मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

👉 दिल करीब होते हैं

एक हिन्दू सन्यासी अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी के तट पर नहाने पहुंचा. वहां एक ही परिवार के कुछ लोग अचानक आपस में बात करते-करते एक दूसरे पर क्रोधित हो उठे और जोर-जोर से चिल्लाने लगे. संयासी यह देख तुरंत पलटा और अपने शिष्यों से पूछा; “क्रोध में लोग एक दूसरे पर चिल्लाते क्यों हैं ?”

शिष्य कुछ देर सोचते रहे, एक ने उत्तर दिया, “क्योंकि हम क्रोध में शांति खो देते हैं इसलिए !” “पर जब दूसरा व्यक्ति हमारे सामने ही खड़ा है तो भला उस पर चिल्लाने की क्या ज़रुरत है, जो कहना है वो आप धीमी आवाज़ में भी तो कह सकते हैं”, सन्यासी ने पुनः प्रश्न किया.
कुछ और शिष्यों ने भी उत्तर देने का प्रयास किया पर बाकी लोग संतुष्ट नहीं हुए.

अंततः सन्यासी ने समझाया…
“जब दो लोग आपस में नाराज होते हैं तो उनके दिल एक दूसरे से बहुत दूर हो जाते हैं. और इस अवस्था में वे एक दूसरे को बिना चिल्लाये नहीं सुन सकते… वे जितना अधिक क्रोधित होंगे उनके बीच की दूरी उतनी ही अधिक हो जाएगी और उन्हें उतनी ही तेजी से चिल्लाना पड़ेगा.
क्या होता है जब दो लोग प्रेम में होते हैं ? तब वे चिल्लाते नहीं बल्कि धीरे-धीरे बात करते हैं, क्योंकि उनके दिल करीब होते हैं, उनके बीच की दूरी नाम मात्र की रह जाती है.”

सन्यासी ने बोलना जारी रखा,” और जब वे एक दूसरे को हद से भी अधिक चाहने लगते हैं तो क्या होता है ? तब वे बोलते भी नहीं, वे सिर्फ एक दूसरे की तरफ देखते हैं और सामने वाले की बात समझ जाते हैं.”


गुरुदेव का आशीर्वाद जिस जिस को मिला वो निहाल हो गया।
डॉ चिन्मय पंड्या
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https://youtu.be/3NaRdsNuyxU

👉 “गुरु कृपा चार प्रकार से होती है ।”

01 स्मरण से
02 दृष्टि से
03 शब्द से
04 स्पर्श से

जैसे कछुवी रेत के भीतर अंडा देती है पर खुद पानी के भीतर रहती हुई उस अंडे को याद करती रहती है तो उसके स्मरण से अंडा पक जाता है।
ऐसे ही गुरु की याद करने मात्र से शिष्य को ज्ञान हो जाता है।
यह है स्मरण दीक्षा।।

दूसरा जैसे मछली जल में अपने अंडे को थोड़ी थोड़ी देर में देखती रहती है तो देखने मात्र से अंडा पक जाता है।
ऐसे ही गुरु की कृपा दृष्टि से शिष्य को ज्ञान हो जाता है।
यह दृष्टि दीक्षा है ।।

तीसरा जैसे कुररी पृथ्वी पर अंडा देती है,
और आकाश में शब्द करती हुई घूमती है तो उसके शब्द से अंडा पक जाता है।
ऐसे ही गुरु अपने शब्दों से शिष्य को ज्ञान करा देता है।
यह शब्द दीक्षा है।।

चौथा जैसे मयूरी अपने अंडे पर बैठी रहती है तो उसके स्पर्श से अंडा पक जाता है।
ऐसे ही गुरु के हाथ के स्पर्श से शिष्य को ज्ञान हो जाता है।
यह स्पर्श दीक्षा है।।


गायत्री मंत्र की महत्ता
डॉ चिन्मय पंड्या
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https://youtu.be/0R0E7FMA1RA

👉 कैसे बनें दिव्यकर्मी और कैसे हों बंधनमुक्त दिव्यकर्मी कौन?:-

जिसकी समस्त वासनाएँ ज्ञान की अग्रि में जलकर भस्म हो गई हों, जो कार्य करते हुए कभी उत्तेजित न हो  तथा जिस कार्य को भी हाथ में ले उसे दिव्यता के शिखर पर ले जाए—श्री भगवान् के अनुसार वह पंडित है, ज्ञानी है, बुद्धिमान है।

