानी अपनाने के लिए बाध्य करती है।

अनियन्त्रित खर्च करने की आदत बढ़ती ही जाती है और वह देखते-देखते उस सीमा को छूती है जहाँ न्यायोचित आमदनी कम पड़े और घटोत्तरी की पूर्ति के लिए बेईमानी पर उतारू होना पड़े। जिसने आमदनी और खर्च का तालमेल बिठाना सीखा है वही कुछ सत्कर्मों के लिए भी बचा सकता है। अन्यथा सदुद्देश्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य भी आर्थिक तंगी के कारण रुके पड़े रहेंगे। सादगी की जीवनचर्या सस्ती पड़ती है, कम समय लेती है। अस्तु मितव्ययी व्यक्ति के लिए ही यह सम्भव होगा कि वह आदर्शवादी जीवन जी सके और परमार्थ की दिशा में कुछ कहने लायक योगदान दे सके।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)


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👉 आज का सद्चिंतन 28 Jan 2019

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 28 Jan 2019

शुक्रवार, 25 जनवरी 2019

👉 आत्म निर्माण-जीवन का प्रथम सोपान (भाग 1)

निर्माण आन्दोलन का प्रथम चरण आत्म-निर्माण है। उस दिशा में कदम बढ़ाने के लिए किसी भी स्थिति के व्यक्ति को कुछ भी कठिनाई अनुभव नहीं होनी चाहिए। पर्दे में जकड़ी स्त्रियाँ, जेल में बन्द कैदी, चारपाई पर पड़े रोगी और अपंग असमर्थ व्यक्ति भी आज जिस स्थिति में हैं उससे ऊँचे उठने, आगे बढ़ने में उन्हें कुछ भी कठिनाई अनुभव नहीं होनी चाहिए। मनोविकारों को ढूँढ़ निकालने और उनके विरुद्ध मोर्चा खड़ा कर देने में सांसारिक कोई विध्न बाधा अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकती। दैनिक जीवन में निरन्तर काम आने वाली आदतों को परिष्कृत बनाने का प्रयास भी ऐसा है, जिनके न बन पड़ने का कोई कारण नहीं। आलस्य में समय न गँवाना, हर काम नियत समय पर नियमित रूप से उत्साह और मनोयोग पूर्वक करने की आदत डाली जाय तो प्रतीत होगा अपना क्रिया कलाप कितना उत्तम, कितना व्यवस्थित, कितना अधिक सम्पन्न हो रहा है।

प्रातःकाल अपनी दिनचर्या का निर्धारण कर लेना और पूरी मुस्तैदी से उसे पूरा करना, आलस्य प्रमाद को आड़े हाथों लेना, व्यक्तित्व निर्माण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। जल्दी सोने जल्दी उठने की एक छोटी सी ही आदत को लें तो प्रतीत होगा कि प्रातःकाल का कितना बहुमूल्य समय मुफ्त ही हाथ लग जाता है और उसका जिस भी कार्य में उपयोग किया जाय उसमें सफलता का कैसा स्वर्ण अवसर मिलता है। क्या व्यायाम, क्या अध्ययन, क्या भजन, कुछ भी कार्य प्रातःकाल किया जाय चौगुना प्रतिफल उत्पन्न करेगा। जो लोग देर में सोते और देर में उठते हैं वे यह नहीं जानते कि प्रातःकाल का ब्रह्म मुहूर्त इतना बहुमूल्य है जिसे हीरे मोतियों से भी नहीं तोला जा सकता, नियमित दिनचर्या का निर्धारण और उस पर हर दिन पूरी मुस्तैदी के साथ आचरण, देखने में यह बहुत छोटी बात मालूम पड़ती है पर यदि उसका परिणाम देखा जाय तो प्रतीत होगा कि हमने एक चौथाई जिन्दगी को बर्बादी से बचाकर कहने लायक उपलब्धियों में नियोजित कर लिया।

अस्त-व्यस्त और अनियमित व्यक्ति यों साधारण ढील पोल के दोषी ठहराए जाते हैं, पर बारीकी से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि वे लगभग आधी जिन्दगी जितना बहुमूल्य समय नष्ट कर देते है जिसका यदि क्रमबद्ध उपयोग हो सका होता तो प्रगति की कितनी ही कहने लायक उपलब्धियाँ सामने आती। यदि एक घण्टा रोज कोई व्यक्ति उपयोगी अध्ययन में लगाता रहे तो कुछ ही समय में वह ऐसा ज्ञानवान बन सकता है जिसकी विद्या बुद्धि पर स्पर्धा की जा सके।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

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👉 श्रद्धा के फूल

एक बार किसी गांव में महात्मा बुध्द का आगमन हुआ। सब इस होड़ में लग गये कि क्या भेंट करें। इधर गाँव में एक गरीब मोची था। उसने देखा कि मेरे घर के बाहर के तालाब में बेमौसम का एक कमल खिला है।

उसकी इच्छा हुई कि, आज नगर में महात्मा आए हैं, सब लोग तो उधर ही गए हैं, आज हमारा काम चलेगा नहीं, आज यह फूल बेचकर ही गुजारा कर लें। वह तालाब के अंदर कीचड़ में घुस गया। कमल के फूल को लेकर आया। केले के पत्ते का दोना बनाया..और उसके अंदर कमल का फूल रख दिया।

पानी की कुछ बूंदें कमल पर पड़ी हुई हैं ..और वह बहुत सुंदर दिखाई दे रहा है।

इतनी देर में एक सेठ पास आया और आते ही कहा-''क्यों फूल बेचने की इच्छा है ?'' आज हम आपको इसके दो चांदी के रूपए दे सकते हैं।

अब उसने सोचा ...कि एक-दो आने का फूल! इस के दो रुपए दिए जा रहे हैं। वह आश्चर्य में पड़ गया।

इतनी देर में नगर-सेठ आया । उसने कहा ''भई, फूल बहुत अच्छा है, यह फूल हमें दे दो'' हम इसके दस चांदी के सिक्के दे सकते हैं।

मोची ने सोचा, इतना कीमती है यह फूल। नगर सेठ ने मोची को सोच मे पड़े देख कर कहा कि अगर पैसे कम हों, तो ज्यादा दिए जा सकते हैं।

मोची ने सोचा-क्या बहुत कीमती है ये फूल?

