बुधवार, 8 मार्च 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 09 March 2017


👉 आज का सद्चिंतन 09 March 2017


👉 कलियुग के सूर को मिले भगवान

🔴 तब मेरी उम्र करीब ७ वर्ष की रही होगी। मेरी आँखों में बहुत दर्द शुरू हुआ, इसी दौरान मेरी आँखों की रोशनी बिल्कुल जाती रही और कुछ ही दिनों में मेरे लिए यह दुनिया पूरी तरह अँधेरी हो गई। बचपन से ही शिक्षा के प्रति मेरा रुझान था। माँ सरस्वती की कृपा से मेरे विद्याध्ययन में रोशनी का अभाव कभी बाधक नहीं बना।  शिक्षा प्राप्ति के बाद मैं शासकीय माधव संगीत महाविद्यालय ग्वालियर में लेक्चरर नियुक्त हो गया। वहाँ मैं संगीत की क्लास लेता था। क्लास शाम ५ बजे से ८ बजे तक लगती थी।

🔵 अगस्त सन् ७८ की बात है। गर्मी का समय था, पर बारिश के कारण मौसम ठण्डा हो चला था। शाम की ठण्डी- ठण्डी हवा और गुनगुनी धूप से तीसरी मंजिल का वह कमरा काफी आरामदायक लग रहा था। थोड़ी देर में बच्चे आ गए। कक्षा आरंभ हुई। अभी ५ मिनट ही हुए होंगे कि सभी लड़कियाँ एकदम से चुप हो गईं। पूरे क्लास में अचानक सन्नाटा छा जाने पर मैंने पूछा क्या हुआ? चुप क्यों हो गईं? पर किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। मेरे दुबारा पूछने पर उनमें से एक लड़की ने कहा- सर ‘‘उत्तर दिशा की ओर से दो फूल उड़ते हुए चले आ रहे हैं।’’ मैंने सोचा इसमें देखने की क्या बात है? कोई बड़ा सा पेड़ होगा, उसी पेड़ के फूल टूट कर गिर रहे होंगे। मैंने उनसे कहा भी कि हवा चल ही रही है, जिससे फूल गिर कर उड़ रहे होंगे।

🔴 मेरी इन बातों का लड़कियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनमें से एक लड़की ने कहा कि नहीं सर वे फूल भागते हुए बम के गोले की तरह से इधर ही चले आ रहे हैं। मैंने सोचा कि मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा है इसलिए ये लड़कियाँ मुझे बेवकूफ बना रही हैं। उनमें से एक गंभीर लड़की ‘कल्पना’ ने कहा- हाँ सर सचमुच फूल आ रहे हैं। इतने में फूल अन्दर आकर मेरी गोद में गिर पड़े। मैंने उन फूलों को उठाकर अपनी जेब में रख लिया। कक्षा समाप्त होने के पश्चात् भोजन किया और बिस्तर पर चला गया। तब तक मैं उन फूलों की बात बिल्कुल भूल चुका था। मैं सोने की कोशिश कर रहा था। अचानक मेरी ऐसी इच्छा हुई कि मैं हरिद्वार जाऊँ और गंगा स्नान कर आऊँ। ये बातें उस समय की है जब मैं गुरु देव एवं मिशन के बारे में कुछ नहीं जानता था। गायत्री मन्त्र का नाम तक नहीं सुना था।