जब संकल्प व्यष्टि से हटकर समष्टि से जुड़ जाते हैं, तो कामनारहित हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति सही अर्थों में साधक बन जाता है। मात्र वह ज्ञानी ही नहीं होता, अंदर- बाहर से पवित्रता से घनीभूत हो वह ईश्वर का सच्चापुत्र भी बन जाता है। ऐसे दिव्यकर्मी के विषय में, स्वयं प्रभु श्रीकृष्ण बीसवें श्लोक में कहते हैं—

‘‘ऐसा व्यक्ति सब प्रकार की कर्मफल आसक्ति छोड़कर सदैव प्रभु में तृप्त रहता है, प्रभु के अतिरिक्त किसी अन्य पर आश्रित न होकर वह सब प्रकार के कर्मों को करता हुआ भी वस्तुतः कुछ भी नहीं करता’’ (कर्म में अकर्म)। (कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः) ४/२०।

एक दिव्यकर्मी के विषय में भगवान् कह रहे हैं कि वह अपनी स्वाध्यायजनित समझ- बूझ के माध्यम से हर क्षण प्रभु में ही लीन होकर कार्य करता है। वह जो भी कार्य करता है, चूँकि उसकी उसके फल के प्रति आसक्ति नहीं है, वह करता हुआ भी उसे न करने वाला बन जाता है।

संत वस्तुतः ऐसे ही व्यक्तियों को कहा जाता है। इन्हें दुनिया में दुःखी दिखाई देते हैं। वे दुःखों के निवारण का प्रयास करते हैं। दूसरी ओर दुःखी भी वे ही होते हैं, जिनकी कामनाएँ अतृप्त होती हैं। उन्हें भोग- विलास में ही सब कुछ नजर आता है। हमारे पास यह सब साधन होते तो कितना अच्छा होता! यही सब सोच- सोचकर वे दुःखी होकर विकर्म कर बैठते हैं और फिर पाप के भागी बनते हैं।

📖 अखण्ड ज्योति -मार्च 1942


संसार क्या है और हम कैसा जीवन जिये?
डॉ चिन्मय पंड्या
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https://youtu.be/LerMVZHI8CE

👉 आज का सद्चिंतन 12 Feb 2019



यज्ञीय प्रक्रिया क्यों आवश्यक है
डॉ चिन्मय पंड्या
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https://youtu.be/YrtGh36pgwY

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 12 Feb 2019


गुरुदेव गायत्री माता को लोगो के हृदय में बैठाना चाहते थे।
डॉ चिन्मय पंड्या
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https://youtu.be/7mTA7K4TAiU

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 1 से 4

॥अथ प्रथमोSघ्याय:॥
    
लोककल्याण-जिज्ञासा प्रकरण
लोककल्याणकृद् धर्मधारणासंप्रारक: ।
व्रती यायावरो मान्यो देवर्षिऋषिसत्तम: ॥१॥
अव्याहतगतिं प्राप गन्तुं विष्णुपदं सदा ।
नारदो ज्ञानचर्चार्थं स्थित्वा वैकुण्ठसन्निधौं॥२॥    
लोककल्याणमेवायमात्मकल्याणवद् यत:।
मेने परार्थपारीण: सुविधामन्यदुर्लभाम् ॥३॥
काले काले गतस्तत्र स्मस्या: कालिकी मृशन् ।
मतं निश्चित्य स्वीचक्रे भाविनीं कार्यपद्धतिम् ॥४॥

टीका:- लोक कल्याण के लिए जन-जन तक धर्म धारणा का प्रसार-विस्तार करने का व्रत लेकर निरन्तर विचरण करने वाले नारद ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ गिने गये और देवर्षि के मूर्धन्य सम्मान से विभूषित हुए। एक मात्र उन्हीं को यह सुविधा प्राप्त थी किं कभी भी बिना किसी रोक-टोक विष्णुलोक पहुँचें और भगवान के निकट बैठकर अभीष्ट समय तक प्रत्यक्ष ज्ञानचर्चा करें। यह विशेष सुविधा उन्हें लोक-कल्याण को ही आत्म-कल्याण मानने की परमार्थ परायणता के कारण मिली? वे समय-समय पर भगवान् के समीप पहुँचते और सामयिक समस्याओं पर विचार करके तदनुरूप अपना मत बनाते और भावी कार्यक्रम निर्धारित करते॥१-४॥

