मंगलवार, 29 मार्च 2022

👉 आध्यात्मिक शिक्षण क्या है? भाग 7

लेकिन हाय रे अभागे लोग! जिनको हम केवल कर्मकाण्ड सिखाते रहे और यह सिखाते रहे कि चावल फेंकते रहना, रोली फेंकते रहना, धूप जलाते रहना, फूल चढ़ाते रहना और चंदन चढ़ाते रहना। लेकिन चंदन जैसे सुगंधित जीवन जीने का ख्याल नहीं आया। चंदन हमने सिर पर लगाया था तो जरूर, पर कभी यह ख्याल नहीं आया कि चंदन जैसा जीवन जियें। सारे मस्तक को हम चंदन से लेप लेते हैं, लेकिन यह कभी नहीं सोचते कि तेरी जैसी उपमा, तेरे जैसा जीवन बनाने का शिक्षण हमारे मस्तिष्क को दे।

सुगंध से भरा हुआ चंदन, साँप को छाती से लपेटे रहने वाला चंदन, आस पास उगे हुए छोटे छोटे पौधों को अपने समान बनाने वाला चंदन, घिसे जाने पर भी सुगंध फैलाने वाला चंदन, जलाये जाने पर भी सुगंध देने वाला चंदन, क्या मजाल कि उसे गुस्सा आ जाय। चंदन, हम तो तुम्हें जलायेंगे। जला लो, पर मुझमें तो सुगंध निकलेगी। लेकिन सुगंध न निकली तब? गालियाँ दीं तब? चंदन कहता है कि ऐसा होना बड़ा कठिन है। मैं कैसे गालियाँ दूँगा। गालियाँ मेरे पेट में हैं कहाँ? मेरे पेट में तो केवल सुगंध है। चंदन को हम जलाते रहे, गालियाँ देते रहे और चंदन खुशबू फैलाता रहा। उसको गुस्सा कहाँ आया? उसके मन में क्रोध कहाँ आया? उसके मन में ईर्ष्या कहाँ आई?

मित्रो! ईसा को फाँसी पर चढ़ाया गया। उन्होंने कहा कि ये लोग नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं? हे परमपिता परमात्मा! इन्हें क्षमा करना। ईसामसीह उनके लिए क्षमा की भीख माँगते रहे और उन्हें सूली पर टाँगा जाता रहा। खून टपकता रहा और कीलें गाड़ी जाती रहीं। चंदन जैसे हड्डियों को निचोड़ा जाता रहा। चंदन को भी पत्थर पर घिसा जा रहा था। हमने उस चंदन से पूछा कि तुम्हें दर्द नहीं होता। चंदन ने कहा कि यह तुम्हारा काम है और वह तुमको मुबारक हो।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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सोमवार, 28 मार्च 2022

👉 आध्यात्मिक शिक्षण क्या है? भाग 6

मित्रो! भावनाओं से भरी हुई, भावनाओं से रंगी हुई जब कभी भी आपकी जिंदगी होगी, तब रामकृष्ण परमहंस की तरह से आपको सर्वत्र काली नजर आयेगी। मीरा की तरह से एक छोटे वाले पत्थर में आपको भगवान नजर आयेगा तब मीरा दस बारह साल की एक छोटी बच्ची थी। एक बाबा जी आये थे। उससे उसने कहा कि हमको भगवान् के दर्शन करा दीजिए। मीरा ने कहा कि भगवान् मिलेगा? महात्मा जी ने कहा कि हाँ, मिल जायेगा। तो हमको भी दर्शन करा दीजिए।

बाबा जी ने अपने झोले में से पत्थर का एक बड़ा सा टुकड़ा निकाला, जो हाथ से छेनी द्वारा तराशा गया था। ऐसा भी चिकना नहीं था, जैसी कि मूर्तियाँ मिलती हैं। गोल सफाचट पत्थर को खोदकर मूर्ति बना दी गयी थी। बाबा जी ने वही मूर्ति मीरा के हाथ में थमा दिया। उसने कहा कि ये कौन हैं? ये तो भगवान् हैं। तो इन भगवान् को मैं क्या मानूँ? उन्होंने कहा कि जो तेरे मन में आये, मान सकती है।

मीरा ने कहा कि मेरे ब्याह शादी की जिरह चल रही है। मैं इनसे ब्याह कर लूँ तो? बाबा ने कहा कि कर लो। फिर तो वह तुम्हारा पति हो जायेगा तेरा भगवान्। बस मीरा का पति हो गया भगवान्। उस गोल वाले पत्थर के टुकड़े को लेकर गिरिधर गोपाल मानकर के मीरा जब घुँघरू पहन करके नाचती थी और जब गीत गाती थी, तो भगवान् का कलेजा गीत में बस जाता था और मीरा का हृदय गीत गाता था।

मित्रो! यह भावनाओं से भरी उपासना जब कभी भी आपके जीवन में आयेगी, तब भगवान् आयेगा और भगवान एवं भक्त दोनों तन्मय हो जायेंगे, तल्लीन हो जायेंगे।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 आत्मचिंतन के क्षण 28 March 2022

विचारशीलता ही मनुष्य की एकमात्र निधि है। इसी आधार पर उसने उच्च स्थान प्राप्त किया है। इस शक्ति का दुरुपयोग होने लगे तो जितना उत्थान हुआ है, उतना ही पतन भी संभव है। बुद्धि दुधारी तलवार है। वह सामने वाले को भी मार सकती है और अपने को काटने के लिए भी प्रयुक्त हो सकती है। उच्च स्थिति पर पहुँचा हुआ मनुष्य अपने उत्तरदायित्वों को न पहचाने, अपने कर्त्तव्य, कर्म के प्रति आस्थावान् न रहे तो वह अपनी विशेष स्थिति के कारण संसार का भारी अहित करने और भारी अव्यवस्था उत्पन्न करने का कारण बन सकता है।

मनुष्य का जीवनकाल बहुत थोड़ा होता है, किन्तु कामनाओं की कोई सीमा नहीं। इच्छाएँ कभी पूर्ण नहीं होतीं। भोगों से आज तक कभी आत्म- संतुष्टि नहीं मिली, फिर इन्हीं तक अपने जीवन को संकुचित कर डालना बुद्धिमानी की बात नहीं है। मनुष्य जीवन मिलता है देश, धर्म, जाति और संस्कृति के लिए। बहुत बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह शरीर मिला है। हमें यह बात खूब देर तक विचारनी चाहिए और उस लक्ष्य को पूरा करने के लिए तपने, गलने और विस्तृत होने की परम्परा डालनी चाहिए।

मन को-मस्तिष्क को अस्त-व्यस्त उड़ानें उड़ने की छूट नहीं देनी चाहिए। शरीर की तरह उसे भी क्रमबद्ध और उपयोगी चिंतन के लिए सधाया जाना चाहिए। कुसंस्कारी मन जंगली सुअर की तरह कहीं भी किधर भी दौड़ लगाता रहता है। शरीर भले ही विश्राम करे पर मन तो कुछ सोचेगा ही। यह सोचना भी शारीरिक श्रम की तरह ही उत्पादक होता है। समय की बर्बादी की तरह ही अनुपयोगी और निरर्थक  चिंतन भी हमारी बहुमूल्य शक्ति को नष्ट करता है। दुष्ट चिंतन तो आग से खेलने की तरह है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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रविवार, 27 मार्च 2022

👉 आध्यात्मिक शिक्षण क्या है? (भाग 5)

कौन मना करेगा? कोई नहीं करेगा। खिला हुआ फूल बीबी के हाथ में रख दिया जाय, तो बीबी मना करेगी क्या? नाक से लगाकर सूँघेगी छाती से लगा लेगी और कहेगी कि मेरे प्रियतम ने गुलाब का फूल लाकर के दिया है। मित्रो! फूल को हम क्या करते हैं? उस सुगंध वाले फूल को हम पेड़ से तोड़कर भगवान् के चरणों पर समर्पित कर देते हैं और कहते हैं कि हे परम पिता परमेश्वर! हे शक्ति और भक्ति के स्रोत! हम फूल जैसा अपना जीवन तेरे चरणारविन्दों पर समर्पित करते हैं। यह हमारा फूल, यह हमारा अंतःकरण सब कुछ तेरे ऊपर न्यौछावर है।

हे भगवान्! हम तेरी आरती उतारते हैं और तेरे पर बलि बलि जाते हैं। हे भगवान्! तू धन्य है। सूरज तेरी आरती उतारता है, चाँद तेरी आरती उतारता है। हम भी तेरी आरती उतारेंगे। तेरी महत्ता को समझेंगे, तेरी गरिमा को समझेंगे। तेरे गुणों को समझेंगे और सारे विश्व में तेरे सबसे बड़े अनुदान और शक्ति प्रवाह को समझेंगे। हे भगवान्! हम तेरी आरती उतारते हैं, तेरे स्वरूप को देखते हैं। तेरा आगा देखते हैं, तेरा पीछा देखते हैं, नीचे देखते हैं। सारे मुल्क में देखते हैं। हम शंख बजाते हैं। शंख एक कीड़े की हड्डी का टुकड़ा है और वह पुजारी के मुखमंडल से जा लगा और ध्वनि करने लगा। दूर दूर तक शंख की आवाज पहुँच गयी। हमारा जीवन भी शंख की तरीके से जब पोला हो जाता है।