🔵 मैंने तीन- चार दिन की छुट्टी ली और हरिद्वार के लिए रवाना हुआ। रात के तीन बज रहे थे। हरिद्वार स्टेशन पहुँच गया। मेरे एक हाथ में अटैची और एक हाथ में डंडा था। मैं डंडे के सहारे स्टेशन के बाहर आया तो एक ऑटो वाला मिला और बोला- भाई साहब शान्तिकुञ्ज चलिए, वहाँ रहने और खाने पीने की व्यवस्था हो जाएगी। मैंने सोचा यह मुझे बेवकूफ बना रहा है। मैंने कहा- मुझे शान्तिकुञ्ज नहीं जाना है। मुझे गंगा स्नान करके ग्वालियर वापस जाना है। मैं जैसे- जैसे मना करता, ऑटो वाला उतना ही पीछे पड़ता गया। अन्ततः मैंने ढाई रुपये किराया तय कर लिया और शान्तिकुञ्ज पहुँच गये। वहाँ पहुँचकर स्नान- भोजन वगैरह करके विश्राम करने लगा। पहले दिन सफर की थकावट थी इसलिए शाम को जल्दी ही सो गया।

🔴 रात को ११ बजे मेरी नींद खुल गई, तो उठकर नहा- धोकर रात १२ बजे ही मैं माला लेकर बैठ गया। उस समय मैं शिव भक्त था। शिव जी के मंत्र के अतिरिक्त मुझे दूसरा कोई मंत्र नहीं आता था। लेकिन मैं जब मंत्र जप करने बैठा तो यह क्या! शिव मंत्र की जगह पर मेरे मुँह से ‘ॐ भूः, ॐ भूः, ॐ भूः’ निकलने लगा। सवेरे ६ बजे तक माला जपता रहा पर ग्यारह माला ही कर सका! मैंने सोचा- हे भगवान, यह क्या? छः घण्टे में मैं ११ माला ही कैसे कर पाया; जबकि सैकड़ों माला हो जाना चाहिए। दोपहर को भोजन विश्राम के बाद लोगों ने मुझसे कहा कि चलो गुरुजी के प्रवचन में। उस समय गुरु जी के महत्त्व के बारे में जानता भी नहीं था। सभी लोग जा रहे थे अतः मैं भी चला गया। प्रवचन के दौरान गुरु जी ने टेबल पर अपने हाथ को पटक कर जोर से कहा, ११ माला से क्या होता है, नाश्ता भी नहीं होता। यह बात उन्होंने तीन बार कहीं। मुझे आश्चर्य हो रहा था। कहीं ये शब्द मेरे लिए तो नहीं! लेकिन इन्हें कैसे पता चला! प्रवचन समाप्त होने के बाद भी मैं सोचता रहा। याद आया कोई एक भाई कह रहे थे- गुरु जी महाकाल के अवतार हैं। यहाँ कोई अपनी मर्जी से नहीं आता। जिसे वे बुलाते हैं, वही आता है। मेरे रोम- रोम ने इसकी सच्चाई को स्वीकारा। याद आई वो फूलों वाली घटना, फिर अचानक हरिद्वार आना, स्टेशन पर ऑटो वाले की जिद। मैं अन्तर तक रोमांचित हो उठा।

🔵 तीन दिन किस तरह बीत गए, कुछ पता ही नहीं चला। अनमने भाव से मैं वापस भी आ गया। फिर पहले की तरह संगीत की कक्षा लेने लगा। लेकिन सब कुछ पहले जैसा नहीं हुआ। ऐसा लगता जैसे कुछ महत्वपूर्ण चीज छूट गई हो। इसके बाद कई बार शान्तिकुञ्ज आया। गुरु देव और माताजी का स्नेह पाकर मुझे लगता था जैसे जन्म- जन्म के माता पिता मिल गए हों। पर एक प्रश्र हमेशा साथ लगा रहा- गुरु देव ने मुझे प्रयत्नपूर्वक बुलाया तो आखिर क्यों? इसका जवाब सन् १९८४ में मिला।