व्याख्या:- परमार्थ में सच्ची लगन यदि किसी में हो तो उसे पुण्य अर्जन के अतिरिक्त आत्मकल्याण का लाभ मिलता हैं। ऐसे व्यक्ति दूसरों को तारते हैं, स्वयं अपनी नैया भी जीवन सागर में खेले जाते हैं।

नारद ऋषि को भगवान् की विशेष अनुकम्पा इसी कारण मिली कि उन्होंने परहित को अपना जीवनौद्दश्य माना। इसके लिए वे निरन्तर भ्रमण करते, जब चेतना जगाते व सत्परामर्श देकर लोगों को सन्मार्ग की राह दिखाते थे। ध्रुव, प्रह्लाद तथा पार्वती को अपने सामयिक मार्गदर्शन द्वारा उन्होंने लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर किया। इसी लोक परायणता ने उन्हें देवर्षि पद सें सम्मानित करवाया तथा भगवान् के सामीप्य का लाभ भी उन्हें मिला। चूँकि वे सतत् जन सम्पर्क में रहते थे व लोक-कल्याण में रत रहते थे, इसी कारण सामयिक जन समस्याओं के समाधान हेतु वे परामर्श-मार्गदर्शन हेतु प्रभु के पास पहुँचते थे व मार्गदर्शन प्राप्त कर अपनी भावी नीति का क्रियान्वयन करते थे ऐसे परमार्थ परायण व्यक्ति जहाँ भी होते हैं, सदैव श्रद्धा-सम्मान पाते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 5


!! यज्ञ किस भावना के साथ करे !!
डॉ चिन्मय पंड्या
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https://youtu.be/TiUc7lRYa78
 

👉 Self-confidence is the key to success

If you consider someone as happy and successful, then closely study the course of his life. If possible, ask him directly – ‘Have you never encountered any problems in your life?’ Then you will know that peace and prosperity have not been showered on him randomly from the sky. His life has also been tested and tried by difficulties and problems as yours is being tested now. When you realize this truth, again try to investigate – ‘Who liberated him from that web of distress?’ Did any magician come and wave his magic wand and all his problems vanished? On exploring deeply, you will find that it is his self-confidence that has been mainly helpful in overcoming the problems. When all the near and dear ones had left him alone, it was this self-confidence that assured him that there was hope and inspired him to resolutely go on trying against all odds.

Believe me! Your present problems are the result of your lack of will and self-confidence. You have accepted defeat without fight. You have developed a negative attitude that you cannot do anything; you cannot overcome the distress. You are finding darkness all around. There is no one to show you the light; there seems no way for you to get rid of the suffering. Now awaken your self-confidence, and with an optimistic attitude evaluate the resources at hand, though they might appear relatively meager, and try to utilize them to solve your problems. Within a short time you will find that the circumstances have started changing for the better; the hopelessness has turned into hope and failure has started turning into success.

📖 Pt. Shriram Sharma Acharya


आज हमारी मानवता किस दिशा में आगे बढ़ रही है
डॉ चिन्मय पंड्या
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https://youtu.be/CozPCrSnmtk

👉 कृष्ण के वरण की छूट

भगवान श्रीकृष्ण के पास दुर्योधनअर्जुन दोनों पहुँचे। महाभारत युद्ध पूर्व कौरव व पाण्डव दोनों ही कृष्ण को अपने पक्ष में करना चाहते थे। दुर्योधन पहले पहुँचे व अहंकारवश सो रहे श्रीकृष्ण के सिरहाने बैठ गये। बाद में अर्जुन आये व अपनी अहज श्रद्धा- भावना वश पैरों के पास बैठ गये। श्रीकृष्ण जागे। अर्जुन पर उनकी दृष्टि पडी। कुशल क्षेम पूछकर अभिप्राय पूछने ही जा रहे थे कि दुर्योधन बोल उठा- "पहले मैं आया हूँ, मेरी बात सुनी जाय। " श्रीकृष्ण असमंजस में पडे़। बोले- 'अर्जुन छोटे हैं इसलिए प्राथमिकता तो उन्हीं को मिलेगी, पर माँग तुम्हारी भी पूरी करुँगा। एक तरफ मैं हूँ, दूसरी तरफ मेरी विशाल चतुरंगिणी सेना। बोलो अर्जुन? तुम दोनों में से क्या लोगे?' चयन की स्वतन्त्रता थी-  यह विवेक पर निर्भर था, कौन क्या माँगता है- भगवत् कृपा अथवा उनका वैभव?