इसमें से मिट्टी और कीड़ा जो भरा होता है, उसे निकाल देते हैं।जब तक इसे नहीं निकालेंगे, वह नहीं बजेगा मिट्टी को निकाल दिया, कीड़े को निकाल दिया। पोला वाला शंख पुजारी के मुख पर रखा गया और वह बजने लगा। पुजारी ने छोटी आवाज से बजाया, छोटी आवाज बजी। बड़ी आवाज से बजाया, बड़ी आवाज बजी। हमने भगवान् का शंख बजाया और कहा कि मैंने तेरी गीता गाई। भगवान्! तूने सपने में जो संकेत दिये थे, वह सारे के सारे तुझे समर्पित कर रहे हैं। शंख बजाने का क्रियाकलाप मानव प्राणियों के कानों में, मस्तिष्कों में भगवान् की सूक्ष्म इच्छाएँ आकांक्षाएँ फैलाने का प्रशिक्षण करता है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 आत्मचिंतन के क्षण 27 March 2022

‘खाली मस्तिष्क शैतान की दुकान’ की कहावत सोलह आने सच है। जो फालतू बैठा रहेगा, उसके मस्तिष्क में अनावश्यक और अवांछनीय बातें घूमती रहेंगी और कुछ न कुछ अनुचित, अनुपयुक्त करने तथा उद्विग्न, संत्रस्त रहने की विपत्तियाँ मोल लेगा। लेकिन जो व्यस्त है, उसे बेकार की बातें सोचने की फुरसत ही नहीं, गहरी नींद भी उसी को आती है, कुसंग और दुर्व्यसनों से भी वही बचा रहता है। जो मेहनत से कमाता है, उसे फिजूलखर्ची भी नहीं सूझती। इस प्रकार परिश्रमी व्यक्ति अनेक दोष-दुर्गुणों से बच जाता है।

विश्वास  रखिए दुःख का अपना कोई मूल अस्तित्व नहीं होता। इसका अस्तित्व मनुष्य का मानसिक स्तर ही होता है। यदि मानसिक स्तर योग्य और अनुकूल है तो दुःख की  अनुभूति या तो होगी ही नहीं और यदि होगी तो बहुत क्षीण। तथापि, यदि आपको दुःख की अनुभूति सत्य प्रतीत होती है, तब भी उसका अमोघ उपाय यह है कि उसके विरुद्ध अपनी आशा, साहस और उत्साह के प्रदीप जलाये रखे जायें। अंधकार के  तिरोधान और प्रकाश के अस्तित्व से बहुत से अकारण भय हो जाता है।

दूसरों के प्रति बैर भाव रखने से मानस क्षेत्र में उत्तेजना और असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। हम जिन व्यक्तियों को शत्रु मानते हुए उनसे घृणा करते हैं, उन्हें याद कर अपने ऊपर हावी कर लेते हैं। गुप्त मन में उन वस्तुओं, व्यक्तियों या शत्रुओं के प्रति भय बना रहता है। मानसिक जगत् में निरन्तर बैर और शत्रुता का भाव बना रहने से हमारे स्वास्थ्य पर दूषित प्रभाव पड़ता है। शत्रु भाव हमारी भूख बंद कर देता है-नींद हराम कर देता है। फल यह होता है कि हमारा स्वास्थ्य और प्रसन्नता सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं। हम जीवित रहकर भी दुर्भावनाओं के कारण नरक की यातनाएँ भोगते हैं।

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गुरुवार, 24 मार्च 2022

आध्यात्मिक शिक्षण क्या है? भाग 4

मित्रो! हमने दीपक जलाया और कहा कि ऐ दीपक! जल और हमको भी सिखा। ऐ कम हैसियत वाले दीपक, एक कानी कौड़ी की बत्ती वाले दीपक, एक छटाँक भर तेल लिए दीपक, एक मिट्टी की ठीकर में पड़े हुए दीपक! तू अंधकार में प्रकाश उत्पन्न कर सकता है। मेरे जप से तेरा संग ज्यादा कीमती है। तेरे प्रकाश से मेरी जीवात्मा प्रकाशवान हो, जिसके साथ में खुशियों के इस विवेक को मूर्तिवान बना सकूँ। शास्त्रों में बताया गया है तमसो मा ज्योतिर्गमय’’। ऐ दीपक! हमने तुझे इसलिए जलाया कि तू हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चले तमसो मा ज्योतिर्गमय अंतरात्मा की भूली हुई पुकार को हमारा अंतःकरण श्रवण कर सके और इसके अनुसार हम अपने जीवन को प्रकाशवान बना सकें।

अपने मस्तिष्क को प्रकाशवान बना सकें।दीपक जलाने का यही उद्देश्य है। सिर्फ भावना का ही दीपक जलाना होता, तो भावना कहती कि दीपक जला लीजिए तो वही बात है, मशाल जला लीजिए तो वही बात है, आग जला लीजिए तो वही बात है। स्टोव को जला लीजिए, बड़ी वाली अँगीठी, अलाव जलाकर रख दीजिए। इससे क्या बनने वाला है और क्या बिगड़ने वाला है? आग जलाने से भगवान् का क्या नुकसान है और दीपक जलाने से भगवान् का क्या बनता है? अतः ऐ दीपक! तू हमें अपनी भावना का उद्घोष करने दे।

साथियो! हम भगवान् के चरणारविन्दों पर फूल चढ़ाते हैं। हम खिला हुआ फूल, हँसता हुआ फूल, सुगंध से भरा हुआ फूल, रंग बिरंगा फूल ले आते हैं। इसमें हमारी जवानी थिरक रही है और हमारा जीवन थिरक रहा है। हमारी योग्यताएँ प्रतिभायें थिरक रही हैं। हमारा हृदयकंद कैसे सुंदर फूल जैसे है। उसे जहाँ कहीं भी रख देंगे, जहाँ कहीं भी भेज देंगे, वहीं स्वागत होगा। उसे कुटुम्बियों को भेज देंगे, वे खुश। जब लड़का कमा कर लाता है। आठ सौ पचास रुपये कमाने वाला इंजीनियर पैसा देता है, तो सोफासेट बनते हुए चले जाते हैं। माया घर में आती हुई चली जाती है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 आत्मचिंतन के क्षण 24 March 2022

इस तथ्य को हमें हजार बार समझना चाहिए कि मनुष्य हाड़-मांस का पुतला नहीं है। वह एक चेतना है। भूख चेतना की भी होती है। विषाक्त आहार से शरीर मर जाता है और भ्रष्ट चिंतन से आत्मा की दुर्गति होती है। प्रकाश न होगा तो अंधकार का साम्राज्य ही होना है। सद्ज्ञान का आलोक बुझ जाएगा तो अनाचार की व्यापकता बढ़ेगी ही। भ्रष्ट चिंतन और दुष्ट कर्तृत्व का परिणाम व्यक्ति और समाज की भयानक दुर्दशा के रूप में सामने आ सकता है।

जो व्यक्ति कठिनाइयों या प्रतिकूलताओं से घबड़ाकर हिम्मत हार बैठा, वह हार गया और जिसने उनसे समझौता कर लिया, वह सफलता की मंजिल पर पहुँच गया। इस प्रकार हार बैठने, असफल होने या विजयश्री और सफलता का वरण करने के लिए और कोई नहीं, मनुष्य स्वयं ही उत्तरदायी है। चुनाव उसी के हाथ में है कि वह सफलता को चुने या विफलता को। वह चाहे तो कठिनाइयों को वरदान बना सकता है और चाहे तो अभिशाप भी।

विनोद वृत्ति जहाँ स्वस्थ चित्त की द्योतक है, वहीं बात-बात पर व्यंग्य करने की प्रवृत्ति हीन भावना एवं रुग्ण मनःस्थिति का परिणाम है। हास-परिहास स्वस्थ होता है, किन्तु दूसरों का उपहास सदा कलहकारी एवं हानिकर होता है। खिल्ली उड़ाना तथा विनोद करना दो सर्वथा भिन्न प्रवृत्तियाँ हैं। खिल्ली उड़ाने वाली प्रवृत्ति प्रारंभ में भले ही रोचक  प्रतीत हो, किन्तु उसका अंत सदा आपसी दरार, तनाव और कटुता में होता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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मंगलवार, 22 मार्च 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १५

अपने सदगुणों को प्रकाश में लाइए

सद्गुणों की मनुष्य में कमी नहीं है, जिसे बुरा या दुर्गुणी कहते हैं वह बेशक देव श्रेणी के सुसंस्कृत मनुष्यों से सात्विक गुणों में पीछे है तो भी यथार्थ में ऐसी बात नहीं है, वह बिलकुल बुरा ही हो। निष्पक्ष रीति से यदि उसकी मनःस्थिति का परीक्षण किया जाए तो बुराइयों की ही अधिक मात्रा उसमें न मिलेगी। चौरासी लाख योनियों को पार करता हुआ जो प्राणी मुक्ति के अंतिम प्रवेश द्वार पर आ खड़ा हुआ है वह उतना घृणित नहीं हो सकता जितना कि समझा जाता है। जो विद्यार्थी एम० ए० के प्रथम वर्ष में है, कॉलेज की सर्वोच्च डिग्री प्राप्त करने में जिसे केवल एक ही वर्ष और लगाना शेष रह गया है, क्या आप उसे अशिक्षित, बेपढ़ा -लिखा कहेंगे? आवेश में चाहे जो कह सकते हैं पर शांत अवस्था में यह मानना पडेगा कि इतना अधिक परिश्रम करने के उपरांत इतनी कक्षाओं को उत्तीर्ण करता हुआ जो छात्र एम० ए० के प्रथम वर्ष में है वह पढ़ा है, विद्यावान है।
संभव है आप अपने को, दुर्गुणी अनुभव रहित, अल्पज्ञ, अशक्त या ऐसे ही अन्य दोषों युक्त समझते हैं, दूसरे लोग जब आपका मजाक उडाते हैं मूर्ख बताते हैं विश्वास नहीं करते, नाक- भौं सिकोड़ते है, सहयोग नहीं करते और बार-बार यह कहते हैं कि अभागे हैं, बेवकूफ हैं। नहीं, सदा असफल ही रहेंगे, तो संभव है कि आपका मन बैठ जाता हो और सोचते हों कि इतने लोगों का कहना क्या झूँठ थोडे ही होगा, हो सकता है कि मैं ऐसा ही होऊँ। पिछली अपनी दों-चार असफलताओं की ओर जब ध्यान जाता होगा और उन घटनाओं को लोगों के कथन से जोडकर देखते होंगे तो संभव है मन में यह बात और भी बैठ जाती हों कि हम अशक्त हैं, अल्प बुद्धि हैं, ' सद्गुणों से रहित हैं, हमें इस जीवन में कोई सफलता नहीं मिल सकती।
 