🔴 मैं नौ दिवसीय संजीवनी साधना सत्र करने शान्तिकुञ्ज आया था। इसी दौरान एक दिन मुझे साँप ने काट लिया, मेरा पैर खूब फूल गया, चलना- फिरना मुश्किल हो गया। ऐसा लग रहा था जैसे चारों ओर अँधेरा छाता जा रहा हो। धीरे- धीरे चेतना लुप्त होती चली गई। साथियों से पता- चला कि मेरे बेहोश होने के बाद डॉक्टर ने होश में लाने के लिए इंजेक्शन दिया था। जब पर्याप्त समय बीत जाने के बाद भी होश नहीं आया तो घबराकर लोगों ने गुरु देव को जाकर बताया। साथ में डॉक्टर भी थे। गुरु देव ने डॉक्टरों से कहा- अभी उठ जाएगा। उसे एक इंजेक्शन और लगाओ। और वास्तव में दूसरे इंजेक्शन से मुझे होश आ गया। अब मैं समझा मुझे अपने पास बुलाने का उनका यही उद्देश्य था कि मुझे असमय मृत्यु के हाथ से बचाया जाये और आगे का मेरा जीवन युग निर्माण के कार्य में लग सके। उनकी असीम कृपा को नमस्कार करता हूँ।

🌹 देवीदयाल वैश्य ग्वालियर (मध्यप्रदेश) 
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से

👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 16)

🌹 प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं    

🔴 विशिष्ट पुरुषार्थ का परिचय देने के उपरान्त ही पुरस्कार मिलते हैं। परिष्कृत प्रतिभा ऐसी सम्पदा है, जिसकी तुलना में मनुष्य को गौरवान्वित करने वाला और कोई साधन है नहीं। उसे प्राप्त करने के लिए यह सिद्ध करने की आवश्यकता है कि मानवी गरिमा को गौरवान्वित करने वाली धर्म-धारणा के क्षेत्र में कितनी उदारता और कितनी सेवा-साधना का परिचय देने का साहस जुटा पाया।                 

🔵 दूसरों के हाथ रचाने के लिए, मेंहदी के पत्ते पीसने पर अपने हाथ स्वयमेव लाल हो जाते हैं। समय की माँग के अनुरूप पुण्य-परमार्थ का परिचय देने वालों को भी सदा नफे में ही रहने का सुयोग मिलता है। बाजरा, मक्का आदि का बोया हुआ एक दाना हजार दाने से लदी बाल बनकर इस तथ्य को प्रमाणित और परिपुष्ट करता है। भगवान के बैंक में जमा की हुई पूँजी इतने अधिक ब्याज समेत वापस लौटती है, जितना लाभ अन्य किसी व्यवसाय या पूँजी-निवेश में कदाचित् ही हस्तगत होती हो।       

🔴 किसी की वरिष्ठता उसके पारमार्थिक पौरुष के आधार पर ही आँकी जाती है। श्रेष्ठों-वरिष्ठों का आँकलन इसी एक आधार पर होता रहा है। साथ ही यह भी विश्वास किया जाता है कि बड़े कामों को सम्पन्न करने में उन्हीं की मनस्विता काम आती है। पटरी पर से उतरे इंजन को उठाकर फिर उसी स्थान पर रखने के लिए मजबूत और बड़ी क्रेन चाहिए। उफनती नदी में जब भँवर पड़ते रहते हैं, तब बलिष्ठ नाविकों के लिए ही यह सम्भव होता है कि वे डगमगाती नाव को खेकर पार पहुँचाएँ। समाज की सुविस्तृत, संसार की उलझन भरी बड़ी समस्याओं को सही तरह सुलझा सकना, उन साहसी और मेधावीजनों से ही बन पड़ता है, जिन्हें दूसरे शब्दों में प्रतिभावान भी कहा जा सकता है। युग परिवर्तन जैसे महान प्रयोजनों को हाथ में लेने के लिए अपनी साहसिकता का गौरवभरी गरिमा का परिचय दे सकने वाले व्यक्ति चाहिए। आड़े समय में ऐसे ही प्रखर प्रतिभावानों को खोजा, उभारा और खरादा जाना है।    

