बुधवार, 11 अगस्त 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ४८)

ईश्वर ज्वाला है और आत्मा चिंगारी

सूक्ष्म जीवों की दुनिया और भी विचित्र है। आंखें से न दीख पड़ने वाले प्राणी हवा में—पानी में तैरते हैं। मिट्टी में बिखरे पड़े हैं और शरीर के भीतर जीवाणुओं के रूप में विद्यमान हैं। जीवाणु एवं विषाणु विज्ञान क्षेत्र की खोज को कहीं से कहीं घसीटे लिये जा रहे हैं। शरीर-शास्त्री, चिकित्सा-शास्त्री हैरान हैं कि इन शूरवीरों की अजेय सेना को वशवर्ती करने के लिए क्या उपाय किया जाय? मलेरिया का मच्छर अरबों, खरबों की डी.डी.टी खाकर भी अजर-अमर सिद्ध हो रहा है तो रोगाणुओं, विषाणुओं जैसे सूक्ष्म सत्ताधारी सूक्ष्म जीवों का सामना क्यों कर हो सकेगा? सशस्त्र सेनाओं को परास्त करने के उपाय सोचे और साधन जुटाये जा सकते हैं, पर इन जीवाणुओं से निपटने का रास्ता ढूंढ़ने में बुद्धि हतप्रभ होकर बैठ जाती है। इन सूक्ष्म जीवों की अपनी दुनिया है। यदि उनमें से भी कोई अपनी जाति का इतिहास एवं क्रिया-कलाप प्रस्तुत कर सके तो प्रतीत होगा कि मनुष्यों की दुनिया उनकी तुलना में कितनी छोटी और कितनी पिछड़ी हुई है।

अभी रासायनिक पदार्थों का, यौगिकों का, अणुओं का, तत्वों का विज्ञान अपनी जगह पर अलग ही समस्याओं और विवेचनाओं का ताना-बाना लिये खड़ा है। सृष्टि के किसी भी क्षेत्र में नजर दौड़ाई जाय, उधर ही शोध के लिए सुविस्तृत क्षेत्र खड़ा हुआ मिलेगा। मनुष्य को प्रस्तुत जानकारियों पर गर्व हो सकता है, पर जो जानने को शेष पड़ा है वह उतना बड़ा है कि समग्र जानकारी मिल सकने की बात असम्भव ही लगती है। मनुष्य की तुच्छता का—उसकी उपलब्धियों की नगण्यता का तब बोध होता है जब थोड़े से मोटे-मोटे आधारों से आगे बढ़कर गहराई में उतरा जाता है या ऊंचाई पर चढ़ा जाती है।

ऊपर की पंक्तियां प्रकृति के जड़ पदार्थों और जीव कलेवरों के सम्बन्ध में थोड़ी-सी झांकी कराती हैं और बताती हैं कि यह प्रसार विस्तार कितना अधिक है और उसे समझ सकने में मानवी बुद्धि कितनी स्वल्प है। सृष्टि वैभव को भी अकल्पनीय, अनिर्वचनीय एवं अगम्य ही कहा जा सकता है। फिर उस परमेश्वर के स्वरूप, उद्देश्य एवं क्रिया-कलाप को समझ सकने की बात कैसे बने, जो इस सूक्ष्म, स्थूल, चल, स्थिर प्रकृति से भीतर ही नहीं बाहर भी हैं और यह सारा बालू का महल उसने क्रीड़ा विनोद के लिए रच कर खड़ा कर लिया है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ७६
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ४८)