नगर सेठ ने कहा-मेरी इच्छा है कि मैं महात्मा के चरणों में यह फूल रखूं। इसलिए इसकी कीमत लगाने लगा हूं।

इतनी देर में उस राज्य का मंत्री अपने वाहन पर बैठा हुआ पास आ गया और कहता है- क्या बात है? कैसी भीड़ लगी हुई है?
अब लोग कुछ बताते इससे पहले ही उसका ध्यान उस फूल की तरफ गया। उसने पूछा- यह फूल बेचोगे?

हम इस के सौ सिक्के दे सकते हैं। क्योंकि महात्मा आए हुए हैं। ये सिक्के तो कोई कीमत नहीं रखते।

जब हम यह फूल लेकर जाएंगे तो सारे गांव में चर्चा तो होगी कि महात्मा ने केवल मंत्री का भेंट किया हुआ ही फूल स्वीकार किया। हमारी बहुत ज्यादा चर्चा होगी।

इसलिए हमारी इच्छा है कि यह फूल हम भेंट करें और कहते हैं कि थोड़ी देर के बाद राजा ने भीड़ को देखा, देखने के बाद वजीर ने पूछा कि बात क्या है? वजीर ने बताया कि फूल का सौदा चल रहा है।

राजा ने देखते ही कहा-इसको हमारी तरफ से एक हजार चांदी के सिक्के भेंट करना। यह फूल हम लेना चाहते हैं।

गरीब मोची ने कहा-लोगे तो तभी जब हम बेचेंगे। हम बेचना ही नहीं चाहते। अब राजा कहता है कि...बेचोगे क्यों नहीं?

उसने कहा कि जब महात्मा के चरणों में सब कुछ-न-कुछ भेंट करने के लिए पहुंच रहे हैं..तो ये फूल इस गरीब की तरफ से आज उनके चरणों में भेंट होगा।
राजा बोला-देख लो, एक हजार चांदी के सिक्कों से तुम्हारी पीढ़ियां तर सकती हैं।

गरीब मोची कहा-मैंने तो आज तक राजाओं की सम्पत्ति से किसी को तरते नहीं देखा लेकिन महान पुरुषों के आशीर्वाद से तो लोगों को जरूर तरते देखा है।

राजा मुस्कुराया और कह उठा-तेरी बात में दम है। तेरी मर्जी, तू ही भेंट कर ले।

अब राजा तो उस उद्यान में चला गया जहां महात्मा ठहरे हुए थे...और बहुत जल्दी चर्चा महात्मा के कानों तक भी पहुंच गई, कि आज कोई आदमी फूल लेकर आ रहा है..

जिसकी कीमत बहुत लगी है। वह गरीब आदमी है इसलिए फूल बेचने निकला था कि उसका गुजारा होता। जैसे ही वह गरीब मोची फूल लेकर पहुंचा, तो शिष्यों ने महात्मा से कहा कि वह व्यक्ति आ गया है।

लोग एकदम सामने से हट गए। महात्मा ने उसकी तरफ देखा। मोची फूल लेकर जैसे पहुंचा तो उसकी आंखों में से आंसू बरसने लगे। कुछ बूंदे तो पानी की कमल पर पहले से ही थी...कुछ उसके आंसुओं के रूप में ठिठक गई पर कमल पर।

रोते हुए इसने कहा-सब ने बहुत-बहुत कीमती चीजेें आपके चरणों में भेंट की होंगी, लेकिन इस गरीब के पास यह कमल का फूल और जन्म-जन्मान्तरों के पाप जो पाप मैंने किए हैं उनके आंसू आंखों में भरे पड़े हैं। उनको आज आपके चरणों में चढ़ाने आया हूं। मेरा ये फूल और मेरे आंसू भी स्वीकार करो।

महात्मा के चरणों में फूल रख दिया। गरीब मोची घुटनों के बल बैठ गया।

महात्मा बुध्द ने अपने शिष्य आनन्द को बुलाया और कहा, देख रहे हो आनन्द! हजारों साल में  भी कोई राजा इतना नहीं कमा पाया जितना इस गरीब इन्सान ने आज एक पल में ही कमा लिया।

इसका समर्पण श्रेष्ठ हो गया। इसने अपने मन का भाव दे दिया।

एकमात्र ये मन का भाव ही है जिससे हम गुरु की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।
त्रिलोकी का सामान भी कोई अहमियत नहीं रखता।


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👉 आत्मचिंतन के क्षण 25 Jan 2019

◾ मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्नत बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा- मैं कहता हूँ, अवश्य बनना होगा। आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना -- इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता।

◾ नीतिपरायण तथा साहसी बनो, अन्त: करण पूर्णतया शुध्द रहना चाहिए। पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो -- प्रणों के लिए भी कभी न डरो। कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरूष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते -- यहाँ तक कि कभी वे मन में भी पाप का विचार नहीं लाते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। बच्चो, तुम्हारे लिए नीतिपरायणता तथा साहस को छोडकर और कोई दूसरा धर्म नहीं। इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतान्तर तुम्हारे लिए नहीं है। कायरता, पाप्, असदाचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिए, बाक़ी आवश्यकीय वस्तुएँ अपने आप आकर उपस्थित होंगी।