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 निर्धनता से प्यार

🔵 संत फ्रांसिस एक धनवान् पिता के पुत्र थे। उनके यहाँ कपडे का बड़ा व्यापार होता था। अपने प्रारंभिक जीवन मे फ्रांसिस बडी शान से रहते थे। अच्छा-अच्छा खाते और कीमती कपडे पहनते थे। पर बाद में उनका हृदय ऐसा बदला कि उन्हें गरीबी से प्रेम हो गया। उन्होंने सब कुछ त्याग दिया और गरीबों की सेवा में लग गए।

🔴 एक बार एक भिखारी उनकी दुकान पर आया और बोला-भाई, मुझे कुछ खाने- पहनने को दो, मैं बहुत भूखा हूँ और जाड़े से मर रहा हूँ। फ़ांसिस को उसकी दशा पर बडी़ दया आई और उन्होंने उस गरीब को खाना खिलवाया और तन ढकने के लिये कपडा दिया। जब उनके पिता को इस बात का पता चला तो वे फ्रांसिस से बहुत बिगडे और बोले-धन इसलिए नहीं है कि वह इस तरह भिखमंगों को लुटा दिया जाए। संत फ्रांसिस को पिता की इस बात से बड़ा दुःख हुआ। वे सोचने लगे-वह धन यो बेकार की ही चीज है, जो गरीबों और असहायों की मदद करने में नहीं लगाया जा सकता। जब हजारों लोग हमारे सामने ही भूखों मर रहे हैं और नंगे रघूम हे हैं, तो हमें इस प्रकार धन जमा रखकर धनवान बने रहने का क्या अधिकार ? उन्हें धन से घृणा हो गई और वे शान-शौकत छोडकर सादे ढंग से रहने लगे।

🔵 एक बार फ्रांसिस घोड़े पर चढे़ हुए कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक कोढ़ी दिखाई दिया। वह नंगा पडा पीड़ा से कराह रहा था। पहले तो उसकी दशा देखकर, उन्हें बडी घृणा हुई। पर तत्काल ही उनकी आत्मा ने कहा- 'धिक्कार है फ्रांसिस! जिसकी तुम्हें मदद करनी चाहिए, उसे देखकर तुम घृणा करते हो।'' उनकी मनुष्यता जाग उठी। वे तत्काल घोड़े से उतरे। कोढी को गले लगाया और सेवा से उसका कष्ट दूर किया। अपने पास के कपडे और पैसे उसे दे दिए।

🔴 इस उपकार से फ्रांसिस की आत्मा बडी़ करुण हो गई और निर्धनता के प्रति उनका प्रेम जाग उठा। वे दिन रात गरीबों की चिंता में रहने लगे। एक दिन उन्हें चिंतित देखकर, उनके एक मित्र ने कहा-''भाई आजकल बडे विचारशील बने रहते हो, क्या विवाह करने का विचार कर रहे हो ?'' फ्रांसिस ने उत्तर दिया- विचार तो कुछ ऐसा ही है। एक बडी़ सुंदर स्त्री से विवाह का विचार है। बताओ वह स्त्री कौन है "मित्र ने कहा-" "कोई भी हो, होगी बड़ी भाग्यवान्। बताओ वह कौन है ?'' फ्रांसिस ने कहा- "उस सुंदर देवी का नाम है निर्धनता।" मैं उसी से विवाह करने का विचार कर रहा हूँ। फ्रांसिस ने अपने विचार को चरितार्थ किया और न केवल निर्धनता ही स्वीकार कर ली बल्कि निर्धनों महान् सेवक बन गए।

🔵 फ्रांसिस एक बार गिरजाघर में प्रार्थना करने गए। गिरजाघर बड़ा टूटा-फूटा था। भगवान् के घर की यह दशा देखकर उन्हें बडा दुःख हुआ। वे घर आए और कपडे की कई गाठे और अपना घोड़ा बेच डाला। उसका सारा पैसा ले पाकर पुजारी  को गिरजाघर की मरम्मत के लिये दे दिया।

