सोमवार, 4 जुलाई 2022

👉 आध्यात्मिकता की मुस्कान

इस संसार में सब कुछ हँसने को लिए उपजाया गया है। जो बुरा और अशुभ है वह हमारी प्रखरता की चुनौती के रूप में है। परीक्षा के प्रश्न पत्रों के देखकर जो छात्र रोने लगे, उसे अध्ययनशील नहीं माना जा सकता। जिसने थोड़ी-सी आपत्ति-असफलता एवं प्रतिकूलता को देखकर रोना-धोना शुरू कर दिया, उसकी आध्यात्मिकता पर कौन विश्वास कर सकता है? प्रतिकूलता हमारा साहस बढ़ाने, धैर्य को मजबूत करने और सामर्थ्य को विकसित करने आती है। सरल जिन्दगी यदि संयत हो सके तो वह सबसे भद्दे ढंग की ही होगी क्योंकि वह जो सरलता पूर्वक दिन गुजारता रहता है उसमें न तो किसी प्रकार की विशेषता रह जाती है और न प्रतिभा। संघर्ष के बिना भी भला कहीं, इस दुनिया में किसी का जीना सम्भव हुआ है।

नई उपलब्धियों में हमें हँसना चाहिए, अब तक मिल चुका उससे सन्तोष व्यक्त करना चाहिए और भविष्य की शुभ सम्भावनाओं की कल्पना करके सदा प्रमुदित होते रहना चाहिए। रोना एक अभिशाप है जो केवल अविवेकी लोगों को शोभा देता है। जिसे आत्मा के स्वरूप का ज्ञान है और परमात्मा की महत्ता, कुशलता और विनोद को समझता है उसे हँसने मुस्कराने की परिस्थितियों के अतिरिक्त और कुछ इस जीवन में अनुभव ही क्या हो सकता है?

~ महर्षि रमण
~ अखण्ड ज्योति जनवरी 1965 पृष्ठ 1

👉 जड़े गहरी जानी चाहिए

जापान में जहाँ देवदारु के पेड़ तीन-चार सौ फीट तक ऊँचे होते है, वहाँ कुछ ऐसे भी होते हैं जो बहुत पुराने होने पर भी दो-चार फीट के ही रह जाते हैं। इन बौने पेड़ों के बारे में मुझे बड़ा अचम्भा हुआ और उनके न बढ़ने का कारण मालूम किया तो बताया गया कि जापानी लोग जान बूझकर कौतूहलवश इन्हें छोटा बनाये रहते हैं, अपनी कारिस्तानी से बढ़ने नहीं देते। कारिस्तानी यह कि वे पेड़ की टहनियाँ और पत्तों को जरा भी नहीं छेड़ते पर उसकी जड़ों को जमीन में बढ़ने नहीं देते और उनकी बराबर काट-छाँट करते रहते हैं।

इंसानों में से अनेकों ऐसे होते हैं जिन्हें बहुत छोटा या ओछा कहा जाता है। जापान के देवदारु पेड़ों की तरह उनकी भी जड़ें भीतर ही भीतर कटती रहती हैं और वे बौनी जिन्दगी बिताते रहते हैं। जो पेड़ बढ़ना और फलना-फूलना चाहता है उसकी जड़ों को गहराई तक जाना जरूरी हैं। जो मनुष्य उन्नतिशील बनना चाहता है उसके लिए यही उचित है कि अन्तरात्मा की जमीन में सद्गुणों को जड़ों की निरन्तर बढ़ाता चले, जब तक जड़ें न बढ़ेंगी पेड़ के बढ़ने और फलने फूलने की आशा कैसे की जा सकती है?

~ स्वामी रामतीर्थ
~ अखण्ड ज्योति सितम्बर 1963 पृष्ठ 1

👉 देने से ही मिलता है

यदि हम कुछ प्राप्त करना चाहते हैं तो उसका एक ही उपाय है- ‘देने के लिए तैयार होना।’ इस जगत में कोई वस्तु बिना मूल्य नहीं मिलती। हर वस्तु का पूरा-पूरा मूल्य चुकाना पड़ता है। जो देना नहीं चाहता वरन् लेने की योजनाएं ही बनाता रहता है वह सृष्टि के नियमों से अनजान ही कहा जायेगा।

यदि समुद्र बादलों को अपना जल देना न चाहे तो उसे नदियों द्वारा अनन्त जल राशि प्राप्त करते रहने की आशा छोड़ देनी पड़ेगी। कमरे की किवाड़ें और खिड़कियाँ बंद करली जायें तो फिर स्वच्छ वायु का प्रवेश वहाँ कैसे हो सकेगा? जो मलत्याग नहीं करना चाहता उसके पेट में तनाव और दर्द बढ़ेगा, नया, सुस्वादु भोजन पाने का तो उसे अवसर ही न मिलेगा। झाडू न लगाई जाय तो घर में कूड़े के ढेर जमा हो जायेंगे। जिस कुंए का पानी खींचा नहीं जाता उसमें सड़न ही पैदा होती है।

त्याग के बिना प्राप्ति की कोई सम्भावना नहीं। घोर परिश्रम करने के फलस्वरूप ही विद्यार्थी को विद्या, व्यापारी को धन, उपकारी को यज्ञ और साधक को ब्रह्म की प्राप्ति होती है। कर्त्तव्य पालन करने के बदले में अधिकार मिलता है और निःस्वार्थ प्रेम के बदले में दूसरों का हृदय जीता जाता है। जो लोग केवल पाना ही चाहते हैं देने के लिए तैयार नहीं होते उन्हें मिलता कुछ नहीं, खोना पड़ता है।

आनन्द देने में है। जो जितना देता है उससे अनेक गुना पाता है। पाने का एकमात्र उपाय यही है कि हम देने के लिए तैयार हों। जो जितना अधिक दे सकेगा उसे उसके अनेक गुना मिलेगा। इस जगत का यही नियम अनादि काल से बना और चला आ रहा है। जो इसे जान लेते हैं उन्हें परिपूर्ण तृप्ति पाने की साधना सामग्री भी प्राप्त हो जाती है।

~ स्वामी विवेकानन्द
~ अखण्ड ज्योति नवम्बर 1963 पृष्ठ 1

👉 जीवन का स्वरूप और अर्थ

जीवन का अर्थ है आशा, उत्साह और गति। आशा, उत्साह और गति का समन्वय यही जीवन है। जिसमें जीवन का अभाव है उसमें इन तीनों गुणों का न होना निश्चित है। साथ ही जिनमें यह गुण परिलक्षित न हों समझ लेना चाहिए कि उनमें जीवन का तत्व नष्ट हो चुका है।

 केवल श्वास-प्रश्वास का आवागमन अथवा शरीर में कुछ हरकत होते रहना ही जीवन नहीं कहा जा सकता। जीवन की अभिव्यक्ति ऐसे सत्कर्मों में होती है, जिससे अपने तथा दूसरों के सुख में वृद्धि हो!

अपनी वर्तमान परिस्थिति से आगे बढ़ना, आज से बढ़कर कल पर अधिकार करना, अच्छाई को शिर पर और बुराई को पैरों तले दबाकर चलने का नाम जीवन है। कुकर्म करने तथा बुराई को प्रश्रय देने वाला मनुष्य जीवित दीखता हुआ भी मृत ही है। क्योंकि कुकर्म और कुविचार मृत्यु के प्रतिनिधि हैं इनको आश्रय देने वाला मृतक के सिवाय और कौन हो सकता है।

~ सुब्रह्मण्य भारती
~ अखण्ड ज्योति फरवरी 1966 पृष्ठ 1

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...