गुरुवार, 19 जनवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 20 Jan 2017


👉 आज का सद्चिंतन 20 Jan 2017


👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 13) 20 Jan

🌹 त्रिविध भवबन्धन एवं उनसे मुक्ति
🔴 आवश्यकता हैं भ्रान्तियों से निकलने और यथार्थता को अपनाने की। इस दिशा में मान्यताओं को अग्रगामी बनाते हुए हमें सोचना होगा कि जीवन साधना ही आध्यात्मिक स्वस्थता और बलिष्ठता है। इसी के बदले प्रत्यक्ष जीवन में मरण की प्रतीक्षा किये बिना, स्वर्ग, मुक्ति और सिद्धि का रसास्वाद करते रहा जा सकता है। उन लाभों को हस्तगत किया जा सकता है, जिनका उल्लेख अध्यात्म विधा की महत्ता बताते हुए शास्त्रकारों ने विस्तारपूर्वक किया है। सच्चे सन्तों-भक्तों का इतिहास भी विद्यमान है। खोजने पर प्रतीत होता है कि पूजा-पाठ भले ही उनका न्यूनाधिक रहा है, पर उन्होंने जीवन साधना के क्षेत्र में परिपूर्ण जागरूकता बरती। इसमें व्यक्तिक्रम नहीं आने दिया। न आदर्श की अवज्ञा की और न उपेक्षा बरती। भाव-संवेदनाओं में श्रद्धा, विचार बुद्धि में प्रज्ञा और लोक व्यवहार में शालीन सद्भावना की निष्ठा अपनाकर कोई भी सच्चे अर्थों में जीवन देवता का सच्चा साधक बन सकता है। उसका उपहार, वरदान भी उसे हाथोंहाथ मिलता चला जाता है।          

🔵 ऋषियों, मनीषियों, सन्त-सुधारकों और वातावरण में ऊर्जा उभार देने वाले महामानवों की अनेकानेक साक्षियाँ विश्व इतिहास में भरी पड़ी हैं। इनमें से प्रत्येक को हर कसौटी पर जाँच-परखकर देखा जा सकता है कि उनमें से हर एक को अपना व्यक्तित्त्व उत्कृष्टता की कसौटी पर खरा सिद्ध करना पड़ा है। इससे कम में किसी को भी न आत्मा की प्राप्ति हो सकी न परमात्मा की, न ऐसों का लोक बना, और न परलोक। पूजा को श्रृंगार माना जाता रहा है। स्वास्थ्य वास्तविक सुन्दरता है। ऊपर से स्वस्थ व्यक्ति को वस्त्राभूषणों से, प्रसाधन सामग्री से सजाया भी जा सकता है।

🔴 इसे सोने में सुगन्ध का संयोग बन पड़ा माना जा सकता है। जीवन साधना समग्र स्वास्थ्य बनाने जैसी विधा है। उसके ऊपर पूजा-पाठ का श्रृंगार सजाया जाय तो शोभा और भी अधिक बढ़ेगी। इसमें सुरुचि तो है किन्तु यह नहीं माना जाना चाहिये कि मात्र श्रृंगार साधनों के सहारे किसी जीर्ण-जर्जर रुग्ण या मृत शरीर को सुन्दर बना दिया जाय तो प्रयोजन सध सकता है। इससे तो उलटा उपहास ही बढ़ता है। इसके विपरीत यदि कोई हृष्ट-पुष्ट पहलवान मात्र लँगोट पहनकर अखाड़े में उतरता है तो भी उसकी शोभा बढ़ जाती है। ठीक इसी प्रकार जीवन को सुसंस्कृत बना लेने वाले यदि पूजा-अर्चना के लिये कम समय निकाल पाते हैं तो भी काम चल जाता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आप अपने बारे में क्या सोचते हैं?