ऐसा भी है कि जब आत्मनिरीक्षण करने बैठते हैं तो विजातीय तत्त्वों पर ही पहले दृष्टि जाती है। किसी प्रीतिभोज में पाँच सौ सभ्य सज्जन उपस्थित हों और उसी में दो उजड्ड शामिल हो जाएँ तो देखने वालों का ध्यान उन उजड्डों की तरफ अधिक आकर्षित होगा। उनकी बेढंगी हरकतें बहुत बुरी लगेंगी, पाँच सौ सभ्य आदमियों की सज्जनता की ओर विशेष ध्यान न जाएगा पर उन दो की करतूतें स्मृति पटल पर गहरी जम जाएँगी। प्रीतिभोज में अनेक सुस्वादिष्ट सामान हों पर हलुआ में मिर्चें गिर पड़ने से उसका स्वाद बिगड़ गया हो तो अनेक सुस्वादिष्ट भोजनों का ध्यान आपको भले ही न रहे पर उस अटपटे हलुए को न भूलेंगे। जब कभी उस प्रीतिभोज का ध्यान आवेगा, उजड्ड आदमियों की हरकतें और मिर्च पड़ा हुआ हलुआ-यह दो बातें जरूर और सबसे पहले याद आवेंगी। शायद आप उन दो ही कारणों से उस भोजन को नापसंद करें। बुराइयों की अपेक्षा अच्छाइयाँ उसमें अधिक थीं, सभ्य आगंतुकों' की और स्वादिष्ट भोंजनों की संख्या अधिक थी तो भी थोडे विजातीय तत्त्वों का मिश्रण आपका ध्यान अधिक खींचने और बुरे निष्कर्ष पर पहुँचाने में समर्थ हो गया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ २३

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👉 भक्तिगाथा (भाग ११७)

श्रेष्ठ ही नहीं, सुलभ भी है भक्ति

महात्मा सत्यधृति ने भक्त विमलतीर्थ की यह बात सुनाते हुए कहा- ‘‘उन परमभक्त की बात ने उन दिनों मुझमें नया विश्वास जगाया। मुझे उन्हें सुनकर उस समय ऐसा लगा था कि सब प्रकार की आध्यात्मिक अयोग्यताओं के बावजूद मैं भी भगवान की कृपा का अधिकारी बन सकता हूँ अन्यथा मैं तो स्वयं की ही सोच में डूबकर पूर्णतया निराश हो बैठा था। मुझे लगने लगा था कि जैसे मेरे लिए कोई आशा ही नहीं है लेकिन भक्त विमलतीर्थ ने मेरे अस्तित्त्व में अपनी बातों से नयी चेतना का संचार किया।’’

इतना कहते हुए सत्यधृति ने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ आदि महर्षियों की ओर देखा और बोले- ‘‘हे ऋषिगण! मेरे पास अपना कहने जैसा तो कुछ नहीं है, लेकिन यदि आप अनुमति दें, तो उन परमभक्त की कही हुई बातें आप लोगों के सामने रखने का प्रयास करूँ?’’ ‘‘अवश्य महात्मन्!  हम सब अवश्य सुनना चाहेंगे।’’ ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के इस कथन का सभी ने हृदय से अनुमोदन किया। पिछले दिनों से महात्मा सत्यधृति के मुख से उनकी भक्तिगाथा सुनते हुए सभी को उनसे एक विचित्र सी निजता हो गयी थी। उपस्थित सभी जनों को वे अपने स्वजन लगने लगे थे। भक्त विमलतीर्थ की बातों को सभी और अधिक सुनना चाहते थे।

सबकी इस उत्कण्ठा से महात्मा सत्यधृति को तो जैसे मनमांगी मुराद मिल गयी। उन्होंने बड़े मीठे स्वर में कहना शुरू किया- ‘‘भक्त विमलतीर्थ का कहना था- यदि पुण्य अथवा पाप प्रबल हो तो आध्यात्मिक साधनाएँ सम्भव नहीं बन पड़तीं क्योंकि पुण्य अपने परिणाम में सुख-समृद्धि के साथ इतने दायित्व ला देता है कि इनके चलते साधनाएँ सम्भव नहीं हो पातीं। इसी तरह पाप अपने परिणाम में विपदाओं के इतने झंझावात खड़े कर देता है कि आध्यात्मिक साधना के बारे में सोचना तक सम्भव नहीं हो पाता। इन दोनों ही स्थितियों में सम्भव और सुगम है- भगवान का स्मरण। इस स्मरण से पाप हो अथवा पुण्य, दोनों का कर्मभार हल्का होने लगता है।

भगवान का स्मरण जैसे-जैसे गहरा व प्रगाढ़ होता है, वैसे-वैसे भगवान के प्रति भाव गहरे होते जाते हैं और उनके मिलने की अभिलाषा भी तीव्र होने लगती है। यह तीव्र अभिलाषा जब विरह का रूप धारण करने लगे तो समझो कि अस्तित्त्व व अन्तःकरण में भक्ति का उदय हो गया। विरह की वेदना के साथ स्मरण व समर्पण दोनों ही गहरे हो जाते हैं। इनकी गहराई में जीवात्मा के पाप व पुण्य, दोनों ही गहरे डूब जाते हैं। जीवन समस्त कर्मभार से मुक्त होने लगता है। यह मार्ग सभी के लिए सुलभ है। इस सर्वसुलभ पथ पर कोई भी चल सकता है। जैसे-जैसे भक्त अपने भक्तिपथ पर चलता है, स्वयं भगवान आगे बढ़कर उसके अवरोध हटा देते हैं। फिर न कोई सम्पदा बाधा बनती है और न ही कोई आपदा। बस मन प्रभुनाम के मनन में लीन होता चला जाता है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २३२

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आध्यात्मिक शिक्षण क्या है? भाग 3

मित्रो! आध्यात्मिक व्यक्ति बनने के लिए पूजा की क्रिया करते- करते हम मर जाते हैं। यह आध्यात्मिक शिक्षण है। यह शिक्षण हमको सिखलाता है कि धूपबत्ती जलाने के साथ साथ में हमको यह विचार करना है कि यह हमारे भीतर प्रकाश उत्पन्न करती है। दीपक लेकर हम बैठ जाते हैं। दीपक जलता रहता है। रात में भगवान् को दिखाई न पड़े, बात कुछ समझ में आती है; लेकिन क्या दिन में भी दिखाई नहीं पड़ता? दिन में भगवान् के आगे दीपक जलाने की क्या जरूरत है? इसकी जरूरत नहीं है।

कौन कहता है कि दीपक जलाइए क्यों हमारा पैसा खर्च कराते हैं? क्यों हमारा घी खर्च कराते हैं। इससे हमारा भी कोई फायदा नहीं और आपका भी कोई फायदा नहीं। आपकी शक्ल हमको भी दिखाई पड़ रही है और बिना दीपक के भी हम आपको देख सकते हैं। आपकी आँखें भी बरकरार हैं; फिर क्यों दीपक जलाते हैं और क्यों पैसा खराब करवाते हैं?

मित्रो! सवाल इतना छोटा सा है, लेकिन इसके निहितार्थ बहुत गूढ़ हैं। इसका सम्बन्ध भावनात्मक स्तर के विकास से है। दीपक प्रकाश का प्रतीक है। हमारे अंदर में प्रकाश और सारे विश्व में प्रकाश का यह प्रतीक है। अज्ञानता के अंधकार ने हमारे जीवन को आच्छादित कर लिया है। उल्लास और आनन्द से भरा हुआ, भगवान् की सम्पदाओं से भरा हुआ जीवन, जिसमें सब तरफ विनोद और हर्ष छाया रहता है; लेकिन हाय रे अज्ञान की कालिमा! तूने हमारे जीवन को कैसा कलुषित बना दिया? कैसा भ्रान्त बना दिया? स्वयं का सब कुछ होते हुए भी कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।

सब कुछ तो हमारे पास है, पर मालूम पड़ता है कि संसार में हम ही सबसे ज्यादा दरिद्र हैं। हमारे पास किसी चीज की कमी है क्या? हमारे मन की एक एक धारा ऐसी निकलती है कि हमको हँसी में बदल देती है; लेकिन हमको हर वक्त रूठे रहने का मौका, नाराज रहने का मौका, शिकायतें करने का मौका, छिद्रान्वेषण करने का मौका, देश घूमने का मौका, विदेश घूमने का मौका ही दिखाई देता है। सारा का सारा जीवन इसी अशांति में निकल गया।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: २२

चिंतन और चरित्र का समन्वय  

अपने दोष दूसरों पर थोपने से कुछ काम न चलेगा। हमारी शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलताओं के लिए दूसरे उत्तरदायी नहीं वरन् हम स्वयं ही हैं। दूसरे व्यक्तियों,, परिस्थितियों एवं प्रारब्ध भोगों का भी प्रभाव होता है। पर तीन चौथाई जीवन तो हमारे आज के दृष्टिकोण एवं कर्तव्य का ही प्रतिफल होता है। अपने को सुधारने का काम हाथ में लेकर हम अपनी शारीरिक और मानसिक परेशानियों को आसानी से हल कर सकते हैं।