◾ पूर्णतः निःस्वार्थ रहो, स्थिर रहो, और काम करो। एक बात और है। सबके सेवक बनो और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो, क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज़ बर्बाद हो जायेगी। आगे बढो तुमने बहुत अच्छा काम किया है। हम अपने भीतर से ही सहायता लेंगे अन्य सहायता के लिए हम प्रतीक्षा नहीं करते। मेरे बच्चे, आत्मविशवास रखो, सच्चे और सहनशील बनो।

◾ किसी को उसकी योजनाओं में हतोत्साह नहीं करना चाहिए। आलोचना की प्रवृत्ति का पूर्णतः परित्याग कर दो। जब तक वे सही मार्ग पर अग्रेसर हो रहे हैं; तब तक उन्के कार्य में सहायता करो; और जब कभी तुमको उनके कार्य में कोई ग़लती नज़र आये, तो नम्रतापूर्वक ग़लती के प्रति उनको सजग कर दो। एक दूसरे की आलोचना ही सब दोषों की जड है। किसी भी संगठन को विनष्ट करने में इसका बहुत बडा हाथ है।

✍🏻 स्वामी विवेकानन्द

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👉 आज का सद्चिंतन 25 Jan 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 25 Jan 2019


गुरुवार, 24 जनवरी 2019

👉 संयम की साधना

बाल ब्रह्मचारी दयानंद ने दो सांडों को आपस में लड़ते देखा। वे हटाये हट नहीं रहे थे। स्वामी जी ने दोनोँ के सींग दो हाथों से पकड़े और मरोड़कर दो दिशाओं में फेंक दिया। डर कर वे दोनों भाग खड़े हुए। ऐसी ही एक घटना और है।

स्वामी दयानंद शाहपुरा में निवास कर रहे थे। जहाँ वे ठहरे थे, उस मकान के निकट ही एक नयी कोठी बन रही थी। एक दिन अकस्मात् निर्माणाधीन भवन की छत टूट पड़ी। कई पुरुष उस खंडहर में बुरी तरह फँस गए। निकलने कोई रास्ता नजर आता नहीं था। केवल चिल्लाकर अपने जीवित होने की सूचना भर बाहर वालों को दे रहे थे। मलबे की स्थिति ऐसी बेतरतीब और खतरनाक थी कि दर्शकों में से किसी की हिम्मत निकट जाने की हो जाय तो बचाने वालों का साथ ही भीतर घिरे लोग भी भारी-भरकम दीवारों में पिस जा सकते हैं। तभी स्वामी जी भीड़ देखकर कुतूहलवश उस स्थान पर आ पहुँचे, वस्तुस्थिति की जानकारी होते ही वे आगे बढ़े और अपने एकाकी भुजा बल से उस विशाल शिला को हटा दिया, जिसके नीचे लोग दब गये थे।

आसपास एकत्रित लोग शारीरिक शक्ति का परिचय पाकर उनकी जयकार करने लगे। उनने सबको शाँत करके समझाया कि यह शक्ति किसी अलौकिकता या चमत्कारिता के प्रदर्शन के लिए आप लोगों को नहीं दिखायी है। संयम की साधना करने वाला हर मनुष्य अपने में इससे भी विलक्षण शक्तियों का विकास कर सकता है।

📖 अखण्ड ज्योति मई 1994

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👉 अपने दोषों को भी देखा कीजिए! (अन्तिम भाग)

इसी प्रकार चिड़चिड़ेपन का प्रतिद्वन्द्वी मनोभाव धैर्य और सहिष्णुता को अपना लेने से भी मानसिक प्रहारों की रक्षा की जा सकती है। प्रत्येक अशुभ संस्कार से बचने का यही सीधा-सच्चा व सरल उपाय है।

दूसरों को उजड्ड दुर्बुद्धि या विद्वेषी बताने की अपेक्षा यह अच्छा है कि आप स्वयं अपने आपको ही मिलनसार बनायें। औरों में दोष देखने का श्रम न करें। साथ ही अपनी उदारता, दूर-दर्शिता, सहनशीलता जैसे सामाजिक सद्गुणों का विकास करते रहें। इस बुद्धिमत्तापूर्ण मार्ग पर चलने से ही यह सम्भव है कि दूसरे लोग आपका सम्मान करें, आपकी बात मानें, सहयोग और सहानुभूति का व्यवहार करें। प्रायः कोई व्यक्ति स्वेच्छा से बुरा नहीं बनता अतः मनुष्य को यह सोचने की भूल कदापि नहीं करनी चाहिए कि हमारे विचारों के अनुसार जो लोग गलती करते हैं वे हमें परेशान करने के उद्देश्य से ऐसा करते हैं।

इस प्रकार की कल्पनाओं से सावधान रहें ताकि किसी के साथ अन्याय न हो आप इसका कारण अपने स्वभाव की छोटी-छोटी त्रुटियाँ भी हो सकती हैं जिन्हें आप नगण्य मानते हैं। इसलिए दूसरों से सामंजस्य सौहार्द, सौजन्यता और आत्मीयता बनाये रखने के लिये यही उचित है कि जब कभी कोई अशुभ परिस्थिति उठती दिखाई दे तब अपने दोषों को भी देख लिया करें। ऐसा दृष्टिकोण अपनाने से आये दिन दूसरों के साथ होते रहने वाले झंझटों में से अधिकांश तो स्वयं ही निर्मूल हो सकते हैं।

.....समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1964 पृष्ठ 42
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/July/v1.42


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👉 आज का सद्चिंतन 24 Jan 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 24 Jan 2019