🔴 एक भिखारी किसी स्टेशन पर पैंसिलों से भरा कटोरा लेकर बैठा हुआ था। एक युवा व्यवसायी उधर से गुजरा और उसने कटोरे में 50 रुपए डाल दिए लेकिन उसने कोई पैंसिल नहीं ली। उसके बाद वह ट्रेन में बैठ गया। डिब्बे का दरवाजा बंद होने ही वाला था कि युवा व्यवसायी एकाएक ट्रेन से उतर कर भिखारी के पास लौटा और कुछ पैंसिलें उठाकर बोला, ‘‘मैं कुछ पैंसिलें लूंगा। इन पैंसिलों की कीमत है, आखिरकार तुम एक व्यापारी हो और मैं भी।’’ उसके बाद वह युवा व्यवसायी तेजी से ट्रेन में चढ़ गया।

🔵 कुछ वर्षों बाद वह व्यवसायी एक पार्टी में गया। वह भिखारी भी वहां मौजूद था। भिखारी ने उस व्यवसायी को देखते ही पहचान लिया। वह उसके पास जाकर बोला, ‘‘आप शायद मुझे नहीं पहचान रहे हैं लेकिन मैं आपको पहचानता हूं।’’ उसके बाद उसने उसके साथ घटी उस घटना का जिक्र किया। व्यवसायी ने कहा, ‘‘तुम्हारे याद दिलाने पर मुझे याद आ रहा है कि तुम भीख मांग रहे थे लेकिन तुम यहां सूट और टाई में क्या कर रहे हो?’’

🔴 भिखारी ने जवाब दिया, ‘‘आपको शायद मालूम नहीं है कि आपने मेरे लिए उस दिन क्या किया। मुझ पर दया करने की बजाय मेरे साथ सम्मान के साथ पेश आए। आपने कटोरे से पैंसिलें उठाकर कहा, ‘‘इनकी कीमत है, आखिरकार तुम भी एक व्यापारी हो और मैं भी।’’

🔵 आपके जाने के बाद मैंने बहुत सोचा, मैं यहां क्या कर रहा हूं? मैं भीख क्यों मांग रहा हूं? मैंने अपनी जिंदगी को संवारने के लिए कुछ अच्छा काम करने का फैसला लिया। मैंने अपना थैला उठाया और घूम-घूम कर पैंसिलें बेचने लगा। फिर धीरे-धीरे मेरा व्यापार बढ़ता गया। मैं कापियां-किताबें एवं अन्य चीजें भी बेचने लगा और आज पूरे शहर में मैं इन चीजों का सबसे बड़ा थोक विक्रेता हूं। मुझे मेरा सम्मान लौटाने के लिए मैं आपका तहेदिल से धन्यवाद करता हूं क्योंकि उस घटना ने आज मेरा जीवन ही बदल दिया।

🔴 आप अपने बारे में क्या सोचते हैं? अपने लिए आज आप क्या राय जाहिर करते हैं? क्या आप अपने आपको ठीक तरह से समझ पाते हैं? इन सारी चीजों को ही हम सीधे रूप से आत्मसम्मान कहते हैं। दूसरे लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं ये बातें उतनी मायने नहीं रखतीं या यूं कहें कि कुछ भी मायने नहीं रखतीं लेकिन आप अपने बारे में क्या राय जाहिर करते हैं, क्या सोचते हैं यह बात बहुत ही ज्यादा मायने रखती है लेकिन एक बात तय है कि हम अपने बारे में जो भी सोचते हैं उसका अहसास जाने-अनजाने में दूसरों को भी करवा ही देते हैं और इसमें कोई भी शक नहीं कि इसी कारण की वजह से दूसरे लोग भी हमारे साथ उसी ढंग से पेश आते हैं।

👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 29)

🌹 एक के द्वारा दूसरे के लिए जप-अनुष्ठान

🔴 जहां तक हो सके अपनी साधना स्वयं ही करनी चाहिए। विपत्ति के समय वह दूसरे से भी कराई जा सकती है। पर उसकी आन्तरिक भावना और बाह्य आचरण प्रक्रिया साधु ब्राह्मण स्तर की ही होनी चाहिए। प्राचीन काल में ऐसे कृत्यों के लिए ब्राह्मण वर्ग के लोगों को महत्व दिया जाता था। उन दिनों के ब्राह्मण—ब्रह्म-तत्व के ज्ञाता—उच्च चरित्र और आचरण-व्यवहार में देवोपम रीति-नीति अपनाने वाले थे। इसलिए उनकी श्रेष्ठता स्वीकार की जाती थी और उन्हें देव कर्मों का उत्तरदायित्व सौंपा जाता था।