प्रभाव उनका नहीं पड़ता जो बकवास तो बहुत करते हैं पर स्वयं उस ढाँचे में ढलते नहीं। जिन्होंने चिंतन और चरित्र का समन्वय अपने जीवन क्रम में किया है, उनकी सेवा साधना सदा फलती- फूलती रहती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक: २१

लगन और श्रम का महत्व   

लगन आदमी के अंदर हो तो सौ गुना काम करा लेती है। इतना काम करा लेती है कि हमारे काम को देखकर आपको आश्चर्य होगा। इतना साहित्य लिखने से लेकर इतना बड़ा संगठन खड़ा करने तक और इतनी बड़ी क्रान्ति करने से लेकर इतने आश्रम बनाने तक जो काम शुरू किये हैं वे कैसे हो गए? यह लगन और श्रम है।

यदि हमने श्रम से जी चुराया होता तो उसी तरीके से घटिया आदमी होकर के रह जाते जैसे कि अपना पेट पालना ही जिनके लिए मुश्किल हो जाता है। चोरी से ,, ठगी से ,, चालाकी से जहॉं कहीं भी मिलता पेट भरने के लिए ,, कपड़े पहनने के लिए और अपना मौज- शौक पूरा करने के लिए पैसा इकट्ठा करते रहते पर हमारा यह बड़ा काम संभव न हो पाता।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: २०

भटकना मत   

लोभों के झोंके, मोहों के झोंके, नामवरी के झोंके, यश के झोंके, दबाव के झोंके ऐसे हैं कि आदमी को लंबी राह पर चलने के लिए मजबूर कर देते हैं और कहॉं से कहॉं घसीट कर ले जाते हैं। हमको भी घसीट ले गये होते। ये सामान्य आदमियों को घसीट ले जाते हैं। बहुत से व्यक्तियों में जो सिद्धान्तवाद की राह पर चले इन्हीं के कारण भटक कर कहॉं से कहॉं जा पहुँचे।

आप भटकना मत। आपको जब कभी भटकन आये तो आप अपने उस दिन की उस समय कीमन:स्थिति को याद कर लेना, जब कि आपके भीतर से श्रद्धा का एक अंकुर उगा था। उसी बात को याद रखना कि परिश्रम करने के प्रति जो हमारी उमंग और तरंग होनी चाहिए उसमें कमी तो नहीं आ रही।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 22 March 2022


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 22 March 2022


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सोमवार, 21 मार्च 2022

👉 आत्मचिंतन के क्षण 21 March 2022

जो मितव्ययी हैं, उन्हें संसार की निरर्थक लिप्साएँ लोलुप बनाकर व्यग्र नहीं कर पातीं।  वे अपनी आर्थिक परिधि में पाँव पसारे निश्चिन्त सोया करते हैं। उन्हें केवल उतना ही चाहिए जितना उनके पास होता है। संसार की बाकी चीजों से न उन्हें कोई लगाव होता है और न वास्ता। ऐसे निश्चिन्त एवं निर्लिप्त मितव्ययी के सिवाय आज की अर्थप्रधान दुनिया में दूसरा सुखी नहीं रह सकता।

आज अनेकों ऐसी पुरानी परम्पराएँ  एवं विचारधाराएँ हैं, जिनको त्याग देने से अतुलनीय हानि हो सकती है। साथ हीे अनेकों ऐसी नवीनताएँ हैं, जिनको अपनाए बिना मनुष्य का एक कदम भी बढ़ सकना असंभव हो जायेगा। नवीनता एवं प्राचीनता के संग्रह एवं त्याग में कोई दुराग्रह नहीं करना चाहिए, बल्कि किसी बात को विवेक एवं अनुभव के आधार पर अपनाना अथवा छोड़ना चाहिए।

अपनी वर्तमान परिस्थितियों से आगे बढ़ना, आज से बढ़कर कल पर अधिकार करना, अच्छाई को सिर पर और बुराई को पैरों तले दबाकर चलने का नाम जीवन है। कुकर्म करने तथा बुराई को प्रश्रय देने वाला मनुष्य जीवित दीखता हुआ भी मृत ही है, क्योंकि कुकर्म और कुविचार मृत्यु के प्रतिनिधि हैं। इनको आश्रय देने वाला मृतक के सिवाय और कौन हो सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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शनिवार, 19 मार्च 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १४

त्याग और सेवा द्वारा सच्चे प्रेम का प्रमाण दीजिए।

त्याग के साथ-साथ सेवा भी होनी चाहिए। जिस व्यक्ति को जिस वस्तु की आवश्यकता है, उसे वही दी जाए। कौन क्या चाहता है, इसके आधार पर यह निर्णय नहीं हो सकता कि उसे वही वस्तु मिलनी चाहिए। सन्निपात का रोगी मिठाई माँगता है, पर मिठाई देना तो उससे दुश्मनी करना है। आपका कोई प्रियजन कुमार्ग पर चलता है और उस दुष्कर्म की पूर्ति में आपको सहायक बनाना चाहता है। यदि आप उसकी सहायता करने लगें, तो यह उसके साथ एक भयंकर अपकार करना होगा। आपको सुयोग्य सिविल सर्जन की तरह यह जाँच करनी होगी कि उसे वास्तव में क्या कष्ट है और उसका उपचार किस प्रकार करना चाहिए। हैजे की बीमारी में बड़ी भारी प्यास लगती है, पर सुयोग्य डॉक्टर बीमार को मनमानी मात्रा में पानी नहीं पीने देता।
 
हो सकता है कि रोगी उस समय डॉक्टर से नाराज हो और उसके साथ अभद्र व्यवहार करे, पर डॉक्टर प्रेमी है, इसलिए वह तात्कालिक प्रतिक्रिया की ओर ख्याल नहीं करता और रोगी के दीर्घकालीन हित को अपने मन में रखता हुआ अपना कार्य प्रारंभ करता है।

घर के जिन लोगों की मनोभूमि में जो त्रुटि देखें, उसे दूर करने में प्रयत्नशील रहें। त्याग वृत्ति से उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयत्न करें पर कैंची से काट-छाँट कर इन पेड़ों को सुरम्य बनाने के .प्रयत्न में भी न चूकें। ', अन्यथा यदि उनकी कुभावना ओं को सिंचन मिलता रहा तो एक दिन बडे विकृत कंटीले झाड बन सकते हैं। प्रेम के दो अंगों को पूरी तरह हृदयंगम कीजिए-त्याग और सेवा, दान और सुधार। खेती को पानी की जरूरत है, पर निराई की भी कम आवश्यकता नहीं है। दोनों काम एक दूसरे से कुछ विपरीत जान पड़ते हैं, सहायता और सुधार का एक साथ मेल मिलता नहीं दीखता, यह कार्य बड़ा कठिन प्रतीत होता है, इसलिए तो प्रेम करना तलवार की धार पर चलना कहा गया है। प्रेमी को तलवार की धार पर चलना पडता है।

नट अपने घर कें आँगन में कला खेलना सीखता है। आप अपने परिवार में प्रेम की साधना आरंभ कीजिए। शिक्षा से अपने प्रियजनों के अंतःकरणों में ज्ञान की ज्योति जलाइए उन्हें सत-असत का विवेक प्राप्त करने में सहायता दीजिए परंतु सावधान, यह कार्य गुरु की तरह आरंभ न किया जाए अहंकार का इसमें एक कण भी न हो। सेवा का दूध अहंकार की खटाई से फट जाएगा। अहंकार पूर्वक उपदेश करेंगे तो तिरस्कार और उपहास ही हाथ लगेगा। इसलिए जिसमें जो सुधार करना हो वह विनय पूर्वक उसे सलाह देते हुए कहिए या करिए। '' धीरे- धीरे, बार-बार और सद्भावना से '' ढाक को चंदन, कौए को हंस बनाया जा सकता है। आप प्रेम की महान साधना में प्रवृत्त हो जाइए। त्याग और सेवा को अपना साधन बनाइए आरंभ अपने घर से कीजिए। आज से ही अपनी पुरानी दुर्भावनाएँ मन के कोने-कोने से ढूँढकर निकालिए और उन्हें झाडू-बुहार कर दूर फेंक दीजिए। प्रेम की उदार भावनाओं से अंतःकरण को परिपूर्ण कर लीजिए और सगे-संबंधियों के साथ त्याग एवं सेवा का व्यवहार करना आरंभ कर दीजिए।
 
कुछ क्षणों के उपरांत आप एक चमत्कार हुआ देखने लगेंगे। आपका यही छोटा सा परिवार जो आज शायद कलह-क्लेशों का घर बना हुआ है आपको सुख-शांति का स्वर्ग दीखने लगेगा। आपकी प्रेम भावनाएँ आस-पास के लोगों से टकरा कर आपके पास लौट आवेंगी और वे आनंद के भीने- भीने सुगंधित फुहार से छिड़क कर प्रेम के रंग में सरोबोर कर देंगी। प्रेम की पाठशाला का आनंद अनुभव करके ही जाना जा सकता है। विलंब मत कीजिए आज ही आप इसमें भरती हो जाइए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ २१

👉 भक्तिगाथा (भाग ११६)

श्रेष्ठ ही नहीं, सुलभ भी है भक्ति

देवर्षि अपना वाक्य पूरा कर पाते इसके पहले ही ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने विश्वासपूर्वक कहा- ‘‘आप चिन्तित न हों देवर्षि। महात्मा सत्यधृति भगवान के परम भक्त हैं। आपका भक्तिसूत्र सुनते ही उनका चिन्तन व चेतना दोनों ही बाह्य जगत में लौट आएँगे।’’

ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की बात सभी को भायी। स्वयं देवर्षि को भी इसमें सत्य व सार्थकता की अनुभूति हुई। उन्होंने वीणा की मधुर झंकृति के साथ भगवान नारायण का पावन स्मरण करते हुए अगले भक्तिसूत्र का उच्चारण किया-