👉 लक्ष्य प्राप्ति के तीन आधार

नीति के मार्ग पर चलने वालों को अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ, मनोयोग एवं धैर्य तीनों की आवश्यकता पड़ती है। असफलताएँ नीति के अवलंबन के कारण नहीं प्रस्तुत होती हैं, बल्कि उनके मूल में इन तीनों का अभाव ही प्रधान कारण होता है। जिन्हें भौतिक संपन्नता ही अभीष्ट हो वे भी नीति पर चलते हुए श्रमशीलता, मनोयोग एवं धैर्य का आश्रय लेकर अपने उद्देश्य में सफल हो सकते हैं। भौतिक संपन्नता में ईमानदारी बाधक सिद्ध होती है, यह मान्यता उन लोगों की है जो पुरुषार्थ से जी चुराते हैं । ऐन-केन-प्रकारेण कम समय एवं कम श्रम में अधिक लाभ उठाने की प्रवृत्ति से ही अनीति को प्रोत्साहन मिलता है तथा लंबे समय तक सफलता के लिए इंतजार करते नहीं बनता।

फलतः थोड़ा तात्कालिक लाभ भले ही उठा लें - महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों से सदा वंचित ही बने रहते हैं। देखा जाए तो भौतिक संपन्नता के क्षेत्र में शिखर पर वही पहुँचते हैं जो नीति के, ईमानदारी के समर्थक रहे हैं, पुरुषार्थी रहे हैं। विश्व के मूर्धन्य भौतिक संपन्न व्यक्तियों के जीवन क्रम पर दृष्टिपात करने पर यह तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है । ईमानदारी, पुरुषार्थ, मनोयोग एवं असीम धैर्य के सहारे ही वे सामान्य स्तर से असामान्य स्थिति तक जा पहुँचे।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
बड़े आदमी नहीं महामानव बनें, पृष्ठ 10


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👉 Three Supports for Achieving Goal

People intending to achieve the desired goal by walking on the path of honesty and high morals essentially need three qualities: efforts or hard work, right type of mental attitude and patience. Lack of these three virtues is the real cause of failure and not the dependence on morals. Even those, who have set their target on material wealth, can achieve the desired goal by walking on the path of honesty with three virtues of diligence,attitude and patience. The belief that honesty becomes an obstacle in achieving worldly success is wrong and usually propagated by the people who do not wish to put any efforts. The tendency to obtain maximum benefit with spending minimum time and efforts encourages dishonesty and corruption. Such people are not ready to wait long for success, so they apply short-cuts.

As a result, they may pick up some quick gains, but are always deprived of really meaningful and important achievements. It is generally observed that even the people reaching peak of the material wealth are those who follow the principles of honesty and hard-work. If we look at the lifestyles of benevolent and noble rich of the world,this fact becomes even more evident. From a very base level, they reached the highest peak of success through honesty, diligence, proper attitude and of course,unlimited patience.

Pt. Shriram Sharma Aacharya
Badein Aadmi Nahi, Mahamanav Baniyein (Not a Big-Shot, Be Super-Human), Page 10"

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👉 आत्मचिंतन के क्षण 24 Jan 2019

◾ संघर्ष का ही दूसरा नाम जीवन है। जहाँ सक्रियता समाप्त हुई वहाँ जीवन का अंत समीप समझिए। आलसी, अकर्मण्यों को जीवित अवस्था में भी मृत की संज्ञा दी जाती है। जिसने पुरुषार्थ के प्रति अनास्था व्यक्त की वह जीवन के प्रति आस्था ही खो बैठा। मनुष्य की सच्ची वीरता युद्ध के मैदान में दुश्मनों को पराजित करने में नहीं, बल्कि मनोशक्ति के द्वारा अपनी वासनाओं और तृष्णाओं का हनन करने में निहित है।

◾ एकान्तवासी होने से उदासी पनपती और बढ़ती है। इसलिए लोगों के साथ घुलने-मिलने की, हँसने-खेलने की, अपनी कहने और दूसरों की सुनने की आदत डालनी चाहिए। मिलनसार बनने और व्यस्त रहने के प्रयत्न करने चाहिए। अनावश्यक संकोचशीलता को सज्जनता या बड़प्पन का चिह्न मान बैठना गलत है। गंभीर होना अलग बात है और गीदड़ों की तरह डरकर कोने में छिपे बैठे रहना और संकोच के कारण मुँह खोलने का साहस न जुटा पाना दूसरी।

◾ आज किसी भी बात के लिए जमाने को जिम्मेदार ठहरा देने का एक रिवाज सा चल पड़ा है। जमाने को दोष दिया और छुट्टी पाई, किन्तु यह सोचने-समझने का जरा भी कष्ट नहीं किया जाता कि आखिर किसी जमाने का स्वरूप बनता तो उस समय के आदमियों से ही है। वास्तव में जमाना किसी को बुरा नहीं बनाता, बल्कि मनुष्य ही जमाने को बुरा बनाते हैं।

◾ यह धु्रव सत्य है कि चाहे कितना ही छिपाकर, अँधेरे में, दीवारों के घेरे के भीतर या चिकनी-चुपड़ी लपेटकर झूठ बोला जाय, झूठा व्यवहार किया जाय, किन्तु वह एक न एक दिन अवश्य प्रकट होकर रहता ही है और एक न एक दिन उसके दुष्प्रिणाम मनुष्य को स्वयं ही भोगने पड़ते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

मंगलवार, 22 जनवरी 2019

👉 पिता की सिख....

पिता और पुत्र साथ-साथ टहलने निकले,वे दूर खेतों की तरफ निकल आये, तभी पुत्र ने देखा कि रास्ते में, पुराने हो चुके एक जोड़ी जूते उतरे पड़े हैं, जो ...संभवतः पास के खेत में काम कर रहे गरीब मजदूर के थे.

