रविवार, 9 अप्रैल 2023

👉 क्रोध हमारा आन्तरिक शत्रु है (भाग 1)

🔶 क्रोध प्राणहरः शत्रुः क्रोधऽमित्रमुखो रिपुः। क्रोधोऽसि महातीक्षणः सर्व क्रोधोऽर्षति॥
त्पते यतते चैव यच्च दानं प्रयच्छति। क्रोधेन सर्व हरति तस्मात क्रोधं विवजयेत्॥
(बाल्मीकि रामायण उत्तर. 71)

🔷 अर्थात् क्रोध प्राण हरण करने वाला शत्रु, क्रोध अमित्र - मुखधारी बैरी है, क्रोध महा तीक्ष्ण तलवार है, क्रोध सब प्रकार से गिराने वाला है, क्रोध तप, संयम, और दान सभी हरण कर लेता है। अतएव, क्रोध को छोड़ देना चाहिए।

🔶 क्रोध त्याग की महिमा बताते हुए श्री शुक्राचार्य जी अपनी कन्या देवयानी से कहते हैं- “देवयानी! जो नित्य दूसरों के द्वारा की हुई अपनी निन्दा को सह लेता है, तुम निश्चय जानो कि उसने सब को जीत लिया। जो बिगड़ते हुए घोड़ों के समान उभरे हुए क्रोध को जीत लेता है, उसी को साधु लोग जितेन्द्रिय कहते हैं, केवल घोड़ों की लगाम हाथ में रखने वाले को नहीं। देवयानी! जो पुरुष उभड़े हुए क्रोध का अक्रोध के द्वारा शान्त कर देता है, तुम निश्चय जानों, उसने सब जीत लिया। जो पुरुष उभरे हुए क्रोध को क्षमा के द्वारा शान्त कर देता है और सर्प के द्वारा पुरानी केंचुली छोड़ने के समान क्रोध का त्याग कर देता है, वास्तविक अर्थों में वहीं “पुरुष” कहलाता है। जो क्रोध को रोक लेता है, निन्दा को सह लेता है और दूसरों के द्वारा सताये जाने पर भी उनको बदले में नहीं सताता, वहीं परमात्मा की प्राप्ति का अधिकारी होता है। जो सौ वर्षों तक हर महीने बिना थके लगातार यज्ञ करता रहे और (जो कभी किसी पर क्रोध न करे- इन दोनों में क्रोध न करने वाला पुरुष ही श्रेष्ठ है।
(महाभारत आदिपर्व)

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 15


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👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 9 April 2023

महत्त्वपूर्ण सफलताएँ न तो भाग्य से मिलती हैं और न सस्ती पगडण्डियों के सहारे काल्पनिक उड़ानें उड़ने से मिलती हैं। उसके लिए योजनाबद्ध अनवरत पुरुषार्थ करना पड़ता है। योग्यता बढ़ाना, साधन जुटाना और बिना थके, बिना हिम्मत खोये अनवरत श्रम करते रहना यह तीन आधार ही सफलताओं के उद्गम स्रोत हैं।

यह सच है कि संकल्प के अभाव में शक्ति का कोई महत्त्च नहीं है। उसी प्रकार यह भी सच है कि शक्ति के अभाव में संकल्प भी पूरे नहीं होते। केवल संकल्प करते रहने वाला निरुद्यमी व्यक्ति उस आलसी व्यक्ति की तरह कहा जाएगा जो अपने पास गिरे हुए आम को उठाकर मुँह में भी रखने की कोशिश नहीं करता और इच्छा मात्र से आम का स्वाद ले लेने की आकाँक्षा करता है।

आलस्य से घिरा शरीर और प्रमाद से आच्छादित मन जो भी काम करता है वह आधा-अधूरा, लँगड़ा, काना, कुबड़ा और फूहड़ होता है। मात्रा भी उसकी अति स्वल्प रहती है। उत्साही और स्फूर्तिवान् व्यक्ति जितनी देर में जितना काम बहुत ही सुंदर स्तर का कर लेता है, उसकी तुलना में आलस्य, प्रमादग्रस्त व्यक्ति आधा-चौथाई भी नहीं कर पाता और जो करता है वह भी ऐसा बेतुका होता है कि उससे तो न करना अधिक अच्छा रहता।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...