🔴 पिता को पता चला तो उन्होने फ्रांसिस को बहुत मारा और विशप के पास ले जाकर कहा कि यह लड़का मेरा धन बरबाद किये जा रहा है, मैं इसे अपनी संपत्ति से वंचित कर चाहता हूँ।

🔵 पिता की बात सुनकर फ्रांसिस खुशी से उछल पडे़, बोले-आपने मुझे एक बहुत बडे मोह-बंधन से मुक्त कर दिया है। मैं स्वयं ही उस संपत्ति को दूर से प्रणाम करता हूँ, जो 'परमार्थ और परोपकार में काम नहीं आ सकती।' इतना कहकर उन्होंने कपडे तक उतारकर रख दिए और एक चोगा पहन चले गए।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 71, 72

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 32)

🌹 विचारशील लोग दीर्घायु होते हैं

🔴 विचारों के विपरीत कार्य हो जाने का रहस्य यही होता है कि मनुष्य की क्रिया प्रवृत्ति पर संस्कारों का प्रभाव रहता है और गुप्त मन में छिपे रहने से उनका पता नहीं चल पता। संस्कार विचारों को व्यर्थ कर अपने अनुसार मनुष्य की क्रियायें प्रेरित कर दिया करते हैं। जिस प्रकार पानी के ऊपर दीखने वाले छोटे से कमल पुष्प का मूल पानी के तल में कीचड़ में छिपा रहने से नहीं दीखता, उसी प्रकार परिणाम रूप क्रिया का मूल संस्कार अवचेतन मन में छिपा होने से नहीं दीखता।

🔵 कोई-कोई विचार ही तात्कालिक क्रिया के रूप में परिणित हो पाता है अन्यथा मनुष्य के वे ही विचार क्रिया के रूप में परिणत होते हैं, जो प्रौढ़ होकर संस्कार बन जाते हैं। ये विचार जो जन्म के साथ ही क्रियान्वित हो जाते हैं, प्रायः संस्कारों के जाति की ही होते हैं। संस्कारों से भिन्न तात्कालिक विचार कदाचित् ही क्रिया के रूप में परिणत हो पाते हैं बशर्ते कि वे संस्कार के रूप में परिपक्व न हो गये हों। वे संतुलित तथा प्रौढ़ मस्तिष्क वाले व्यक्ति अपने अवचेतन मस्तिष्क को पहले से ही उपयुक्त बनाये रहते हैं, जो अपने तात्कालिक विचारों को क्रिया रूप में बदल देते हैं। इसका कारण इसके सिवाय और कुछ नहीं होता कि उनके संस्कारों और प्रौढ़ विचारों में भिन्नता नहीं होती—एक साम्य तथा अनुरूपता होती है।

🔴 संस्कारों के अनुरूप मनुष्य का चरित्र बनता है और विचारों के अनुरूप संस्कार। विचारों की एक विशेषता यह होती है कि यदि उनके साथ भावनात्मक अनुभूति का समन्वय कर दिया जाता है तो वे न केवल तीव्र और प्रभावशाली हो जाते हैं, बल्कि शीघ्र ही पक कर संस्कारों का रूप धारण कर लेते हैं। किन्हीं विषयों के चिन्तन के साथ यदि मनुष्य की भावनात्मक अनुभूति जुड़ जाती है तो वह विषय मनुष्य का बड़ा प्रिय बन जाता है। यही प्रियता उस विषय को मानव-मस्तिष्क पर हर समय प्रतिविम्बित बनाये रहती है। फलतः उसी विषय में चिन्तन, मनन की प्रक्रिया भी अबाधगति से चलती है और वह विषय अवचेतन में जा-जाकर संस्कार रूप में परिणत होता रहता है। 