पुत्र को मजाक सूझा. उसने पिता से कहा क्यों न आज की शाम को थोड़ी शरारत से यादगार बनायें, आखिर ... मस्ती ही तो आनन्द का सही स्रोत है. पिता ने असमंजस से बेटे की ओर देखा.

पुत्र बोला हम ये जूते कहीं छुपा कर झाड़ियों के पीछे छुप जाएं. जब वो मजदूर इन्हें यहाँ नहीं पाकर घबराएगा तो बड़ा मजा आएगा. उसकी तलब देखने लायक होगी, और इसका आनन्द मैं जीवन भर याद रखूंगा.

पिता, पुत्र की बात को सुन  गम्भीर हुये और बोले बेटा ! किसी गरीब और कमजोर के साथ उसकी जरूरत की वस्तु के साथ इस तरह का भद्दा मजाक कभी न करना. जिन चीजों की तुम्हारी नजरों में कोई कीमत नहीं,

वो उस गरीब के लिये बेशकीमती हैं. तुम्हें ये शाम यादगार ही बनानी है, तो आओ .. आज हम इन जूतों में कुछ सिक्के डाल दें और छुप कर देखें कि ... इसका मजदूर पर क्या प्रभाव पड़ता है.पिता ने ऐसा ही किया और दोनों पास की ऊँची झाड़ियों में छुप गए.

मजदूर जल्द ही अपना काम ख़त्म कर जूतों की जगह पर आ गया. उसने जैसे ही एक पैर जूते में डाले उसे किसी कठोर चीज का आभास हुआ, उसने जल्दी से जूते हाथ में लिए और देखा कि ...अन्दर कुछ सिक्के पड़े थे.

उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वो सिक्के हाथ में लेकर बड़े गौर से उन्हें देखने लगा. फिर वह इधर-उधर देखने लगा कि उसका मददगार शख्स कौन है? दूर-दूर तक कोई नज़र नहीं आया, तो उसने सिक्के अपनी जेब में डाल लिए. अब उसने दूसरा जूता उठाया,  उसमें भी सिक्के पड़े थे.

मजदूर भाव विभोर हो गया.

वो घुटनो के बल जमीन पर बैठ ...आसमान की तरफ देख फूट-फूट कर रोने लगा. वह हाथ जोड़ बोला
हे भगवान् ! आज आप ही किसी रूप में यहाँ आये थे, समय पर प्राप्त इस सहायता के लिए आपका और आपके  माध्यम से जिसने भी ये मदद दी,उसका लाख-लाख धन्यवाद.
आपकी सहायता और दयालुता के कारण आज मेरी बीमार पत्नी को दवा और भूखे बच्चों को रोटी मिल सकेगी.तुम बहुत दयालु हो प्रभु ! आपका कोटि-कोटि धन्यवाद.

मजदूर की बातें सुन ... बेटे की आँखें भर आयीं.
पिता ने पुत्र को सीने से लगाते हुयेे कहा ~क्या तुम्हारी मजाक मजे वाली बात से जो आनन्द तुम्हें जीवन भर याद रहता उसकी तुलना में इस गरीब के आँसू और दिए हुये आशीर्वाद तुम्हें जीवन पर्यंत जो आनन्द देंगे वो उससे कम है, क्या ?

पिताजी .. आज आपसे मुझे जो सीखने को मिला है, उसके आनंद को मैं अपने अंदर तक अनुभव कर रहा हूँ. अंदर में एक अजीब सा सुकून है.

आज के प्राप्त सुख और आनन्द को मैं जीवन भर नहीं भूलूँगा. आज मैं उन शब्दों का मतलब समझ गया जिन्हें मैं पहले कभी नहीं समझ पाया था. आज तक मैं मजा और मस्ती-मजाक को ही वास्तविक आनन्द समझता था, पर आज मैं समझ गया हूँ कि लेने की अपेक्षा देना कहीं अधिक आनंददायी है

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👉 अपने दोषों को भी देखा कीजिए! (भाग 5)

प्रिय दर्शन मनुष्य का श्रेष्ठ सद्गुण है। औरों में अच्छाइयाँ देखने से अपने सद्गुणों का विकास होता है। वह कहना कि दूसरे ही निरे दोषी हैं, अनुचित बात है। संसार में हर किसी में कोई न कोई सद्गुण अवश्य होता है। किसी में सफाई अधिक है, कोई ईमानदार है, कोई नेक-चलन, कोई अच्छा वक्ता है, कोई संगीतज्ञ है। आत्मीयता, उदारता, साहस, नैतिकता, श्रमशीलता जैसे सदाचारों में से कोई न कोई संपत्ति हर किसी के पास मिलेगी। इन्हें ढूँढ़ने का प्रयास करें, उनके सत्परिणामों पर ध्यान दें तो अपना भी जी करता है कि हम भी वैसा ही करें। आत्म विकास का क्रम यही है। दूसरों की अच्छाइयों का अनुकरण करना मनुष्य को आगे बढ़ाता और ऊँचा उठाता है। मानव से महामानव बनने की पद्धति यही है कि छिद्रान्वेषण के स्वभाव को त्याग कर प्रत्येक व्यक्ति में जो भी अच्छाइयाँ दिखाई दें उनकी प्रशंसा करें और स्वयं भी वैसा ही बनने का प्रयत्न करें।

