शुक्रवार, 24 मई 2019

👉 उपासना को समग्र रूप में अपनायें- समुचित लाभ उठायें (भाग 3)

तादात्म्य अर्थात् भक्त और इष्ट की अंतःस्थिति का समन्वय एकीकरण। दूसरे शब्दों में ईश्वरीय अनुशासन के अनुरूप जीवनचर्या का निर्धारण। परब्रह्म तो अचिन्त्य है पर उपासना जिस परमात्मा की की जाती है वह आत्मा का ही परिष्कृत रूप है। वेदान्त दर्शन से सोऽहम्, शिवोऽहम्, तत्त्वमसि, अयमात्मा, ब्रह्म आदि शब्दों में अन्तःचेतना के उच्चस्तरीय विशिष्टताओं से भरे- पूरे उत्कृष्टताओं के समुच्चय को ही परमात्मा कहा गया है, उसके साथ ही मिलन का, तादात्म्य का स्वरूप तभी बनता है जब दोनों के मध्य एकता एकात्मता स्थापित हो। इसके लिए साधक अपने आपको कठपुतली की स्थिति में रखता है और अपने अवयवों में बंधे धागों को बाजीगर के हाथों सौंप देता है। दर्शकों को मन्त्र मुग्ध कर देने वाला खेल इस स्थापना के बिना बनता ही नहीं। आत्मा को परमात्मा की उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ अपनाने और तदनुरूप जीवनचर्या बनाने पर ही उपासना का समग्र लाभ मिलता है।

लकड़ी और अग्नि की समीपता का प्रतिफल प्रत्यक्ष है। गीली लकड़ी आग के समीप पहुँचते- पहुँचते अपनी नमी गँवाती और उस ऊर्जा से अनुप्राणित होती चली जाती है। जब वह अति निकट पहुँचती है तो फिर आग और लकड़ी एक स्वरूप जैसे हो जाते हैं। साधक को भी ऐसा ही भाव समर्पण करके ईश्वरीय अनुशासन के साथ अपने आपको एक रूप बनाना पड़ता है। चन्दन के समीप वाली झाड़ियों का सुगन्धित हो जाना, स्वाति बूँद के संयोग से सीप में मोती पैदा होना, पारस छूकर लोहे का स्वर्ण बनना, नाले का गंगा में मिलकर गंगाजल बनना, पानी का दूध में मिलकर उसी भाव बिकना, बूँद का समुद्र में मिलकर सुविस्तृत हो जाना जैसे अगणित उदाहरण हैं, जिनके आधार पर यह जाना जा सकता है कि भक्त और भगवान की एकता उपासना का स्तर क्या होना चाहिए। सृष्टि के आदि से अद्यावधि सच्चे भक्तों में से प्रत्येक को ईश्वर के शरणागत होना पड़ा है। आत्म समर्पण का साहस जुटाना पड़ा है।

इसका व्यावहारिक स्वरूप है ईश्वरीय अनुशासन को, उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व को अपनी विचारणा एवं कार्यपद्धति से अनुप्राणित करना। जो इस तत्व दर्शन को जानते, मानते और व्यवहार में उतारते रहे हैं उन सच्चे ईश्वर भक्तों को सुनिश्चित रूप से वे लाभ मिले हैं, जिन्हें उपासना की फल श्रुतियों के रूप में कहा जाता रहा है। पत्नी- पति को आत्म समर्पण करती है। अर्थात उसकी मर्जी पर चलने के लिए अपनी मनोभूमि एवं क्रिया पद्धति को मोड़ती चली जाती है। इस आत्म समर्पण के बदले वह पति के वंश, गोत्र, यश, वैभव की उत्तराधिकारिणी ही नहीं अर्धांगिनी भी बन जाती है। समर्पण विहीन कर्मकाण्ड तो एक प्रकार का वेश्या व्यवसाय या चिन्ह पूजा जैसा निर्जीव ढकोसला ही माना जाएगा। भक्त भगवान के अनुरूप चलता चला जाता है और अन्ततः नर नारायण, पुरुष- पुरुषोत्तम, भक्त भगवान की एक रूपता का स्वयं प्रमाण बनता है। देवात्माओं में परमात्मा स्तर की क्षमतायें ही उत्पन्न हो जाती हैं। इन्हें ही ऋद्धि- सिद्धियाँ कहते हैं।

