बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग ७

प्रेम का अमृत छिड़क कर शुष्क जीवन को सजीव बनाइये

संसार से ममता को हटा देने या संसार भर में ममता का विस्तार कर देने का एक ही अर्थ है। दोनों का तात्पर्य यह है कि थोडे ही दायरे में ममता को केंद्रीभूत न रहने दिया जाए वरन उसका उपयोग विस्तृत क्षेत्र में किया जाए। केवल अपने शरीर तक या स्त्री, संतान तक ममता का सीमित रहना पाप मूलक है। क्योंकि अन्य लोगों को विराना समझने से उनका शोषण करने की प्रवृत्ति बलवती होती है। जिससे अपना संबंध नहीं, उसकी हानि-लाभ में भी कोई दिलचस्पी नहीं रहती, ऐसी दशा में अपनों के लाभ के लिए विरानों को हानि पहुँचाने का अवसर आवे तो उसे करने में कोई झिझक या संकोच अनुभव नहीं होता। चोर यदि यह अनुभव करे कि जिसका माल रहा हूँ उसे जितना दुःख चोरी में मुझे होता है, उतना ही दुख होगा तो वह चोरी कैसे कर सकेगा? हत्यारा यदि अनुभव करे कि वध करते समय मुझे जितना कष्ट होता है, उतना ही उसे भी होगा तो उसकी छुरी कैसे किसी का गला कतरने में समर्थ होगी? आत्मीयता का अभाव ही सताने और शोषण करने की छूट देता है। अपनों के लिए तो त्याग और सेवा करने की इच्छा होगी। अपनी बीमारी को दूर न करने के लिए मनमाना पैसा खरच किया जा सकता है, यदि भाई को अपना मानते हैं तो उसकी बीमारी में सहायता किए बिना न रहा जाएगा। इस प्रकार पाप और पुण्य की प्रवृत्तियाँ भी इसी अहंता को सिकोड़ने और विस्तार करने पर निर्भर हैं। आप सदैव ही उद्योग करते रहिए कि अपना ' अहम ' सीमित न रहे वरन जितना हो सके, विस्तृत किया जाए।

आत्मभाव के विस्तार की सूक्ष्म मनोवृत्ति का व्यवहार उदारता में दर्शन किया जा सकता है। जिनके विचार और कार्य उदारता पूर्ण हैं, जो दूसरे लोगों की सुविधा का अधिक ध्यान रखते हैं, वास्तव में वे इस भूलोक के देवता हैं। अभागा कंजूस सोचता है कि सारी दौलत अपने लिए जोड़-जोड कर रख लू अपनी विद्या किसी पर न प्रकट करूँ, अपनी शक्तियों को किसी को मुफ्त न दूँ ऐसे लोग सर्प बनकर संपदाओं की चौकीदारी करते हुए मर जाते हैं, उन्हें वह आनंद जीवन भर उपलब्ध नहीं होता जो उदारता के द्वारा मिलता है। एक उदार व्यक्ति पड़ोसी के बच्चों को खिलाकर बिना खरच के उतना ही आनंद प्राप्त कर लेता है जितना कि बहुत खरच और कष्ट के साथ अपने बालकों को खिलाने में प्राप्त किया जाता है। अपने हँसते हुए बालकों को देखकर आपकी छाती गुदगुदाने लगती है। पडोसी के उससे भी सुंदर फूल से हँसते हुए बालक को देखकर आपके दिल की कली क्यूँ नहीं खिलती? अपनी फुलवारी को देखकर खुश होते हैं, पर पास में ही जो सुरभित उद्यान लहलहाते हैं वे आप मे तरंगें नहीं उत्पन्न करते? आपके आसपास अनेक सदाचारी, कर्त्तव्य परायण, मधुर स्वभाव वाले, धर्मात्मा, परोपकारी, विद्वान निवास कर रहे हैं, उनका होना आपको क्यों शांतिदायी नहीं होता? कारण यह कि आप खुद अपने हाथों अपनी एक निजी अलग दुनियाँ बसाना चाहते हैं, उसी से संबंध रखना चाहते हैं उसी की उन्नति को देखकर प्रसन्न होना चाहते हैं, यह काम शैतान के हैं। शैतान के कार्य आनंदप्रद नहीं हो सकते।

