मंगलवार, 28 जुलाई 2020

👉 साक्षी की साधना

बुद्ध के पास एक राजकुमार दीक्षित हो गया, दीक्षा के दूसरे ही दिन किसी श्राविका के घर उसे भिक्षा लेने बुद्ध ने भेज दिया। वह वहां गया। रास्ते में दोत्तीन घटनाएं घटीं लौटते आते में, उनसे बहुत परेशान हो गया। रास्ते में उसके मन में खयाल आया कि मुझे जो भोजन प्रिय हैं, वे तो अब नहीं मिलेंगे। लेकिन श्राविका के घर जाकर पाया कि वही भोजन थाली हैं जो उसे बहुत प्रीतिकर हैं। वह बहुत हैरान हुआ। फिर सोचा संयोग होगा, जो मुझे पसंद है वही आज बना होगा। वह भोजन करता है तभी उसे खयाल आया कि रोज तो भोजन के बाद में विश्राम करता था दो घड़ी, आज तो फिर धूप में वापस लौटना है। लेकिन तभी उस श्राविका ने कहा कि भिक्षु बड़ी अनुकंपा होगी अगर भोजन के बाद दो घड़ी विश्राम करो। बहुत हैरान हुआ। जब वह सोचता था यह तभी उसने यह कहा था, फिर भी सोचा संयोग कि ही बात होगी कि मेरे मन भी बात आई और उसके मन में भी सहज बात आई कि भोजन के बाद भिक्षु विश्राम कर ले।

चटाई बिछा दी गई, वह लेट गया, लेटते ही उसे खयाल आया कि आज न तो अपना कोई साया है, न कोई छप्पर है अपना, न अपना कोई बिछौना है, अब तो आकाश छप्पर है, जमीन बिछौना है। यह सोचता था, वह श्राविका लौटती थी, उसने पीछे से कहा:  भंते! ऐसा क्यों सोचते हैं? न तो किसी की शय्या है, न किसी का साया है। अब संयोग मानना कठिन था, अब तो बात स्पष्ट थी। वह उठ कर बैठ गया और उसने कहा कि मैं बड़ी हैरानी में हूं, क्या मेरे विचार तुम तक पहुंच जाते हैं? क्या मेरा अंतःकरण तुम पढ़ लेती हो? उस श्राविका ने कहा:  निश्चित ही। पहले तो, सबसे पहले स्वयं के विचारों का निरीक्षण शुरू किया था, अब तो हालत उलटी हो गई, स्वयं के विचार तो निरीक्षण करते-करते क्षीण हो गए और विलीन हो गए, मन हो गया निर्विचार, अब तो जो निकट होता है उसके विचार भी निरीक्षण में आ जाते हैं। वह भिक्षु घबड़ा कर खड़ा हो गया और उसने कहा कि मुझे आज्ञा दें, मैं जाऊं, उसके हाथ-पैर कंपने लगे। उस श्राविका ने कहा:  इतने घबड़ाते क्यों हैं? इसमें घबड़ाने की क्या बात है? लेकिन भिक्षु फिर रुका नहीं। वह वापस लौटा, उसने बुद्ध से कहा:  क्षमा करें, उस द्वार पर दुबारा भिक्षा मांगने मैं न जा सकूंगा।

बुद्ध ने कहा:  कुछ गलती हुई? वहां कोई भूल हुई?

उस भिक्षु ने कहा:  न तो भूल हुई, न कोई गलती, बहुत आदर-सम्मान और जो भोजन मुझे प्रिय था वह मिला, लेकिन वह श्राविका, वह युवती दूसरे के मन के विचारों को पढ़ लेती है, यह तो बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि उस सुंदर युवती को देख कर मेरे मन में तो कामवासना भी उठी, विकार भी उठा था, वह भी पढ़ लिया गया होगा? अब मैं कैसे वहां जाऊं? कैसे उसके सामने खड़ा होऊंगा? मैं नहीं जा सकूंगा, मुझे क्षमा करें!