.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आज का सद्चिंतन Jeevan Kaise Jiye


👉 प्रेरणादायक प्रसंग Bhagwaan Kaise MIlte Hai



👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 1)

लेखक की ओर से

जीवन रोगों के भार और मार से बुरी तरह टूट गया है। जब तन के साथ मन भी रोगी हो गया हो, तो इन दोनों के योगफल के रूप में जीवन का यह बुरा हाल भला क्यों न होगा? ऐसा नहीं है कि चिकित्सा की कोशिशें नहीं हो रही। चिकित्सा तंत्र का विस्तार भी बहुत है और चिकित्सकों की भीड़ भी भारी है। पर समझ सही नहीं है। जो तन को समझते हैं, वे मन के दर्द को दरकिनार करते हैं। और जो मन की बात सुनते हैं, उन्हें तन की पीड़ा समझ नहीं आती। चिकित्सकों के इसी द्वन्द्व के कारण तन और मन को जोड़ने वाली प्राणों की डोर कमजोर पड़ गयी है।

पीड़ा बढ़ती जा रही है, पर कारगर दवा नहीं जुट रही। जो दवा ढूँढी जाती है, वही नया दर्द बढ़ा देती है। प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में से प्रायः हर एक का यही हाल है। यही वजह है कि चिकित्सा की वैकल्पिक विधियों की ओर सभी का ध्यान गया है। लेकिन एक बात जिसे चिकित्सा विशेषज्ञों को समझना चाहिए, उसे नहीं समझा गया। समझदारों की यही नासमझी सारी आफतों- मुसीबतों की जड़ है। यह नासमझी की बात सिर्फ इतनी है कि जब तक जिन्दगी को सही तरह से नहीं समझा जाता, तब तक उसकी सम्पूर्ण चिकित्सा भी नहीं की जा सकती।

जीवन- तन और मन के जोड़ से कुछ अधिक है। इसमें अन्तर्भावना, अन्तर्चेतना एवं अन्तरात्मा जैसे अदृश्य आयाम भी हैं। शारीरिक अंगों की गठजोड़ को बायलॉजी पर आधारित मेडिकल साइन्स से समझा जा सकता है। मन की चेतना- अचेतन परतें साइकोलॉजी द्वारा पढ़ ली जाती है। पर अतिचेतन की इबारत कौन पढ़े? प्रारब्ध और संस्कारों का लेखा- जोखा कौर सम्हाले? ये गहरी बातें तो अध्यात्म विद्या से ही जानी- समझी जाती है। आध्यात्मिक दृष्टि से ही जीवन की यथार्थता और सम्पूर्णता पता चलती है। इस सम्पूर्णता के बलबूते की सम्पूर्ण चिकित्सा का विधान सम्भव है।

यही वजह है कि अध्यात्म विद्या, आध्यात्मिक दृष्टि एवं आध्यात्मिक चिकित्सा की जरूरत को आज सभी अनुभव कर रहे हैं। इस पुस्तक के लेखक के रूप में मैंने इन आध्यात्मिक सत्यों को जिया है, अनुभव किया है। युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव के सान्निध्य, साहचर्य एवं सेवा में जीवन के जो पल बीते है, वे अनिवर्चनीय अनुभूतियों एवं  उपलब्धियों से भरे रहे हैं। गुरुदेव अध्यात्म विद्या एवं अध्यात्म चिकित्सा के परम विशेषज्ञ थे। उनकी इस विशेषता के क्षितिज में आध्यात्मिक चिकित्सा की नित नयी आभा को बिखेरते- विकीर्ण होते हुए मैंने अपनी इन्हीं आँखों से देखा है।

कई अवसरों पर उन्होंने स्वयं मुझे अपने पास बैठाकर आध्यात्मिक चिकित्सा की सच्चाई को बताया और समझाया। उनके श्रीमुख से जो सूत्र उनके श्री चरणों में बैठकर जैसे सीखा, उसी को बताने की चेष्टा इस पुस्तक की पंक्तियों में की गयी है। इस पुस्तक में जो कहा गया है, वह न तो कई ग्रन्थों के अध्ययन का सार है और न शब्दों का ऐन्द्रजालिक गठजोड़। इसमें तो बस अपनी अनुभूतियों एवं उपलब्धियों को उदारता पूर्वक अपनों में बाँटने की चेष्टा की गई है। इस सच्चाई को पढ़ने वाले पुस्तक की प्रत्येक पंक्ति, शब्द में अनुभव करेंगे। पढ़ने वालों की इन अनुभूतियों में उनके स्वस्थ जीवन की उपलब्धि भी जुड़े, यही गुरुसत्ता से प्रार्थना है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 1,2