पुराणों की कथा है कि शंकरजी ने अपनी अलग सृष्टि रची और वे सर्प, बिच्छू भूत, पिशाच जैसे दुखदायी जंतुओं की रचना ही कर सके। एक आख्यान ऐसा है जिसके अनुसार विश्वामित्र ने भी अलग सृष्टि बसाई थी, यह रचना भी ऐसी भोंडी और बेहूदी रही। ईसाई धर्म में एक स्थल पर शैतान द्वारा अलग सृष्टि बनाने का वर्णन है। यह रचना उसके लिए अनेक कष्ट और विपत्तियों का कारण बनीं। आप उन दुखदायी स्मृतियों को पुन: दुहराने का प्रयत्न मत कीजिए।
 
आपका बेटा भीम जैसा बलवान, सूर्य जैसा तेजस्वी, वृहस्पति सा विद्वान, इंद्र सा पदारूढ़ बने तब प्रसन्नता होगी, आपकी पत्नी रति जैसी सुन्दर, सीता सी साध्वी, सरस्वती सी बुद्धिमान हो तब आपको प्रसन्नता होगी, ऐसी आशा करेंगे तो प्रसन्नता एक काल्पनिक वस्तु बन जाएगी जो कभी भी प्राप्त न हो सकेगी। अपनी अलग दुनियाँ मत बसाइए आनंद को किन्हीं अमुक व्यक्तियों तक ही बंधित मत रखिए। शैतानी करतूते छोड़िए और ईश्वर के उपासक बनिए। ईश्वर की पुण्य रचना एक से एक उत्तम, अनूठे, मधुर रत्न भरे पडे हैं, उनको मालिकी की दृष्टि से नहीं सरलता, सेवा और स्नेह की दृष्टि से अपना ही समझिए। ईश्वर आपका है, उसकी सुरम्य वाटिका भी विरानी नहीं है, उसे भी अपनी समझिए दूसरों के प्रति उदार दृष्टिकोण रखिए। पराएपन को अपनेपन में बदल दीजिए। खत्ती में मुट्ठी भर जी डाल कर आप भी साझी हो जाइए चारों ओर आनंददायक घटना और परिस्थितियों की बाढ आ रही है, शीतल जल के फव्वारे छूट रहे हैं, फिर आप क्यों प्यासे खड़े हैं? दूसरों की उन्नति अपनी उन्नति समझिए और बिना खरच का आनंद मनमानी मात्रा में लूटिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ १०

👉 भक्तिगाथा (भाग १०९)

कामनाएँ, अपेक्षाएँ हों तो वहाँ प्रेम नहीं

भक्ति में भीगा स्वर, भाव में भीगा हृदय, रव में डूबा नीरव, स्पन्द में स्पन्दित निस्पन्द, कुछ ऐसी ही विलक्षणता थी वहाँ। हिमालय के हृदयक्षेत्र में ऋषि कहोड़ के मुख से भक्ति की स्रोतस्विनी प्रवाहित हो रही थी। इसमें सभी भीग रहे थे, आनन्दित हो रहे थे। दिवस, रात्रि के आठों याम यहाँ के अणु-अणु में, कण-कण में भक्ति छलक रही थी, बिखर रही थी। ऋषि-महर्षि, देवों-गन्धर्वों की कौन कहे, यहाँ तो पशु-पक्षियों के प्राण भी, पवित्र-परिष्कृत भावों से अनुप्राणित थे। भावों की पुलकन-थिरकन यहाँ सब ओर, चहुँ ओर व्याप्त थी। हिमालय की महिमा यूं ही नहीं गायी जाती। हिमालय केवल बर्फ से ढके पाषाण शिखरों का जमघट भर नहीं है बल्कि यहाँ दैवी चेतना की दीप्ति है, पवित्र आध्यात्मिक ऊर्जा का अक्षयस्रोत है और अब तो यहाँ भक्ति का भाव अमृत भी सतत प्रवाहित हो रहा था जिसमें सभी के मन-प्राण सतत् स्नात हो रहे थे।