बुद्ध ने कहा:  वहीं जाना पड़ेगा। अगर ऐसी क्षमा मांगनी थी तो भिक्षु नहीं होना था। जान कर वहां भेजा है। और जब तक मैं न रोकूंगा, तब तक वहीं जाना पड़ेगा, महीने दो महीने, वर्ष दो वर्ष, निरंतर यही तुम्हारी साधना होगी। लेकिन होशपूर्वक जाना, भीतर जागे हुए जाना और देखते हुए जाना कि कौनसे विचार उठते हैं, कौन सी वासनाएं उठती हैं, और कुछ भी मत करना, लड़ना मत जागे हुए जाना, देखते हुए जाना भीतर कि क्या उठता है, क्या नहीं उठता।

वह दूसरे दिन भी वहीं गया।  वह भिक्षु अपने मन को देख रहा है, जागा हुआ है, आज पहली दफा जिंदगी में वह जागा हुआ चल रहा है सड़क पर, जैसे-जैसे उस श्राविका का घर करीब आने लगा, उसका होश बढ़ने लगा, भीतर जैसे एक दीया जलने लगा और चीजें साफ दिखाई पड़ने लगीं और विचार घूमते हुए मालूम होने लगे। जैसे उसकी सीढ़ियां चढ़ा, एक सन्नाटा छा गया भीतर, होश परिपूर्ण जग गया। अपना पैर भी उठाता है तो उसे मालूम पड़ रहा है, श्वास भी आती-जाती है तो उसके बोध में है। जरा सा भी कंपन विचार का भीतर होता है, लहर उठती है कोई वासना की, वह उसको दिखाई पड़ रही है। वह घर के भीतर प्रविष्ट हुआ, मन में और भी गहरा शांत हो गया, वह बिलकुल जागा हुआ है। जैसे किसी घर में दीया जल रहा हो और एक-एक चीज, कोना-कोना प्रकाशित हो रहा हो।

वह भोजन को बैठा, उसने भोजन किया, वह उठा, वह वापस लौटा, वह उस दिन नाचता हुआ वापस लौटा। बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा:  अदभुत हुई बात। जैसे-जैसे मैं उसके निकट पहुंचा और जैसे-जैसे मैं जागा हुआ हो गया, वैसे-वैसे मैंने पाया कि विचार तो विलीन हो गए, कामनाएं तो क्षीण हो गईं, और मैं जब उसके घर में गया तो मेरे भीतर पूर्ण सन्नाटा था, वहां कोई विचार नहीं था, कोई वासना नहीं थी, वहां कुछ भी नहीं था, मन बिलकुल शांत और निर्मल दर्पण की भांति था।

बुद्ध ने कहा:  इसी बात के लिए वहां भेजा था, कल से वहां जाने की जरूरत नहीं। अब जीवन में इसी भांति जीओ, जैसे तुम्हारे विचार सारे लोग पढ़ रहे हों। अब जीवन में इसी भांति चलो, जैसे जो भी तुम्हारे सामने है, वह जानता है, तुम्हारे भीतर देख रहा है। इस भांति भीतर चलो और भीतर जागे रहो। जैसे-जैसे जागरण बढ़ेगा, वैसे-वैसे विचार, वासनाएं क्षीण होती चली जाएंगी। जिस दिन जागरण पूर्ण होगा उस दिन तुम्हारे जीवन में कोई कालिमा, कोई कलुष रह जाने वाला नहीं है। उस दिन एक आत्म-क्रांति हो जाती है। इस स्थिति के जागने को, इस चैतन्य के जागने को मैं कह रहा हूं।

👉 मनुष्य जाति को बचाना है

इन दिनों जन-मानस पर छाई हुई दुर्बुद्धि जीवन के हर क्षेत्र को बुरी तरह संकटापन्न बना रही है। स्वास्थ्य, सन्तुलन, परिवार, अर्थ-उपयोग, पारस्परिक सद्भाव, समाज, राष्ट्र, धर्म, अध्यात्म जैसे किसी भी क्षेत्र को उसने विकृतिग्रस्त बनाने से अछूता छोड़ा नहीं है। फलतः बाहर ठाठ-बाट बढ़ जाने पर भी सर्वत्र खोखलापन और अधःपतन ही दृष्टिगोचर हो रहा है। विश्व की विभिन्न समस्याओं की जड़ में यह विकृत बुद्धि ही काम कर रही है। हमें अपने युग के इसी असुर से लोहा लेना है। यह अदृश्य दानव भूतकाल के रावण, कंस, हिरण्यकश्यप, वृत्रासुर, महिषासुर आदि सभी से बढ़ा-चढ़ा है। उनने थोड़े से क्षेत्र को ही प्रभावित किया था, इसने मनुष्य जाति के अधिकाँश सदस्यों को जकड़ लिया है। बात भलमनसाहत की भी खूब चलती है, पर भीतर ही भीतर जो पकता है उसकी दुर्गन्ध से नाक सड़ने लगती है।