🔵 आज वैसे ब्राह्मण मिलने कठिन हैं जो वंश से नहीं गुण-कर्म-स्वभाव की कसौटी पर अपने स्तर के अनुरूप खरे उतरते हों। विशिष्टता न रहने पर विशिष्ट स्तर एवं विशेष अधिकार भी नहीं रहता। आज की स्थिति में ब्राह्मण-अब्राह्मण का अन्तर कर सकना कठिन है। वंश और वेष की प्रभुता प्राचीन काल में भी अमान्य थी और आज भी अमान्य ही रहेगी।

🔴 जहां तक अनुष्ठान का—उससे सम्बन्धित यज्ञादि कर्मों का सम्बन्ध है, उसे स्वयं ही करना सर्वोत्तम है। यदि दूसरे से कराना हो तो वंश-वेष को महत्व न देकर किसी चरित्रवान, निर्लोभ, निष्ठावान, साधक प्रकृति के व्यक्ति से ही उसे कराना चाहिए। ऐसा व्यक्ति किस वंश या कुल का है इसका महत्व नहीं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 पराक्रम और पुरुषार्थ (भाग 23) 20 Jan

🌹 आत्मविश्वास क्या नहीं कर सकता?

🔵 जापान के एक छोटे से राज्य पर समीपवर्ती एक बड़े राज्य ने हमला कर दिया। अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित विशाल सेना देखकर जापान का सेनापति हिम्मत हार बैठा। उसने राजा से कहा—‘‘हमारी साधनहीन छोटी-सी सैन्य टुकड़ी इसका सामना कदाचित ही कर पायेगी। नाहक सैनिकों को खत्म करने के बजाय युद्ध न करना ही ठीक है। पर राजा बिना प्रयास के हार मानने के पक्ष में नहीं था। सोचने लगा कि क्या किया जाये? अचानक याद आया कि गांव में एक सिद्ध फकीर है शायद वही कुछ समाधान बता सके यही सोचकर राजा स्वयं फकीर से मिलने चल पड़ा। फकीर तम्बूरा बजाने में मस्त था। राजा ने फकीर की मस्ती तोड़ते हुए कहा कि हमारा राज्य मुसीबत में फंस गया है। दुश्मन ने देश पर आक्रमण कर दिया है और ऐसी विकट स्थिति में सेनापति भी निराश हो चुका है— उसने बताया कि जीत असम्भव है।

🔴 फकीर ने बिना विलम्ब किये उत्तर दिया कि ‘‘सबसे पहले तो आप सेनापति को पद से हटा दीजिये क्योंकि जिसने युद्ध से पहले ही हार की आशंका बता दी वह भला क्या जीत पायेगा? जो स्वयं निराशावादी है वह अपने अधीनस्थ सैनिकों  में कैसे उत्साह उमंग का संचार कर सकेगा।’’ राजा ने समर्थन करते हुए कहा, बात तो ठीक है। लेकिन अब उसका स्थान कौन सम्भलेगा। यदि उसे हटा भी दिया जाता है तो इतने कम समय में दूसरा सेनापति कहां मिलेगा? उसी सेनापति से काम चलाने के अतिरिक्त कोई विकल्प दिखाई नहीं देता।’’

🔵 इस पर फकीर ने उन्मुक्त हंसी हंसते हुए कहा—‘‘आप चिन्ता नहीं करें, सेनापति का स्थान मैं सम्भालूंगा।’’ राजा विस्मय में पड़ गया लेकिन इसके अतिरिक्त और कोई चारा भी तो नहीं था।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 27)

🌞  हिमालय में प्रवेश

अपने और पराये


🔵 गंगानानी चट्टी से आगे जहां वर्षा के कारण बुरी तरह फिसलन हो रही थी। एक ओर पहाड़ दूसरी ओर गंगा का तंग रास्ता—उस कठिन समय में इस लाठी ने ही कदम कदम पर जीवन मृत्यु की पहेली को सुलझाया। उसने भी यदि जूतों की तरह साथ छोड़ दिया होता तो कौन जाने आज या पंक्तियां लिखने वाली कलम और उंगलियों का कहीं पता भी न होता।