‘अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ’॥ ५८॥
अन्य सब की अपेक्षा भक्ति सुलभ है।

देवर्षि नारद के इस वाक्य के साथ ही महात्मा सत्यधृति ने नेत्र उन्मीलित करते हुए कहा- ‘‘ठीक यही बोला था भक्त विमलतीर्थ ने मुझसे। कितने वर्ष बीत गए, पर उनकी बात मेरे चित्तपटल पर यथावत अंकित है। कितनी ही आकुल प्रार्थनाओं के बाद वे मुझसे मिले थे। मिलते ही उन्होंने सबसे पहले कहा था- राजन्! भगवान मनुष्य के किसी पुरुषार्थ का सुफल नहीं हैैं। वे तो बस अपनी ही अहैतुकी कृपा का सुपरिणाम हैं। मनुष्य का पुरुषार्थ कितना ही प्रबल क्यों न हो, वह सर्वसमर्थ सर्वेश्वर को तनिक सा भी आकर्षित नहीं कर सकता। उन्हें तो आकर्षित करती है, भावनाओं से भरे हृदय की करुणासक्त एवं आर्त्त पुकार।’’

थोड़ा रुक कर वे बोले- ‘‘भावाकुल हृदय की पुकार भगवान को विह्वल कर देती है। यह पुकारना सरल है जटिल भी। सरल उनके लिए है जो सरल व निष्कपट हैं, जिनका हृदय शुद्ध एवं भगवत्प्रेम से भरा है और जटिल उनके लिए है जो प्रेम व भावनाओं से रिक्त हैं। जो पुरुषार्थप्रिय हैं, उनके लिए अनेक तरह के पुरुषार्थ हैं, अनेकों तरह की साधनाएँ हैं। हठयोग, राजयोग की विधियाँ, ज्ञान-विचार के वेदान्त आदि साधन हैं। लेकिन जो इन कठिन साधनों को करने में समर्थ नहीं हैं, जिन्हें स्मरण व समर्पण प्रिय है, उनके लिए भक्ति है। सच तो यह है कि भक्ति सबके लिए है और यह सभी साधनों से सुलभ है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २३१

बुधवार, 16 मार्च 2022

👉 आत्मचिंतन के क्षण 16 March 2022

ओजस्वी ऐसे ही व्यक्ति कहे जाते हैं, जिन्हें पराक्रम प्रदर्शित करने में संतोष और गौरव अनुभव होता है, जिन्हें आलसी रहने में लज्जा का अनुभव होता है, जिन्हें अपाहिज, अकर्मण्यों की तरह सुस्ती में पड़े रहना अत्यन्त कष्टकारक लगता है, सक्रियता अपनाये रहने में, कर्मनिष्ष्ठा के प्रति तत्परता बनाये रहने में जिन्हें आनन्द आता है।

अनीति को देखते हुए भी चुप बैठे रहना, उपेक्षा करना, आँखों पर पर्दा डाल देना, जीवित मृतक का चिह्न है। जो उसका समर्थन करते हैं, वे प्रकारान्तर से स्वयं ही दुष्कर्मकर्त्ता हैं। स्वयं न करना, किन्तु दूसरों के दुष्ट कर्मों में सहायता, समर्थन, प्रोत्साहन, पथ-प्रदर्शन करना एक प्रकार से पाप करना ही है। इन दोनों ही तरीकों से दुष्टता का अभिवर्धन होता है।

घड़ी पास में होने पर भी जो समय के प्रति लापरवाही करते हैं, समयबद्ध जीवनक्रम नहीं अपनाते, उन्हें विकसित व्यक्तित्व का स्वामी नहीं कहा जा सकता। घड़ी कोई गहना नहीं है। उसे पहनकर भी जीवन में उसका कोई  प्रभाव  परिलक्षित नहीं होने दिया जाता तो यह गर्व की नहीं, शर्म की बात है। समय की अवज्ञा वैसे भी हेय है, फिर समय-निष्ठा का प्रतीक चिह्न (घड़ी) धारण करने के बाद यह अवज्ञा तो एक अपराध ही है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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सोमवार, 14 मार्च 2022

👉 आकर्षक व्यक्तित्व बनाइये

सद्भावनायुक्त नागरिक ही आपको सामाजिक प्रतिष्ठा और मान-सम्मान देने वाले हैं। उनके दृष्टिकोण एवं विचारधारा पर आपकी सफलता अवलम्बित है। जैसा आपके आसपास वाले समझते हैं, वैसे ही वास्तव में आप हैं। समाज में आपके प्रत्येक कार्य की सूक्ष्म अलक्षित तरंगें निकला करती हैं, जो दूसरों पर प्रभाव डालती हैं।

भलाई, शराफत आदि सद्व्यहार वह धन है जो रात-दिन बढ़ता है। यदि दैनिक व्यवहार में आप यह नियम बना लें कि हम जिन लोगों के सम्पर्क में आयेंगे, उनके साथ सद्भावनायुक्त व्यवहार करेंगे, तो स्मरण रखिये आपके मित्र और हितैषियों की संख्या बढ़ती ही जायेगी। आप दूसरों को जितना प्रेम उदारता और सहानुभूति दिखलायेंगे, उनसे दस गुनी उदारता और सहानुभूति प्राप्त करेंगे। सद्व्यवहार दूसरे के अहं भाव की रक्षा करना वह आकर्षण है, जो दूर तक अपना प्रभाव डालता है। धीरे-धीरे उदारता मनुष्य के चरित्र का एक आवश्यक गुण बन जाती है। उदार मनुष्य दूसरों से प्रेम अपने स्वार्थ साधन के हेतु नहीं करता वरन् उनके कल्याण के लिए करता है। उदार व्यक्ति में प्रेम सेवा का रूप धारण कर लेता है। उदार व्यक्ति दूसरे के दु:ख से स्वयं दु:खी होता है। उसे अपने दु:ख-सुख की उतनी अहं की रक्षा करना चाहता है। सभी में कुछ न कुछ मात्रा में गर्व, मान अपने आप को बहुत श्रेष्ठ समझने की उच्च भावना है। अपने को सज्जन, उच्चतम, पवित्र, ईमानदार, सच्चा, बहादुर, कुलीन समझता है। अपनी समझदारी तर्क शक्ति, ज्ञान, पूर्णता उच्चता में नगण्य से नगण्य व्यक्ति को विश्वास है।
  
किसी से यह न कहिए कि तुम नीच हो, तुममें  समझदारी, ज्ञान, सतर्कता, नहीं है। तुम कठोर, कमजोर, दुर्बल, डरपोक हो और सोचने-समझने की भी शक्ति नहीं है। इस तरह के नकारात्मक अभावयुक्त शब्द अपने विषय में कोई भी सुनना पसन्द नहीं करता। दूसरों के गर्व को चूर्ण करने वाले ऐसे अनेक शब्द पारस्परिक वैमनस्य, कटुता, शत्रुता और लड़ाई के कारण बनते हैं। दूसरों से इस प्रकार चर्चा करनी कीजिए कि जिससे उसके सम्मान और गर्व की रक्षा होती चले। वह यह अनुभव करे कि आप उसकी इज्जत करते हैं, उसकी राय की कद्र व इज्जत करते हैं, उससे कुछ सीखना चाहते हैं। यदि किसी व्यक्ति के मन पर अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से यह बात बैठ जाय कि आप उसका सम्मान करते हैं, तो वह सदैव आपकी प्रतिष्ठा करता रहेगा।
  
आप लोगों की प्रशंसा, अभिवादन करना सीखें। प्रशंसा इस प्रकार से की जाय कि दूसरा यह न समझ सके कि उसे बनाया जा रहा है। प्रशंसा से दूसरा अत्यन्त उत्साहित होता है तथा अपना हृदय खोलकर रख देता है। जितना ही मनुष्य दूसरे की प्रशंसा करता है, उतनी ही उसमें अच्छा काम करने की शक्ति आती है, यहाँ तक कि कुछ समय के पश्चात् आपको अप्रत्यक्ष रूप से वह प्रेम करने लगता है। गुण-ग्राहक बनिए। दूसरों में जो उत्तम बातें हैं, उसे व्यवहार में लाने के लिए अवसर ताकिए। तनिक-सी गुण-ग्राहकता से दूसरा व्यक्ति एकदम आपकी ओर आकर्षित हो जाता है। यह एक मनोवैज्ञानिक नियम है कि जब दूसरा देखता है, आप उसमें दिलचस्पी व उसकी महत्ता स्वीकार कर रहे हैं, गुणों की तारीफ कर रहे हैं, तो वह अनायास ही आपसे प्रभावित हो जाता है। सम्भव है कि कोई किसी समय हतोत्साहित हो रहा हो और आपकी गुण ग्राहकता से उसका टूटता साहस पुन: जाग्रत्ï हो जाय और इस कारण वह आपकी ओर आकर्षित हो। जब हम लोगों को गुणग्राहक दृष्टि से निरीक्षण करने लगते हैं तो हर प्राणी में कितनी ही अच्छाइयाँ, उत्तमताएँ और विशेषताएँ दीख पड़ती हैं।  गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

रविवार, 13 मार्च 2022

👉 अच्छाइयाँ देखिए अच्छाइयाँ फैलेंगी

जैसा हम देखते, सुनते या व्यवहार में लाते हैं, ठीक वैसा ही निर्माण हमारे अंतर्जगत् का होता है। जो- जो वस्तुएँ हम बाह्य जगत् में देखते हैं, हमारी अभिरुचि के अनुसार उनका प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक अच्छी मालूम होने वाली प्रतिक्रिया से हमारे मन में एक ठीक मार्ग बनता है। क्रमश: वैसा ही करने से वह मानसिक मार्ग दृढ़ बनता जाता है। अंत में वह आदत बनकर ऐसा पक्का हो जाता है कि मनुष्य उसका क्रीतदास बना रहता है।