🔵 इसी नियम के साथ बहुधा देखा जाता है कि अनेक लोग, लोक प्रियता के कारण भोगवासनाओं को निरन्तर चिन्तन से संस्कारों में सम्मिलित कर लेते हैं, बहुत कुछ पूजा-पाठ, सत्संग और धार्मिक साहित्य का अध्ययन करते रहने पर भी उनसे मुक्त नहीं हो पाते। वे  चाहते हैं कि संसार के नश्वर भोगों और अकल्याणकर वासनाओं से विरषित हो जाये, लेकिन उनकी यह चाह पूरी नहीं हो पाती। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 10)

🌹 अनास्था की जननी-दुर्बुद्धि 

🔵 विचारणीय यह है कि क्या सिद्धांत-रहित उपहार, मनुहार का लालची और किसी भी चाटुकार की सही-गलत मनोकामनाएँ पूरी करने वाला कोई परमेश्वर हो भी सकता है क्या? इस संदर्भ में किसी भी दृष्टिकोण से विचार करने पर उत्तर नहीं में ही देना पड़ता है; क्योंकि यह सिलसिला यदि चल पड़े तो रही-बची विवेकशीलता और न्यायनिष्ठा के परखचे ही उड़ जाएँगे।     

🔴 ऐसे कबायली परमेश्वर को पूजने वाले ही मनोकामनाएँ पूरी न होने पर उसे सौ गुनी गाली भी देते देखे गये हैं, जो कि आशाएँ लगाये रहने से पूर्व मिन्नतें करने और चमचागिरी दिखाने में अतिवाद की सीमा तक पहुँच जाते हैं। इस भ्रांत मान्यताओं वाले जंजाल को ही यदि परमेश्वर माना जाए तो फिर इसी के साथ एक बात और भी जान लेनी चाहिये कि इसके पीछे वास्तविकता कुछ भी न होने से लाभ कुछ भी नहीं होने वाला है। अंधे के हाथों कभी बटेर लग जाए तो बात दूसरी है, पर उससे भ्रांति पर आधारित मान्यता की पुष्टि नहीं होती।   

🔵 उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़ने के उपरांत तथाकथित पूजा-पाठ करने वालों की मान्यताएँ डाँवाडोल हो सकती हैं। जो थोड़ी-बहुत आधे-अधूरे मन से टंट-घंट करते थे, उसमें भी कमी आ सकती है। भक्तिवाद की आड़ में यह मिथ्या भ्रम-जंजाल चलाते रहने वाले को तो अपने व्यवसाय में घाटा दीख पड़ते ही अनख होने में ऐसी स्थिति भी आ सकती है जो प्रतिपक्ष पर किसी भी स्तर का आक्रोश लेकर पिल पड़े, पर सही अध्यात्म की स्थापना करने के लिये यह भी सहना पड़े तो उद्यत रहना चाहिये।  
     
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 14)

🌹 द्विज का अर्थ - मर्म समझें

🔴 जन्म भी अपने यहाँ हँसी- खुशी का त्यौहार माना जाता है और विवाह भी। ये दोनों ही कार्य जिस दिन एक साथ होते हैं, वह आदमी का बड़ी खुशी का दिन है, बड़े उत्सव का दिन है, बड़ी शान का दिन है, बड़ा गौरव का दिन है और वह दिन दीक्षा का दिन है। दीक्षा एक तरह की कसम लेने की प्रक्रिया है। जिस तरीके से कोई मिनिस्टर बनता है जब, तब उसको न्यायाधीश अथवा राष्ट्रपति आते हैं, उसको प्रतिज्ञाएँ दिलाते हैं, उसको गोपनीयता की शपथ दिलाते हैं, देश भक्ति की शपथ दिलाते हैं। 

🔵 मैं देश भक्त होकर के जिऊँगा और जो गोपनीय बातें हैं उनको बाहर प्रकट नहीं होने दूँगा। ये दो बातें राजनीतिक मनुष्यों को शपथ के रूप में लेनी पड़ती हैं, जो ये शपथ नहीं ले, उसको मिनिस्टर नहीं बनाया जा सकता। ठीक इसी प्रकार से दीक्षा यह शपथ लेने का समारोह है कि मैं मनुष्य का जीवन जीऊँगा महत्त्व उस शपथ के भावनात्मक सम्बन्ध का है। संस्कार कराने की विधि तो कोई सामान्य आदमी भी पूरा कर सकता है,  ये कोई बड़ी बात है क्या?   