यदि मनुष्य जाति के भविष्य को बचाना है तो अवाँछनीयता, अनैतिकता, मूढ़ता और दुष्टता से पग-पग पर लोहा लेना पड़ेगा। ज्ञान-यज्ञ का, विचार क्रान्ति अभियान का, युग-निर्माण योजना का, युगान्तर चेतना का अवतरण इसी प्रयोजन के लिए हुआ है। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण प्रत्यक्ष देखने के लिए हमारे प्रयास चल रहें हैं। यह सार्वभौम और सर्वजनीन प्रयास है। उथली राजनीति वर्गगत, फलगत, क्षुद्र प्रयोजनों से हमारा दूर का भी नाता नहीं है। हमें दूरगामी और मानवी चेतना को परिष्कृत करने वाली सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को बोना, उगाना और परिपुष्ट करना है। इसके लिए अनेकों प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं सुधारात्मक कार्य करने के लिए पड़े हैं। जो हो रहा है उससे अनेकों गुनी सामर्थ्य, साहस और साधन समेट कर आगे बढ़ चलने की आवश्यकता है और यह प्रयास हमीं अग्रदूतों को आगे बढ़कर अपने कन्धों पर उठाना चाहिए।

यह कार्य तभी सम्भव है जब हममें से प्रत्येक अपनी अन्यमनस्कता एवं उपेक्षा पर लज्जित हो और अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करने का साहस समेटे। समय दिये बिना-आर्थिक अंशदान के लिए उत्साह सँजोये बिना यह कार्य और किसी तरह हो ही नहीं सकता। धर्म-मंच से लोक-शिक्षण प्रक्रिया के अन्तर्गत बीस सूत्री कार्यक्रम बताये जाते रहे हैं। अन्य सामयिक कार्यक्रमों के लिए पाक्षिक युग-निर्माण योजना में निर्देश एवं समाचार छपते रहते हैं। स्थानीय आवश्यकता एवं अपनी परिस्थिति को देखकर इनमें से कितने ही कार्य हाथ में लिये जा सकते हैं। यह पूछना व्यर्थ है कि आदेश दिया जाय कि हम क्या करें?

अपने घर से आरम्भ करके सार सम्पर्क क्षेत्रों में ज्ञान-घटों की स्थापना और उनका सुसंचालन, झोला पुस्तकालय, चल पुस्तकालय, जन्म-दिन, पर्व संस्कारों के आयोजन, तीर्थयात्रा, शाखा का वार्षिकोत्सव, महिला शाखा की स्थापना जैसे कितने ही कार्य ऐसे हैं जिन्हें आलस्य छोड़ने और थोड़ा उत्साह जुटा लेने से ही तत्काल आरम्भ किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रौढ़ पाठशालाएँ, व्यायामशालाएँ, वृक्षारोपण, पुस्तकालय स्थापना जैसे अनेकों रचनात्मक और दहेज, मृत्युभोज, नशा, जाति और लिंग भेद के नाम पर चलने वाली असमानता, भिक्षा व्यवसाय, आर्थिक भ्रष्टाचार, अनाचार, प्रतिरोध जैसे अनेकों सुधारात्मक काम करने के लिए पड़े हैं। जिन्हें कभी भी कोई भी आरम्भ कर सकता है और अपने साथी जुटा कर इन्हें सफल अभियान का रूप दे सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर १९७६

👉 The Perennial Law of Mental Evolution

The quality of our mental inscriptions and hence the nature of our mind depends upon what kinds of thoughts dominate our thinking most often. An empty mind is said to be a devil’s house whereas a mind engaged in creative works and righteous, constructive, deeper thinking is sure to sharpen, brighten and expand its capabilities.

You must ponder over this fact that your mental evolution is in your hands. Short-temperedness enhances the tendencies of anger, harmful excitations. Worries, tensions, gloom, despair and similar kinds of negative instincts weaken your mind further. So step plunging into the untoward memories of the past and do not let your mind roam in vulgar, erotic, revengeful, depressing or arbitrary imaginations.

Positive, optimistic and reasoned thinking educes new joy and energy in your mind and motivates it for constructive actions; this is also the key to sharpening the intellect. In short, our thoughts are the hidden rulers of our life. Concentration of mind upon a focused objective and associated thoughts augment its corresponding skills and potentials. This is how one becomes an expert in specific talent or field of knowledge…

📖  Akhand Jyoti, July 1946

👉 विरोध न करना पाप का परोक्ष समर्थन (भाग ४)