जो व्यक्ति अच्छाइयाँ देखने की आदत बना लेता है, उसके अंतर्जगत् का निर्माण शील, गुण, दैवी तत्त्वों से होता है। उसमें ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ की गंध नहीं होती। सर्वत्र अच्छाइयाँ देखने से वह स्वयं शील गुणों का केन्द्र बन जाता है।

अच्छाई एक प्रकार का पारस है। जिसके पास अच्छाई देखने का सद्गुण मौजूद है, वह पुरुष अपने चरित्र के प्रभाव से दुराचारी को भी सदाचारी बना देता है। उस केन्द्र से ऐसा विद्युत प्रभाव प्रसारित होता है जिससे सर्वत्र सत्यता का प्रकाश होता है। नैतिक माधुर्य जिस स्थान पर एकीभूत हो जाता है, उसी स्थान में समझ लो कि सच्चा माधुर्य तथा आत्मिक सौंदर्य विद्यमान है। अच्छाई देखने की आदत सौंदर्य रक्षा एवं शील रक्षा दोनों को समन्वय करने वाली है।

जो व्यक्ति गंदगी और मैल देखता है, वह दुराचारी, कुरूप, विषयी और कुकर्मी बनता है। अच्छाई को मन में रोकने से अच्छाई की वृद्धि होती है। दुष्प्रवृत्ति को रोकने से हिंसा, मारना, पीटना, ठगना, अनुचित भोग विलास इत्यादि बढ़ता है। यदि संसार में लोग नीर- क्षीर विवेक करने लगें और अपनी दुष्प्रवृत्तियों को निकाल दें, तो सतयुग आ सकता है और हम पुनः उन्नत हो सकते हैं।

-अखण्ड ज्योति- दिसंबर 1946 पृष्ठ 19

http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1946/December.19
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शुक्रवार, 11 मार्च 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १३

त्याग और सेवा द्वारा सच्चे प्रेम का प्रमाण दीजिए।

आप प्रेमी बनना चाहते हैं, तो पवित्र प्रेम का अभ्यास पहिले अपने घर से आरंभ कीजिए। प्रेम की प्रारंभिक पाठशाला अपना घर ही हो सकता है। घर के समस्त स्री-पुरुषों, बालक-बालिकाओं से निःस्वार्थ प्रेम करिए। फिर देखिए कि बदले में कितना अधिक प्रेम आपको प्राप्त होता है।

जानना चाहिए कि प्रेम का अर्थ है-त्याग और सेवा। आप घर के हर एक व्यक्ति के पक्ष में स्वार्थों को छोड़िए और जिसे जिस की आवश्यकता है, उसे वह प्रदान कीजिए। वृद्ध आप से शारीरिक सेवा  चाहते हैं, बालक आप के साथ हँसना-खेलना चाहते हैं, भाइयों को आपका आर्थिक सहयोग चाहिए,स्त्री को आपके स्नेह पूर्ण वार्तालाप की आवश्यकता है।
 
 जो जिस वस्तु को चाहता है, उसे वह प्रदान कीजिए परंतु ध्यान रखिए प्रेम कोई व्यापार नहीं है। एक हाथ से देकर दूसरे हाथ से माँगने की नीति प्रेमी को शोभा नहीं दे सकती। वृद्धों से आप आशा मत करिए कि वे आपकी प्रशंसा करें। न भाइयों से यह चाहिए कि कमाऊ होने के नाते आपको कुछ अधिक महत्त्व दें। स्त्री यदि आपकी इच्छानुसार  सेवा-सुभूषा करने में असमर्थ है, तो उस पर झुंझलाएँ मत,क्योंकि आप प्रेमी बनने जा रहे है। प्रेमी देकर माँग नहीं सकता।

दुनियाँ में सारे झगड़ों की जड यह है कि हम देते कम हैं और माँगते ज्यादा हैं। हमें चाहिए यह किं दें बहुत और बदला बिलकुल न माँगे या बहुत कम पाने की आशा रखें। यह नीति ग्रहण करते ही हमारे आसपास के सारे झगड़े मिट जाते हैं। प्रेमी त्याग करता है- उसका त्याग बेकार नहीं जाता, वरन हजार होकर लौट आता है। झगड़ा करने पर जितना बदला मिलता है, उससे अनेक गुना उसे बिना माँगे मिल जाता है। कदाचित कुछ कम भी मिले तो प्रेम से उत्पन्न होने वाले आंतरिक आनंद के मुकाबिले में वह कमी नगण्य है। निरंतर देते रहने का स्वभाव जिसके ह्दयों में स्थान कर लेता है, वह जानते हैं कि स्वर्गीय निर्धन आत्माएँ हर्षान्दोलित करने में कितनी समर्थ हैं। त्याग की दैवी वृत्तियाँ हमारे आसपास के वातावरण को स्वर्गीय संपदाओं से भर देती हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ २०

👉 भक्तिगाथा (भाग ११५)

श्रेष्ठ ही नहीं, सुलभ भी है भक्ति

महात्मा सत्यधृति, भक्त विमलतीर्थ के भक्ति अनुभव को कहते-सुनाते स्वयं में लीन हो गए थे। चिन्तन भक्त का हो या भगवान का, चित्त को परिशुद्ध, परिष्कृत कर ही देता है। भावनाएँ जब भी कभी भक्त अथवा भगवान के स्मरण से भीगती हैं, तब उनमें भक्ति का प्रादुर्भाव हो ही जाता है। महात्मा सत्यधृति अपने जीवनकाल में सम्राट थे। अखिल भूमण्डल पर राज्य था उनका। प्रजापालन, प्रजा का संरक्षण सर्वोपरि दायित्व था उनका। प्रशासन, न्याय व सुरक्षा, वह भी इतने व्यापक साम्राज्य की, ऐसे में उनके पास समय ही कहाँ था अन्य बातों के लिए। कठिन आध्यात्मिक साधनाएँ तो उनके वश में थी ही नहीं। यदि वह आसन, मुद्राओं का कठिन-जटिल अभ्यास करते, तो राज्य शासन के गुरुतर दायित्व कैसे निभते?

यम-नियम के दुःसाध्य व्रतों के साथ भला सैन्य संचालन किस तरह बन पड़ता? प्रत्याहार का अभ्यास करते हुए यदि वह मन व इन्द्रियों को अन्तर्लीन कर लेते तो बाह्य जगत् की परिस्थितियों की समयोचित व्यवस्था कैसे हो पाती? धारणा, ध्यान व समाधि के अनुकूल वह स्वयं ही अपने को नहीं मानते थे। हाँ, इतना अवश्य था कि उनमें आध्यात्मिक अभीप्सा अवश्य थी। जीवन की इन समस्त जटिलताओं की अनुभूति के साथ वह वह यह कामना अवश्य करते थे कि वह भी स्वयं के जीवन को सार्थक कर सकें। उनकी भावनाएँ भी भगवान में डूब सकें, ऐसी प्रार्थना वह परमेश्वर से जब-तब अवश्य कर लिया करते थे। अपने जीवन की जटिल दुरुहताओं को देख कर उन्हें निराशा भी होती और वे बहुधा सोचने लगते भला कैसे हो पाएगा यह सब? फिर तभी सोचने लगते भगवान तो करूणासिन्धु हैं, कोई न कोई मार्ग वह सुझाएँगे ही। अपने किसी न किसी प्रिय भक्त को अवश्य मेरे पास तक भेजेंगे।

अतीत की इन्हीं स्मृतियों से महात्मा सत्यधृति का मन सिंचित हो रहा था। काफी देर हो गयी थी, उन्हें यूं ही मौन बैठे हुए। सभी को उनके कुछ कहने की प्रतीक्षा थी पर उन्हें तो जैसे भावसमाधि हो गयी थी। देवर्षि नारद भी उनकी ओर देख रहे थे। लेकिन सत्यधृति की चेतना को जैसे चेत ही नहीं था। ऐसे में ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने स्थिति के संचालन सूत्र स्वयं के हाथों में लेते हुए कहा- ‘‘हे भक्तप्रवर देवर्षि! आप भक्ति का अपना अगला सूत्र कहें।’’ उत्तर में देवर्षि ने एक नजर महात्मा सत्यधृति की ओर देखते हुए धीमे स्वरों में कहा- ‘‘लेकिन महात्मा सत्यधृति तो अन्तर्लीन हैं, ऐसे में............?’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २३०

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 11 March 2022

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👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 11 March 2022

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आध्यात्मिक शिक्षण क्या है? भाग 2

साथियो! आपने हर हाल में समाज की सेवा की; लेकिन जब चुनाव में खड़े हुए, तो एमपी एमएलए के लिए लोगों ने आपको वोट नहीं दिया और दूसरे को दे दिया। इससे आपको बहुत धक्का लगा। आपने कहा कि भाई। हमने तो अटूट सेवा की थी; लेकिन जनता ने चुनाव में जीतने ही नहीं दिया। ऐसी खराब है जनता। भाड़ में जाये, हम तो अपना काम करते हैं। हमें चुनाव नहीं जीतना है।
 
उपासना में भी ऐसी ही निष्ठा की आवश्यकता है। आपने पत्थर की एकांगी उपासना की और एकांगी प्रेम किया। उपासना के लिए, पूजा करने के लिए हम जा बैठते हैं। धूपबत्ती जलाते हैं। धूपबत्ती क्या है? धूपबत्ती एक कैंडिल का नाम है। एक सींक का नाम है। एक लकड़ी का नाम है। वह जलती रहती है और सुगंध फैलाती रहती है।