जिस प्रकार हम दूसरे व्यक्तियों के सत्कर्मों से प्रेरणा लेते हैं, उसी प्रकार अपने दोष दुर्गुणों को ढूँढ़ने और निकाल कर बाहर कर देने से आत्म-शोषण की प्रक्रिया और भी तीव्र होती है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी भिन्न-भिन्न कठिनाइयाँ होती हैं। हो सकता है कोई अमीर हो, कोई चिड़चिड़ा हो, कोई ईर्ष्यालु अथवा अर्थलोलुप हो। जब इन कठिनाइयों, विकारों की खोजबीन कर लें तो उन पर शान्तिपूर्वक नियन्त्रण का प्रयास करना चाहिये।

मान लीजिये किसी में चिड़चिड़ापन अधिक है, बात-बात में उत्तेजित हो जाता है। अपनी भूल समझता भी है पर यह मान बैठता है, कि यह दोष उसके स्वभाव का अंग है। यह उससे छूटना सम्भव नहीं। ऐसी निराशा सर्वथा अनुपयुक्त है। मनुष्य चाहे तो अपने स्वभाव को थोड़ा प्रयत्न करके आसानी से सुधार सकता है। हमें अपना स्वभाव और दृष्टिकोण संघर्षमय न बनाकर रचनात्मक बनाना चाहिए। सड़क पर चलते हैं तो कंकड़ चुभेंगे ही किन्तु पैरों में जूते पहन लेते हैं तो चलते रहने की क्रिया में अन्तर भी नहीं पड़ता और आत्म-रक्षा भी हो जाती है।

.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1964 पृष्ठ 41

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/July/v1.41

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👉 आज का सद्चिंतन 23 Jan 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 23 Jan 2019


👉 क्रोध मत करो, क्षमा करो

आग उसे जलाती है, जो उसके पास जाता है, पर क्रोध तो स्वयं जलाता है। यदि तुम जमीन पर हाथ पाठक, तो पहले तुम्हें ही चोट लगेगी। क्रोधी दूसरों का नुकसान पीछे करता है, पहले अपने को आहत कर लेता है। यदि तुम में बल हो और विरोधी से बदला लेने की योग्यता हो, तो भी उसे माफ करो, क्योंकि क्रोध करना तो बहुत ही बुरा है। यदि तुम क्रोध का परित्याग कर दो और जो कुछ कहना चाहते हो, शांतिपूर्वक कहो, तो उन समस्याओं का आधा हल तो अपने आप हो जाएगा, जिनके लिए तुम बेचैन हो।

इसमें क्या बड़प्पन है कि तुम बुराई करने वाले से बदला ले लो। ऐसा तो चींटी भी कर सकती है। बड़ा वह है जो अपने शत्रुओं को क्षमता कर देता है। धरी को देखो, तुम उसे खोदते हो और वह बदले में अन्न उपजाती है। गन्ने को दबाते हैं, तो उसमें से मीठा रस टपकता है।

जिसने तुम्हें हानि पहुँचाई, वह बेचारा कमजोर है, कायर है, क्योंकि निर्बल आत्मा वाले ही दूसरों को हानि पहुँचाते हैं। माफ कर दो इन गरीबों को, अंधों पर तलवार चलाना कोई बहादुरी थोड़े ही है। बदला लेने पर तुम्हें कुछ घंटे खुशी रह सकती है, पर क्षमा कर देने पर जो आनंद प्राप्त होगा, वह बहुत काल तक कायम रहेगा।

📖 अखण्ड ज्योति -जनवरी 1943

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👉 Embrace Forgiveness

Fire burns everything that comes into its contact. But the heat of anger of a person burns only himself. It you hit the earth by your hand; it’s only your hand that will suffer the pains. Your annoyance or irritation upon someone might disturb or hurt him, but it will certainly and firstly do more harm to you. Even if you feel justified in taking revenge against someone’s misdeeds and even if you are mightier and capable of retaliating, you should better forgive. Because, your anger and arrogance would be worse (for you also) than whatever wrong one might have done (to you). As you might have experienced on several occasions, if one controls the wrath and maintains mental stability, most disputes or problems could be resolved peacefully and give you the content of mind, which you are dying for.

So what if you take revenge against someone’s wrong against you? Every animal has this beastly instinct. Even a tiny ant can do that. Greater is the one who can forgive his enemies. Why don’t you learn, something form the earth? You dig it, plough it, but in return, it blesses you with crops, water, minerals and what not! Look at the piece of sugarcane! You cut it, press it, chew it, but it reacts by filling your mouth with sweet juice.

Those who have harmed you or committed crime against you are coward, weak, ignorant, because only those having a dormant conscience can do so. Why should you belittle yourself by responding back at their level? It does not suit an intrepid warrior to use weapons against the blinds or the slept ones.

Your act of revenge might sometimes, give temporary ‘satisfaction’ to your ego, but the joy induced by your act of forgiving would last for long…

📖 Akhand Jyoti, Jan. 1943

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👉 आत्मचिंतन के क्षण 23 Jan 2019

◾  मन और मुँह को एक करके भावों को जीवन में कार्यान्वित करना होगा। इसीको श्री रामकृष्ण कहा करते थे, "भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।" सब विषओं में व्यवहारिक बनना होगा। लोगों या समाज की बातों पर ध्यान न देकर वे एकाग्र मन से अपना कार्य करते रहेंगे क्या तुने नहीं सुना, कबीरदास के दोहे में है- "हाथी चले बाजार में, कुत्ता भोंके हजार साधुन को दुर्भाव नहिं, जो निन्दे संसार" ऐसे ही चलना है। दुनिया के लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देना होगा। उनकी भली बुरी बातों को सुनने से जीवन भर कोई किसी प्रकार का महत् कार्य नहीं कर सकता।

◾  संन्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम। सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु संन्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम आत्महत्या कर लें। आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती है। संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए धीरे-धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाना।