🔴 बड़ी आशा के साथ लिए हुए जूते ने काट खाया। जिन पैरों पर बहुत भरोसा था उनने भी दांत दिखा दिए। पर वे पैसे की लाठी इतनी काम आई कि कृतज्ञता से इसका गुणानुवाद गाते रहने को जी चाहता है।

🔵 अपनों से आशा थी पर उनने साथ नहीं दिया। इस पर झुंझलाहट आ रही थी कि दूसरे ही क्षण पराई लगने वाली लाठी की वफादारी याद आ गई। चेहरा प्रसन्नता से खिल गया। जिनने अड़चन पैदा की उनकी बजाय उन्हीं का स्मरण क्यों न करूं जिसकी उदारता और सहायता के बल पर यहां तक आ पहुंचा हूं। अपने पराये की क्या सोचूं? इस ईश्वर की दृष्टि से सभी अपने, सभी पराये हैं।

🔴 आज रास्ते भर पहाड़ी जनता के कष्ट साध्य जीवन को अधिक ध्यान से देखता आया और अधिक विचार करता रहा। जहां पहाड़ों में थोड़ी-थोड़ी चार-चार छः-छः हाथ जमीन भी काम की मिली है। वहां उतने ही छोटे खेत बना लिए हैं। बैलों की गुजर वहां कहां? कुदाली से ही मिट्टी को खोद कर जुताई की आवश्यकता पूरी कर लेते हैं। जब फसल पकती है तो पीठ पर लाद कर इतनी ऊंचाई पर बसे हुए अपने घरों में पहुंचते हैं और वहीं उसे कूट-पीट कर अन्न निकालते हैं। जहां झरने का पानी नहीं वहां बहुत नीचे गहराई तक को पानी सिर और पीठ पर लाद कर ले जाते हैं। पुरुष तो नहीं जहां तहां दीखते हैं सारा कृषि कार्य स्त्रियां ही करती हैं। ऊंचे पहाड़ों पर से घास और लकड़ी काट कर लाने का काम भी वे ही करती हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 27)

🌞 दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह
🔴 इस प्रथम साक्षात्कार के समय मार्गदर्शक सत्ता द्वारा तीन कार्यक्रम दिए गए थे। सभी नियमोपनियमों के साथ २४ वर्ष का २४ गायत्री महापुरश्चरण सम्पन्न किया जाना था। अखण्ड घृत दीपक को भी साथ-साथ निभाना था। अपनी पात्रता में क्रमशः कमी पूरी करने के साथ-साथ लोकमंगल की भूमिका निभाने हेतु साहित्य सृजन करना दूसरा महत्त्वपूर्ण दायित्व था। इसके लिए गहन स्वाध्याय भी करना था, जो एकाग्रता संपादन की साधना थी ।। साथ ही जन-संपर्क का भी कार्य करना था, ताकि भावी कार्यक्षेत्र को दृष्टिगत रखते हुए हमारी संगठन क्षमता विकसित हो। तीसरा महत्त्वपूर्ण दायित्व था स्वतंत्रता संग्राम में एक स्वयंसेवी सैनिक की भूमिका निभाना। देखा जाए तो सभी दायित्व शैली एवं स्वरूप की दृष्टि से परस्पर विरोधी थे, किंतु साधना एवं स्वाध्याय की प्रगति में इनमें से कोई बाधक नहीं बने, जबकि इस बीच हमें दो बार हिमालय भी जाना पड़ा। अपितु सभी साथ-साथ सहज ही ऐसे सम्पन्न होते चले गए कि हमें स्वयं इनके क्रियान्वयन पर अब आश्चर्य होता है। इसका श्रेय उस दैवी मार्गदर्शक सत्ता को जाता है, जिसने हमारे जीवन की बागडोर प्रारंभ से ही अपने हाथों में ले ली थी एवं सतत संरक्षण का आश्वासन दिया।