भक्तों के वश में रहते हैं भगवान

भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं में ब्रजगोपिकाओं का अपना विशेष स्थान है। यूं तो ब्रज का प्रत्येक रज कण विशिष्ट है परन्तु ये रजकण जिनके चरणों के स्पर्श से विशेष हुए हैं, वे तो व्रज की गोपिगाएँ ही हैं। ये सदा-सदा कृष्ण की ही हैं। इन्हें लोक-परलोक, सुख-दुःख, हानि-लाभ, यश-अपयश सभी की तुलना में श्रीकृष्ण प्यारे हैं। श्रीकृष्ण के लिए वह सभी कुछ त्याग सकती हैं, उन्हें सभी कुछ दे सकती हैं। श्रीकृष्ण के लिए वह प्रत्येक कलंक-अपमान सहने के लिए तैयार हैं। वे बस ऐसी ही हैं, केवल श्रीकृष्ण की हैं वे, उन्हें उन परात्पर प्रभु के सिवा और कुछ भी, कभी भी, कहीं भी नहीं चाहिए।
    
अपनी इन विचार वीथियों में गुजरते हुए देवर्षि को कुछ पल लग गए। ब्रह्मर्षि क्रतु को अभी तक उनके उत्तर की प्रतीक्षा थी। यह प्रतीक्षा अन्यों को भी थी, पर अभी तक सबके सब मौन में खोए थे। इन सबकी स्थिति को देखकर देवर्षि नारद ने शान्त स्वर में कहा- ‘‘ब्रजगोपियों की भक्ति को शब्दों में नहीं उच्चारित किया जा सकता। कहाँ उनके महाभाव का अनन्त विस्तार और कहाँ शब्दों की अत्यल्प क्षमता फिर भी उनके भावों की अभिव्यक्ति के अनेक क्षणों का साक्षी रहा हूँ। इनमें से एक पल तो ऐसा भी है, जबकि स्वयं श्रीकृष्ण ने मुझे अपनी उस मधुर लीला का साक्षी बनाया था। अब सब सुनना चाहें तो मैं उसका वर्णन करुँ।’’ ‘‘अवश्य देवर्षि! अवश्य’’- कई स्वर एक साथ उभरे, अनेकों मुखों पर एक साथ सन्तुष्टि के भाव झलके।
    
इस दृश्य की अनुभूति करते हुए देवर्षि कह रहे थे- ‘‘भगवान द्वारिकाधीश ने उस दिन बीमार होने की लीला रची। उनकी बीमारी का समाचार सब ओर फैल गया। राजवैद्य, देववैद्य सभी ने नाड़ी देखी पर कोई भी किसी तरह रोग का निदान नहीं कर पा रहा था। क्या रोग है, किसी को कुछ पता न चला। तभी प्रभु ने मेरा स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही मैं वहाँ पहुँच गया। पहुँच कर देखा तो प्रभु श्रीकृष्ण पर्यंक पर लेटे हुए थे। मेरे पहुँचने पर उनके होंठो पर किंचित हास्य रेखा उभरी और विलीन हो गयी। उन अन्तर्यामी ने अपना मन्तव्य मुझे मन ही मन समझा दिया। मुझे समझ में आ गया कि अपने भक्तों का गर्वहरण करने वाले भगवान आज भक्ति का मर्म समझाना चाहते हैं।

भगवान के पलंग के पास रुक्मिणी, सत्यभामा आदि रानियाँ खड़ी थीं। उनके अपने सभी सगे स्वजन थे। मेरे पहुँचने पर सभी ने मुझसे पूछा- देवर्षि आप तो परम ज्ञानी हैं। आप ही भगवान की इस बीमारी का कोई उपाय सुझाएँ। मैंने एक बार श्रीकृष्ण की ओर देखा फिर मन ही मन हँसते हुए कहा- प्रभु की बीमारी तो कठिन है परन्तु इसका उपाय बहुत सुगम है। आप में से कोई भी थोड़ी सी भी इच्छा करने पर इन्हें ठीक कर सकता है। मेरी बातें सुनकर सबके सब अचरज में पड़ गए और कहने लगे कि आखिर ऐसा क्या है? यदि उपाय इतना सहज है तो अवश्य बताएँ। वैसे यदि उपाय कठिन भी हो तो भी हम इसे अवश्य करेंगे?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ९०

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...