◾  बडे-बडे दिग्गज बह जायेंगे। छोटे-मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो -- यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है। डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं -- इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे। भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ।

◾  वीरता से आगे बढो। एक दिन या एक साल में सिध्दि की आशा न रखो। उच्चतम आदर्श पर दृढ रहो। स्थिर रहो। स्वार्थपरता और ईर्ष्या से बचो। आज्ञा-पालन करो। सत्य, मनुष्य -- जाति और अपने देश के पक्ष पर सदा के लिए अटल रहो, और तुम संसार को हिला दोगे। याद रखो -- व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है, इसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं।

✍🏻 स्वामी विवेकानन्द
 
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👉 अपने दोषों को भी देखा कीजिए! (भाग 4)

जल्दबाजी करने से भी गलती हो जाती है। इसलिये कोई समस्या आये उस पर पूर्णरूप से विचार कर लेने के बाद ही कोई कदम उठाना अच्छा होता है। आप ढूंढ़ें तो हर परेशानी का आधा कारण तो अपने में ही मिल सकता है। यहाँ यह नहीं कहा जा रहा कि गलती हर बार आप ही करते हैं, अनुचित रूप से किसी को अकारण दण्ड न मिले, इसलिए प्रत्येक अव्यवस्था में अपनी भूल ढूंढ़नी चाहिए। यह सम्भव है कि दूसरा व्यक्ति किसी भूल, भ्रम या परिस्थितिवश आपकी इच्छा पूरी न कर सका हो। ऐसी दशा में उस पर दुर्भाव का आरोपण कर बैठना अन्याय ही कहा जायगा। किसी के प्रति अन्यायपूर्ण धारण बना लेने से बुरी प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। इसलिए किसी पर दोषारोपण करने के पूर्व शान्त चित्त से यह देखना चाहिये कि आपकी भूल या दूसरे की विवशता के कारण ही तो ऐसा अप्रिय प्रसंग नहीं बन पड़ा जो आपको क्षुब्ध बनाये हुए है।

जो लोग प्रत्येक कार्य में अपने को ही सर्वथा सही मानकर दूसरों को भ्रान्त मानते हैं वे भूल करते हैं। इससे सचाई दब जाती है और मनोमालिन्य तथा झंझट बढ़ने लगते हैं। संसार के सभी व्यक्ति भिन्न-भिन्न स्वभाव, रुचि व प्रकृति के होते हैं। दो सगे भाइयों तक की आदतों में बड़ा अन्तर देखा जा सकता है, फिर सभी आपकी प्रकृति मान्यता का अभिरुचि का अनुकरण करें ऐसा सम्भव नहीं। किसी को चावल खाना पसन्द है, किसी को रोटी प्रिय है। इतना अन्तर तो प्रायः रहता ही है। इस तथ्य को समझते हुए, दूसरों को दोषी ठहराने, न ठहराने की समस्या का समाधान करने में अपने को ही पिछली पंक्ति में खड़ा करना पड़ेगा।

समन्वय से काम चल जाय तो अच्छी बात है किन्तु कदाचित ऐसा नहीं होता तो भी अपनी रुचि भिन्नता को ध्यान में रखते हुए दूसरों की इच्छा सहन करनी चाहिए। दूसरों की इच्छा के लिए यदि अपनी अभिरुचि का दमन कर देते हैं तो प्रत्याशी पर आपकी इस सद्भावना का असर जरूर पड़ेगा। दूसरे क्षण वह आपकी इच्छाओं को प्राथमिकता देगा। घरेलू वातावरण में सद्भावना का वातावरण बनाये रखने के लिये यह अत्यावश्यक है कि प्रत्येक वस्तु का चुनाव करते समय आप यह मान लीजिए कि इसके दोषी आप भी हो सकते हैं तो आये दिन होने वाले झगड़ों में से बहुत से तो स्वतः ही मिट जायेंगे।

.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1964 पृष्ठ 41

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/July/v1.4

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👉 सुन्दर और असुन्दर

बुद्ध एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे हैं। रात है पूर्णिमा की। गांव से कुछ मनचले युवक एक वेश्या को लेकर पूर्णिमा की रात मनाने आ गए हैं।

उन्होंने वेश्या को नग्न कर लिया है, उसके वस्त्र छीन लिए हैं। वे सब शराब में मदहोश हो गए हैं, वे सब नाच-कूद रहे हैं। उनको बेहोश हुआ देखकर वेश्या भाग निकली।

थोड़ा होश आया, तो देखा, जिसके लिए नाचते थे, वह बीच में नहीं है। खोजने निकले। जंगल है, किससे पूछें? आधी रात है। फिर उस वृक्ष के पास आए, जहां बुद्ध बैठे हैं। तो उन्होंने कहा, यह भिक्षु यहां बैठा है, यही तो रास्ता है एक जाने का। अभी तक कोई दोराहा भी नहीं आया।

वह स्त्री जरूर यहीं से गुजरी होगी। तो उन्होंने बुद्ध को कहा कि सुनो भिक्षु, यहां से कोई एक नग्न सुंदर युवती भागती हुई निकली है? देखी है?

बुद्ध ने कहा, कोई निकला जरूर, लेकिन युवती थी या युवक, कहना मुश्किल है। क्योंकि व्याख्या करने की मेरी कोई इच्छा नहीं। कोई निकला है जरूर, सुंदर था या असुंदर, कहना मुश्किल है। क्योंकि जब अपनी चाह न रही, तो किसे सुंदर कहें, किसे असुंदर कहें!