अर्जुन बोले- "भगवन्! मै तो आपको ही लूँगा। भले ही आप युद्ध न करें- बस साथ भर बने रहें। " दुर्योधन मन ही मन अर्जुन की इस मूर्खता पर प्रसन्न हुआ और श्रीकृष्ण की विशाल अपराजेय सेना पाकर फूला न समाया। अनीतिवादी दुर्योधन, ईश्वरीय समर्थन वाले अर्जुन जिसके पास श्रीकृष्ण भी निरस्त्र थे, से हारा ही नहीं महाभारत के युद्ध में बन्धु- बांधवों सहित मारा भी गया। दुर्योधन जैसे अनीति का चयन करने वाले एवं अर्जुन जैसे ईश्वरीय कृपा को वरण करने वाले तत्व हर मनुष्य के भीतर विद्यमान हैं- एक को विवेक या सुबुद्धि एवं दूसरे को अविवेक या दुर्बुद्धि कह सकते हैं। किसका चयन व्यक्ति करता है, यह उसकी स्वतन्त्रता है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग १


!! हम कठिनाइयों का घबराएँ नहीं उनका सामना करे
डॉ चिन्मय पंड्या
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https://youtu.be/F3iq2Zk3FSg

👉 अशुभ चिंतन छोड़िये-भय मुक्त होइये (भाग 1)

अपने कार्यकारी जीवन में लोग कई तरह की अशुभ आशंकाओं से आतंकित रहते हैं। रोजगार ठीक से चलेगा या नहीं, कहीं व्यापार में हानि तो नहीं हो जाएगी, नौकरी से हटा तो नहीं दिया जायेगा, अधिकारी नाराज तो नहीं हो जायेंगे जैसी चिन्ताएँ लोगों के मन मस्तिष्क पर हावी होने लगती हैं तो वह जो काम हाथ में होता है, उसे भी सहज ढंग से नहीं कर पाता। इन अशुभ आशंकाओं के करते रहने से मन में जो स्थाई गाँठ पड़ जाती है उसकी का नाम भय है।

भय का एक सामान्य रूप यह भी होता है कि अन्धेरे में जाते ही डर लगता है, अकेले यात्रा करने में किसी अनिष्ट की सम्भावना दिखाई देती है, रोगी होने बीमार पड़ने पर रोग के ठीक न होने तथा उसी के कारण मृत्युद्वार तह पहुँच जाने का डर रहता है। यह भी भविष्य के प्रति अशुभ आशंकाओं का ही छोटा रूप है। अँधेरे में जाते समय जी क्यों काँपने लगाता है? इसलिए कि आशंका होती है कहीं कोई कीड़ा-काँटा न बैठा हो या कोई भूत-प्रेत ही न पकड़ ले। अकेले यात्रा करने में भी चोर डाकुओं द्वारा सताये जाने, लूट लेने की आशंका ही डराती है। इस तरह के डर भी एक तरह से भविष्य के प्रति अशुभ आशंकाओं के परिणाम ही हैं।

इस तरह की आशंकाएँ स्वभाव बन कर भय के रूप में परिणत हो जाती हैं और इन आशंकाओं या भयों का एक ही कारण है- मन की दुर्बलता। भय और कुछ नहीं मन की दुर्बलता से उत्पन्न हुआ भूत ही है। इस सम्बन्ध में एक जापानी लोक कथा प्रचलित है। किसी व्यक्ति को एक डरावना जिन्न सताया करता था। वह जागता था तो जिन्न सामने खड़ा रहता था और उसे तरह-तरह से सताया करता था, सोता था तो सपने में डरावनी हरकतों से उसे परेशान करता था। एक दिन उसने हिम्मत कर जिन्न से पूछ ही लिया, ‘तुम कहाँ से आ गए हो? क्यों मुझे इतना सताते रहते हो? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1981 पृष्ठ 21

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1981/January/v1.21


यह राह नहीं फूलो की (गीत)
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https://youtu.be/QPFMNdsWlno

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...