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 20)

GOD IS NOT VINDICTIVE
Misfortune occurs in life in a particular order and according to a well-defined process of divine justice, but people reconcile to their inevitability by believing in socalled “Wrath of God”, “God’s Will” or “Natural woeful state of this world”. As a matter of fact, God neither creates any good fortune nor misfortune for anybody, nor He/She (God is not gender-specific as a biological being) desires
to put anyone in distress. Nor is this world wholly full of woes. A spider gets confined and entangled in its own self-woven web. Similarly, man himself makes his mind vicious, undisciplined, corrupt and sinful and when the evil mind works to create a distressing situation, he weeps, wails and blames others- including God. Here it should be clearly understood that the fruits of Prarabdha are always received as abrupt unprecedented events. (e.g., unexpected death due to disease or accident, collapsing of a house, winning a jackpot, injury due to accident, accidental loss of limbs or cessation of vital functions of body.)

God does not involve other beings directly in enforcing divine justice for a couple of reasons. One: The person enforcing divine punishment on behalf of God would create resentment against his own self- thus beginning a chain of counter reaction between himself and the person being punished. It would increase turbulence of mind. Two: The enforcer would have to be unnecessarily involved in the complex process of cause-effect by committing undesired karmas and reaping their fruits.

Here, we may once again recapitulate the characteristics of Sanchit Karmas and Prarabdha Karmas. Whereas Sanchit Karmas bear fruits only on coming across a suitable environment or otherwise get destroyed in a counter environment, the Prarabdha Karmas invariably bear fruit, though it may take a period of several life cycles. The current activities being knowingly carried out are Prarabdha Karmas, whereas the unexpected, sudden happenings are the fruits of past Prarabdha Karmas. Any failure in life due to indolence is definitely not due to Prarabdha Karmas of the past. Unlike the Prarabdha Karmas, the physical Kriyaman Karmas (discussed hereafter) bear definite fruits within a short time.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 34

👉 अर्जुन को मात्र आँख दिखी:-

लक्ष्य के प्रति तन्मयता सच्चे साधक की विशेषता है। यह विचार एकीकरण का ही परिणाम है। द्रोणाचार्य ने प्रश्न किया- ''दुर्योधन ! सामने क्या दिखाई दे रहा है ?'' ''आकाश, वृक्ष, पत्तियाँ और चिडि़या जिस पर निशाना लगाना है। ''द्रोणाचार्य ने कहा-  ''तुम्हारा निशाना सही न लगेगा, बैठ जाओ। '' एक-एक करके सारे शिष्य असफल होते गये। अब अर्जुन का नम्बर आया। आचार्य ने वही प्रश्न दुहराया। अर्जुन ने कहा- '' गुरुदेव। मुझे पक्षी की आँख के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं देता।'' '' बाण चलाओ, आचार्य ने आदेश दिया। तीर सही ठिकाने पर जा लगा। द्रोणाचार्य ने शिष्यों को बताया, जिसे लक्ष्य के अतिरिक्त कुछ दिखाई न दे उसी की साधना सफल होती है।

प्रतिभाएँ परमात्मा की देन होती है- ऐसा माना जाता है। इसी कारण हजारों में एक वैज्ञानिक, दार्शनिक अथवा विषय विशेष का निष्णात प्रकाण्ड पण्डित बन जाता है। वस्तुत: परमपिता की यह कृपा बरसती सब पर एक साथ है, लाभ वे ही उठाते हैं जो अपने विचारों को रचनात्मक चिंतन एवं कर्तृत्व में नियोजित कर लेते हैं। महर्षि पतंजलि ने विचारों की एकाग्रता का महत्व समझा, उसे जीवन में उतारा एवं योगदर्शन के रूप में एक महान ग्रंथ मानवता को दे सके।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...