अभी भी सम्पूर्ण परिसर व परिकर में महर्षि कहोड़ के स्वर संव्याप्त हो रहे थे। अचानक ही इन स्वरों में जाने कहाँ से एक विशेष प्रकार की दिव्य सुगन्ध घुलने लगी। इसमें अलौकिक प्रकाश आपूरित होने लगा। इसी के साथ ओंकार के मद्धम नाद के अनुगुंजन इसमें गूंजने लगे। इन क्षणों में सब ने अनुभव किया कि उनके अन्तःकरण में अनजानी सी पुलक भर गयी है। स्वयं महर्षि कहोड़ को भी अपनी अन्तर्चेतना में अनोखी प्रसन्नता का अहसास हुआ। उन्होंने एक पल के लिए अपने नेत्र बन्द किए फिर दूसरे ही पल उन्होंने ऋषि वशिष्ठ एवं अन्य सप्तर्षियों की ओर देखा। उनके मुख को देखकर उन्हें ऐसा लगा जैसे कि उन सबको भी वही अनुभूति हो रही थी, जो ऋषि कहोड़ को हो रही थी।

इस अनोखे अनुभव से भावित होकर महर्षि कहोड़ अपने आसन से उठे और बड़े मन्द्र-मधुर स्वर में बोले- ‘‘हे परमभक्त सत्यधृति आप प्रकट हों, हम सभी आपका स्वागत करते हैं।’’ परमभक्त सत्यधृति के बारे में प्राचीन महर्षियों को तो पता था, कुछ ने उनका केवल नाम सुना था, परन्तु उनके दर्शन कम ही लोगों ने किए थे। ऋषि समुदाय में यदा-कदा इसकी चर्चा होती थी कि सत्यधृति भगवान नारायण के परम भक्त हैं। अब वे सत्यलोक में रहकर अपने महान तप व विशुद्ध भावों से प्रकृति में सत्त्व की अभिवृद्धि करते हैं। उनका कहना है कि सूक्ष्म व स्थूल प्रकृति में वास करने वाले जीवों के आचरण व व्यवहार से प्रकृति में रज व तम बढ़ा है जिससे जीवों के जीवन में विकृतियाँ प्रचुर मात्रा में बढ़ी हैं। इनका शमन केवल तभी सम्भव है जबकि प्रकृति में सतोगुण बढ़े।

भक्त सत्यधृति अपने निष्काम तप एवं शुद्ध भक्ति से इन दिनों यही कार्य कर रहे थे। उनके इस मौन कार्य को सभी की मुखर सराहना व संस्तुति प्राप्त थी। ऋषि वशिष्ठ एवं विश्वामित्र का तो कहना था कि भक्त सत्यधृति का कार्य सर्वथा युगान्तरकारी है। क्योंकि यही वह विधि है, जिससे जीवों की प्रकृति बदली जा सकती है। ऐसे परम भक्त का आगमन सभी को बहुत सुखकारी लगा। सभी ने उनकी अभ्यर्थना की, उन्हें आसन दिया। आसन पर बैठते ही उन्होंने सभी का अभिवादन व अभिनन्दन करते हुए ऋषि कहोड़ एवं देवर्षि नारद की ओर देखा और बड़ी विनम्रता से कहा- ‘‘आप सबकी, विशेष तौर पर आप दोनों की उपस्थिति हमें यहाँ खींच लायी है। देवर्षि जब अपने भक्तिसूत्र उच्चारित करते हैं, तो उनकी पराध्वनि की अनुगूंज सत्यलोक तक पहुँचती है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २१५

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...