मंगलवार, 27 जून 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 27 June 2023

जिन आन्दोलनों के पीछे तप नहीं होता वह कुछ समय के लिए तूफान भले ही मचा ले, पर अंत में वे असफल हो जाते हैं। जिन आत्माओं के पीछे तपस्या नहीं रहतीं वे कितनी ही चतुर, चालाक, गुणी, धनी क्यों न हो, महापुरुषों की श्रेणी में नहीं गिनी जा सकतीं। वे मनुष्य जिन्होंने मानव जाति को ऊँचा उठाया है, संसार की अशान्ति को दूर करके शान्ति की स्थापना की है, अपना नाम अमर किया है, युग प्रवाह को मोड़ा है, वे तप-शक्ति से संपन्न रहे हैं।

हमारा कर्त्तव्य है कि हम लोगों को विश्वास दिलावें कि वे सब एक ही ईश्वर की संतान हैं और इस संसार में एक ही ध्येय को पूरा करना उनका धर्म है। उनमें से प्रत्येक मनुष्य इस बात के लिए बाधित है कि वह अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जिन्दा रहे। जीवन का ध्येय कम या ज्यादा संपन्न होना नहीं, बल्कि अपने को तथा दूसरों को सदाचारी बनाना है। अन्याय और अत्याचार जहाँ कहीं भी हों उनके विरुद्धा आन्दोलन करना एकमात्र अधिकार नहीं, धर्म है और वह भी ऐसा धर्म जिसकी उपेक्षा करना पाप है।

लोगों की आँखों से हम दूर हो सकते हैं, पर हमारी आँखों से कोई दूर न होगा। जिनकी आँखों में हमारे प्रति स्नेह और हृदय में भावनाएँ हैं, उन सबकी तस्वीरें हम अपने कलेजे में छिपाकर ले जायेंगे और उन देव प्रतिमाओं पर निरन्तर आँसुओं का अर्ध्य चढ़ाया करेंगे। कह नहीं सकते उऋण होने के लिए प्रत्युपकार का कुछ अवसर मिलेगा या नहीं, पर यदि मिला तो अपनी इस देव प्रतिमाओं को अलंकृत और सुसज्जित करने में कुछ उठा न रखेंगे। लोग हमें भूल सकते हैं, पर अपने किसी स्नेही को नहीं भूलेंगे।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 जीवन के उतार-चढावों पर उद्विग्न न हों। (भाग 1)

यों तो जरा−जरा सी बात पर दुःखी होना बहुत से लोगों का स्वभाव होता है। यह स्वभाव किसी प्रकार भी वाँछनीय नहीं माना जा सकता। मनुष्य आनन्दस्वरूप है, उसका दुःखी होना क्या? उसे तो हर समय प्रसन्न, आनन्दित तथा उत्साहित ही रहना चाहिए। यही उसके लिए वाँछनीय है और यही जीवन की विशेषता। इस स्वभाव के अतिरिक्त लोग तब तो अवश्य ही दुःखी रहने लगते हैं, जब वे किसी उच्च स्थिति से नीचे उतर जाते हैं। इस दशा में वे अपने दुःखावेग पर नियन्त्रण नहीं कर पाते और फूल जैसे जीवन में ज्वाला का समावेश कर लेते हैं। जब कि उस उतार की स्थिति में भी दुःख−शोक की उपासना करना अनुचित है।

उतार की स्थिति में दुःखी होना तभी ठीक है। जब वह उतार पतन के रूप में घटित हुआ हो। और यदि उसका घटना नियति में नियम ‘परिवर्तन’, ईश्वर की इच्छा, प्रारब्ध अथवा दुष्टों की दुरभिसंधियों के कारण हुआ हो तो कदापि दुःखी न होना चाहिए। तब तो दुःख के स्थान पर सावधानी को ही आश्रित करना चाहिए। पतन के रूप में उतार का घटित होना अवश्य खेद और दुःख की बात है। उदाहरण के लिए किसी परीक्षा को ले लीजिए, यदि परीक्षार्थी ने अपने अध्ययन, अध्यवसाय और परिश्रम में कोताही रखी है। समय पर नहीं जागा, आवश्यक पाठ आत्मसात नहीं किये, गुरुओं के निर्देश और परामर्शों पर ध्यान नहीं दिया। अपना उत्तरदायित्व अनुभव नहीं किया और असावधानी तथा लापरवाही बरती है तो उसका फेल हो जाना खेद, दुःख व आत्महीनता का विषय है। उसे अपने इस किए का दुःख रूपी दण्ड मिलना ही चाहिए। वह इसी योग्य था। उसके साथ न किसी को सहानुभूति होनी चाहिए और न उसे सान्त्वना और आश्वासन का सहयोग ही मिलना चाहिए।

किन्तु उस पुरुषार्थी विद्यार्थी को दुःख से अभिभूत होना उचित नहीं, जिसने पूरी मेहनत की है और पास होने की सारी शर्तों का निर्वाह किया है। बात अवश्य कुछ उल्टी लगती है कि जिसने परिश्रम नहीं किया, वह तो अनुत्तीर्ण होने पर दुःखी हो और जिसने खून−पसीना एक करके तैयारी की वह असफल हो जाने पर दुःखी न हो। किन्तु हितकर नीति यही है कि योग्य विद्यार्थी को असफलता पर दुःखी नहीं होना चाहिए। इसलिए कि उसके सामने उसका उज्ज्वल भविष्य होता है। दुःख और शोक से अभिभूत हो जाने पर वह निराशा के परदे में छिप सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 56


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