🔵 ऋषि दृष्टिकोण की दीक्षा जिस दिन मिली, उसी दिन यह भी कह दिया गया कि यह परिवार संबद्ध तो है, पर विजातीय द्रव्य की तरह है, बचने योग्य। इसके तर्क, प्रमाणों की ओर से कान बंद किए रहना ही उचित होगा। इसलिए सुननी तो सबकी चाहिए, पर करनी मन की ही चाहिए। उसके परामर्श को, आग्रह को वजन या महत्त्व दिया गया और उन्हें स्वीकारने का मन बनाया गया, तो फिर लक्ष्य तक पहुँचना कठिन नहीं रहा। श्रेय और प्रेय की दोनों दिशाएँ एक दूसरे के प्रतिकूल जाती हैं। दोनों में से एक ही अपनाई जा सकी है। संसार प्रसन्न होगा, तो आत्मा रूठेगी। आत्मा को संतुष्ट किया जाएगा, तो संसार की, निकटस्थों की नाराजगी सहन करनी पड़ेगी। आमतौर से यही होता रहेगा। कदाचित् ही कभी कहीं ऐसे सौभाग्य बने हैं, जब सम्बन्धियों ने आदर्शवादिता अपनाने का अनुमोदन दिया हो। आत्मा को तो अनेक बार संसार के सामने झुकना पड़ा है। ऊँचे निश्चय बदलने पड़े हैं और पुराने ढर्रे पर आना पड़ा है।

🔴 यह कठिनाई अपने सामने पहले दिन से ही आई। वसंत पर्व को जिस दिन नया जन्म मिला, उसी दिन नया कार्यक्रम भी। पुरश्चरणों की शृंखला के साथ-साथ आहार-विहार के तपस्वी स्तर के अनुबंध भी। तहलका मचा, जिसने सुना अपने-अपने ढंग से समझाने लगा। मीठे और कड़वे शब्दों की वर्षा होने लगी। मंतव्य एक ही था कि जिस तरह सामान्यजन जीवनयापन करते हैं, कमाते-खाते हैं, वही राह उचित है। ऐसे कदम न उठाए जाएँ जिनसे इन दोनों में व्यवधान पड़ता हो। यद्यपि पैतृक सम्पदा इतनी थी कि उसके सहारे तीन पीढ़ी तक घर बैठकर गुजारा हो सकता था, पर उस तर्क को कोई सुनने तक को तैयार नहीं हुआ। नया कमाओ, नया खाओ, जो पुराना है, उसे भविष्य के लिए, कुटुम्बियों के लिए जमा रखो। सब लोग अपने-अपने शब्दों में एक ही बात कहते थे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 76)

🌹 सामाजिक नव निर्माण के लिए

🔴 युग-निर्माण योजना— लौकिक दृष्टि से प्रस्तुत योजना सामाजिक क्रान्ति एवं बौद्धिक क्रान्ति की आवश्यकता पूरी करती है। आज की सबसे बड़ी आवश्यकताएं यही दो हैं। हमारी विचारणा और सामाजिकता इतनी दुर्बल हो गई है कि इसे बदला जाना आवश्यक है। राजनैतिक क्रान्ति हो चुकी। स्वराज्य प्राप्ति के द्वारा हमें अपने मानस को बनाने बिगाड़ने का अधिकार मात्र मिला है। स्वराज्य की—प्रजातन्त्र की सार्थकता तभी है जब प्रजातन्त्र सामाजिक एवं मानसिक दृष्टि से परिपुष्टि हो। पिछले दो हजार वर्षों के अज्ञानान्धकार से हमारी नस-नस को पराधीनता पाश से जकड़ रखा है। बौद्धिक दृष्टि से अभी भी हम पाश्चात्य बौद्धिकवाद के गुलाम हैं। आसुरी संस्कृति हमारे रोम-रोम में बसी हुई है। हर व्यक्ति पाशविक जीवन जीने की लालसा लिए हुए श्मशान वासी प्रेत पिशाच की तरह उद्विग्न फिर रहा है। सामाजिकता के मूल्य नष्ट हो रहे हैं और लोग अपने आत्मीय जनों से भी स्वार्थ सिद्धि का ही प्रयोजन रहे हैं। फलस्वरूप समाज एवं कुटुम्बों का सारा ढांचा बुरी तरह लड़खड़ाने लगा है।