यज्ञ सन्दर्भ में एक श्रुति वचन प्रयोग होता है- ‘‘मन्यु रसि मन्यु मे दहि’’ हे भगवान् आप ‘मन्यु’ हैं हमें ‘मन्यु’ प्रदान करें। मन्यु का अर्थ है वह क्रोध जो अनाचार के विरोध में उमंगता है। निन्दित क्रोध वह है जो व्यक्तिगत कारणों से अहंकार की चोट लगने पर उभरता है और असंतुलन उत्पन्न करता है। किन्तु जिसमें लोक-हित विरोधी अनाचार को निरस्त करने का विवेकपूर्ण संकल्प जुड़ा होता है वह ‘मन्यु’ है। मन्यु में तेजस्विता, मनस्विता और ओजस्विता के तीनों तत्व मिले हुए हैं। अस्तु वह क्रोध के समतुल्य दीखने पर भी ईश्वरीय वरदान के तुल्य माना गया है और उसकी गणना उच्च आध्यात्मिक उपलब्धियों से की गई है।

राजा द्रुपद के अनाचारों से क्षुब्ध उनके सहपाठी, द्रौणाचार्य राज सभा में इसलिए गये कि अपनी बात मित्रता का परिचय देते हुए उसके शुभ-चिंतन की बात कहेंगे और कुमार्ग से पीछे हटाने का प्रयत्न करेंगे। पर हुआ ठीक उलटा। मदान्ध द्रुपद उनके उपदेश सुनने तक के लिए तैयार नहीं हुए और अपमानित करके उन्हें सभा भवन में से निकलवा दिया।
 
द्रौणाचार्य ने विवेक नहीं खोया। द्रुपद समझाने की सज्जनोचित रीति से नहीं मानते तो उन्हें दण्ड की दुर्जनों पर प्रयुक्त होने वाली प्रक्रिया का सहारा लेंगे। हर हालत में उन्हें सीधे रास्ते पर लाने का प्रयत्न जारी रखेंगे। इस निश्चय से साथ वे पाण्डवों को पढ़ाने लग गये। जब छात्र बड़े हुए और गुरु दक्षिणा देने की बात कही तो उनने एक ही उत्तर दिया कि- ‘‘द्रुपद के अहंकार को नीचे गिराना और उसे सुधारना है, इसलिए उसे पकड़ कर मुख बांधकर मेरे सामने ले आओ।’’ शिष्यों ने वही किया। द्रुपद पर आक्रमण हुआ। उन्हें हराया गया और रस्सों से जकड़ कर गुरु के सामने प्रस्तुत किया गया। द्रौणाचार्य ने कहा- ‘राजन् अहंकार और अनीति अभी भी छोड़ी जानी है या नहीं?’ द्रुपद रो पड़े उनने दोनों दुष्टताएं छोड़ दीं। साथ ही स्वयं भी बन्धन मुक्त हो गये। महाभारत की इस कथा में यह प्रेरणा है कि दुष्टता से उभरने पर मौन नहीं बैठे रहना चाहिए। मीठे उपाय सफल न हों तो कडुए भी अपनाये जा सकते हैं। हर हालत में अनाचार का तो अंत होना ही चाहिए।

वैयक्तिक पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में छद्मवेशों से छिपे हुए भ्रष्टाचार का अंत तब तक नहीं हो सकता, जब तक उनके प्रति जन-आक्रोश न जगाया जाय। आज तो स्थिति यह हो गई है कि उचित-अनुचित का भेद तक करना, लोग भूलते जाते हैं और किसके साथ सहयोग करना, किसके साथ न करना इस विवेक को खो जाते हैं। जिसके साथ जिसकी मित्रता है, वह उसके पाप अनाचार का भी चित्र-विचित्र तर्कों से समर्थन करता है। नैतिक दृष्टि से यह अत्यन्त ही दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति है। मित्रता के प्रमुख लक्षणों में रामायण कार ने ‘‘कुपथ निवार सुपंथ चलावा’’ का सूत्र दिया है। सच्चा मित्र वह है जो मीठे, कडुए उपायों से उसकी अनैतिक प्रवृत्तियों को सुधारें, गलत मार्ग पर चलने से रोकें और सन्मार्ग की दिशा में प्रवृत्त करें, जो उसकी उपेक्षा बरतता है अथवा समर्थन, सहयोग करता है, वह प्रकारान्तर से अपने मित्र को अधिक भ्रष्ट करने में- अधिक पतित, निन्दित एवं दुःखों के गर्त में डुबाने के लिए प्रवृत्त है। ऐसा व्यक्ति मित्र होने का दावा करते हुए भी असल में उसका पक्का दुश्मन है। सुधार प्रक्रिया में यह समर्थन ही सबसे बड़ी बाधा है। ऐसे मित्र नामधारी, व्यक्ति अपने मित्र के साथ ही अपना भी लोक-परलोक बिगाड़ते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर १९७६

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...