सुगंध फैलाने में भगवान् को क्या कोई लाभ हो जाता है? हमारा कुछ लाभ हो जाता है क्या? हाँ, हमारा एक लाभ हो जाता है और वह यह कि इससे हमें ख्याल आता है कि धूप बत्ती के तरीके से और कंडी के तरीके से हमको भी जलना होगा और सारे समाज में सुगंध फैलानी होगी। इसलिए हमारा जीवन सुगंध वाला जीवन, खुशबू वाला जीवन होना चाहिए।

धूपबत्ती भी जले और हम भी जलें जलने से सुगंध पैदा होती है। धूपबत्ती को रखा रहने दीजिए और उससे कहिए कि धूपबत्ती सुगंध फैलाएँगी धूपबत्ती कहती है कि मैं तो नहीं फैलाती। क्यों? जलने पर सुगंध फैलाई जा सकती है। जलना होगा। इसीलिए मनुष्य को जीवन में जलना होता है। धूपबत्ती की तरह से सुगंध फैलानी पड़ती है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: ११

अकेला चलो

महान व्यक्ति सदैव अकेले चले हैं और इस अकेलेपन के कारण ही दूर तक चले हैं। अकेले व्यक्तियों ने अपने सहारे ही संसार के महानतम कार्य संपन्न किए हैं। उन्हें एकमात्र अपनी ही प्रेरणा प्राप्त हुई है। वे अपने ही आंतरिक सुख से सदैव प्रफुल्लित रहे हैं। दूसरे से दु:ख मिटाने की उन्होंने कभी आशा नहीं रखी। निज वृतियों में ही उन्होंने सहारा नहीं देखा।

अकेलापन जीवन का परम सत्य है। किंतु अकेलेपन से घबराना, जी तोडऩा, कर्तव्यपथ से हतोत्साहित या निराश होना सबसे बड़ा पाप है। अकेलापन आपके निजी आंतरिक प्रदेश में छिपी हुई महान शक्तियों को विकसित करने का साधन है। अपने ऊपर आश्रित रहने से आप अपनी उच्चतम शक्तियों को खोज निकालते हैं।

~ पं श्रीराम शर्मा आचार्य


👉 Lose Not Your Heart Day 11
Walk Alone

Great men go far on their paths because they walk alone. Their inspiration comes from within. They alone spur their happiness and remove their sadness and they are helped along only by their own ideas.

Loneliness is an undeniable truth. To be afraid of it, feel inferior because of it, or lose sight of your duties because of it is the greatest sin. What you believe to be loneliness is actually a kind of solitude, given to you to develop your own inner strength. When you depend on yourself, you are better able to realize your full potential.

 ~ Pt. Shriram Sharma Acharya

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गुरुवार, 10 मार्च 2022

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 10 March 2022


👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 10 March 2022

आध्यात्मिक शिक्षण क्या है? भाग 1

गायत्री मंत्र हमारे साथ साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥


देवियो भाइयो!


यह दुनिया बड़ी निकम्मी है। पड़ोसी के साथ आपने जरा सी भलाई कर दी, सहायता कर दी, तो वह चाहेगा कि और ज्यादा मदद कर दे। नहीं करेंगे, तो वह नेकी करने वाले की बुराई करेगा। दुनिया का यह कायदा है कि आपने जिस किसी के साथ में जितनी नेकी की होगी, वह आपका उतना ही अधिक बैरी बनेगा। उतना ही अधिक दुश्मन बनेगा; क्योंकि जिस आदमी ने आपसे सौ रुपये पाने की इच्छा की थी और आपने उसे पन्द्रह रुपये दिये। भाई, आज तो तंगी का हाथ है, पंद्रह रुपये हमसे ले जाओ और बाकी कहीं और से काम चला लेना।

पंद्रह रुपये आपने उसे दे दिये और वह आपके बट्टे खाते में गये, क्योंकि आपने पचासी रुपये दिये ही नहीं। इसलिए वह नाराज है कि पचासी रुपये भी दे सकता था, अपना घर बेचकर दे सकता था। कर्ज लेकर दे सकता था अथवा और कहीं से भी लाकर दे सकता था; लेकिन नहीं दिया। वह खून का घूँट पी करके रह जायेगा और कहेगा कि बड़ा चालाक आदमी है।

मित्रो! दुनिया का यही चलन है। दुनिया में आप कहीं भी चले जाइये, दुनिया की ख्वाहिशें बढ़ती चली जाती हैं कि हमको कम दिया गया। हमको ज्यादा चाहिए। असंतोष बढ़ता चला जाता है। और यह असंतोष अन्ततः वैर और रोष के रूप में परिणत हो जाता है। मित्रो, यह ऐसी ही निकम्मी दुनिया है। इस निकम्मी दुनिया में आप सदाचारी कैसे रह सकते हैं? जब कि आपके मन में पत्थर की उपासना करने की विधि न आये। पत्थर की उपासना करने का आनन्द जब आपके जी में आ जायेगा, उस दिन आप समझ जायेंगे कि इससे कोई फल मिलने वाला नहीं है।

कोई प्रशंसा मिलने वाली नहीं है और कोई प्रतिक्रिया होने वाली नहीं है। यह भाव आपके मन में जमता हुआ चला जाय, तो मित्रो! आप अन्तिम समय तक, जीवन की अंतिम साँस तक नेकी और उपकार करते चले जायेंगे, अन्यथा आपकी आस्थाएँ डगमगा जायेंगी।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: १०

अंतःकरण के धन को ढ़ूंढो

तुम्हें अपने मन को सदा कार्य में लगाए रखना होगा। इसे बेकार न रहने दो। जीवन को गंभीरता के साथ बिताओ। तुम्हारे सामने आत्मोन्नति का महान कार्य है और पास में समय थोड़ा है। यदि अपने को असावधानी के साथ भटकने दोगे तो तुम्हें शोक करना होगा और इससे भी बुरी स्थिति को प्राप्त होगे।

धैर्य और आशा रखो तो शीघ्र ही जीवन की समस्त स्थिति का सामना करने की योग्यता तुम में आ जाएगी। अपने बल पर खड़े हेाओ। यदि आवश्यक हो तो समस्त संसार को चुनौती दे दो। परिणाम में तुम्हारी हानि नहीं हो सकती। तुम केवल सबसे महान से संतुष्ट रहो। दूसरे भौतिक धन की खोज करते हैं और तुम अंत:करण के धन केा ढूंढो।

 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 Lose Not Your Heart Day 10
Look for the Treasure Within Yourself


Keep your mind engaged in useful tasks; do not let it go idle. Take life seriously. The task of spiritual growth is before you, and time is very short. If you are led astray by your own negligence, you alone will have to pay the price.

Patience and hope will enable you to face any situation. Stand on your own feet and challenge the entire world if you need to, but you should only be satisfied after attaining your highest goals. When others look outside for worldly treasure, look inside for the treasure within yourself.

~Pt. Shriram Sharma Acharya
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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक: ९

नम्रता, सरलता, साधुता, सहिष्णुता

सहिष्णुता का अभ्यास करो। अपने उत्तरदायित्व को समझो। किसी के दोषों को देखने और उन पर टीका- टिप्पणी करने के पहले अपने बड़े- बड़े दोषों का अन्वेषण करो। यदि अपनी वाणी कानियत्रंण नहीं कर सकते तो उसे दूसरों के प्रतिकूल नहीं बल्कि अपने प्रतिकूल उपदेश करने दो।

सबसे पहले अपने घर को नियमित बनाओ क्योंकि बिना आचरण के आत्मानुभव नहीं हो सकता।नम्रता, सरलता,, साधुता,, सहिष्णुता ये सब आत्मानुभव के प्रधान अंग हैं।
दूसरे तुम्हारे साथ क्या करते हैं इसकी चिंता न करो। आत्मोन्नति में तत्पर रहो। यदि यह तथ्य समझ लिया तो एक बड़े रहस्य को पा लिया।

~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 Lose Not Your Heart Day 9
Courtesy, Simplicity, Empathy, Compassion


It is your responsibility to cultivate courtesy, simplicity, empathy, and compassion. Before looking for and criticizing faults in others, address the glaring flaws in yourself. If you are unable to control your speech, use it against yourself instead of others.

First, discipline yourself. Without discipline, you cannot experience your true nature. Courtesy, simplicity, empathy, and compassion are all manifestations of this true nature.

Disregard how others treat you and stay focused on your own growth. If you can grasp this, you have understood a great secret.