🔵 इन विपन्न परिस्थितियों का बदला जाना आवश्यक है। बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति आज के युग की सब से बड़ी आवश्यकता है। इन्हें पूरा किए बिना हमारा आर्थिक विकास का प्रयोजन भी पूरा न होगा। कमाई यदि बढ़ भी जाय तो वह सामाजिक कुरीतियों दुर्व्यसनों में खर्च हो जायगी और मनुष्य फिर गरीब का गरीब, अभावग्रस्त का अभावग्रस्त रह जायगा। इसलिए आर्थिक योजनाओं से भी पहले सामाजिक एवं बौद्धिक युग-निर्माण को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

🔴 युग-निर्माण योजना इस प्रयोजन को पूरा करने के लिए केवल विचार ही नहीं देती वरन् कार्यक्रम भी प्रस्तुत करती है। कोई प्रयोजन तभी पूरा होता है जब उसे कार्य रूप में परिणत होने का अवसर मिले। आज हिंदू-समाज में सबसे बड़ी सामाजिक कुरीति—विवाह शादियों से होने वाला अपव्यय है। इन कार्यों में इसकी कमाई का प्रायः एक तिहाई भाग खर्च हो जाता है। कई बार तो उसे इन ही प्रयोजनों की पूर्ति के लिए बेईमानी द्वारा पैसा कमाने के अतिरिक्त और कोई चारा ही शेष नहीं रहता। नैतिक आचरण के मार्ग में यह एक बहुत बड़ी बाधा है। सामाजिक क्रान्ति का आरम्भ इस अत्यधिक खटकने वाली बुराई से लड़ने की मुहीम ठानने के रूप में कर देना चाहिए। अखण्ड ज्योति परिवार के तीस हजार सदस्य अपने दायरे से इस प्रक्रिया को कार्यान्वित करना आरम्भ करदें तो अन्य लोगों को भी उसके अनुसरण का साहस पैदा हो जाए और युग की एक बहुत बड़ी आवश्यकता पूरी हो सके।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 पराक्रम और पुरुषार्थ (भाग 22) 19 Jan

🌹 आत्मविश्वास क्या नहीं कर सकता?

🔵 नेलसन ब्रिटेन का प्रसिद्ध राष्ट्रपति था। उसने अनेक युद्धों में विजय पाई। प्रचण्ड साहस और अटूट आत्मविश्वास ही उसकी विजय के आधार थे। नील नदी के युद्ध के लिए नेलसन ने पूर्व योजना बनाई और अपनी अधीनस्थ सैनिकों के सामने वह योजना रखी। इसी बीच कर्नल वेरी ने सन्देह प्रकट किया—‘‘यदि हमारी विजय नहीं हुई तो संसार का क्या कहेगा?’’ नेलसन ने रोषपूर्ण मुद्रा से तमककर उत्तर दिया—‘‘यदि के लिए नेलसन के पास कोई स्थान नहीं। मैंने जो कुछ निर्णय लिया है उसके अनुसार सभी जुट जायें। निश्चित रूप से विजय हमारी ही होगी यह बात अलग है कि हमारी विजय की कहानी कहने वाले हमसे से थोड़े ही रह जायें।’’

🔴 मोर्चे पर जाने से पूर्व नेलसन ने कप्तान से कहा, ‘‘कल इस समय से पूर्व या तो हमें विजय प्राप्त होगी या मेरे लिए वेस्टमिन्स्टर के गिरजे में कब्र तैयार हो जायेगी, जहां में शान्तिपूर्वक विश्राम करूंगा।’’ कैसे आत्मबल और आत्मविश्वास से भरे शब्द थे। जो अन्त में सत्य सिद्ध हुए। विजय नेलसन के हाथ लगी।