🔴 विवाह स्त्री- पुरुषों का होता है। पण्डित जी पगड़ी बाँध के आ बैठते हैं, उनको दक्षिणा दे देते हैं, वे श्लोक बोल देते हैं, परिक्रमा करा देते हैं और पण्डित जी मिठाई खा करके, पूड़ी खा करके घर से चले जाते हैं। पण्डित जी का ब्याह में कोई खास भाग नहीं है। बस थोड़ी देर के लिए भाग है। इस तरीके से गुरु- दीक्षा का कृत्य- कर्मकाण्ड कोई भी आदमी करा सकता है, उस आदमी का कोई मूल्य नहीं है। वास्तविक बात यह है कि आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने भर की बात है। 

🔵 सद्गुरु जिसको कहते हैं। वह अन्तरंग में बैठा हुआ चेतना- प्रेरणा का नाम है, जो मनुष्य को दिशाएँ बताती है, हर वक्त मार्गदर्शन करती है। बाहर का गुरु तो केवल ढाँचे के तरीके से, खाके के तरीके से और सिगनल के तरीके से सिर्फ आरम्भिक रास्ता बता सकता है। चौबीस घंटे रास्ता कैसे बता सकता है कोई गुरु? ॐ गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः .. में जो बात बताई है, वह मनुष्यों के ऊपर कैसे लागू हो जायेगी?        
   
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 71)

🌹 प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण

🔴 एक दिन हम रात को 1 बजे करीब ऊपर गए। लालटेन हाथ में थी। भागने वालों से रुकने के लिए कहा। रुक गए। हमने कहा-‘‘आप बहुत दिन से इस घर में रहते आए हैं। ऐसा करें कि ऊपर की मंजिल के सात कमरों में आप लोग गुजारा करें। नीचे के आठ कमरों में हमारा काम चल जाएगा। इस प्रकार हम सब राजी नामा करके रहें। न आप लोग परेशान हों और न हमें हैरान होना पड़े।’’ किसी ने उत्तर नहीं दिया। खड़े जरूर रहे। दूसरे दिन से पूरा घटनाक्रम बदल गया। हमने अपनी ओर से समझौते का पालन किया और वे सभी उस बात पर सहमत हो गए।  

🔵 छत पर कभी चलने-फिरने जैसी आवाजें तो सुनी गईं, पर ऐसा उपद्रव न हुआ जिससे हमारी नींद हराम होती, बच्चे डरते या काम में विघ्न पड़ता। घर में जो टूट-फूट थी, अपने पैसों से सँभलवा ली। ‘‘अखण्ड ज्योति’’ पत्रिका पुनः इसी घर से प्रकाशित होने लगी। परिजनों से पत्र-व्यवहार यही आरम्भ किया। पहले वर्ष में ही दो हजार के करीब ग्राहक बन गए। ग्राहकों से पत्र व्यवहार करते और वार्तालाप करने के लिए बुलाते रहे। अध्ययन का क्रम तो रास्ता चलने के समय चलता रहा। रोज टहलने जाते, उसी समय में दो घण्टा नित्य पढ़ लेते। अनुष्ठान भी अपनी छोटी सी पूजा की कोठरी में चलता रहता।  

