शनिवार, 25 दिसंबर 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग ९७)

कुसंग की तरंग बन जाती है महासमुद्र

‘‘हे महर्षि! इसे आवश्य कहें। आपके मुख से सुनकर हम सभी भक्ति के नवीन तत्त्व को जान सकेंगे।’’ महर्षि पुलह ये यह अनुरोध सभी ने लगभग एक साथ किया। महर्षि पुलह ने यह सुनकर एक बार अंतरिक्ष की ओर देखा फिर अपने मनःआकाश में लीन हो गए। सम्भवतः वह अपने स्मृतिकोश में कुछ खोज रहे थे। कुछ पलों की इस चुप्पी के बाद वे मुधर स्वर में बोले— ‘‘यह घटना श्रेष्ठकुल में उत्पन्न ब्राह्मणकुमार अजामिल की है। अजामिल अचारवान ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुआ था। उसने बचपन से ही त्रैकालिक संध्यावंदन के साथ गायत्री महामंत्र का जप करना सीखा था। संभवतः यह दैव कोप था कि उउसे सात्त्विक संस्कार देने वाले उसके पिता का देहावसान हो गया था। माता का निधन पहले ही उसके जन्म के समय हो गया था। पिता के इस असमय निधन ने अजामिल को अकेला कर दिया।

हालांकि पिता के इस निधन के बावजूद अजामिल ने अपनी साधना एवं अध्ययन को बरकरार रखा। यदा-कदा वह मेरे पास भी आया करता था। उन दिनों मैं उसी के गाँव के पास से गुजरने वाली नदी के तट पर कुटिया बनाकर साधना कर रहा था। मेरी मुलाकात उन दिनों यद्यपि किसी से नहीं होती थी, फिर भी मैं इस संस्कारवान ब्राह्मण बालक से मिलने के लिए समय निकाल लेता था। किशोर से तरुणाई की ओर अग्रसर अजामिल भी मेरे पास आकर प्रसन्न होता था। उसके मन में अनेक सात्त्विक जिज्ञासाएँ अंकुरित होती थी, जिनका मैं अपने विवेक के अनुसार समाधान कर दिया करता था, हालांकि इस सबके बीच यदा-कदा उसमें भावनात्मक पीड़ा के अंकुर फूटते थे। इस अंकुरण पर मैंने उसे कई बार सचेत किया- पुत्र! अपनी भावुकता और भावनात्मक पीड़ा को भक्ति में रूपान्तरित कर लो, अन्यथा तुम्हारा जीवन दिशा भटक सकता है।

मेरे इस कथन को वह अपने आचरण में न ढाल सका। इसी बीच उसके गाँव में चन्द्रलेखा नाम की नर्तकी का आगमन हुआ। वह नर्तकी कई महीनों तक उस गाँव में रही। प्रारम्भ में तो अजामिल उससे सर्वथा दूर बना रहा, परन्तु उसके युवा मित्र उसे बार-बार समझाते रहे- आखिर एक बार चलकर उसका नृत्य देखने क्या बुराई है, इससे तुम्हारी उदासी शांत होगी। तुम्हारी भावनात्मक पीड़ा में मरहम लगेगा। कुछ मित्रों का दबाव और कुछ भावोद्वेग, इन सभी से विवश होकर अजामिल ने यह बात मान ली और अंततः संस्कारवान, कुलीन, वेदपाठी ब्राह्मणकुमार अजामिल को कुसंग की उस लघु लहर ने छू लिया। रूप-यौवन से सम्पन्न चन्द्रलेखा के सम्मोहपाश में अजामिल अचानक कब बँधा, उसे स्वयं भी पता न चला।

लावण्यमयी चन्द्रलेखा भी उस तपस्वी ब्राह्मणकुमार अजामिल से सम्मोहित हुए बिना न रह सकी। उसने स्वयं बढ़कर अजामिल का हाथ थामा। अजामिल भी अब प्रायः हर दिन उसके नृत्य आयोजनों में जाने लगा। घुँघरू की रुन-झुन, तबले की तिरकिट-धिन में अजामिल के अनुष्ठान विलीन होने लगे। चन्द्रलेखा के सम्मोहन-पाश में बँधा अजामिल उसी को अपना सब कुछ मानने लगा। चन्द्रलेखा भी उसे भाँति-भाँति से रिझाने लगी। इसी क्रम में कुसंग की छोटी सी तरंग अब महासागर का रूप धरने लगी। वेद की ऋचाओं का सस्वर पाठ करने वाला अजामिल अब प्रेम के गीत गाने लगा। उसकी सम्पूर्ण चेतना इस महासमुद्र में डूबने लगी।

उसे अब कोई होश न था। कुछ की मर्यादाएँ विलीन हो चुकी थीं। नित्य का संध्यावंदन, गायत्री अर्चन कब और किस तरह से छूटा, पता ही न चला। उसकी स्वयं की स्थिति एक मूर्च्छित व्यक्ति की भाँति हो गइ। चन्द्रलेखा के मोहपाश से उमड़े कुसंग के महासागर में उसका सम्पूर्ण आध्यात्मिक वैभव डूब गया। अब तो वह सब कुछ भुलाकर चन्द्रलेखा के साथ ही रहने लगा। उसका नृत्य, उसकी गीत ही उसके लिए सब कुछ हो गए। हे ऋषिगण! यह मैंने स्वयं देखा है कि किस तरह कुसंग की तरंग ने धीरे-धीरे महासमुद्र का रूप धर कर सकी आध्यात्मिक चेतना को निगल लिया। वह महामाया के इस उफनते सागर को पार न कर सका, परन्तु चेतना की परतों में सम्भवतः अभी कुछ और छिपा था, जिसे अभी प्रकट होना था।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १८३

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