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👉 “क्षण भंगुर जीवन का दुरुपयोग न हो”

कई जन्मों पूर्व बोधिसत्व का जन्म काशी नरेश ब्रह्मभद्र के यहाँ छोटे पुत्र के रूप में हुआ। वे राष्ट्राध्यक्ष बनना चाहते थे। कनिष्ठ पुत्र होने के नाते वैसा अवसर उन्हें मिलने वाला नहीं था। उन्होंने ताँत्रिक महासिद्ध प्रत्यंग से अपनी मनोकामना की पूर्ति का उपाय पूछा। महासिद्ध ने बताया कि आगामी मास में तक्षशिला का सिंहासन रिक्त होने वाला है यदि वे तुरन्त चल पड़ें तो अभीष्ट प्राप्ति में सफल हो सकते हैं। पूर्णिमा के दिन प्रभातकाल में राजद्वार पर खड़े व्यक्ति को ही सिंहासन मिलेगा, यह नियति की व्यवस्था है।

आकाँक्षा तीव्र होने के कारण वे चल पड़े। उनके पाँच घनिष्ठ मित्र भी साथ चलने पर तुल गए। चलते समय वे महासिद्ध प्रत्यंग का आशीष लेने पहुँचे सो उन्होंने सफलता का आशीर्वाद तो दिया, साथ ही यह भी बता दिया कि “मार्ग में यक्ष वन पड़ता है। उसमें रूपसी यक्षिणियों का ही अधिकार है। वे रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श जैसे साधनों से ही राहगीरों को लुभाती, भोगती और अन्त में मारकर खा जाती है। इस विपत्ति से बचकर चलने में ही तुम्हारी भलाई है।”

बोधिसत्व साथियों सहित चल पड़े। जल्दी की आतुरतावश विराम पर कम और यात्रा पर अधिक ध्यान था। समय पर यक्ष वन आया। राजकुमार तो सतर्क थे, पर साथी उन कसौटियों पर खरे नहीं उतरे। एक ने पैर की मोच का बहाना लिया व एक रूपसी के यहाँ विराम हेतु रुक गया। दूसरे दिन दूसरा शब्द जाल में बँधा, तीसरे-चौथे-पाँचवें मित्र भी एक-एक करके इन क्षणिक आकर्षणों में मोहित हो बँधते चले गए। एक दिन छूंछ होकर प्राण गँवा बैठे।

धुन के धनी बोधिसत्व किसी प्रलोभन में रुके नहीं, आगे बढ़ते ही चले गए। यक्ष समुदाय के लिये यह प्रतिष्ठा का प्रश्न था कि कोई उनके जाल में फँसे बिना निकल जाये। एक चतुर यक्षिणी उनके पीछे लगा दी गयी। उपेक्षा करते हुए बोधिसत्व बढ़ते रहे, वह पीछे चलती रही। राहगीरों के पूछने पर वह बताती- “ये मेरे जीवन प्राण हैं। उपेक्षिता होने पर भी छाया की तरह साथ चलूँगी।” राहगीरों के समझाने पर राजकुमार वस्तुस्थिति बताते तो भी कोई उनका विश्वास न करता। यक्षिणी जब स्वयं को गर्भिणी, असहाय कहती विलाप करती तो उसका पक्ष और भी प्रबल हो जाता।

ज्यों-त्यों करके बोधिसत्व तक्षशिला समय पर पहुँच गए एवं मुहूर्त की प्रतीक्षा में एक कुँज में निवास करने लगे। किन्तु उस सुन्दरी की चर्चा सर्वत्र दावानल की तरह फैल गयी। ऐसा सौंदर्य किसी ने देखा न था। खबर राजमहल तक पहुँची। राजा ने देखा तो होशो-हवास गँवा बैठे। यक्षिणी को पटरानी बनाने का प्रस्ताव रखा एवं उसकी यह शर्त भी मान ली कि महल के भीतर रहने वाली सभी अन्तःवासियों पर उसका अधिकार होगा।

अब यक्षिणी ने बोधिसत्व को भुला दिया और नए अधिकार क्षेत्र में अभीष्ट लाभ उठाने में जुट गयी। उसने यक्ष वन में अपने सभी सहेलियों को बुलावा भेज दिया। सभी एक-एक करके महल के घरों में रहने वालों के साथ लग गईं व एक-एक करके सभी को छूंछ बनाती चलती गयी एवं अन्ततः उदरस्थ कर गईं। नियत मुहूर्त से एक दिन पहले ही राजमहल का घेरा अस्थि पिंजरों से भर गया। राजा-प्रजा में से कोई न बचा। बाहर स्थित नगरवासियों द्वारा जब किले का फाटक तोड़ने और भीतर की स्थिति देखने की तैयारी हुई तो वहाँ बोधिसत्व खड़े हुए थे। उन्होंने स्तम्भित प्रजा जनों को आदि से अन्त तक सारी कथा कह सुनाई।

नगर को यक्षिणी के त्रास से मुक्ति दिला सकने योग्य बोधिसत्व ही लगे सो उन्हें राज सिंहासन पर आरुढ़ कर दिया गया। प्रचण्ड पुरुषार्थ- मनोबल सम्पन्न राजा के कारण यक्षिणियों की मण्डली को भी पलायन करना पड़ा।

सिंहासनारूढ़ बोधिसत्व ने कुछ समय उपरान्त प्रबुद्ध प्रजाजनों की एक संसद बुलाई और कहा- “शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की पाँच यक्षिणियों इन्द्रिय लिप्साओं के रूप में जहाँ भी आधिपत्य करेंगी, वहाँ के नागरिकों का सर्वनाश होकर रहेगा। जो भी इतना मनोबल जुटा ले कि इन दुष्प्रवृत्तियों से जूझ सके, वह जीवन संग्राम में निश्चित ही विजय पाता है।”

अखण्ड ज्योति 1984 अक्टूबर

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...