🔴 काँग्रेस के काम के स्थान पर लेखन कार्य को अब गति दे दी। अखण्ड ज्योति पत्रिका, आर्ष साहित्य का अनुवाद, धर्म तंत्र से लोकशिक्षण की रूपरेखा इन्हीं विषयों पर लेखनी चल पड़ी। पत्रिका अपनी ही हैंडप्रेस से छापते, शेष साहित्य दूसरी प्रेसों से छपा लेते। इस प्रकार ढर्रा चला तो, पर वह चिंता बराबर बनी रही कि अगले दिनों मथुरा में रहकर जो प्रकाशन का बड़ा काम करना है, प्रेस लगाना है, गायत्री तपोभूमि का भव्य भवन बनाना है, यज्ञ इतने विशाल रूप में करना है, जितना महाभारत के उपरांत दूसरा नहीं हुआ इन सबके लिए धन शक्ति और जन शक्ति कैसे जुटे? बोओ और काटो, उसे अब समाज रूपी खेत में कार्यान्वित करना था। सच्चे अर्थों में अपरिग्रही ब्राह्मण बनना था, इसी कार्यक्रम की रूपरेखा मस्तिष्क में घूमने लगीं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 72)

🌹 हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू

🔴 पूजा उपासना के बिना आत्मिक प्रगति कैसे हो सकती है। यह जानने के साथ- साथ हमें यह भी जानना चाहिए कि स्वास्थ्य, अध्ययन, चिन्तन, मनन की, बौद्धिक विकास की प्रक्रिया सम्पन्न किये बिना केवल कलम कागज के आधार पर लेख नहीं लिखा जा सकता। न कविताएँ बनाई जा सकती हैं। आन्तरिक उत्कृष्टता बौद्धिक विकास की तरह है और पूजा अच्छी कलम की तरह। दोनों का समन्वय होने से ही बात बनती है। एक को हटा दिया जाय तो बात अधूरी रह जाती है। हमने यह ध्यान रखा कि साधना की गाड़ी एक पहिए पर न चल सकेगी, इसलिए दोनों पहियों की व्यवस्था ठीक तरह  जुटाई जाय।   

🔵 हमने उपासना कैसे कि इसमें कोई रहस्य नहीं है। गायत्री महाविज्ञान में जैसा लिखा है उसी क्रम से हमारा गायत्री मन्त्र का सामान्य उपासन क्रम चलता रहा है। हाँ! जितनी देर तक भजन करने बैठे हैं, उतनी देर तक यह भावना अवश्य करते रहे हैं ब्रह्म की परम तेजोमयी सत्ता माता गायत्री का दिव्य प्रकाश हमारे रोम- रोम में ओत- प्रोत हो रहा है और प्रचण्ड अग्नि में पड़कर लाल हुए लोहे की तरह हमारा भौंड़ा अस्तित्व उसी स्तर का उत्कृष्ट बन गया है जिस स्तर का कि हमारा इष्टदेव है। शरीर के अणु- परमाणुओं में गायत्री माता का वर्चस्व समा जाने से काया का हर अवयव ज्योर्तिमय हो उठा अग्नि से इन्द्रियों की लिप्सा जल कर भस्म हो गयी, आलस्य आदि दुर्गुण नष्ट हो गये। रोग- विकारों को उस अग्नि ने अपने में जला दिया। 

🔴 शरीर तो अपना है, पर उसके भीतर प्रचंड ब्रह्मवर्चस लहरा रहा है, व वाणी में केवल सरस्वती ही शेष है। असत्य, छल और स्वाद के वह असुर उस दिव्य मंदिर को छोड़कर पलायन कर गये। नेत्रों में गुण ग्राहकता और भगवान् का सौन्दर्य हर जड़- चेतन में देखने की क्षमता भर शेष है। छिद्रान्वेषण, कामुकता जैसे दोष आँखों में नहीं रहे। कान केवल जो मंगलमय हैं उसे सुनते हैं। बाकी कोलाहल मात्र है जो श्रवणेन्द्रिय के पर्दे से टकरा कर वापस लौट जाता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...