🔵 नेपोलियन का जीवन भी ऐसे दृढ़ संकल्प और मनोबल से भरा था। आल्पस पर्वत की सेण्ट वरनार्ड घाटी का निरीक्षण करके लौटे हुए इंजीनियरों से नेपोलियन ने पूछा ‘क्या रास्ता पार कर सकना संभव है?’ इंजीनियरों ने आशंका व्यक्त करते हुए कहा— ‘‘शायद, पार कर सकें।’’ नेपोलियन ने आगे की बात नहीं सुनी तुरन्त सिपाहियों को आदेश दिया ‘‘आगे बढ़ो!’’ इस दुस्साहसिक निर्णय पर इंग्लैण्ड और आस्ट्रेलिया के लोग आश्चर्य करने लगे कि यह नाटे कद का सामान्य सा व्यक्ति साठ हजार सैनिकों और हजारों मन युद्धास्त्र के साथ इतने ऊंचे आल्पस पर्वत को भला कैसे पार कर सकेगा?

🔴 दृढ़ इच्छा शक्ति और आत्मविश्वास के आधार पर वह आल्पस को भेदकर गन्तव्य तक पहुंचने में सफल हुआ, अन्य कई सेनानायकों के पास समर्थ सेना थी, हथियार वह अन्य उपयोगी साधन थे, पर उनमें वह आत्मविश्वास नहीं था जिसके कारण नेपोलियन का कलेजा कठिनाइयों को देखकर वज्र बन जाता था। वह स्वयं कहा करता था— ‘‘मेरे शब्दकोष में ‘असम्भव’ नामक कोई शब्द नहीं।’’

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 28) 19 Jan

🌹 एक के द्वारा दूसरे के लिए जप-अनुष्ठान

🔴 जिस प्रकार एक व्यक्ति अपने धन-साधनों का अनुदान दूसरे अभाव-ग्रस्तों को दे सकता है, उसी प्रकार उपासना द्वारा अर्जित तप भी दूसरों के निमित्त उदारतापूर्वक किया जाता है। इसी प्रकार तप देने वाला जो कोष खोले होता है वह बदले में मिलने वाले पुण्य से फिर भर जाता है। दानी को पुण्य मिलता है। इस प्रकार वह एक वस्तु देकर बदले में दूसरी प्राप्त कर लेता है और घाटे में नहीं रहता। कष्ट पीड़ितों की व्यथा हरने वाला कोई व्यक्ति सत्प्रयत्नों को सफल बनाने के लिए, अपने जप-तप का दान देता रहे तो उसकी यह परमार्थ परायणता आत्मोन्नति में बाधक नहीं, सहायक ही सिद्ध होगी। वरदान, आशीर्वाद देने की परम्परा यही है। इसमें इतना ही ध्यान रखा जाय कि मात्र औचित्य को ही सहयोग दिया जाय। अनाचार को परिपुष्ट करने के लिए अपनाई गई उदारता भी प्रकारान्तर से स्वयं अनाचार करने की तरह ही पाप कर्म बन जाती है। इसलिए किसी की सहायता करते समय यह ध्यान भी रखना चाहिए कि इस प्रकार की सहायता से अनीति का पक्ष पोषण तो नहीं होता।

🔵 पैसा देकर बदले में कल्याण के निमित्त कराये गये जप, अनुष्ठानों में सफलता तभी मिलती है जब कि फीस पारिश्रमिक के रूप में नहीं वरन् कर्ता ने अनिवार्य निर्वाह के लिए न्यूनतम मात्रा में ही उसे स्वीकार किया हो। व्यवहार या लूट-खसोट की दृष्टि से मनमाना पैसा वसूल करने वाले लालची अनुष्ठान कर्ताओं का प्रयत्न नगण्य परिणाम ही प्रस्तुत कर सकता है।

🔴 अनुष्ठान आदि की विशिष्ट साधनाएं, चाहे स्वयं की गई हों या दूसरे किसी से कराई गई हों, उनमें हर हालत में तपश्चर्या के नियमों का पालन करना आवश्यक है। आहार की सात्विकता—ब्रह्मचर्य पालन—अपनी सेवा आप करना जैसे नियम हर अनुष्ठान कर्ता के लिए आवश्यक हैं, भले ही वह अपने निमित्त किया गया हो या दूसरे के लिए। इन नियमों का पालन न करने पर, मात्र जप-संख्या पूरी करने पर से अनुष्ठान का लाभ नहीं मिलता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...