~Pt. Shriram Sharma Acharya

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मंगलवार, 8 मार्च 2022

👉 बुढ़ापा

"मम्मा ये बताओ, दादा दादी आपको बहुत परेशान करते हैं ना.."
"हाँ बेटा पर क्या कर सकते हैं.. अब हैं यहाँ तो झेलना ही पड़ेगा |"
"पर क्यूँ मम्मा... क्यूँ झेलना पड़ेगा"

"तुम नही समझोगे रहने दो"

"एक काम करते हैं मम्मा, इन दोनो को चाचा चाची के घर भेज देते हैं"
"वो वहाँ दो दिन भी नही रह पायेंगे बेटा.. चाची तो दादी को देखते ही तुनक जाती है और चाचा तो तुम्हारे चाची के पल्ले से ऐसे बँधे हैं कि वो उतना ही सुनते हैं जितना चाची कहती है | वहाँ इनका कोई गुज़ारा नही होने वाला | "

"तो बुआ को बोल दो ना ये उनके भी तो माँ पापा हैं ना , वो ही ले जायें कुछ दिनों के लिए इन दोनो को| "

"तुम भी ना बड़े भोले हो बेटा.. वहाँ नही जायेंगे दादा दादी.. ढकोसला करेंगे कि हम तो बेटी के घर का पानी भी नही पी सकते तो वहाँ जा कर रहेंगे कैसे और अगर रहने को तैयार हो भी गये तो तुम्हारी बुआ के पचासों बहाने निकल आयेंगे | वो कम थोड़े ना है, वो भी तो अपनी माँ पर ही गयी है | "

"क्या मम्मा मतलब कोई इन्हे अपने साथ नही रखना चाहता | एक काम करो मम्मा इन्हे वहाँ पहुँचा दो... वो मैने टीवी पर देखा था कुछ ओल्ड ऐज होम टाइप से है.. अरे वो जो उस दिन मूवी में आ रहा था | "

"वृद्धाआश्रम कहते हैं उसे ... मैं भी थक जाती हूँ काम कर के.. सुबह उठने से सोने तक इनके नखरे झेलना... तौबा तौबा... कब तक आखिर .. मैं भी कुछ दिन और देख रही हूँ..नहीं तो तुम्हारे पापा से बात करूँगी कि वो इन दोनो को वहीं छोड़ आये |"

"हाँ यही ठीक रहेगा.. दादी दिन भर टोकती रहती है.. टीवी मत देखो, मोबाइल मत खेलो..... मैं बच्चा थोड़े ना हूँ.. बड़ा हो रहा हूँ मैं... समझदार हो रहा हूँ.. ये भी कोई बात हुयी भला. .. हुँ...ह |"

"अरे मेरा राजा बेटा...इतना गुस्सा.... दस साल के ही हो अभी.. मेरी आँखो के तारे हो तुम.... इतनी जल्दी बड़े हो जाओगे कभी सोचा ही नही था | अब देखो तुम बड़े होते जाओगे और हम बूढ़े होते जाएँगे | फिर तुम्हारी शादी करेंगे.. प्यारी सी दुल्हनियाँ लायेंगे | "

"नहीं मम्मा प्लीज़.... मैं तो बड़ा हो रहा हूँ पर आप लोग प्लीज़ बूढ़े मत होना |"
"हा हा हा क्यूँ बेटा.. बूढ़ा तो सबको ही होना है एक दिन "

"पर मम्मा आप लोग बूढ़े हो जाओगे और मेरी वाइफ आयेगी तो उसे भी ऐसे ही परेशान होना पड़ेगा ना.. वो भी तरह तरह के आईडिया सोचेगी कि कैसे आप लोगों को यहाँ से हटाया जाये..  नो मम्मा प्लीज़ नो..आप भी दादी की तरह हो जाओगी और मेरी वाइफ को परेशान करोगी .... . मैं ऐसा नही होने दूँगा... एक काम करूँगा.. मैं मेरी शादी होते ही आप दोनों के लिए ओल्ड ऐज होम बुक करवा दूँगा जहाँ आप लोग रह सकोगे और मैं और मेरी वाइफ भी चैन से रह लेंगे |"

"हुँ...ह.. हमारा घर है हमारे पास... तुम रहना अपने घर में अपनी वाइफ को लेकर | यही करोगे तुम... पाल पोस कर बड़ा कर रहे हैं और तुम हमें वृद्धा आश्रम भेजने की तैयारी कर रहे हो | वाह बेटा वाह... | "

"मम्मा.. मैं कहाँ कुछ गलत कह रहा हूँ | दादा दादी ने भी तो पापा बुआ को पाला पोसा ही होगा ना...सभी माँ बाप पालते हैं अपने बच्चों को, उसमें क्या नया है... . पर अब जब सब बड़े हो गये हैं तो कोई बूढ़े लोगों को अपने पास नही रखना चाहता तो भला मैं क्यूँ रखूँगा, परेशानी बढ़ाते हैं ये बूढ़े लोग | मैं भी नही रखूँगा और साइंटिस्ट बन कर कोई ऐसी दवा बनाऊँगा जिससे कि मैं कभी बूढ़ा ही ना हो पाऊँ और मेरे बच्चों को कोई ओल्ड ऐज होम ना ढूँढना पड़े |"

अपने बेटे की बातें सुन माँ के शरीर में सिहरन सी दौड़ गयी और जिन आँखो में कुछ देर पहले परेशानी, व्यथा, गुस्सा दिख रहा था उन्ही आँखो में अब शर्म पानी का रूप ले चुका थी |

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👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 8 March 2022


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 8 March 2022


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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: ८

अपने आपकी समालोचना करो

जो कुछ हो, होने दो। तुम्हारे बारे में जो कहा जाए उसे कहने दो। तुम्हें ये सब बातें मृगतृष्णा के जल के समान असार लगनी चाहिए। यदि तुमने संसार का सच्चा त्याग किया है तो इन बातों से तुम्हें कैसे कष्ट पहुँच सकता है। अपने आपकी समालोचना में कुछ भी कसर मत रखना तभी वास्तविक उन्नति होगी।

प्रत्येक क्षण और अवसर का लाभ उठाओ। मार्ग लंबा है। समय वेग से निकला जा रहा है। अपने संपूर्ण आत्मबल के साथ कार्य में लग जाओ, लक्ष्य तक पहुँचोगे।

किसी बात के लिए भी अपने को क्षुब्ध न करो। मनुष्य में नहीं, ईश्वर में विश्वास करो। वह तुम्हें रास्ता दिखाएगा और सन्मार्ग सुझाएगा।

~ पं श्रीराम शर्मा आचार्य


👉 Lose Not Your Heart Day 8
Introspect


Whatever happens, let it happen. Whatever is said about you, let it be said. You should consider these things as illusory as a mirage. If you have really detached yourself from the world, then why should such things affect you? Focus on inspecting yourself thoroughly for weaknesses. Only then can you begin the process of growth.

Take advantage of every moment and every opportunity. Your path is very long, and time is very short. Concentrate your inner strength on reaching your goal.

Do not despair in any situation. Have faith not in the capacity of man, but in the capacity of God. God will show you the right path.

~ Pt. Shriram Sharma Acharya

सोमवार, 7 मार्च 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १२

त्याग और सेवा द्वारा सच्चे प्रेम का प्रमाण दीजिए।

निःसंदेह आत्मा प्रेममय है। उसे सुख अपने विषय में ही प्राप्त होता है। मछली को पानी में आनंद है, इसके अतिरिक्त और कहीं चैन नहीं। प्राणी का मन तब तक शांति लाभ नहीं कर सकता जब तक कि वह प्रेम में निमग्न न हो जाए। जब तक प्यास नहीं बुझती तब तक हम इधर-उधर भटकते हैं और जब मधुर शीतल जल भर पेट पीने को मिल जाता है तो चित्त ठिकाने आ जाता है, संतोष लाभ करके एक स्थान पर बैठ जाते हैं। सर्प का जब पेट भर जाता है तो वह अपने बिल में प्रवेश कर जाता है, बाहर की उसे कुछ जरूरत नहीं रहती। सीप समुद्र के ऊपर उतराती फिरती है, पर जब स्वाति की बूँद उसमें पड़ जाती है तो मोती को प्राप्त करके समुद्र की तली में बैठ जाती है। आत्मा प्रेम का आनंद लूटने इस भूमण्डल पर आई है, अपनी प्रिय वस्तु को ढूँढने के इधर-उधर भटकती फिरती है। जिस दिन उसे इच्छित वस्तुएँ प्राप्त हो जाएँगी उसी दिन तृप्ति लाभ करके अपने परमधाम को लौट जाएँगी। भव भ्रमण और मुक्ति का यही धर्म है।

हमें बार-बार जन्म इसलिए धारण करना पड़ता है कि प्रेम की प्यास बुझा नहीं पाते। मोह-ममता की मृगतृष्णा में मारे-मारे फिरते हैं भव-बंधनों में उलझते फिरते हैं। जिस दिन हमें सद्गुरु की कृपा से यह समझ आ जाएगा कि जीवन का सार प्रेम है, उस दिन हम शाश्वत प्रेम को अपने अंतःकरण में से ढूँढ निकालेंगे।
 
अंतःकरण में जिस दिन प्रेम भक्ति का अविरल  स्त्रोत फूट निकलेगा, जिस दिन प्रेम गंगा में आत्मा स्नान कर लेगी, जिस दिन प्रेम का सागर हमारे चारों ओर लहरावेगा, उसी दिन आत्मा को तृप्ति मिल जाएगी और वह अपने धाम को लौट जाएगी। सच्चा प्रेमी अपने सुखों की भी इच्छा नहीं करता वरन जिस पर प्रेम करता है उसके सुख  पर अपने सुख को उत्सर्ग कर देता है। लेने का उसे ध्यान भी नहीं, देना ही एक मात्र उसका कर्त्तव्य हो जाता है। जिसके हृदय में प्रेम की ज्योति जलेगी वह गोरे चमडे पर फिसल कर अपने चमारपन का परिचय न देगा और न व्यभिचार की कुदृष्टि रखकर अपनी आत्मा को पाप पंक में घसीटेगा। वह किसी स्त्री के रंग, चमक-दमक, हाव-भाव या स्वर कंठ पर मुग्ध नहीं होगा वरन किसी देवी में उज्ज्वल कर्त्तव्य का दर्शन करेगा तो उसको झुककर प्रणाम करेगा। प्रेमी का दम तो बेकाबू हो सकता है पर दिमाग काबू में रहेगा। वह दूसरों के सुख के लिए त्याग करने में अपने को बेकाबू पावेगा परतु किसी को पतन के मार्ग पर घसीटने का स्मरण आते ही उसकी आत्मा कांप जाएगी। इस दशा में उसका एक कदम भी आगे नहीं बढ सकता। अपने प्रेम पात्र को बदनामी, पतन, दुख, भ्रम और नरक में घसीटने वाला व्यक्ति किसी भी प्रकार प्रेमी नहीं कहा जा सकता, वह तो नरक का कीड़ा है जो अपनी विषय ज्वाला में जलाने के लिए प्रेम पात्र को फँसाकर काँटों में घसीटता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ १९

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...